Thursday, 31 December 2020

नए साल में फ़ैज़ की याद



ऐ नए साल बता, तुझ में नयापन क्या है?
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूं शोर मचा रक्खा है?

रौशनी दिन की वो ही तारों भरी रात वो ही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वो ही

आसमाँ बदला है अफ़सोस न बदली है ज़मीं
एक हिंदसे* का बदलना कोई जिद्दत** तो नहीं

अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किसे मालूम नहीं बारह महीने तेरे

जनवरी, फ़रवरी और मार्च में पड़ेगी सरदी
और अप्रैल, मई और जून में होगी गरमी

तेरा मन दहर में कुछ खोएगा कुछ पाएगा
अपनी मीयाद बसर करके चला जाएगा

तू नया है तो दिखा सुब्ह नई, शाम नई
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई

बे-सबब लोग देते हैं क्यूँ मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी बातें

तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ से सब की
फ़ैज़ ने लिक्खी है ये नज़्म निराले ढब की

(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
--
अर्थ : हिंदसा = अंक, number; जिद्दत = नयापन

6 साल पहले Asad Zaidi की वॉल से

साल नया

नया साल मुबारक- हूबनाथ



तारीख
पंचांग में फंसा अंक नहीं
न वक्त घड़ी की सूइयों का
ज़रखरीद गुलाम
इनके वजूद की खातिर
सूरज को जलना पड़ता है
चलना पड़ता है पृथ्वी को
अनंत अनजान पथपर
अनवरत
ऐसे में कोई साल
लेटे लेटे या बैठे बैठे
नया हो जाए
बड़ी ख़ूबसूरत ख़ुशफहमी है
जो खोए हैं
उन्हें ख़ुशफ़हमी मुबारक
जो तैयार हैं
ख़ुद को खोने
और जग को पाने के लिए
उनके साथ मिलकर
चलो बनाते हैं
मनाते नहीं
एक नया कोरा महकता 
इज़्ज़तदार साल
सिर उठाकर
मुट्ठियां तानकर
मुस्कुराते हुए
सिर्फ अपने लिए नहीं
पूरी कायनात के लिए
और निर्मल निश्छल निर्भय मन से
सबसे कहते हैं
यह नया साल मुबारक हो
हम सबको

      

Photo from Manoj

नये साल की शुभकामनाएँ!

खेतों की मेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!

कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!

उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

नए वर्ष का संकल्प



चुप रहने या प्रचण्ड मूर्खता का प्रदर्शन करते हुए  फर्जी संकल्प लेने से बेहतर है - तीन कृषि कानून, पराली सम्बन्धी अध्यादेश एवम विजली कानून में हुए संशोधन का  बिना शर्त वापसी/रद्दीकरण के लिये  महीनों से चल रहे  फासीवादी मोदी सरकार के खिलाफ प्रचण्ड प्रतिरोध आंदोलन में  मजदूरों- किसानों के साथ, 2020 के नायक के साथ खड़ा रहे, 2020 के खलनायक फासीवादी मोदी सरकार और वतन के पूंजीवादी कॉर्पोरेट लुटेरों के साथ नही। 

Wednesday, 30 December 2020

दुष्यन्त कुमार : सादर स्मरण📚📚

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया,
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।

कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।


दुष्यंत कुमार

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अंधेरा देख आकाश के तारे ना देख।

एक दरिया है यहाँ दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें ना देख।

अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह,
यह हक़ीक़त देख मगर ख़ौफ़ के मारे ना देख।

वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें ना देख।

ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें ना देख।

राख कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई,
राख में चिंगारियां ही देख अंगारे ना देख।

दुष्यंत कुमार

Tuesday, 29 December 2020

मोदी सरकार ने तीन कृषि बिल

मोदी सरकार ने तीन कृषि बिल, बिजली कानून  में संशोधन और पराली जलाने पर किसानों पर भारी जुर्माना लगाने सम्बन्धी कानून पास किये गए है। क्या ये कृषि बिल/कानून  किसानो के विरोध में है जिसके चलते इसका व्यापक विरोध किसानों के द्वारा किया जा रहा है? किसान साथ मे एमएसपी सम्बंधित कानून बनाने की मांग भी कर रहे है। बुर्जुवा राज्य किसानों के आंदोलन/प्रतिरोध को ध्वस्त करने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा है।

कुछ लोगो का कहना है कि यह धनी किसानों/कुलको का आंदोलन है। और उनके द्वारा यह व्यापक प्रचार भी किया जा रहा है।

इस लिये क्या धनी किसानों के प्रतिरोध आंदोलन को कुचल दिया जाना चाहिये? 

उनका कहना है कि समाजवादी क्रांति की मंजिल में लेनिन ने ऐसी ही शिक्षा दी थी। 1919 के नवंबर में लिखे लेनिन के लेख से वे उद्धरित करते है :
Our task in the rural districts is to destroy the landowner and smash the resistance of the exploiter and the kulak profiteer. For this purpose we can safely rely only on the semi-proletarians, the "poor peasants". But the middle peasant is not our enemy. He wavered, is wavering, and will continue to waver. The task of influencing the waverers is not identical with the task of overthrowing the exploiter and defeating the active enemy. The task at the present moment is to come to an agreement with the middle peasant—while not for a moment renouncing the struggle against the kulak and at the same time firmly relying solely on the poor peasant—for a turn in our direction on the part of the middle peasants is now inevitable owing to the causes enumerated above.

This applies also to the handicraftsman, the artisan, and the worker whose conditions are most petty-bourgeois or whose views are most petty-bourgeois, and to many office workers and army officers, and, in particular, to the intellectuals generally.

VI Lenin on
The Valuable Admissions Of Pitirim Sorokin
Written: 20 November, 1918
First Published: 21 November 1918, Pravda No. 252

सर्वहारा राज्य के दौरान कुलको के प्रतिरोध को दबाये जाने की बात समझ मे आती है, लेकिन बुर्जवा राज्य में  कुलको के प्रतिरोध के सन्दर्भ में यह उद्धरण कैसे महत्वपूर्ण है, ये बात तो समझ के बाहर है।

निजीकरण, किसान

प्राइवेट चैनल आये, आज दूरदर्शन की क्या हालत है?
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प्राइवेट सिम आये,आज BSNL की क्या हालत है?
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प्राइवेट स्कूल आये, आज सरकारी स्कूलों की क्या हालत है?
✍️
प्राइवेट हास्पिटल आये, आज सरकारी हास्पिटल की क्या हालत है?
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प्राइवेट मंडियां आएंगी और किसान मालामाल हो जायेंगे, ये गजब तर्क  है ।
✍️
लेकिन फिर बुर्जवा राज्य द्वारा किये गए थोड़े से सरकारीकरण को बचाने तक की  लड़ाई तक सीमित क्यो रखा जाय?
✍️
निजी सम्पत्ति को पूरी तरह खत्म करने की समाजवादी लड़ाई  क्यो न तेज किया जाए?


केदारनाथ सिंह

"वह जो आपकी कमीज़ है
 किसी खेत में खिला
 एक कपास का फूल है
 जिसे पहन रखा है आपने!"

● केदारनाथ सिंह

[Courtesy : Pankaj Dixit  ji]
Pankaj Chaturvedi

छोटे किसान और लेनिन


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" पूंजीवाद पूंजीवाद न होता , यदि ' शुद्ध ' सर्वहारा वर्ग चारों ओर से सर्वहारा तथा ( आंशिक रूप से अपनी श्रमशक्ति बेचकर जीविका कमाने वाले  ) अर्धसर्वहारा और छोटे किसानों ( तथा छोटे दस्तकारों , कारीगरों और आम छोटे मिल्कियों ) के बीच के नानारंगी मध्यवर्ती किस्मों के लोगों से न घिरा होता ; यदि खुद सर्वहारा वर्ग अधिक विकसित तथा कम विकसित स्तरों में न बंटा होता , यदि यह क्षेत्र , व्यवसाय और कभी - कभी  धर्म आदि के आधार पर भी न बंटा होता । इन सारी बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सर्वहारा वर्ग के हरावल के लिए, उसके चेतन भाग के लिए,  कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह आवश्यक और पूरी तरह आवश्यक है कि वह सर्वहारागण के विभिन्न समूहों के साथ और मजदूरों तथा छोटे मिल्कियों की विभिन्न पार्टियों के साथ दांवपेंच,  सुलह-मसालहत और समझौते का सहारा ले । असली सवाल इस कार्यनीति को इस तरह इस्तेमाल कर सकना है कि सर्वहारा की वर्ग चेतना , क्रांतिकारी भावना और लड़ने तथा लड़कर जीतने की क्षमता के आम स्तर मे ह्रास नहीं बल्कि बढाव हो । "

            --- लेनिन  (  " वामपंथी" कम्युनिज्म - एक बचकाना मर्ज़  )

भगत सिंह

आंदोलन के उतार-चढ़ाव के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब एक-एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं, बिछुड़ जाते हैं। उस समय मनुष्य सान्त्वना के दो शब्दों के लिए भी तरस उठता हैं। ऐसे क्षणों में भी विचलित न होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते, कंधे नहीं झुकते, जो तिल -तिल करके अपने आपको इसलिए गलाते रहते हैं, इसलिए जलाते रहते हैं कि दीये की जोत मद्धिम न पड़ जाये, सुनसान डगर पर अँधेरा ना छा जाये,  ऐसे ही लोग मेरे सपनों को  साकार बना सकेंगे। 
- भगत सिंह

पहले वो आए

फ्रेडरिक गुसताव एमिल मार्टिन निमोलर (;14 जनवरी 1892 – 6 मार्च 1984) जर्मन -धर्म शाष्त्री और लूथार्वादी प्रचारक थे । वह अपनी कविता "पहले वो आए ..." के लिए आज भी चर्चा में हैं । 


*पहले वो आए* 


पहले वो आए कम्यूनिस्टों के लिए
मै खामोश रहा ,क्योंकि मै कम्यूनिस्ट नहीं था
फिर वो ट्रेड युनियन वालों के लिए आए
मै खामोश रहा ,क्योंकि मै ट्रेड युनियन में नहीं था
फिर वो यहूदीओं के लिए आए
मै खामोश रहा ,क्योंकि मै यहूदी नहीं था
फिर वो मेरे लिए आए
अब बोलने के लिए कोई नहीं बचा था

Monday, 28 December 2020

नाजिम हिकमत* की दो कवितायेँ


--–----------------1 ---------------------
*मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ* 


मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ
जैसे रोटी को नमक में डुबोना और खाना
जैसे तेज़ बुखार में रात में उठना
और टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीना
जैसे डाकिये से लेकर भारी डिब्‍बे को खोलना
बिना किसी अनुमान के कि उसमें क्‍या है
उत्‍तेजना, खुशी और सन्‍देह के साथ।
मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ
जैसे सागर के ऊपर से एक जहाज में पहली बार उड़ना
जैसे मेरे भीतर कोई हरकत होती है
जब इस्‍ताम्‍बुल में आहिस्‍ता-आहिस्‍ता अँधेरा उतरता है।
मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ
जैसे खुदा को शुक्रिया अदा करना हमें जिन्‍दगी अता करने के लिए।

_________2__________ 


 *जीना* 


जीना कोई हँसी-मजाक की चीज़ नहीं:
तुम्‍हें इसे संजीदगी से लेना चाहिए।
इतना अधिक और इस हद तक
कि, जैसे मिसाल के तौर पर, जब तुम्‍हारे हाथ बँधे हों
तुम्‍हारी पीठ के पीछे,
और तुम्‍हारी पीठ लगी हो दीवार से
या फिर, प्रयोगशाला में अपना सफेद कोट पहने
और सुरक्षा-चश्‍मा लगाये हुए भी,
तुम लोगों के लिए मर सकते हो --
यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके चेहरे
तुमने कभी देखे न हों,
हालाँकि तुम जानते हो कि जीना ही
सबसे वा‍स्‍तविक, सबसे सुन्‍दर चीज है।
मेरा मतलब है, तुम्‍हें जीने को इतनी
गम्‍भीरता से लेना चाहिए
कि जैसे, मिसाल के तौर पर, सत्‍तर की उम्र में भी
तुम जैतून के पौधे लगाओ -- 
और ऐसा भी नहीं कि अपने बच्‍चों के लिए,
लेकिन इसलिए, हालाँकि तुम मौत से डरते हो
तुम विश्‍वास नहीं करते इस बात का,
इसलिए जीना, मेरा मतलब है, ज्‍यादा कठिन होता है।

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे

फैज़ अहमद फैज़ की काल जयी नज़्म-"हम देखेंगे", जिसको इकबाल बानो ने ज़िया-उल-हक़ की फौजी तानाशाही के विरोध में गाया था,पढ़ें :-

"हम देखेंगे,
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे,
वो दिन कि जिसका वादा है,
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है,
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे,
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी,
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी,
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे,
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे,
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे।"

-फैज अहमद फैज।

मिर्ज़ा ग़ालिब की कुछ यादगार रचनाओं के अंश :


कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात-भर नहीं आती
आगे आती थी हाले-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
****
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्ही कहो कि ये अन्दाज़े-गुफ़्तगू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है
***
इशरत-ए-कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द  का  हद  से  गुज़रना  है  दवा  हो जाना ।
***
दिले-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है ।
मैं भी मुँह में ज़ुबान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है ।
हमको उनसे है वफ़ा की उम्मीद
जो नहीं जानता वफ़ा क्या है ।
जान तुझपर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है ।
***
हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के खुश रहने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
***
इश्क़ पे ज़ोर नहीं है ये आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बुझे ।

--------       आदित्य कमल

Sunday, 27 December 2020

मैं नहीं चाहता- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना


सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह
बाजार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा
एकान्त में किसी सूने वृक्ष के नीच
गिरकर सूख जाना बेहतर है।

मैं नहीं चाहता कि मुझे
झाड़-पोंछकर दूकान पर सजाया जाय,
दिन -भर मोल-तोल के बाद
फिर पेटियों में रख दिया जाय,
और फिर एक खरीदार से
दूसरे खरीदार की प्रतीक्षा में
यह जीवन अर्थहीन हो जाये।

#सर्वेश्वर_दयाल_सक्सेना की स्मृति में

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

"एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।"
~सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

क्रिसमस की रात और चार्ली चैपलिन की बात


---
चार्ली ने अपनी नृत्यांगना बेटी को एक मशहूर खत लिखा। कहा- मैं सत्ता के खिलाफ विदूषक रहा, तुम भी गरीबी जानो, मुफलिसी का कारण ढूंढो, इंसान बनो, इंसानों को समझो, जीवन में इंसानियत के लिए कुछ कर जाओ, खिलौने बनना मुझे पसंद नहीं बेटी। मैं सबको हंसा कर रोया हूं, तुम बस हंसते रहना। बूढ़े पिता ने प्रिय बेटी को और भी बहुत कुछ ऐसा लिखा।

मेरी प्यारी बेटी,
रात का समय है। क्रिसमस की रात। मेरे इस छोटे से घर की सभी निहत्थी लड़ाइयां सो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहन भी नीद की गोद में हैं। तुम्हारी मां भी सो चुकी है। मैं अधजगा हूं, कमरे में धीमी सी रौशनी है। तुम मुझसे कितनी दूर हो पर यकीन मानो तुम्हारा चेहरा यदि किसी दिन मेरी आंखों के सामने न रहे, उस दिन मैं चाहूंगा कि मैं अंधा हो जाऊं। तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो? वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। शरद ऋतु के आकाश में टिमटिमाते तारों की चमक मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूं। ऐसा लावण्य और इतना सुन्दर नृत्य। सितारा बनो और चमकती रहो। परन्तु यदि दर्शकों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिल की आवाज सुनना।
...मैं तुम्हारा पिता, जिरलडाइन! मैं चार्ली, चार्ली चेपलिन! क्या तुम जानती हो जब तुम नन्ही बच्ची थी तो रात-रातभर मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्लीपिंग ब्यूटी की कहानी सुनाया करता था। मैं तुम्हारे सपनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हारा भविष्य देखा है, मंच पर नाचती एक लड़की मानो आसमान में उड़ती परी। लोगों की करतल ध्वनि के बीच उनकी प्रशंसा के ये शब्द सुने हैं, इस लड़की को देखो! वह एक बूढ़े विदूषक की बेटी है, याद है उसका नाम चार्ली था।
...हां! मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! अब तुम्हारी बारी है! मैं फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और ये शाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम है। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिन्दगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कड़कड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था, जिरल्डाइन! उन जादुई रातों में जब मैं तुम्हें लोरी गा-गाकर सुलाया करता था और तुम नीद में डूब जाती थी, उस वक्त मैं जागता रहता था। मैं तुम्हारे चेहरे को निहारता, तुम्हारे हृदय की धड़कनों को सुनता और सोचता, चार्ली! क्या यह बच्ची तुम्हें कभी जान सकेगी? तुम मुझे नहीं जानती, जिरल्डाइन! मैंने तुम्हें अनगिनत कहानियां सुनाई हैं पर, उसकी कहानी कभी नहीं सुनाई। वह कहानी भी रोचक है। यह उस भूखे विदूषक की कहानी है, जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच-गाकर अपनी रोजी कमाता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गये सिक्कों से उसके आत्म सम्मान को छलनी होते हुए पर फिर भी मैं जिंदा हूं, इसीलिए फिलहाल इस बात को यही छोड़ते हैं।
...तुम्हारे बारे में ही बात करना उचित होगा जिरल्डाइन! तुम्हारे नाम के बाद मेरा नाम आता है चेपलिन! इस नाम के साथ मैने चालीस वर्षों से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहा नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और सम्पन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है? यदि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना। मैंने तुम्हारे खर्च के लिए पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, सोच समझकर खर्च करना।
...कभी कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि, मैं भी उन जैसी हूं। हां! तुम उनमें से ही एक हो बेटी!
...कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहुलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दर्शकों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोड़कर भाग जाना, टैक्सी पकड़ना और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुन्दर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं। उनकी सर्चलाईट चन्द्रमा है! अगर तुम्हें लगे कि इनमें से कोई तुमसे अच्छा नृत्य करती है तो तुम नृत्य छोड़ देना। हमेशा कोई न कोई बेहतर होता है, इसे स्वीकार करना। आगे बढ़ते रहना और निरंतर सीखते रहना ही तो कला है।
...मैं मर जाउंगा, तुम जीवित रहोगी। मैं चाहता हूं तुम्हें कभी गरीबी का एहसास न हो। इस खत के साथ मैं तुम्हें चेकबुक भी भेज रहा हूं ताकि तुम अपनी मर्जी से खर्च कर सको। पर दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है जिसे इसकी बेहद जरूरत है। ऐसे इंसान को तुम आसानी से ढूंढ सकती हो, बस पहचानने के लिए एक नजर की जरूरत है। मैं पैसे की इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि मैं इस राक्षस की ताकत को जानता हूं।
...हो सकता है किसी रोज कोई राजकुमार तुम्हारा दीवाना हो जाए। अपने खूबसूरत दिल का सौदा सिर्फ बाहरी चमक-दमक पर न कर बैठना। याद रखना कि सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है जो सबके लिए चमकता है। हां! जब ऐसा समय आये कि तुम किसी से प्यार करने लगो तो उसे अपने पूरे दिल से प्यार करना। मैंने तुम्हारी मां को इस विषय में तुम्हें लिखने को कहा था। वह प्यार के सम्बन्ध में मुझसे अधिक जानती है।
...मैं जानता हूं कि तुम्हारा काम कठिन है। तुम्हारा बदन रेशमी कपड़ों से ढका है पर कला खुलने के बाद ही सामने आती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। हो सकता है मेरे शब्द तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ें पर मेरे विचार में तुम्हारे अनावृत शरीर का अधिकारी वही हो सकता है जो तुम्हारी अनावृत आत्मा की सच्चाई का सम्मान करने का सामर्थ्य रखता हो।
...मैं ये भी जानता हूं कि एक पिता और उसकी सन्तान के बीच सदैव अंतहीन तनाव बना रहता है पर विश्वास करना मुझे अत्यधिक आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं। मैं सचमुच चाहता हूं कि इस क्रिसमस की रात कोई करिश्मा हो ताकि जो मैं कहना चाहता हूं वह सब तुम अच्छी तरह समझ जाओ।
...चार्ली अब बूढ़ा हो चुका है, जिरल्डाइन! देर सबेर मातम के काले कपड़ों में तुम्हें मेरी कब्र पर आना ही पड़ेगा। मैं तुम्हें विचलित नहीं करना चाहता पर समय-समय पर खुद को आईने में देखना उसमें तुम्हें मेरा ही अक्स नजर आयेगा। तुम्हारी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित है। जब मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त जम जाएगा तब तुम्हारी धमनियों में बहने वाला रक्त तुम्हें मेरी याद कराएगा। याद रखना, तुम्हारा पिता कोई फरिश्ता नहीं, कोई जीनियस नहीं, वह तो जिन्दगी भर एक इंसान बनने की ही कोशिश करता रहा। तुम भी यही कोशिश करना।

ढेर सारे प्यार के साथ 
चार्ली क्रिसमस 1965
Chandershekhar sir की वाल से साभार

देश बदल रहा है

चाय से  शुरू हुई थी ये सरकार…..
गाय पे अटक गई…
विकास की मम्मी  रास्ते में कही भटक गई…..
 लडकियां भाव खा रही हैं..
लडके धोखा खा रहे हैं…
पुलिस रिश्वत खा रही हैं…
नेता माल खा रहे हैं….
किसान जहर खा रहा है…
जवान गोली खा रहा है…
कौन कहता है कि भारत भूखा मर रहा है ???
  पलटू राम मुख्यमंत्री है
चाय वाला प्रधानमंत्री हैं
12वी पास देश की शिक्षा मंत्री हैं
अंगूठा टेक सरपंच
और
हम ग्रेजुएट डिप्लोमा वाले FACEBOOK WHATSAPP पर
ग्रुप-ग्रुप खेल रहे हैं
अकेला आदमी
परिवर्तन लाता हैऔर शादीशुदा
सब्जी लाता है
जिनको हम चुनते हैं…वो ही हमें धुनते हैं..
चाहे बीवी हो या नेता…दोनो कहाँ सुनते हैं..
"बुद्धी" का उपयोग करनेवाले जापान में…
603 किमी./घंटा रफ्तार वाली ट्रैन के बाद,
7G की टेस्टिंग शुरू हो चुकी है
और इंडिया में   "पढ़े-लिखे"
लोग 

Whatsapp पर 11 लोगों को

"ॐ नम: शिवाय:" भेजकर

फ्री बैलेंस और चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैं।।
और तो और नही भेजा तो
अप्रिय घटना की चेतावनी ओर दे देते है .
*पेट खाली* है 
और
…….. *योग* करवाया जा रहा है,
*जेब खाली* 
और…. *खाता* खुलवाया जा रहा है,
रहने का घर नहीं
और शौचालय* बनवाया जा रहा है.
गाँव मे *बिजली नही हैं
 और
… *डिजिटल India* बन रहा है.
कंपनीया सारी *विदेशी*
.मेक इन *India* कर रहा है
जाति कि *गंदगी दिमाग मे* है
 और 
 *स्वच्छ भारत* अभियान चल रहा है
*आटा* दिनो दिन महंगा हो रहा है,
और
……. *डाटा* सस्ता कर रहे है.
*सचमुच देश बदल रहा है

ग्रेट डिक्टेटर के अंत में चार्ली का भाषण का आखिरी हिस्सा...


"तुम ही असली अवाम हो, तुम्हारे पास ताकत है, ताकत मशीन बनाने की, ताकत खुशियाँ पैदा करने की, तुम्हारे पास जिन्दगी को आजाद और खूबसूरत बनाने की, इस जिन्दगी को एक अनोखा अभियान बना देने की ताकत है. तो आओ, लोकतंत्र के नाम पर इस ताकत का उपयोग करें, हम सब एक हो जाएं. एक नई दुनिया के लिए संघर्ष करें, एक खूबसूरत दुनिया, जहाँ इंसानों के लिए काम का अवसर हो, जो हमें बेहतर आनेवाला कल, लंबी उम्र और हिफाजत मुहय्या करे. धोखेबाज इन्हीं चीजों का वादा करके सत्ता पर काबिज हुए थे, लेकिन वे झूठे हैं. वे अपने वादे को पूरा नहीं करते और वे कभी करेंगे भी नहीं. तानाशाह खुद तो आजाद होते हैं, लेकिन बाकी लोगों को गुलाम बनाते हैं. आओ हम इन वादों को पूरा करवाने के लिए लड़ें. कौमियत की सीमाओं को तोड़ने के लिए, लालच को खत्म करने के लिए, नफरत और कट्टरता को जड़ से मिटने के लिए, दुनिया को आजाद कराने के लिए लड़ें. एक माकूल और मुकम्मिल दुनिया बनाने की लड़ाई लड़ें. एक ऐसी दुनिया जहाँ विज्ञान और तरक्की सबकी जिन्दगी में खुशहाली लाए...."

मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)




कैसी कम्पनी-सरकार आई है! ज़मीन से लेकर ज़मीर तक सब बिक रहा है ... मिर्ज़ा ग़ालिब


"ये बंद कराने आये थे तवायफ़ों के कोठे मग़र
सिक्कों की खनक देखकर खुद ही मुज़रा कर बैठे!"


हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले

कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले 

Saturday, 26 December 2020

अल्‍बर्ट आइंस्‍टीन और चार्ली चैपलिन

अल्‍बर्ट आइंस्‍टीन और चार्ली चैपलिन, दोनों ही अपने-अपने फन के उस्‍ताद। एक बार दोनों की मुलाक़ात हो गयी। उनके बीच एक  दिलचस्‍प संवाद हुआ, कुछ इस तरह ... 
आइंस्‍टीन  चार्ली चैपलिन से कहते हैं - आपकी कला में जिस चीज़ का मैं सबसे अधिक प्रशंसक हूं, वह है उसकी सर्वव्‍यापकता। आप एक शब्‍द भी नहीं बोलते फिर भी दुनिया समझ जाती है।
सही कहा आपने,  चैपलिन जवाब देते हैं- परन्‍तु आप की प्रसिद्धि तो और भी ज्‍़यादा है। सारी दुनिया आपकी प्रशंसक है जबकि आप जो बोलते हैं उसे कोई नहीं समझता। 

चार्ली चैपलिन

चार्ली चैपलिन ने एक चुटकुला सुनाया तो सभी लोग हँसने लगे.... 
चार्ली ने वही चुटकुला दोबारा सुनाया,  कुछ लोग फिर हँसे??? 
उन्होंने फिर वही सुनाया पर इस बार कोई नहीं हँसा...??? 
तब उन्होंने कुछ खास बात कही.. 
"जब आप एक ही चुटकुले पर बार-बार नहीं हँस नहीं सकते तो फिर आप एक ही चिंता पर बार बार रोते क्यों हैं"
इसलिए जीवन के हर पल का आनंद लो..!! 
जिंदगी बड़ी खूबसूरत है। 
(1) दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं.. हमारी परेशानियाँ भी नहीं। 
(2) मुझे बारिश में चलना पसंद है ताकि कोई मेरे आँसू न देख सके। 
(3) जीवन का सबसे व्यर्थ दिन वो है जिसमें हम हँसे नहीं। 
हँसते रहो और  जिन्हें आप मुस्कुराते 😀😀😀 देखना चाहते हो।

चार्ली चैपलिन

'ज़िन्दगी को क्लोज-अप में देखोगे तो यह सरासर ट्रेजडी नज़र आएगी। लॉन्ग शॉट में देखो तो यह कॉमेडी के सिवा कुछ भी नहीं। आप सचमुच हंसना चाहते हो तो दर्द को झेलने की नहीं, दर्द से खेलने की आदत डाल लो !' 

Friday, 25 December 2020

माओ त्से-तुंग

"हर आदमी एक न एक दिन ज़रूर मरता है, लेकिन हर आदमी की मौत की अहमियत अलग-अलग होती है I चीन के प्राचीन लेखक समा छ्येन ने कहा है, "मौत का सामना सब लोगों को सामान रूप से करना पड़ता है, परन्तु कुछ लोगों की मौत की अहमियत थाई पर्वत से भी ज्यादा भरी होती है और कुछ लोगों की पंख से भी ज्यादा हलकी I" जनता के लिए प्राण निछावर करना थाई पर्वत से भी ज्यादा भरी अहमियत रखता है ..."
--- माओ त्से-तुंग

*


The Chinese path

The Chinese path was good for China. But it is not sufficient for India where it is necessary to combine the proletarian struggle in the cities with the struggles of the peasants. Some think that the Chinese comrades are against such a combination. This is incorrect. Would Mao Zedong have been discontented if the workers of Shanghai had gone on strike when his army left for Nanking, or if the workers had struck work in the armaments factories? Of course not. But this did not take place as Mao Zedong's relations with the towns were severed. Of course, Mao Zedong would have been happy if the railwaymen had struck work and Chiang Kai-shek was deprived of the possibility of receiving projectiles. But there was an absence of relations with the workers – it was a grievous necessity, but it was not an ideal. It would be ideal if you strive for that which could not be done by the Chinese – to unite the peasant war with the struggle of the working class.

- J. V. Stalin

भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम-कार्ल मार्क्स



                 

"भारत के संबंध में अपनी टिप्पणियों को इस पत्र में मैं समाप्त कर देना चाहता हूं।
यह कैसे हुआ कि भारत के ऊपर अंगरेजों का आधिपत्य कायम हो गया ? महान मुगल की सर्वोच्च सत्ता को मुगल सूबेदारों ने तोड़ दिया था। सूबेदारों की शक्ति को मराठों ने नष्ट कर दिया था।मराठों की ताकत को अफगानों ने खतम किया,और जब सब एक दूसरे से लड़ने में लगे थे, तब अंगरेज घुस आए और उन सबको कुचल कर खुद स्वामी बन बैठे।एक देश जो न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में,बल्कि,कबीले- कबीले और वर्ण-वर्ण में भी बंटा हुआ हो;एक समाज जिसका ढांचा उसके तमाम सदस्यों के पारस्परिक विरोधों और वैधानिक अलगावों के ऊपर आधारित हो ऐसा देश और ऐसा समाज क्या दूसरों द्वारा फतह किए जाने के लिए ही नहीं बनाया गया था ?

भारत के पिछले इतिहास के बारे में यदि हमें जरा भी जानकारी न हो,तब भी क्या इस जबरदस्त और निर्विवाद तथ्य से हम इनकार कर सकेंगे कि इस क्षण भी भारत को,भारत के ही खर्च पर पलने वाली एक भारतीय फौज अंगरेजों का गुलाम बनाए हुए है ?अत:,भारत दूसरों द्वारा जीते जाने के दुर्भाग्य से बच नहीं सकता, और उसका संपूर्ण पिछला इतिहास अगर कुछ भी हो, तो वह उन लगातार जीतों का इतिहास है जिनका शिकार उसे बनना पड़ा है।भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है,कम से कम ज्ञात इतिहास तो बिलकुल ही नहीं है।जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में उन आक्रमण कारियों का इतिहास है जिन्होंने आकर उसके उस समाज के निष्क्रिय आधार पर अपने साम्राज्य कायम किए थे,जो न विरोध करता था,न कभी बदलता था। इसलिए,प्रश्न यह नहीं है कि अंगरेजों को भारत जीतने का अधिकार था या नहीं, बल्कि प्रश्न यह है कि क्या अंगरेजों की जगह तुर्कों,ईरानियों, रूसियों द्वारा भारत का फतह किया जाना हमें ज्यादा पसंद होता।

भारत में इंगलैंड को दोहरा काम करना है : एक ध्वंसा त्मक,दूसरा पुनर्रचनात्मक पुराने एशियाई समाज को नष्ट करने का काम और एशिया में पश्चिमी समाज के लिए भौतिक आधार तैयार करने का काम।अरब,तुर्क, तातार,मुगल,जिन्होंने एक के बाद दूसरे भारत पर चढाई की थी,जल्दी ही खुद हिंदुस्तानी बन गए थे : इतिहास के एक शाश्वत नियम के अनुसार बर्बर विजेता अपनी प्रजा की श्रेष्ठतर सभ्यता द्वारा स्वयं जीत लिए गए थे। 

अंगरेज पहले विजेता थे जिनकी सभ्यता श्रेष्ठतर थी, और,इसलिए,हिंदुस्तानी सभ्यता उन्हें अपने अंदर न समेट सकी।देशी बस्तियों को उजाड़ कर,देशी उद्योग-धंधों को तबाह कर और देशी समाज के अंदर जो कुछ भी महान और उदात्त था उस सबको धूल-धूसरित करके उन्होंने भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया।भारत में उनके शासन के इतिहास के पन्नों में इस विनाश की कहानी के अतिरिक्त और लगभग कुछ नहीं है।विध्वंस के खंडहरों में पुनर्रचना के कार्य का मुश्किल से ही कोई चिह्न दिखलाई देता है।फिर भी यह कार्य शुरू हो गया है।

पुनर्रचना की पहली शर्त यह थी कि भारत में राजनीतिक एकता स्थापित हो और वह महान मुगलों के शासन में स्थापित एकता से अधिक मजबूत और अधिक व्यापक हो।इस एकता को ब्रिटिश तलवार ने स्थापित कर दिया है और अब बिजली का तार उसे और मजबूत बनाएगा और स्थायित्व प्रदान करेगा। भारत अपनी मुक्ति प्राप्त कर सके और हर विदेशी आक्रमणकारी का शिकार होने से वह बच सके,इसके लिए आवश्यक था कि उसकी अपनी एक देशी सेना हो : अंगरेज ड्रिल-सार्जेंट ने ऐसी ही एक सेना संगठित और शिक्षित करके तैयार कर दी है। 

(एशियाई समाज में पहली बार स्वतंत्र अखबार कायम हो गए हैं।) इन्हें मुख्यतया भारतीयों और यूरोपियनों की मिली-जुली संतानें चलाती हैं और वे पुनर्निर्माण के एक नए और शाक्तिशाली साधन के रूप में काम कर रहे हैं। जमींदारी और रैयतवारी प्रथाओं के रूप में यद्यपि ये अत्यंत घृणित प्रथाएं हैं भूमि पर निजी स्वामित्व के दो अलग रूप कायम हो गए हैं; इससे एशियाई समाज में जिस चीज की (भूमि पर निजी स्वामित्व की प्रथा की अनु.) अत्यधिक आवश्यकता थी,उसकी स्थापना हो गई है। 

भारतीयों के अंदर से,जिन्हें अंगरेजों की देख-देख में कलकत्ते में अनिच्छापूर्वक और कम से कम संख्या में शिक्षित किया जा रहा है, और नया वर्ग पैदा हो रहा है जिसे सरकार चलाने के लिए आवश्यक ज्ञान और यूरोपीय विज्ञान की जानकारी प्राप्त हो गई है।भाप ने यूरोप के साथ भारत का नियमित और तेज संबंध कायम कर दिया है,उसने उसके मुख्य बंदर गाहों को पूरे दक्षिण-पूर्वी महासागर के बंदरगाहों से जोड़ दिया है,और उसकी उस अलगाव की स्थिति को खतम कर दिया है जो उसकी प्रगति न करने का मुख्य कारण थी। वह दिन बहुत दूर नहीं है जब रेलगाड़ियों और भाप से चलने वाले समुद्री जहाज इंगलैंड और भारत के बीच के फासले को,समय के माप के अनुसार,केवल आठ दिन का कर देंगे और वह वैभवशाली देश पश्चिमी संसार का सचमुच एक हिस्सा बन जाएगा।

ग्रेट ब्रिटेन के शासक वर्गों की भारत की प्रगति में अभी तक केवल आकस्मिक,क्षणिक और अपवाद रूप में ही दिलचस्पी रही है।अभिजात वर्ग उसे फतह करना चाहता था,थैलीशाहों का वर्ग उसे लूटना चाहता था,और मिल शाहों का वर्ग सस्ते दामों पर अपना माल बेच कर उसे बर्बाद करना चाहता था। लेकिन अब स्थिति एकदम उलटी हो गई है।मिलशाहों के वर्ग को पता लग गया है कि भारत को एक उत्पादन करने वाले देश में बदलना उनके अपने हित के लिए अत्यंत आवश्यक हो गया है,और यह कि,इस काम के लिए,सबसे पहले इस बात की आवश्य कता है कि वहां पर सिंचाई के साधनों और आवाजाही के अंदरूनी साधनों की व्यवस्था की जाए।अब वे भारत में रेलों का जाल बिछा देना चाहते हैं।और वे बिछा देंगे। इसका परिणाम क्या होगा, इसका उन्हें कोई अनुमान नहीं है।

यह तो कुख्यात है कि विभिन्न प्रकार की उपजों को लाने-ले जाने और उसकी अदला- बदली करने के साधनों के नितांत अभाव ने भारत की उत्पादक शक्ति को पंगु बना रखा है।अदला-बदली के साधनों के अभाव के कारण, प्राकृतिक प्रचुरता के मध्य ऐसी सामाजिक दरिद्रता हमें भारत से अधिक कहीं और दिखलाई नहीं देती।ब्रिटिश कॉमन्स सभा की एक समिति के सामने,जो 1848 में नियुक्त की गई थी,यह साबित हो गया था कि : खानदेश में जिस समय अनाज 6 शिलिंग से लेकर 8 शिलिंग फी क्वार्टर के भाव से बिक रहा था,उसी समय पूना में उसका भाव 64 शिलिंग से 70 शिलिंग तक का था,जहां पर अकाल के मारे लोग सड़कों पर दम तोड़ रहे थे,पर खानदेश से अनाज ले आना संभव नहीं था क्योंकि कच्ची सड़कें एकदम बेकार थीं।
रेलों के जारी होने से खेती के कामों में भी आसानी से मदद मिल सकेगी,क्योंकि जहां कहीं बांध बनाने के लिए मिट्टी की जरूरत होगी वहां तालाब बन सकेंगे,और पानी को रेलवे लाइन के सहारे विभिन्न दिशाओं में ले जाया जा सकेगा।इस प्रकार सिंचाई का,जो पूर्व में खेती की बुनियादी शर्त है,बहुत विस्तार होगा और पानी की कमी के कारण बार-बार पड़ने वाले स्थानीय अकालों से निजात मिल सकेगी। 

इस दृष्टि से देखने पर रेलों का आम महत्व उस समय और भी स्पष्ट हो जाएगा जब हम इस बात को याद करेंगे कि सिंचाई वाली जमीनें,घाट के नजदीक वाले जिलों में भी, बिना सिंचाई वाली जमीनों की तुलना में उतने ही रकबे के ऊपर तीन-गुना अधिक टैक्स देती हैं,दस या बारह गुना अधिक लोगों को काम देती हैं और उनसे बारह या पंद्रह गुना अधिक मुनाफा होता है।

रेलों के बनने से फौजी छावनियों की संख्या और उनके खर्चे में कमी करना भी संभव हो जाएगा।फोर्ट सेंट विलियम के टाउन मेजर, कर्नल वारेन ने कॉमन्स सभा की एक प्रवर समिति के सामने कहा था : यह संभावना कि जितने दिनों में, यहां तक कि हफ्तों में,देश के दूर-दूर के भागों से आजकल जो सूचनाएं आ पाती हैं,वे आगे से उतने ही में वहां से प्राप्त हो जाया करेंगी और इतने ही संक्षिप्त समय में फौजों और सामान के साथ वहां हिदायतें भेजी जा सकेंगी,यह ऐसी संभावना है जिसका महत्व कभी भी बहुत बढ़ाकर नहीं आंका जा सकता।

फौजों को तब और दूर-दूर की,और आज की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्यप्रद,छावनियों में रखा जा सकेगा और बीमारी के कारण जो बहुत सी जानें जाती हैं,उन्हें इस तरह बचा लिया जा सकेगा। तब विभिन्न गोदामों में इतना अधिक सामान रखने की भी जरूरत नहीं होगी और सड़ने-गलने और जलवायु के कारण नष्ट हो जाने से होने वाले नुकसान से भी बचा जा सकेगा।फौजों की कार्य- क्षमता के प्रत्यक्ष अनुपात में उनकी संख्या में भी कमी की जा सकेगी।

हम जानते हैं कि (भारत के) ग्रामीण स्थानीय संगठन और आर्थिक आधार छिन्न- विच्छिन्न हो गए हैं;लेकिन उनका सबसे बड़ा दुर्गुण समाज की एक ही जैसी घिसी-पिटी और विशृंखल इकाइयों में बिखरा होना उनकी जीवन-शक्ति के लुप्त हो जाने के बाद भी कायम है।गांवों के अलगाव की वजह से भारत में सड़कें नहीं पैदा हुईं,और सड़कों के अभाव ने गांवों के अलगाव को स्थायी बना दिया।इसी आधार पर एक समाज कायम था,जिसे जीवन की बहुत कम सुविधाएं प्राप्त थीं,जिसका दूसरे गांवों के साथ संपर्क लगभग नहीं के बराबर होता था,जिसमें उन इच्छा- आकांक्षाओं और प्रयत्नों का सर्वथा अभाव था जो सामाजिक प्रगति के लिए अनिवार्य होते हैं। 

अंगरेजों ने गांवों की इस आत्म-संतोषी निश्चलता को भंग कर दिया है,रेलें अब आने-जाने और संपर्क के साधनों की नई आवश्य कताओं को पूरा कर देंगी। इसके अलावा :रेल व्यवस्था का एक परिणाम यह भी होगा कि जिस गांव के पास से वह गुजरेगी उसमें दूसरे देशों के औजारों और मशीनों की ऐसी जानकारी वह करा देगी,और उन्हें प्राप्त करने के ऐसे साधनों से लैस कर देगी, जो पहले तो भारत के पुश्तैनी और वृत्तिग्राही ग्रामीण करेंगे, और फिर,उसकी कमियों को दूर कर देंगे।(चैपमेन,भारत की कपास और उसका व्यापार।)

मैं जानता हूं कि अंगरेज मिलशाह (कारखानेदार) केवल इसी उद्देश्य को सामने रखकर भारत में रेलें बनवा रहे हैं कि उनके जरिए अपने कारखानों के लिए कम खर्च में अधिक कपास और कच्चा माल वे हासिल कर सकें। लेकिन,एक बार जब आप किसी देश के एक ऐसे देश के जिसमें लोहा और कोयला मिलता है आवाजाही के साधनों में मशीनों का इस्तेमाल शुरू कर देते हैं,तब फिर उस देश को मशीनें बनाने से आप रोक नहीं सकते।

यह नहीं हो सकता कि एक विशाल देश में रेलों का एक जाल आप बिछाए रहें और उन औद्योगिक प्रक्रियाओं को आप वहां आरंभ न होने दें जो रेल यातायात की तात्कालिक और रोजमर्रा की आवश्यक ताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हैं।और इन औद्योगिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप,यह भी अवश्यंभावी है कि उद्योग की जिन शाखाओं का रेलों से कोई सीधा संबंध नहीं है उनमें भी मशीनों का उपयोग होने लगे।इसलिए,रेल व्यवस्था भारत में आधुनिक उद्योग की अग्रदूत बन जाएगी।ऐसा होना इसलिए और भी निश्चित है कि स्वयं ब्रिटिश अधिका रियों की राय के अनुसार हिंदुस्तानियों में बिलकुल नए ढंग के काम सीखने और मशीनों का आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने की विशिष्ट योग्यता है।

इस बात का प्रचुर प्रमाण कलकत्ते के सिक्के बनाने के कारखाने में काम करने वाले उन देशी इंजीनियरों की क्षमता और कौशल में मिलता है जो वर्षों से भाप से चलने वाली मशीनों पर वहां काम रहे हैं।इसका प्रमाण कोयले वाले इलाकों में भाप से चलने वाले इंजनों से संबंधित भारतीयों में भी मिलता है। और भी ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं।मिस्टर कैॅपबेल पर ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वग्रहों का बड़ा प्रभाव है, पर वे स्वयं भी इस बात को कहने के लिए मजबूर हैं कि :'भारतीय जनता के बहुसंख्यक समुदाय में जबरदस्त औद्योगिक क्षमता मौजूद है,पूंजी जमा करने की उसमें अच्छी योग्यता है और गणित संबंधी उसके मस्तिष्क की कुशाग्रता अद्भुत है,और हिसाब-किताब और तथ्य विज्ञान में वह बहुत सुगमता से दक्षता प्राप्त कर लेती है।' वह कहते हैं,'उनकी बुध्दि बहुत तीक्ष्ण होती है।'

रेल व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आधुनिक उद्योग-धंधे उस पुश्तैनी श्रम विभाजन को भंग कर देंगे जिस पर भारत की तरक्की और उसकी ताकत के बढ़ने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट भारत की वर्ण-व्यवस्था टिकी हुई है।
अंगरेज पूंजीपति वर्ग मजबूर होकर चाहे जो कुछ करे, उससे न तो भारत की आम जनता को आजादी मिलेगी, न उसकी सामाजिक हालत में कोई खास सुधार होगा, क्योंकि ये चीजें केवल इस बात पर नहीं निर्भर करतीं हैं  कि उत्पादक शक्तियों का विकास हो,बल्कि दस्तकारों को अपनी पूरी क्षमता का परिचय देने के लिए मजबूरी इस बात पर निर्भर करती हैं कि उन शक्तियों पर जनता का स्वामित्व हो।लेकिन इन दोनों चीजों के लिए भौतिक आधार तैयार करने के काम से वे (अंगरेज पूंजीपति) नहीं बच सकेंगे। 

पूंजीपति वर्ग ने क्या कभी इससे अधिक कुछ किया है? व्यक्तियों या कौमों को खून या गर्दोगुबार के बीच से चलाए बिना,कष्टों और पतन के गढ़े में ढकेले बिना,क्या वह कभी कोई प्रगति ला सका है ?

अंगरेज पूंजीपति वर्ग ने भारतवासियों के बीच नए समाज के जो बीज बिखेरे हैं, उनके फल,भारतीय तब तक नहीं चख सकेंगे जब तक कि स्वयं ग्रेट ब्रिटेन में आज के शासक वर्गों का स्थान औद्योगिक सर्वहारा वर्ग न ले ले या जब तक कि भारतीय लोग स्वयं इतने शक्तिशाली न हो जाएं कि अंगरेजों की गुलामी के जुए को एकदम उतार फेंकें।हर हालत में,यह आशा तो हम विश्वास के साथ कर ही सकते हैं कि देर या सबेर,उस महान और चित्ता कर्षक देश का पुनरोत्थान अवश्य होगा,जिसके निम्न से निम्न वर्गों के सौम्य नागरिक भी होते हैं,जिनकी परवशता में भी एक शांत महानता दिखाई देती है,जिन्होंने अपनी स्वाभाविक तंद्रा के बावजूद अपनी बहादुरी से ब्रिटिश अफसरों को चकित कर दिया है,जिनके देश से हमें हमारी भाषाएं और हमारे धर्म प्राप्त हुए हैं,और जिनके बीच प्राचीन जर्मनों के प्रतिनिधि के रूप में जाट और प्राचीन यूनानियों के प्रतिनिधि के रूप में ब्राह्मण भी मौजूद हैं।भारत से संबंधित इस विषय को, उपसंहार के रूप में कुछ बातें कहे बिना,मैं समाप्त नहीं कर सकता।

पूंजीवादी सभ्यता की निविड़ धूर्तता और स्वभावगत बर्बरता हमारी आंखों के सामने उस समय निरावरण होकर प्रकट हो जाती है जब अपने देश से,जहां वह सभ्य रूप धारण किए रहती है,वह उपनिवेशों को जाती है जहां वह बिलकुल नंगी हो जाती है। वे (अंगरेज पूंजीपतिअनु.) निजी संपत्ति के हिमायती हैं, लेकिन क्या किसी भी क्रांतिकारी पार्टी ने कभी ऐसी कृषि क्रांतियों को जन्म दिया है जैसी कि बंगाल,मद्रास और बंबई में हुई हैं ? क्या यह सच नहीं है कि भारत में जब साधारण भ्रष्टाचार से उनकी स्वार्थलिप्सा पूरी नहीं हो सकी,तब उस खूंखार लूटेरे लार्ड क्लाइव के ही शब्दों में, उन्होंने वीभत्स लूट-खसोट शुरू कर दी।यूरोप में जब वे राष्ट्रीय ऋण की अनुल्लंघनीय पवित्रता की दुहाई दे रहे थे, तभी क्या भारत में उन्होंने उन राजाओं की मुनाफे की रकमों को जब्त नहीं कर लिया था जिन्होंने बचाई हुई अपनी निजी पूंजी को कंपनी के खजाने में जमा कर दिया था ? वे जिस समय
'हमारे पवित्र धर्म' की रक्षा के नाम पर फ्रांसीसी क्रांति का विरोध कर रहे थे,क्या उसी समय उन्होंने भारत में ईसाई धर्म के प्रचार पर रोक नहीं लगा दी थी ? और क्या, उन्होंने उड़ीसा और बंगाल के मंदिरों में दर्शनार्थ आने वाले तीर्थयात्रियों के रुपया कमाने के लिए जगन्नाथ मंदिर में चलने वाली वेश्यावृत्ति और नर-हत्या के व्यापार को अपने हाथों में नहीं ले लिया? यही वे लोग हैं जो 'संपत्ति, व्यवस्था,परिवार और धर्म' की दुहाई देते नहीं थकते!
भारत जैसे देश पर,जो यूरोपीय महाद्वीप के समान विशाल है और जहां 15 करोड़ एकड़ जमीन है, अंगरेजी उद्योगों का सत्यानाशी प्रभाव बिलकुल स्पष्ट और हैरत में डाल देने वाला है;लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह प्रभाव वर्तमान समय में प्रचलित उत्पादन की संपूर्ण व्यवस्था का ही लाजिमी परिणाम है। यह उत्पादन व्यवस्था पूंजी की सर्वोच्च सत्ता पर आधा रित है।एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में पूंजी के बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसका केंद्रीकरण हो।दुनिया के बाजारों पर पूंजी के इस केंद्रीकरण का जो विनाश कारी प्रभाव पड़ता है,वह राजनीतिक अर्थशास्त्र के उन स्वभावगत बुनियादी नियमों को ही अत्यंत भयानक रूप में प्रकट कर देता है जो प्रत्येक सभ्य शहर में आज काम कर रहे हैं। 

इतिहास के पूंजीवादी युग को नए संसार का भौतिक आधार तैयार करना है।एक तरफ तो उसे मानव जाति की पारस्परिक निर्भरता पर आधारित संसारव्यापी आदान-प्रदान की व्यवस्था और इस आदान-प्रदान के साधनों की स्थापना करनी है; दूसरी तरफ,उसे मनुष्य की उत्पादक शक्तियों का विकास करना है और उसके भौतिक उत्पादन की प्राकृतिक शक्तियों पर वैज्ञानिक आधिपत्य का रूप देना है। 

पूंजीवादी उद्योग और व्यापार नए संसार की इन भौतिक परिस्थितियों का उसी तरह निर्माण कर रहे हैं जिस तरह कि भूगर्भ में होने वाली क्रांतियों ने पृथ्वी के धरातल की सृष्टि की है।पूंजीवादी युग की इन देनों पर विश्वबाजार और उत्पादन की आधुनिक शक्तियों पर एक महान सामाजिक क्रांति जब अपना आधिपत्य कायम कर लेगी और उन्हें सर्वाधिक उन्नत जनता के संयुक्त नियंत्रण के नीचे ले आएगी, केवल तभी मानवी प्रगति प्राचीन मूर्ति पूजकों के उस घृणित दैव के रूप को तिलांजलि दे सकेगी जो बलि दिए गए इनसानों की खोपड़ियों के अलावा और किसी चीज में भरकर अमृत पीने से इनकार करता था।

(कार्ल मार्क्स द्वारा 22 जुलाई 1853 अखबार के पाठ के अनुसार को लिखा गया छापा गया 8 अगस्त 1853 के न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून,अंक 3840,में प्रकाशित हुआ।)

(23-12-2018)

Thursday, 24 December 2020

किसान

25/122021
किसान आंदोलन कम्युनिस्टों को पूँजीवाद का भंडाफोड़ करने का  एक अवसर देता है, हमे अपने को  किसान के वर्गीय दृष्टिकोण तक ही यानी निम्नपूँजीवादी दृष्टिकोण तक ही सीमित न रखना चाहिये।

हमे इस सूत्रवाक्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को, और धनी किसान छोटे और गरीब किसानों को बर्बाद करते रहते है, उनका सम्पत्तिहरण करते रहते है और उनको सर्वहारा की पांत में धकेलते रहते है।  इस तरह, मार्क्स के शब्दों में,  पूंजी खुद पूंजी का निषेध करती रहती है। पूंजीवाद में   पूंजी का विकास ऐसे ही होता है। और एक समय आता है जब पूंजी का सम्पत्तिहरण सर्वहारा वर्ग के द्वारा करना शेष रह जाता है। मार्क्स ने पूंजी खण्ड 1 में बहुत अच्छे ढंग से इसे वर्णन किया है।

पूंजी के  इस नियम के विरुद्ध छोटे या गरीब किसानों को पूंजीवाद की सीमाओं में और पूंजीवादी राज्य से किसी तरह की  आशा दिलाना बिल्कुल ही बकवास करने के बराबर है।

मेरे विचार में इस सूत्र को ध्यान में रख कर हमें अपनी बातों को रखनी चाहिये और  किसानों को समाजवाद क्या दे सकता है, इस पर फोकस करते हुए किसानों के बीच प्रचार करना चाहिये।

हिरावलवादी लिलिपुट, शुद्ध सर्वहारा की तलाश में



कॉर्पोरेटपरस्त फासीवादी मोदी सरकार के खिलाफ इस कड़कड़ाती ठंड में  महीनों से रोड पर खुले आसमान के नीचे चल रहे किसान आंदोलन और उनमें शामिल वामपंथियों पर अपने घर मे आरामदायक रजाई में लेटे लेटे उनपर अपनी कविता की गंदी पाद छोड़ने वाली झंझटी बेगम ने भारत के 'नरोदवादी मार्क्सवादियों' की ख़िदमत में एक शेर अर्ज़ किया है:

 *काँधे पर थाम्हे हुए प्रोलेतारी परचम
धोते हैं कुलकों के चूतड़ वे हरदम ।*


 *और अपनी प्रतिक्रिया* 

बेगम,
इस खिदमत से 
किसका हुआ फायदा
किसका हुआ नुकसान,
बंटे दोस्त,
या दुश्मन में हुआ दो फाड़!

पूछता है मजदूर,
पूछता है किसान।

किसान आंदोलन

बहुसंख्यक सीमांत एवम गरीब किसानों की बदहाली एवम गरीबी से मुक्ति का एक मात्र रास्ता पूंजी के शासन के खिलाफ चलने वाले  संघर्ष, समाजवाद के लिये चलने वाले संघर्ष में ही है।

तीन कृषि बिल, नए बिजली कानून  के खिलाफ और कृषिउपज के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी के लिये कानून की मांग  के लिये किसानों का फासीवादी मोदी सरकार  के खिलाफ चलने वाला आंदोलन पूंजीवाद के दायरे के अंदर फौरी राहत के लिये संघर्ष है। 

आप चुप न रहे, आप भी अपना *समर्थन* किसानों को जरूर दे।

क्रांतिबीज

 

खेतों को कोड़-कोड़ कर
ढेला फोड़ते
कादो-कीचड़ में धंसते
खून-पसीने से नहाते
तमाम खरीफ एवं रबी फसलों के
बीजों को बोते-बोते
विरक्ति हो गई है उसे अब खेती से।

हो भी क्यों न
उसकी कई पीढ़ियाँ खप गईं
महाजनी कर्ज और 
बैंकों के लोन चुकाते-चुकाते।

दुनिया भर के लोगों के लिए
छप्पन भोग की थाल सजाने वाले किसानों की
ज़बान और मसूड़े छिल गए हैं अब
सूखी रोटियाँ चबाते-चबाते।

अपनी बदहाली
अपनी फटेहाली
अपनी बेबसी को ढ़ोते-ढ़ोते
झुक गया है उसका कंधा
निकल आए हैं 
एक ही पीठ पर कई कूबर।

बाढ़ में बहते
सुखाड़ से सूखते
ठंड से ठिठुरते-ठिठुरते
आ गया है उबाल उसके रक्त में।

और अब 
उसने ठान लिया है वह बोलेगा
छोटे-बड़े सभी तानाशाहों के खिलाफ
तय करेगा खुद
अपना खुशहाल भविष्य
नहीं देगा अपनी अगली पीढ़ी को 
अपनी बदहाली और बेबसी का वसीयतनामा।

इसीलिए
छोड़ कर हल का मूठ
उसने अब लहरा दिया है हवा में हाथ
बो दिया है क्रांतिबीज।

©️ रानी सिंह

#standwithfarmerschallenge

Wednesday, 23 December 2020

निदा नवाज

इस डर से कि बच्चे
कहीं परिन्‍दे बन उड़ न जायें,
हमारे क़द से भी बुलन्‍द न हो जायें 
बाग़ी न हो जायें
और हमारे साथ ही जीवन भर 
बंधे रहें,
हम उनकी तराश-खराश 
कुछ इस प्रकार से करते हैं,
कि वे हमारी सोच के गमलों से 
जीवन भर बाहर न झाँक सकें
कितनी दर्दनाक है 
टहनियों और जड़ों को तराशने की 
यह बोन्साई प्रक्रिया|

~निदा नवाज

दरबार मे कविता- एम के आज़ाद



किसानों के विरोध में 
उधर संघी है और,
मेरी कविता, इधर!

वे  जश्न मना रहे है,
और नाच रही है नंगी,
कविता बेशर्म ।

कॉन्ट्रैक्ट फार्म में
इठला रहे है,
उसके मस्त नितम्ब।

नशे में झूम रहे है,
सरसो के  पौधे,
पीले-पीले बेशर्म!

शेर अर्ज कर रही है-
कविता,
काँधे पर थामें, 
फ़र्जी लाल परचम!

झूम रहे है मैनेजर, गार्ड,
वाह, बेहतरीन है, 
कविता की खिदमत!

इस खिदमत से 
किसका हुआ फायदा
किसका हुआ नुकसान,
बंटे थे दोस्त,
या दुश्मन में हुआ दो फाड़!

पूछता है मजदूर,
पूछता है किसान।

Monday, 21 December 2020

किसान आंदोलन

किसान आंदोलन कम्युनिस्टों को पूँजीवाद का भंडाफोड़ करने का  एक अवसर देता है, हमे अपने को  किसान के वर्गीय दृष्टिकोण तक ही यानी निम्नपूँजीवादी दृष्टिकोण तक ही सीमित न रखना चाहिये।

हमे इस सूत्रवाक्य को हमेशा ध्यान में रखना होगा कि बड़ी पूंजी छोटी पूंजी को, और धनी किसान छोटे और गरीब किसानों को बर्बाद करते रहते है, उनका सम्पत्तिहरण करते रहते है और उनको सर्वहारा की पांत में धकेलते रहते है।  इस तरह, मार्क्स के शब्दों में,  पूंजी खुद पूंजी का निषेध करती रहती है। पूंजीवाद में   पूंजी का विकास ऐसे ही होता है। और एक समय आता है जब पूंजी का सम्पत्तिहरण सर्वहारा वर्ग के द्वारा करना शेष रह जाता है। मार्क्स ने पूंजी खण्ड 1 में बहुत अच्छे ढंग से इसे वर्णन किया है।

पूंजी के  इस नियम के विरुद्ध छोटे या गरीब किसानों को पूंजीवाद की सीमाओं में और पूंजीवादी राज्य से किसी तरह की  आशा दिलाना बिल्कुल ही बकवास करने के बराबर है।

मेरे विचार में इस सूत्र को ध्यान में रख कर हमें अपनी बातों को रखनी चाहिये और  किसानों को समाजवाद क्या दे सकता है, इस पर फोकस करते हुए किसानों के बीच प्रचार करना चाहिये।

Friday, 18 December 2020

आटो रेने केस्टिया


**************
आटो रेने केस्टिया (1934-1967) ग्वाटेमाला के क्रांतिकारी और कवि थे। वह हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही प्रगतिवादी राजनीति में सक्रिय हो गए थे। ग्वाटेमाला में सत्ता परिवर्तन के बाद उन्हें 1954 में अल सल्वाडोर में निर्वासित होना पड़ा। वह पूर्वी जर्मनी में भी निर्वासन में रहे। मेक्सिको में उन्होंने प्रगतिशील लेखकों का समूह बनाया। ग्वाटेमाला लौटकर सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध में शामिल हुए। पकड़े गए और जिंदा जला दिए गए। स्पेनिश में छपी उनकी दो कविता पुस्तकों में समकालीन प्रतिरोध के जो स्वर मुखरित हुए, वे सर्वकालीन बन गए। उनकी अग्निधर्मी कविताएं प्रतिरोध की शाश्वत आवाज हैं। 

अराजनीतिक बौद्धिक
******************

एक दिन
मेरे देश के
अराजनीतिक
बौद्धिक
होंगे सवालों के घेरे में
हमारी भोली-भाली जनता के।

पूछा जाएगा उनसे
किया क्या उन्होंने
जब दम तोड़ रहा था देश
धीरे-धीरे,
छोड़ दिए गए
बुझते अलाव की तरह।

कोई नहीं करेगा दरियाफ्त
उनसे उनके कपड़ों की 
दोपहर के खाने के बाद
आलस में सुस्ताने की,
कोई नहीं जानना चाहेगा
उनके व्यर्थ संघर्षों को
जो करते रहे थे वे
बिना किसी विचार के साथ
परवाह नहीं करेगा कोई 
धन-दौलत के उनके इल्म की।

नहीं पूछे जाएंगे उनसे सवाल
यूनानी पुराकथाओं पर
या उनके नफरत दबाने पर
जब उन्हीं में से कोई
शुरू कर देगा
कायर की तरह मरना।

उनसे नहीं पूछा जाएगा
उनकी बेहूदा 
सफाइयों के बारे में,
जो जन्मी होंगी
कोरे झूठ के साये में।

उस दिन तो सामने
आएंगे भोले-भाले लोग।

जिनके लिए नहीं थी कोई जगह
राजनीतिक बौद्धिकों की
किताबों और कविताओं में,
पर वे रोज पहुंचाते थे
उनके घर डबलरोटी और दूध,
उनके लिए टोर्टिला* और अंडे,
जो चलाते थे उनकी कारें,
जो करते थे देखवाल उनके कुत्तों और बगीचों की
और करते थे उनके तमाम काम,
और वे पूछेंगे: 

'क्या किया था तुमने जब गरीब
थे परेशान, जब कोमलता और 
जीवन
उनके हो रहे थे खाक?'

मेरे प्यारे देश के
अराजनीतिक बौद्धिको,
तब नहीं दे सकोगे कोई जवाब।

तब मौन के गिद्ध
नोंच खाएंगे तुम्हारीं आंतें।

तुम्हारी ही दुर्गति
तारी होगी तुम्हारी आत्मा पर।

और शर्मिंदा होकर नि:शब्द रह जाओगे तुम।

- आटो रेने केस्टिया
अनुवाद : भुवेन्द्र त्यागी 

 
* टोर्टिला मांस और ओनीर आदि भरकर प्रायः गर्म खाई जाने वाली मेक्सिको की एक प्रकार की बहुत पतली और गोल डबलरोटी होती है।

जलपरी और पियक्कड़ों की कहानी



वे नेक लोग कमरे में थे और
वह कमरे में नंग-धड़ंग चली आयी
वे शराब पी रहे थे
उसके जिस्म पर थूकना शुरू कर दिया उन्होंने
उसके स्वर्णाभ वक्ष:स्थलों पर कालिमा फैल गयी।

वह अशूर्यंपश्या की भांति पहली बार नदी से बाहर आयी थी
इसलिए वह कुछ भी नहीं समझ सकी

वह एक जलपरी थी, अपना ठिकाना भूल गयी थी
उसका नवीनोतोपम शरीर मसल डाला गया
वह रोना-धोना नहीं जानती थी
इसलिए वह रो-धो नहीं रही थी।

वह अपने को ढंकना नहीं जानती थी,
इसलिए वह अपने को ढंक नहीं सकी थी।

उन्होंने उसे सिगरेटों से दागा, उसके चूचुक जलाये
और हंसते-हंसते शराबखाने में लोटपोट हो गये।

वह बोलना नहीं जानती थी,
इसलिए वह कुछ भी नहीं बोल सकी।

उसकी आंखों में स्वप्निल प्रेम की छवि अंकित थी
उसके हाथ दो पुखराजों की भांति शोभित थे
उसके तराशे हुए अधरों पर मूंगिया चमक थी।

वह दरवाजे से अविलंब बाहर चली आयी
और नदी में प्रवेश करने के साथ ही निर्मल हो गयी
चमकने लगी संगमरमर की भांति वर्षा के जल में भींगते हुए। 

उसने पीछे मुडकर नहीं देखा और वह पुनः तैरने लगी
सामने तैरती रही
लेकिन उसने मरणासन्न प्राणियों की ओर मुड़कर नहीं देखा
फिर कभी नहीं देखा!

(पाब्लो नेरुदा       अनुवाद: कवि कन्हैया)

Sunday, 13 December 2020

किसान आंदोलन पर चल रहे बहस के संदर्भ में एक टिप्पणी



फासीवादी मोदी सरकार पिछले पाँच वर्षों से किसानों को बरगला रही थी, झूठी आशा दे रही थी कि किसानों की  आय सरकार दुगुना कर देगी। और सरकार ने किया क्या ? कोरोना काल मे पहले  तो अध्यादेश और फिर कॉर्पोरेट परस्त तीन कृषि बिल किसानों के मत्थे डाल दिया। आग बबूला हो चुके किसान तब से सड़कों पर तीन कृषि बिल रदद् करने की मांग के साथ आंदोलनरत है। 

हालांकि लाभकारी मूल्य की चर्चा तीन कृषि बिल में नही है, फिर भी उन्हें भय  है कि सरकार की मंशा लाभकारी मूल्य खत्म करने की है। इस लिये किसान लाभकारी मूल्य से सम्बधित कानून की मांग भी कर रहे है। 1960 के दशक में कांग्रेस द्वारा लाभकारी मूल्य लागू किया गया था जो आज भी जारी है। हालांकि सिर्फ 6% किसानों को ही इसका फायदा मिलता है।

निश्चित तौर से पूंजीवाद के अंतर्गत लाभकारी मूल्य बचाने की मांग सिर्फ 6 % धनी किसानों की मांग है। पूंजीवादी राज्य 100% कृषि उत्पाद के वाजिब कीमत पर विक्रय की गारंटी कर नही सकता है, यह सर्वहारा राज्य ही कर सकता है।

किसानों और कॉर्पोरेट के बीच संघर्ष और तीखा हो रहा है, यहाँ तक कि अदानी, अम्बानी ब्रांड के उत्पादों का वहिष्कार का भी आह्वान   किया जा रहा है। मुश्किल में पड़ी फासीवादी सरकार के पसीने छूट रहे है- कैसे इनमे फुट डाला जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि :

सरकार को तीन कृषि बिल रदद् न करना पड़े; मामूली संसोधन कर के किसानों को वेवकूफ बना लिया जाए।
6% किसानों को मिल रहे लाभकारी मूल्य के बारे में लिखित आश्वासन दे कर किसानों को मना ले, लाभकारी मूल्य पर सरकार को कोई कानून न बनाना पड़े।

सरकार और किसान दोनों एक दूसरे पर दबाव बनाए हुए है। 

ऐसे में हम कम्युनिष्टों का क्या दायित्व है? किसान आंदोलन से सम्बंधित अन्य सैद्धान्तिक पहलू के अलावा हमे इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि दुश्मन वर्ग के बीच तीखे हो रहे सम्बन्ध को और तीखा किया जाए या धनी किसानों, गरीब और सीमांत किसानों के बीच विरोध को उभारा जाए और  फासीवादी मोदी सरकार को मदद पहुचाया जाए? हमारा ज्यादा फोकस किधर हो? 

यह एक गम्भीर सवाल है। इस पर अपना रुख तय करते समय हमें स्टॅलिन के  निम्न विचारो को भी ध्यान में रखना चाहिए।

"To carry out correct politics, one might sow a revolutionary mood and evoke differences within the reactionary circles."
By *Comrade Stalin* in 1951 in a talk with Indian Communist delegation.

Saturday, 12 December 2020

Lenin's review of Karl Kautsky's The Agrarian Question



It would be absurd to think, says Kautsky in conclusion, that one part of society develops in one direction and another in the opposite direction. In actual fact "social development in agriculture is taking the same direction as in industry.

"The protection of the peasantry does not mean protection of the person of the peasant (no one, of course would object to such protection) but protection of the peasant's property. Incidentally, it is precisely the peasant's property that is the main cause of his impoverishment and his degradation. Hired agricultural labourers are now quite frequently in a better position than the small peasants. The protection of the peasantry is not protection from poverty but the protection of the fetters that chain the peasant to his poverty. 

THE RADICAL TRANSFORMATION OF AGRICULTURE BY CAPITALISM IS A PROCESS THAT IS ONLY JUST BEGINNING, BUT IT IS ONE THAT IS ADVANCING RAPIDLY, BRINGING ABOUT THE TRANSFORMATION OF THE PEASANT INTO A HIRED LABOURER AND INCREASING THE FLIGHT OF THE POPULATION FROM THE COUNTRYSIDE. ATTEMPTS TO CHECK THIS PROCESS WOULD BE REACTIONARY AND HARMFUL: NO MATTER HOW BURDENSOME THE CONSEQUENCES OF THIS PROCESS MAY BE IN PRESENT-DAY SOCIETY, THE CONSEQUENCES OF CHECKING THE PROCESS WOULD BE STILL WORSE AND WOULD PLACE THE WORKING POPULATION IN A STILL MORE HELPLESS AND HOPELESS POSITION.

कृषि कानून

कृषि कानूनों पर सरकार रोल बैक क्यों नहीं करना चाहती??
तथ्यों व आँकड़ों की मदद से इसकी जड़ तक जाना जरूरी है।

भारत में दो कंपनियां है रिलायंस व अडानी ग्रुप।वैसे तो ये ग्रुप कोयला, तेल, गैस,सोलर प्लांट,बंदरगाह निर्माण,एयरपोर्ट निर्माण आदि बहुत सारे क्षेत्रों में कार्यरत है लेकिन अभी विरोध कृषि कानूनों को लेकर कृषि व उनके उत्पादों के व्यापार पर है इसलिए सिर्फ यहीं का विश्लेषण किया जाना चाहिए।

फाइनेंसियल एक्सप्रेस 2008 की रिपोर्ट के हिसाब से 2005 में अडानी एग्री लोजिस्टिक लिमिटिड (AALL) व एफसीआई के बीच वेयरहाउस निर्माण को लेकर एक करार हुआ जिसके तहत 2007 में पंजाब के मोगा व हरियाणा के कैथल में अडानी ग्रूप द्वारा मॉडर्न साइलो स्टोरेज का निर्माण पूर्ण हो गया।

अडानी ग्रुप ने 5.75 लाख मेट्रिक टन स्टोरेज के वेयरहाउस पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र
पश्चिमी बंगाल में बनाये व 3 लाख मेट्रिक टन की स्टोरेज क्षमता के साइलो मध्यप्रदेश में बनाये।

मीडिया विजिल की रिपोर्ट के अनुसार AALL ने 2017 में पीपीपी मॉडल के तहत 100 लाख टन स्टोरेज क्षमता के साइलो बनाने की योजना तैयार की लेकिन जमीन अधिग्रहण आदि की दिक्कतों के कारण 31 मई 2019 तक मात्र 6.75 लाख टन की क्षमता के साइलो ही बना सकी।धीमी गति का एक दूसरा कारण यह भी रहा है कि जो स्टोरेज क्षमता विकसित की गई वो भी पूर्ण रूप से भरी नहीं जा सकी।हरियाणा के कैथल में 2.25 लाख टन क्षमता के साइलो बने मगर स्टोरेज के लिए 1.60 लाख टन ही गेहूं उपलब्ध हो सका।

अब तक अडानी ग्रुप विभिन्न राज्यों में 13 से ज्यादा वेयरहाउस/साइलो बना चुका है। 21 फरवरी 2018 को दैनिक जागरण में छपी खबर के मुताबिक अडानी ग्रूप के चेयरमैन गौतम अडानी ने यूपी इन्वेस्टर समिट में उत्तरप्रदेश में 6 लाख टन क्षमता के साइलो निर्माण की घोषणा की थी।1 मार्च 2018 को राजस्थान पत्रिका में छपी खबर के मुताबिक अडानी ग्रुप एग्री लोजिस्टिक पार्क बनाने हेतु यूपी सरकार के साथ किये एमओयू के तहत यमुना प्राधिकरण क्षेत्र की 1400 एकड़  जमीन पर 2500 करोड़ रुपये से फ़ूड पार्क व वेयरहाउस/साइलो बनाने जा रहा है।

अडानी ग्रुप ने एफसीआई के साथ जो शुरुआती करार किये उसके अनुसार एफसीआई द्वारा खरीदे धान को इन साइलों में रखेगा व उसका किराया एफसीआई AALL को देगा और यह गारंटी अगले 30 सालों के लिए दी गई थी।एमएसपी पर खरीद सरकार लगातार घटाती जा रही है ऐसे में सरकार के लिये इन वेयरहाउसों का औचित्य ही ख़त्म होता जा रहा था।

पहले क़ानून के तहत अडानी ग्रुप के इस व्यापार को दिशा देने के लिए मंडियों से बाहर खरीद को कानूनी मान्यता देने के लिये सरकारी मंडी तन्त्र को ख़त्म किया जा रहा है व जमाख़ोरों को टैक्स फ्री ख़रीद की सौग़ात दी जा रही है ।

दूसरे क़ानून के तहत आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर असीमित जमाख़ोरी करने को क़ानूनी जामा पहनाया जा रहा है ताकि कितना ही स्टोरेज करें वो कानूनी पाबंदी से परे हो जाएं।

अब आते है दूसरी कंपनी रिलायंस ग्रुप पर।2006 में रिलायंस ग्रुप ने रिलायंस फ्रेश व स्मार्ट स्टोर खोलने शुरू किए व अब तक 621 स्टोर विभिन्न शहरों में खोले जा चुके है।इन स्टोर द्वारा 200 मेट्रिक टन फल व 300 मेट्रिक टन सब्जियां रोज बेची जाती है।

2011 में रिलायंस मार्किट नाम से स्टोर खोलने शुरू किए और अब तक विभिन्न शहरों में 52 स्टोर खोले जा चुके है जहां सब्जी,फल,किराना से लेकर घरेलू जरूरतों का हर सामान उपलब्ध है।इसी तरह रिटेल मार्किट पर एक छत्र राज कायम करने के लिए जिओमार्ट,रिलाइंस ट्रेंड आदि कंपनियों के 682 से ज्यादा स्टोर खोले गए।

इसके बाद किशोर बियानी की कर्ज में फंसी फ्यूचर ग्रुप की रिटेल चैन अर्थात बिग बाजार के 420 से ज्यादा शहरों में चल रहे 1800 से ज्यादा स्टोर का अधिग्रहण रिलायंस ग्रुप ने कर लिया।

अब देश मे रिटेल मार्किट का किंग रिलायंस ग्रुप है।फ़ूड चैन का सबसे बड़ा नेटवर्क रिलायंस ग्रुप के पास है। तीसरे क़ानून (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) के द्वारा छोटे बिचौलियों को खत्म करके मुनाफे पर एकमात्र कब्जा रिलायंस ग्रुप को दिया जायेगा।अभी तक फल/सब्जियां मंडियों से ठेले पर आकर बिकती रही है मगर मंडिया खत्म होते ही ठेले/रेहड़ी/दुकानों वाले खत्म जो जाएंगे।फिर रिलायंस फ्रेश की मनमानी शुरू होगी!

कुल मिलाकर देखा जाएं तो इन कानूनों में न किसानों के बारे में सोचा गया है और न करोड़ों छोटे-छोटे दुकानदारों, व्यापारियों व रेहड़ी/ठेले वालों के बारे में।न शहरी मध्यम वर्ग के हित को देखा गया और न सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून के तहत राशन पाने वाले गरीबों का हित देखा गया है।

जब एफसीआई खरीदेगा ही नहीं तो फिर गरीबों को राशन अम्बानी/अडानी तो खरीदकर बांटेंगे नहीं!सरकार अडानी/अम्बानी से खरीदकर बांटने जा रही है तो एफसीआई के माध्यम से सीधे किसानों से खरीदने में क्या दिक्कत है?तय है गरीबों के खाते में डायरेक्ट कैश डालने की बात होगी।मान लो गेहूं की बेस प्राइज के हिसाब से 10 किलो गेहूं प्राप्त करने वाले गरीब के खाते में 20×10=200 रुपये डाल देगी।200 रुपये लेकर गरीब रिलायंस मार्ट में जाकर गेहूँ खरीदेगा जो कि अभी 46रु/किलो बिक रहा है,के हिसाब से 4.3 किलो गेहूँ खरीद पायेगा।मतलब साफ है कि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत राशन प्राप्त करने वाले गरीबों के जीवन पर गंभीर खतरा पैदा होगा!

सरकार अपने मित्रों की व्यापारिक प्रणाली को दिशा देने के लिए नीतियां बना रही है उसी हिसाब से ये 3 कानून लाये गए है! अब ये कानून वापिस ले तो मित्रों का भारी-भरकम निवेश डूब जाएगा।ऐसा करना सरकार के लिए पीड़ादायी है।

सरकारी मित्रों को बिजली पर कब्जा देने के लिए भी अध्यादेश पास किया जा चुका है।
किसान लड़ने लायक भी नहीं रह सके उसके लिए पराली जलाने पर भारी जुर्माने का अध्यादेश भी जारी कर दिया है।दिल्ली में प्रदूषण को लेकर पिछले 3 सालों से किसानों को यूँ ही गालियां नहीं दी जा रही थी! पराली का योगदान मात्र 8% है जबकि बाकी 92% प्रदूषण को कम करने की चर्चा कहीं नहीं होती।

अगर किसान इस आंदोलन से खाली हाथ लौटा तो शहरी मध्यम वर्ग व देश के गरीबों की हालत किसानों से पहले दयनीय अवस्था मे होगी।अगर किसान इन कानूनों को वापिस करवाने या एमएसपी की लिखित गारंटी लेने में कामयाब हुआ तो मित्रों के व्यापार को गहरा झटका लगेगा।

प्रेमाराम सियाग
#किसानआंदोलन
#FarmersProtest
#कृषि


Tuesday, 8 December 2020

थोक और खुदरा व्यापार का पूर्ण राष्ट्रीयकरण


खाद्य पदार्थों सहित सभी आवश्यक वस्तुओं के व्यापार से मंडी व्यवस्था को समाप्त व सभी किस्म के पूँजीपतियों और बिचौलियों (कॉर्पोरेट, आढतिये या गाँव के कुलक) को बाहर कर इसके थोक और खुदरा व्यापार का पूर्ण राष्ट्रीयकरण करो।
सभी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सुनिश्चित करो।
ये माँग किस किस को गरीब किसान मजदूर विरोधी और पूँजीपति वर्ग की दलाली लगती है? मेहनतकश जनता के लिए यह माँग हानिकारक कैसे है?

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=4204298982929884&id=100000494704468 


Mukesh Aseem कुलको की मांग का समर्थन मैं नही कर रहा हूँ। आपको गलतफहमी है। हाँ, भाजपा सरकार के तीन कृषि बिल का विरोध  का समर्थन करता हूँ। और किसानों पर उनके द्वारा विरोध प्रदर्शन पर उनके ऊपर पुलिस दमन की निंदा करता हूँ। आपने जो आगे बढ़ने का प्रस्ताव दिया है, उसमे कुलको का हित भी आगे हो रहा है, जबकि आप ऐसा नही चाहते होंगे। मैं सिर्फ इतना ही कहा है।
 सीमांत और गरीब किसानो को किन मुद्दे पर मजदूर आंदोलन से जोड़ा जाए,  एक गम्भीर प्रश्न है जिस पर मैं बहुत स्पष्ट नही हुं। क्या खेतिहर मजदूर यूनियन और गरीब एवम सीमांत किसानों का एक ही यूनियन बनना चाहिये या अलग अलग। इन सवालो पर क्रांतिकारी साथियो को हो सके तो प्रकाश डालने चाहिये। 

Saturday, 5 December 2020

लेनिन (‘मज़दूर पार्टी और किसान’)

पूँजीवाद के अन्तर्गत छोटा मालिक किसान, वह चाहे या न चाहे, इससे अवगत हो या न हो, एक माल-उत्पादक बन जाता है और यही वह परिवर्तन है जो मूलभूत है, क्योंकि केवल यही उसे, बावजूद इसके कि वह भाड़े के श्रम का शोषण नहीं करता, एक निम्न-पूँजीपति बना देता है और उसे सर्वहारा के एक विरोधी के रूप में बदल देता है। वह अपना उत्पादन बेचता है, जबकि सर्वहारा अपनी श्रम-शक्ति। एक वर्ग के रूप में छोटा मालिक किसान केवल कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि ही चाह सकता है और यह बड़े भूस्वामियों के साथ लगान में उसकी हिस्सेदारी और शेष समाज के विरुद्ध भूस्वामियों के साथ उसकी पक्षधरता के समान है। माल-उत्पादन के विकास के साथ ही छोटा मालिक किसान अपनी वर्ग-स्थिति के अनुरूप एक निम्न-भूसम्पत्तिवान मालिक बन जाता है।"
लेनिन
('कृषि में पूँजीवाद के विकास के आँकड़े')
पार्टी के भूमि कार्यक्रम में संशोधन')

"कोई पूछ सकता है: इसका हल क्या है, किसानों की स्थिति कैसे सुधारी जा सकती है? छोटे किसान ख़ुद को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से जोड़कर और समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष में एवं ज़मीन तथा उत्पादन के अन्य साधनों (कारख़ानें, मशीनें आदि) को सामाजिक सम्पत्ति के रूप में बदल देने में मज़दूरों की मदद करके ही अपने आप को पूँजी की जकड़ से मुक्त कर सकते हैं। छोटे पैमाने की खेती और छोटी जोतों को पूँजीवाद के चतुर्दिक हमले से बचाकर किसान समुदाय को बचाने का प्रयास सामाजिक विकास की गति को अनुपयोगी रूप से धीमा करना होगा, इसका मतलब पूँजीवाद के अन्तर्गत भी ख़ुशहाली की सम्भावना की भ्रान्ति से किसानों को धोखा देना होगा, इसका मतलब मेहनतकश वर्गों में फ़ूट पैदा करना और बहुमत की क़ीमत पर अल्पमत के लिए एक विशेष सुविधाप्राप्त स्थिति पैदा करना होगा।"

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।                       *(रामधारी सिंह दिनकर)*

Thursday, 3 December 2020

फैज अहमद फैज

"दरबारे वतन में जब इक दिन सब जाने वाले जायेंगे,
कुछ अपनी सजा को पहुंचेंगे, कुछ अपनी जजा ले जायेंगे।

ऐ खाकनशीनों उठ बैठो,वो वक़्त करीब आ पहुंचा है,
जब तख़्त गिराए जायेंगे,जब ताज उछाले जायेंगे।

अब टूट गिरेंगी जंजीरें,अब ज़िन्दानों की ख़ैर नहीं,
जो दरया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे।

कटते भी चलो,बढ़ते भी चलो बाजू भी बहुत हैं सर भीबहुत,
चलते भी चलो के अब डेरे मंजिल पे ही डाले जायेंगे।

ऐ ज़ुल्म के मातों लब खोलो, चुप रहने वालों चुप कब तक,
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जायेंगे।"

-फैज अहमद फैज।

(30-11-2020)

Wednesday, 2 December 2020

काले धन की नयी खेप!- नरेंद्र



 धन कभी सफेद नहीं होता है
धन श्रम शक्ति के लाल रक्त और 
रंगहीन पसीने से पैदा किया गया
 साधनों का अंबार है 
जो  बैंक और तिजोरी में पहुंचकर
 पूंजी बन जाता है, 
 पूंजीपतियों के हाथ में जाकर 
मशीन और कारखाना बन जाता है,
 वह फिर से श्रम शक्ति के 
लाल रक्त और रंगहीन पसीने को
 गतिशील करता है.

धन वह है जिसे
मजदूरों  की धमनियों में बहती
धारा की यह रफ्तार
एसेम्बली लाइन और रोबोट के सहारे
रोज रोज प्रति पल
नए साधनों को पैदा कर 
माल के रूप में
बाजार भेजता है.

दावानल की तरह फूंफकारता 
यह बाजार तुम्हारा है
बाजार का माल तुम्हारा है
दैत्याकार कारखाने तुम्हारे हैं
मशीन  तुम्हारे हैं
बैंक तुम्हारे हैं
तिजोरी तुम्हारी है
इन सबों में कैद 
सब माल तुम्हारा है.

कैदी हम भी हैं
बाजार से लेकर बैंक तक में
कारखाने से लेकर
अनाज की मंडियों तक में
हम पंक्तियों में खड़ा हैं
अपना माल बेचने के लिए
माल को धन कहो या
श्रम शक्ति
उसका रंग तो लाल है
या वह रंगहीन है
फिर  तुम्हीं कहो 
उसे काला कौन बनाता है?

Tuesday, 1 December 2020

किसानी के सवाल पर...

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  "हर हालत में और जनवादी भू व्यवस्था सुधार की हर परिस्थिति में देहाती सर्वहारा के स्वतंत्र वर्ग संगठन के लिए अडिग रूप से कोशिश करना, उसे समझाना कि उसके और किसान बुर्जुआ वर्ग (धनी-पूँजीवादी किसान) के हितों में अनम्य रूप से विरोध है, उसे चेतावनी देना कि छोटी खेती-बारी की व्यवस्था में उसकी आस्था भ्रममूलक है क्योंकि वह माल-उत्पादन के चलते जनसमूहों की गरीबी कभी दूर नहीं कर सकती और अंततः उसे सारी गरीबी और समस्त शोषण के उन्मूलन के एकमात्र रास्ते के रूप में पूर्ण समाजवादी क्रांति की आवश्यकता बताना पार्टी अपना कार्यभार निर्धारित करती है।"
(1906 में रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्टॉकहोम कांग्रेस में बोल्शेविकों द्वारा पार्टी के कार्यक्रम में मंज़ूर करवाया गया बिंदु। नरोदवादियों की जानकारी के लिए- इस समय रूस में 80 फीसदी से ज़्यादा लोग कृषि पर निर्भर थे।)

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  टटपुँजिया लफ़्फ़ाज़ी और नीति का जिसका समाजवादी क्रांतिकारियों के बीच, खास तौर पर "उपयोग" या "श्रम" प्रतिमानों के बारे में, "जमीन के समाजीकरण", आदि के बारे में खोखली बातों का बोलबाला है, मुकाबला करने के लिए सर्वहारा वर्ग की पार्टी को यह स्पष्ट करना होगा कि माल-उत्पादन के तहत छोटी खेती बारी प्रणाली मानव जाति को जनसाधारण की गरीबी और उनके उत्पीड़न से नहीं बचा सकती।
 किसान प्रतिनिधि सोवियतों को तत्काल और अनिवार्यतः विभक्त किए बिना सर्वहारा वर्ग की पार्टी को खेत मजदूरों के प्रतिनिधियों की पृथक सोवियतें और गरीब (अर्धसर्वहारा) किसानों के प्रतिनिधियों की पृथक सोवियतें संगठित करने या कम से कम, किसान प्रतिनिधियों की आम सोवियतों के अंदर पृथक धडों या पार्टियों के रूप में इस वर्गीय स्थिति वाले प्रतिनिधियों की नियमित रूप से पृथक बैठकें करने की आवश्यकता समझानी होगी। अन्यथा सामान्यतया किसानों के बारे में नरोदवादियों के सारे मीठे टटपुँजिया फ़िक़रे खुशहाल किसानों द्वारा, जो केवल पूंजीपतियों की एक किस्म है, सम्पत्तिहीन जनसाधारण के साथ धोखाधड़ी पर पर्दा डालने का काम करेंगे।
(हमारी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग के कार्यभार-लेनिन,10 अप्रैल,1917)

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...