Friday, 18 December 2020

जलपरी और पियक्कड़ों की कहानी



वे नेक लोग कमरे में थे और
वह कमरे में नंग-धड़ंग चली आयी
वे शराब पी रहे थे
उसके जिस्म पर थूकना शुरू कर दिया उन्होंने
उसके स्वर्णाभ वक्ष:स्थलों पर कालिमा फैल गयी।

वह अशूर्यंपश्या की भांति पहली बार नदी से बाहर आयी थी
इसलिए वह कुछ भी नहीं समझ सकी

वह एक जलपरी थी, अपना ठिकाना भूल गयी थी
उसका नवीनोतोपम शरीर मसल डाला गया
वह रोना-धोना नहीं जानती थी
इसलिए वह रो-धो नहीं रही थी।

वह अपने को ढंकना नहीं जानती थी,
इसलिए वह अपने को ढंक नहीं सकी थी।

उन्होंने उसे सिगरेटों से दागा, उसके चूचुक जलाये
और हंसते-हंसते शराबखाने में लोटपोट हो गये।

वह बोलना नहीं जानती थी,
इसलिए वह कुछ भी नहीं बोल सकी।

उसकी आंखों में स्वप्निल प्रेम की छवि अंकित थी
उसके हाथ दो पुखराजों की भांति शोभित थे
उसके तराशे हुए अधरों पर मूंगिया चमक थी।

वह दरवाजे से अविलंब बाहर चली आयी
और नदी में प्रवेश करने के साथ ही निर्मल हो गयी
चमकने लगी संगमरमर की भांति वर्षा के जल में भींगते हुए। 

उसने पीछे मुडकर नहीं देखा और वह पुनः तैरने लगी
सामने तैरती रही
लेकिन उसने मरणासन्न प्राणियों की ओर मुड़कर नहीं देखा
फिर कभी नहीं देखा!

(पाब्लो नेरुदा       अनुवाद: कवि कन्हैया)

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