फासीवादी मोदी सरकार पिछले पाँच वर्षों से किसानों को बरगला रही थी, झूठी आशा दे रही थी कि किसानों की आय सरकार दुगुना कर देगी। और सरकार ने किया क्या ? कोरोना काल मे पहले तो अध्यादेश और फिर कॉर्पोरेट परस्त तीन कृषि बिल किसानों के मत्थे डाल दिया। आग बबूला हो चुके किसान तब से सड़कों पर तीन कृषि बिल रदद् करने की मांग के साथ आंदोलनरत है।
हालांकि लाभकारी मूल्य की चर्चा तीन कृषि बिल में नही है, फिर भी उन्हें भय है कि सरकार की मंशा लाभकारी मूल्य खत्म करने की है। इस लिये किसान लाभकारी मूल्य से सम्बधित कानून की मांग भी कर रहे है। 1960 के दशक में कांग्रेस द्वारा लाभकारी मूल्य लागू किया गया था जो आज भी जारी है। हालांकि सिर्फ 6% किसानों को ही इसका फायदा मिलता है।
निश्चित तौर से पूंजीवाद के अंतर्गत लाभकारी मूल्य बचाने की मांग सिर्फ 6 % धनी किसानों की मांग है। पूंजीवादी राज्य 100% कृषि उत्पाद के वाजिब कीमत पर विक्रय की गारंटी कर नही सकता है, यह सर्वहारा राज्य ही कर सकता है।
किसानों और कॉर्पोरेट के बीच संघर्ष और तीखा हो रहा है, यहाँ तक कि अदानी, अम्बानी ब्रांड के उत्पादों का वहिष्कार का भी आह्वान किया जा रहा है। मुश्किल में पड़ी फासीवादी सरकार के पसीने छूट रहे है- कैसे इनमे फुट डाला जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि :
सरकार को तीन कृषि बिल रदद् न करना पड़े; मामूली संसोधन कर के किसानों को वेवकूफ बना लिया जाए।
6% किसानों को मिल रहे लाभकारी मूल्य के बारे में लिखित आश्वासन दे कर किसानों को मना ले, लाभकारी मूल्य पर सरकार को कोई कानून न बनाना पड़े।
सरकार और किसान दोनों एक दूसरे पर दबाव बनाए हुए है।
ऐसे में हम कम्युनिष्टों का क्या दायित्व है? किसान आंदोलन से सम्बंधित अन्य सैद्धान्तिक पहलू के अलावा हमे इस बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि दुश्मन वर्ग के बीच तीखे हो रहे सम्बन्ध को और तीखा किया जाए या धनी किसानों, गरीब और सीमांत किसानों के बीच विरोध को उभारा जाए और फासीवादी मोदी सरकार को मदद पहुचाया जाए? हमारा ज्यादा फोकस किधर हो?
यह एक गम्भीर सवाल है। इस पर अपना रुख तय करते समय हमें स्टॅलिन के निम्न विचारो को भी ध्यान में रखना चाहिए।
"To carry out correct politics, one might sow a revolutionary mood and evoke differences within the reactionary circles."
By *Comrade Stalin* in 1951 in a talk with Indian Communist delegation.
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