यदि संसार निरंतर गतिशील और विकासमान अवस्था में है, यदि पुरातन का लक्ष्य और नवीन का अभ्युदय विकास का नियम है, तो यह स्पष्ट है कि "चिरंतन" सामाजिक-व्यवस्थायें नही हो सकती, शोषण और व्यक्तिगत सम्पत्ति के "शाश्वत सत्य" नहीं हो सकते! किसान पर जमींदार और मजदूर पर पूँजीपति के प्रभुत्व के "त्रिकाल-सत्य" नहीं हो सकते!
इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम की जा सकती है, जैसे एक समय सामंतवादी व्यवस्था की जगह पूँजीवादी व्यवस्था कायम की गई थी!
इसलिए हमें भावी कार्यक्रम का फैसला समाज के उन स्तरों के आधार पर न करना चाहिए जिनका विकास बंद हो चुका है चाहे अभी उन्हीं की तूती बोलती हो; हमें उन स्तरों का आधार ग्रहण करना चाहिए जो विकासमान हैं और जिनका एक उज्ज्वल भविष्य है चाहे अभी तक वे प्रमुख शक्ति न बन पाये हों!
स्तालिन [द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद]
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