आंदोलन के उतार-चढ़ाव के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब एक-एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं, बिछुड़ जाते हैं। उस समय मनुष्य सान्त्वना के दो शब्दों के लिए भी तरस उठता हैं। ऐसे क्षणों में भी विचलित न होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते, कंधे नहीं झुकते, जो तिल -तिल करके अपने आपको इसलिए गलाते रहते हैं, इसलिए जलाते रहते हैं कि दीये की जोत मद्धिम न पड़ जाये, सुनसान डगर पर अँधेरा ना छा जाये, ऐसे ही लोग मेरे सपनों को साकार बना सकेंगे।
- भगत सिंह
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