खेतों को कोड़-कोड़ कर
ढेला फोड़ते
कादो-कीचड़ में धंसते
खून-पसीने से नहाते
तमाम खरीफ एवं रबी फसलों के
बीजों को बोते-बोते
विरक्ति हो गई है उसे अब खेती से।
हो भी क्यों न
उसकी कई पीढ़ियाँ खप गईं
महाजनी कर्ज और
बैंकों के लोन चुकाते-चुकाते।
दुनिया भर के लोगों के लिए
छप्पन भोग की थाल सजाने वाले किसानों की
ज़बान और मसूड़े छिल गए हैं अब
सूखी रोटियाँ चबाते-चबाते।
अपनी बदहाली
अपनी फटेहाली
अपनी बेबसी को ढ़ोते-ढ़ोते
झुक गया है उसका कंधा
निकल आए हैं
एक ही पीठ पर कई कूबर।
बाढ़ में बहते
सुखाड़ से सूखते
ठंड से ठिठुरते-ठिठुरते
आ गया है उबाल उसके रक्त में।
और अब
उसने ठान लिया है वह बोलेगा
छोटे-बड़े सभी तानाशाहों के खिलाफ
तय करेगा खुद
अपना खुशहाल भविष्य
नहीं देगा अपनी अगली पीढ़ी को
अपनी बदहाली और बेबसी का वसीयतनामा।
इसीलिए
छोड़ कर हल का मूठ
उसने अब लहरा दिया है हवा में हाथ
बो दिया है क्रांतिबीज।
©️ रानी सिंह
#standwithfarmerschallenge
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