Sunday, 30 May 2021

कोरोना संक्रमण- नागरिक डाट कॉम

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर ने हिन्दू हृदय सम्राट 'नरेंद्र मोदी' की छवि को तार-तार कर दिया है। क्या मोदी!, क्या शाह!, क्या योगी! सभी बेशर्मी का लबादा ओढ़े हुए हैं। इस बेशर्मी के आवरण में भी, तार-तार होती छवि की चिंता, बेचैनी और घबराहट को, इनके चेहरे पर साफ-साफ पढ़ा जा सकता है।

एक तरफ किसान सड़कों पर हैं, दूसरी तरफ विपक्ष लगातार हमलावर है। तीसरी तरफ आम नागरिक सहित खास भी इलाज, ऑक्सीजन, अस्पतालों की कमी के चलते दर-दर भटककर, तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे हैं।

विपक्ष मोदी से, सर्वदलीय बैठक की मांग कर रहा है और विपक्ष की यह मांग जायज भी है कि देश में सभी आम नागरिकों का फ्री वैक्सीनेशन करवाया जाए; कि नरेंद्र मोदी के दिमाग में नई संसद, राष्ट्रपति भवन आदि बनाने का जो भूत सवार है जो सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के नाम से कुख्यात हो चुका है, जिसमें 20 हज़ार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होना है, उस भूत से मोदी अपना पिंड छुड़ाएं और इस भारी भरकम राशि को आम नागरिकों के वैक्सीनेशन के लिए, अस्पतालों, ऑक्सीजन, डॉक्टर आदि की व्यवस्था के लिए खर्च करें, कुल मिलाकर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को रद्द करें। 

मगर मोदी और इनकी मित्र मंडली को, जो कि रोज-रोज होती सैकड़ों मौतों (वास्तव में हत्याओं) के लिए जिम्मेदार हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आलोचना पर मोदी की टीम और इनके विदेश मंत्री बिफर पड़ते हैं।

इन्हें आदत है, हज़ारों मौतों के बीच भी कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए, जश्न मनाने की। यही इनका इतिहास है। गुजरात ने इसे देखा है। दंगों को आयोजित करने और उसमें नरसंहार रचने की, जिनकी आदत हो, वही रोज़ सैकड़ों लोगों की तड़प-तड़प कर होती मौतों के बीच, कह सकते हैं कि माहौल में विपक्षी और विरोधी 'नकारात्मकता' परोस रहे हैं, कि माहौल तो 'सकारात्मक' है।

आम नागरिकों के लिए ऑक्सीजन की मांग करना, अस्पतालों की मांग करना, सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट जिसके प्रति मोदी की असीम मोहब्बत है, को रद्द करने की मांग करना, क्या माहौल को 'नकारात्मक' बनाना है! क्या फ्री वैक्सीनेशन की मांग करना 'नकारात्मकता फैलाना' है।

विपक्ष ने अपनी बारी में क्या किया और क्या नहीं किया या वे सत्ता पर होते, तो क्या करते। सवाल यह नहीं है क्योंकि विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ही तो शासक हैं, शासक वर्ग के लोग हैं। असल सवाल तो आम नागरिकों का है। 

मोदी सरकार, इस मौके पर, गिद्ध की तरह, आम इंसानों को नोच लेने के मौके, देशी-विदेशी कंपनियों को दे रही है। वैक्सीन कंपनियां, दवा कंपनियां, ऑक्सीजन आदि-आदि के धंधे में लगी कंपनियां इस 'आपदा में अवसर' की तलाश नहीं करेंगी तो क्या करेंगी। 'आपदा में अवसर' मोदी का प्रिय नारा है।

अहंकार और उन्माद में ग्रस्त हिन्दू फासीवादी, वस्तुस्थिति को देख सकने की स्थिति में हैं ही नहीं। इन्होंने रेत में शुतुरमुर्ग की तरह ही गर्दन डाली हुई है। इन्हें लगता है ये 50 साल तक राज करेंगे और जनता को मूर्ख बनाने में सफल होंगे। बस विपक्षी और विरोधी शांत हो जायें तो कोई दिक्कत नहीं। यही फासीवादियों की मानसिक बनावट भी है। इसीलिए उन्होंने, हर उस चीज, जिसमें सत्य है, जिसमें मोदी का महिमामंडन नहीं है, जिसमें मोदी सरकार की नीतियों, उपायों और व्यवहार पर तीखे सवाल खड़े हो रहे हों; उन्हें झुठलाने का अभियान चला दिया है।

संघ परिवार और मोदी सरकार का यह अभियान है 'सकारात्मकता असीमित'। 'सकारात्मकता असीमित' का यह अभियान उसी तरह शुरू हो रहा है जैसे किसानों के खिलाफ, तीन कृषि कानूनों को किसानों को तमाम दुख-संकटों से मुक्त करने वाला बताया जा रहा था। यह अभियान उसी तरह का है जैसे जब नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के विरोध में देशव्यापी विरोध हुआ था। तब ये इसके पक्ष में सकारात्मक बातों का अभियान चला रहे थे। अफसोस कि इनके 'असीम सकारात्मकता' का फिर वही हस्र होना है जैसा अभी तक हुआ है।

मूर्ख संघी और मोदी सरकार नहीं समझ सकते कि सकारात्मक और नकारात्मक एक ही सिक्के के दो विरोधी पहलू हैं। दूसरा यह कि मानसिक स्तर पर सकारात्मकता और नकारात्मकता का विज्ञान से, वैज्ञानिक तथ्यों, तार्किक सोच और वस्तुगत होने से संबंध है। अंधविश्वास, ढोंग, पाखण्ड से सकारात्मकता नहीं आती। गोमूत्र, हवन, गोबर से कोरोना के इलाज जैसी फर्जी व अवैज्ञानिक बातों से सकारात्मकता नहीं आती।

वैज्ञानिक तथ्यों, तर्कों और वस्तुगत स्थिति (सही-सही स्थिति और बातों) की जितनी जानकारी होगी, उतनी ही सकारात्मकता भी रहेगी या होगी अन्यथा इसका उल्टा ही होगा। भले ही तात्कालिक तौर पर ऐसा न लगे। जैसे जन्म होना और मरना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जन्म ही नहीं तो फिर मरने का भी सवाल नहीं। कोई जन्म को तो सत्य माने और मरने को झूठ, तो फिर इससे सकारात्मकता नहीं पैदा होती।

मगर, मोदी सरकार और संघ परिवार, इस द्वंद्व को समझ नहीं सकते। सटीक तथ्यों, सटीक आंकड़ों से, वैज्ञानिक चिंतन-तर्कों व तथ्यों से हिन्दू फासीवादियों को सख्त नफरत है। इसीलिए बेरोजगारी के आंकड़े की व्यवस्था खत्म करके, वे बेरोजगारों को 'नकारात्मक' होने से बचाना चाहते हैं। वे कोरोना जांचों की संख्या घटाकर, ज्यादा एंटीजन टेस्ट करवाकर और ऑक्सीजन के मसले पर राज्यों के साथ आंकड़ों का खेल खेलकर पूरे समाज में ''सकारात्मकता'' का माहौल बनाना चाहते हैं। 

मगर अफसोस कि यह कुछ भी काम नहीं आने वाला! पिछले साल के 'थाली-ताली' बजाने और 'दिए जलाने' का हस्र, आज हमारे सामने है। इन मूर्खतापूर्ण कृत्यों का ही नतीजा आज की त्रासदी के रूप में सामने है। इस प्रकार यह 'मोदी निर्मित त्रासदी' भी है। जितनी जल्दी आम नागरिक इस स्थिति को समझ जाएंगे, जितनी जल्दी उनका संघर्ष इस घोर जन विरोधी सरकार के खिलाफ शुरू हो जाएगा, उतना ही और उतनी ही जल्दी समाज सकारात्मकता की ओर बढ़ जाएगा। 

- नागरिक डाट कॉम से साभार

Saturday, 29 May 2021

सर्वहारा वर्ग की संस्कृति और इसकी चुनौतियां ! - नरेंद्र


सभी वर्गों की अलग अलग संस्कृति होती है जो मुख्यतः उनके उत्पादन संबंध से निर्धारित होती हैं । लेकिन उत्पादन संबंध के साथ भौगोलिक व सामाजिक परिवेश , उनका इतिहास , आदतें और परंपराओं से यह बहुत मजबूती से प्रभावित होती है । यह अन्य वर्गों की संस्कृति व विचारों से टकराती है और उनके प्रभाव में भी आती है।खासकर शासन में जो वर्ग रहता है उसकी संस्कृति और उसके द्वारा प्रायोजित तथा आरोपित संस्कृति का सभी वर्गों की तरह इन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है । इसलिए किसी भी वर्ग की संस्कृति उस वर्ग की निरपेक्ष संस्कृति नहीं होती है ।
 फिर भी आमतौर पर सामंतों की संस्कृति , किसानों की संस्कृति ,पूंजीपतियों और सर्वहारा की संस्कृति में फर्क रहता है । उनकी आदत , उनका टेंपरामेंट , सामाजिक संबंधों में व्यवहार ,खानपान , जीवन पद्धति आदि  में फर्क होता है। इन सबों को तय करने में उनका उत्पादन संबंध महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है ।
सर्वहारा या मजदूर वर्ग की भी कोई शुद्ध संस्कृति नहीं होती है। आमतौर पर हमारे समाज में टुटपुंजिया वर्ग यानी किसान , छोटे दस्तकार ' छोटे व्यापारी के संपत्ति हरण और बदलती जीवन पद्धति तथा परिवेश के कारण , पुराने उत्पादन संबंध में जीवन नहीं चल पाने के कारण ये वर्ग अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए मजदूर बनते हैं। ऐसे मजदूर अपने पुराने उत्पादन संबंध तथा वर्गीय स्थिति के कारण पुरानी संस्कृति को लंबे समय तक ढोते रहते हैं । हमारी पिछड़ी उत्पादन पद्धति तथा सांस्कृतिक विरासत , पुरानी संस्कृति तथा आदतों को बनाए रखने में मददगार होती है । सामाजिक तथा राजनीतिक क्रांतियां इन पुराने झाड़ झंखाड़ को जलाकर नए उभरते वर्ग के रूप में सर्वहारा वर्ग को , उस की मूल संस्कृति को उभरने का ज्यादा अवसर देती है । लेकिन सर्वहारा की संस्कृति कोई रूढ़ चीज नहीं है । जैसे-जैसे नए उत्पादन संबंध में वह सर्वहारा की जगह उन्नत उत्पादक शक्ति के रूप में अपनी भूमिका अदा करने लगती है , उसकी संस्कृति में ऊंचाई आती जाती है । यह संस्कृति इतिहास में समाजवादी संस्कृति के रूप में स्थापित हुई है। समाजवादी संस्कृति का विकास मुख्यतः सर्वहारा की संस्कृति से ही होती है लेकिन दूसरे मेहनतकश  वर्ग की संस्कृतियाँ भी इसे समृद्ध करती हैं । यह एक तरह से अपने समय और अपने इतिहास के सभी  प्रगतिशील तथा मेहनतकशों की संस्कृति कोआत्मसात कर अपना निर्माण करती है । इसलिए समाजवादी संस्कृति सर्वहारा संस्कृति से भी उन्नत और व्यापक होती है जो समाज को ज्यादा बेहतर जीवन दृष्टि देती है । 
  साम्राज्यवाद तथा पूंजीवाद जिस तरह से समाजवाद के निर्माण में बाधक है और समाजवादी अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए सक्रिय रहा J उसी तरह साम्राज्यवादी तथा पूंजीवादी संस्कृति ने कदम कदम पर समाजवादी संस्कृति को तबाह करने का अभियान चलाया और उसे सफलता भी मिली , क्योंकि उत्पादन संबंध तथा अर्थव्यवस्था के स्तर पर समाजवाद अभी मजबूत नहीं हुआ था ।आज की तारीख में सर्वहारा संस्कृति तथा समाजवादी संस्कृति के विकास में ये सभी ताकते अवरोध बनकर खड़ी है ।  हम वर्ग संघर्ष तथा वैचारिक व सामाजिक आंदोलनों को आगे बढ़ाकर सर्वहारा की संस्कृति को इनके हमलों से बचा कर उर्जा प्रदान कर सकते हैं । फिर भी जब तक साम्राज्यवाद और पूंजीवाद का बोलबाला है ,इसका गहरा प्रभाव सर्वहारा तथा मेहनतकश वर्ग की संस्कृति पर बना रहेगा I

तुम्हारी मेहनत के मालिकाने की खातिर- विद्यानन्द

तुम्हारी मेहनत के मालिकाने की खातिर
धर्म बना और जाति बनी
रंग बना और नस्ल बना
देश बने साम्राज्य बने 
ऊंच नीच के ताने बाने बने
मनुवाद और ब्राह्मणवाद बना
नफरत बना हिंसा बनी
तोपें और बंदूकें बनीं
सत्ता और सियासत बनी
व्यूह बने, षड्यंत्र बने
छल प्रपंच और फरेब बना
तुम्हे तुमसे ही अलग करने के बहाने बने।

सारे फसाने बिखर जाएंगे
सियासतें और सरहदें 
तोपें और बंदूकें भी
तिकड़म और षड्यंत्र भी
नाकाम हो जाएंगी साजिशें
खत्म हो जाएगा ताकत का दम्भ
जिस दिन उठ खड़े होंगे तुम
गुलामी की बेड़ियों को तोड़
तुम्हारी मेहनत आजाद होगी
हुक्मरानों के चंगुल से
सारी दुनिया तुम्हारी होगी
जाति धर्म का पाखंड
ब्राह्मणवादी दम्भ
धरासाई होंगे सारे
सारे मेहनतकश होंगे
और एक सुंदर दुनियां 
जिसमें तुम होंगे
सिर्फ तुम और तुम्हारी मेहनत
मालिकों से मुक्त
मिल्कियतों से परे
एक खूबसूरत दुनियां।

विद्यानन्द

Friday, 28 May 2021

लाशों का प्रतिरोध- सीमा आज़ाद



ज़िंदा लोग
लॉक्ड हैं घरों में,
सड़कों पर
 कर्फ्यू सजाए बैठे हैं
हाकिम के खाकी कारिंदे।
ऑक्सीजन की तलाश में
बदहवाश भागते लोगों की
चीख पुकार पर है पहरा -
ख़ामोश!
कोई नहीं कहेगा
"दम घुट रहा है!"
सांस की आस में
अस्पतालों से उठती लाशें -
बिस्तर खाली कर रही हैं
ज़िंदा लोगों के लिए
धड़ाधड़।

ख़ामोश!
लाशों पर रुदन की भी है मनाही,
गायों के रंभाने की आवाज़ में
खलल पड़ता है इससे - 
जल्द से जल्द निपटाओ लाशों को
खींचो परिजनों के पास से -
श्मशान में पहुंचाओ -

श्मशानों पर डाल दिए गए हैं  पर्दे
दिखना नहीं चाहिए
हिन्दू राष्ट्र का यह चमकदार "विकास"
डर है नजर लगने का -
 काला दिठौना लगाओ!
ऐसा करो -
मुंह ही काला कर लो
चिताओं की राख से।

हाकिम का फरमान -
"विकास" अभी और होगा
चूंकि कब्रिस्तान के बराबर नहीं हुए
 शमशान अभी भी -
नदियों को भी श्मशान बना दो।
 इंसानी सभ्यता
 जो नदियों की गोद में फली- फूली,
उसे उसमें ही बहा दो।

लेकिन -
सभ्यताएं यूं नदियों में नहीं बहती
अपने निशान छोड़ जाती हैं,
इतिहास लाश नहीं होता
वह बोलता है भविष्य में, वर्तमान में -
एक लाश दुर्घटना हो सकती है,
कई लाशें इतिहास में दर्ज हो जाती हैं
और बोलने लगती हैं।

ऐसे समय में
जब छिपाया जा रहा हो मौत का आंकड़ा -
लाश बन कर बहना
और चढ़ बैठना विकास के आंकड़े पर -
मारे गए लोगों का प्रतिशोध है।
यह महज दृश्य नहीं
लाशों का प्रतिरोध है।

14 मई 2021

नक्सलबाड़ी दिवस पर...विश्वविजय



जंगल हारा नहीं है कभी

हे राम !
जब तुमने
धर्म की रक्षा में
शूद्र शम्बूक की हत्या की
तब
ऐसा नहीं हो सकता कि
शम्बूक के वंशजों ने
तुम्हारे विरुद्ध तीर न चलाएं हों।
हे राम !
जब तुम
जंगल - जंगल भटक रहे थे
अपनी पत्नी और भाई के साथ
तब
जंगल की एक बेटी ने
तुम्हारे भाई के सामने
प्यार का इजहार किया
और तुम्हारे भाई ने
'धर्म' की रक्षा में
प्यार पर तलवार चलाया
और जंगल की बेटी
सूर्पनखा हो गयी।
हे राम!
जब
प्यार पर तलवार  चली
तब
पूरा जंगल ही गरमाया
छिड़ गया युद्ध
जो रामायण कहलाया ।
ऐसा नहीं कि , उस युद्ध में
तुम्हारे विरुद्ध तीर न चलें हों
मारे गए थे
ढेर सारे लोग तुम्हारे भी
यहाँ तक कि
प्रेमद्रोही लक्ष्मण
युद्ध भूमि में मूर्छित पड़ा था
तब तुमने
युगत लगाया
विभीषण को मुखबिर बनाया
जिसने सारा राज बताया
और युद्ध में तुम
विजयी घोषित हुए ।
हे राम!
आज
जब
तुम्हारे ही मनसूबे पाले लोग आये
जंगल की हरियाली का शिकार करने
जंगल की ओर से
जहर बुझे तीरों की बौछार हुई थी
तिलका मांझी के तीर से
छेदे , बेधे गए थे गोरे अंग्रेज
वैसे, इस युद्ध में
गोरे एक कदम पीछे हटे थे
और लौट गए अपने देश
वैसे ही जैसे
तुम लौटे थे
मुखबिर विभीषण को सत्ता सौंपकर
हे राम!
जानते हो फिर क्या हुआ?
उलगुलान का नायक
तिलका मांझी शहीद हो गया
और लड़ाई की कमान
जंगल संथाल ,चारु मजूमदार ने सम्हाल ली थी
नक्सलबाड़ी में तो
वह घमासान हुआ कि
बस पूछो मत
जंगल पहाड़ की चिंगारी
गाँव - जवार में फैल गई थी
मुट्ठियाँ लहराते लोग
अमार बाड़ी तुमार बाड़ी!
नक्सलबाड़ी  नक्सलबाड़ी !!
का नारा लगा रहे थे
हे राम!
यह युद्ध
तबसे अब तक
चलता ही आ रहा है
जल - जंगल - जमीन पर
कब्जेदारी की उम्मीद
न तुम्हारे पक्ष के लोगों ने छोड़ी
न ही जंगल की ओर से
उसे बचाने की लड़ाई जंगल के लोगों ने छोड़ी ।
हे राम!
यह देखो
सेना के लोग
चले आ रहे हैं, बढे आ रहे हैं
जंगलों में जगह - जगह
कैम्प लगा रहे हैं
जंगल की बेटियाँ
उनके  हिंसक खूनी दांतों से काटे जाने से
खून से लतफत हैं
जंगल के बेटे लहूलुहान हैं
उनकी बंदूकों की गोलियों से
अभी - अभी
बस्तर के जंगलों में
बढ़े आ रहे , चढ़े आ रहे
सिपाहियों को
खबरदार ! ही तो कहा था
बदले में बस्तर के बेटी, बेटों का सीना
छलनी कर दिया था सिपाहियों ने
खबरदार!!
प्रेमद्रोही , रवायत के लोगों
हरियाली के शिकारियों
खबरदार!!
जंगल मे उलगुलान का नारा
फिर से गूंज उठा है
और जंगल के लोगों ने
ज़हर बुझे तीर के साथ - साथ
बंदूक की गोलियाँ चलाने लगे हैं
बारूदी सुरंग बिछाने लगे हैं
इसलिए
इस युद्ध में
हार किसकी होगी?
यह तय नहीं है अभी
वैसे
जंगल हारा नहीं है कभी।

                           #विश्वविजय

मराठी दलित कविता *गांधी जन्म शताब्दी पर* (दया पवार)



 अबे..... भोसड़ी के !
नीचे  बैठ 
 वह शर्मिंदा होकर बैठ गया
 गांधी  जन्म शताब्दी  पर
 धुआं उगलने वाली चिमनी कुछ पल के लिए रुक गई

सभी खातों में सन्नाटा छा गया।
 खड़खड़ाने वाले मशीनी पहिए चाप पर कान धरने लगे
 माथे का पसीना पोंछते हुए 
कामगारों का  हुजूम इकट्ठा हुआ

 वो आ गये ...  वो गये ...
 सभी एड़ियाँ उठा कर गेट की ओर देखने लग

 अखाड़े में
 जैसे पहलवान उतरते हैं, वैसे ही थके थके कदमों के साथ रहनुमा मंच पर चढ़ गए।
 
 " भाईयो.......!
 राष्ट्रपिता कहते थे कि... हरिजन ईश्वर की  संतान  
 उगते सूरज की डिस्क की तरह
 उनका खून भी लाल है........

 तालियों की गड़गड़ाहट के साथ  भाषण समाप्त हुआ।

 राष्ट्रपिता की प्रतिमा का अनावरण हुआ।

 " कांबले  हार ला.....

 सूती लड़ी के हार
 वे दौड़ते हुए आए और कण्ठ माला की तरह गले से चिमट गए

 "कांबले प्रसाद बांट  ..."

 कांबले आगे बढ़ा
अचानक सभा में मराठी अंदाज़ में स्वर गूंजा

 "अबे। भड़वी के....... ! तुमने सारा प्रसाद नापाक कर दिया "

 बिजली का शॉक लगा हो जैसे
सारे हाथ खिंच कर रह गए

 गांधी जी की जय जय कार में
 कामगार अपने अपने  खाते में वापस लौट आए

  चिमनी दोबारा धुवां उगलने लगी
 मशीनी पहिये  खड़खड़ाने  लगे
 शाम हुई

 पल भर में क्षितिज पर अंधेरा  छा गया।

Thursday, 27 May 2021

चन्द्रग्रहण/ सूर्य ग्रहण



बचपन में जब कभी चन्द्रग्रहण या सूर्य ग्रहण लगता मैं मेरी मां उस समय खाना नहीं बनाती थी जब ग्रहण खत्म हो जाता तभी बनाती वो भी स्नान करने के बाद और पंडितो को अन्न दान जरुर करती थी, और घर के सभी लोग नहाने के बाद ही खाना खाते थे जब मैं इसका कारण पूछती तो बताती थी की " सूर्य भगवान और चन्द्रमा पर दुःख पड़ा रहता है उन दोनों को राहु और केतु दोनों बारी बारी से  निगल लेते हैं इसलिए अंधेरा हो जाता  है"  जब मैं पूछती कि इससे पंडित से क्या लेना-देना तो कहती कि वही सब राहु और केतु दोनों को डांटते हैं तो वे सब वापस सूर्य और चन्द्रमा को मुंह से बाहर निकाल देते हैं। मां मेरी अनपढ़ थी इसलिए ये सारी बातें पुरे विश्वास के साथ मुझे बताती थी लेकिन बात मुझे कुछ हजम नहीं होती थी। फिर जब मैं भूगोल विषय की पढ़ाई में सूर्य और चन्द्र ग्रहण के बारे में पढ़ी तो मुझे मां की बताई हुई बातों पर बड़ी हंसी आती थी। लेकिन अब मेरी मां हम लोगों के माध्यम से काफी कुछ जान गई है अब तो ब्राह्मणों को दरवाजे से भगा देती है।

इसी तरह हमारे देश में वैदिक काल से ही ग्रहण से संबंधित कथाएं और किवदंतियाँ प्रचलन में रही हैं। वर्तमान में भी लोग इन पौराणिक कथाओं को सत्य मानते हैं। ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते रहते हैं।असल में ग्रहण के समय पुरोहित, ज्योतिषी, पंडे आदि दान-दक्षिणा इत्यादि  के बहाने लोगों के मन में भय उत्पन्न करने की मंशा रखते हैं और उनका अपने तरीके से उपयोग तो  करते ही हैं।

ग्रहणों के बारे में जो आज अंधविश्वास व मिथक हैं, उसका वर्णन महाभारत, मनुस्मृति, अथर्ववेद के साथ-साथ अन्य पोथियों में भी हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं :

1. ग्रहण के समय भोजन को पकाना तथा खाना नहीं चाहिए।
2. घर के अंदर उपलब्ध समस्त सामग्री पर तुलसी के पत्तों से गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए।
3. ग्रहण के समाप्त होने के बाद स्नान करना चाहिए।
4. ग्रहण के समय रूपयें, कपड़े, मवेशियों इत्यादि को पुरोहितों, पंडितों, पंडो को दान करना चाहिए।
इत्यादि अंधविश्वास और भ्रांतियों का समावेश है, जिसका यहाँ पर वर्णन करना लेखक और पाठक के समय को अन्यथा लेने के तुलनीय होगा। निस्संदेह ये कठोर नियम हमारे किसी काम के नही हैं तथा इनको अब और बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।

ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नही थी। आज से लगभग पन्द्रह सौ साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताया हैं। आर्यभट आर्यभटीय के गोलपाद में लिखते हैं :

"छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया।। 37 ।।"

अर्थात्, जब चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ती है, तब चंद्रग्रहण होता और जब पृथ्वी पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया। उनके कई विचार क्रन्तिकारी थे। आर्यभट परम्पराओं को तोड़ने वाले खगोलिकी आन्दोलन के अग्रनेता थे। अतः उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों के आलोचनाओं को भी झेलना पड़ा।

अब हम सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के बारे में बहुत-कुछ जानते हैं। अब हम जानते हैं कि राहु और केतु कोई ग्रह नही हैं। तारामंडल में सूर्य और चन्द्रमा के पथ बिलकुल एक नही हैं, बल्कि थोड़े अलग हैं। जैसे गोल खरबूजे पर वृत्ताकार धारियां होती हैं, वैसे ही तारामंडल में एक धारी सूर्य का पथ हैं तथा दूसरी वाली धारी चन्द्रमा का पथ हैं। ये दोनों वृत्त जहाँ एक-दूसरें को काटते हैं, उन दो बिंदुओं को राहु और केतु कहते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि राहु-केतु कोई ग्रह नहीं, बल्कि खगोलशास्त्र में वर्णित दो काल्पनिक बिंदु हैं।

Sunita A

Wednesday, 26 May 2021

(बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष by P L Shakun) बुद्ध, कार्ल मार्क्स व डॉक्टर अम्बेडकर



आप परिवर्तन तो कर सकते हैं परंतु परिवर्तन के नियमों को समझे बगैर परिवर्तन नहीं कर सकते हैं. परिवर्तन का नियम है कि इस विश्व ब्रह्मांड में तीन चीजें हैं - प्राकृतिक जगत, सामाजिक जगत और ज्ञान जगत. इन तीनों को मिलाकर ही ब्रह्मांड है. इन तीनों से बाहर किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं है. और ये सब भौतिक जगत कहलाता है जिसका अस्तित्व हमारे माइंड के बाहर है और जो हममें अनुभूतियाँ पैदा करता है. ये संपूर्ण भौतिक जगत परिवर्तन शील है, गतिशील है. गौतम बुद्ध ने भी कहा सब कुछ परिवर्तन शील है, गति शील है कोई भी चीज शास्वत नहीं है. परंतु हर व्यक्ति के चिंतन की सीमा होती है और वह सीमा है उसकी भौतिक पतिस्थितियों की सीमा. बुद्ध के समय में प्रायोगिक विज्ञान नहीं आया था. इसलिए वे ये नहीं बता सकते थे कि दिन और रात क्यों होते हैं, पृथ्वी के साथ सूर्य का क्या संबंध है? परंतु ये न बताने के कारण हम ये नहीं कह सकते हैं कि बुद्ध न्यूटन या गेलीलियो से छोटे हैं. क्योंकि दोनों की परिस्थितियां और समय भिन्न - भिन्न हैं. इसलिए दोनों की तुलना करना भी गलत है. इसी तरह मार्क्स से बुद्ध की तुलना भी नहीं हो सकती क्योंकि मार्क्स और बुद्ध में 2500 साल का अंतर है. मार्क्स के जमाने में  भिन्न -भिन्न क्षेत्रों के वैज्ञानिक पैदा हो चुके थे. अतः उनके पास बुद्ध सहित तमाम दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के ज्ञान का अनुभव था . इसलिए मार्क्स और बुद्ध की तुलना करना भी अवैज्ञानिक है. बुद्ध के समय पूंजीवादी व्यवस्था नहीं थी , इसलिए बुद्ध यह नहीं बता सके पूंजीपति मजदूर का शोषण किस नियम से करता है. उनके सामने जनजातीय व्यवस्था का सामूहिक जीवन था और उस जनजातीय व्यवस्था के गर्भ से राज्य सत्ता पैदा हो रही थी. जनजातीय व्यवस्था में एक जन परिषद हुआ करती थी जो भीतर से लोकतांत्रिक होती थी. ये लोग सर्वसम्मति से अपने जनजातीय समूह का सरदार चुनते थे जिसे राजा कहते थे.  इतिहासकार डी. डी. कौसाम्बी ने लिखा है कि " मैंने प्रबल प्रमाणों के साथ यह दिखा दिया है कि उपनिषद ही नहीं बल्कि आरण्यक भी बुद्ध के बाद लिखे गए थे. " जबकि अन्य विद्वान बुद्ध को उपनिषद् काल के बाद का मानते हैं. परंतु कौसाम्बी जी ने जो प्रमाण दिये हैं वे अकाट्य हैं. उन्होंने लिखा है कि शतपथ ब्राह्मण और ' ब्रहदारणक उपनिषद्' में जो वंशावली दी गई है उससे ऐसा ज्ञात होता है कि बुद्ध के पश्चात 35 पीढ़ियों तक उनकी परंपरा चलती रही थी. "
इसलिए हम यही प्रमाण मानते हुए बुद्ध को उपनिषद् और आरण्यक काल से पहले का ही मानेंगे.  उस युग में वर्ण व्यवस्था भी इतनी कठोर नहीं हुई थी. परंतु यज्ञ - याज्ञ की और यज्ञों में पशु बलि की संस्कृति थी. कृषि का आरंभ हो गया था जिसमें बैलों को हल जोतने के काम लिया जाता था. अतः बुद्ध ने यज्ञ में पशु बलि का बिरोध किया और सत्य और अहिंसा का सिद्धांत प्रतिपादित किया. महावीर भी बुद्ध के समकालीन हैं. अतः उन्होंने भी अहिंसा पर जोर दिया. अतः हम कह सकते हैं कि बुद्ध और महावीर ने जिन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया वे सभी सिद्धांत उनके चारों ओर व्याप्त भौतिक परिस्थितियों की ही उपज थे. क्योंकि नियम यह है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है वह अपने चारों ओर व्याप्त भौतिक परिवेश के साथ उसके द्वन्द्व से उद्भूत होता है. यानी मनुष्य के मष्तिष्क के साथ प्रकृति तथा सामाजिक परिवेश के साथ जो संघर्ष होता है मनुष्य का चिंतन उसको प्रतिबिंबित करता है. इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य के चिंतन की सीमा उसके भौतिक परिवेश की सीमा है. इसीलिए बुद्ध और मार्क्स की तुलना करना एक अवैज्ञानिक चिंतन है. इसके बाबजूद चूंकि बाबा साहेब अम्बेडकर ने *बुद्ध या कार्ल मार्क्स* नाम से एक लेख उन्होंने लिखा जिसमें उन्होंने लिखा है कि *वर्ग संघर्ष का अस्तित्व है, अष्टांगिक मार्ग का उनका सिद्धांत इस बात को मान्यता देता है कि वर्ग संघर्ष का अस्तित्व है और यह वर्ग संघर्ष ही है, जो दुःख व दुर्दशा का कारण होता है* (पृष्ठ 349 बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर संपूर्ण वांगमय खण्ड- 7  द्वितीय संस्करण 1998) 
    आगे इसी पृष्ठ पर वे लिखते हैं *यदि हम यह समझ लें कि दुःख का कारण शोषण है, तब बुद्ध इस विषय में मार्क्स से दूर नहीं हैं. व्यक्तिगत संपत्ति के प्रश्न के संबंध में बुद्ध तथा आनंद के बीच वार्तालाप का उद्धरण डॉ अम्बेडकर ने पेश करते हुए लिखा है, बुद्ध कहते हैं: ' मैंने कहा है कि धनलोलुपता संपत्ति के स्वामित्व के कारण होती है.... जहाँ पर किसी प्रकार की संपत्ति व अधिकार नहीं है, वह चाहे किसी व्यक्ति के द्वारा या किसी भी वस्तु के लिए हो, वहां कोई संपत्ति या अधिकार न होने के कारण संपत्ति की समाप्ति या अधिकार की समाप्ति पर क्या कोई धन लोलुप या लालची दिखाई पड़ेगा?* आनंद जबाव देते हैं -
*नहीं प्रभु*
 आगे अम्बेडकर ने संघ के नियमों के अनुसार बताया है कि एक भिक्षु केवल आठ वस्तुयें अपने पास रख सकता है जो निम्न प्रकार हैं ::" प्रतिदिन पहनने के लिए तीन चीवर (वस्त्र) -3, 
कमर में बांधने के लिए एक पेटी-1, एक भिक्षा पात्र, एक उस्तरा, सुई धागा, और पानी साफ करने की एक छलनी - ये आठ वस्तुयें ही संघ में एक भिक्षु रख सकता है. डॉ अम्बेडकर ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "ये नियम रूस में साम्यवाद में पाये जाने वाले नियमों से अधिक कठोर हैं".  
  आगे डॉ अम्बेडकर ने " साधन " शीर्षक में लिखा है कि " साम्यवाद जिस का प्रतिपादन बुद्ध ने किया उसे कार्यान्वित करने के लिए साधन भी निश्चित है इन साधनों को तीन भागों में रखा जा सकता है भाग 1 पंचशील का आचरण बुद्ध ने एक नए सिद्धांत का .प्रतिपादन किया यह उन समस्याओं की कुंजी है जो उनके मन में बार-बार उठा करती थी . नए सिद्धांत का आधार यह है कि यह सारा संसार कष्टों और दुखों से भरा हुआ है ,यह एक ऐसा तथ्य था जिस पर न केवल ध्यान देना आवश्यक था बल्कि मुक्ति की किसी भी योजना में इसे प्रथम स्थान देना था इस तथ्य को मान्य कर  बुद्ध ने इसे अपने सिद्धांत का आधार बनाया .उनका कहना था कि उक्त सिद्धांत को यदि उपयोगी होना है तो कष्ट तथा दुख का निवारण हमारा लक्ष्य होना चाहिए इस कष्ट तथा दुख के कारण क्या हो सकते हैं इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने यह पाया कि इसके कारण केवल दो हो सकते हैं 
मनुष्य के कष्ट तथा दुःख उसके अपने ही दुराचरण के फल स्वरुप हो सकते हैं .दुख के इस कारण का निराकरण करने के लिए उन्होंने पंचशील का अनुपालन करने का उपदेश दिया .
  पंचशील में निम्नलिखित बातें आती है .
1 - किसी जीवित वस्तु को ना ही नष्ट करना और ना ही कष्ट पहुंचाना.
2-चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति को धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा ना हथियाना और ना उस पर कब्जा करना.
3- झूठ न बोलना
 4-तृष्णा ना करना
 5-मादक पदार्थों का सेवन न करना .
बुद्ध का मत है कि संसार में कष्ट व दुख मनुष्य का मनुष्य के प्रति पक्षपात है इस पक्षपात का निराकरण किस प्रकार किया जाए मनुष्य के प्रति मनुष्य के पक्षपात का निराकरण करने के लिए बुद्ध ने आर्य अष्टांगिक मार्ग निर्धारित किया इस अष्टांग मार्ग के तत्व इस प्रकार हैं -
1 -सम्यक दृष्टि अर्थात अंधविश्वास से मुक्ति 
2- सम्यक संकल्प जो बुद्धिमान तथा उत्साह पूर्ण व्यक्तियों के योग्य होता है
3-सम्यक वचन अर्थात दयापूर्ण,  स्पष्ट तथा सत्य भाषण 
4-सम्यक आचरण अर्थात शांति पूर्ण ईमानदारी तथा शुद्ध आचरण
 5 - सम्यक जीविका अर्थात किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार की क्षति या चोट न पहुंचाना 
 6-अन्य 7 बातों में सम्यक परिरक्षण .
7-सम्यक् स्मृति अर्थात एक सक्रिय तथा जागरूक  मस्तिष्क 8 -सम्यक समाधि अर्थात जीवन के गंभीर रहस्य के संबंध में गंभीर विचार 
    इस अष्टांग मार्ग का उद्देश्य पृथ्वी पर धर्म परायणता तथा न्याय संगत राज्य की स्थापना है. 
(वही पृष्ठ -350 से 352) 
आगे डॉ अम्बेडकर लिखते हैं कि
" स्पष्ट है कि बुद्ध ने जो साधन अपनाए वे स्वेच्छा पूर्वक अनुसरण करके मनुष्य की नैतिक मनोवृत्ति को परिवर्तित करने के लिए थे .साम्यवादियों द्वारा अपनाए गए साधन भी इसी भांति स्पष्ट संक्षिप्त तथा स्फूर्ति पूर्ण हैं. ये हैं : एक -हिंसा और दो- सर्वहारा वर्ग की तानाशाही.
   साम्यवादी कहते हैं कि साम्यवाद को स्थापित करने के केवल दो ही साधन है पहला हिंसा वर्तमान व्यवस्था को भंग करने व तोड़ने के लिए इससे कम कोई भी कार्य योजना पर्याप्त नहीं होगी दूसरा साधन है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही व्यवस्था को जारी रखने के लिए उससे कम कोई चीज पर्याप्त नहीं होगी.स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में क्या समानताएं हैं तथा क्या विषमताएं हैं .अंतर व विषमता साधनों के विषय में है साध्य दोनों में समान है.  
आगे डॉ अम्बेडकर साधनों का मूल्यांकन करते हुए निजी स्वामित्व को हटाने के लिए हिंसा को न्याय संगत ठहराते हैं. वे कहते हैं कि "हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि गैर साम्यवादी देशों में भी हत्यारे को फांसी पर लटकाया जाता है. क्या फांसी पर लटकाना हिंसा नहीं है? गैर साम्यवादी देश एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं. युद्ध में लाखों लोग मारे जाते हैं. क्या यह हिंसा नहीं है? यदि एक हत्यारे को इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि उसने एक नागरिक को मारा है, उसकी हत्या की है, यदि एक सिपाही को युद्ध में इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि वह शत्रु राष्ट्र से संबंधित है तो यदि संपत्ति का स्वामी स्वामित्व के कारण शेष मानव जाति को दुःख पहुंचाता है तो उसे क्यों नहीं मारा जा सकता? संपत्ति के स्वामी के लिए उसके पक्ष में बचाव का कोई कारण नहीं है. व्यक्तिगत संपत्ति को परम पावन क्यों माना जाना चाहिए? 
   डॉ अम्बेडकर ने व्यक्तिगत संपत्ति को हटाने के लिए जो सवाल उठाया है उसे वे न्याय संगत ठहराने के लिए बताते हैं कि "बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे. परंतु वे न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ पर न्याय के पक्ष के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है, वहां उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति दी है. यह बात वैशाली के सेना अध्यक्ष सिंह सेनापति के साथ उनके वार्तालाप में भलीभांति सोदाहरण समझाई गयी है. 
     बुद्ध ने सिंह सेनापति के प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसमें बुद्ध कहते हैं कि ".... जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे हिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता. यदि शांति बनाये रखने के सभी साधन असफल हो गये हों तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है जो युद्ध को शुरू करता है." 
  डॉ अम्बेडकर ने अपने इस लेख में मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को सही माना है और कहा है कि अष्टांगिक मार्ग इस सिद्धांत के अस्तित्व को यह कहकर मान्यता देता है कि वर्ग संघर्ष ही है जो दुःख व दुर्दशा का कारण है और वे निजी स्वामित्व को भी मनुष्य के शोषण के लिए जिम्मेदार मानते हैं और उसे हटाने के लिए हिंसा को न्याय संगत मानते हैं. 
परंतु वे साथ ही ये भी कह देते हैं कि "बल प्रयोग को इस प्रकार नियमित करना चाहिए कि वह अनिष्टकर साध्य को नष्ट करने की प्रक्रिया में यथा संभव अधिक से अधिक साध्यों की रक्षा कर सके. बुद्ध की अहिंसा उतनी निरपेक्ष नहीं थी, जितनी जैन मत के संस्थापक महावीर की अहिंसा थी. डॉ अम्बेडकर ने अंत में जोड़ दिया है कि" साम्यवादी हिंसा का प्रतिपादन एक निरपेक्ष सिद्धांत के रूप में करते हैं. बुद्ध इसके घोर विरोधी थे. डॉ अम्बेडकर का यह अंतिम वाक्य बिना किसी संदर्भ के कम्युनिस्टों के संबंध में जोड़ दिया गया है जो निराधार है.  जितनी हिंसा मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग द्वारा कारखानों में उनसे बिना मजदूरी दिये जबरन काम करबाकर की जाती तथा सरकार तथा उसके अधीन कार्य करने वाली पुलिस तथा नौकरशाही  मजदूरों पर जो अत्याचार करती है उसके अनेकों उदाहरण डॉ अम्बेडकर के साहित्य में ही भरे पड़े हैं. लेकिन वे उन्होंने अछूतों पर अत्याचार के रूप में दिये हैं. क्या अछूत मजदूर वर्ग में नहीं आते असल में  मार्क्स की परिभाषा के अनुसार इस देश के अछूत ही असली सर्वहारा हैं जिनके पास जीवन जीने के लिए श्रम के अलावा दूसरी कोई संपत्ति ही नहीं है. वे सदियों से सर्वहारा हैं जिन पर पहले ब्राह्मणवाद और सामंतशाही की तानाशाही की तलवार लटकी रहती थी और और अब पूंजीपति वर्ग की तानाशाही की तलवार लटकी रहती है. न उनके पास पहले कोई संपत्ति के साधन थे और न अब हैं. इसके बाबजूद डॉ अम्बेडकर को समाजवादी व्यवस्था में सर्वहारा की तानाशाही में अधिकारों की स्वतंत्रता नजर नहीं आती है.

25 मई नक्सलबाड़ी की 54वीं वर्षगाँठ पर- मुक्ति संग्राम



नक्सलबाड़ी की विरास्त पर पहरा देने के लिए कट्टरता से पीछा छुड़ाना ज़रूरी

25 मई को नक्सलबाड़ी विद्रोह की 54वीं वर्षगाँठ थी। 54 वर्ष पहले पच्छिम बंगाल के दार्जलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी गाँव से शुरू हुए किसानों के विद्रोह, जिसे आस-पास के चाय-बाग़ानों के मज़दूरों का भी साथ हासिल था, भारत के लूट-दमन की शिकार मेहनतकश जनता की मुक्ति का प्रतीक बन गया है। नक्सलबाड़ी से भारत में एक नई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी धारा का जन्म हुआ। इस धारा ने संशोधनवाद, नव-संशोधनवाद के साथ अलगाव की स्पष्ट रेखा खींची। इन कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के ख़िलाफ़, चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा चलाए जा रहे संघर्ष में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ स्टैंड लिया।

मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत घोषित किया। लेकिन नक्सलबाड़ी के साथ जिस नई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी धारा का जन्म हुआ, ये ख़ुद को एक पार्टी में संगठित ना कर पाई। यह आंदोलन कई ग्रुपों में बंट गया। यह हालत आज आधी सदी के बाद भी बरक़रार है।
पिछले 54 सालों में पुल के नीचे काफी पानी बह चुका है। इस आंदोलन से पैदा हुए कई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप बिखर गए, अपना वजूद तक क़ायम नहीं रख सके। कुछ ग्रुप संशोधनवाद की पट्टरी पर चढ़ संसदवाद की राह पर चल पड़े। कई ग्रुप आज भी भारतीय क्रांति को समर्पित हैं, देश के विभिन्न कोनों में मेहनतकश जनता के संघर्षों में अग्रणी भूमिका में हैं। लेकिन क्रांति के लिए अपनी प्रतिबद्धता, समर्पण तथा क़ुर्बानियों के बावजूद भी भारत के कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन का बड़ा हिस्सा आज भी कट्टरता (dogmatism)  का अंधेरा ढो रहा है। 1947 से 1967 तक (नक्सलबाड़ी विद्रोह तक) और उसके बाद के अब तक के 54 वर्षों के दरमियान भारत में और इसी तरह पूरे विश्व में (साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में) आए बड़े महत्वपूर्ण बदलावों से इस आंदोलन का बड़ा हिस्सा आँखें मूंदे बैठा है। कुछ घिसे पिटे, अप्रासंगिक हो चुके फार्मूलों के साथ काम चला रहा है।

1967 में भी नक्सलबाड़ी से साथ वजूद में आए कम्यूनिस्ट ग्रुपों ने चीनी क्रांति की अँधी नक़ल की कोशिश की। भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के समग्र विश्लेषण, अध्ययन पर आधारित, भारत की हालतों के लिए उपयुक्त क्रांति का कार्यक्रम, युद्धनीति और रणकौशल (tactics) गढ़ने की बजाए, किसी रटन मंत्र की तरह भारत को अर्ध-सामंती उपनिवेशवादी देश घोषित कर दिया गया। यह कहा गया कि भारत में चीन की तरह नव-जनवादी क्रांति होगी, कि चीनी तर्ज़ पर भारतीय क्रांति का रास्ता दीर्घ लोकयुद्ध का रास्ता होगा। इन घोषणाओं का उस वक़्त की भारत की ज़मीनी हक़ीक़तों से कोई मेल नहीं था। भारतीय क्रांति का यह कार्यक्रम 1951 में भाकपा द्वारा सोवियत नेतृत्व के साथ बातचीत के आधार पर अपनाए गए कार्यक्रम का ही नया संस्करण था।
अफ़सोस की बात यह है कि आज भी कई ग्रुप भारतीय क्रांति के कार्यक्रम, पथ आदि के बारे में 1967 की अवस्थितियों को ही दोहरा रहे हैं। इनका दावा है कि भारतीय समाज में पिछले 54 वर्षों में कोई भी बदलाव नहीं हुए। मिसाल के तौर पर नक्सलबाड़ी की 54वीं वर्षगाँठ के अवसर पर 'सुर्ख़ लीह' वाले साथियों ने नक्सलबाड़ी की बग़ावत की वर्षगाँठ के अवसर पर चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के बयान के कुछ अंश प्रकाशित किए हैं। इसमें कहा गया है कि नक्सलबाड़ी का रास्ता, भारतीय क्रांति का रास्ता है, कि भारत एक अर्ध-उपनिवेशिक, अर्ध-सामंती देश है, कि भारतीय क्रांति का रास्ता ग्रामीण इलाकों में आधार इलाके स्थापित करना, दीर्घ हथियारबंद लोकयुद्ध चलाना, गाँवों के ज़रिए शहरों को घेरना और अंत में फ़तह करने का रास्ता है। कि इस क्रांति को किसानों पर निर्भर होना चाहिए।

पहली बात तो यह है कि चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी सुझए गए ये फार्मूले भारत की उस वक़्त की हालतों से ज़रा भी मेल नहीं खाते थे, आज की हालतों से तो उनका क्या मेल होना था। भारत के कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन का पिछले 54 वर्षों का व्यवहार इसकी गवाही देता है।

दूसरी बात यह, भारत में कैसे उत्पादन संबंध हावी हैं, यहाँ क्रांति की मंजिल, युद्धनीति, रणकौशल क्या होंगे इसका फ़ैसला भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी करेंगे ना कि कोई बिरादर संगठन। कोई भी बिरादर पार्टी किसी भी देश में चल रहे जन मुक्ति संघर्ष के साथ हमदर्दी ज़ाहिर कर सकती है, लेकिन वहाँ की क्रांति का कार्यक्रम नहीं गढ़ सकती।

मौजूदा भारत में पूँजीवादी उत्पादन संबंध हावी हैं, यह किसी भी क़िस्म की जनवादी क्रांति की मंज़िल को पार कर चुका है और समाजवादी क्रांति के पड़ाव में दाख़िल हो चुका है। दीर्घ लोकयुद्ध की युद्धनीति भारत के किसी बेहद पिछड़े इलाके में तो कारगर हो सकती है, लेकिन भारत स्तर पर नहीं। किसान आज भारत की मेहनतकश जनता का एक छोटा हिस्सा बन कर रहा गए हैं। भारत के अधिकतर राज्यों में आज ग्रामीण क्षेत्र में उजरती मज़दूरों की भरमार है, ये ग्रामीण आबादी की बहुसंख्या बनते हैं।

इसी तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवादी व्यवस्था का अंत ऐसा ही एक अहम बदलाव है।

देश और दुनिया में आए इन बदलावों को खुले मन से संबोधित हो कर ही भारतीय क्रांति का सही कार्यक्रम, युद्धनीति और रणकौशल गढ़े जा सकते हैं। सिर्फ़ तभी भारत की मेहनतकश जनता के मुक्ति संग्राम को आगे बढ़ाया जा सकता है। दुनिया को तभी बदला जा सकता है यदि इसके बारे में हमारी समझ सही हो, वस्तुगत यथार्थ के क़रीब हो। कट्टर हो कर भारत की मेहनतकश जनता की मुक्ति का संघर्ष नहीं लड़ा जा सकता।

मुक्ति संग्राम

Tuesday, 25 May 2021

काले दिन और काली रातों से गुजरते हुए ! -नरेंद्र कुमार


अंधेरी काली रात में तारे जगमगाते हैं 
चांद आता है और
रोशनी कर अंधेरे को भगाता है 
 छिपा लेता है चांद तारों को
 गहराती काली रात का अंधेरा इठलाता है
रोशनी चाहने वालों 
अब नहीं देख पाओगे सितारों का नजारा 
उजाले के साथ अंधेरे से
 उज्जवल धवल चमकते दिन 
और चांदनी रात की तरह 
काली रातों को भी प्यार करना सीखो 
जो लोग कालिमा में हीनता का भाव देखते हैं 
जो लोग रंगभेद के सौंदर्यशास्त्र में
 काले रंगों के सौंदर्य को नहीं समझते हैं
 उनके लिए मेरा सौंदर्य काले बादलों से निखरता है 
हमारा सौंदर्य 
फौलादी काले इस्पात से आकार लेता है 
हमारा सौंदर्य 
काली रात और काले बादलों से घिर गए 
कालिमा को विस्तार देता
तूफान के समय के काले दिन में भी
 विस्तार पाता है
काला रंग का अपना एक अर्थ है
शब्दों के आगे खड़ा होकर
यह शब्द का अर्थ बदल देता है 
इसलिए किसी रंग का सौंदर्य
 किसी रंग से नहीं जुड़ा है
 काले रंग का और सभी रंगों का सौंदर्य
 उसके पीछे खड़े संज्ञा से जुड़ा है 
किसी भी देश और समाज का सौंदर्य
 सिर्फ उसके रंगों से तय नहीं होता है
 उस रंग के पीछे खड़े लोगों के 
संघर्ष के इतिहास और संघर्ष के इरादे
 सृजन की उनकी आकांक्षा और 
उनकी गतिशीलता से तय होता है 
काला रंग प्रतिरोध का रंग है 
लेकिन यह अंधेरे का भी प्रतीक है 
काला फौलाद संघर्ष और 
काले ऑक्सीजन के सिलेंडर
जीवन का प्रतीक है
अंधेरी रातों में साजिश रचे जाते हैं
और हत्या के मंसूबों को अंजाम देते वक्त 
रात का अंधेरा
काली रात का प्रतीक
हमें डराता भी है 
मनुष्य के लिए यह भयावह  है
लेकिन उसी काली रात के अंधेरे में
युवा जोड़ियां आलिंगनबद्ध हो
मनुष्य की नई पीढ़ियों के
सृजन के नीव  भी रखते हैं

पूरे सोशल मीडिया पर कंट्रोल की तैयारी - पराग वर्मा

मेन स्ट्रीम मीडिया को खरीद लिया और आई टी सेल गठित किया । बिकाऊ मीडिया और सोशल मीडिया प्रचार द्वारा प्रोपेगैंडा फैलाकर अंंधभक्तों का जनाधार बनाया । इस सबके बावजूद बदहाल भौतिक परिस्थितियों ने लोगों को जागृत किया और सोशल मीडिया पर झूठ और मक्कारी का परदाफाश होने लगा । इसलिए अब अचानक सोशल मीडिया के कंटेंट को नियंत्रित करने की बात आ गई है और नये आई.टी. कानून बनाए जा रहे हैं । 

ये कानून फेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर जैसे प्लेटफार्म का इंटरमीडियरी स्टेटस हटा देंगे । पहले ये प्लेटफार्म केवल एक इंटरमीडियरी थे और इनको इम्यूनिटी थी जिससे उन पर दर्ज कंटेंट के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था । पर अब जब ये इंटरमीडियरी स्टेटस हट जाएगा तो इन कंपनियों को उन सभी पोस्ट को हटाने का कानूनी दबाव बनाया जाएगा जो सरकारी तंत्र के खिलाफ हैं और तेजी से प्रचलित हो रहे हैं । जिन्होंने इस तरह के कंटेंट की शुरुआत की है उन्हें अलग से टारगेट किया जाएगा । सरकार द्वारा किया दुष्प्रचार बकायदा चलता रहेगा । यदि सोशल मीडिया प्लेटफार्म सरकार के दुष्प्रचार को यदाकदा उजागर करता है तो उनके ऊपर आधिकारिक कार्यवाही हो जाएंगी जैसे मेनिपुलेटेड ट्वीट को मेनिपुलेटेड कहने पर ट्विटर के दफ्तर पर कल रेड पड़ गई ।

 50 करोड़ सोशल मीडिया उपभोक्ताओं के इस बाजार को क्या सोशल मीडिया कंपनियां इसलिए गंवा देंगी क्योंकि सरकार कुछ नियंत्रण चाहती है । ज़ाहिर है मुनाफा सर्वोच्च है और कंपनियां ये सभी कानूनों का पालन करने लगेंगी । इसी सोशल मीडिया द्वारा आम लोगों की निजता के उल्लंघन से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता और वह जारी रहेगा । हम-आप क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कहां जाते हैं, ये सभी इंफार्मेशन डाटा के रूप में और अधिक तादाद में सोशली उपलब्ध होंगी क्योंकि ये तो कार्पोरेट के मुनाफे की प्राथमिक ज़रूरत बन गई है ।

कॉपरनिकस

Ashok Pande की कलम से

ब्लैक डैथ ऐसी महामारी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी का सफाया कर दिया था. 14वीं शताब्दी के इस त्रासद दौर के बाद अगले तीन सौ बरस तक यूरोप ने अपना पुनर्निर्माण किया. ग्रीक और रोमन सभ्यताओं के ज्ञान को दोबारा से खोजा गया. कला और विज्ञान के प्रति लोगों में नई दिलचस्पी जागी और पढ़े-लिखे लोगों ने इस सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया कि आदमी के विचारों की क्षमता असीम है और एक जीवन में वह जितना चाहे उतना ज्ञान बटोर कर सभ्यता को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है. तीन सौ बरस का यह सुनहरा अंतराल रेनेसां यानी पुनर्जागरण कहलाया.
रेनेसां के मॉडल के तौर पर अक्सर पोलैंड के निकलॉस कॉपरनिकस का नाम लिया जाता है. गणितज्ञ और खगोलशास्त्री कॉपरनिकस चर्च के कानूनों के ज्ञाता, चिकित्सक, अनुवादक, चित्रकार, गवर्नर, कूटनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री भी थे. उनके पास वकालत में डॉक्टरेट की डिग्री थी और वह पोलिश, जर्मन, लैटिन, ग्रीक और इटैलियन भाषाओं के विद्वान थे. 19 फरवरी 1473 को तांबे का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे कॉपरनिकस चार भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. दस के थे जब माता-पिता दोनों का देहांत हो गया. आगे की परवरिश मामा ने की. 
मामा ने ही उन्हें क्राकाव यूनिवर्सिटी पढने भेजा जहां उन्होंने गणित, ग्रीक और इस्लामी खगोलशास्त्र का अध्ययन किया. वहां से लौटने के बाद मामा ने आगे की पढ़ाई के लिए अपने काबिल भांजे को इटली भेजने का मन बनाया. यातायात के साधन दुर्लभ थे और दो महीनों की लम्बी पैदल यात्रा के बाद कॉपरनिकस किसी तरह इटली पहुँचे जहाँ अगले छः साल तक यूरोप के सबसे प्राचीन और सर्वश्रेष्ठ दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों – बोलोना और पाडुआ – में उनकी पढ़ाई हुई. यहीं उन्होंने उन सारी चीजों पर सवाल करना शुरू किया जो उनके अध्यापक कक्षाओं में पढ़ाया करते रहे थे. ब्रह्माण्ड की संरचना के बारे में अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों में उन्हें घनघोर विसंगतियां नजर आईं. 
1503 में जब वे वापस घर लौटे उनकी उम्र तीस की हो चुकी थी. मामा प्रभावशाली आदमी थे और उनकी सिफारिश पर उन्हें स्थानीय चर्च में कैनन की नौकरी मिल गई. इस पेशे में उन्हें नक्शे बनाने के अलावा टैक्स इकठ्ठा करना और चर्च का बही-खातों को देखना होता था. आराम की नौकरी थी. 1510 में मामा सिधार गए. 
कॉपरनिकस ने अपना अलग घर बनाया और अपने खगोलीय अध्ययन के वास्ते एक टावर बनवाई. उस समय तक टेलीस्कोप का अविष्कार नहीं हुआ था. लकड़ियों और धातु के पाइपों की मदद से वे नक्षत्रों की गति का अध्ययन किया करते. 1514 में उन्होंने एक वैज्ञानिक रपट लिख कर अपने दोस्तों को बांटी. भौतिकविज्ञान के इतिहास में इस रपट को अब 'द लिटल कमेंट्री' के नाम से जाना जाता जाता है. कॉपरनिकस ने दावा किया कि धरती सूरज के चारों ओर घूमती है न कि सूरज धरती के, जैसा कि धर्मशास्त्रों में लिखा था. इस सिद्धांत से अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों की दिक्कतें दूर हो जाती थीं. इस शुरुआती काम के बाद अगले दो दशक गहन अध्ययन के थे. 
1532 के आते-आते कॉपरनिकस अपने सिद्धांतों को एक पांडुलिपि का रूप दे चुके थे. इसका प्रकाशन उन्होंने जानबूझ कर रोके रखा क्योंकि उन्हें आशा थी क‍ि वे कुछ और सामग्री जुटा सकेंगे. इसके अलावा उन्हें यह भय भी था कि पादरी लोग भगवान के नाम पर बड़ा बखेड़ा खड़ा करेंगे. कुछ सालों बाद जर्मनी से एक नामी गणितज्ञ जॉर्ज रेटीकस उनके साथ काम करने पोलैंड आए. कॉपरनिकस अड़सठ के हो चुके थे जब उनकी सहमति से संशोधित पांडुलिपि को लेकर जॉर्ज रेटीकस नूरेमबर्ग पहुंचे जहाँ योहान पेट्रीयस नाम के प्रिंटर ने उसे 'ऑन द रेवोल्यूशंस ऑफ द हेवनली स्फीयर्स' नामक क्रांतिकारी किताब की शक्ल दी. 
किताब की शुरुआत में कॉपरनिकस एक रेखाचित्र के माध्यम से ब्रह्माण्ड के आकार के बारे में बताया. इसमें सूर्य को केंद्र में रख उन्होंने उसके चारों तरफ अलग- अलग कक्षाओं में परिक्रमा करने वाले सभी ग्रहों को दिखाया गया था. जटिल गणनाओं के बाद उन्होंने यह भी बताया था कि इनमें से हर ग्रह को सूर्य का एक फेरा लगाने में कितना समय लगता है. आज के उन्नत खगोलविज्ञान और उसकी तकनीकों की मदद से जो ग्रहों की परिक्रमा का जो समय निकलता है, कॉपरनिकस की गणना आश्चर्यजनक रूप से उसके बहुत करीब है. 
किताब छपकर नहीं आई थी और लम्बे समय से बीमार कॉपरनिकस कोमा में जा चुके थे. बताते हैं कि जब पहली प्रति उनके पास पहुंचाई गई वे बेहोशी से उठ बैठे और लम्बे समय तक आंखें मूंदे किताब को थामे रहे. कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई. वे यह देखने को जीवित नहीं बचे कि कैसे उनकी महान क्रांतिकारी रचना ने पादरियों और धर्मगुरुओं के बनाए संसार को उसकी धुरी से रपटा दिया था. 
जाहिर है कॉपरनिकस की किताब ने धर्म के कारोबारियों को बौखला दिया. चर्च का आधिकारिक बयान आया जिसमें किताब "झूठा और पवित्र धर्मशास्त्र की खिलाफत करने वाला" बताया गया. 
कोई 60 साल बाद इटली के ब्रूनो को सिर्फ इसलिए ज़िंदा जलाए जाने की सजा दी गयी कि उसने कॉपरनिकस के सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया. इसी अपराध के लिए गैलीलियो को भी ज़िंदा तो नहीं जलाया गया अलबत्ता उसके समूचे जीवन को अपमान और तिरस्कार से भर दिया गया. 
आज जब आदमी मंगल पर घर बनाने की कल्पना कर रहा है हमने कॉपरनिकस को याद रखना चाहिए, समूचे अन्तरिक्षविज्ञान की बुनियाद में जिसकी चालीस-पचास सालों की साधना चिनी हुई है. कॉपरनिकस का जीवन बताता है सच्चाई की खोज कभी निष्फल नहीं जाती और उसकी रोशनी सदियों बाद तक आदमी के रास्ते को आलोकित करती रहती है. 
1543 में आज ही के दिन कॉपरनिकस की देह की मृत्यु हुई. उनकी आत्मा दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में जीवित है.

Monday, 24 May 2021

लैंग्स्टन ह्यूज़ की (कविता) रचना 'माँ बेटे से'

 कॉमरेड अमर नदीम  द्वारा अनूदित लैंग्स्टन ह्यूज़ की रचना 'माँ बेटे से' :

तो सुनो बेटे :
जीवन मेरे लिए कोई सुन्दर-सरल जीना नहीं रहा
कई उभरी हुई नुकीली कीलें थीं इसमें
और चुभने वाली खपच्चियाँ
और फटे हुए तख़्ते,
और जगह-जगह बिना दरी का नंगा फ़र्श।

पर फिर भी हमेशा ही
यह एक चढ़ाई रही ऊपर की दिशा में
पाट पर पहुँचती हुई,
और कोनों पर मुड़ती हुई
और कभी उस अन्धेरे से गुज़रती हुई
जहाँ कोई रोशनी नहीं होती थी।

सो बेटे, पीछे मत मुड़ जाना
न ही ठहर जाना सीढ़ियों पर
सिर्फ़ इसलिए कि ये तुम्हें ज़रा मुश्किल लगता है।
अभी रुक मत जाओ
क्योंकि बेटा अभी तो यह सफ़र बाक़ी है
अभी तो और भी चढ़ाई है।

हाँ, जीवन मेरे लिए कोई सुन्दर-सरल जीना नहीं रहा।

Saturday, 22 May 2021

नंगा साहेब - पारुल खक्कर

गुजराती कवयित्री पारुल खक्कर जी की ये कविता ह्रदयद्रावक है और मन को  नि:शब्दता, सुन्न कर देती है

● नंगा साहेब 
  ------------

एक साथ सब मुर्दे बोले 'सब कुछ चंगा-चंगा'
साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा

ख़त्म हुए शमशान तुम्हारे, ख़त्म काष्ठ की बोरी
थके हमारे कंधे सारे, आँखें रह गई कोरी
दर-दर जाकर यमदूत खेले
मौत का नाच बेढंगा

साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा

नित लगातार जलती चिताएँ
राहत माँगे पलभर
नित लगातार टूटे चूड़ियाँ
कुटती छाति घर घर
देख लपटों को फ़िडल बजाते वाह रे 'बिल्ला-रंगा'

साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा

साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदीप्य तुम्हारी ज्योति
काश असलियत लोग समझते, हो तुम पत्थर, ना मोती
हो हिम्मत तो आके बोलो
'मेरा साहेब नंगा'

साहेब तुम्हारे रामराज में शव-वाहिनी गंगा

Sunday, 16 May 2021

कार्ल मार्क्स को याद करते हुए ! कविता

मनुष्य के लिए इतना प्यार कहां से लाए थे कार्ल मार्क्स !

कार्ल मार्क्स को याद करते हुए !

मनुष्य के लिए
इतना प्यार कहां से लाए थे 
कार्ल मार्क्स 
मनुष्य से तो प्यार 
बुद्ध ने भी किया 
टॉल्सटॉय ने भी किया
लेकिन तुम्हारे प्यार में वह क्या था 
जो इन लोगों से तुम्हें अलग करता है
 क्या जीवन के लिए
 सिर्फ प्यार ही काफी है
 यदि ऐसा ही होता
 तो तुम भी बुद्ध होते या फिर
 टॉल्सटाय की तरह  होते
तुम भी अहिंसा की बात करते 
 त्याग की बात करते 
 संसारिक कष्टों से मुक्ति की बात करते
तुमने तो मनुष्य को
 ब्रह्मांड के सबसे ऊंचे मुकाम पर 
पहुंचने की बात की 
तुमने प्रकृति के साथ संघर्ष और 
रागात्मक संबंध बनाने की बात की
 तुमने मनुष्य और प्रकृति के खिलाफ
 षड्यंत्र करने वालों के खिलाफ
 युद्ध की घोषणा की 
तुमने व्यक्ति के ऊपर
 समाज के महत्व को स्थापित किया
 तुमने प्रकृति और मनुष्य के
 द्वंद्व को उद्घाटित किया 
 समाज और प्रकृति की गति को 
समझने का नियम दिया 
तुमने जीवित श्रम शक्ति के मृत्यु के रहस्य
और मृत श्रम शक्ति के जीवन और गति के रहस्य को
दुनिया के सामने लाया
और बताया कि प्रेतात्मा बन गए 
जीवित श्रम शक्ति को
अपने नियंत्रण में लेकर 
जबतक जीवित श्रम शक्ति 
समाज के अधीन न कर दे 
यह मनुष्य को तबाह कर ती रहेगी
इस तबाही को हम रोजझेल रहे हैं 
कार्ल मार्क्स 
और याद कर रहे हैं 
कहां हम कमजोर पड़े 
प्रेत आत्माओं के खिलाफ
हम युद्ध के संचालन में

Narendra Kumar 

Wednesday, 12 May 2021

समीह अल-कासिम की कविता

जाओ मेरी ज़मीन का

आखिरी टुकड़ा भी चुरा लो

जेल की कोठरी में

मेरी जवानी झोंक दो

मेरी विरासत लूट लो

मेरी किताबें जला दो

मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ

जाओ मेरे गाँव की छतों पर

अपने आतंक के जाल फैला दो

इंसानियत के दुश्मन

मैं समझौता नहीं करूंगा

और आखिर तक मैं लड़ूंगा

- समीह अल-कासिम

#FreePalestine #DownWithZionism

Sunday, 9 May 2021

हत्यारी शालीनता- कविता



हत्यारे को हत्यारा न कहा जाए 
सनातनी हत्या के लिए
भाषा की सनातनी शालीनता बरती जाए
इससे शाकाहारी लोमड़ी को गाली पड़ती है 
यह कथन मेरा नहीं 
 कारपोरेट की छाया तले 
सामंती बिल में बैठी लोमड़ियों की आत्म स्वीकृति है
कि भाषा की बिल पर उनका सनातनी पट्टा है
भले गांधी की हत्या को हत्या नहीं वध कहा जाए
भाषा के षड्यंत्रकारी अभयारण्य को
हिंसक पशुओं के लिए छोड़ दिया जाए
जहां मनुष्यों का जाना वर्जित हो 
इंसानियत की लाश को लाश नहीं
जगत का अंतिम सच कहा जाए
लाश के सच को लाश कहने पर
सच की हर भाषा को लाश से तौल दिया जाए
भूख बीमारी और गरीबी 
जब भी घर की चारदीवारी  से बाहर  निकलें
वे अकेले ना निकलें
घूंघट और बुर्के में 
कम से कम भाषा के एक सनातनी हत्यारे के पीछे पीछे चलें
यह घर की इज्जत का सवाल है 
नहीं तो  लोकतंत्र के नजरबंद चौराहे पर ठोक दिया जाए
 भाषा के गर्भपात के लिए 
हत्यारे जब भी खूनी खंजर लेकर दौड़ें
अपनी सदाशयता और नम्रता की छाती उधेड़ कर
उन्हें थाली में परोस दिया जाए
हर शब्द गढ़ने के पहले 
यह जांच लिया जाए कि लोमड़ी की लटक कर वक्र हुई
 पूंछ की गरिमा का  
जाने-अनजाने कोई शब्द  अतिक्रमण तो नहीं कर रहे हैं
पसीने से वीर्य  निःसृत कर
मछली के गर्भ से बच्चे पैदा करना
और तैरती हुई नाव में मत्स्यकन्या के गर्भ में
नंगे सूर्य के ठीक नीचे
काम पिपासा का वीर्य बो देना
यह सिर्फ ऋषियों और देवताओं का 
धार्मिक एकाधिकार है तथा
बलत्कृत जुए से बांधी गई प्रजा की  श्रद्धा का विषय है 
लेकिन तुम यह कभी भूल से भी मत कहना
कि जनता के हत्यारे अफवाहों के गर्भ 
और बेईमानी के वीर्य से  पैदा हुए हैं
यह देव भाषा एवं देवताओं का अपमान होगा 
कि लाखों लाख लोगों की जीती जागती मौत के बाद
वे माता के गर्भ से 
जन्म नहीं 
रक्त से सने आकाश में अवतार लेते हैं

जुल्मीरामसिंह यादव

8.05. 2021

क्रांतिकारी कवि ' पाश ' की मशहूर कविता - लोहा नन्दकिशोर जी के वाल से


आप लोहे की कार का आनंद लेते हो
मेरे पास लोहे की बंदूक है

मैने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो
लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती
जब कुठाली उठानेवालों के दिलों से
भाप निकलती है
तो लोहा पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को
किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है

कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ;
और पहाड़ों को उल्टानेवाली मशीनें,
सब लोहे के हैं
शहर से वीराने तक हर फ़र्क
बहन से वेश्या तक हर एहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता
बिल से कानून तक हर सफर
शोषणतंत्र से इन्कलाब तक हर इतिहास
जंगल, कोठरियों व झोपड़ियों से लेकर इंटेरोगेशन तक
हर मुकाम सब लोहे के हैं

लोहे ने बड़ी देर इंतजार किया है
कि लोहे पर निर्भर लोग
लोहे की पत्तियाँ खाकर
खुदकशी करना छोड़ दें
मशीनों में फँसकर फूस की तरह उड़नेवाले
लावारिसों की बीवियाँ 
लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास
कपड़े तक खुद उतारने के लिए मजबूर न हों

लेकिन आखिर लोहे को 
पिस्तौलों, बंदूकों और बमों की
शक्ल लेनी पड़ी है 
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
काम कि अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं, 
(लेकिन) मैं लोहे की आँख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन 
भी पहचान सकता हूँ
क्योंकि मैंने लोहा खाया है 
आप लोहे की बात करते हो।

Thursday, 6 May 2021

निकारागुआ के महाकवि एर्नेस्तो कार्देनाल की एक कविता. अनुवाद: मंगलेश डबराल. सेलफोन

_____________________

___________
आप अपने सेलफोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं करते जाते हैं 
और हँसते हैं अपने सेलफोन पर 
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था 
और यह तो और भी कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है 
परेशानी की बात यह कि आप नहीं जानते 
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं बहुत से लोग
हजारों हज़ार 
इस सेलफोन की वजह से 
वे मौत के मुहं में जाते हैं कांगो में 
उसके पहाड़ों में कोल्टन होता है 
(सोने और हीरे के अलावा)
जो काम आता है सेलफोन के 
कंडेंसरों में 
खनिजों पर कब्जा करने के लिए
बहुराष्ट्रीय निगम
छेड़े रहते हैं एक अंतहीन जंग
15 साल में 50 लाख मृतक
और वे नहीं चाहते कि यह बात लोगों को पता चले 
विशाल संपदा वाला देश 
जिसकी आबादी त्रस्त है गरीबी से 
दुनिया के 80% कोल्टन के भण्डार 
हैं कांगो में 
कोल्टन वहां छिपा हुआ है 
तीस हज़ार लाख वर्षों से 
नोकिया, मोटरोला, कम्पाक, सोनी 
खरीदते हैं कोल्टन
और पेंटागन भी, न्यूयॉर्क टाइम्स 
कारपोरेशन भी, 
और वे इसका पता नहीं चलने देना चाहते 
वे नहीं चाहते कि युद्ध ख़त्म हो 
ताकि कोल्टन को हथियाया जाना जारी रह सके 
7 से 10 साल तक के बच्चे निकालते हैं कोल्टन 
क्योंकि छोटे छेदों में आसानी से समा जाते हैं 
उनके छोटे शरीर 
25 सेंट रोजाना की मजूरी पर 
और झुण्ड के झुण्ड बच्चे मर जाते हैं 
कोल्टन पाउडर के कारण 
या चट्टानों पर चोट करने की वजह से 
जो गिर पड़ती है उनके ऊपर 
न्यूयॉर्क टाइम्स भी 
नहीं चाहता कि यह बात पता चले 
और इस तरह अज्ञात ही रहता है 
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का 
यह संगठित अपराध 
बाइबिल में पहचाना गया है 
सत्य और न्याय 
और प्रेम और सत्य 
तब उस सत्य की अहमियत में 
जो हमें मुक्त करेगा 
शामिल है कोल्टन का सत्य भी 
कोल्टन जो आपके सेलफ़ोन के भीतर है 
जिस पर आप बात करते हैं करते जाते हैं 
और हँसते हैं सेलफ़ोन पर बात करते हुए. 
_________

Wednesday, 5 May 2021

मार्क्सवाद और संशोधनवाद



प्रसिद्ध उक्ति है कि अगर रेखागणित की स्वयंसिद्धियां लोगों के हितों से टकरातीं, तो शायद उन्हें भी गलत साबित किया जाता। धर्म शास्त्र के पुराने पूर्वाग्रहों से टकरानेवाले प्राकृतिक-ऐतिहासिक सिद्धान्त अधिकतम प्रचंड संघर्षों के कारण बने और अब तक बने हुए हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मार्क्स की शिक्षा, जो आधुनिक समाज के अग्रगामी वर्ग के जागरण तथा संगठन में प्रत्यक्ष रूप से सहायता पहुंचाती है, उस वर्ग के कार्यभार बताती है और वर्तमान समाज व्यवस्था की जगह एक नई व्यवस्था की स्थापना की अनिवार्यता ( आर्थिक विकास की बदौलत ) सिद्ध करती है, कोई आश्चर्य नहीं कि इस शिक्षा को अपने जीवन-पथ पर एक एक क़दम बढ़ाने के लिए लड़ना पड़ा।

संपत्तिवान वर्गों के उदीयमान नौजवानों को मतिमूढ़ बनाने और उन्हें भीतरी तथा बाहरी शत्रुओं की " मृगया प्रशिक्षा" देने के लिए सरकारी प्रोफ़ेसरों द्वारा सरकारी ढंग से पढ़ाए जानेवाले पूंजीवादी विज्ञान तथा दर्शन की तो बात ही क्या, जो यह घोषणा करके मार्क्सवाद की बाबत सुनना भी नहीं चाहता कि उसका तो खंडन और उन्मूलन हो चुका है, समाजवाद के खंडन द्वारा अपने लिए सांसारिक सिद्धि चाहनेवाले युवा वैज्ञानिक और हर प्रकार की बोसीदा " पद्धतियों" की सीखों की बरकरारी चाहनेवाले जरा-जर्जर वृद्धजन, दोनों ही समान उत्साह से मार्क्स पर प्रहार करते हैं। मार्क्सवाद के विकास और मजदूर वर्ग में उसके विचारों के प्रसार तथा मूलन के कारण, सरकारी विज्ञान द्वारा "उन्मूलन" के बाद हर बार अधिक शक्तिशाली, अधिक इस्पाती तथा अधिक जीवन्त बन जानेवाले मार्क्सवाद पर इन पूँजीवादी हमलों में अनिवार्यतः बढ़ती और तेजी पैदा हो जाती है।

लेनिन

Tuesday, 4 May 2021

मार्क्सवाद के तीन स्रोत तथा तीन संघटक अंग' - व्ला० इ. लेनिन



पूरे सभ्य जगत् में मार्क्स की शिक्षा अपने प्रति उन सभी पूंजीवादी विज्ञानों (सरकारी भी और उदारतावादी भी ) की जबर्दस्त शत्रुता और घृणा उत्पन्न करती है, जो मार्क्सवाद को एक "अपकारी संकीर्णता" के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझते। इसके अतिरिक्त और किसी रवैये की आशा भी नहीं की जा सकती क्योंकि वर्ग संघर्ष पर आधारित समाज में "निष्पक्ष" सामाजिक विज्ञान हो ही नहीं सकता। समस्त सरकारी तथा उदारतावादी विज्ञान किसी न किसी ढंग से उजरती गुलामी की रक्षा करता है, जबकि माक्सवाद ने इस गुलामी के खिलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा की है। उजरती गुलामीवाले समाज में निष्पक्ष विज्ञान की आशा करना उतना ही मूर्खतापूर्ण भोलापन है जितना मिलमालिकों से इस प्रश्न पर निष्पक्षता की आशा करना कि क्यों न पूंजी के मुनाफे में कमी करके मजदूरों की मजदूरी बढ़ा दी जायें।


परंतु बात इतनी ही नहीं है। दर्शनशास्त्र का इतिहास और सामाजिक विज्ञान का इतिहास पूर्ण स्पष्टता के साथ प्रकट करते हैं कि मार्क्सवाद के अंदर " संकीर्णतावाद" जैसी कोई चीज नहीं है, इस अर्थ में कि वह कोई रूढ़िवद्ध, जड़ मत हो, ऐसा मत जो विश्व सभ्यता के विकास के प्रशस्त मार्ग से हटकर कहीं अलग से उत्पन्न हुआ हो। इसके विपरीत, मार्क्स की प्रतिभा इसी बात में निहित है कि उन्होंने उन प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध किये, जिन्हें मानव जाति के प्रमुखतम विचारक पहले ही उठा चुके थे। दर्शनशास्त्र, राजनैतिक अर्थशास्त्र तथा समाजवाद के महानतम

२४


प्रतिनिधियों की शिक्षाओं के प्रत्यक्ष तथा सीधे क्रम के रूप में ही उनकी शिक्षा का जन्म हुआ ।


मार्क्स की शिक्षा सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है। वह व्यापक तथा सुसंगत है और मनुष्य को एक ऐसा प्रखण्ड विश्व दृष्टिकोण प्रदान करता है जो किसी भी प्रकार के अंधविश्वास प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति या पूंजीवादी उत्पीड़न की किसी भी वकालत की कट्टर विरोधी है। उन्नीसवीं शताब्दी में जर्मन दर्शनशास्त्र, अंग्रेजी राजनैतिक अर्थशास्त्र तथा फ्रांसीसी समाजवाद के रूप में मानव जाति की जो भी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियां रही हैं, मार्क्सवाद उन्हीं का वास्तविक क्रमानुयायी है।


मार्क्सवाद के इन्हीं तीन स्रोतों पर, जो साथ ही उसके संघटक अंग भी हैं, हम संक्षेप में विचार करेंगे।



मार्क्सवाद का दर्शन भौतिकवाद है। यूरोप के पूरे आधुनिक इतिहास में, और विशेष रूप से अठारहवीं शताब्दी के अंत में, फ्रांस के अंदर जहां हर प्रकार के मध्ययुगीन कचरे के विरुद्ध संस्थाओं तथा विचारों में भू-दासता के खिलाफ़ निर्णायक संघर्ष चलाया गया, भौतिकवाद एकमात्र ऐसा सुसंगत दर्शन सिद्ध हुआ है, जो प्राकृतिक विज्ञानों की समस्त शिक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरा और अंधविश्वास पाखंड आदि का विरोधी निकला । इसलिए जनवाद के शत्रुओं ने भौतिकवाद का 'खंडन करने", उसकी जड़ खोदने और उसे कलंकित करने की पूरी चेष्टा की और भाववादी दर्शन के विविध रूपों की वकालत की, जिसका अर्थ हमेशा किसी न किसी रूप में धर्म की वकालत या उसका समर्थन होता है।


मार्क्स तथा एंगेल्स ने अत्यंत दृढतापूर्वक भौतिकवादी दर्शन की हिमायत की और बार-बार इस बात को समझाया कि इस आधार से किसी भी प्रकार का विचलन कितनी भारी भूल है। उनके विचारों की अत्यन्त सुस्पष्ट तथा पूर्ण व्याख्या एंगेल्स की 'लुडविग फायरबाख' तथा 'ड्यूरिंग


२५


मत-खंडन '' नामकः रचनाओं में की गयी है, जो 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' की तरह ही हर वर्ग-चेतन मजदूर के लिए मार्क्सवाद के गुटके हैं।


परंतु मार्क्स अठारहवीं शताब्दी के भौतिकवाद पर आकर रुक नहीं गये, उन्होंने दर्शन को आगे बढ़ाया। उन्होंने उसे जर्मन क्लासिकीय दर्शन की, विशेषतः हेगेल की उस दर्शन-पद्धति की उपलब्धियों से समृद्ध किया जिसका परिणाम फायरवा का भौतिकवाद था। इन उपलब्धियों में सबसे मुख्य द्वंद्ववाद है, अर्थात् अपने पूर्णतम गहनतम तथा एकांगीपन से मुक्त रूप में विकास की शिक्षा, मानव-ज्ञान की सापेक्षता की शिक्षा, जिसमें हमें सतत विकासमान भूत का प्रतिबिंब मिलता है। पूंजीवादी दार्शनिकों की शिक्षाओं के बावजूद, जो " नये सिरे से पुराने सड़े हुए भाववाद की ओर लौट रहे हैं, प्राकृतिक विज्ञान की नवीनतम खोजों रेडियम, इलेक्ट्रोन, मूल तत्त्वों के रूपांतरण से मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अद्भुत रूप से पुष्टि हुई है।


मार्क्स ने भौतिकवादी दर्शन को पूरी गहराई दी तथा पूर्णतः विकसित किया और उसके प्रकृति-संज्ञान को मानव समाज के संज्ञान पर लागू किया। मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद वैज्ञानिक चिन्तन की महान सिद्धि था। पहले इतिहास तथा राजनीति से संबंधित विचारों के क्षेत्र में जो गड़बड़ी और मनमानी फैली हुई थी, उसके स्थान पर ऐसे आश्चर्यजनक रूप से पूर्ण तथा क्रमबद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्त की स्थापना हुई, जो बताता है कि किस प्रकार उत्पादक शक्तियों के विकास के फलस्वरूप सामाजिक जीवन की एक व्यवस्था में से एक दूसरी और उच्चतर व्यवस्था का विकास होता है उदाहरण के लिए, भू-दास व्यवस्था में से किस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था विकसित होती है।


जिस प्रकार मनुष्य का संज्ञान उससे स्वतन्त्र अस्तित्व रखनेवाली प्रकृति, प्रर्थात् विकासमान भूत को प्रतिबिंबित करता है, उसी प्रकार मनुष्य का सामाजिक संज्ञान ( अर्थात् उसके विविध विचार तथा मत- दार्शनिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि ) समाज की आर्थिक व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है। राजनैतिक संस्थाएं आर्थिक नींव पर खड़ा ऊपरी ढांचा होती


२६


हैं। उदाहरण के लिए, हम देखते हैं कि आधुनिक यूरोपीय राज्यों के विभिन्न राजनैतिक रूप सर्वहारा वर्ग पर पूंजीपति वर्ग के प्रभुत्व को दृढ़ बनाने के काम आते हैं।


मार्क्स का दर्शन भौतिकवादी दर्शन का पूरा निखरा हुआ रूप है, जिसने मानवजाति को विशेष रूप से मजदूर वर्ग को, संज्ञान के शक्तिशाली साधन प्रदान किये हैं।




इस बात को मान लेने के बाद कि आर्थिक व्यवस्था ही वह नींव होती है जिसपर राजनीति का ऊपरी ढांचा खड़ा होता है, मार्क्स ने सबसे अधिक ध्यान इसी आर्थिक व्यवस्था के अध्ययन में लगाया। मार्क्स की प्रमुख रचना 'पूंजी' आधुनिक, अर्थात् पूंजीवादी समाज की आर्थिक व्यवस्था के ही अध्ययन को अर्पित है।


मार्क्स से पहले क्लासिकीय राजनैतिक अर्थशास्त्र की उत्पत्ति इंगलैंड में हुई थी, जो पूंजीवादी देशों में सबसे उन्नत देश था। ऐडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने आर्थिक व्यवस्था के विषय में अपनी गवेषणाओं द्वारा मूल्य के श्रम-सिद्धांत की नींव डाली। मार्क्स ने उनके काम को और आगे बढ़ाया। उन्होंने इस सिद्धान्त को प्रमाणित किया और उसे सुसंगत रूप से विकसित किया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि हर पण्य का मूल्य इस बात से निर्धारित होता है कि उसके उत्पादन में सामाजिक दृष्टि से कितना आवश्यक श्रम-काल लगाया गया है।


पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों ने जहां वस्तुओं के पारस्परिक संबंध ( एक पण्य के बदले में दूसरे पण्य के विनिमय ) को देखा था, वहां मार्क्स ने मनुष्यों के पारस्परिक संबंध का रहस्योद्घाटन किया। पण्यों का विनिमय मंडी के माध्यम से अलग-अलग उत्पादकों के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करता है। मुद्रा इस बात की द्योतक है कि यह संबंध निरंतर घनिष्ठतर होता जा रहा है और अलग-अलग उत्पादकों के समूचे ग्रार्थिक जीवन को


२७


एक समष्टि के रूप में अभिन्न रूप से बांध दे रहा है। पूंजी इस संबंध के विकास की अगली मंजिल है मनुष्य की श्रम शक्ति एक पण्य बन जाती है। उजरती मजदूर अपनी श्रम शक्ति को भूमि कारखाने तथा श्रम के साधनों के मालिक के हाथ बेच देता है। मजदूर काम-दिन का एक भाग स्वयं अपने और अपने परिवार के भरण-पोषण के खर्च ( मजदूरी ) की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करता है, और दिन के शेष भाग में बिना पारिश्रमिक के श्रम करता है, और इस प्रकार पूंजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता है, जो मुनाफ़े का स्रोत है, पूंजीपति वर्ग की सम्पदा का स्रोत है ।


अतिरिक्त मूल्य की शिक्षा मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत की आधारशिला है। मजदूर के श्रम द्वारा उत्पन्न की गयी पूंजी मजदूर को कुचलती है, छोटे-छोटे मालिकों को तबाह करके बेरोजगारों की पलटन खड़ी कर देती है। उद्योग के क्षेत्र में बड़े पैमाने के उत्पादन की विजय तुरंत स्पष्ट हो जाती है, परंतु कृषि में भी हम यही क्रिया देखते हैं : बड़े पैमाने की पूंजी वादी कृषि की श्रेष्ठता बढ़ती जाती है, मशीनों का उपयोग बढ़ता जाता है, किसानी अर्थ व्यवस्था के गले में मुद्रा-पूंजी का फंदा पड़ जाता है, उसका ह्रास होने लगता है और अपनी पिछड़ी हुई प्रविधि के बोझ के नीचे दबकर वह तबाह हो जाती है। कृषि में छोटे पैमाने के उत्पादन का ह्रास विभिन्न रूप धारण करता है, परंतु खुद ह्रास एक निर्विवाद तथ्य है।


छोटे पैमाने के उत्पादन को तबाह करके पूंजी श्रम की उत्पादिता में वृद्धि करती है और बड़े से बड़े पूंजीपतियों के संघों के लिए इजारेदारी की स्थिति उत्पन्न करती है। उत्पादन स्वयं अधिकाधिक सामाजिक रूप धारण करता जाता है लाखों-करोड़ों मजदूर एक योजनाबद्ध आर्थिक संगठन में एक दूसरे से बंध जाते हैं, परंतु इस सामूहिक श्रम द्वारा उत्पादित वस्तुओं की मुट्ठी भर पूंजीपति हड़प लेते हैं । उत्पादन की अराजकता, संकट मंडियों की दीवानावार तलाश और जनसाधारण की जीवन-वृत्ति में अरक्षा बढ़ती जाती है।

२८   


पूंजी पर मजदूरों की निर्भरता को बढ़ाने के साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था समूहबद्ध श्रम की महान शक्ति को जन्म देती है।


मार्क्स ने पण्य उत्पादन पर आधारित अर्थव्यवस्था के प्रथम अंकुरों से लेकर साधारण विनिमय से लेकर उसके उच्चतम रूप, अर्थात् बड़े पैमाने के उत्पादन तक पूंजीवाद के विकासक्रम का पता लगाया।


और पुराने तथा नये सभी पूंजीवादी देशों का अनुभव वर्ष प्रति वर्ष अधिकाधिक मजदूरों के सामने मार्क्स की इस शिक्षा के सत्य को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता जा रहा है।


पूंजीवाद ने सारे संसार में विजय प्राप्त कर ली है, परंतु यह विजय पूंजी पर श्रम की विजय की भूमिका मात्र है।



जब भू-दासता का तख्ता उलट दिया गया और इस पृथ्वी पर " स्वतंत्र" पूजीवादी समाज का उदय हुआ, तब यह बात तुरंत स्पष्ट हो गयी कि इस स्वतंत्रता का अर्थ श्रमिकों के उत्पीड़न तथा शोषण की एक नयी व्यवस्था है। इस उत्पीड़न के प्रतिबिंब के रूप में और इसके विरोध में फ़ौरन विविध प्रकार के समाजवादी मत जन्म लेने लगे। परंतु प्रारंभिक समाजवाद काल्पनिक समाजवाद था। वह पूंजीवादी समाज की आलोचना करता था, उसकी निंदा करता था और उसे कोसता था, वह उसके विनाश के स्वप्न देखता था, वह एक बेहतर व्यवस्था की सुखदः कल्पना करता या और धनवान लोगों को शोषण की धनैतिकता का कायल करने का प्रवास करता था।


परंतु काल्पनिक समाजवाद वास्तविक समाधान का निर्देश नहीं कर सका। वह न तो पूजीवाद के अंतर्गत उजरती गुलामी के असली स्वरूप को व्याख्या कर सका, न उसके विकास के नियमों का पता लगा सका और न ही उस सामाजिक शक्ति की घोर संकेत कर सका जो एक नये समाज की रचना करने की क्षमता रखती है।


२९


इसी दौरान सामंतवाद और भूदासता के पतन के साथ यूरोप भर में, और विशेष रूप से फ्रांस में, जो तूफ़ानी क्रांतियां हुई उनसे यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गयी कि समस्त विकास का प्राधार और उसकी प्रेरक शक्ति वर्गों का संघर्ष है।


सामंती वर्ग के विरुद्ध राजनैतिक स्वतंत्रता की एक भी विजय ऐसी नहीं थी जो घोर प्रतिरोध का सामना किये बिना प्राप्त की गयी हो । एक भी पूंजीवादी देश ऐसा नहीं है जो पूंजीवादी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच जिन्दगी और मौत की लड़ाई के बिना न्यूनाधिक रूप में स्वतंत्र तथा जनवादी आधार पर विकसित हुआ हो।


माक्स की प्रतिभा इस बात में निहित है कि वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इससे वह निष्कर्ष निकाला जो विश्व इतिहास हमें सिखाता है और सुसंगत रूप से इस निष्कर्ष को लागू किया। यह निष्कर्ष वर्ग संघर्ष की शिक्षा है।


लोग राजनीति में सदा छल और ग्राम प्रवंचना के नादान शिकार हुए हैं और तब तक होते रहेंगे जब तक वे हर नैतिक, धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक कथनों, घोषणाओं और वायदों के पीछे किसी न किसी वर्ग के हितों का पता लगाना नहीं सीखेंगे। सुधारों और छोटे-मोटे हेर फेर के समर्थक जब तक यह नहीं समझ लेंगे कि हर पुरानी संस्था, वह कितनी ही बर्बरतापूर्ण और सड़ी हुई क्यों न प्रतीत होती हो, किन्हीं शासक वर्गों के बलबूते पर ही कायम रहती है, तब तक पुरानी व्यवस्था के संरक्षक उन्हें बेवकूफ बनाते रहेंगे। और इन वर्गों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने का केवल एक तरीका है और वह यह कि जिस समाज में हम रह रहे हैं उसी में उन शक्तियों का पता लगायें और उन्हें संघर्ष के लिए जागृत तथा संगठित करें, जो पुरातन को विनष्ट कर नूतन का सृजन करने में समर्थ हो सकती हैं और जिन्हें अपनी सामाजिक स्थिति के कारण समर्थ होना चाहिए।


केवल मार्क्स के भौतिकवादी दर्शन ने ही सर्वहारा वर्ग को उस यात्मिक दासता से मुक्ति का मार्ग दिखाया है जिसमें सभी उत्पीडित वर्ग

३०


अब तक जकड़े हुए दम तोड़ रहे थे। केवल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत ने हो पूजीवाद की सामान्य व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग की वास्तविक स्थिति की व्याख्या की है।


अमरीका से लेकर जापान तक और स्वीडन से लेकर दक्षिणी अफ्रीका तक सारे संसार में सर्वहारा वर्ग के स्वतंत्र संगठनों की संख्या बढ़ती जा रही है। अपना वर्ग-संघर्ष चलाकर सर्वहारा वर्ग जागृत और शिक्षित हो रहा है, यह पूंजीवादी समाज के पूर्वाग्रहों से मुक्त होता जा रहा है, वह अपनी पातों को और भी घनिष्ठ रूप से संगठित कर रहा है और अपनी सफलताओं को पांकना सीखता जा रहा है, वह अपनी शक्तियों को फौलादी बना रहा है और अदम्य रूप से विकसित हो रहा है।


'प्रोम्वेश्वेनिये', अंक ३,


मार्च १९१३

हस्ताक्षर ब्ला० इ०

खण्ड २३ पृष्ठ ४०-४५



व्ला० इ. लेनिन

संकलित रचनाएं

(चार भागों में)

भाग १

प्रगति प्रकाशन

मास्को १९६९


एम के आजाद द्वारा कामगार-ई-पुस्तकालय के लिए

हिंदी यूनिकोड में रूपांतरित

मई  2021


मजदूरों की पत्रकारिता

दुनिया में कहीं भी सर्वहारा आन्दोलन का जन्म " यकायक शुद्ध वर्गीय रूप में, बना-बनाया, ज्युपिटर के सर से मिनरवा की भांति नहीं हुआ। केवल सबसे अगुआ मजदूरों, सभी वर्गचेतन मजदूरों के लंबे संघर्ष तथा कठोर श्रम से ही सर्वहारा के वर्गीय आन्दोलन का निर्माण करना, उसे मजबूत बनाना, तमाम निम्न-पूंजीवादी मिलावटों, प्रतिबंधों, संकीर्णता और विकृतियों से मुक्त करना सम्भव था । मजदूर वर्ग निम्न-पूंजीपतियों के साथ जीवन व्यतीत करता है जो, जैसे-जैसे तबाह होता जाता है। सर्वहारा की पंक्ति में बढ़ती हुई संख्या में नये रंगरूट लाता है। और पूंजीवादी देशों में रूस सबसे अधिक निम्न-पूंजीवादी, सबसे अधिक फ़िलिस्टीन देश है जो अब कहीं जाकर पूंजीवादी क्रांतियों के दौर से गुजर रहा है जिससे उदाहरण के लिए, इंगलैंड सतहवीं शताब्दी में, और फ्रांस अठारहवीं तथा शुरू उन्नीसवीं शताब्दियों में गुजर चुका है।

जो वर्गचेतन मजदूर अब एक ऐसे काम से निबट रहे हैं जिससे उन्हें नजदीकी लगाव है और जो उन्हें प्रिय है, याने मजदूर वर्गीय अख़बार चलाने, उसे पक्के आधार पर खड़ा करने और मजबूत बनाने और विकसित करने का काम, वे रूस में मार्क्सवाद तथा सामाजिक-जनवादी पत्रकारिता के बीस बरस के इतिहास को नहीं भूलेंगे।

मजदूरों के आन्दोलन का एक अनुपकार बुद्धिजीवियों में उसके उन साहसहीन मित्रों द्वारा किया जा रहा है जो सामाजिक-जनवादियों के भीतरी संघर्ष से घबराते हैं, और जो शोर-गुल मचाते हैं कि इससे कोई संपर्क नहीं रखना चाहिए। ये भले मानस मगर बेकार लोग हैं, और इनकी चीख पुकार बेकार है।

केवल अवसरवाद के विरुद्ध मार्क्सवाद के संघर्ष के इतिहास का अध्ययन करके ही, केवल इस बात का सम्पूर्ण घोर तफ़सीली अध्ययन करके कि स्वतंत्र सर्वहारा जनवाद ने किस ढंग से निम्न-पूंजीवादी गड़बड़-झाले से छुटकारा पाया, अगुआ मजदूर निर्णायक ढंग से अपनी वर्गीय चेतना और अपनी मजदूरों की पत्रकारिता को प्रबल कर सकते हैं।

●राबोची', अंक १, २२ अप्रैल १९१४

लेनिन, खंड २५, पृष्ठ ६३-१०१

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...