बचपन में जब कभी चन्द्रग्रहण या सूर्य ग्रहण लगता मैं मेरी मां उस समय खाना नहीं बनाती थी जब ग्रहण खत्म हो जाता तभी बनाती वो भी स्नान करने के बाद और पंडितो को अन्न दान जरुर करती थी, और घर के सभी लोग नहाने के बाद ही खाना खाते थे जब मैं इसका कारण पूछती तो बताती थी की " सूर्य भगवान और चन्द्रमा पर दुःख पड़ा रहता है उन दोनों को राहु और केतु दोनों बारी बारी से निगल लेते हैं इसलिए अंधेरा हो जाता है" जब मैं पूछती कि इससे पंडित से क्या लेना-देना तो कहती कि वही सब राहु और केतु दोनों को डांटते हैं तो वे सब वापस सूर्य और चन्द्रमा को मुंह से बाहर निकाल देते हैं। मां मेरी अनपढ़ थी इसलिए ये सारी बातें पुरे विश्वास के साथ मुझे बताती थी लेकिन बात मुझे कुछ हजम नहीं होती थी। फिर जब मैं भूगोल विषय की पढ़ाई में सूर्य और चन्द्र ग्रहण के बारे में पढ़ी तो मुझे मां की बताई हुई बातों पर बड़ी हंसी आती थी। लेकिन अब मेरी मां हम लोगों के माध्यम से काफी कुछ जान गई है अब तो ब्राह्मणों को दरवाजे से भगा देती है।
इसी तरह हमारे देश में वैदिक काल से ही ग्रहण से संबंधित कथाएं और किवदंतियाँ प्रचलन में रही हैं। वर्तमान में भी लोग इन पौराणिक कथाओं को सत्य मानते हैं। ग्रहण के एक-दो दिन पहले से ही टीवी और समाचार पत्रों के माध्यम से फलित ज्योतिषी अपना कूपमंडूक सुनाते रहते हैं।असल में ग्रहण के समय पुरोहित, ज्योतिषी, पंडे आदि दान-दक्षिणा इत्यादि के बहाने लोगों के मन में भय उत्पन्न करने की मंशा रखते हैं और उनका अपने तरीके से उपयोग तो करते ही हैं।
ग्रहणों के बारे में जो आज अंधविश्वास व मिथक हैं, उसका वर्णन महाभारत, मनुस्मृति, अथर्ववेद के साथ-साथ अन्य पोथियों में भी हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं :
1. ग्रहण के समय भोजन को पकाना तथा खाना नहीं चाहिए।
2. घर के अंदर उपलब्ध समस्त सामग्री पर तुलसी के पत्तों से गंगाजल का छिड़काव करना चाहिए।
3. ग्रहण के समाप्त होने के बाद स्नान करना चाहिए।
4. ग्रहण के समय रूपयें, कपड़े, मवेशियों इत्यादि को पुरोहितों, पंडितों, पंडो को दान करना चाहिए।
इत्यादि अंधविश्वास और भ्रांतियों का समावेश है, जिसका यहाँ पर वर्णन करना लेखक और पाठक के समय को अन्यथा लेने के तुलनीय होगा। निस्संदेह ये कठोर नियम हमारे किसी काम के नही हैं तथा इनको अब और बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए।
ऐसा भी नही हैं कि प्राचीन काल में किसी भी ज्योतिषी को सूर्य ग्रहण के संबंध में वैज्ञानिक जानकारी नही थी। आज से लगभग पन्द्रह सौ साल पहले प्राचीन भारत के महान गणितज्ञ-ज्योतिषी आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीय में सूर्य ग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताया हैं। आर्यभट आर्यभटीय के गोलपाद में लिखते हैं :
"छादयति शशी सूर्य शशिनं महती च भूच्छाया।। 37 ।।"
अर्थात्, जब चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ती है, तब चंद्रग्रहण होता और जब पृथ्वी पर चन्द्रमा की छाया पड़ती है, तब सूर्य ग्रहण होता है। आर्यभट ने ग्रहणों की तिथि तथा अवधि के आकलन का सूत्र भी प्रदान किया। उनके कई विचार क्रन्तिकारी थे। आर्यभट परम्पराओं को तोड़ने वाले खगोलिकी आन्दोलन के अग्रनेता थे। अतः उन्हें अपने समकालीन ज्योतिषियों के आलोचनाओं को भी झेलना पड़ा।
अब हम सूर्य ग्रहण एवं चंद्र ग्रहण के बारे में बहुत-कुछ जानते हैं। अब हम जानते हैं कि राहु और केतु कोई ग्रह नही हैं। तारामंडल में सूर्य और चन्द्रमा के पथ बिलकुल एक नही हैं, बल्कि थोड़े अलग हैं। जैसे गोल खरबूजे पर वृत्ताकार धारियां होती हैं, वैसे ही तारामंडल में एक धारी सूर्य का पथ हैं तथा दूसरी वाली धारी चन्द्रमा का पथ हैं। ये दोनों वृत्त जहाँ एक-दूसरें को काटते हैं, उन दो बिंदुओं को राहु और केतु कहते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि राहु-केतु कोई ग्रह नहीं, बल्कि खगोलशास्त्र में वर्णित दो काल्पनिक बिंदु हैं।
Sunita A
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