Wednesday, 26 May 2021

(बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष by P L Shakun) बुद्ध, कार्ल मार्क्स व डॉक्टर अम्बेडकर



आप परिवर्तन तो कर सकते हैं परंतु परिवर्तन के नियमों को समझे बगैर परिवर्तन नहीं कर सकते हैं. परिवर्तन का नियम है कि इस विश्व ब्रह्मांड में तीन चीजें हैं - प्राकृतिक जगत, सामाजिक जगत और ज्ञान जगत. इन तीनों को मिलाकर ही ब्रह्मांड है. इन तीनों से बाहर किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं है. और ये सब भौतिक जगत कहलाता है जिसका अस्तित्व हमारे माइंड के बाहर है और जो हममें अनुभूतियाँ पैदा करता है. ये संपूर्ण भौतिक जगत परिवर्तन शील है, गतिशील है. गौतम बुद्ध ने भी कहा सब कुछ परिवर्तन शील है, गति शील है कोई भी चीज शास्वत नहीं है. परंतु हर व्यक्ति के चिंतन की सीमा होती है और वह सीमा है उसकी भौतिक पतिस्थितियों की सीमा. बुद्ध के समय में प्रायोगिक विज्ञान नहीं आया था. इसलिए वे ये नहीं बता सकते थे कि दिन और रात क्यों होते हैं, पृथ्वी के साथ सूर्य का क्या संबंध है? परंतु ये न बताने के कारण हम ये नहीं कह सकते हैं कि बुद्ध न्यूटन या गेलीलियो से छोटे हैं. क्योंकि दोनों की परिस्थितियां और समय भिन्न - भिन्न हैं. इसलिए दोनों की तुलना करना भी गलत है. इसी तरह मार्क्स से बुद्ध की तुलना भी नहीं हो सकती क्योंकि मार्क्स और बुद्ध में 2500 साल का अंतर है. मार्क्स के जमाने में  भिन्न -भिन्न क्षेत्रों के वैज्ञानिक पैदा हो चुके थे. अतः उनके पास बुद्ध सहित तमाम दार्शनिकों और वैज्ञानिकों के ज्ञान का अनुभव था . इसलिए मार्क्स और बुद्ध की तुलना करना भी अवैज्ञानिक है. बुद्ध के समय पूंजीवादी व्यवस्था नहीं थी , इसलिए बुद्ध यह नहीं बता सके पूंजीपति मजदूर का शोषण किस नियम से करता है. उनके सामने जनजातीय व्यवस्था का सामूहिक जीवन था और उस जनजातीय व्यवस्था के गर्भ से राज्य सत्ता पैदा हो रही थी. जनजातीय व्यवस्था में एक जन परिषद हुआ करती थी जो भीतर से लोकतांत्रिक होती थी. ये लोग सर्वसम्मति से अपने जनजातीय समूह का सरदार चुनते थे जिसे राजा कहते थे.  इतिहासकार डी. डी. कौसाम्बी ने लिखा है कि " मैंने प्रबल प्रमाणों के साथ यह दिखा दिया है कि उपनिषद ही नहीं बल्कि आरण्यक भी बुद्ध के बाद लिखे गए थे. " जबकि अन्य विद्वान बुद्ध को उपनिषद् काल के बाद का मानते हैं. परंतु कौसाम्बी जी ने जो प्रमाण दिये हैं वे अकाट्य हैं. उन्होंने लिखा है कि शतपथ ब्राह्मण और ' ब्रहदारणक उपनिषद्' में जो वंशावली दी गई है उससे ऐसा ज्ञात होता है कि बुद्ध के पश्चात 35 पीढ़ियों तक उनकी परंपरा चलती रही थी. "
इसलिए हम यही प्रमाण मानते हुए बुद्ध को उपनिषद् और आरण्यक काल से पहले का ही मानेंगे.  उस युग में वर्ण व्यवस्था भी इतनी कठोर नहीं हुई थी. परंतु यज्ञ - याज्ञ की और यज्ञों में पशु बलि की संस्कृति थी. कृषि का आरंभ हो गया था जिसमें बैलों को हल जोतने के काम लिया जाता था. अतः बुद्ध ने यज्ञ में पशु बलि का बिरोध किया और सत्य और अहिंसा का सिद्धांत प्रतिपादित किया. महावीर भी बुद्ध के समकालीन हैं. अतः उन्होंने भी अहिंसा पर जोर दिया. अतः हम कह सकते हैं कि बुद्ध और महावीर ने जिन सिद्धांतों को प्रतिपादित किया वे सभी सिद्धांत उनके चारों ओर व्याप्त भौतिक परिस्थितियों की ही उपज थे. क्योंकि नियम यह है कि मनुष्य जो कुछ सोचता है वह अपने चारों ओर व्याप्त भौतिक परिवेश के साथ उसके द्वन्द्व से उद्भूत होता है. यानी मनुष्य के मष्तिष्क के साथ प्रकृति तथा सामाजिक परिवेश के साथ जो संघर्ष होता है मनुष्य का चिंतन उसको प्रतिबिंबित करता है. इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य के चिंतन की सीमा उसके भौतिक परिवेश की सीमा है. इसीलिए बुद्ध और मार्क्स की तुलना करना एक अवैज्ञानिक चिंतन है. इसके बाबजूद चूंकि बाबा साहेब अम्बेडकर ने *बुद्ध या कार्ल मार्क्स* नाम से एक लेख उन्होंने लिखा जिसमें उन्होंने लिखा है कि *वर्ग संघर्ष का अस्तित्व है, अष्टांगिक मार्ग का उनका सिद्धांत इस बात को मान्यता देता है कि वर्ग संघर्ष का अस्तित्व है और यह वर्ग संघर्ष ही है, जो दुःख व दुर्दशा का कारण होता है* (पृष्ठ 349 बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर संपूर्ण वांगमय खण्ड- 7  द्वितीय संस्करण 1998) 
    आगे इसी पृष्ठ पर वे लिखते हैं *यदि हम यह समझ लें कि दुःख का कारण शोषण है, तब बुद्ध इस विषय में मार्क्स से दूर नहीं हैं. व्यक्तिगत संपत्ति के प्रश्न के संबंध में बुद्ध तथा आनंद के बीच वार्तालाप का उद्धरण डॉ अम्बेडकर ने पेश करते हुए लिखा है, बुद्ध कहते हैं: ' मैंने कहा है कि धनलोलुपता संपत्ति के स्वामित्व के कारण होती है.... जहाँ पर किसी प्रकार की संपत्ति व अधिकार नहीं है, वह चाहे किसी व्यक्ति के द्वारा या किसी भी वस्तु के लिए हो, वहां कोई संपत्ति या अधिकार न होने के कारण संपत्ति की समाप्ति या अधिकार की समाप्ति पर क्या कोई धन लोलुप या लालची दिखाई पड़ेगा?* आनंद जबाव देते हैं -
*नहीं प्रभु*
 आगे अम्बेडकर ने संघ के नियमों के अनुसार बताया है कि एक भिक्षु केवल आठ वस्तुयें अपने पास रख सकता है जो निम्न प्रकार हैं ::" प्रतिदिन पहनने के लिए तीन चीवर (वस्त्र) -3, 
कमर में बांधने के लिए एक पेटी-1, एक भिक्षा पात्र, एक उस्तरा, सुई धागा, और पानी साफ करने की एक छलनी - ये आठ वस्तुयें ही संघ में एक भिक्षु रख सकता है. डॉ अम्बेडकर ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "ये नियम रूस में साम्यवाद में पाये जाने वाले नियमों से अधिक कठोर हैं".  
  आगे डॉ अम्बेडकर ने " साधन " शीर्षक में लिखा है कि " साम्यवाद जिस का प्रतिपादन बुद्ध ने किया उसे कार्यान्वित करने के लिए साधन भी निश्चित है इन साधनों को तीन भागों में रखा जा सकता है भाग 1 पंचशील का आचरण बुद्ध ने एक नए सिद्धांत का .प्रतिपादन किया यह उन समस्याओं की कुंजी है जो उनके मन में बार-बार उठा करती थी . नए सिद्धांत का आधार यह है कि यह सारा संसार कष्टों और दुखों से भरा हुआ है ,यह एक ऐसा तथ्य था जिस पर न केवल ध्यान देना आवश्यक था बल्कि मुक्ति की किसी भी योजना में इसे प्रथम स्थान देना था इस तथ्य को मान्य कर  बुद्ध ने इसे अपने सिद्धांत का आधार बनाया .उनका कहना था कि उक्त सिद्धांत को यदि उपयोगी होना है तो कष्ट तथा दुख का निवारण हमारा लक्ष्य होना चाहिए इस कष्ट तथा दुख के कारण क्या हो सकते हैं इस प्रश्न के उत्तर में बुद्ध ने यह पाया कि इसके कारण केवल दो हो सकते हैं 
मनुष्य के कष्ट तथा दुःख उसके अपने ही दुराचरण के फल स्वरुप हो सकते हैं .दुख के इस कारण का निराकरण करने के लिए उन्होंने पंचशील का अनुपालन करने का उपदेश दिया .
  पंचशील में निम्नलिखित बातें आती है .
1 - किसी जीवित वस्तु को ना ही नष्ट करना और ना ही कष्ट पहुंचाना.
2-चोरी अर्थात दूसरे की संपत्ति को धोखाधड़ी या हिंसा द्वारा ना हथियाना और ना उस पर कब्जा करना.
3- झूठ न बोलना
 4-तृष्णा ना करना
 5-मादक पदार्थों का सेवन न करना .
बुद्ध का मत है कि संसार में कष्ट व दुख मनुष्य का मनुष्य के प्रति पक्षपात है इस पक्षपात का निराकरण किस प्रकार किया जाए मनुष्य के प्रति मनुष्य के पक्षपात का निराकरण करने के लिए बुद्ध ने आर्य अष्टांगिक मार्ग निर्धारित किया इस अष्टांग मार्ग के तत्व इस प्रकार हैं -
1 -सम्यक दृष्टि अर्थात अंधविश्वास से मुक्ति 
2- सम्यक संकल्प जो बुद्धिमान तथा उत्साह पूर्ण व्यक्तियों के योग्य होता है
3-सम्यक वचन अर्थात दयापूर्ण,  स्पष्ट तथा सत्य भाषण 
4-सम्यक आचरण अर्थात शांति पूर्ण ईमानदारी तथा शुद्ध आचरण
 5 - सम्यक जीविका अर्थात किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार की क्षति या चोट न पहुंचाना 
 6-अन्य 7 बातों में सम्यक परिरक्षण .
7-सम्यक् स्मृति अर्थात एक सक्रिय तथा जागरूक  मस्तिष्क 8 -सम्यक समाधि अर्थात जीवन के गंभीर रहस्य के संबंध में गंभीर विचार 
    इस अष्टांग मार्ग का उद्देश्य पृथ्वी पर धर्म परायणता तथा न्याय संगत राज्य की स्थापना है. 
(वही पृष्ठ -350 से 352) 
आगे डॉ अम्बेडकर लिखते हैं कि
" स्पष्ट है कि बुद्ध ने जो साधन अपनाए वे स्वेच्छा पूर्वक अनुसरण करके मनुष्य की नैतिक मनोवृत्ति को परिवर्तित करने के लिए थे .साम्यवादियों द्वारा अपनाए गए साधन भी इसी भांति स्पष्ट संक्षिप्त तथा स्फूर्ति पूर्ण हैं. ये हैं : एक -हिंसा और दो- सर्वहारा वर्ग की तानाशाही.
   साम्यवादी कहते हैं कि साम्यवाद को स्थापित करने के केवल दो ही साधन है पहला हिंसा वर्तमान व्यवस्था को भंग करने व तोड़ने के लिए इससे कम कोई भी कार्य योजना पर्याप्त नहीं होगी दूसरा साधन है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही व्यवस्था को जारी रखने के लिए उससे कम कोई चीज पर्याप्त नहीं होगी.स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में क्या समानताएं हैं तथा क्या विषमताएं हैं .अंतर व विषमता साधनों के विषय में है साध्य दोनों में समान है.  
आगे डॉ अम्बेडकर साधनों का मूल्यांकन करते हुए निजी स्वामित्व को हटाने के लिए हिंसा को न्याय संगत ठहराते हैं. वे कहते हैं कि "हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि गैर साम्यवादी देशों में भी हत्यारे को फांसी पर लटकाया जाता है. क्या फांसी पर लटकाना हिंसा नहीं है? गैर साम्यवादी देश एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं. युद्ध में लाखों लोग मारे जाते हैं. क्या यह हिंसा नहीं है? यदि एक हत्यारे को इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि उसने एक नागरिक को मारा है, उसकी हत्या की है, यदि एक सिपाही को युद्ध में इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि वह शत्रु राष्ट्र से संबंधित है तो यदि संपत्ति का स्वामी स्वामित्व के कारण शेष मानव जाति को दुःख पहुंचाता है तो उसे क्यों नहीं मारा जा सकता? संपत्ति के स्वामी के लिए उसके पक्ष में बचाव का कोई कारण नहीं है. व्यक्तिगत संपत्ति को परम पावन क्यों माना जाना चाहिए? 
   डॉ अम्बेडकर ने व्यक्तिगत संपत्ति को हटाने के लिए जो सवाल उठाया है उसे वे न्याय संगत ठहराने के लिए बताते हैं कि "बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे. परंतु वे न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ पर न्याय के पक्ष के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है, वहां उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति दी है. यह बात वैशाली के सेना अध्यक्ष सिंह सेनापति के साथ उनके वार्तालाप में भलीभांति सोदाहरण समझाई गयी है. 
     बुद्ध ने सिंह सेनापति के प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसमें बुद्ध कहते हैं कि ".... जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है, उसे हिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता. यदि शांति बनाये रखने के सभी साधन असफल हो गये हों तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है जो युद्ध को शुरू करता है." 
  डॉ अम्बेडकर ने अपने इस लेख में मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को सही माना है और कहा है कि अष्टांगिक मार्ग इस सिद्धांत के अस्तित्व को यह कहकर मान्यता देता है कि वर्ग संघर्ष ही है जो दुःख व दुर्दशा का कारण है और वे निजी स्वामित्व को भी मनुष्य के शोषण के लिए जिम्मेदार मानते हैं और उसे हटाने के लिए हिंसा को न्याय संगत मानते हैं. 
परंतु वे साथ ही ये भी कह देते हैं कि "बल प्रयोग को इस प्रकार नियमित करना चाहिए कि वह अनिष्टकर साध्य को नष्ट करने की प्रक्रिया में यथा संभव अधिक से अधिक साध्यों की रक्षा कर सके. बुद्ध की अहिंसा उतनी निरपेक्ष नहीं थी, जितनी जैन मत के संस्थापक महावीर की अहिंसा थी. डॉ अम्बेडकर ने अंत में जोड़ दिया है कि" साम्यवादी हिंसा का प्रतिपादन एक निरपेक्ष सिद्धांत के रूप में करते हैं. बुद्ध इसके घोर विरोधी थे. डॉ अम्बेडकर का यह अंतिम वाक्य बिना किसी संदर्भ के कम्युनिस्टों के संबंध में जोड़ दिया गया है जो निराधार है.  जितनी हिंसा मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग द्वारा कारखानों में उनसे बिना मजदूरी दिये जबरन काम करबाकर की जाती तथा सरकार तथा उसके अधीन कार्य करने वाली पुलिस तथा नौकरशाही  मजदूरों पर जो अत्याचार करती है उसके अनेकों उदाहरण डॉ अम्बेडकर के साहित्य में ही भरे पड़े हैं. लेकिन वे उन्होंने अछूतों पर अत्याचार के रूप में दिये हैं. क्या अछूत मजदूर वर्ग में नहीं आते असल में  मार्क्स की परिभाषा के अनुसार इस देश के अछूत ही असली सर्वहारा हैं जिनके पास जीवन जीने के लिए श्रम के अलावा दूसरी कोई संपत्ति ही नहीं है. वे सदियों से सर्वहारा हैं जिन पर पहले ब्राह्मणवाद और सामंतशाही की तानाशाही की तलवार लटकी रहती थी और और अब पूंजीपति वर्ग की तानाशाही की तलवार लटकी रहती है. न उनके पास पहले कोई संपत्ति के साधन थे और न अब हैं. इसके बाबजूद डॉ अम्बेडकर को समाजवादी व्यवस्था में सर्वहारा की तानाशाही में अधिकारों की स्वतंत्रता नजर नहीं आती है.

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