नक्सलबाड़ी की विरास्त पर पहरा देने के लिए कट्टरता से पीछा छुड़ाना ज़रूरी
25 मई को नक्सलबाड़ी विद्रोह की 54वीं वर्षगाँठ थी। 54 वर्ष पहले पच्छिम बंगाल के दार्जलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी गाँव से शुरू हुए किसानों के विद्रोह, जिसे आस-पास के चाय-बाग़ानों के मज़दूरों का भी साथ हासिल था, भारत के लूट-दमन की शिकार मेहनतकश जनता की मुक्ति का प्रतीक बन गया है। नक्सलबाड़ी से भारत में एक नई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी धारा का जन्म हुआ। इस धारा ने संशोधनवाद, नव-संशोधनवाद के साथ अलगाव की स्पष्ट रेखा खींची। इन कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के ख़िलाफ़, चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा चलाए जा रहे संघर्ष में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ स्टैंड लिया।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत घोषित किया। लेकिन नक्सलबाड़ी के साथ जिस नई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी धारा का जन्म हुआ, ये ख़ुद को एक पार्टी में संगठित ना कर पाई। यह आंदोलन कई ग्रुपों में बंट गया। यह हालत आज आधी सदी के बाद भी बरक़रार है।
पिछले 54 सालों में पुल के नीचे काफी पानी बह चुका है। इस आंदोलन से पैदा हुए कई कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी ग्रुप बिखर गए, अपना वजूद तक क़ायम नहीं रख सके। कुछ ग्रुप संशोधनवाद की पट्टरी पर चढ़ संसदवाद की राह पर चल पड़े। कई ग्रुप आज भी भारतीय क्रांति को समर्पित हैं, देश के विभिन्न कोनों में मेहनतकश जनता के संघर्षों में अग्रणी भूमिका में हैं। लेकिन क्रांति के लिए अपनी प्रतिबद्धता, समर्पण तथा क़ुर्बानियों के बावजूद भी भारत के कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन का बड़ा हिस्सा आज भी कट्टरता (dogmatism) का अंधेरा ढो रहा है। 1947 से 1967 तक (नक्सलबाड़ी विद्रोह तक) और उसके बाद के अब तक के 54 वर्षों के दरमियान भारत में और इसी तरह पूरे विश्व में (साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में) आए बड़े महत्वपूर्ण बदलावों से इस आंदोलन का बड़ा हिस्सा आँखें मूंदे बैठा है। कुछ घिसे पिटे, अप्रासंगिक हो चुके फार्मूलों के साथ काम चला रहा है।
1967 में भी नक्सलबाड़ी से साथ वजूद में आए कम्यूनिस्ट ग्रुपों ने चीनी क्रांति की अँधी नक़ल की कोशिश की। भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के समग्र विश्लेषण, अध्ययन पर आधारित, भारत की हालतों के लिए उपयुक्त क्रांति का कार्यक्रम, युद्धनीति और रणकौशल (tactics) गढ़ने की बजाए, किसी रटन मंत्र की तरह भारत को अर्ध-सामंती उपनिवेशवादी देश घोषित कर दिया गया। यह कहा गया कि भारत में चीन की तरह नव-जनवादी क्रांति होगी, कि चीनी तर्ज़ पर भारतीय क्रांति का रास्ता दीर्घ लोकयुद्ध का रास्ता होगा। इन घोषणाओं का उस वक़्त की भारत की ज़मीनी हक़ीक़तों से कोई मेल नहीं था। भारतीय क्रांति का यह कार्यक्रम 1951 में भाकपा द्वारा सोवियत नेतृत्व के साथ बातचीत के आधार पर अपनाए गए कार्यक्रम का ही नया संस्करण था।
अफ़सोस की बात यह है कि आज भी कई ग्रुप भारतीय क्रांति के कार्यक्रम, पथ आदि के बारे में 1967 की अवस्थितियों को ही दोहरा रहे हैं। इनका दावा है कि भारतीय समाज में पिछले 54 वर्षों में कोई भी बदलाव नहीं हुए। मिसाल के तौर पर नक्सलबाड़ी की 54वीं वर्षगाँठ के अवसर पर 'सुर्ख़ लीह' वाले साथियों ने नक्सलबाड़ी की बग़ावत की वर्षगाँठ के अवसर पर चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के बयान के कुछ अंश प्रकाशित किए हैं। इसमें कहा गया है कि नक्सलबाड़ी का रास्ता, भारतीय क्रांति का रास्ता है, कि भारत एक अर्ध-उपनिवेशिक, अर्ध-सामंती देश है, कि भारतीय क्रांति का रास्ता ग्रामीण इलाकों में आधार इलाके स्थापित करना, दीर्घ हथियारबंद लोकयुद्ध चलाना, गाँवों के ज़रिए शहरों को घेरना और अंत में फ़तह करने का रास्ता है। कि इस क्रांति को किसानों पर निर्भर होना चाहिए।
पहली बात तो यह है कि चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी सुझए गए ये फार्मूले भारत की उस वक़्त की हालतों से ज़रा भी मेल नहीं खाते थे, आज की हालतों से तो उनका क्या मेल होना था। भारत के कम्यूनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन का पिछले 54 वर्षों का व्यवहार इसकी गवाही देता है।
दूसरी बात यह, भारत में कैसे उत्पादन संबंध हावी हैं, यहाँ क्रांति की मंजिल, युद्धनीति, रणकौशल क्या होंगे इसका फ़ैसला भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी करेंगे ना कि कोई बिरादर संगठन। कोई भी बिरादर पार्टी किसी भी देश में चल रहे जन मुक्ति संघर्ष के साथ हमदर्दी ज़ाहिर कर सकती है, लेकिन वहाँ की क्रांति का कार्यक्रम नहीं गढ़ सकती।
मौजूदा भारत में पूँजीवादी उत्पादन संबंध हावी हैं, यह किसी भी क़िस्म की जनवादी क्रांति की मंज़िल को पार कर चुका है और समाजवादी क्रांति के पड़ाव में दाख़िल हो चुका है। दीर्घ लोकयुद्ध की युद्धनीति भारत के किसी बेहद पिछड़े इलाके में तो कारगर हो सकती है, लेकिन भारत स्तर पर नहीं। किसान आज भारत की मेहनतकश जनता का एक छोटा हिस्सा बन कर रहा गए हैं। भारत के अधिकतर राज्यों में आज ग्रामीण क्षेत्र में उजरती मज़दूरों की भरमार है, ये ग्रामीण आबादी की बहुसंख्या बनते हैं।
इसी तरह दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवादी व्यवस्था का अंत ऐसा ही एक अहम बदलाव है।
देश और दुनिया में आए इन बदलावों को खुले मन से संबोधित हो कर ही भारतीय क्रांति का सही कार्यक्रम, युद्धनीति और रणकौशल गढ़े जा सकते हैं। सिर्फ़ तभी भारत की मेहनतकश जनता के मुक्ति संग्राम को आगे बढ़ाया जा सकता है। दुनिया को तभी बदला जा सकता है यदि इसके बारे में हमारी समझ सही हो, वस्तुगत यथार्थ के क़रीब हो। कट्टर हो कर भारत की मेहनतकश जनता की मुक्ति का संघर्ष नहीं लड़ा जा सकता।
मुक्ति संग्राम
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