Wednesday, 5 May 2021

मार्क्सवाद और संशोधनवाद



प्रसिद्ध उक्ति है कि अगर रेखागणित की स्वयंसिद्धियां लोगों के हितों से टकरातीं, तो शायद उन्हें भी गलत साबित किया जाता। धर्म शास्त्र के पुराने पूर्वाग्रहों से टकरानेवाले प्राकृतिक-ऐतिहासिक सिद्धान्त अधिकतम प्रचंड संघर्षों के कारण बने और अब तक बने हुए हैं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मार्क्स की शिक्षा, जो आधुनिक समाज के अग्रगामी वर्ग के जागरण तथा संगठन में प्रत्यक्ष रूप से सहायता पहुंचाती है, उस वर्ग के कार्यभार बताती है और वर्तमान समाज व्यवस्था की जगह एक नई व्यवस्था की स्थापना की अनिवार्यता ( आर्थिक विकास की बदौलत ) सिद्ध करती है, कोई आश्चर्य नहीं कि इस शिक्षा को अपने जीवन-पथ पर एक एक क़दम बढ़ाने के लिए लड़ना पड़ा।

संपत्तिवान वर्गों के उदीयमान नौजवानों को मतिमूढ़ बनाने और उन्हें भीतरी तथा बाहरी शत्रुओं की " मृगया प्रशिक्षा" देने के लिए सरकारी प्रोफ़ेसरों द्वारा सरकारी ढंग से पढ़ाए जानेवाले पूंजीवादी विज्ञान तथा दर्शन की तो बात ही क्या, जो यह घोषणा करके मार्क्सवाद की बाबत सुनना भी नहीं चाहता कि उसका तो खंडन और उन्मूलन हो चुका है, समाजवाद के खंडन द्वारा अपने लिए सांसारिक सिद्धि चाहनेवाले युवा वैज्ञानिक और हर प्रकार की बोसीदा " पद्धतियों" की सीखों की बरकरारी चाहनेवाले जरा-जर्जर वृद्धजन, दोनों ही समान उत्साह से मार्क्स पर प्रहार करते हैं। मार्क्सवाद के विकास और मजदूर वर्ग में उसके विचारों के प्रसार तथा मूलन के कारण, सरकारी विज्ञान द्वारा "उन्मूलन" के बाद हर बार अधिक शक्तिशाली, अधिक इस्पाती तथा अधिक जीवन्त बन जानेवाले मार्क्सवाद पर इन पूँजीवादी हमलों में अनिवार्यतः बढ़ती और तेजी पैदा हो जाती है।

लेनिन

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