Wednesday, 30 September 2020

सोवियत रूस में महिलाओ पर यौन अपराध क्यो नही था!

'कम्युनिस्ट मास्को में रेप नामुमकिन था'
अयाज़ आमिर 1974 से ढाई साल मास्को में तैनात थे और ये उनका बयान है,  جنسی تشدد تو دور کی بات ہے اُس زمانے کی سوویت یونین میں اس کا تصور بھی محال تھا۔
'जिंसी तशद्दुद (यौन अपराध) तो दूर की बात है उस जमाने के सोवियत यूनियन में इसका तसव्वुर भी मुहाल था।'
निजी मालिकाने को खत्म और ज़ालिमों पर मजदूर वर्ग की तानाशाही कायम कर ही ऐसा स्वतंत्रता आधारित समाज बनाया जा सकता है जिसमें किसी इंसान के साथ वहशीपन की बात तक दिमाग में लाने की बात नामुमकिन हो जाये। मौजूदा जनतंत्र तो बस ज़ालिमों को जुल्म की आजादी है।
(नोट: हालांकि 1974 भी वो पहले का समाजवादी देश नहीं था, संशोधनवाद की गिरफ्त में था, पर समाजवाद के दौरान जो समाज बना था उसकी संस्कृति सारे पतन के बाद भी पूंजीवादी समाज से सैंकड़ों गुना बेहतर थी।)

मुकेश असीम के वाल से

अदम गोंडवी

..........
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!

Tuesday, 29 September 2020

Leslie Pinckney Hill


News item from The New York Times on the lynching of a Negro at Smithville, Ga., December 21, 1919: "The train was bored so quietly…that members of the train crew did not know that the mob had seized the Negro until informed by the prisoner's guard after the train has left the town… A coroner's inquest held immediately returned the verdict that West came to his death at the hands of unidentified men."

So quietly they stole upon their prey
And dragged him out to death, so without flaw
Their black design, that they to whom the law
Gave him in keeping, in the broad, bright day,
Were not aware when he was snatched away;
And when the people, with a shrinking awe,
The horror of that mangled body saw,
"By unknown hands!" was all they could say.

So, too, my country, stealeth on apace
The soul-bright of a nation. Not with drums
Or trumpet blare is that corruption sown,
But quietly — now in the open face
Of day, now in the dark — when it comes,
Stern truth will never write. "By hands unknown."

हत्यारों की शिनाख़्त लेस्ली पिंकने हिल (अफ्रीकी-अमेरिकी कवि)


तो उन्होंने चुपचाप उस पर हमला किया
और उसे खींच ले गये;
इतना मुश्किल था उनका षडयन्त्र
कि सरकार ने दिन-दहाड़े
क़ानून और व्यवस्था के जिन प्रहरियों
के हाथ उसे सौंपा था
उनको पता तक नहीं चला।
और उन लोगों ने भय से काँपते हुए
उस चिथड़े-चिथड़े हुई लाश को देखा
तो सिर्फ़ यही कह सके-
"हत्यारे पता नहीं कौन थे?"

तो इसी तरह, मेरा यह देश
चुपचाप खींचा जा रहा है
नैतिक मौत की तरफ़
हत्या की तरफ़,
नक्कारे और तुरही बजाकर नहीं,
बल्कि यह हत्या की जा रही है
कुछ अँधेरे और कुछ उजाले में–
लुके-छिपे।
लेकिन जब लाश सामने नज़र आयेगी
तब इतिहास यह नहीं कह सकेगा कि
"हत्यारे पता नहीं कौन थे?"

भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साहित्य

 

 

1.  शहीद सुखदेव नौघरा से फांसी तक  

2. संस्मृतिया- क्रांतिकारी शहीदों के संस्मरणात्मक लेख

3. क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक विकास

4. भगतसिंह  और उनके साथियो के सम्पूर्ण  दस्तावेज

5. भगतसिंह  ने कहा था

6. भगतसिंह- मै नास्तिक क्यों हूँ

7. क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा 

8. जाति धर्म के झगरे छोडो,सही लड़ाई से नाता जोडो 

9. बम का दर्शन  और अदालत मे बयान 

10. क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा  -हिंदी, अंग्रेजी, मराठी

Monday, 28 September 2020

' बहेलियों का बाजार ' -जुल्मीरामसिंह यादव


           
मेरी भूख संसद के अध्यादेशों को पूछ कर नहीं आती
और न ही मेरी भूख की रसद 
अध्यादेशों के जंगलों में  उगा करती  है 
संसद के जंगल में बहेलिया कबूतरों की भाषा में 
 अपना व्याकरण सिखाना चाहता है  
 बहेलिया चाहता है उसकी और कबूतर की रसोईं एक हो 
लेकिन चूल्हे पर किसे चढ़ना है 
इसका उत्तर बहेलिए की भूख तय करती है
संसद के रास्तों की सारी दुकानों का मालिक तो कोई और है यहां हर कस्साब भाड़े पर उठी हुई सुपारी है
कसाई की उदारता इतनी क्या कम है
 कि वह जिबह करने के पहले
 मेमने के माथे पर संविधान का पवित्र टीका लगाता है 
और अंगूठा पकड़ कर छूरे  पर 
उसकी सहमति का दस्तखत ले लेता है
कि मैं हलाल का बकरा अपने पूरे होशो हवास से 
संविधान को हाजिर नाजिर मानकर राष्ट्रहित में
अपने हलाल होने की पूरी रजामंदी देता हूं
संसद के  सराय में रथ के सिर्फ घोड़े बदले जाते हैं 
परंतु पवित्र रथयात्रा का जगन्नाथ तो
  हमेशा पूंजी का पिंडारी ही बना रहता है
इन चुने हुए सत्यवादी घोड़ों के सतीत्व की उम्र
घोड़ा बाजार में लगाए गए कीमत पर निर्भर होती है
 संसद के घोड़ों की कीमत जितनी ऊंची होती है 
उतना ही सस्ता सजता है
दिल्ली के  मीना बाजार में चोर बाजार
 इसी के साथ कफनकुबेरों का खजाना 
नीलामी के माल से पटने लगता है
फिर वह चाहे बंदी बना ली गई नदियों का नीला जल हो
या मछुआरों के सपनों में बार-बार आने वाली
सुरमई मछलियां
चाहे  हरे आकाश में डूबा हुआ
नुचे तुड़े पंखों वाला  हिरण्यगर्भा अरण्य
या  पुरखों की देह से गली हुई धातुओं का अयस्क  
या उनकी अस्थियों की राख से  खेतों में बोया गया अमृतबीज
या यौवन के कच्चे खून से ढली 
पक्के लोहे की रेल की पटरियां 
जो अपने पुरखों की धमनियों की तरह   
 देश के जिगर और गुर्दे  की गोशे गोशे में बिछ सी गई हैं
 यहां दिल्ली की सबसे ऊंची मीनार  सिर्फ एक मंडी है  
और तराजू के एक पलड़े पर पूरा देश सिर्फ किरानी का माल
 दूसरे पलड़े पर हवस का कभी न उठने वाला वजन
 और जनता का प्रतिनिधि  बाजार  का कांटामार  पल्लेदार
              

      @ जुल्मीरामसिंह यादव
               29.9.2020

Sunday, 27 September 2020

Colonial policy of Comintern and Stalin :What attitude should the communist parties in developing countries take towards the bourgeois ?



The colonial policy was the result of a debate between Lenin and M. N. Roy at the Second Congress of the Communist International. The center of this debate was: What attitude should the communist parties in developing countries take towards the bourgeois ? Here Lenin (and Stalin) stressed the need to ally with the national bourgeois in a colonial revolution. Roy made a Trotskyite error in his draft supplementary thesis assuming that all sections of the bourgeois was counter revolutionary.

"Afraid of revolution, the nationalist bourgeoisie would compromise with imperialism in return for some economic and political concessions to their class. The working class should be prepared to take over at that crisis the leadership of the struggle of national liberation and transform it into a revolutionary mass movement."

This was made in response to Lenin's original draft thesis that said: 
"All the Communist parties must assist the bourgeois democratic liberation movement in these (i.e. colonial type countryside).. The Communist International (CI) must enter into a temporary alliance with bourgeois democracy in colonial and backward countries."

"I would like to particularly emphasize the question of the bourgeois democratic movements in backward countries. It was this question that gave rise to some disagreement. We argued about whether it would be correct, in principle and in theory, to declare that the CI and the CP's should support the bourgeois-democratic movement in backward countries. As a result of this discussion we unanimously decided to speak of the nationalist- revolutionary movements instead of the 'bourgeois-democratic' movement. There is not the slightest doubt that every nationalist movement can only be a bourgeois-democratic movement.. But it was agreed that if we speak about the bourgeois-democratic movement all distinction between reformist and revolutionary movements will be obliterated; whereas in recent times this distinction has been fully and clearly revealed in the backward and colonial countries, of the imperialist bourgeois is trying with all its might to implant the reformist movement also among the oppressed nations.. In the Commission this was proved irrefutably, and we came to the conclusion that the only correct thing to do was to take this distinction into consideration and nearly everywhere to substitute the term "nationalist- revolutionary" for the term » bourgeois -democratic". The meaning of this change is that we communists should, and will, support bourgeois liberation movements only when these movement do not hinder us in training and organising the peasants and the broad masses of the exploited in a revolutionary spirit.. The above mentioned distinction has now been drawn in all the theses, and I think that, thanks to this, our point of view has been formulated much more precisely. " 

In the above thesis, Lenin is using the word "must assist the bourgeois democratic liberation movement" and not "must lead the bourgeois democratic liberation movement.

However Lenin saw a positive feature in Roy's analysis: That in a national-democratic movement, when the working class takes control over it, the national bourgeois would betray it and go over to the imperialist side. The national bourgeois would prefer a subordinate exploiting position to the imperialist bourgeois rather than the possibility of the working class to transform the revolution into a socialist one. This was the position adopted at the 4th Congress of the CI in November 1922 in a document called the "Theses on the Eastern Question"

"At first the indigenous bourgeois and intelligentsia are the champions of the colonial revolutionary movements, but as the proletarian and semi-proletarian peasant masses are drawn in, the bourgeois and bourgeois-agrarian elements begin to turn away from the movement in proportion as the social interests of the lower classes of people come to the forefront."

This is completely in line with Stalin's view :

"The situation is somewhat different in countries like India. The fundamental and new feature of the conditions of life in countries like India is not only that the national bourgeoisie has split up into a revolutionary part and a compromising part, but primarily that the compromising section of the bourgeoisie has already managed, in the main, to strike a deal with imperialism. Fearing revolution more than it fears imperialism, and concerned with more about its money bags than about the interests of its own country, this section of the bourgeoisie is going over entirely to the camp of the irreconcilable enemies of the revolution, it is forming a bloc with imperialism against the workers and peasants of its own country." (University of the Toilers of the East)

Also it should be noted that Stalin took great care to distinguish the different types of colonial countries:

"Firstly countries like Morocco who have little or no proletariat, and are industrially quite undeveloped. Secondly countries like China and Egypt which are under- developed industries and have a relatively small proletariat. Thirdly countries like India.. capitalistic ally more or less developed and have a more or less numerous national proletariat. Clearly all these countries cannot possibly be put on a par with one another." In countries like Egypt and China, where the national bourgeoisie has already split up into a revolutionary party and a compromising party, but where the compromising section of the bourgoise is not yet able to join up with imperialism, the Communists can no longer set themselves the aim of forming a united national front against imperialism. In such countries the Communists must pass from the policy of a united national front to the policy of a revolutionary bloc of the workers and the petty bourgeoisie. In such countries that bloc can assume the form of a single party, a workers and peasants' party, provided, however, that this distinctive party actually represents a bloc of two forces - the Communist Party and the party of the revolutionary petty bourgeois. The tasks of this bloc are to expose the half- heartiness and inconsistency of the national bourgeoisie and to wage a determined struggle against imperialism. Such a dual party is necessary and expedient provided it does not bind the Communist Party hand and foot, provided it does not restrict the freedom of the Communist Party to conduct agitation and propaganda work, provided it does not hinder the rallying of the proletarians around and provided it facilitates the actual leadership of the revolutionary movement by the Communist party. Such a dual party is unnecessary and inexpedient if to does not conform to all these conditions for it can only lead to the Communist elements becoming dissolved in the ranks of the bourgeoisie to the Communist Party losing the proletarian army. The situation is somewhat different in countries like India. The fundamental and new feature of the conditions of life in countries like India is not only that the national bourgeoisie has split up into a revolutionary part and a compromising part, but primarily that the compromising section of the bourgeoisie has already managed, in the main, to strike a deal with imperialism, Fearing revolution more than it fears imperialism, and concerned with more about its money bags than about the interests of its own country, this section of the bourgeoisie is going over entirely to the camp of the irreconcilable enemies of the revolution, it is forming a bloc with imperialism against the workers and peasants of its own country." 

About China 1927

Contrary to the Trotskyites', Stalin never insisted that in the 2 stages of revolution, the 2nd stage of socialism be put off i n the far off future.

"To attempt to raise an artificial Chinese wall between the first and second revolutions, to separate them by anything else than the degree of preparedness of the proletariat and the degree of unity with the poor peasants, is monstrously to distort Marxism, to vulgarize it, to put liberalism in its place". 
(Vladimir I. Lenin: 'The Proletarian Revolution and the Renegade Kautsky' (November 1918), in: 'Selected Works', Volume 7; London; 1946; p. 191). 
"Lenin himself maintained the point of view of uninterrupted revolution". 
(Josef V. Stalin: 'The Foundations of Leninism' (April/May 1924), in: 'Works', Volume 6; Moscow 

So now we have established the correct line on colonial revolution established by Lenin and the ComIntern in 1922. Now, what happened to first revolution in China ? Was it wrecked by Stalin as Trotsky maintained ? No. The revolution was wrecked by the Chinese CP itself which ignored Roy's contribution on the vacillations of the native bourgeoisie. Here is Stalin's thesis on the subject. 
"What are the stages in the Chinese Revolution? In my opinion there should be three:

The first stage is the revolution of an all-national united front, the Canton period, when the revolution was striking chiefly at foreign imperialism, and the national bourgeoisie supported the revolutionary movement;

The second stage is the bourgeois democratic revolution, after the national troops reached the Yangtze River, when the national bourgeoisie deserted the revolution and the agrarian movement grew into a mighty revolution of tens of millions of the peasantry. The Chinese revolution is now at the second stage of its development;

The third stage is the Soviet revolution which has not yet come, but will come."

The CCP would refuse Stalin and the ComIntern's advice to move from the first stage to the second allowing for Trotsky and Zionvev to criticize Stalin for not showing the Chinese CP the betrayal of the Kumitang in the revolution. But Stalin did warn them:

"It is necessary to adopt the course of arming the workers and peasants and converting the peasant committees in the localities into actual organs of governmental authority equipped with armed self-defence, etc.. The CP must not come forward as a brake on the mass movement; the CP should not cover up the treacherous and reactionary policy of the Kuomintang Rights, and should mobilise the masses around the Kuomintang and the CCP on the basis of exposing the Rights... The Chinese revolution is passing through a critical period, and.. it can achieve further victories only by resolutely adopting the course of developing the mass movement. Otherwise a tremendous danger threatens the revolution. The fulfilment of directives is therefore more necessary than ever before." 

In February 1926, the Executive Council of the CI wrote a directive sent to the CC of the CCP stating that they had 2 choices: to either attempt to maintain the alliance with the national bourgeoisie, who were on the point of desertion of the national democratic revolution; Or; cement an alliance with the peasantry through the agrarian revolution. Failing to choose the latter would be disastrous. Emphasized in this was the need to carry out the agrarian struggle.

"In the present transitional stage of the development of the revolution, the agrarian stage of the development of the revolution, the agrarian question becomes the central question. The class which .. succeeds in giving a radical answer to it will be the leader of the revolution".

Stalin repeatedly urged the CCP, through 1926 and early 1927 to break the bloc with the right KMT and move to a militant revolutionary struggle. Stalin commented on the betrayal of Chiang Kia Shek with the revolution when the Koumitang launched its coup on April 12 killing Shanghai militant workers and communists. 
"In the First period of the Chinese revolution.. the national bourgeoisie (not the compradors) sided with the revolution...Chiang Kai-Shek's coup marks the desertion of the national bourgeoisie from revolution". April , 1927.

In May 23, 1927 Roy warned the CCP that a coup was eminent and to carry out the agrarian struggle. Instead Chen Tu-hsiu wrote a telegram to the ECCI :

"90% of the National Army are.. opposed to excesses in the peasants' movement. In such a situation, not only the KMT but also the CCP is obliged to adopt a policy of concessions, It is necessary to correct excesses and to moderate the activities of the confiscation of land."

The CCP failed to carry out the advice of Stalin and the Comitern. In July the coup came. On the 15th, the Communist ministers resigned from the Wuhan government to make the government look "more respectible." It was to no avail, the the KMT expelled members of the CCP from the KMT and the army. Stalin characterized this period as the Stalin characterized the new development as the desertion of the petty -bourgeois intelligentsia from the revolution:

"The present period is marked by the desertion of the Wuhan leadership of the KMT to the camp of counter- revolutionary intelligentsia from the revolution.. This desertion is due firstly to the fear .. In face of the agrarian revolution and to the pressure of the feudal landlords on the Wuhan leadership, and secondly to the pressure of the imperialists in the Tientsin are who are demanding that the KMT break with the Communists as the price for permitting passage Northwards."

But Stalin pointed out that NOW it was correct to propagandize in favor of the formation of soviets. This was made contrary to Trotsky who wanted Soviets from the beginning when it was not a correct tactic.

"If in the near future - not necessarily in a couple of months, but in 6 months or a year from now, a new upsurge of the revolution should become a fact, the question of forming Soviets of Workers and peasant' deputies may become a live issue as a slogan of the day, and as a counterpoise to the bourgeoisie. Why? Because if there has been an upsurge of the revolution in its present phase of development, the formation of Soviets will be an issue that has come fully mature. Recently a few months ago it would have been wrong for the CCP to issue the slogan of forming soviets, for that would been adventurism, which is characteristic of our opposition, for the KMT leadership had not yet discredited itself as an enemy of the revolution. Now on the contrary, the slogan of forming Soviets may become a really revolutionary slogan if (If!) A new and powerful revolutionary upsurge takes place in the near future. Consequently alongside the fight to replace the present KMT leadership by a revolutionary leadership it is necessary at once even before the upsurge begins to conduct the widest propaganda for the idea of Soviets among the broad masses of the working people, without running too far ahead and forming Soviets immediately, remembering that Soviets can only flourish at a time of powerful revolutionary upsurge." 

Instead of moving to the correct line, the CCP would later swing from right opportunism to left opportunism. On December 11, 1928 the CCP carried out an ill prepared insurrection. It was drowned in blood at the hands of the KMT. They would also try to carry out the ComIntern's advice on land reform but it was to late; the revolution was destroyed. The cost to the party was 4/5's of its membership. A reduction of 50,000 to 10,000 by the end of 1927.




सर्वेश्वर दयाल सक्सेना #रविवार_की_कविता

हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।

हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।

कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।

-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
#रविवार_की_कविता

Lok Sabha passes Bill to exempt political parties from scrutiny on foreign funds, without debate.


The Lok Sabha, earlier this week, passed without a debate a bill that will exempt political parties from scrutiny of funds they have received from abroad since 1976.

The retrospective amendment will help BJP and Congress escape the fallout of a 2014 Delhi High Court judgement that held both guilty of violating the FCRA.



Saturday, 26 September 2020

Socialism in one country

"I know that there are, of course, sages who think they are very clever and even call themselves Socialists, who assert that power should not have been seized until the revolution had broken out in all countries. They do not suspect that by speaking in this way they are deserting the revolution and going over to the side of the bourgeoisie. To wait until the toiling classes bring about a revolution on an international scale means that everybody should stand stock-still in expectation. That is nonsense."

 – Lenin, Speech delivered at a joint meeting of the All-Russian Central Executive Committee and the Moscow

हबीब जालिब- मैं नहीं मानता

"दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूं कह दो अग़ियार से
क्यों डराते हो ज़िन्दां की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकूं
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूं
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूं
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।"
🟢

Thursday, 24 September 2020

मज़दूर अख़बार – किस मज़दूर के लिए? (क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कुछ समस्याएँ) *लेनिन* अनुवाद : आलोक रंजन



सभी देशों में मज़दूर आन्दोलन का इतिहास यह दिखाता है कि मज़दूर वर्ग के उन्नततर संस्तर ही समाजवाद के विचारों को अपेक्षतया अधिक तेज़ी के साथ और अधिक आसानी के साथ अपनाते हैं। इन्हीं के बीच से, मुख्य तौर पर, वे अग्रवर्ती मज़दूर आते हैं, जिन्हें प्रत्येक मज़दूर आन्दोलन आगे लाता है, वे मज़दूर जो मेहनतकश जन-समुदाय का विश्वास जीत सकते हैं, जो ख़ुद को पूरी तरह सर्वहारा वर्ग की शिक्षा और संगठन के कार्य के लिए समर्पित करते हैं, जो सचेतन तौर पर समाजवाद को स्वीकार करते हैं और यहाँ तक कि, स्वतन्त्र रूप से समाजवादी सिद्धान्तों को निरूपित कर लेते हैं। हर सम्भावनासम्पन्न मज़दूर आन्दोलन ऐसे मज़दूर नेताओं को सामने लाता रहा है, अपने प्रूधों और वाइयाँ, वाइटलिंग और बेबेल पैदा करता रहा है। और हमारा रूसी मज़दूर आन्दोलन भी इस मामले में यूरोपीय आन्दोलन से पीछे नहीं रहने वाला है। आज जबकि शिक्षित समाज ईमानदार, ग़ैरक़ानूनी साहित्य में दिलचस्पी खोता जा रहा है, मज़दूरों के बीच ज्ञान के लिए और समाजवाद के लिए एक उत्कट अभिलाषा पनप रही है, मज़दूरों के बीच से सच्चे वीर सामने आ रहे हैं, जो अपनी नारकीय जीवन-स्थितियों के बावजूद, जेलख़ाने की मशक्कत जैसे कारख़ाने के जड़ीभूत कर देने वाले श्रम के बावजूद, ऐसा चरित्र और इतनी इच्छाशक्ति रखते हैं कि लगातार अध्‍ययन, अध्‍ययन और अध्‍ययन के काम में जुटे रहते हैं और ख़ुद को सचेतन सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) – "मज़दूर बौद्धिक" बना लेते हैं। रूस में ऐसे "मज़दूर बौद्धिक" अभी भी मौजूद हैं और हमें हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए कि इनकी कतारें लगातार बढ़ती रहें, इनकी उन्नत मानसिक ज़रूरत पूरी होती रहे और कि, इनकी पाँतों से रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी (रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का तत्कालीन नाम) के नेता तैयार हों। जो अख़बार सभी रूसी सामाजिक जनवादियों (कम्युनिस्टों) का मुखपत्र बनना चाहता है, उसे इन अग्रणी मज़दूरों के स्तर का ही होना चाहिए, उसे न केवल कृत्रिम ढंग से अपने स्तर को नीचा नहीं करना चाहिए, बल्कि उल्टे उसे लगातार ऊँचा उठाना चाहिए, उसे विश्व सामाजिक-जनवाद (यानी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन) के सभी रणकौशलात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। केवल तभी मज़दूर बौद्धिकों की माँगें पूरी होंगी, और वे रूसी मज़दूरों के और परिणामत: रूसी क्रान्ति के ध्येय को अपने हाथों में ले लेंगे।

संख्या में कम अग्रणी मज़दूरों के संस्तर के बाद औसत मज़दूरों का व्यापक संस्तर आता है। ये मज़दूर भी समाजवाद की उत्कट इच्छा रखते हैं, मज़दूर अध्‍ययन-मण्डलों में भाग लेते हैं, समाजवादी अख़बार और किताबें पढ़ते हैं, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में भाग लेते हैं और उपरोक्त संस्तर से सिर्फ़ इसी बात में अलग होते हैं कि ये सामाजिक जनवादी मज़दूर आन्दोलन के पूरी तरह स्वतन्त्र नेता नहीं बन सकते। जिस अख़बार को पार्टी का मुखपत्र होना है, उसके कुछ लेखों को औसत मज़दूर नहीं समझ पायेगा, जटिल सैद्धान्तिक या व्यावहारिक समस्या को पूरी तरह समझ पाने में वह सक्षम नहीं होगा। लेकिन इसका यह मतलब क़तई नहीं निकलता कि अख़बार को अपना स्तर अपने व्यापक आम पाठक समुदाय के स्तर तक नीचे लाना चाहिए। इसके उलट, अख़बार को उनका स्तर ऊँचा उठाना चाहिए, और मज़दूरों के बीच के संस्तर से अग्रणी मज़दूरों को आगे लाने में मदद करनी चाहिए। स्थानीय व्यावहारिक कामों में डूबे हुए और मुख्यत: मज़दूर आन्दोलन की घटनाओं में तथा आन्दोलनात्मक प्रचार की फौरी समस्याओं में दिलचस्पी लेने वाले ऐसे मज़दूरों को अपने हर क़दम के साथ पूरे रूसी मज़दूर आन्दोलन का, इसके ऐतिहासिक कार्यभार का और समाजवाद के अन्तिम लक्ष्य का विचार जोड़ना चाहिए। अत: उस अख़बार को, जिसके अधिकांश पाठक औसत मज़दूर ही हैं, हर स्थानीय और संकीर्ण प्रश्न के साथ समाजवाद और राजनीतिक संघर्ष को जोड़ना चाहिए।

और अन्त में, औसत मज़दूरों के संस्तर के बाद वह व्यापक जनसमूह आता है जो सर्वहारा वर्ग का अपेक्षतया निचला संस्तर होता है। बहुत मुमकिन है कि एक समाजवादी अख़बार पूरी तरह या तक़रीबन पूरी तरह उनकी समझ से परे हो (आख़िरकार पश्चिमी यूरोप में भी तो सामाजिक जनवादी मतदाताओं की संख्या सामाजिक जनवादी अख़बारों के पाठकों की संख्या से कहीं काफ़ी ज्‍़यादा है), लेकिन इससे यह नतीजा निकालना बेतुका होगा कि सामाजिक जनवादियों के अख़बार को, अपने को मज़दूरों के निम्नतम सम्भव स्तर के अनुरूप ढाल लेना चाहिए। इससे सिर्फ़ यह नतीजा निकलता है कि ऐसे संस्तरों पर राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनपरक प्रचार के दूसरे साधनों से प्रभाव डालना चाहिए – अधिक लोकप्रिय भाषा में लिखी गयी पुस्तिकाओं, मौखिक प्रचार तथा मुख्यत: स्थानीय घटनाओं पर तैयार किये गये परचों के द्वारा। सामाजिक जनवादियों को यहीं तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बहुत सम्भव है कि मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों की चेतना जगाने के पहले क़दम क़ानूनी शैक्षिक गतिविधियों के रूप में अंजाम दिये जायें। पार्टी के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि वह इन गतिविधियों को इस्तेमाल करे इन्हें उस दिशा में लक्षित करे जहाँ इनकी सबसे अधिक ज़रूरत है; क़ानूनी कार्यकर्ताओं को उस अनछुई ज़मीन को जोतने के लिए भेजे, जिस पर बाद में सामाजिक जनवादी प्रचारक संगठनकर्ता बीज बोने का काम करने वाले हों। बेशक़ मज़दूरों के निम्नतर संस्तरों के बीच प्रचार-कार्य में प्रचारकों को अपनी निजी विशिष्टताओं, स्थान, पेशा (मज़दूरों के काम की प्रकृति) आदि की विशिष्टताओं का उपयोग करने की सर्वाधिक व्यापक सम्भावनाएँ मिलनी चाहिए। बर्नस्टीन के ख़िलाफ़ अपनी पुस्तक में काउत्स्की लिखते हैं, "रणकौशल और आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य को आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार का तरीक़ा व्यक्तिगत और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में हर प्रचारक को वे तरीक़े अपनाने की छूट होनी चाहिए, जो वह अपने लिए ठीक समझे : कोई प्रचारक अपने जोशो-ख़रोश से सबसे अधिक प्रभावित करता है, तो कोई दूसरा अपने तीखे कटाक्षों से, जबकि तीसरा ढेरों मिसालें देकर, वग़ैरह-वग़ैरह। प्रचारक के अनुरूप होने के साथ ही, आन्दोलनात्मक प्रचार जनता के भी अनुरूप होना चाहिए। प्रचारक को ऐसे बोलना चाहिए कि सुनने वाले उसकी बातें समझें; उसे शुरुआत ऐसी किसी चीज़ से करनी चाहिए, जिससे श्रोतागण बख़ूबी वाक़िफ़ हों। यह सब कुछ स्वत:स्पष्ट है और यह सिर्फ़ किसानों के बीच आन्दोलनात्मक प्रचार पर ही लागू नहीं होता। गाड़ी चलाने वालों से उस तरह बात नहीं होती, जिस तरह जहाज़ियों से और जहाज़ियों से वैसे बात नहीं होती जैसे छापाख़ाने के मज़दूरों से। आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य व्यक्तियों के हिसाब से होना चाहिए, लेकिन हमारा रणकौशल-हमारी राजनीतिक गतिविधियाँ एक-सी ही होनी चाहिए" (पृ. 2-3)। सामाजिक जनवादी सिद्धान्त के एक अगुवा प्रतिनिधि के इन शब्दों में पार्टी की आम गतिविधि के एक अंग के तौर पर आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य का एक बेहतरीन आकलन निहित है। ये शब्द साफ़ कर देते हैं कि उन लोगों के सन्देह कितने निराधार हैं, जो यह सोचते हैं कि राजनीतिक संघर्ष चलाने वाली क्रान्तिकारी पार्टी का गठन आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य में बाधक होगा, उसे पृष्ठभूमि में डाल देगा और प्रचारकों की स्वतन्त्रता को सीमित कर देगा। इसके विपरीत, केवल एक संगठित पार्टी ही व्यापक आन्दोलनात्मक प्रचार का कार्य चला सकती है, सभी आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों पर प्रचारकों को आवश्यक मार्गदर्शन (और सामग्री) दे सकती है, आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य की हर स्थानीय सफलता का उपयोग पूरे रूस के मज़दूरों की शिक्षा के लिए कर सकती है, प्रचारकों को ऐसे स्थानों पर या ऐसे लोगों के बीच भेज सकती है, जहाँ वे सबसे ज्‍़यादा कामयाब ढंग से काम कर सकते हों। केवल एक संगठित पार्टी में ही आन्दोलनात्मक प्रचार की योग्यता रखने वाले लोग अपने को पूरी तरह इस काम के लिए समर्पित करने की स्थिति में होंगे, जो आन्दोलनात्मक प्रचार-कार्य के लिए फ़ायदेमन्द तो होगा ही, सामाजिक जनवादी कार्य के दूसरे पहलुओं के लिए भी हितकारी होगा। इससे पता चलता है कि जो व्यक्ति आर्थिक संघर्ष के पीछे राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक आन्दोलनात्मक प्रचार को भुला देता है, जो मज़दूर आन्दोलन को एक राजनीतिक पार्टी के संघर्ष में संगठित करने की आवश्यकता को भुला देता है, वह और सब बातों के अलावा, सर्वहारा के निम्नतर संस्तरों को मज़दूर वर्ग के लक्ष्य की ओर तेज़ी से और सफलतापूर्वक आकर्षित करने के अवसर से ख़ुद को वंचित कर लेता है।

(1899 के अन्त में लिखित लेनिन के लेख 'रूसी सामाजिक जनवाद में एक प्रतिगामी प्रवृत्ति' का एक अंश। संग्रहीत रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड 4, पृ. 280-283)।

On Swaminathan Commission.

Assured access to and control over basic resources of farming which  includes land, water, fertilizers and pesticides, credit and crop insurance and farming technology and assured market of their products can not be guaranteed to small farmers through the policy of bourgeoies state.

 It was the proletarian state in USSR which provided all those means to small farmers organized in a co-operative society. Also the state used to ensure purchase of substantial products of farmers. This could happen because state owned all those means of production.

In bougeoies society, the above can be assured only in report such as Swaminathan Commission.


रोजगार या बेरोजगारी भत्ता

सरकार रोजगार दे 
या बेरोजगारी भत्ता दे
नही तो गद्दी छोड़ दे!

नोटबन्दी, GST और कोरोना काल मे हुए लॉक्ड डाउन ने गहराते आर्थिक संकट को और तीखा कर दिया है, आज  अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में बेरोजगारी अपने चरम पर है। नाकाम पूंजीवाद और बुर्जुवा फासीवादी सरकार बेरोजगारों के लिये न्यूनत्तम बेरोजगारी भत्ता भी मुहैया कराने में असमर्थ है। मिहनतकस जनता में सरकार के खिलाफ पल रहा भयंकर आक्रोश और गुस्सा कल कौन सा रूप लेगा, आज इसकी भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है क्योकि आर्थिक बदहाली ने लोगो को अपने भविष्य के प्रति  बेहद निराश और  बेचैन करना शुरू कर दिया है।

सरकार कर्ज ले कर , सरकारी सम्पत्तियां बेच कर निजी क्षेत्र की डूबती कम्पनियो को आर्थिक सहायता दे सकती है,  किसानों को उनकी उपज का (MSP) न्यूनतम समर्थन मूल्य और कई तरह की आर्थिक सहायता दे सकती है लेकिन बेतहासा बढ़ रही बेरोजगारी की आपदा झेल रहे नौजवानों को न्यूनतम बेरोजगारी भत्ता की गारंटी क्यो नही कर सकती?

Wednesday, 23 September 2020

नाट्यशाला- शशि प्रकाश


नाट्यशाला के अँधेरे में
तुम्‍हें लगता है कि अकेले हो वहाँ तुम
आसपास बैठे लोगों की उपस्थिति को
जैसे एकदम न महसूस करते हुए।
मंच पर प्रकाश रच रहा है जादू।
कभी वहाँ नीम अँधेरा होता है
कभी मद्धम रोशनी
तो कभी पूरा मंच नहाया हुआ रोशनी से।
कभी प्रकाश वृत्त केन्द्रित होता है
किसी एक पात्र पर और कभी
एक विचित्र ब्रेष्‍टीय अलगाव-प्रभाव रचते हुए
उतर आता है दर्शकों के बीच और
नाटक फिर वहाँ चलने लगता है।
या फिर नीचे फैले अँधेरों के बीच से
कोई दर्शक उठकर मंच पर पहुँच जाता है और वहाँ जारी
उस नाटक का हिस्‍सा बन जाता है
जिसके आदि-अन्‍त का कुछ पता नहीं चलता।
और यूँही अचानक, न जाने कोई
मध्‍यान्‍तराल आता है, या अन्‍त,
प्रकाश वृत्त आकर टिक जाता है
अप्रत्‍याशित तुम्‍हारे ऊपर।
तुम्‍हें एक संगीत रचना प्रस्‍तुत करनी है
ऐसा तुम्‍हें लगता है।
तुम्‍हें नहीं पता कि
कब और कैसे तुम अपने को मंच पर पाते हो
अपने पुराने वायलिन के साथ।
तुम जानते हो कि सामने फैला अँधेरा निर्जन नहीं है।
विचारों की एक भीड़ उमड़ती है
पर उससे भी अधिक तुम पाते हो
एक दृढ़ संकल्‍प, भावावेगों का एक ज्‍वार
और आँसुओं, दु:ख, क्रोध और स्‍मृतियों की तरह
कुछ उमड़ता-घुमड़ता हुआ
और फिर
तुम एक बहुवर्णी, बहुस्वरीय सिम्‍फ़नी रचते हुए
उसमें उतरते चले जाते हो
डूबते हुए, बहते हुए, उतराते हुए...
कि सहसा एक आवाज़ गूँजती है
विस्‍फोट की तरह।
तुम्‍हारे वायलिन का एक तार टूट गया होता है।
लोग इन्‍तज़ार करते हैं कि
तुम रुकोगे और पीछे से नया वायलिन उठाओगे।
पर तुम रुकते नहीं हो।
आँखें बन्‍द करके
बस तीन तार पर ही
तुम अपनी संगीत यात्रा जारी रखते हो।
फिर सहसा टूटता है एक और तार
फिर भी तुम रुकते नहीं
और वायलिन के दो तारों से ही चमत्‍कार-सा रचते हुए
प्रस्‍तुत करते हो जादुई प्रभाव वाला सिम्‍फ़निक कम्‍पोज़ीशन
जिसे अविस्‍मरणीय तो नहीं कहा जा सकता
क्‍योंकि बहुत अच्‍छी और सुन्‍दर चीज़ें भुला दी जाती हैं
तभी यह दुनिया अपनी लीक पर चलती रह पाती है
और ज़मीर से किए गए करार तोड़ते रहने के बावजूद
बहुत-से लोग चैन की नींद सो पाते हैं।
तुम मंच से उतरते हो अपना पुराना, दो टूटे तारों वाला वायलिन
एक बच्‍चे को थमाते हुए।
'जो कुछ है उससे ही संगीत पैदा करना होगा'
—तुम्‍हें सुनकर लोग सोचते हुए
नाट्यशाला से बाहर निकलते हैं।
पूरी नाट्यशाला अब रोशनी में
नहाई हुई है
लोग घरों की ओर जा चुके हैं।
तेज़ रोशनी में
अकेले बैठे हो तुम न जाने कबसे
कि चौकीदार आकर हौले-से
तुम्‍हारे कन्‍धे पर थपकी देता है,
"भौत टैम हो गया साहब,
अब तो साढ़े बारह की आख़िरी लोकल भी
आने वाली ही होगी।"

(एक घटना-प्र‍संग - इत्‍झाक पर्लमैन एक विश्‍व-प्रसिद्ध इज़रायली-अमेरिकी वायलिन वादक हैं। एक बार उन्‍होंने अपनी एक सिम्‍फ़नी बजानी ही शुरू की थी कि उनके वायलिन का एक तार टूट गया। बीच में रुककर नया वायलिन लेने की जगह उन्‍होंने आँखें बन्‍द करके, एकदम डूबकर तीन तार के वायलिन पर ही अपना वादन जारी रखा। तीन तारों से कोई सिम्‍फ़निक कम्‍पोज़ीशन प्रस्‍तुत करना बेहद कठिन है, लेकिन पर्लमैन ने उस रात अपनी सर्वश्रेष्‍ठ और अविस्‍मरणीय प्रस्‍तुति दी। भावाभिभूत लोग खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। शोर थमने के बाद पर्लमैन ने बस एक वाक्‍य कहा, "जो कुछ भी हमारे पास है, हमें उसीसे संगीत पैदा करना होता है।")

श्रम के देवता के चले जाने के बाद की मुंबई- कविता



  दिन जिसका रात में जवां होता था
और जिसकी रात से सूरज रोशनी चुराता था
मेरी जान मुंबई तू कहां है
तेरे प्राणों में जो जीवन का बारूद भरता था
और तेरी जड़ों में पसीने  की अग्नि
शहर के समुंदर में जिसके दौड़ने से 
 रोशनी की गर्म ज्वालामुखी उठती थी
वह मेहनत का मसीहा कहां है
मुंबई आज तुम परकटे परिंदे सी बैठी हो क्यों
अपने पंखों में आकाश भरती नहीं हो क्यों
तुम्हारी शोख अदाएं पीली बीमार सी हैं
तुम्हारे चेहरे पर सूतक   लिख क्यों उठा है 
यह शमशान सी मुर्दनी क्यों
 बाजारों के शोरगुल की रंगत कहां है
जिसके प्राणों की धौंकनी  से 
तुम्हारे रक्त में लाली दौड़ती थी 
 दुल्हन बताओ वह दूल्हा कहां है
यह शहर लुटा लुटा सा क्यों लग रहा है
तेरी रातें परेशान सी क्यों  जग रही हैं
 इन सूखे हुए फूलों और पौधों का माली कहां है
तुम्हारे चेहरे पर नीम बेहोशी तारी सी क्यों है 
तुम्हारा इकलौता वो  चारागर कहां है
तुम एक अकेली ऐसी रक्कासा थी
 जो रात भर सोती नहीं थी 
तुम अपने पायलों में 
दुख के गट्ठर  बांध  बैठी हो क्यों 
 किस मातबर मासूक का इंतजार है 
तुम्हारे साज की ध्वनियां 
कारखानों की बंद चिमनियों पर  टंगी है क्यों 
समय की सुईयां मद्धिम से क्यों चल रही हैं
पूरे शहर के ताले की चाबी कहां खो गयी है
तुम्हारे पांव की घूंघरू क्यों टूटे बिखरे से हैं 
 तुम्हारी चमकती हुई मांग में जो अपने 
जिगर के खून से लाल सिंदूर भरता था 
 वह  सुहाग कहां है
वे सरमायेदार जो कल तक पृथ्वी को अपनी गोद में उठाए 
नये नये आकाश रच रहे थे 
पूछो अब उनकी धरती कहां है
 सोने की सूरजमुखी फिर से इस शहर में
 उगाने के लिए 
पृथ्वी ने अपने गर्भ में बचाए हैं जो बीज 
वह किसी सुबह के इंतजार में
 सिर्फ मेहनत की फौलादी शिराओं में 
  अभी भी बंद कर अपनी मुट्ठी सोया पड़ा है 
     #  जुल्मीरामसिंह यादव
      22.09.2020

सिद्धान्त और व्यवहार- द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध


"सिद्धान्त का महत्व. कुछ लोगों को लगता है कि लेनिनवाद इन अर्थों में सिद्धान्त पर व्यवहार की वरीयता है कि इसका प्रमुख बिन्दु है मार्क्सवादी थीसीज़ को काम में बदल देना, यानी उनका "अमल"; जहाँ तक सिद्धान्त का प्रश्न है, यह आरोप लगाया जाता है कि लेनिनवाद इसके बारे में ज़्यादा सरोकार नहीं रखता है। हम जानते हैं कि प्लेखानोव ने कई बार लेनिन का सिद्धान्त और विशेषकर दर्शन के प्रति "सरोकार न रखने" के लिए मज़ाक़ बनाया था। हम जानते हैं कि आज के कई लेनिनवादी व्यावहारिक कार्यकर्ताओं के लिए सिद्धान्त की कोई विशेष प्रतिष्ठा नहीं है, विशेषकर व्यावहारिक कार्यों के उस भारी परिमाण के कारण जो उन पर स्थितियों द्वारा थोप दिया गया है। मुझे यह घोषणा करनी ही होगी कि लेनिन और लेनिनवाद के विषय में यह अजीबो-ग़रीब राय बिल्कुल ग़लत है और इसका सच से कोई रिश्ता नहीं है; कि सिद्धान्त को किनारे करने का व्यावहारिक कार्यकर्ताओं का प्रयास लेनिनवाद की पूरी स्पिरिट के ख़िलाफ़ जाता है और इसमें काम के लिए बहुत ख़तरे हैं।

"सभी देशों में मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के अनुभव को जब हम सामान्य आयाम में देखते हैं, तो उसे ही सिद्धान्त कहा जाता है। निश्चित तौर पर, सिद्धान्त क्रान्तिकारी व्यवहार से जुड़े बिना लक्ष्यहीन हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि व्यवहार अन्धेरे में भटकता रहता है यदि क्रान्तिकारी सिद्धान्त द्वारा उसका मार्ग आलोकित नहीं किया जाता है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में सिद्धान्त क्रान्तिकारी व्यवहार से अविभाज्य रूप से जुड़ा हो तो वह एक ज़बर्दस्त ताक़त बन जाता है; क्योंकि सिद्धान्त और केवल सिद्धान्त ही आन्दोलन को आत्मविश्वास, दिशा की शक्ति, और आस-पास की घटनाओं के आपसी रिश्तों की एक सही समझदारी दे सकता है; क्योंकि, केवल यही व्यवहार को न केवल इस बात का अहसास कराने में मदद कर सकता है कि मौजूदा समय में तमाम वर्ग किस दिशा में बढ़ रहे हैं, बल्कि यह भी अहसास करा सकता है कि निकट भविष्य में वे किस दिशा में जायेंगे। लेनिन के अलावा किसी ने भी इस प्रसिद्ध थीसिस को सैंकड़ों बार कहा और दुहराया नहीं होगा कि:

"'बिना एक क्रान्तिकारी सिद्धान्त के कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं हो सकता है।'

"किसी भी अन्य व्यक्ति से बेहतर लेनिन ने सिद्धान्त के महान महत्व को समझा, विशेष तौर पर हमारी जैसी पार्टी के लिए, क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के हिरावल योद्धा की भूमिका इसके कन्धों पर आ पड़ी है, और क्योंकि इसके सामने ऐसी जटिल आन्तरिक और अन्तरराष्ट्रीय स्थितियाँ हैं। हमारी पार्टी की इस विशेष भूमिका को 1902 में ही समझकर ही उन्होंने उसी समय यह कहना ज़रूरी समझा था कि:

"'हिरावल पार्टी की भूमिका को केवल वही पार्टी निभा सकती है जो सबसे उन्नत सिद्धान्त से मार्गदर्शित हो।'

"अब इस बात के लिए किसी सबूत की ज़रूरत नहीं है, जबकि हमारी पार्टी की भूमिका के बारे में लेनिन की यह भविष्यवाणी सही सिद्ध हो चुकी है, कि लेनिन की इस थीसिस को विशेष बल और विशेष महत्व मिल चुका है।"

(स्तालिन, 'लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त')

Peasant Question


We should keep in mind the following:
It is the duty of our Party to explain to the peasants again and again the absolute hopelessness of their position so long as the domination of capitalism continues, and to show them the absolute impossibility of maintaining their small plots of land as such and the absolute assurance that capitalist large-scale production will supplant their powerless, antiquated small industry just as the railway supplants the wheel-barrow. ~ Friedrich Engels, "The Peasant Question in France and Germany", Neue Zeit, 1894  

However, in the abscence of working class party and its movement; what should peasnt do? Are they bound to be the ally of bourgeoies?   What demand we may support for them? This is the vital question.

Tuesday, 22 September 2020

एंगेल्स

''यदि ये किसान यह गारंटी चाहते हैं कि उनका उद्यम जारी रहे, तो ऐसा आश्वासन देने की स्थिति में हम नहीं हैं। वे तब वे यहूदी विरोधियों, किसान संघ वालों और ऐसी ही अन्य पार्टियों में शामिल होंगे, जिन्हें सब कुछ वादा करने और एक भी वादा पूरा न करने में मजा आता है। हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्का यकीन है कि छोटे किसानों की तरह बड़े और मध्यम किसान भी अवश्य ही पूंजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले की होड़ के शिकार बन जाएंगे। यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और सभी जगह दिखायी पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है। इस अवनति का इसके सिवा हमारे पास कोई इलाज नहीं है कि इन्हें भी सलाह दें कि वे अपने-अपने फार्मों को एक में मिलाकर सहकारी उद्यमों की स्थापना करें, जिनमें उजरती श्रम के शोषण का अधिकाधिक उन्मूलन होता जाएगा, और जो धीरे-धीरे उत्पादकों के एक महान् राष्ट्रीय सहकारी उद्यम की शाखाओं में परिवर्तित किए जा सकते हैं, जिनमें प्रत्येक शाखा के अधिकार और कर्तव्य समान होंगे। यदि ये किसान यह महसूस करें कि उनकी मौजूदा उत्पादन-पद्धति का विनाश अवश्यंभावी है और इससे आवश्यक सबक हासिल करें, तो वे हमारे पास आएंगे और यह हमारा कर्तव्य हो जाएगा कि परिवर्तित उत्पादन-पद्धति में उनके भी संक्रमण को अपनी शक्ति भर सुगम बनायें। अन्यथा हमें उन्हें अपने भाग्य के भरोसे छोड़ देना और उनके उजरती मजदूरों के पास जाना होगा, जिनके बीच हम सहानुभूति पाये बिना नहीं रह सकते। बहुत संभव है कि यहां भी हम बलात् संपत्तिहरण करने से बाज आ सकेंगे, और इस बात का भरोसा कर सकेंगे कि भविष्य का आर्थिक विकास इन कड़ी खोपड़ियों में भी बुद्धि का प्रादुर्भाव करेगा।''



छोटी जोतों की खेती के सन्दर्भ में फ्रेडरिक एंगेल्स के महत्वपूर्ण विचार

फ्रे. एंगेल्स को पढ़ते हुए :
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( छोटी जोतों की खेती के सन्दर्भ में फ्रेडरिक एंगेल्स के महत्वपूर्ण विचार )---
" छोटी जोत वाले किसानों को हम न तो आज और न ही भविष्य में कभी यह आश्वासन दे सकते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन की प्रचंड शक्ति से उनकी व्यक्तिगत संपत्ति और उनके व्यक्तिगत उद्यम की रक्षा की जा सकती है ।हम उन्हें इतना ही आश्वासन दे सकते हैं कि हम बलपूर्वक , उनकी इच्छा के विरुद्ध , उनके स्वामित्व संबंधों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे ।इसके अलावा हम इस बात की हिमायत कर सकते हैं कि आइन्दा छोटे किसानों के विरुद्ध पूंजीपतियों और बड़े ज़मींदारों का संघर्ष अनुचित साधनों का कम से कम इस्तेमाल करते हुए चले और सीधे-सीधे की जानेवाली लूट-खसोट और ठगी , जो आजकल धड़ल्ले से चलती है , जहाँ तक संभव हो , बंद हो जाए ।अपने इस आग्रह में हम कुछ ही मामलों में , जो अपवादस्वरूप ही होंगे , सफल हो पाएँगे ।विकसित पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में यह कोई भी नहीं बता सकता कि ईमानदारी और ठगी की सीमारेखा कहाँ पर है ।..........................................
अतः ऐसे वादे करने से, जैसे कि यह कि हम छोटी जोत को स्थाई रूप से बरकरार रखना चाहते हैं , हम पार्टी का और छोटे किसानों का और बड़ा अहित नहीं कर सकते । ऐसा करने का मतलब सीधे-सीधे किसानों की मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर देना और पार्टी को हुल्लड़बाज़ यहूदी विरोधियों के निम्न स्तर पर ले आना होगा ।" ( फ्रेडरिक 
एंगेल्स , ' फ़्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल ' )

संसद का गीत/ गोरख पांडेय



सावधान ! संसद है बहस चल रही है

       भीतर कुछ कुर्सियाँ मंगाओ
       बाहर जेलें नई बनाओ
       बाँधो लपटें झोपड़ियों की
       महलों की रौनकें बचाओ
खलबली मची है जंगल में
        आग जल रही है या भूख जल रही है

       जनता के नाम सन्देशा है
       बिल्कुल आराम से मरो तुम
       पर अपने राज को चलाने
       के लिए हमें चुना करो तुम
चुने हुए हाथों से ताक़त
        तेल मल रही है या ख़ून मल रही है

       बूटों से रौंदकर सभी को
       खेल रही नक़ली आज़ादी
       मातृभूमि बेच दी जिन्होंने
       नेता हो गए पहन खादी
ख़ाली हो रही पतीली में
        देश गल रहा है या दाल गल रही है

       कुरसी, कानून, तिजोरी का
       गठबन्धन धूल में मिला दो
       यह सदर मुकाम है ठगों का
       ऐ लोगो ! बमों से उड़ा दो
देख लो प्रपंच-योजनाएँ
        अन्न फल रही हैं या मौत फल रही हैं

कृषि विधेयक

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान संगठन हो हल्ला मचा रहे हैं। इसके खात्मे को ले कर आंदोलन करने की बात कर रहे हैं, लेकिन अगर हम कुछ आंकड़ो पर नज़र डालें तो तस्वीर कुछ और ही दिखती है।
कृषि मामलों के विश्लेषक देवेंद्र शर्मा, जो कहीं से भी मार्क्सवादी नहीं हैं, के अनुसार
भारत मे केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का फायदा मिलता है। बाकी आज भी खुले बाजार में अपना उत्पाद बेचते हैं।
बिहार में 16 साल पहले APMC मंडी को बंद कर दिया गया था, लेकिन आज भी यह प्रदेश उस बाजार आधारित चमत्कार को देखने की बाट जोह रहा है।
पूरे देश में केवल 7 हज़ार मंडियां हैं, मतलब अधिकतर मंझोले और सीमांत किसान की पँहुच से दूर।
किसानों को एक समरूपी वर्ग के तौर पर देखने का नतीज़ा है कि वामपंथ कारगर कृषि प्रश्न पर संजीदा लाइन पेश करने में विफल रहा है, नतीजतन उसे भी बड़े किसानों की पैरोकारी करने वाले बीकेयू सरीखे यूनियनों का पिछलग्गू बनना पड़ रहा है।
आज जबकि ज़रूरत है कृषि क्षेत्र में पूंजीवादी संबंधों को उजागर कर उसे  पूंजीवादी के खिलाफ़ संघर्ष से जोड़ने की। कृषि प्रश्न का अखिल भारतीय एक नज़रिया नहीं हो सकता (इस पर विस्तृत चर्चा अपने आगामी दस्तावेज़ में कई जायेगी)
इन बिलों के आने के बाद सरप्लस जनसंख्या और श्रमिकों की रिज़र्व सेना में वृद्धि होगी, और यही तो पूंजी संचालन का चरित्र है।

।।विस्तार से इस विषय पर जल्द ही।।

दामोदर

Sunday, 20 September 2020

National and the Colonial Questions- Lenin &Roy



1. Lenin 's draft thesis on the National and the Colonial Questions.

"The Communist International must enter into a temporary alliance with bourgeois democracy in the colonial and backward countries, but should not merge with it, and should under all circumstances uphold the independence of the proletarian movement even if it is in its most embryonic form" ("Preliminary Draft Theses on the National and the Colonial Questions," June 1920).

2. The report presented by the Commission on the National and Colonial question was discussed in detail in the Fourth session of the Second Congress of the Communist  International,  on 25 July 1920.  And the discussion was carried forward to the Fifth session held on 28 July 1920.

Lenin made lengthy speeches in defence of his thesis as also that of Roy with certain amendments.

After considerable debate, the Second Congress approved both the thesis – the main thesis by Lenin and the supplementary thesis by Roy.

The final resolution of the Congress directed communists in colonial countries to support the "national-revolutionary" movement in each, without regard to the fact that non-communist and non-working class elements such as the bourgeoisie and the peasantry might be dominant.  Particular attention was paid to formulating an alliance with the rural poor as a means of winning and holding power in a revolution.

 3. Leon Trotsky, in the Fifteenth and the final Session, on 7 August 1920, in his address to the Congress, refereeing to the national and colonial question, said:

The national and colonial question was also discussed and it seems to me that the resolution passed unanimously on this question similarly signifies a great moral victory for us. You know that the Second International approached the question of so-called national policies, that in general a policy of patience was suggested and that in 1907 the majority spoke out in favor of socialists supporting the policy of so-called cultural nationalism. Towards the peoples of the black and yellow races the Second International adopted an attitude calculated to arouse the deepest mistrust in these peoples. The Communist International had to return to the traditions of the First International. It was its duty to say, and it did say, that it did not only want to be an International of the toilers of the white race but also an International of the toilers of the black and yellow races, an International of the toilers of the whole world. 

I am convinced that the fraternal alliance that we have concluded in the Congress with the representatives of India, Korea, Turkey and a whole number of other countries will strike to the heart of international capital. This is the greatest conquest of the working class.

4. Was Stalin policy against the spirit of above thesis of Lenin and Roy?

This is the key to understand Trotskyist betrayal and their false propaganda against Stalin on the National and Colonial question on India and China.




किसानों के खिलाफ मोदी सरकार के तीन अध्यादेश




कॉर्पोरेट गैंग की चहेती फासीवादी भाजपा सरकार ने  किसानों को तीन अध्यादेश तोहफे के रूप में दिया है जिसका व्यापक विरोध हो रहा है।
वे तीन अध्यादेश है:
1.फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस

2. एसेंशियल एक्ट 1955 में बदलाव

3. फॉर्मर्स अग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस ऑर्डिनेंस

 यह विश्व बुर्जुवा संस्थान WTO के इशारे पर किया जा रहा है, जिसका मकसद है -कृषि उत्पाद के व्यापार को पूरी तरह बाजार के हवाले कर देना और कृषि क्षेत्र में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से कॉर्पोरेट घुसपैठ को सुगम बनाना। किसानो को अंदेशा है और वे डरे हुए है कि सरकार खेती में दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से हाथ खींचना चाह रही है।

लानत है ऐसे पूंजीवाद और पूंजीवादी कृषि प्रणाली पर जिसके अंदर किसानों का सबसे धनी और मजबूत तबका भी  अपने बल-बुते नही, सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य के सहारे टीका हुआ था। छोटे और गरीब किसानों की तो बात ही और है, वे पहले से ही बदहाली भरी जिंदगी जीने को विवश है।

इसमें संदेह नही कि खुले  बाजार में  धनी किसानों के लिये कॉर्पोरेट निवेश और नियंत्रण वाले खेती से मुकाबला करना आसान नही होगा। यह कदम किसानों के बीच पूंजीवादी सम्पत्तिहरण की प्रक्रिया को भी और तेज करेगा और कृषि क्षेत्र में कॉर्पोरेट निवेश और नियंत्रण की राह खोलेगा।

पूंजीवाद ने किसानों को, और खास कर छोटे जोत के  किसानों को एक ही चीज दिया है -  बदहाली भरी जिंदगी और सम्पत्तिहरण। 

कृषि सम्बन्धी ये तीन बिल क्या कृषि क्षेत्र के सबसे धनी संस्तर के सामने भी कॉर्पोरेट खेती द्वारा इनके सम्पत्तिहरण का खतरा पैदा कर दिया है?


गाँव के गरीबो से -लेनिन

एक तरफ़, धन और ऐशो-आराम बराबर बढ़ते जा रहे हैं और दूसरी तरफ़, करोड़ों-करोड़ आदमी, जो अपनी मेहनत से उस सारे धन को पैदा करते हैं, निर्धन और बेघरबार बने रहते हैं। किसान भूखों मरते हैं, मज़दूर बेकार हो इधर-उधर भटकते हैं, जबकि व्यापारी करोड़ों पूद* अनाज रूस से बाहर दूसरे देशों में भेजते हैं और कारख़ाने तथा फै़क्टरियाँ इसलिए बन्द कर दी जाती हैं कि माल बेचा नहीं जा सकता, उसके लिए बाज़ार नहीं है।
इसका कारण सबसे पहले यह है कि अधिकतर ज़मीन, सभी कल-कारख़ाने, वर्कशाॅप, मशीनें, मकान, जहाज़, इत्यादि थोड़े-से धनी आदमियों की मिल्कि़यत हैं। करोड़ों आदमी इस ज़मीन, इन कारख़ानों और वर्कशाॅपों में काम करते हैं, लेकिन ये सब कुछ हज़ार या दसियों हज़ार धनी लोगों – ज़मींदारों, व्यापारियों और मिल-मालिकों के हाथ में हैं। ये करोड़ों लोग इन धनी आदमियों के लिए मजूरी पर, उजरत पर, रोटी के एक टुकड़े के वास्ते काम करते हैं। जीने भर के लिए जितना ज़रूरी है, उतना ही मज़दूरों को मिलता है। उससे अधिक जितना पैदा किया जाता है, वह धनी मालिकों के पास जाता है। वह उनका नफ़ा, उनकी "आमदनी" है। काम के तरीक़ों में सुधार से और मशीनों के इस्तेमाल से जो कुछ फ़ायदा होता है, वह ज़मींदारों और पूँजीपतियों की जेबों में चला जाता है: वे बेशुमार धन जमा करते हैं और मज़दूरों को चन्द टुकड़ों के सिवा कुछ नहीं मिलता। काम करने के लिए मज़दूरों को एक स्थान पर इकट्ठा कर दिया जाता है: एक बड़े फ़ार्म या बड़े कारख़ाने में कितने ही हज़ार मज़दूर एक साथ काम करते हैं। जब इस तरह से मज़दूर इकट्ठा कर दिये जाते हैं और जब विभिन्न प्रकार की मशीनें इस्तेमाल की जाती हैं, तब काम अधिक उत्पादनशील होता है: बिना मशीनों के, अलग-अलग काम करके बहुत-से मज़दूर जितना पहले पैदा करते थे, उससे कहीं अधिक आजकल एक अकेला मज़दूर पैदा करने लगा है। लेकिन काम के अधिक उत्पादनशील होने का फल सभी मेहनतकशों को नहीं मिलता, वह मुट्ठी भर बड़े-बड़े ज़मींदारों, व्यापारियों और मिल-मालिकों की जेबों में पहुँच जाता है।

अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ज़मींदार या व्यापारी लोगों को "काम देते हैं" या वे ग़रीबों को रोज़गार "देते हैं"। मिसाल के लिए, कहा जाता है कि पड़ोसी कारख़ाना या पड़ोस का बड़ा फ़ार्म स्थानीय किसानों की "परवरिश करता है"। लेकिन असल में मज़दूर अपनी मेहनत से ही अपनी परवरिश करते हैं और उन सबको खिलाते हैं, जो ख़ुद काम नहीं करते। लेकिन ज़मींदार के खेत में, कारख़ाने या रेलवे में काम करने की इजाज़त पाने के लिए मज़दूर को वह सब मुफ़्त में मालिक को दे देना पड़ता है, जो वह पैदा करता है, और उसे केवल नाममात्र की मजूरी मिलती है। इस तरह असल में न ज़मींदार और न व्यापारी मज़दूरों को काम देते हैं, बल्कि मज़दूर अपने श्रम के फल का अधिकतर हिस्सा मुफ़्त में देकर सबके भरण-पोषण का भार उठाते हैं।

आगे चलिए। सभी आधुनिक देशों में जनता की ग़रीबी इसलिए पैदा होती है कि मज़दूरों के श्रम से जो तरह-तरह की चीज़ें पैदा की जाती हैं, वे सब बेचने के लिए, मण्डी के लिए होती हैं। कारख़ानेदार और दस्तकार, ज़मींदार और धनी किसान जो कुछ भी पैदा करवाते हैं, जो पशु पालन करवाते हैं, या जिस अनाज की बोवाई-कटाई करवाते हैं, वह सब मण्डी में बेचने के लिए, बेचकर रुपया प्राप्त करने के लिए होता है। अब रुपया ही हर जगह राज करने वाली ताक़त बन गया है। मनुष्य की मेहनत से जो भी माल पैदा होता है, सभी को रुपये से बदला जाता है। रुपये से आप जो भी चाहें, ख़रीद सकते हैं। रुपया आदमी को भी ख़रीद सकता है, अर्थात जिस आदमी के पास कुछ नहीं है, रुपया उसे रुपयेवाले आदमी के यहाँ काम करने के लिए मजबूर कर सकता है। पुराने समय में, भूदास प्रथा के ज़माने में, भूमि की प्रधानता थी। जिसके पास भूमि थी, वह ताक़त और राज-काज, दोनों का मालिक था। अब रुपये की, पूँजी की प्रधानता हो गयी है। रुपये से जितनी चाहे ज़मीन ख़रीदी जा सकती है। रुपये न हों, तो ज़मीन भी किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि हल अथवा अन्य औज़ार, घोड़े-बैल ख़रीदने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है; कपड़े-लत्ते और शहर के बने दूसरे आवश्यक सामान ख़रीदने के लिए, यहाँ तक कि टैक्स देने के लिए भी रुपयों की ज़रूरत होती है। रुपया लेने के लिए लगभग सभी ज़मींदारों ने बैंक के पास ज़मीन रेहन रखी। रुपया पाने के लिए सरकार धनी आदमियों से और सारी दुनिया के बैंक-मालिकों से क़र्ज़ा लेती है और हर वर्ष इन क़र्ज़ांे पर करोड़ों रुपये सूद देती है।

रुपये के वास्ते आज सभी लोगों के बीच भयानक आपसी संघर्ष चल रहा है। हर आदमी कोशिश करता है कि सस्ता ख़रीदे और महँगा बेचे। हर आदमी होड़ में दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है। अपने सौदे को जितना हो सके, उतना ज़्यादा बेचना और दूसरे की क़ीमतों से कम क़ीमतों पर बेचकर, लाभवाले बाज़ार या लाभवाले सौदे को दूसरे से छिपाकर रखना चाहता है। रुपये के लिए सर्वत्रा होने वाली इस हाथापाई में छोटे लोग, छोटे दस्तकार या छोटे किसान ही सबसे ज़्यादा घाटे में रहते हैं : होड़ में वे बड़े व्यापारियों या धनी किसानों से सदा पीछे रह जाते हैं। छोटे आदमी के पास कभी कुछ बचा नहीं होता। वह आज की कमाई को आज ही खाकर जीता है। पहला ही संकट, पहली ही दुर्घटना उसे अपनी आखि़री चीज़ तक को गिरवी रखने के लिए या अपने पशु को मिट्टी के मोल बेच देने के लिए लाचार कर देती है। किसी कुलक या साहूकार के हाथ में एक बार पड़ जाने पर वह शायद ही अपने को उनके चंगुल से निकाल पाये। बहुधा उसका सत्यानाश हो जाता है। हर साल हज़ारों-लाखों छोटे किसान और दस्तकार अपने झोंपड़ों को छोड़कर, अपनी ज़मीन को मुफ़्त में ग्राम-समुदाय के हाथ में सौंपकर उजरती मज़दूर, खेत-बनिहार, अकुशल मज़दूर, सर्वहारा बन जाते हैं। लेकिन धन के लिए इस संघर्ष में धनी का धन बढ़ता जाता है। धनी लोग करोड़ों रूबल बैंक में जमा करते जाते हैं। अपने धन के अलावा बैंक में दूसरे लोगों द्वारा जमा किये गये धन से भी वे मुनाफ़ा कमाते हैं। छोटा आदमी दसियों या सैकड़ों रूबल पर, जिन्हें वह बैंक या बचत-बैंक में जमा करता है, प्रति रूबल तीन या चार कोपेक सालाना सूद पायेगा। धनी आदमी इन दसियों रूबल से करोड़ों बनायेगा और करोड़ों से अपना लेन-देन बढ़ायेगा तथा एक-एक रूबल पर दस-बीस कोपेक कमायेगा।

इसीलिए सामाजिक-जनवादी** मज़दूर कहते हैं कि जनता की ग़रीबी को दूर करने का एक ही रास्ता है – मौजूदा व्यवस्था को नीचे से ऊपर तक सारे देश में बदलकर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था क़ायम करना। दूसरे शब्दों में, बड़े ज़मींदारों से उनकी जागीरें, कारख़ानेदारों से उनकी मिलें और कारख़ाने और बैंकपतियों से उनकी पूँजी छीन ली जाये, उनके निजी स्वामित्व को ख़त्म कर दिया जाये और उसे देश-भर की समस्त श्रमजीवी जनता के हाथों में दे दिया जाये। ऐसा हो जाने पर धनी लोग, जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं, मज़दूरों के श्रम का उपयोग नहीं कर पायेंगे, बल्कि उसका उपयोग स्वयं मज़दूर तथा उनके चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे। ऐसा होने पर साझे श्रम की उपज तथा मशीनों और सभी सुधारों से प्राप्त होने वाले लाभ तमाम श्रमजीवियों, सभी मज़दूरों को प्राप्त होंगे। धन और भी जल्दी से बढ़ना शुरू होगा, क्योंकि जब मज़दूर पूँजीपति के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए काम करेंगे, तो वे काम को और अच्छे ढंग से करेंगे। काम के घण्टे कम होंगे। मज़दूरों का खाना-कपड़ा और रहन-सहन बेहतर होगा। उनकी गुज़र-बसर का ढंग बिल्कुल बदल जायेगा।

लेकिन सारे देश के मौजूदा निजाम को बदल देना आसान काम नहीं है। इसके लिए बहुत ज़्यादा काम करना होगा, दीर्घ काल तक दृढ़ता से संघर्ष करना होगा। तमाम धनी, सभी सम्पत्तिवान, सारे बुर्जुआ*** अपनी सारी ताक़त लगाकर अपनी धन-सम्पत्ति की रक्षा करेंगे। सरकारी अफ़सर और फ़ौज सारे धनी वर्ग की रक्षा के लिए खड़ी होगी, क्योंकि सरकार ख़ुद धनी वर्ग के हाथ में है। मज़दूरोें को परायी मेहनत पर जीने वालों से लड़ने के लिए आपस में मिलकर एक होना चाहिए; उन्हें ख़ुद एक होना चाहिए और सभी सम्पत्तिहीनों को एक ही मज़दूर वर्ग, एक ही सर्वहारा वर्ग के भीतर ऐक्यबद्ध करना चाहिए। मज़दूर वर्ग के लिए यह लड़ाई कोई आसान काम नहीं होगी, लेकिन अन्त में मज़दूरों की विजय होकर रहेगी, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग – वे लोग, जो परायी मेहनत पर जीते हैं – सारी जनता में नगण्य अल्पसंख्या है, जबकि मज़दूर वर्ग गिनती में सबसे ज़्यादा है। सम्पत्तिवानों के खि़लाफ़ मज़दूरों के खड़े होने का अर्थ है हज़ारों के खि़लाफ़ करोड़ों का खड़ा होना।

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* एक पूद में 16 किलोग्राम होते हैं।

* उस समय कम्युनिस्ट सामाजिक-जनवादी कहलाते थे।

*** बुर्जुआ का अर्थ है पूँजीवादी सम्पत्ति का मालिक। सम्पत्ति के सभी मालिकों को बुर्जुआ वर्ग कहते हैं। बड़ा बुर्जुआ वह है, जिसके पास बहुत सम्पत्ति होती है। टुटपुँजिया बुर्जुआ वह है, जिसके पास कम सम्पत्ति होती है। बुर्जुआ तथा सर्वहारा शब्दों का अर्थ है सम्पत्ति के मालिक तथा मज़दूर, धनी और सम्पत्तिहीन, अथवा वे लोग, जो अन्य लोगों के श्रम पर जीते हैं और वे लोग, जो उजरत के लिए दूसरों के वास्ते काम करते हैं।

(लेनिन की प्रसिद्ध पुस्तिका 'गाँव के ग़रीबों से' का एक अंश)

 

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Saturday, 19 September 2020

यह देश एक जलती हुई चिता है - कविता


 

  यह देश एक जलती हुई चिता है
 और जनता भांग पिला कर बरगलाई गई सती
जिसे पेशेवर पिंडारियों द्वारा 
 अग्नि के हवाले  कर दिया गया है
और उसकी जलती हुई चीखों को 
पवित्र शंख ध्वनियों के बीच 
कब्र खोद कर गाड़ दिया गया है
ताकि उनकी जली हुई हड्डियों के कोयले से
हवस का इंजन 
 अंधी मंडी  में दौड़ सके
अब कैदखानों की चारदीवारी
 देश की सरहदों तक खींच दी गई है
और सारा देश एक खुली जेल 
जहां बंद मुट्ठियों में उठा  हर प्रश्न आजन्म कैदी है
अब गंगा यमुना जंगलों और घाटियों में नहीं
 डिटेंशन सेंटरों में बहा करेंगी
और उत्तुंग हिमालय बैरकों में चक्की पीसा करेगा 
झुग्गियों में लगी  मधुमक्खियों के छत्ते से 
शहद उतार  लिया गया है
अब न्याय के बादशाह को
अपने खून से शहर के लिए 
शहद पैदा करती जिंदगियों को
शहर बदर करना जरूरी हो गया है
तुम्हारे हलक में रोटी ऐसे ही निवाला नहीं बनती
 गेहूं के गर्भ में जब पसीना वीर्य बन कर गीत गाता है
तब खेतों में अंकुर जन्म लेता है
जब प्रकृति यह कहना चाहती है कि
 भूख के गर्भ से प्रेम अपनी परिभाषा पढ़ता है
तब अपनी ग्वालिन को दूर से ही आती देखकर  
गाय अंबा अंबा  कहकर हुड़कने लगती है
जब वह गौ माता के खुरों में  
तैंतीस करोड़ देवता खोजता है 
तब तीन करोड़ भारत मातायें
 अंधेरी गलियों में अपनी शर्म बेंच रही होतीं हैं 
 जैसे-जैसे देवताओं की मूर्तियां  आकाश छू रही होती हैं
 वैसे वैसे मनुष्य की ऊंचाई घट सी क्यों रही होती है
हिंदू मुसलमान के हांके के पीछे 
नकली रामलीला की असली धोतियां 
कफन बना कर  क्यों बेंची जा रही हैं
 परंतु इच्छाओं का हथियार 
दुनिया का सबसे बड़ा हथियार होता है
और दुनिया की सबसे बड़ी सुरंग
 कुदाल से नहीं
भूख की दहकती हुई धार से खोदी जाती है
मुंह सिर्फ खाने के लिए ही नहीं 
दुश्मनों के जाल काटने के लिए भी होता है 
 नाक सिर्फ खुशबू के लिए ही नहीं 
बारूद सूंघने के लिए भी होती है 
रोटी सेंकता एक हाथ  
दूसरे हाथ से बंदूक  पकड़ने के लिये भी लपकता है
मस्तिष्क के मीनार में तैनात मुस्तैद सिपाही
 दुश्मनों का टोह  लेना भी जानता है  
परंतु साथियों सावधान
जब शरीर अपना काम 
किसी वैशाखी पर छोड़ देती है 
तब वैशाखी ही पांवों  को गलाने लगती है
परंतु सूरज को इतना यकीन है कि
जैसे-जैसे रात जवां होगी 
वह दिन के उजालों के हाथों मारी जाएगी 
       
     @जुल्मीरामसिंह यादव    
          19.09.2020

Friday, 18 September 2020

निजिकरण और मजदूरवर्ग के पास विकल्प



डूबती पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूरी तरह से विफल  हो चुके निजी क्षेत्र के पूंजीवादी कॉर्पोरेट सेक्टर को बचाने के लिये भारी मात्रा में धन की जरूरत है। यह धन कहाँ से आये? 
सरकार ने इसके लिये सबसे आसान तरीका चुना है-विनिवेश। और इसी लक्ष्य के तहत सरकार एक के बाद एक सरकारी क्षेत्र में अपनी हिस्सेदारी बेच रही है। 
इस निजीकरण का बड़े पैमाने का विरोध किया जारहा है, पब्लिक सेक्टर को 'नेहरू समाजवाद' का अवशेष बताया जा रहा है।लेकिन हमें नही भूलना चाहिये कि पब्लिक सेक्टर की इन कम्पनियो का चरित्र पहले भी पूंजीवादी था, पूंजीवादी हित के लिये ही उनकी स्थापना व्यापक जनता के पैसे से की गई थी। आर्थिक संकट से उबरने का हल इन परिसम्पत्तियों को बेच कर डूबते पूंजीवादी कॉर्पोरेट सेक्टर को बेलआउट से नही, बल्कि मजदूरवर्ग को संगठित प्रयास से राज्यसत्ता अपने हाथ मे ले कर निजीकरण नही बल्कि तमाम कॉर्पोरेट सेक्टर की परिसम्पत्तियों का संपूर्ण सामाजिकरण में है।

मोदी पूंजीपतिवर्ग और उसकी सरकार निजीकरण की तरफ कदम बढ़ा रही है। हम क्या चाहते है? हमारे पास क्या विकल्प है? यथास्थिति या पूर्ण सामाजिकरण! अगर हम सिर्फ यथास्थिति के लिये लड़ रहे है, हम सिर्फ इतना चाहते है कि निजिकरण न हो और हम पूर्ण सामाजिकरण के लिये भी लड़ने को तैयार नही तो हमारी हार पक्की है। मोदी सरकार द्वारा निजिकरण के संदर्भ में उठाय गये कदमो के नीच दिए लिंक देखे और तय करे हमे किस रास्ते जाना है, क्या करना है:
1- 👉बोली लगेगी 23 सरकारी कंपनियों की, निजीकरण का ज़बरदस्त स्वागत

2-👉 28 कंपनियों को बेच रही है मोदी सरकार, संसद में बेशर्मी से बोले मंत्री- घाटा हो या मुनाफ़ा हम तो बेचेंगे

3-👉 विदेशी हाथों में जाएगी दूसरी सबसे बड़ी सरकारी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम?

4-👉 Privatization से पहले BPCL लेकर आया Employees VRS Plan, जानिए क्या है पूरा मामला

5-👉 Railway की बड़ी घोषणा : 151 प्राइवेट ट्रेन चलाने का जारी किया टेंडर

6-👉 ग्वालियर, नागपुर, अमृतसर और साबरमती रेलवे स्टेशन भी बिके! चहेते उद्योगपतियों को सबकुछ बेच देंगे PM मोदी?

7- 👉सरकारी कंपनी BHEL में सरकार अपनी हिस्सेदारी बेचने की तैयारी में है.

8-👉विनिवेश प्रक्रिया:कोल इंडिया लिमिटेड और आईडीबीआई बैंक में हिस्सेदारी बेचेगी सरकार, 20 हजार करोड़ रुपए जुटाने की है योजना

9-👉गेल को दो हिस्सों में बांटने के लिए कैबिनेट नोट तैयार, बेचा जाएगा पाइपलाइन कारोबार

10-👉सरकार 33 कंपनियों में बेचेगी अपनी हिस्सेदारी, जारी की लिस्ट

11-👉इंडियन रेलवे जो देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक उद्यम और सबसे बड़ा नियोक्ता कभी हुआ करता था अब उसको खण्ड खण्ड कर प्राइवेटाइजेशन करने का पूरा रोड मैप मोदी सरकार ने कल जनता के सामने रख दिया है।

 Coal, GAIL, BHEL, SAIL,NTPC,LIC; IOC ,BPCL,ONGC, महारत्न कंपनियां हैं

⭐सरकार अगर घाटे वाली कम्पनी बेचे 
तो भी जनता को सरकार से सवाल करना चाहिए कि अगर कंपनी घाटे में तो खरीदने वाले कौन है और वो इसे कैसे फायदे में ले आएंगे?
जनता द्वारा सवाल नहीं करने की ये ही आदत देश चंद पूंजीपतियों का गुलामी की ओर बढ़ रहा है!

#मैं-देश_नहीं_बिकने_दूंगा कहकर पूरा देश बेच दिया।

Thursday, 17 September 2020

बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) बिल: डेपोसिटर्स के हित में या खून चूसक वित्त पूंजी के हित में?



डूबती हुई अर्थव्यवस्था में पूरा पूंजीवादी कॉर्पोरेट सेक्टर मानो अंतिम सांसे ले रहा है। इन्हें कर्ज देने वाले तमाम कमर्शियल बैंक का बढ़ता हुआ NPA चिंता का विषय बना हुआ है। इन खून चूसने वाले निजी क्षेत्र के कॉर्पोरेट सेक्टरो में से कुछ को(सभी को बचाना सम्भव नही है) बैंक किस आधार पर बचाये, इसके लिये कामथ कमिटी के सुझाव आ गया है।


बचे कॉपरेटिव बैंक तो उनकी बहुत खराब  हालत के बारे में बोलते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने कहा कि मार्च 2019 में कॉपरेटिव बैंकों का ग्रॉस एनपीए 7.27 फीसदी था, जो मार्च 2020 में बढ़कर 10 फीसदी से ज्यादा हो गया था। कारोबारी साल 2018-19 में 277 अर्बन कॉपरेटिव बैंकों ने घाटा दर्ज किया था। मंत्री ने कहा कि मार्च 2019 के आखिर में 100 से ज्यादा अर्बन कॉपरेटिव बैंक मिनिमम रेगुलेटरी कैपिटल रिक्वायरमेंट को पूरा नहीं कर रहे थे और 47 अर्बन कॉपरेटिव बैंकों का नेटवर्थ निगेटिव था। 


पिछले साल सितंबर में पीएमसी बैंक का घोटाला सामने आने के बाद कॉपरेटिव बैंकों को नियमित करने का प्रस्ताव आया था। 4,355 करोड़ रुपए का घोटाला उजागर होने के बाद आरबीआई ने पीएमसी बैंक पर कई पाबंदियां लगा दी थीं। घोटाला के कारण पीएमसी बैंक के 9 लाख से ज्यादा ग्राहकों की बचत खतरे में पड़ गई। 


ऐसी खराब हालत फिर कभी न आये, इसके लिये क्या किया जाए? लोकसभा ने बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) बिल, 2020 पारित किया है, कानून बनने के बाद आरबीआई की निगरानी में  कॉपरेटिव बैंक आ जायगे। हालांकि आरबीआई की निगरानी में तो पहले से सारे कमर्शियल बैंक है, उनकी हालत भी तो खराब है, उनमे भी घोटाले हो रहे है।


यह भी झूठा प्रचार किया जा रहा है कि बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) बिल depositors के हितों को ध्यान में रख कर किया जा रहा है। 


कमर्शियल बैंक में डेपोसिटर्स के हित किस सीमा तक सुरक्षित किया गया है? 1961 के जमा राशि बीमा और क्रेडिट गारंटी निगम अधिनियम (डिपाजिट इन्शुरन्स एंड क्रेडिट गारंटी कारपोरेशन एक्ट) के तहत, यदि कोई बैंक डूबता है तो लोगों द्वारा जमा की गई एक लाख तक की राशि का बीमा होता है। 


पेंशन की सुविधा से वंचित रिटायरमेंट बेनिफिट के पैसे लोग कहाँ रखे जिससे उन्हें एक निश्चित माहवारी आय आती रहे और उनकी पूंजी भी सुरक्षित रहे। मध्यम वर्ग आज इस सवाल से झूझ रहा है। उन्हें डर है कि उनका सबकुछ लूट न जाये, पैसा बैंक में रहते हुए वे उसे निकाल न सके, जैसा कि पीमसी बैंक के जमाकर्ताओं के साथ हुआ और आज भी पीएमसी बैंक के ग्राहक अपना पैसा लेने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।


इसके अलावे सरकार FRDI bill (अब  FSDR) लाने वाली है जिसके पास होने के बाद, वित्तीय संस्थाओं को आर्थिक संकट में फंसने की स्थिति में, जो अभी सरकारी पैसे से बेल आउट किया जाता है, depositor की कीमत पर बेल-इन किया जाएगा। बैंक को आत्मनिर्भर भारत का हिस्सा बनाने के लिये सरकार नही बल्कि बैंक के depositor उस बैंक को घाटे से उबारने में मदद करेगे।


यानिकि, आपके बैंक में डिपाजिट जो अभी एक लायबिलिटी है, उसे इक्विटी में बदल देने का अधिकर रेसोलुशन अथॉरिटी को रहेगा।


क्या कोआपरेटिव बैंक बिना बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट में बदलाव के FSDR के दायरे में नही आते और इसलिये  बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) बिल लाया गया है? 

बैंकिंग रेगुलेशन (अमेंडमेंट) बिल डेपोसिटर्स के हित  में नही है, यह खून चूसक वित्त पूंजी के हित में है। यह समझना बहुत कठिन नही है।


https://toptrendingbusiness.blogspot.com/2020










KV Kamath commitee to help blood sucker, bourgeois



Indian Economy, dominated and ruled by corporate capitalism is sinking and is on ventilator. It is not possible to give help to all of these corporates. So some parameters were required. KV Kamath commitee was appointed for this purpose.

The panel, led by veteran banker KV Kamath, recommended financial ratios for 26 sectors that lending institutions can follow while forming a resolution framework.

Now, these blood suckers capitalism will be saved at the cost of public money on the basis of Kamath Committee report.

Wednesday, 16 September 2020

सामाजिक जनवादी(कम्युनिष्ट )



सामाजिक जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन का सचिव नहीं , बल्कि एक ऐसा जननायक होना चाहिए , जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से , वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो , विचलित हो उठने की क्षमता हो ; उसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूंजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए ; उसमें प्रत्येक घटना का , चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो , लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी मांगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के   मुक्ति- संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए ।                 --  *लेनिन         " क्या करें ? "    1902*

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...