Saturday, 19 September 2020

यह देश एक जलती हुई चिता है - कविता


 

  यह देश एक जलती हुई चिता है
 और जनता भांग पिला कर बरगलाई गई सती
जिसे पेशेवर पिंडारियों द्वारा 
 अग्नि के हवाले  कर दिया गया है
और उसकी जलती हुई चीखों को 
पवित्र शंख ध्वनियों के बीच 
कब्र खोद कर गाड़ दिया गया है
ताकि उनकी जली हुई हड्डियों के कोयले से
हवस का इंजन 
 अंधी मंडी  में दौड़ सके
अब कैदखानों की चारदीवारी
 देश की सरहदों तक खींच दी गई है
और सारा देश एक खुली जेल 
जहां बंद मुट्ठियों में उठा  हर प्रश्न आजन्म कैदी है
अब गंगा यमुना जंगलों और घाटियों में नहीं
 डिटेंशन सेंटरों में बहा करेंगी
और उत्तुंग हिमालय बैरकों में चक्की पीसा करेगा 
झुग्गियों में लगी  मधुमक्खियों के छत्ते से 
शहद उतार  लिया गया है
अब न्याय के बादशाह को
अपने खून से शहर के लिए 
शहद पैदा करती जिंदगियों को
शहर बदर करना जरूरी हो गया है
तुम्हारे हलक में रोटी ऐसे ही निवाला नहीं बनती
 गेहूं के गर्भ में जब पसीना वीर्य बन कर गीत गाता है
तब खेतों में अंकुर जन्म लेता है
जब प्रकृति यह कहना चाहती है कि
 भूख के गर्भ से प्रेम अपनी परिभाषा पढ़ता है
तब अपनी ग्वालिन को दूर से ही आती देखकर  
गाय अंबा अंबा  कहकर हुड़कने लगती है
जब वह गौ माता के खुरों में  
तैंतीस करोड़ देवता खोजता है 
तब तीन करोड़ भारत मातायें
 अंधेरी गलियों में अपनी शर्म बेंच रही होतीं हैं 
 जैसे-जैसे देवताओं की मूर्तियां  आकाश छू रही होती हैं
 वैसे वैसे मनुष्य की ऊंचाई घट सी क्यों रही होती है
हिंदू मुसलमान के हांके के पीछे 
नकली रामलीला की असली धोतियां 
कफन बना कर  क्यों बेंची जा रही हैं
 परंतु इच्छाओं का हथियार 
दुनिया का सबसे बड़ा हथियार होता है
और दुनिया की सबसे बड़ी सुरंग
 कुदाल से नहीं
भूख की दहकती हुई धार से खोदी जाती है
मुंह सिर्फ खाने के लिए ही नहीं 
दुश्मनों के जाल काटने के लिए भी होता है 
 नाक सिर्फ खुशबू के लिए ही नहीं 
बारूद सूंघने के लिए भी होती है 
रोटी सेंकता एक हाथ  
दूसरे हाथ से बंदूक  पकड़ने के लिये भी लपकता है
मस्तिष्क के मीनार में तैनात मुस्तैद सिपाही
 दुश्मनों का टोह  लेना भी जानता है  
परंतु साथियों सावधान
जब शरीर अपना काम 
किसी वैशाखी पर छोड़ देती है 
तब वैशाखी ही पांवों  को गलाने लगती है
परंतु सूरज को इतना यकीन है कि
जैसे-जैसे रात जवां होगी 
वह दिन के उजालों के हाथों मारी जाएगी 
       
     @जुल्मीरामसिंह यादव    
          19.09.2020

No comments:

Post a Comment

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...