मेरी भूख संसद के अध्यादेशों को पूछ कर नहीं आती
और न ही मेरी भूख की रसद
अध्यादेशों के जंगलों में उगा करती है
संसद के जंगल में बहेलिया कबूतरों की भाषा में
अपना व्याकरण सिखाना चाहता है
बहेलिया चाहता है उसकी और कबूतर की रसोईं एक हो
लेकिन चूल्हे पर किसे चढ़ना है
इसका उत्तर बहेलिए की भूख तय करती है
संसद के रास्तों की सारी दुकानों का मालिक तो कोई और है यहां हर कस्साब भाड़े पर उठी हुई सुपारी है
कसाई की उदारता इतनी क्या कम है
कि वह जिबह करने के पहले
मेमने के माथे पर संविधान का पवित्र टीका लगाता है
और अंगूठा पकड़ कर छूरे पर
उसकी सहमति का दस्तखत ले लेता है
कि मैं हलाल का बकरा अपने पूरे होशो हवास से
संविधान को हाजिर नाजिर मानकर राष्ट्रहित में
अपने हलाल होने की पूरी रजामंदी देता हूं
संसद के सराय में रथ के सिर्फ घोड़े बदले जाते हैं
परंतु पवित्र रथयात्रा का जगन्नाथ तो
हमेशा पूंजी का पिंडारी ही बना रहता है
इन चुने हुए सत्यवादी घोड़ों के सतीत्व की उम्र
घोड़ा बाजार में लगाए गए कीमत पर निर्भर होती है
संसद के घोड़ों की कीमत जितनी ऊंची होती है
उतना ही सस्ता सजता है
दिल्ली के मीना बाजार में चोर बाजार
इसी के साथ कफनकुबेरों का खजाना
नीलामी के माल से पटने लगता है
फिर वह चाहे बंदी बना ली गई नदियों का नीला जल हो
या मछुआरों के सपनों में बार-बार आने वाली
सुरमई मछलियां
चाहे हरे आकाश में डूबा हुआ
नुचे तुड़े पंखों वाला हिरण्यगर्भा अरण्य
या पुरखों की देह से गली हुई धातुओं का अयस्क
या उनकी अस्थियों की राख से खेतों में बोया गया अमृतबीज
या यौवन के कच्चे खून से ढली
पक्के लोहे की रेल की पटरियां
जो अपने पुरखों की धमनियों की तरह
देश के जिगर और गुर्दे की गोशे गोशे में बिछ सी गई हैं
यहां दिल्ली की सबसे ऊंची मीनार सिर्फ एक मंडी है
और तराजू के एक पलड़े पर पूरा देश सिर्फ किरानी का माल
दूसरे पलड़े पर हवस का कभी न उठने वाला वजन
और जनता का प्रतिनिधि बाजार का कांटामार पल्लेदार
@ जुल्मीरामसिंह यादव
29.9.2020
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