Wednesday, 23 September 2020

श्रम के देवता के चले जाने के बाद की मुंबई- कविता



  दिन जिसका रात में जवां होता था
और जिसकी रात से सूरज रोशनी चुराता था
मेरी जान मुंबई तू कहां है
तेरे प्राणों में जो जीवन का बारूद भरता था
और तेरी जड़ों में पसीने  की अग्नि
शहर के समुंदर में जिसके दौड़ने से 
 रोशनी की गर्म ज्वालामुखी उठती थी
वह मेहनत का मसीहा कहां है
मुंबई आज तुम परकटे परिंदे सी बैठी हो क्यों
अपने पंखों में आकाश भरती नहीं हो क्यों
तुम्हारी शोख अदाएं पीली बीमार सी हैं
तुम्हारे चेहरे पर सूतक   लिख क्यों उठा है 
यह शमशान सी मुर्दनी क्यों
 बाजारों के शोरगुल की रंगत कहां है
जिसके प्राणों की धौंकनी  से 
तुम्हारे रक्त में लाली दौड़ती थी 
 दुल्हन बताओ वह दूल्हा कहां है
यह शहर लुटा लुटा सा क्यों लग रहा है
तेरी रातें परेशान सी क्यों  जग रही हैं
 इन सूखे हुए फूलों और पौधों का माली कहां है
तुम्हारे चेहरे पर नीम बेहोशी तारी सी क्यों है 
तुम्हारा इकलौता वो  चारागर कहां है
तुम एक अकेली ऐसी रक्कासा थी
 जो रात भर सोती नहीं थी 
तुम अपने पायलों में 
दुख के गट्ठर  बांध  बैठी हो क्यों 
 किस मातबर मासूक का इंतजार है 
तुम्हारे साज की ध्वनियां 
कारखानों की बंद चिमनियों पर  टंगी है क्यों 
समय की सुईयां मद्धिम से क्यों चल रही हैं
पूरे शहर के ताले की चाबी कहां खो गयी है
तुम्हारे पांव की घूंघरू क्यों टूटे बिखरे से हैं 
 तुम्हारी चमकती हुई मांग में जो अपने 
जिगर के खून से लाल सिंदूर भरता था 
 वह  सुहाग कहां है
वे सरमायेदार जो कल तक पृथ्वी को अपनी गोद में उठाए 
नये नये आकाश रच रहे थे 
पूछो अब उनकी धरती कहां है
 सोने की सूरजमुखी फिर से इस शहर में
 उगाने के लिए 
पृथ्वी ने अपने गर्भ में बचाए हैं जो बीज 
वह किसी सुबह के इंतजार में
 सिर्फ मेहनत की फौलादी शिराओं में 
  अभी भी बंद कर अपनी मुट्ठी सोया पड़ा है 
     #  जुल्मीरामसिंह यादव
      22.09.2020

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