"दीप जिसका महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को लेकर चले
वो जो साए में हर मसलहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूं कह दो अग़ियार से
क्यों डराते हो ज़िन्दां की दीवार से
ज़ुल्म की बात को, जेहल की रात को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।
फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो
इस खुले झूठ को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।
तुमने लूटा है सदियों हमारा सुकूं
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूं
चारागर मैं तुम्हें किस तरह से कहूं
तुम नहीं चारागर, कोई माने मगर
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।"
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