Monday, 19 July 2021

पेगासस जासूसी का खुलासा

#पेगाससजासूसी 


द वायर और सहयोगी मीडिया संस्थानों द्वारा दुनिया भर में हजारों फोन नंबरों- जिन्हें इजरायली कंपनी के विभिन्न सरकारी ग्राहकों द्वारा जासूसी के लिए चुना गया था, के रिकॉर्ड्स की समीक्षा के अनुसार, 2017 और 2019 के बीच एक अज्ञात भारतीय एजेंसी ने निगरानी रखने के लिए 40 से अधिक भारतीय पत्रकारों को चुना था.

लीक किया हुआ डेटा दिखाता है कि भारत में इस संभावित हैकिंग के निशाने पर बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकार, जैसे हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक शिशिर गुप्ता समेत इंडिया टुडे, नेटवर्क 18, द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस के कई नाम शामिल हैं.इनमें द वायर के दो संस्थापक संपादकों समेत तीन पत्रकारों, दो नियमित लेखकों के नाम हैं. 

इनमें से एक रोहिणी सिंह हैं, जिन्हें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह के कारोबार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी कारोबारी निखिल मर्चेंट को लेकर रिपोर्ट्स लिखने के बाद और प्रभावशाली केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के बिजनेसमैन अजय पिरामल के साथ हुए सौदों की पड़ताल के दौरान निशाने पर लिया गया था.

एक अन्य पत्रकार सुशांत सिंह, जो इंडियन एक्सप्रेस में डिप्टी एडिटर हैं, को जुलाई 2018 में तब निशाना बनाया गया, जब वे अन्य रिपोर्ट्स के साथ फ्रांस के साथ हुई विवादित रफ़ाल सौदे को लेकर पड़ताल कर रहे थे.

एक साथ काम करते हुए ये मीडिया संगठन- जिनमें द गार्जियन, द वाशिंगटन पोस्ट, ल मोंद और सुडडोईच ज़ाईटुंग शामिल हैं- ने कम से कम 10 देशों में 1,571 से अधिक नंबरों के मालिकों की स्वतंत्र रूप से पहचान की है और पेगासस की मौजूदगी को जांचने के लिए इन नंबरों से जुड़े फोन्स के एक छोटे हिस्से की फॉरेंसिक जांच की है.

एनएसओ इस दावे का खंडन करता है कि लीक की गई सूची किसी भी तरह से इसके स्पायवेयर के कामकाज से जुड़ी हुई है. द वायर और पेगासस प्रोजेक्ट के साझेदारों को भेजे गए पत्र में कंपनी ने शुरुआत में कहा कि उसके पास इस बात पर 'यकीन करने की पर्याप्त वजह है' कि लीक हुआ डेटा 'पेगासस का उपयोग करने वाली सरकारों द्वारा निशाना बनाए गए नंबरों की सूची नहीं' है, बल्कि 'एक बड़ी लिस्ट का हिस्सा हो सकता है, जिसे एनएसओ के ग्राहकों द्वारा किसी अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया.

'हालांकि, निशाना बनाए गए फोन की फॉरेंसिक जांच में सूची में शामिल कुछ भारतीय नंबरों पर पेगासस स्पायवेयर के इस्तेमाल की पुष्टि हुई है. साथ ही इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि सर्विलांस का यह बेहद अनधिकृत तरीका- जो हैकिंग के चलते भारतीय कानूनों के तहत अवैध है- अब भी पत्रकारों और अन्य की जासूसी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.पेगासस और भारत2010 में स्थापित एनएसओ ग्रुप को पेगासस के जनक के तौर पर जाना जाता है. 

द वायर और उसके मीडिया सहयोगियों को लिखे पत्र में भी एनएसओ ने दोहराया कि वह अपने स्पायवेयर को केवल 'जांची-परखी सरकारों' को बेचता है.एनएसओ इस बात की पुष्टि नहीं करेगा कि भारत सरकार इसकी ग्राहक है या नहीं, लेकिन भारत में पत्रकारों और अन्य लोगों के फोन में पेगासस की मौजूदगी और संभावित हैकिंग के लिए चुने गए लोगों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि यहां एक या इससे अधिक आधिकारिक एजेंसियां सक्रिय रूप से इस स्पायवेयर का उपयोग कर रही हैं.

नरेंद्र मोदी सरकार ने अब तक स्पष्ट रूप से पेगासस के आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल से इनकार नहीं किया है, पर यह उन आरोपों को खारिज करती रही है कि भारत में कुछ लोगों की अवैध निगरानी के लिए पेगासस का इस्तेमाल किया जा सकता है. शनिवार को पेगासस प्रोजेक्ट के सदस्यों द्वारा इस बारे में भेजे गए सवालों के जवाब में इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने इसी बात को दोहराया है.एमनेस्टी इंटरनेशनल की सिक्योरिटी लैब द्वारा लीक हुई सूची में शामिल कई देशों के लोगों के एक छोटे समूह के स्मार्टफोन के स्वतंत्र फॉरेंसिक विश्लेषण में आधे से अधिक मामलों में पेगासस स्पायवेयर के निशान मिले हैं.

भारत में जांचे गए 13 आईफोन में से नौ में उन्हें निशाना बनाए जाने के सबूत मिले हैं, जिनमें से सात में स्पष्ट रूप से पेगासस मिला है. नौ एंड्राइड फोन भी जांचे गए, जिनमें से एक में पेगासस के होने का प्रमाण मिला, जबकि आठ को लेकर निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि एंड्रॉइड लॉग उस तरह का विवरण प्रदान नहीं करते हैं, जिसकी मदद से एमनेस्टी की टीम पेगासस की उपस्थिति की पुष्टि कर सकती है.

हालांकि, इस साझा इन्वेस्टिगेशन से यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि वे सभी पत्रकार, जिनके नंबर लीक हुई सूची में मिले हैं, की सफल रूप से जासूसी की गई या नहीं. इसके बजाय यह पड़ताल सिर्फ यह दिखाती है कि उन्हें 2017-2019 के बीच आधिकारिक एजेंसी या एजेंसियों द्वारा लक्ष्य के बतौर चुना गया था.एआई की सिक्योरिटी लैब द्वारा किए गए विशिष्ट डिजिटल फॉरेंसिक विश्लेषण में लीक हुई सूची में शामिल छह भारतीय पत्रकारों के मोबाइल फोन पर पेगासस स्पायवेयर के निशान मिले, जो इस लिस्ट में अपना नंबर मिलने के बाद अपने फोन की जांच करवाने के लिए सहमत हुए थे.

पेगासस प्रोजेक्ट की रिपोर्टिंग से सामने आई पत्रकारों की सूची को बेहद विस्तृत या निगरानी का निशाना बने रिपोर्टर्स का सैंपल भर भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह केवल लीक हुए एक डेटा सेट में एक छोटी अवधि में सर्विलांस के एक तरीके- यानी केवल पेगासस से हुई जासूसी के बारे में बात करता है.दिल्ली के पत्रकारों पर थी नज़रलिस्ट में शामिल अधिकतर पत्रकार राष्ट्रीय राजधानी के हैं और बड़े संस्थानों से जुड़े हुए हैं. 

मसलन, लीक डेटा दिखाता है कि भारत में पेगासस के क्लाइंट की नजर हिंदुस्तान टाइम्स समूह के चार वर्तमान और एक पूर्व कर्मचारी पर थी.इनमें कार्यकारी संपादक शिशिर गुप्ता, संपादकीय पेज के संपादक और पूर्व ब्यूरो चीफ प्रशांत झा, रक्षा संवाददाता राहुल सिंह, कांग्रेस कवर करने वाले पूर्व राजनीतिक संवाददाता औरंगजेब नक्शबंदी और इसी समूह के अख़बार मिंट के एक रिपोर्टर शामिल हैं.

अन्य प्रमुख मीडिया घरानों में भी कम से कम एक पत्रकार तो ऐसा था, जिसका फोन नंबर लीक हुए रिकॉर्ड में दिखाई देता है. इनमें इंडियन एक्सप्रेस की ऋतिका चोपड़ा (जो शिक्षा और चुनाव आयोग कवर करती हैं), इंडिया टुडे के संदीप उन्नीथन (जो रक्षा और सेना संबंधी रिपोर्टिंग करते हैं), टीवी 18 के मनोज गुप्ता (जो इन्वेस्टिगेशन और सुरक्षा मामलों के संपादक हैं), द हिंदू की विजेता सिंह (गृह मंत्रालय कवर करती हैं) शामिल हैं, और इनके फोन में पेगासस डालने की कोशिशों के प्रमाण मिले हैं.

द वायर  में जिन्हें निशाना बनाया गया, उनमें संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और एमके वेणु शामिल हैं, जिनके फोन की फॉरेंसिक जांच में इसमें पेगासस होने के सबूत मिले हैं. द वायर  की डिप्लोमैटिक एडिटर देवीरूपा मित्रा को भी निशाना बनाया गया है.रोहिणी सिंह के अलावा द वायर  के लिए नियमित तौर पर राजनीतिक और सुरक्षा मामलों पर लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर झा का नंबर भी रिकॉर्ड्स में मिला है. 

इसी तरह स्वतंत्र पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी को भी तब निशाना बनाया गया था, जब वे वायर के लिए लिख रही थीं.सिद्धार्थ वरदराजन, स्वाति चतुर्वेदी, रोहिणी सिंह, एमके वेणु. (सभी फोटो: द वायर) सर्विलांस के लिए निशाना बनाए जाने की बात बताए जाने पर झा ने कहा, 'जिस तरह यह सरकार भारतीय संविधान का अपमान इसकी रक्षा करने वालों को ही फंसाने के लिए कर रही है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह खतरा है या तारीफ.

'द हिंदू की विजेता सिंह ने द वायर से कहा, 'मेरा काम स्टोरी करना है. खबर रुकती नहीं है, स्टोरी वैसी ही कही जानी चाहिए, जैसी वो है, बिना किसी फैक्ट को दबाए बिना सजाए-धजाये.'उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह 'अनुमान लगाना उचित नहीं होगा' कि कोई उन्हें निगरानी के संभावित लक्ष्य के रूप में क्यों देखेगा, 'हम जो भी जानकारी इकट्ठा करते हैं, वो अगले दिन के अख़बार में आ जाती है.

'सूची में द पायनियर के इनवेस्टिगेटिव रिपोर्टर जे. गोपीकृष्णन का भी नाम है, जिन्होंने 2जी टेलीकॉम घोटाला का खुलासा किया था. उन्होंने द वायर से कहा, 'एक पत्रकार के तौर पर मैं ढेरों लोगों से संपर्क करता हूं और ऐसे भी कई लोग हैं जो यह जानना चाहते हैं कि मैंने किससे संपर्क किया.'कई ऐसे वरिष्ठ पत्रकार, जिन्होंने मुख्यधारा के संगठनों को छोड़ दिया है, वे भी लीक हुए डेटा में संभावित लक्ष्य के रूप में दिखाई देते हैं.ऐसे लोगों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा रिपोर्टर सैकत दत्ता, ईपीडब्ल्यू के पूर्व संपादक परंजॉय गुहा ठाकुरता, जो अब नियमित तौर पर न्यूज़क्लिक वेबसाइट के लिए लिखते हैं, टीवी 18 की पूर्व एंकर और द ट्रिब्यून की डिप्लोमैटिक रिपोर्टर स्मिता शर्मा, आउटलुक के पूर्व पत्रकार एसएनएम अब्दी और पूर्व डीएनए रिपोर्टर इफ्तिखार गिलानी का नाम शामिल है.

द वायर द्वारा किए डेटा विश्लेषण से पता चलता है कि ऊपर उल्लिखित अधिकांश नामों को 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले 2018-2019 के बीच निशाना बनाया गया था.वहीं कुछ पत्रकारों को कमोबेश एक ही समय में संभावित लक्ष्यों की सूची में जोड़ा गया, अन्य को अकेले ही निशाने के तौर पर चुना गया है, शायद उन रिपोर्ट्स के लिए जिन पर वे उस समय काम कर रहे थे. और ये रिपोर्ट्स हमेशा बहुत साधारण नहीं होती हैं.

एक युवा टीवी पत्रकार, जिन्होंने उनका नाम न देने को कहा है, क्योंकि वे किसी और क्षेत्र में करिअर बनाने के लिए पत्रकारिता छोड़ चुकी हैं, ने वायर को बताया कि जहां तक उन्हें याद पड़ता है डेटा में दिखाई गई समयावधि में जिस स्टोरी के लिए उन्हें संभवतया निगरानी के लिए निशाना बनाया जा सकता है, वह सीबीएसई पेपर लीक से जुड़ी थी.(फोटो: रॉयटर्स) इससे पहले के पेगासस के निशाने2019 में वॉट्सऐप ने कनाडा के सिटिज़न लैब के साथ मिलकर इस ऐप की सुरक्षा में सेंध लगाने को लेकर हुए पेगासस हमले को लेकर इससे प्रभावित हुए दर्जनों भारतीयों को चेताया था. 

ऐसे कम से कम दो पत्रकार हैं, जिनका नाम पेगासस प्रोजेक्ट को मिले लीक डेटा में है, जिन्हें 2019 में वॉट्सऐप द्वारा उनके फोन हैक होने के बारे में बताया गया था.इनमें विदेश मंत्रालय कवर करने वाले रिपोर्टर सिद्धांत सिब्बल (जो विऑन टीवी चैनल में काम करते हैं) और पूर्व लोकसभा सांसद और वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय का नाम है.

द वायर द्वारा जिस डेटा की समीक्षा की गई, उसके मुताबिक सिब्बल को 2019 की शुरुआत में चुना गया था, उन्होंने इसी साल के आखिर में बताया था कि उन्हें वॉट्सऐप ने उनके फोन से हुई छेड़छाड़ के बारे में चेताया था. रिकॉर्ड्स के अनुसार, भारतीय को भी संभावित लक्ष्य के तौर पर 2019 की शुरुआत में ही चुना गया था, उन्होंने सार्वजनिक तौर पर यह बताया था कि उन्हें भी वॉट्सऐप द्वारा संदेश भेजा गया था.

दिल्ली से दूरलीक हुए डेटा से उन पत्रकारों के नंबर शामिल हैं, जो लुटियंस दिल्ली और राष्ट्रीय चकाचौंध से बहुत दूर काम करते हैं. इसमें उत्तर-पूर्व की मनोरंजना गुप्ता, जो फ्रंटियर टीवी की प्रधान संपादक हैं, बिहार के संजय श्याम और जसपाल सिंह हेरन के नाम शामिल हैं.हेरन लुधियाना स्थित पंजाबी दैनिक रोज़ाना पहरेदार के प्रधान संपादक हैं. पंजाब के हर जिले में अखबार के पत्रकार हैं, इसे व्यापक रूप से पढ़ा जाता है और राज्य में इसका खासा प्रभाव है.हेरन ने पेगासस प्रोजेक्ट को बताया कि उनके अख़बार की आलोचनात्मक रिपोर्ट के कारण वर्षों से सभी सरकारों के साथ उनका टकराव हुआ है और उन्हें कई कानूनी नोटिस मिले हैं.हेरन और उनका अख़बार. (फोटो: पावनजोत कौर)उन्होंने कहा कि पत्रकारों पर किसी भी तरह से निगरानी रखा जाना 'शर्मनाक' है. उन्होंने कहा, 'उन्हें यह पसंद नहीं है कि उनके नेतृत्व में देश जिस दिशा में जा रहा है, हम उसकी आलोचना करें. वे हमें चुप कराने की कोशिश करते हैं.

'लुधियाना से दक्षिण पूर्व में 1,500 किलोमीटर दूर एक और पत्रकार मिले, जो फौरी तौर पर तो बेहद प्रभावशाली नहीं लगते हैं, लेकिन एनएसओ ग्रुप के भारतीय क्लाइंट की उनमें काफी दिलचस्पी नजर आती है.

झारखंड के रामगढ़ के रूपेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं और उनसे जुड़े तीन फोन नंबर लीक हुए डेटा में मिले हैं.रूपेश यह जानकर हैरान नहीं थे कि उन्हें जासूसी के लिए निशाना बनाया गया. उन्होंने बताया, 'मुझे हमेशा से लगता था कि मुझ पर नजर रखी जा रही है, खासकर 2017 में झारखंड पुलिस द्वारा एक निर्दोष आदिवासी की हत्या को लेकर की गई रिपोर्ट के बाद से.'जिस रिपोर्ट का रूपेश जिक्र कर रहे हैं, वह 15 जून 2017 को द वायर हिंदी में प्रकाशित हुई थी और जिसमें एक ऐसे शख्स की मौत को लेकर सवाल उठाए गए थे, जिसे लेकर राज्य पुलिस ने प्रतिबंधित माओवादी समूह से संबद्ध होने का दावा किया था.

पेगासस प्रोजेक्ट के डेटा के मुताबिक रूपेश के फोन की निगरानी की शुरुआत इस रिपोर्ट के कुछ महीनों बाद हुई थी.जून 2019 में रूपेश को बिहार पुलिस ने गिरफ्तार किया था और कड़े गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत विस्फोटक रखने का मामला दर्ज किया था. छह महीने बाद उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया क्योंकि पुलिस निर्धारित समय के भीतर आरोप पत्र दाखिल करने में विफल रही.सिंह ने कहा, 'पुलिस ने विस्फोटक लगाए थे. यह मेरी रिपोर्टिंग के कारण मुझे डराने-धमकाने का प्रयास था.

'फॉरेंसिक विश्लेषण क्या कहता है?एमनेस्टी इंटरनेशनल की सिक्योरिटी लैब ने सात पत्रकारों के फोन पर डिजिटल फॉरेंसिक जांच की. इसके नतीजों का सिटिज़न लैब के विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण किया गया था, जबकि यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के एक संस्थान द्वारा व्यापक मेथडोलॉजी की समीक्षा की गई.इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व पत्रकार सुशांत सिंह, टीवी 18 की पूर्व एंकर स्मिता शर्मा, ईपीडब्ल्यू के पूर्व संपादक परंजॉय गुहा ठाकुरता, आउटलुक के पूर्व पत्रकार एसएनएम अब्दी, द हिंदू की विजेता सिंह और द वायर के दो संस्थापक संपादकों सिद्धार्थ वरदराजन और एमके वेणु के फोन का विश्लेषण किया गया था.

एआई ने पाया कि इनमें से सुशांत, परंजॉय, अब्दी, सिद्धार्थ और वेणु के फोन में पेगासस से छेड़छाड़ की गई थी. स्मिता शर्मा के मामले में विश्लेषण दिखाता है कि एप्पल के आईमैसेज सिस्टम को हैक करने का प्रयास किया गया, लेकिन इस बात का प्रमाण नहीं मिला कि वे फोन में पेगासस डालने में सफल हो सके. इसी तरह विजेता के फोन में छेड़छाड़ के प्रयास के सबूत तो मिलते हैं, लेकिन हैकिंग असफल रही है.

हालांकि परिणाम यह नहीं दर्शाते हैं कि हमलावर ने पेगासस का उपयोग करके क्या किया, लेकिन निम्नलिखित लोगों के लिए कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए गए है:
1. एसएनएम अब्दी: अप्रैल 2019, मई 2019, जुलाई 2019, अक्टूबर 2019 और दिसंबर 2019 के महीनों के दौरान पेगासस द्वारा फोन से छेड़छाड़ की गई. एमनेस्टी इसके तरीके (किस तरह स्पायवेयर फोन में पहुंचा) को सत्यापित नहीं कर सका.

2 . सुशांत सिंह: मार्च 2021 से जुलाई 2021 तक पेगासस द्वारा फोन से छेड़छाड़ की गई, जिसे एमनेस्टी इंटरनेशनल आईमैसेज सेवा में हुआ जीरो क्लिक एक्सप्लॉइट कहता है. ऐसे हमले को 'जीरो-क्लिक ' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें पीड़ितों को कुछ नहीं करना होता (जैसे एसएमएस या ई-मेल में आए किसी गलत इरादे वाले लिंक पर क्लिक करना अदि)

3. परंजॉय गुहा ठाकुरता: अप्रैल 2018, मई 2018, जून 2018 और जुलाई 2018 के दौरान पेगासस द्वारा फोन से छेड़छाड़ की गई. एमनेस्टी उस तरीके की पहचान करने में सक्षम नहीं रहा, जिसका इस्तेमाल स्पायवेयर की फोन में घुसपैठ के लिए किया गया.

4. एमके वेणु: एमनेस्टी के विश्लेषकों ने पाया कि फोन को हाल ही में जून 2021 तक जीरो क्लिक एक्सप्लॉइट के जरिये पेगासस से निशाना बनाया गया था.5. सिद्धार्थ वरदराजन: अप्रैल 2018 के कुछ हिस्सों के दौरान पेगासस द्वारा फोन से छेड़छाड़ की गई. डिजिटल फॉरेंसिक यह नहीं बता सका कि स्पायवेयर ने फोन को कैसे संक्रमित किया.मुख्यधारा के एक भारतीय अख़बार के वरिष्ठ संपादक के आईफोन का भी डिजिटल फॉरेंसिक विश्लेषण किया गया था, लेकिन चूंकि यह वह डिवाइस नहीं था जिसे पत्रकार संभावित निशाने के रूप में चुने जाने के समय इस्तेमाल कर रहे थे, एमनेस्टी पेगासस के प्रमाण खोजने में असमर्थ रहा.फॉरबिडेन स्टोरीज़ और द वायर  ने मुख्यधारा समेत अन्य कई पत्रकारों से फॉरेंसिक विशलेषण में शामिल होने के बाबत बात की, लेकिन उन्होंने उनके प्रबंधन द्वारा असहयोग और इस प्रक्रिया में अविश्वास जाहिर करने जैसे विभिन्न कारणों का हवाला देते हुए इसमें भाग लेने से इनकार कर दिया.

#vss



Sunday, 18 July 2021

wage slaves

People becomes "wage slaves"  of their work when they work under the rule of capital and big corporations and rich bosses plow the fields with the sweat and tears of those who they exploit. By abolishing wageslavery, they become master of their work.

सच मत बोलना..!



मलाबार के खेतिहरों को, 
अन्न चाहिए खाने को..!
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए, 
बिगड़ी बात बनाने को..!
जंगल में जाकर देखा, 
नहीं एक भी बांस दिखा..!
सभी कट गए सुना, 
देश को पुलिस रही सबक सिखा..!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, 
प्रजा विचित्र तुम्हारी है..!
भूख-भूख चिल्लाने वाली, 
अशुभ अमंगलकारी है..!
बंद सेल बेगूसराय में, 
नौजवान दो भले मरे..!
जगह नहीं है जेलों में, 
यमराज तुम्हारी मदद करे..!

ख्याल करो मत... 
जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का..!
फाड़-फाड़ कर गला, 
न कब से मना कर रहा अमरीका..!
बापू की प्रतिमा के आगे, 
शंख और घड़ियाल बजे..!
भुखमरों के कंकालों पर, 
रंग-बिरंगी साज़ सजे..!

ज़मींदार है, साहुकार है, 
बनिया है, व्योपारी है..!
अंदर-अंदर विकट कसाई, 
बाहर खद्दरधारी है..!
सब घुस आए भरा पड़ा है, 
भारतमाता का मंदिर..!
एक बार जो फिसले अगुआ, 
फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर..!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, 
छुट्टा घूमें हत्यारे..!
देखो, हंटर भांज रहे हैं, 
जस के तस ज़ालिम सारे..!
जो कोई इनके खिलाफ़, 
अंगुली उठाएगा बोलेगा..!
काल कोठरी में ही जाकर, 
फिर वह सत्तू घोलेगा..!

माताओं पर, बहिनों पर, 
घोड़े दौड़ाए जाते हैं..!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, 
सताए जाते हैं..!
मार-पीट है, लूट-पाट है, 
तहस-नहस बरबादी है..!
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है, 
वाह खूब आज़ादी है..!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें, 
जो भी मुंह पर लाएगा..!
कोई भी हो, निश्चय ही वह, 
कम्युनिस्ट कहलाएगा..!
नेहरू चाहे जिन्ना, 
उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं..!
जेलों में ही जगह मिलेगी, 
जाएगा वह जहां कहीं..!

सपने में भी सच न बोलना, 
वर्ना पकड़े जाओगे..!
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, 
मेवा-मिसरी पाओगे..!
माल मिलेगा रेत सको यदि, 
गला मजूर-किसानों का..!
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, 
चरण गहो श्रीमानों का..!

#बाबा नागार्जुन।

जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग • कॉमरेड वी.आई. लेनिन

जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग • कॉमरेड वी.आई. लेनिन
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हम देख चुके हैं कि अधिक से अधिक व्यापक राजनीतिक आंदोलन चलाना और इसलिए सर्वांगीण राजनीतिक भंडाफोड़ का संगठन करना गतिविधि का एक बिल्कुल ज़रूरी और सबसे ज़्यादा तात्कालिक ढंग से ज़रूरी कार्यभार है, बशर्ते कि यह गतिविधि सचमुच सामाजिक-जनवादी (कम्युनिस्ट) ढंग की हो। परंतु हम इस नतीजे पर केवल इस आधार पर पहुँचे थे कि मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शिक्षा और राजनीतिक ज्ञान की फ़ौरन ज़रूरत है। लेकिन यह सवाल को पेश करने का एक बहुत संकुचित ढंग है, कारण कि यह आम तौर पर हर सामाजिक-जनवादी आंदोलन के और ख़ास तौर पर वर्तमान काल के रूसी सामाजिक-जनवादी आंदोलन के आम जनवादी कार्यभारों को भुला देता है। अपनी बात को और ठोस ढंग से समझाने के लिए हम मामले के उस पहलू को लेंगे, जो "अर्थवादियों" के सबसे ज़्यादा "नज़दीक" है, यानी हम व्यावहारिक पहलू को लेंगे। "हर आदमी यह मानता है" कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को बढ़ाना ज़रूरी है।

सवाल यह है कि यह काम कैसे किया जाए, इसे करने के लिए क्या आवश्यक है? आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को केवल मज़दूर वर्ग के प्रति सरकार के रवैये से संबंधित सवाल उठाने की "प्रेरणा देता है" और इसलिए हम "आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने" की चाहे जितनी भी कोशिश करें, इस लक्ष्य की सीमाओं के अंदर-अंदर रहते हुए हम मज़दूरों की राजनीतिक चेतना को कभी नहीं उठा पायेंगे, कारण कि ये सीमाएँ बहुत संकुचित हैं। मार्तीनोव का सूत्र हमारे लिए थोड़ा-बहुत महत्त्व रखता है, इसलिए नहीं कि उससे चीज़ों को उलझा देने की मार्तीनोव की योग्यता प्रकट होती है, बल्कि इसलिए कि उससे वह बुनियादी ग़लती साफ़ हो जाती है, जो सारे "अर्थवादी" करते हैं, अर्थात उनका यह विश्वास कि मज़दूरों की राजनीतिक वर्ग चेतना को उनके आर्थिक संघर्ष के अंदर से बढ़ाया जा सकता है, अर्थात इस संघर्ष को एकमात्र (या कम से कम मुख्य) प्रारंभिक बिंदु मानकर, उसे अपना एकमात्र (या कम से कम मुख्य) आधार बनाकर राजनीतिक वर्ग चेतना बढ़ाई जा सकती है। यह दृष्टिकोण बुनियादी तौर पर ग़लत है। "अर्थवादी" लोग उनके ख़िलाफ़ हमारे वाद-विवाद से नाराज़ होकर इन मतभेदों के मूल कारणों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से इंकार करते हैं, जिसका यह परिणाम होता है कि हम एक-दूसरे को क़तई नहीं समझ पाते, दो अलग-अलग ज़बानों में बोलते हैं।

मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना बाहर से ही लाई जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के संबंधों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के संबंधों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी संबंधों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि "मज़दूरों के बीच जाओ" – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव "अर्थवाद" की ओर है, यह जवाब देकर ही सं‍तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।

हमने इस बेडौल सूत्र को जानबूझकर चुना है, हमने जानबूझकर अपना मत अति सरल, एकदम दो-टूक ढंग से व्यक्त किया है – इसलिए नहीं कि हम विरोधाभासों का प्रयोग करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि हम "अर्थवादियों" को वे काम करने की "प्रेरणा देना" चाहते हैं, जिनको वे बड़े अक्षम्य ढंग से अनदेखा कर देते हैं, हम उन्हें ट्रेडयूनियनवादी राजनीति और सामाजिक-जनवादी राजनीति के बीच अंतर देखने की "प्रेरणा देना" चाहते हैं, जिसे समझने से वे इंकार करते हैं। अतएव हम पाठकों से यह प्रार्थना करेंगे कि वे झुँझलाएँ नहीं, बल्कि अंत तक ध्यान से हमारी बात सुनें।

पिछले चंद बरसों में जिस तरह का सामाजिक-जनवादी मंडल सबसे अधिक प्रचलित हो गया है, उसे ही ले लीजिए और उसके काम की जाँच कीजिए। "मज़दूरों के साथ उसका संपर्क" रहता है और वह इससे संतुष्ट रहता है, वह परचे निकालता है, जिनमें कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों, पूँजीपतियों के साथ सरकार के पक्षपात और पुलिस के ज़ुल्म की निंदा की जाती है। मज़दूरों की सभाओं में जो बहस होती है, वह इन विजयों की सीमा के बाहर कभी नहीं जाती या जाती भी है, तो बहुत कम। ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास के बारे में, हमारी सरकार की घरेलू तथा वैदेशिक नीति के प्रश्नों के बारे में, रूस तथा यूरोप के आर्थिक विकास की समस्याओं के बारे में और आधुनिक समाज में विभिन्न वर्गों की स्थिति के बारे में भाषणों या वाद-विवादों का संगठन किया जाता है। और जहाँ तक समाज के अन्य वर्गों के साथ सुनियोजित ढंग से संपर्क स्थापित करने और बढ़ाने की बात है, उसके बारे में तो कोई सपने में भी नहीं सोचता। वास्तविकता यह है कि इन मंडलों के अधिकतर सदस्यों की कल्पना के अनुसार आदर्श नेता वह है, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेडयूनियन के सचिव के रूप में अधिक काम करता है, क्योंकि हर ट्रेडयूनियन का, मिसाल के लिए, किसी ब्रिटिश ट्रेडयूनियन का सचिव आर्थिक संघर्ष चलाने में हमेशा मज़दूरों की मदद करता है, वह कारख़ानों में होनेवाले अनाचारों का भंडाफोड़ करने में मदद करता है, उन क़ानूनों तथा पगों के अनौचित्य का पर्दाफ़ाश करता है, जिनसे हड़ताल करने और धरना देने (हर किसी को यह चेतावनी देने के लिए कि अमुक कारख़ाने में हड़ताल चल रही है) की स्वतंत्रता पर आघात होता है, वह मज़दूरों को समझाता है कि पंच-अदालत का जज, जो स्वयं बुर्जुआ वर्गों से आता है, पक्षपातपूर्ण होता है, आदि, आदि। सारांश यह कि "मालिकों तथा सरकार के ख़िलाफ़ आर्थिक संघर्ष" ट्रेडयूनियन का प्रत्येक सचिव चलाता है और उसके संचालन में मदद करता है। पर इस बात को हम जितना ज़ोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने ही से सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता, कि सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेडयूनियन का सचिव नहीं, बल्कि एक ऐसा जन-नायक होना चाहिए, जिसमें अत्याचार और उत्पीड़न के प्रत्येक उदाहरण से, वह चाहे किसी भी स्थान पर हुआ हो और उसका चाहे किसी भी वर्ग या स्तर से संबंध हो, विचलित हो उठने की क्षमता हो; इसमें इन तमाम उदाहरणों का सामान्यीकरण करके पुलिस की हिंसा तथा पूँजीवादी शोषण का एक अविभाज्य चित्र बनाने की क्षमता होनी चाहिए; उसमें प्रत्येक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, लाभ उठाकर अपने समाजवादी विश्वासों तथा अपनी जनवादी माँगों को सभी लोगों को समझा सकने और सभी लोगों को सर्वहारा के मुक्ति-संग्राम का विश्व-ऐतिहासिक महत्त्व समझा सकने की क्षमता होनी चाहिए।…

मुख्य बात है जनता के सभी स्तरों के बीच प्रचार और आंदोलन।… हमें आबादी के उन सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभाएँ बुलाने में भी समर्थ होना चाहिए, जो किसी जनवादी की बातों को सुनना चाहते हैं, कारण कि वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि "कम्युनिस्ट हर क्रांतिकारी आंदोलन का समर्थन करते हैं", कि इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि अपने समाजवादी विश्वासों को एक क्षण के लिए भी न छिपाते हुए हम समस्त जनता के सामने आम जनवादी कार्यभारों की व्याख्या करें तथा उन पर ज़ोर दें। वह आदमी सामाजिक-जनवादी नहीं है, जो व्यवहार में यह भूल जाता है कि सभी आम जनवादी समस्याओं को उठाने, तीक्ष्ण बनाने और हल करने में उसे और सब लोगों से आगे रहना है।…

हमें अपनी पार्टी के नेतृत्व में एक सर्वांगीण राजनीतिक संघर्ष इस तरह संगठित करने का काम अपने हाथ में लेना होगा कि इस संघर्ष को तथा इस पार्टी को विरोध-पक्ष के सभी हिस्सों से अधिक से अधिक समर्थन मिले। हमें अपने सामाजिक-जनवादी व्यावहारिक कार्यकर्त्ताओं में से ऐसे राजनीतिक नेता प्रशिक्षित करने होंगे, जिनमें इस सर्वांगीण संघर्ष के प्रत्येक रूप का नेतृत्व करने की क्षमता हो और जो बेचैन विद्यार्थियों, जेम्स्त्वो के असंतुष्ट सदस्यों, धार्मिक संप्रदायों के खिन्न लोगों, नाराज प्राथमिक शिक्षकों, आदि सभी लोगों के लिए सही समय पर "काम का एक सकारात्मक कार्यक्रम निर्दिष्ट" कर सकें।…

राजनीतिक भंडाफोड़ के लिए सबसे आदर्श श्रोता मज़दूर वर्ग होता है, जो सर्वांगीण तथा सजीव राजनीतिक ज्ञान की आवश्यकता के मामले में सबसे अव्वल और सबसे आगे है, और इस ज्ञान को सक्रिय संघर्ष में परिणत करने की क्षमता भी उसी में सबसे ज़्यादा होती है, भले ही उससे "कोई ठोस नतीजे" निकलने की उम्मीद न हो।

('क्या करें' पुस्तक से)

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 8 ♦ जुलाई 2021 में प्रकाशित

Saturday, 17 July 2021

अदम गोंडवी

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे 
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे 
सुरा व सुंदरी के शौक़ में डूबे हुए रहबर 
दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे 
ये वंदेमातरम् का गीत गाते हैं सुबह उठकर 
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगना दाम कर देंगे 
सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे 
अगली योजना में घूसख़ोरी आम कर देंगे 
~ अदम गोंडवी

MasterCard

MasterCard एक अमेरिकन कंपनी है जिसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने बैन कर दिया है। भारत में मास्टर कार्ड का मार्केट शेयर करीब-करीब एक तिहाई है। बैन करने के पीछे मुख्य कारण यह है कि 2018 में बने डाटा स्टोरेज कानून के प्रावधान का, जिसके द्वारा डाटा को भारत में ही स्टोर करना जरूरी है,  उल्लंघन किया गया था। यह उनलोगों लिए  एक आश्चर्य की बात हो सकती है जो भारत को एक उपनिवेश या आर्थिक या अर्ध-उपनिवेश   देश मानते हैं।

Thursday, 15 July 2021

तुम मौत को नहीं पहचानते..- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

मेरे दोस्तों!
तुम मौत को नहीं पहचानते..

चाहे वह आदमी की हो
या किसी देश की
चाहे वह समय की हो
या किसी वेश की

सब कुछ धीरे धीरे ही होता है
धीरे धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं
गिलास भरता है

धीरे धीरे ही
आत्मा ख़ाली होती है
आदमी मरता है!

— सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Wednesday, 14 July 2021

फासीवाद विरोधी एकता

मूल क्रांतिकारी दिशा में यदि भटकाव ना आता हो तो लेनिन सर्वहारा वर्ग ख़ेमे को सशक्त करने और पेटी बुर्जुआ वर्ग को शत्रु वर्ग के खेमे से अलग करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे. मेंशेविकों से 1912 में पूरी तरह अलग हो जाने और अंतरिम सरकार में उनके शामिल होने के बावजूद भी उनको साथ लेने की संभावना की ये बात लेनिन 1917 की 31 मई को कह रहे हैं. 

हमारे देश में क्रांतिकारियों की फासीवाद विरोधी एकता की बात शुरू होते ही कईयों को अतिक्रन्तिकारिता के मिरगी के दौरे पड़ने लगते हैं. दरअसल मतभेद के बावजूद एकता का प्रयास लेनिन के आत्म विश्वास को रेखांकित करता है और हमारे क्रांतिकारियों में आत्म विश्वास की कंगाली को. 
  
"Unity is desirable immediately........

"The Central Committee will be asked to set up a special Organising Committee to summon a Party Congress (in six weeks' time). The Inter-District Conference will be entitled to appoint two delegates to this committee. If the Mensheviks, adherents of Martov, break with the 'defencists', it would be desirable and essential to include their delegates on the above-mentioned committee.

(Draft read by N. Lenin on May 10, 1917, in his own name and in the name of several members of the Central Committee.)

अंतरजिला समिति द्वारा प्रस्ताव 

"b) that not a single labour organisation, be it a trade union, an educational club, or a consumers' co-operative society, and not a single labour newspaper or periodical should refrain from enlisting under that banner;
"c) at the same time, the Conference declares itself to be decidedly and ardently in favour of unity on the basis of those decisions.

(LCW vol 24 page 438)

Tuesday, 13 July 2021

जनसंख्या नियंत्रण कानून की ज़रूरत या फिर माहौल बिगाड़ने का प्रयास?


पिछले लम्बे समय से भाजपाईयों-संघियों द्वारा मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर उन्हें तेज़ी से जनसंख्या बढ़ाने का ज़िम्मेदार बताया जाता रहा है, उन्हें इसे संख्याबल में हिन्दुओं से आगे निकलकर भारत को इस्लामिक देश बनाने की साज़िश की तरह प्रचारित किया जाता है, इसे हिन्दुओं के लिये सबसे बड़े आसन्न ख़तरे के रूप में दिखाया जाता है। इसी ख़तरे को कम करने के नाम पर कई संघियों /कट्टरपंथियों द्वारा हिन्दुओं को ज़्यादा बच्चे पैदा करने को भी उकसाया जाता रहा है। 

अब यूपी चुनाव के ठीक पहले योगी आदित्यनाथ ने जनसंख्या विस्फोट को रोकने के नाम पर उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति 2021-2030 जारी कर दी है।

ऐसे में यह या जानने की ज़रूरत है कि क्या वास्तव में उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन रही है?

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के अनुसार किसी जनसंख्या विस्फोट की स्थिति तब आती है, जब लगातार तेज़ी से जनसंख्या बढ़ रही हो और प्रजनन दर भी 4 से ऊपर हो। प्रजनन दर का मतलब है एक औरत औसतन कितने बच्चे पैदा करती है।

उत्तर प्रदेश की बात करें, तो 2001 से 2011 के बीच जनसंख्या बढ़ने की रफ़्तार में 5.6 फ़ीसदी की कमी आई है, 2001 में यह 25.8% थी जो 2011 में घटकर 20.2% रह गयी है, मतलब ये कि उत्तर प्रदेश की आबादी लगातार बढ़ तो रही है, लेकिन बढ़ने की स्पीड में कमी आई है। 
उसी तरह से उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक में प्रजनन दर में भारी कमी आई है। 2005-06 में नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़ों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर 3.8 थी, जो 2015-16 में घट कर 2.7 रह गई है. जबकि भारत का राष्ट्रीय औसत 2.2 है।

एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 2025 तक प्रजनन दर 2.1 पहुँच जायेगी, जो रिप्लेसमेंट रेसियो के क़रीब है।
रिप्लेसमेंट रेसियो 2.1 का मतलब है, दो बच्चे पैदा करने से पीढ़ी दर पीढ़ी वंश चलता रहेगा, न जनसंख्या वृद्धि न कमी, यह एक आदर्श स्थिति मानी जाती है। (प्वाइंट वन इसलिए क्योंकि कभी-कभी कुछ बच्चों की मौत छोटी उम्र में हो जाती है.)
उक्त आँकड़े दिखाते है कि दोनों लिहाज से (जनसंख्या वृद्धि दर और प्रजनन दर) उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति तो क़तई नहीं बन रही है, अव्वल तो अब यह कोई चिंता का विषय ही नहीं रह गयी है।

जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में यह जान लेना भी उचित होगा कि क्या आज के भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन रही है? 
   
भारत के प्रति 10 वर्ष की जनसंख्या वृद्धि दर और प्रजनन दर के आंकडों पर नज़र डालें तो ऐसा कोई ख़तरा नहीं दिखता है। यदि पिछले चार दशक की वृद्धि दर की बात की जाये तो यहाँ लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है-

     कालखंड                     वृद्धि दर (प्रति दशक)
1971 से 1981                 24. 66%
1981 से 1991                 23. 87%
1991 से 2001                 21. 54%
2001 से 2011                 17. 64%
     
उसी तरह प्रजनन दर के आँकड़े भी कहीं विस्फोटक होती स्थिति नहीं दिखाते हैं, बल्कि यह दर भी तेज़ी से गिर रही है।
1951 में प्रति महिला औसतन 6 बच्चों को जन्म देती थी, 2011 में यह संख्या आधे से अधिक गिरावट के साथ 2.7 पर आ गई। सर्वे बताते हैं कि 2020-2021 में और गिरावट के साथ प्रति महिला औसतन 2.3 बच्चें जन रही है (2021 के जनगणना के आँकड़े अभी आने बाक़ी हैं)।

जनसंख्या वृद्धि के कारणों को तलाशने के लिये अगर राज्यों के स्तर पर आँकड़ों को देखा जाये तो एक और बात स्पष्ट होती है कि जहाँ साक्षरता का स्तर बेहतर व ग़रीबी कम है वहाँ जनसंख्या बढ़ना लगभग रुक गया है, जबकि ग़रीब व अशिक्षित राज्यों में यह दर धीमी गति से कम हो रही है।
2011 में भारत की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 17.64% थी, उसी दौर में कुछ प्रतिनिधिक राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर निम्नवत थी-

बिहार          25.07%
राजस्थान     21.40%
उत्तर प्रदेश    20.09%
मध्य प्रदेश    20.30%
गुजरात        19.20%
केरल           4.90%
गोवा            8.20%
आंध्र प्रदेश    11.10%

इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि विहार, राजस्थान, यूपी जैसे पिछड़े राज्यों की अपेक्षा केरल, गोवा, आंध्र प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत शिक्षित व उन्नत राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर बहुत कम है, ये आँकड़े दिखाते हैं कि जनसंख्या वृद्धि का सीधा सम्बन्ध अशिक्षा व ग़रीबी से है न कि किसी धर्म विशेष से। केरल में मुस्लिम आवादी 26.6% है जो कि समूचे भारत की औसत मुस्लिम आवादी (14.2%) के लगभग दुगुनी है लेकिन शिक्षा का स्तर बेहतर होने की वजह से वहाँ की जनसंख्या वृद्धि दर (4.9%) जो कि भारत के औसत वृद्धि दर (17.64%) के तिहाई से भी कम है।

अगर हम पूरे देश के हिन्दू मुस्लिम आवादी का तुलनात्मक अध्ययन भी करते हैं तो संघियों द्वारा मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ चार-चार बीबियाँ रखने, दस-दस बच्चे पैदा करने, किसी साज़िश के तहत ऐसा करने का कुत्साप्रचार टूट कर बिखर जाता है-

जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच हिंदू आबादी 16.76 फीसदी की तेजी से और मुस्लिम आबादी 24.6 फीसदी की तेजी से बढ़ी। इससे पिछले दशक में हिंदुओं की आबादी 19.92 फीसदी की तेजी से और मुस्लिमों की आबादी 29.52 फीसदी की तेजी से बढ़ी थी। यानी कि बेशक मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की दर हिंदुओं से तेज है (इसकी वजह मुस्लिमों में अपेक्षाकृत अधिक अशिक्षा व ग़रीबी रही है) पर अब दोनों धर्मों की आबादी की वृद्धि दर का अंतर तेजी से कम हो रहा है।

हाल ही में प्यू रिसर्च की फ्यूचर ऑफ वर्ल्ड रिलीजन रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अब मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर तेजी से कम हो रही है और 2050 तक हिन्दुओं व मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग बराबर हो जाएगी।

उक्त सभी आँकड़े दिखाते हैं कि न तो भारत में अब जनसंख्या विस्फोट का ख़तरा रह गया है न ही हिन्दू आवादी पर मुस्लिम आवादी के बहुमत जैसी कोई स्थिति अगली कई सदियों तक होने वाली है। 

अगर जनसंख्या वृद्धि फिर भी किसी हद तक चिंता का विषय लगती है तो उसे दुरस्त करने के लिये सरकारों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, महिला सशक्तिकरण जैसे जनकल्याण के मुद्दों पर ज़ोर देना चाहिये जिससे जनसंख्या वृद्धि स्वतः ही कुछ सालों में न्यूनतम स्तर पर पहुँच जायेगी।

लेकिन इन मूल मुद्दों पर पूर्णतः विफल होने पर ये फ़ासिवादी सरकारें इनसे जनता का ध्यान भटकाने, हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे को चुनावों से पहले जनता के बीच उछालने के लिये झूठ व नफ़रत की ज़मीन पर खड़े किये गये इन तुग़लकी फ़ैसलों के दम पर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिशें कर रही हैं, अपनी नाकामियों को छुपाने के लिये एक छद्म मुद्दा खड़ा कर रही हैं।

—धर्मेन्द्र आज़ाद



Sunday, 11 July 2021

हरिशंकर परसाई

प्रश्न : हिन्दुओं को एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नहीं है, पर मुसलमान 3-4 पत्नियाँ रख सकता है . ऐसे में एक दिन हिन्दू अल्पसंख्यक नहीं हो जाएँगे?

हरिशंकर परसाई जी का उत्तर : जो आप कह रहे हैं वह 'विश्व हिन्दू परिषद्' और 'आरएसएस' का प्रचार है . आपको कई भ्रमों में फँसा लिया गया है . इस देश पर सात सौ साल मुसलमानों का शासन रहा है फिर भी हिन्दू कम नहीं हुए. अभी हिन्दू 85 फीसदी हैं . मगर हिन्दू हैं कौन? अछूत तथा नीची जाति के लोग क्या हिन्दू हैं ? ये हिन्दू हैं तो ऊंची जाति के लोग इन्हें छोटे क्यों नहीं? इन्हें सामूहिक रूप से क्यों मारते हैं? इनके झोपड़े क्यों जलाते हैं? हिन्दू कोई नहीं है - ब्राह्मण हैं, कायस्थ हैं, अग्रवाल हैं, बढई हैं, नाई हैं, भंगी हैं, चमार हैं.
एक बात सोचिये, हज़ारों सालों से इस देश में हिन्दू हमेशा करोडो रहे हैं और हमला करने वाले सिर्फ हज़ारों . मगर हारे हिन्दू ही हैं . नादिरशाह के पास सिर्फ एक हज़ार सिपाही थे . अगर हिन्दू पत्थर मारते तो भी वे मर जाते . दस हज़ार अंग्रेज़ तीस करोड़ भारतीयों पर राज करते रहे हैं . संख्या से कुछ नहीं होता .
आप सौ मुसलामानों का यूं ही पता लगाइए . इनमें कितनों की 3-4 बीवियाँ हैं . आपको किसी की नहीं मिलेगी . हज़ारों में कोई एक मुसलमान एक से ज्यादा बीवी रखता है बाकि सब एक बीवी ही रखते हैं . मुसलमान नसबंदी कराते हैं . मुसलमान औरतें भी ऑपरेशन कराती हैं . अभी संख्या ज़रूर कुछ कम है .
अच्छा हिन्दू बढाने के लिए संतति निरोध बंद कर देते हैं और हर हिन्दू को 3-4 पत्नियाँ रखने का अधिकार दे दें तो बेहिसाब हिन्दू पैदा होंगे . पर आम हिन्दू के 15-20 बच्चे होंगे इन्हें वो कैसे पालेगा? क्या खिला सकेगा? कपडे पहना सकेगा? शिक्षा दे सकेगा? ये भुखमरे, मरियल , अशिक्षित करोड़ों हिन्दू होंगे या कीड़ें और केचुएँ? क्या कीड़ें और केचुए से किसी जाति की उन्नति होती है?
आबादी बढ़ती रही तो कितना ही उत्पादन हो, हम भूखे और गरीब रहेंगे, मगर हिन्दू-मुसलमान दोनों के साम्प्रदायिक नेता अपनी जाति बढ़ाने के लिए कहते हैं. जो बात विश्व हिन्दू परिषद् वाले और आरएसएस वाले हिन्दुओं से कहते हैं वैसी ही बात मुल्ला मुसलामानों से कहते हैं - नसबंदी मत कराओ. मुसलमान बढ़ाओ. अब मुसलामानों की गरीबी, अशिक्षा आदि देखो.
शैतान धार्मिक नेताओं और सांप्रदायिक राजनीतिवालों ने यह सिखा दिया है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों के जीवन का एकमात्र उद्देश्य और महान राष्ट्रिय कर्म एक दुसरे को दबाना है. यह हद दर्जे की बेवकूफी और बदमाशी है. ऐसा सिखाना देशद्रोह और राष्ट्रद्रोह है. हमें भारतीयता के नज़रिए से सोचना चाहिऐ.

#देशबंधु > पूछो परसाई से (अंक दिनाँक:  5 फरवरी 1984)

#जेनी_मार्क्स 

साम्यवाद के जन्मदाता #कार्ल_मार्क्स अपना अमर ग्रंथ '#दास_कैपिटल' लिखने में तल्लीन थे. इस कार्य के लिए उन्हें पूरा समय पुस्तकालयों से नोट वगैरह लेने में लगाना पड़ता था. ऐसे में परिवार का निर्वाह उनके लिए एक बड़ी परेशानी बन गया. उन्हें बच्चे भी पालने थे और अध्ययन सामग्री भी जुटानी थी. दोनों ही कार्यों के लिए उन्हें पैसा चाहिए था. इन विकट स्थितियों में मार्क्स की पत्नी आगे आई.

    उन्होंने पैसों की समस्या से निपटने के लिए एक गृह उद्योग शुरू किया. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस गृह उद्योग के लिये वो कबाडि़यों की दुकानों से पुराने कोट खरीदकर लाती और उन्हें काटकर बच्चों के लिए छोटे-छोटे कपड़े बनाती. इन कपड़ों को वे एक टोकरी में रख मोहल्ले में घूम बेच आती. आज शायद यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मार्क्स की पत्नी की इसी कर्मठता के कारण ही उन्हें 'दास कैपिटल' जैसा ग्रंथ पढ़ने को मिला.
 
      महान दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रणेता कार्ल मार्क्स को जीवनपर्यंत घोर अभाव में जीना पड़ा. परिवार में सदैव आर्थिक संकट रहता था और चिकित्सा के अभाव में उनकी कई संतानें काल-कवलित हो गई. जेनी वास्तविक अर्थों में कार्ल मार्क्स की जीवनसंगिनी थी और उन्होंने अपने पति के आदर्शों और युगांतरकारी प्रयासों की सफलता के लिए स्वेच्छा से गरीबी और दरिद्रता में जीना पसंद किया.

जर्मनी से निर्वासित हो जाने के बाद मार्क्स लन्दन में आ बसे. लन्दन के जीवन का वर्णन जेनी ने इस प्रकार किया है – "मैंने फ्रेंकफर्ट जाकर चांदी के बर्तन गिरवी रख दिए और कोलोन में फर्नीचर बेच दिया. लन्दन के मंहगे जीवन में हमारी सारी जमापूँजी जल्द ही समाप्त हो गई. सबसे छोटा बच्चा जन्म से ही बहुत बीमार था. मैं स्वयं एक दिन छाती और पीठ के दर्द से पीड़ित होकर बैठी थी कि मकान मालकिन किराये के बकाया पाँच पौंड मांगने आ गई. उस समय हमारे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था. वह अपने साथ दो सिपाहियों को लेकर आई थी. उन्होंने हमारी चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने, और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क कर लिए. सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर मैं कठोर फर्श पर पड़ी हुई थी. दूसरे दिन हमें घर से निकाल दिया गया. उस समय पानी बरस रहा था और बेहद ठण्ड थी. पूरे वातावरण में मनहूसियत छाई हुई थी."

    ऐसे में ही दवावाले, राशनवाले, और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उनके सामने खड़े हो गए. मार्क्स परिवार ने बिस्तर आदि बेचकर उनके बिल चुकाए.

ऐसे कष्टों और मुसीबतों से भी जेनी की हिम्मत नहीं टूटी. वे बराबर अपने पति को ढाढस बांधती थीं कि वे धीरज न खोयें.

कार्ल मार्क्स के प्रयासों की सफलता में जेनी का अकथनीय योगदान था. वे अपने पति से हमेशा यह कहा करती थीं – "दुनिया में सिर्फ़ हम लोग ही कष्ट नहीं झेल रहे हैं."

मित्रों, जेनी ने बहुत मेहनत की, दरिद्र जैसी जिन्दगी जी, फिर भी कार्ल मार्क्स का कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया. जेनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि बहुत ही शानदार थी. जेनी प्रशिया के अभिजात वर्ग के एक प्रमुख परिवार Salzwedel में पैदा हुई थी.

   जेनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि
नाम जोहन्ना बर्था जूली जेनी वॉन Westphalen
जन्म 12 फ़रवरी 1814
मृत्यु 2 दिसंबर, 1881
पिता लुडविग वॉन Westphalen (1770-1842), Salzwedel में और ट्रायर में "Regierungsrat"(सर्वोच्च अधिकारी) के रूप में कार्य करते थे.

   मित्रों, इतिहास ऐसे गुमनाम सितारों से भरा हुआ है. इतिहास गवाह है, हर कामयाब पुरुष के पीछे उसकी पत्नी की बहुत बड़ी भूमिका रही है. जेनी की महानता इस तथ्य को साबित करती है.

#Post_by:- Raman Kumar



Saturday, 10 July 2021

स्वास्थ का अधिकार



संविधान की बात करें तो यह सत्य है कि इसके अंतर्गत कहीं विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया गया है, परंतु उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करते हुए इसके अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार माना गया है। संविधान का अनुच्छेद 21, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। 

लेकिन व्यवहार में यह गारंटी कितना खोखला है, यह मिहनतकस जनता संविधान निर्माण के समय से ही देखती आ रही है, और कोरोना काल मे तो इस 'स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी' की धज्जियां उड़ते हम सभी ने अच्छी तरह देखा है। इस काल मे न केवल मिहनतकस जनता बल्कि मध्यम वर्ग के कई लोग समुचित इलाज के आभाव में अपनी जाने गवाई।

पिछले कई दशकों से स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी कॉर्पोरेट हॉस्पिटल के हाथों जाते हुए और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा को दम तोड़ते हुए हम देख रहे है। कोरोना के बढ़ते कहर ने इसे (सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के पतन को) और तेज कर दिया है और स्वास्थ्य व्यवस्था को दुर्दशा के कगार पर पहुंचा दिया है, मिहनतकस जनता के पहुचं से बहुत बाहर। नतीजा हमारे सामने है: आक्सीजन के लिये गुहार लगाते लोग, दवाइयों के लिये तरस्ते तड़पते लोग और अव्यवस्था के सामने दम तोड़ते लोग। एक भयंकर सामाजिक त्रासदी हम पर लाद दिया गया है और हम पूरी तरह विवश है- निजी कॉर्पोरेट अस्पतालों, राजनीतिज्ञों, न्यायाधीशों, विद्वानों और व्यापारियों के गिद्ध गिरोह के सामने एकदम विवश।

इस लिये व्यवहार में व्यापक मिहनतकस जनता के लिये स्वास्थ्य का अधिकार न तो मौलिक है और न ही सांवैधानिक।

Friday, 9 July 2021

भिखारी ठाकुर

बिहार में लोक नाट्य परंपरा के जनक, भिखारी ठाकुर(18.12.1887 - 10.07.1971) जिनको दुनिया भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से भी जानती है। 
ध्रुव गुप्त
( Dhruv Gupt )

#स्मरण 
#भिखारीठाकुर 
जयंती : भिखारी ठाकुर
रंगवा में भंगवा परल हो बटोहिया !

लोकभाषा भोजपुरी की साहित्य-संपदा की जब चर्चा होती है तो सबसे पहले जो नाम सामने आता है, वह है स्व भिखारी ठाकुर का। वे भोजपुरी साहित्य के ऐसे शिखर हैं जिसे न उनके पहले किसी ने छुआ था और न उनके बाद कोई उसके निकट भी पहुंच सका। भोजपुरिया जनता की जमीन, उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं,उसकी आशा-आकांक्षा तथा राग-विराग की जैसी समझ भिखारी ठाकुर को थी, वैसी किसी अन्य भोजपुरी कवि-लेखक में दुर्लभ है। वे भोजपुरी माटी और अस्मिता के प्रतीक थे। लगभग अनपढ़ होने के बावजूद बहुआयामी प्रतिभा के धनी भिखारी ठाकुर एक साथ कवि, गीतकार, नाटककार, निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। अपनी मिट्टी से गहरे जुड़े इस ठेठ गंवई कलाकार ने भोजपुरी की प्रचलित नाटक, नृत्य, गायन और अभिनय की शैलियों में जो अभिनव प्रयोग किए थे, वे दूरगामी सिद्ध हुए। उनकी नई नाट्य-शैली को बिदेसिया कहा गया। आज भी बिदेसिया भोजपुरी की सबसे ज्यादा लोकप्रिय नाट्य-शैली है। सामाजिक समस्याओं और विकृतियों को टटोलने और उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले उनके नाटकों के कारण साहित्य के जानकार भिखारी ठाकुर को भोजपुरी के शेक्सपियर कहते हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें देखने-सुनने के बाद उन्हें 'अनगढ़ हीरा' कहा तथा सुप्रसिद्ध नाटककार और लेखक जगदीशचंद्र माथुर ने उन्हें भरत मुनि की परंपरा का कलाकार बताया था। 

बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर गांव के गरीब नाई परिवार में जन्मे भिखारी ठाकुर का बचपन अभावों में बीता था। उन्हें नाम मात्र की ही स्कूली शिक्षा प्राप्त हो सकी। किशोरावस्था में रोजगार की तलाश में वे बंगाल के खडगपुर गए जहां उनके एक रिश्तेदार ने नाई के पारंपरिक काम में लगा दिया। नाईगिरी से समय निकाल कर वे लोगों के सामने रामायण का पाठ करते थे। खड़गपुर से वे नए रोजगार की तलाश में पुरी गए जहां मज़दूरों के साथ रहते हुए उन्हें लोक गायिकी का चस्का लगा। बरसों तक मज़दूर दोस्तों के साथ स्वान्तः सुखाय गाते रहे। लोगों ने हौसला अफ़ज़ाई की तो उन्हें ख्याल आया कि लोक गायिकी को पेशा भी बनाया जा सकता है। इरादा मज़बूत हुआ तो एक दिन रोजगार छोड़कर घर लौटे और गांव में कुछ मित्रों को साथ लेकर एक छोटी-सी रामलीला मंडली बना ली। रामलीला के मंचन में उन्हें थोड़ी-बहुत सफलता ज़रूर मिली, लेकिन यह उनका गंतव्य नहीं था। उनके भीतर के कलाकार ने बेचैन किया तो वे खुद नाटक और गीत लिखने और उन्हें गांव-गांव घूमकर मंचित करने लगे। नाटकों में सीधी-सादी लोकभाषा में गांव-गंवई की सामाजिक और पारिवारिक समस्याएं होती थीं जिनसे लोग सरलता से जुड़ जाया करते थे। भिखारी ठाकुर खुद एक सुरीले गायक थे, इसीलिए लोक संगीत उन नाटकों की जान हुआ करता था। फूहड़ता का कहीं नामोनिशान नहीं। उनके तमाम नाटक परिवार के साथ देखने लायक होते थे। 

भोजपुरी समाज के अभिजात्य वर्ग द्वारा उनके नाटकों को गंवई कहा गया और उन्हें व्यक्तिगत रूप से अपमानित और हतोत्साहित करने की तमाम कोशिशें हुईं। उन्हें नचनिया भी कहा गया, लौंडा भी और भिखरिया भी। उनकी जाति को लेकर उनके साथ दुर्व्यवहार हुए। सामंतों के तमाम अपमान सहते हुए भी उनकी मंडली ने लोकनाट्य और लोकसंगीत का अलख जगाए रखा। विरोध के बावजूद धीरे-धीरे उनके संगीत प्रधान नाटकों की ख्याति बढ़ती चली गई। गांवों के सीधे-सरल लोगों ने उनके नाटकों और गीतों में अपनी छवि और अपनी समस्याएं देखीं और उनसे तादात्म्य बिठाया। उस दौर में उनके नाटकों की लोकप्रियता का आलम यह था कि उन्हें देखने-सुनने के लिए लोग खुशी-खुशी दस-दस, बीस-बीस कोस की पैदल यात्राएं करते थे। 
 
भिखारी ठाकुर ने जिन नाटकों की रचना की थी, उनमें से कुछ प्रमुख हैं - बिदेसिया, गबरघिचोर, भाई विरोध, बेटी बेचवा, कलयुग प्रेम, विधवा विलाप, गंगा अस्नान, ननद-भौजाई संवाद, पुत्र-वध, राधेश्याम बहार, द्रौपदी पुकार, बहरा बहार और बिरहा-बहार। उस दौर के प्रचलित नाटकों से अलग कथ्य और शैली में लिखे अपने नाटकों को वे खुद नाटक नहीं, नाच या तमासा कहते थे। उन नाटकों के पात्र समाज के श्रमिक, किसान और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे आम लोग होते थे। अपने कुछ मित्रों और नाटक प्रेमियों के बहुत जोर देने के बाद भी भिखारी ठाकुर ने राजाओं, जमींदारों अथवा प्रचलित लोकनायकों की गाथाएं नहीं लिखीं। पूछने पर वे कहते थे - 'राजा-महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्वान लोग लिखेंगे। मुझे तो अपने जैसे मुह्दूबर लोगों की बातें लिखने दें। 'बिदेसिया' आज भी उनका सबसे लोकप्रिय नाटक है जिसमें एक ऐसी पत्नी की विरह-व्यथा है जिसका मजदूर पति रोजी कमाने शहर गया और किसी दूसरी स्त्री का हो गया। 'बिदेसिया' में उन्होंने बिहार से गांवों से रोजी-रोज़गार के लिए विस्थापित होने वाले लोगों की पीड़ा और संघर्षों को स्वर दिया है। इस नाटक की करुणा पढने-सुनने वालों को गहरे तक छूती है। अपने लगभग तमाम नाटकों में उन्होंने स्त्रियों और दलितों की कारुणिक स्थिति के चित्र भी खींचे और उनके संघर्षों को भी अभिव्यक्ति दी। भोजपुरिया इलाकों में व्याप्त कुप्रथाओं और अंधविश्वासों पर चोट उनके नाटकों का मुख्य उद्धेश्य होता था। उन दिनों गरीबी और दहेज से तंग आकर छोटी जाति के कहे जाने वाले लोगों में ऊंची जातियों में अपनी बेटी बेचने की प्रथा भी थी और अपनी कमउम्र लड़कियों की शादी बूढ़े, अनमेल वरों के साथ करने की भी। इन कुप्रथाओं के विरुद्ध उन्होंने 'बेटी वियोग' और 'बेटी बेचवा' जैसे नाटक लिखे। इन नाटकों में बेमेल ब्याही गई लड़कियों का दर्द कुछ ऐसे मुखर हुआ है।
रुपिया गिनाई लिहलs
पगहा धराई दिहलs
चेरिया से छेरिया बनवलs हो बाबू जी 
बूढ़ बर से ना कईलs
बेटी के ना रखलs खेयाल 
कईनी हम कवन कसूरवा हो बाबू जी !

उस समय भिखारी ठाकुर के नाटकों का असर भोजपुरी इलाकों में इतना हुआ था कि कई जगहों पर खुद बेटियों ने बेमेल शादी करने या बिकने से मना कर दिया। कई जगहों पर गांव वालों ने ही ऐसे वरों को गांव से खदेड़ दिया। बेमेल शादियों के कारण असमय विधवा हुई स्त्रियों की पीड़ा उनके नाटक 'विधवा विलाप' में शिद्दत से अभिव्यक्त हुई है। उनके नाटक पर पिछली सदी के छठे दशक में एक सफल भोजपुरी फिल्म भी बनी थी जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया था। सामजिक चेतना के उद्घोषक भिखारी ठाकुर को भोजपुरी में स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का जन्मदाता माना जाता है। 

भिखारी ठाकुर पर अपनी कुछ रचनाओं में सामंती मूल्यों और अंधविश्वासों के समर्थन के आरोप भी लगे हैं। उनकी रचनाओं से गुजरते हुए यह अनुभव होता है कि ऐसा उन्होंने सायास नहीं किया है। उनसे यह भूल संभवतः शिक्षा के अभाव और गांवों में सामंतवाद की गहरी जड़ों की समझ न होने की वजह से हुई। कुछ विरोधाभासों के बावजूद एक समतावादी समाज का सपना उनकी कृतियों का मूल स्वर है। उनकी हर रचना में जाति-पाति और भेदभाव से ऊपर उठकर एक मानवीय समाज की परिकल्पना मौजूद है। जीवन में कदम-कदम पर जातिगत भेदभाव और अपमान की पीड़ा झेलने वाले भिखारी ठाकुर में इस भेदभाव के खिलाफ मात्र असंतोष नहीं, एक गहरा प्रतिरोध भी दिखता है। उनका यह प्रतिरोध उनके नाटक 'नाई बहार' में ज्यादा मुखर हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है - सबसे कठिन जाति अपमाना। भिखारी ठाकुर की रचनाएं ऊपर से जितनी सरल दिखाई देती हैं, अपनी अंतर्वस्तु में वे उतनी ही जटिल और गहरी हैं। उनकी रचनाओं के भीतर हर जगह एक आंतरिक करुणा और व्यथा पसरी हुई महसूस होती है। एक ऐसी करुणा और व्यथा जो तोड़ती नहीं, भरोसा देती है कि रास्ता कहीं से भी खुल जा सकता है। 

भिखारी ठाकुर और उनकी नाटक मंडली ने उस काल में लोकप्रियता का शिखर छुआ था। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से निकलकर उनकी ख्याति पूरे उत्तर भारत और नेपाल के उन इलाकों में फैल गई थी जहां भोजपुरी भाषी लोग बसते थे या जहां भोजपुरिया श्रमिकों के अस्थायी ठिकाने बन गए थे। देश के बाहर उन देशों में भी उन्हें देखने-सुनने की उत्सुकता थी जहां भोजपुरी भाषी लोगों की एक बड़ी संख्या रोजगार की तलाश में जा बसी थी। ऐसे प्रवासी भारतियों के अनुरोध पर भिखारी ठाकुर ने अपनी मंडली के साथ देश में में ही नहीं, मारीशस, फीजी, केन्या, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, यूगांडा, सिंगापुर, म्यांमार, साउथ अफ्रीका, त्रिनिदाद सहित उन तमाम देशों में भी पहुंचकर न सिर्फ भारतीय मूल के लोगों का स्वस्थ मनोरंजन किया, बल्कि उन्हें अपनी जड़ों से परिचित भी कराया। 

1 9 71 में भिखारी ठाकुर की मृत्यु हो गई। उनके बाद उनकी नाटक मंडली ने लगभग एक दशक तक उनकी नाट्य-शैली को कमोबेश जीवित रखा,लेकिन उसमें भिखारी का जादू नहीं था। धीरे-धीरे उनकी मंडली हाशिए पर जाकर बिखर गई। उनके परिदृश्य से लुप्त हो जाने के बाद भोजपुरी क्षेत्र में उनकी नाट्य-शैली पर पहले से चला आ रहा 'लौंडा नाच' हावी हो गया। लौंडा नाच भोजपुरी की वह नाट्य शैली थी जिसमें पुरुष महिलाओं के वस्त्र पहनकर, उन्हीं के हावभाव में नृत्य भी करते हैं और संवाद भी बोलते हैं। लौंडा नाच अभी भी गांवों में कभी-कभार दिख जाता है, लेकिन इसके भी चाहने वालों की भीड़ अब गायब हो चली है। दरअसल यह दौर ही ऐसा है जब गांवों और कस्बों में सिनेमा हॉल की बढ़ती संख्या और घर-घर में मौजूद टेलीविज़न सेट ने मनोरंजन के साधन के रूप में नाटक, नौटंकी, नाच सहित सभी लोककलाओं को लगभग पूरी तरह विस्थापित कर दिया है।

ध्रुव गुप्त
( Dhruv Gupt )
#vss

 


Wednesday, 7 July 2021

---"अधिकार कविता"---



वे मुस्काते फूल, नहीं 
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं 
जिनको भाता है बुझ जाना।

वे नीलम के मेघ, नहीं 
जिनको है घुल जाने की चाह,
वह अनन्त रितुराज, नहीं 
जिसने देखी जाने की राह।

वे सूने से नयन, नहीं 
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज, नहीं
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती।

ऐसा तेरा लोक, वेदना नहीं,
नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, 
नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा 
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे 
यह मेरा मिटने का अधिकार!

                       "महादेवी वर्मा"

महादेवी वर्मा का जन्म 26 मार्च, 1907 को  फरुखाबाद (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशन स्कूल, इंदौर में हुई। महादेवी 1929 में बौद्ध दीक्षा लेकर भिक्षुणी बनना चाहतीं थीं, लेकिन महात्मा गांधी के संपर्क में आने के कारण बौद्ध दीक्षा न ले सकी फिर भी माहदेवी वर्मा समाज-सेवा में लग गईं।  

1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए करने के पश्चात आपने नारी शिक्षा प्रसार के मंतव्य से प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की व उसकी प्रधानाचार्य के रुप में कार्यरत रही। मासिक पत्रिका चांद का अवैतनिक संपादन किया।  11 सितंबर, 1987 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में आपका निधन हो गया।

Tuesday, 6 July 2021

"बिटिया पूछे मां मैं क्या बनूं"



तुम गुड़िया मत बनना,
कि हर कोई तुमसे खेल जाए।

तुम परी मत बनना,
कि हर कोई तुम्हें हासिल करना चाहे।

तुम नाजुक मत बनना,
कि हर कोई तुम्हें तोड़ना चाहे।

तुम दया की पात्र मत बनना,
कि हर कोई तुम्हारा मखोल उड़ाए।

तुम निर्मल और कोमल मत बनना,
कि हर कोई इसकी आड़ में अपनी ताकत आजमाएं।

तुम सहनशील मत बनना,
कि हर कोई तुम्हारी भावनाओं को कुचल, तुम्हें हराए।

तुम केवल सौंदर्य बोध की वस्तु मत बनना,
कि हर कोई घिनौनी सोच से निहार जाए।

तुम दान की वस्तु मत बनना,
कि कन्यादान के नाम पर तुम्हारा स्तर गिराया जाए।

तुम पराया धन मत बनना,
कि हर कोई तुम्हें पराए घर से आई बताएं।

तुम बनो तो एक सबक बनना,
अपने फैसले खुद लेना,
और पितृसत्ता की धारणाओं को बदलना।

Seema Jain

सोच के बता देना !!

आप पायजामे से पतलून पर आ गये...नाड़े से बेल्ट पर आ गये...खड़ाऊँ से बूट पर आ गये...कलम से कीबोर्ड पर आ गये। पगडंडियों से एक्सप्रेस वे पर आ गये...चूल्हे से इंडक्शन कुकर पर आ गये...जंगलो से अपार्टमेंट तक आ गये। हल से ट्रैक्टर पर आ गये...पैदल से लक्ज़री जहाज़ों पर आ गये...दीये-मशाल से एलईडी पर आ गये...आप लैंडलाइन से ओरियो एंड्रॉयड तक आ गये...तीर-कमान और गदा से ऑटोमैटिक बंदूकों और मिसाइलों पर आ गये। दुनियां चाँद पे चली गई...मंगल की छाती पर नासा ने रोबोट उतार दिया....शनि मंगल सूर्यग्रहण- चन्द्रग्रहण के हर रहस्य से पर्दा उठ गया !

आप पाँच हज़ार ईसापूर्व और पाँचवी-छठवीं शताब्दी से इक्कीसवी शताब्दी में आ गये...आप लगातार अपडेट होते रहे हैं !!! मगर फिर भी तुम ग्रह नक्षत्रों को...शनि मंगल को जन्मकुंडली में देख -देख कर काँप रहे हो। अपना भविष्य सुधारने के लिए बाबा बाबियों का रास्ता नाप रहे हो। क्या इसी दिन के लिए तुमने बीएससी एमएससी पीएचडी की थी ??

कि तुम पढ़ेलिखे जाहिलों की फौज में शामिल हो जाना !
क्या इसी दिन के लिए तुम डॉक्टर इंजीनियर वकील - मजिस्ट्रेट या प्रोफेसर बने थे ? कि बंगले पर काली हांडी टांगना ! निम्बू मिर्ची टांगना ! नजर न लगने से एक पैर में काला धागा बांधना ?? और अपने उज्ज्वल भविष्य की भीख किसी बाबा बाबी के दर पर नाक रगड़ के मांगना ?

देश आजाद हो गया ! दुनिया आजाद हो गई !
आखिर कब मिलेगी तुम्हें आजादी ?? इस अंधी मानसिक गुलामी से ? दुनिया रोज नए - नए आविष्कार कर रही है ! तुम हजारों साल पुरानी भाषा संस्कृति रीति रिवाजो की वैज्ञानिक व्याख्या करने में लगे हो ! क्या भारत पुनः विश्व गुरु तुम्हारे जैसे मनोरोगियों की वजह से कभी बन पाएगा ?

बंद कमरे में तुम्हारी चोटी कट जाती ! अँधेरे में अकेले में 
तुम्हें भूत - पलीत सताते हैं ! तुम्हें ही सारी दुनिया की 
नजर लगती है ! डायन तो तुम्हारे हर घर में मौजूद है !! 
तुम्हारे तंत्र मंत्र यंत्र काम क्यों नहीं करते हैं ? एक पैर में काले धागे वाला रक्षा सूत्र तुम्हारी चोंटी क्यों नहीं बचाता है ? आखिर कब तक तुम मानसिक गुलाम रहोगे ?

तुम्हारी समस्याएं लौकिक है। मगर तुम्हें हर समस्या का हल परलोक में नजर आता है ! संसार तुम्हारे लिए स्वप्नवत् है माया है ! भगवान की लीला है ! नाटक है ! भ्रम है ! आखिर तुम्हें इस सपने से कौन जगाए ? कब तक शब्दों के साथ बलात्कार करोगे ? कब तक धोखे में रहोगे ? कब तक हर सिद्धान्त हर आविष्कार को शास्त्रों ऋषि मुनियों के माथे मड़ोगे ??

तुम लोग को जो जगाए वही धर्मद्रोही देशद्रोही जातिवादी या नास्तिक है ? भगवान बुद्ध, महावीर, कपिल,कृष्ण, कणाद ,गौतम, नागसेन, अश्वघोष,शंकराचार्य, कबीर,कृष्णमूर्ति नानक, रविदास, ओशो, फुले, पेरियार, डॉ भीमराव , कोवूर आदि सबने विवेक लगाया,चिन्तन पैदा किया !
मगर फिर भी तुम्हारा विवेक नहीं जागा !

तुम्हारा धर्म कब अपडेट होगा ?
तुम्हारी आस्था कब अपडेट होगी ?
तुम्हारा ईश्वर कब अपडेट होगा ?
तुम्हारी सोच कब अपडेट होगी ?
तुम्हारे धर्म की किताबें कब अपडेट होंगी ?

क्योंकि तुम विश्वगुरु के अहंकार की दारू पीकर गरीबी अनपढ़ता लिंगभेद जातिभेद भाषाभेद क्षेत्रभेद साम्प्रदायिकता की नाली में पड़े हो ! आखिर तुम्हें कब मिलेगी आजादी?तुम्हारी चेतना कब जागेगी ? इस उम्दा मानसिक गुलामी से ???

सोच के बता देना !!

Class and caste privileges.



In a nation where access to education remains a fundamental issue and where an individual's success largely depends on access to resources, shaped by socio-economic and caste advantages, 'merit' is just another form of discrimination.



शब्दों के पीछे- धूमिल

उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
आदत बन चुकी है
वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी

एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादी वाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिश में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद

नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो –
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

इस वक़्त इतना ही काफ़ी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीख़ती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब –
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है

-धूमिल

राष्ट्रीयकरण/निजीकरण - एक ही नीति के दो चेहरे

कुछ 'विशेषज्ञ' सलाह दे रहे हैं कि अब तो संसद में जोरदार बहुमत है, अब मोदी जी को मारग्रेट थैचर से प्रेरणा लेनी चाहिये। एक पुरानी पोस्ट दोबारा!
  
'राष्ट्रीयकरण/निजीकरण - एक ही नीति के दो चेहरे
बात ब्रिटेन की है पर कहानी सारी दुनिया की है। ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर ने रेल का निजीकरण किया था, अब उसी कंजरवेटिव पार्टी की टेरेजा मे सरकार उसका वापस राष्ट्रीयकरण कर रही है। जब निजीकरण हुआ तो बनी-बनाई रेलवे लाइनें, रेलगाडियाँ और पूरा ढांचा निजी क्षेत्र को बिना इकन्नी खर्च हुए मिला, उन्हें बस सालाना शुल्क देना था। उन्होने कुछ साल में ही भाड़ा तीन गुना बढ़ा दिया, पर उन्हें हमेशा 'घाटा' ही होता रहा! सरकार उन्हें और रियायतें देती रही, पर घाटा होता रहा, भाड़ा भी बढ़ता रहा!! पर कमाल की बात ये कि वे घाटे के बावजूद भी 'देशसेवा' में रेल को चलाते रहे, और इतने घाटे के बावजूद भी निजी क्षेत्र के मालिक और भी दौलतमंद बनते गए!!!
इन्हीं मालिकों में से एक रिचर्ड ब्रांसन है, जिसकी वर्जिन एयरलाइन और भांड मीडिया प्रिय हरकतों के बारे में भारत में भी बहुत से लोग वाकिफ हैं। ब्रांसन की कंपनी भी लंदन से लीड्स, न्यूकैसल, ग्लासगो की पूर्वी तटीय रेल को 'घाटे' में चलाती रही और ब्रांसन 'घाटे' में रहते हुए भी जमीन से आसमान में नए-नए कारोबार शुरू करता रहा, और अमीर बनता गया।
कुछ दिन पूर्व अचानक ब्रांसन ने ऐलान कर दिया कि अब उसे और घाटा बर्दाश्त नहीं, इसलिए अब वह शुल्क नहीं दे सकता। तो सरकार ने क्या किया? आज उस कंपनी का राष्ट्रीयकरण हो गया - कंपनी को उसकी सारी देनदारियों समेत सरकार ने ले लिया, यहाँ तक कि कंपनी के सारे प्रबंधक उन्हीं पदों और वेतन पर बने रहे।
कुल मिलाकर कहें तो जब तक कारोबार में दिखावटी घाटे के बावजूद मलाई मौजूद थी, कंपनी निजी रही; जब मलाई खत्म हुई और असली वाला घाटा शुरू हुआ तो घाटे का 'राष्ट्रीयकरण' कर दिया गया! कमाल की बात यह कि लंदन से बर्मिंघम, मैंचेस्टर, लिवरपुल की पश्चिम तट रेल भी ब्रांसन की ही दूसरे नाम की कंपनी के पास है, पर उसका राष्ट्रीयकरण नहीं हुआ, क्योंकि ब्रांसन ने उसे चलाने से मना नहीं किया (वहाँ अभी मलाई की गुंजाइश बाकी है!) अर्थात कौन कंपनी निजी रहे, किसका राष्ट्रीयकरण हो यह तय ब्रांसन कर रहा है, सरकार सिर्फ फैसले पर अमल कर रही है!

यही पूंजीवाद में निजीकरण -राष्ट्रीयकरण की नीति का मूल है - जब पूँजीपतियों को निजीकरण से लाभ हो तो सरकारें प्रतियोगिता को प्रोत्साहन देने लगती हैं; जब पूँजीपतियों को राष्ट्रीयकरण में फायदा दिखे तो सरकारें 'समाजवाद' और 'कल्याण' की बातें करने लगती हैं। दुनिया भर के संसदीय वामपंथी इसे ही 'शांतिपूर्ण रास्ते से समाजवाद' की ओर अग्रसर होना बताकर वाह-वाह में जुट जाते हैं।'

श्रमिक यूनियन पुस्तकालय

कॉमरेडों, मजदूर साथियो,

कामगार-ई-पुस्तकालय और मजदूर यूनियन द्वारा संचालित रघु-मनी भवन, स्थित 'श्रमिक यूनियन पुस्तकालय'  मजदुरो के बीच समाजवादी चेतना फैलाने में अहम भूमिका निभाए, इसके लिये हम सभी को विशेष रूप से फोकस करना होगा।

हालांकि अभी यह बिल्कुल ही भ्रूण अवस्था मे है। इसलिये यह जरूरी है कि इसके व्यापक विकास में हम सभी दिलोजान से सहयोग करे। महत्वपूर्ण मार्क्सवादी साहित्य की किताबो की व्यवस्था की जाए।

पुस्तकालय का उद्देश्य मजदूर साथियो को हिंदी में समाजवादी पुस्तक आसानी से सुलभ कराना है। अगर मजदूर साथी पुस्तकालय से पुस्तके ले कर नही पढेंगे तो हमारा उद्देश्य कभी पूरा नही होगा। हम सभी कामरेड्स और मजदूर साथियो से अपील करते हैं कि वे पुस्तकालय से पुस्तक ले कर पढ़े, इस पर विचार विमर्श करे और फिर पुस्तक वापस लौटा दे।

हम एक बार फिर यूनियन और तमाम मजदूर साथियो से अपील करते है कि पुस्तकालय के विकास और समाजवादी साहित्य के पठन-पाठन के सवाल को गंभीरता से ले।

एम के आजाद

क्‍लारा ज़ेटकिन के जन्‍मदिवस (5 जुलाई 1857) के अवसर पर

महान कम्‍युनिस्‍ट स्‍त्री संगठनकर्ता और नेत्री क्‍लारा ज़ेटकिन के जन्‍मदिवस (5 जुलाई 1857) के अवसर पर

''बहुत कम पति, यहाँ तक कि सर्वहारा भी नहीं, यह सोचते हैं कि अगर वे इस 'औरतों के काम' में हाथ बँटायें तो वे अपनी पत्नियों का कितना बोझ और चिंताएँ कम कर सकते हैं, या उन्‍हें पूरी तरह इनसे राहत दे सकते हैं। लेकिन नहीं, यह तो 'पति के विशेषाधिकार और गरिमा' के ख़ि‍लाफ़ चला जायेगा। वह माँग करता है कि उसे आराम और सुविधा चाहिए। स्‍त्री का घरेलू जीवन एक हज़ार छोटे-छोटे कामों में अपने आपको क़ुर्बान करना होता है। उसके पति, उसके स्‍वामी और प्रभु, के प्राचीन अधिकार चुपचाप क़ायम रहते हैं। लेकिन वस्‍तुगत रूप से, उसकी दासी अपना प्रतिशोध ले लेती है। यह भी छिपे रूप में होता है। उसका पिछड़ापन और अपने पति के क्रान्तिकारी आदर्शों की समझ की उसकी कमी पति की जुझारू भावना और लड़ने के उसके हौसले को पीछे खींचती है। छुद्र कीड़ों की तरह वे धीरे-धीरे, मगर लगातार कुतर-कुतर कर उसे कमज़ोर बनाते हैं। मैं मज़दूरों के जीवन को जानता हूँ, और सिर्फ़ किताबों से नहीं जानता। स्‍त्री जनसमुदाय के बीच हमारे कम्‍युनिस्‍ट कार्य, और आम तौर पर हमारे राजनीतिक कार्य में पुरुषों के बीच व्‍यापक शैक्षिक काम करना शामिल है। हमें पार्टी से, और जनसमुदाय से, पुराने दास-स्‍वामी वाले दृष्टिकोण को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। यह हमारा एक राजनीतिक कार्यभार है, उतना ही तात्‍कालिक महत्‍व का कार्यभार जितना कि स्‍त्री और पुरुष कामरेडों से मिलकर बने एक स्‍टाफ़ का गठन, जिन्‍हें मज़दूर स्त्रियों के बीच पार्टी कार्य के लिए गहन सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक प्रशिक्षण मिला हो।''

(स्‍त्री प्रश्‍न पर लेनिन के साथ क्‍लारा ज़ेटकिन के लम्‍बे साक्षात्‍कार का अंश)

शहीद फादर Stan Swamy के लिए

मैं अपनी आवाज को 
वह ताकत देना चाहती हूँ 
जो दमन की जंजीरों से 
ज्यादा ताकतवर हो ,
क्योंकि हमने अभी-अभी
एक प्रिय कामरेड खोया है।।

क्यों खोया?
मैं इस बात पर सिर्फ अफसोस कर
 नहीं  रहना चाहती 
कि सत्ता बड़ी दमकारी है।।

 मैं  चाहती  हूँ  मेरी आवाज 
उतनी मजबूत हो,
कि हमारे शहीद कामरेड 
को सच्ची श्रद्धांजलि मिल सके।
कि इस घोर दमनकारी व्यवस्था का
मुंहतोड़ जवाब बन सके।

मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था,
पर उनके जाने की खबर से
एक गहरी पीड़ा महसूस कर रही
सोचती हूँ जिनके लिए 
ताउम्र  वे  लड़ते रहे
उनपर क्या बितती होगी?

पर यह भी तो सच है
सशरीर भले ही वह 
हमारे बीच न हो पर
जो जनता की आवाज होते हैं 
वे कभी बूढ़े नहीं होते
और मरते तो हरगिज़ ही नहीं।
वे हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे
हमेशा हमेशा के लिए ।।
 
और फिर एक बार दोहराती हूँ 
मैं अपनी आवाज को 
वह ताकत देना चाहती हूँ 
जो दमन का मुंहतोड़ जवाब बने
और हमारे शहीद कामरेड को 
सच्ची श्रद्धांजलि मिले।।
इलिका
हमारे प्यारे शहीद फादर Stan Swamy  के लिए ।।

Monday, 5 July 2021

फादर स्टेन स्वामी




*जेल में ही 'मार डाले गये' फ़ादर स्टेन स्वामी! सदियों तक गूँजेगा उनका सवाल- क्या अपराध है मेरा?*

जीवन और मृत्यु एक है,
जैसे नदी और समुन्दर एक है
-खलील जिब्रान

फादर स्टेन स्वामी ब्राजील के कैथोलिक पादरी येलदी कमेरा के शिष्य थे, जिनका प्रसिद्ध कथन था- जब मैं किसी गरीब को खाना देता हूँ तो वे मुझे संत कहते हैं। लेकिन जब मैं पूछता हूँ कि वे गरीब क्यों हैं तो वे मुझे कम्यूनिस्ट कहते हैं।

फादर स्टेन स्वामी पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया है, भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में शामिल होने के आरोप में 16 लोगों को जेल भेजा गया है। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, शिक्षाविद, बुद्धिजीवी शामिल हैं स्टेन स्वामी भी इन 16 लोगो मे शामिल थे फादर स्टेन स्वामी 1991 में तमिलनाडु से झारखंड आए ओर आने के बाद से ही वह आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करते रहे हैं। नक्सली होने के तमगे के साथ जेलों में सड़ रहे 3000 महिलाओं और पुरुषों की रिहाई के लिए वो हाई कोर्ट गए। वो आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी देने के लिए दूरदराज़ के इलाक़ों में गए। फ़ादर स्टेन स्वामी ने आदिवासियों को बताया कि कैसे खदानें, बांध और शहर उनकी सहमति के बिना बनाए जा रहे हैं और कैसे बिना मुआवज़े के उनसे ज़मीनें छीनी जा रही हैं। उन्होंने साल 2018 में अपने संसाधनों और ज़मीन पर दावा करने वाले आदिवासियों के विद्रोह पर खुलकर सहानुभूति जताई थी. उन्होंने नियमित लेखों के ज़रिए बताया है कि कैसे बड़ी कंपनियाँ फ़ैक्टरियों और खदानों के लिए आदिवासियों की ज़मीनें हड़प रही हैं। साफ है कि यह सब सरकार को बहुत नागवार गुजरा ओर मौका मिलते हैं उन्हें दबोँच लिया गया।

स्टेन स्वामी न कभी भी भीमा कोरेगांव गए न उनकी उस घटना में कोई सहभागिता थी इसके बावजूद उन्हें 2018 से लगातार जेल में रखा गया। अभी भी भीमा कोरेगांव के फर्जी मामले में और 15 कैदी हैं, जिनके ऊपर कोई मामला है ही नहीं, इसीलिये अब तक मुकदमा शुरू तक नहीं किया गया है, सजा का तो सवाल ही नहीं आया। पर बिना मुकदमा, बिना सजा सत्ता इंतजार कर रही है कि वे सब ऐसे ही मौत का शिकार हो जायें। आज ही स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर सुनवाई होनी थी। हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान स्टेन स्वामी के वकील ने कहा कि बड़े भारी मन से कोर्ट को सूचित करना पड़ रहा है कि फादर स्टेन स्वामी का निधन हो गया है। 84 साल के फ़ादर स्टेन स्वामी को पिछले साल 8 अक्टूबर को राँची  स्थिति उनके आवास से पुलिस ने उठा लिया था। उन्हें भीमा कोरेगाँव केस में आरोपी बनाया गया था। बाद में कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया जहाँ उनकी स्थिति लगातार बिगड़ती गयी, उनके अच्छे इलााज के लिए की जाने वाली अपीलें लगातार ख़ारिज की गयीं।

*अपनी गिरफ्तारी से 2 दिन पहले फादर स्टेन स्वामी ने अपना बयान अपने साथियों को दिया गया बयान-*

*क्या अपराध किया है मैंने?*
 
*"मैं सिर्फ इतना और कहूँगा कि जो आज मेरे साथ हो रहा है, ऐसा अभी अनेकों के साथ हो रहा है।*

*सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, लेखक, पत्रकार, छात्र नेता, कवि, बुद्धिजीवी और अन्य अनेक जो आदिवासियों, दलितों और वंचितों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं और देश के वर्तमान सत्तारूढ़ी ताकतों की विचारधाराओं से असहमति व्यक्त करते हैं, उन्हें विभिन्न तरीकों से परेशान किया जा रहा है।*

*इतने सालों से जो संघर्ष में मेरे साथ खड़े रहे हैं, मैं उनका आभारी हूँ।*

पिछले तीन दशकों में मैं आदिवासियों और उनके आत्म-सम्मान और सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार के संघर्ष के साथ अपने आप को जोड़ने और उनका साथ देने का कोशिश किया है। एक लेखक के रूप में मैने उनके विभिन्न मुद्दों का आकलन करने का कोशिश की है। इस दौरान मैं केंद्र व राज्य सरकारों की कई आदिवासी-विरोधी और जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी असहमति लोकतान्त्रिक रूप से जाहिर किया है। मैंने सरकार और सत्तारूढ़ी व्यवस्था के ऐसे अनेक नीतियों के नैतिकता, औचित्य व क़ानूनी वैधता पर सवाल किया है।

मैंने संविधान के पांचवी अनुसूची के गैर-कार्यान्वयन पर सवाल किया है। यह अनुसूची [अनुच्छेद 244(क), भारतीय संविधान] स्पष्ट कहता है कि राज्य में एक 'आदिवासी सलाहकार परिषद' का गठन होना है जिसमें केवल आदिवासी रहेंगे एवं समिति राज्यपाल को आदिवासियों के विकास एवं संरक्षण सम्बंधित सलाह देगी।

मैंने पूछा है कि क्यों पेसा कानून को पूर्ण रूप से दरकिनार कर दिया गया है। 1996 में बना पेसा कानून ने पहली बार इस बात को माना कि देश के आदिवासी समुदायों की ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन की अपनी संपन्न सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास है।

सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के समता निर्णय पर सरकार की चुप्पी पर मैंने अपनी निराशा लगातार जताई है। यह निर्णय [Civil Appeal Nos : 4601-2 of 1997] का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर हो रहे खनन पर नियंत्रण का अधिकार देना एवं उनकी आर्थिक विकास में सहयोग करना।

2006 में बने वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकार के उदासीन रवैया पर मैंने लगातार अपना दुःख व्यक्त किया है।

इस कानून का उदेश्य है आदिवासियों और वन-आधारित समुदायों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय को सुधारना।

मैंने पूछा है कि क्यों सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले- जिसकी ज़मीन, उसका खनिज- को लागू करने में इच्छुक नहीं है [SC: Civil Appeal No 4549 of 2000] एवं लगातार, बिना ज़मीन मालिकों के हिस्से के विषय में सोचे, कोयला ब्लाक का नीलामी कर कंपनियों को दे रही है।

भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार के 2017 के संशोधन के औचित्य पर मैंने सवाल किया है। यह संशोधन आदिवासी समुदायों के लिए विनाश का हथियार है। इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने 'सामाजिक प्रभाव आंकलन' की अनिवार्यता को समाप्त कर दी एवं कृषि व बहुफसलिया भूमि का गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए दरवाज़ा खोल दिया।

सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने के विरुद्ध मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया है। लैंड बैंक आदिवासियों को समाप्त करने की एक और कोशिश है क्योंकि इसके अनुसार गाँव की गैर-मजरुआ (सामुदायिक भूमि) ज़मीन सरकार की है और न कि ग्राम सभा की। एवं सरकार अपनी इच्छा अनुसार यह ज़मीन किसी को भी (मूलतः कंपनियों को) को दे सकती है।

हज़ारों आदिवासी-मूलवासियों, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के अन्याय के विरुद्ध सवाल करते हैं, को 'नक्सल' होने के आरोप में गिरफ्तार करने का मैंने विरोध किया है। मैंने उच्च न्यायालय में झारखंड राज्य के विरुद्ध PIL दर्ज कर मांग की है कि

1) सभी विचारधीन कैदियों को निजी बांड पर बेल में रिहा किया जाए।
2) अदालती मुकदमा में तीव्रता लायी जाए क्योंकि अधिकांश विचारधीन कैदी इस फ़र्ज़ी आरोप से बरी हो जाएंगे।
3) इस मामले में लम्बे समय से अदालती मुक़दमे की प्रक्रिया को लंबित रखने के कारणों के जाँच के लिए न्यायिक आयोग का गठन हो।
4)पुलिस विचारधीन कैदियों के विषय में मांगी गयी पूरी जानकारी PIL के याचिकाकर्ता को दे।

इस मामले को दायर किए हुए दो साल से भी ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक पुलिस ने विचारधीन कैदियों के विषय में पूरी जानकारी नहीं दी है।

मैं मानता हूँ कि यही कारण है कि शाषण व्यवस्था मुझे रास्ते से हटाना चाहती है, और हटाने का सबसे आसान तरीका है कि मुझे फ़र्ज़ी मामलों में गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाए और साथ ही, बेकसूर आदिवासियों को न्याय मिलने के न्यायिक प्रक्रिया को रोक दिया जाए।

मुझसे NIA ने पांच दिनों (27-30 जुलाई व 6 अगस्त) में कुल 15 घंटे पूछताछ की..मेरे समक्ष उन्होंने मेरे बायोडेटा और कुछ तथ्यात्मिक जानकारी के अलावा अनेक दस्तावेज़ व जानकारी रखी जो कथित तौर पर मेरे कंप्यूटर से मिली एवं कथित तौर पर माओवादियों के साथ मेरे जुड़ाव का खुलासा करते हैं। मैंने उन्हें स्पष्ट कहा कि ये छल-रचना है एवं ऐसी दस्तावेज़ और जानकारी चोरी से मेरे कंप्यूटर में डाले गए हैं और इन्हें मैं अस्वीकृत करता हूँ।

NIA की वर्तमान अनुसन्धान का भीमा-कोरेगांव मामले, जिसमें मुझे 'संदिग्ध आरोपी' बोला गया है और मेरे निवास पर दो बार छापा (28 अगस्त 2018 व 12 जून 2019) मारा गया था, से कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन अनुसन्धान का मूल उद्देश्य है निम्न बातों को स्थापित करना – 

1) मैं व्यक्तिगत रूप से माओवादी संगठनों से जुड़ा हुआ हूँ एवं 
2) मेरे माध्यम से बगईचा भी माओवादियों के साथ जुड़ा हुआ है।

मैंने स्पष्ट रूप से इन दोनों आरोपों का खंडन किया।

छः सप्ताह चुप्पी के बाद, NIA ने मुझे उनके मुंबई कार्यालय में हाजिर होने बोला है। मैंने उन्हें सूचित किया है कि 

1) मेरे समझ के परे है कि 15 घंटे पूछताछ करने के बाद भी मुझसे और पूछताछ करने की क्या आवश्यकता है।
2) मेरी उम्र (83 वर्ष) व देश में कोरोना महामारी को देखते मेरे लिए इतनी लम्बी यात्रा संभव नहीं है। झारखंड सरकार के कोरोना सम्बंधित अधिसूचना अनुसार 60 वर्ष से अधिक उम्र के बुज़ुर्ग व्यक्तियों को लॉकडाउन के दौरान नहीं निकलना चाहिए।

3) अगर NIA मुझसे और पूछताछ करना चाहती है, तो वो विडियो कांफ्रेंस के माध्यम से हो सकता है।

अगर NIA मेरे निवेदन को मानने से इंकार करे और मुझे मुंबई जाने के लिए ज़ोर दें, तो मैं उन्हें कहूँगा कि उक्त कारणों से मेरे लिए जाना संभव नहीं है। आशा है कि उनमें मानवीय बोध हो। अगर नहीं, तो मुझे व हम सबको इसका नतीज़ा भुगतने के लिए तैयार रहना है!

मैं सिर्फ इतना और कहूँगा कि जो आज मेरे साथ हो रहा है, ऐसा अभी अनेकों के साथ हो रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, लेखक, पत्रकार, छात्र नेता, कवि, बुद्धिजीवी और अन्य अनेक जो आदिवासियों, दलितों और वंचितों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हैं और देश के वर्तमान सत्तारूढ़ी ताकतों की विचारधाराओं से असहमति व्यक्त करते हैं, उन्हें विभिन्न तरीकों से परेशान किया जा रहा है।

*इतने सालों से जो संघर्ष में मेरे साथ खड़े रहे हैं, मैं उनका आभारी हूँ।*

*--स्टेन स्वामी*

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फासीवाद के दो रूप-नीला और भगवा!

दलित उत्थान के नाम पर जातिवादी अस्मिता, जैसे मायावती, अखिलेश यादव & तेजस्वी यादव की सामाजिक न्याय की 'बहुजन राजनीति' या दलित राजनीति अपने सार में उतनी ही दक्षिण पंथी और प्रतिक्रियावादी राजनीति है जितना हिन्दू उत्थान के नाम पर  हिन्दू अस्मिता, जैसे आरएसएस, विश्वहिंदू परिषद, भाजपा आदि की सांप्रदायिक 'हिन्दू बहुमत'  राजनीति। कॉर्पोरेट बुर्जुवा वर्ग द्वारा पोषित ये राजनीति ग़ैरवर्गीय विरोध एवम भेद भाव को बढ़ावा देते है एवम लुटेरे पूंजीवादी शोषक वर्ग के खिलाफ मिहनतकस जनता की एकता को जाति और धर्म के आधार पर तोड़ते है। कम्युनिष्टों का काम लुटेरे पूंजीवादी शोषक वर्ग के खिलाफ मिहनतकस जनता की एकता को वर्ग के आधार पर मजबूत करना है।


कॉर्पोरेट पोषित घोर प्रतिक्रियावादी गैर-वर्गीय 'हिन्दू बहुमत राजनीति' या 'दलित बहुजन राजनीति'  नही,  वर्ग आधारित बहुसंख्यक मजदूर राजनीति ही आज एक मात्र विकल्प है।

कामगार-ई-पुस्तकालय



मजदूर वर्ग की मुक्ति सिर्फ आर्थिक संघर्ष से नही हो सकती, समाजवादी संघर्ष, समाजवाद के लिये निरन्तर संघर्ष एक क्रांतिकारी यूनियन के लिए आवश्यक शर्त है। और इस लिये मजदूर वर्ग के बीच समाजवादी साहित्य का पठन-पाठन, प्रचार-प्रसार अत्यंत आवश्यक है।

इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए
कामगार-ई-पुस्तकालय के डिजिटल संस्करण में ढेर सारी समाजवादी साहित्य को पीडीएफ और हिंदी यूनीकोड में अपलोड किया गया है। कोई भी यहां से किताबे डाउनलोड कर सकता है एवम मजदूर साथियो के बीच वितरण कर सकता है। वेबसाइट का निम्न लिंक है: https://kamgar-e-library.blogspot.com

इसके  अलावे इसी नाम से एक पुस्तकालय खोला गया है। इसमें कविवर कन्हैया की सुपुत्री प्रोफेसर इंदु प्रभा द्वारा शुरुवात के तौर पर कुछ किताबें डोनेट की गई है जो उनके पिता कविवर कन्हैया को भेंट स्वरूप विभिन्न लोगो ने दी थी। यह मजदूर  यूनियन के बीच मार्क्सवादी विचारो को प्रचारित करने में सहायक होगा। इस सहयोग के लिये हम कविवर कन्हैया जी और उनके परिवार के प्रति आभार व्यक्त करते है। मजदूर साथियो, कॉमरेडों एवम सभी सदस्यों से निवेदन है कि इसमें और भी किताबे डोनेट कर इसे एक अच्छी पुस्तकालय बनाने में अपना हर तरह का सहयोग करे । पुस्तको की सूची निम्न है:
 *पुस्तको की सूची* 

1. म.न. रीनदिना, ग.प. चेर्निकोव ग.न. खुदोकोमोंव -राजनीतिक अर्थशास्त्र के मूलतत्व

2. नः क· क्रूप्स्काया -शिक्षा
चुने हुए लेख एवं भाषण

3. ग० क० शिरोकोव

भारत का औद्योगीकरण
4. व० पाब्लोव, व० रास्त्यान्निकोव, ग० शिरोकोव

भारत का सामाजिक आर्थिक विकास
१८ वीं २० वीं शताब्दी

5 क्रांति ज्वार के मोती

6 अ. स. पाकारको
जीवन की ओर
(शिक्षा का महाकाव्य) तीन खण्डों में
खण्ड २

7 वो सोलो दोव्निकोव, वो बोगोस्लोव्स्को

गैर पूंजीवादी विकास - एक ऐतिहासिक रूपरेखा

8. पुस्तके और संस्मरण
लेनिन 

9 कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स
संकलित रचनाएं
(चार भागों में) भाग १
10 साहित्य के बारे में -  लेनिन

11. लेनिन संकलित रचनाएं
( चार भागों मे )
भाग ४, ३,२,१

12. कार्ल मार्क्स और  फ्रेडरिक एंगेल्स
  उपनिवेशवाद के बारे में
13 कार्ल मार्क्स संक्षिप्त जीवनी

निकोलाई इवानोव (द्वितीय परिर्वाद्धत संस्करण)
14. कार्ल मार्क्स 
 पूँजी पूँजीवादी उत्पादन का आलोचनात्मक विश्लेषण
खण्ड १
15 मशीन-युग की कहानी

मशीनों के विकास और प्रौद्योगिक क्रांति का रोचक परिचय
16. व्लादीमिर शतालोव

सोवियत अंतरिक्षनाविक

अंतरिक्ष की कठिन राहें

17. अन्तोन चेखोव
कहानियां ( १८८४ - १६०३ )

18.समाजवाद और संस्कृति
   लेख संग्रह
    कला इतिहास संस्थान
19. संस्कृतियों का मिलन

20. कोन्स्तान्तिन ज़ारोदोव

लेनिनवाद और

पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण की समकालीन समस्याएं

21. व्ला इ. लेनिन

संकलित रचनाएं
तीन खण्डों में खण्ड १ भाग २

22. MAXIM GORKY
VLADIMIR MAYAKOVSKY

ALEXEI TOLSTOY

KONSTANTIN FEDIN

     on

The Art and Craft of Writing

23. E. STEPANOVA

FREDERICK ENGELS

24  कार्ल मार्क्स
राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में. योगदान
25. ILLUSION AND REALITY

26. V.I.LENIN

ON THE INTERNATIONAL WORKING-CLASS AND COMMUNIST MOVEMENT

27.KARL MARX

A BIOGRAPHY

28. V. I. LENIN

"LEFT-WING" COMMUNISM, AN INFANTILE DISORDER
29 TARAS SHEVCHENKO

SELECTED WORKS

POETRY AND PROSE

with Reproductions of Paintings by T. SHEVCHENKO

30. V. I. LENIN

On the Organizational Principles of a Proletarian Party

31. VLADIMIR ILYICH LENIN

LIFE AND WORK

32. V. I. Lenin

Questions of National Policy

and Proletarian Internationalism

33 V. I. Lenin

On Literature and Art

34 Marx Engels 
Selected Correspondence

35. HỒ CHÍ MINH SELECTED WRITINGS

(1920-1969)

36. ASIA AND AFRICA: FUNDAMENTAL CHANGES

37. Yuri Kolesnikov

THE CURTAIN RISES

38. ALEXANDER FADEYEV

THE YOUNG GUARD

A Novel Book One

39. MIKHAIL SHOLOKHOV

D QUIET FLOWS THE DON

A NOVEL IN FOUR BOOKS

BOOK THREE

40.  आधुनिक सोवियत कविताएं

41. TRAVELS IN THE
MOGUL EMPIRE

Thursday, 1 July 2021

धर्म और पूंजीवाद

दूर देहात में, छोटे कस्बो में स्थित मन्दिर, जिसकी आमदनी में लोगो के चढ़ावा से ज्यादा धनी दबंग जातियों/कुलको द्वारा दिया गया धन मंदिर के आय का मुख्य आधार है, वैसे मन्दिरो में इस तरह के प्रतिक्रियावादी फतवे ज्यादा देखने को मिलते है।

शहरों में स्थित मंदिर में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। यहां तो बड़े-बड़े मन्दिरो में दलित पुजारी की भी नियुक्ति की जा रही है।

 पूंजीवाद मंदिर को उद्द्योग, पूजारी को वेतन भोगी मजदूर वैसे ही बना रहा है जैसे आधुनिक पूंजीवादी श्रम विभाजन ने दलितों को अपनी जाति का पेशा चुनने की बाध्यता खत्म कर अपनी मर्जी का पेशा चुनने की आजादी प्रदान कर रहा  है। आज जातियां जाति होने के साथ-साथ वर्ग भी है - पूंजीपति या वेतनभोगी मजदूर वर्ग। पूजारी और दलितो का जाति  से मजदूर जाति(वर्ग) में यह रूपांतरण उन्हें उस मजदूर वर्ग का अभिन्न  हिस्सा बनाता जा रहा है जिनके कांधे पर पूंजी का तख्त बदलने का ऐतिहासिक कार्यभार है।

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१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...