Tuesday, 13 July 2021

जनसंख्या नियंत्रण कानून की ज़रूरत या फिर माहौल बिगाड़ने का प्रयास?


पिछले लम्बे समय से भाजपाईयों-संघियों द्वारा मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाकर उन्हें तेज़ी से जनसंख्या बढ़ाने का ज़िम्मेदार बताया जाता रहा है, उन्हें इसे संख्याबल में हिन्दुओं से आगे निकलकर भारत को इस्लामिक देश बनाने की साज़िश की तरह प्रचारित किया जाता है, इसे हिन्दुओं के लिये सबसे बड़े आसन्न ख़तरे के रूप में दिखाया जाता है। इसी ख़तरे को कम करने के नाम पर कई संघियों /कट्टरपंथियों द्वारा हिन्दुओं को ज़्यादा बच्चे पैदा करने को भी उकसाया जाता रहा है। 

अब यूपी चुनाव के ठीक पहले योगी आदित्यनाथ ने जनसंख्या विस्फोट को रोकने के नाम पर उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति 2021-2030 जारी कर दी है।

ऐसे में यह या जानने की ज़रूरत है कि क्या वास्तव में उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन रही है?

पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया के अनुसार किसी जनसंख्या विस्फोट की स्थिति तब आती है, जब लगातार तेज़ी से जनसंख्या बढ़ रही हो और प्रजनन दर भी 4 से ऊपर हो। प्रजनन दर का मतलब है एक औरत औसतन कितने बच्चे पैदा करती है।

उत्तर प्रदेश की बात करें, तो 2001 से 2011 के बीच जनसंख्या बढ़ने की रफ़्तार में 5.6 फ़ीसदी की कमी आई है, 2001 में यह 25.8% थी जो 2011 में घटकर 20.2% रह गयी है, मतलब ये कि उत्तर प्रदेश की आबादी लगातार बढ़ तो रही है, लेकिन बढ़ने की स्पीड में कमी आई है। 
उसी तरह से उत्तर प्रदेश में पिछले एक दशक में प्रजनन दर में भारी कमी आई है। 2005-06 में नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे के आँकड़ों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर 3.8 थी, जो 2015-16 में घट कर 2.7 रह गई है. जबकि भारत का राष्ट्रीय औसत 2.2 है।

एक अनुमान के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 2025 तक प्रजनन दर 2.1 पहुँच जायेगी, जो रिप्लेसमेंट रेसियो के क़रीब है।
रिप्लेसमेंट रेसियो 2.1 का मतलब है, दो बच्चे पैदा करने से पीढ़ी दर पीढ़ी वंश चलता रहेगा, न जनसंख्या वृद्धि न कमी, यह एक आदर्श स्थिति मानी जाती है। (प्वाइंट वन इसलिए क्योंकि कभी-कभी कुछ बच्चों की मौत छोटी उम्र में हो जाती है.)
उक्त आँकड़े दिखाते है कि दोनों लिहाज से (जनसंख्या वृद्धि दर और प्रजनन दर) उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति तो क़तई नहीं बन रही है, अव्वल तो अब यह कोई चिंता का विषय ही नहीं रह गयी है।

जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में यह जान लेना भी उचित होगा कि क्या आज के भारत में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति बन रही है? 
   
भारत के प्रति 10 वर्ष की जनसंख्या वृद्धि दर और प्रजनन दर के आंकडों पर नज़र डालें तो ऐसा कोई ख़तरा नहीं दिखता है। यदि पिछले चार दशक की वृद्धि दर की बात की जाये तो यहाँ लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है-

     कालखंड                     वृद्धि दर (प्रति दशक)
1971 से 1981                 24. 66%
1981 से 1991                 23. 87%
1991 से 2001                 21. 54%
2001 से 2011                 17. 64%
     
उसी तरह प्रजनन दर के आँकड़े भी कहीं विस्फोटक होती स्थिति नहीं दिखाते हैं, बल्कि यह दर भी तेज़ी से गिर रही है।
1951 में प्रति महिला औसतन 6 बच्चों को जन्म देती थी, 2011 में यह संख्या आधे से अधिक गिरावट के साथ 2.7 पर आ गई। सर्वे बताते हैं कि 2020-2021 में और गिरावट के साथ प्रति महिला औसतन 2.3 बच्चें जन रही है (2021 के जनगणना के आँकड़े अभी आने बाक़ी हैं)।

जनसंख्या वृद्धि के कारणों को तलाशने के लिये अगर राज्यों के स्तर पर आँकड़ों को देखा जाये तो एक और बात स्पष्ट होती है कि जहाँ साक्षरता का स्तर बेहतर व ग़रीबी कम है वहाँ जनसंख्या बढ़ना लगभग रुक गया है, जबकि ग़रीब व अशिक्षित राज्यों में यह दर धीमी गति से कम हो रही है।
2011 में भारत की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 17.64% थी, उसी दौर में कुछ प्रतिनिधिक राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर निम्नवत थी-

बिहार          25.07%
राजस्थान     21.40%
उत्तर प्रदेश    20.09%
मध्य प्रदेश    20.30%
गुजरात        19.20%
केरल           4.90%
गोवा            8.20%
आंध्र प्रदेश    11.10%

इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि विहार, राजस्थान, यूपी जैसे पिछड़े राज्यों की अपेक्षा केरल, गोवा, आंध्र प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत शिक्षित व उन्नत राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर बहुत कम है, ये आँकड़े दिखाते हैं कि जनसंख्या वृद्धि का सीधा सम्बन्ध अशिक्षा व ग़रीबी से है न कि किसी धर्म विशेष से। केरल में मुस्लिम आवादी 26.6% है जो कि समूचे भारत की औसत मुस्लिम आवादी (14.2%) के लगभग दुगुनी है लेकिन शिक्षा का स्तर बेहतर होने की वजह से वहाँ की जनसंख्या वृद्धि दर (4.9%) जो कि भारत के औसत वृद्धि दर (17.64%) के तिहाई से भी कम है।

अगर हम पूरे देश के हिन्दू मुस्लिम आवादी का तुलनात्मक अध्ययन भी करते हैं तो संघियों द्वारा मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ चार-चार बीबियाँ रखने, दस-दस बच्चे पैदा करने, किसी साज़िश के तहत ऐसा करने का कुत्साप्रचार टूट कर बिखर जाता है-

जनगणना के धर्म आधारित आंकड़ों के मुताबिक 2001 से 2011 के बीच हिंदू आबादी 16.76 फीसदी की तेजी से और मुस्लिम आबादी 24.6 फीसदी की तेजी से बढ़ी। इससे पिछले दशक में हिंदुओं की आबादी 19.92 फीसदी की तेजी से और मुस्लिमों की आबादी 29.52 फीसदी की तेजी से बढ़ी थी। यानी कि बेशक मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की दर हिंदुओं से तेज है (इसकी वजह मुस्लिमों में अपेक्षाकृत अधिक अशिक्षा व ग़रीबी रही है) पर अब दोनों धर्मों की आबादी की वृद्धि दर का अंतर तेजी से कम हो रहा है।

हाल ही में प्यू रिसर्च की फ्यूचर ऑफ वर्ल्ड रिलीजन रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में अब मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर तेजी से कम हो रही है और 2050 तक हिन्दुओं व मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग बराबर हो जाएगी।

उक्त सभी आँकड़े दिखाते हैं कि न तो भारत में अब जनसंख्या विस्फोट का ख़तरा रह गया है न ही हिन्दू आवादी पर मुस्लिम आवादी के बहुमत जैसी कोई स्थिति अगली कई सदियों तक होने वाली है। 

अगर जनसंख्या वृद्धि फिर भी किसी हद तक चिंता का विषय लगती है तो उसे दुरस्त करने के लिये सरकारों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, महिला सशक्तिकरण जैसे जनकल्याण के मुद्दों पर ज़ोर देना चाहिये जिससे जनसंख्या वृद्धि स्वतः ही कुछ सालों में न्यूनतम स्तर पर पहुँच जायेगी।

लेकिन इन मूल मुद्दों पर पूर्णतः विफल होने पर ये फ़ासिवादी सरकारें इनसे जनता का ध्यान भटकाने, हिन्दू-मुस्लिम के मुद्दे को चुनावों से पहले जनता के बीच उछालने के लिये झूठ व नफ़रत की ज़मीन पर खड़े किये गये इन तुग़लकी फ़ैसलों के दम पर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिशें कर रही हैं, अपनी नाकामियों को छुपाने के लिये एक छद्म मुद्दा खड़ा कर रही हैं।

—धर्मेन्द्र आज़ाद



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