संविधान की बात करें तो यह सत्य है कि इसके अंतर्गत कहीं विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया गया है, परंतु उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करते हुए इसके अंतर्गत स्वास्थ्य के अधिकार (Right to Health) को एक मौलिक अधिकार माना गया है। संविधान का अनुच्छेद 21, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।
लेकिन व्यवहार में यह गारंटी कितना खोखला है, यह मिहनतकस जनता संविधान निर्माण के समय से ही देखती आ रही है, और कोरोना काल मे तो इस 'स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी' की धज्जियां उड़ते हम सभी ने अच्छी तरह देखा है। इस काल मे न केवल मिहनतकस जनता बल्कि मध्यम वर्ग के कई लोग समुचित इलाज के आभाव में अपनी जाने गवाई।
पिछले कई दशकों से स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी कॉर्पोरेट हॉस्पिटल के हाथों जाते हुए और सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा को दम तोड़ते हुए हम देख रहे है। कोरोना के बढ़ते कहर ने इसे (सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के पतन को) और तेज कर दिया है और स्वास्थ्य व्यवस्था को दुर्दशा के कगार पर पहुंचा दिया है, मिहनतकस जनता के पहुचं से बहुत बाहर। नतीजा हमारे सामने है: आक्सीजन के लिये गुहार लगाते लोग, दवाइयों के लिये तरस्ते तड़पते लोग और अव्यवस्था के सामने दम तोड़ते लोग। एक भयंकर सामाजिक त्रासदी हम पर लाद दिया गया है और हम पूरी तरह विवश है- निजी कॉर्पोरेट अस्पतालों, राजनीतिज्ञों, न्यायाधीशों, विद्वानों और व्यापारियों के गिद्ध गिरोह के सामने एकदम विवश।
इस लिये व्यवहार में व्यापक मिहनतकस जनता के लिये स्वास्थ्य का अधिकार न तो मौलिक है और न ही सांवैधानिक।
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