दूर देहात में, छोटे कस्बो में स्थित मन्दिर, जिसकी आमदनी में लोगो के चढ़ावा से ज्यादा धनी दबंग जातियों/कुलको द्वारा दिया गया धन मंदिर के आय का मुख्य आधार है, वैसे मन्दिरो में इस तरह के प्रतिक्रियावादी फतवे ज्यादा देखने को मिलते है।
शहरों में स्थित मंदिर में ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। यहां तो बड़े-बड़े मन्दिरो में दलित पुजारी की भी नियुक्ति की जा रही है।
पूंजीवाद मंदिर को उद्द्योग, पूजारी को वेतन भोगी मजदूर वैसे ही बना रहा है जैसे आधुनिक पूंजीवादी श्रम विभाजन ने दलितों को अपनी जाति का पेशा चुनने की बाध्यता खत्म कर अपनी मर्जी का पेशा चुनने की आजादी प्रदान कर रहा है। आज जातियां जाति होने के साथ-साथ वर्ग भी है - पूंजीपति या वेतनभोगी मजदूर वर्ग। पूजारी और दलितो का जाति से मजदूर जाति(वर्ग) में यह रूपांतरण उन्हें उस मजदूर वर्ग का अभिन्न हिस्सा बनाता जा रहा है जिनके कांधे पर पूंजी का तख्त बदलने का ऐतिहासिक कार्यभार है।
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