Tuesday, 26 January 2021

अद्भुत साईट शास्त्रीय संगीत

*यह एक अद्भुत साईट है.*

 क्लिक करते ही, दिन का जो भी  प्रहर हो, उस प्रहर के राग में गायन/वादन प्रारंभ होत जाता है!!


*शास्त्रीय संगीत प्रेमियों हेतु एक सुंदर भेंट!*🙏🏻

यदि आप शास्त्रीय संगीत पसंद नहीं करते हैं तो, कृपया इसे डिलीट करने से पहले किसी संगीत प्रेमी को अवश्य भेज दीजिएगा

Monday, 25 January 2021

26 जनवरी, 15 अगस्त..! कविता



किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है..?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है..?
 
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है..!
गालियाँ भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है..!
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है..!
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है..!
जैसे भी टिकट मिला, जहाँ भी टिकट मिला..!
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है..!
उसी की जनवरी छब्बीस,
उसी का पन्द्रह अगस्त है..!
बाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है..!
 
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है..?
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है..?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा..!
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है..!
सेठ यहाँ सुखी है, सेठ यहाँ मस्त है..!
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है..!
 
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है..!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है..!
फ्र‍िज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है..!
फै़शन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है..!
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है..!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है..!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो,
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है..!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो,
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है..!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो,
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है..!
 
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है..!
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है..!
फ़्रि‍ज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है..!
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है..!
ग़रीबों की बस्ती में, उखाड़ है, पछाड़ है..!
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्‍छो नहीं..!
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है..!
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं..!
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है..!
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं..!
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है..!
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है..!
 
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है..?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है..?
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है..!
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है..!
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है..!

#बाबा नागार्जुन।

नौजवानों से

क्रांति का सच्चा सिपाही, एक सच्चा कम्युनिस्ट बनने  के लिए सिर्फ आँखों में जुल्मो सितम के खिलाफ नफ़रत और हाथों में पत्थर नहीं, पास में वैज्ञानिक समाजवाद की किताबे, उसे समझने की उत्कट इच्छा  और भगत सिंह की तरह क्रांति की राह में मर मिटने की प्रतिबद्धता होनी चाहिए.

एक सही क्रन्तिकारी पार्टी का हिस्सा बन कर क्रन्तिकारी काम करने के लिए बहुत बड़े श्रेणी का बुद्धिजीवी होना कोई जरुरी नहीं है, दर्द होना चाहिय, पूँजी के विरुद्ध खड़ा होने का साहस होना चाहिए, जुल्मो सितम के खिलाफ घृणा होनी चाहिए और कुछ करने का जज्बा होना चाहिए. सही क्रन्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में मिहनतकास वर्ग  के महान संघर्ष, समाजवादी समाज की स्थापना के लिए संघर्ष  से जुड़ कर ही आज नवजवान अपने को गर्वान्वित कर सकता है, अपनी अकर्मंन्यता से मुक्ति पा सकता है

कॉफ़ी हाउसी-फेसबुकी-ब्लॉ गबहादुर रणछोड़ ''वामपंथियों'', पीत पत्रकारों, एन.जी.ओ.-पंथियों और कैरियरवादी निठल्लेव बुद्धिजीवियों की आदि के पांतो में शामिल हो कर कोई भी युआ व्यर्थ में अपने बौद्धिक और चारित्रिक पतन के सिवा कुछ भी हासिल नहीं कर सकता. संशय और अविश्वा स का माहौल बनाकर, युवाओं को दुनियादारी की नसीहत देकर उन्हें  निरुत्सा हित करने  की कोई भी कोशिस पूंजीवादी शोषण और दमन से त्रस्त युवाओं को सर्वहारा वर्ग के महान लक्ष्य के लिए चलने वाले संघर्ष से विमुख नहीं कर सकता क्योकि आज पूँजी की निरंकुश और जुल्मी व्यवस्था हर रोज नवजवानों को इस अन्याय पूर्ण व्यवस्था से लड़ने के लिए, इसे उखाड़ फेकने के लिए मजबूर कर रही है, उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद का, मार्क्सवाद-लेनिनवाद  का  हथियार उठाने के लिए, समाजवाद के लिए मिहनतकास जनता के महान वर्ग संघर्ष में कूद पड़ने के लिए ललकार रही है.

कैफी आज़मी की वसीयत- कविता


मेरे बेटे मेरी आँखें मेरे बाद उनको दे देना
जिनहो ने रेत में सर गाड़ रखे है
और ऐसे मुतमइन है जैसे उनको
न कोई देखता है और न कोई देख सकता है, 
मगर यह वक़्त की जासूस नज़रें 
जो पीछा करती हाँ सबका ज़मीरो के अंधेरों तक
अंधेरा नूर पे रहता है ग़ालिब बस सवेरे तक
सवेरा होने वाला है।।

मेरे बेटे मेरी आँखें मेरे बाद उनको दे देना
कुछ अन्धे सूरमा जो तीर अंधेरे में चलाते है
सदा दुश्मन का सीना ताकते ख़ुद ज़ख़्म खाते है
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते है
बता दो उनको ऐसे ठग कभी पकड़ भी जाते हैं।।

मेरे बेटे उन्हें थोड़ी सी खुददारी भी दे देना
जो हाकिम क़र्ज़ ले के उसको अपनी जीत कहते हैं
जहाँ रखते है सोना रह्न ख़ुद भी रह्न रहते हैं
और उसके भी वह अपनी जीत कहते हैं
शरीके जुर्म है ये सुन के जो ख़ामोश रहते हैं
क़ुसूर अपना ये क्या कम है कि हम सब उनके सहते हैं।।

मेरे बेटे मेरे बाद उनको मेरा दिल भी दे देना
जो शर रखते हैं सीने में अपने दिल नहीं रखते
है उनकी आसतीं मे वह भी जो क़ातिल नहीं रखते
जो चलते है उन्हीं रसतों पे जो मनज़िल नहीं रखते
यह अपने पास कुछ भी फ़ख़्र के क़ाबिल नहीं रखते
तरस खा कर जिन्हें जनता ने कुर्सी पर बिठाया है
ये ख़ुद से तो न उटठें दे इन्हें तुम ही उठा देना
घटाई है जिन्होंने इतनी क़ीमत अपने सिक्के की
ये ज़िम्मा है तुम्हारा इनकी क़ीमत तुम घटा देना
जो वह फैलाएँ दामन यह वसीयत याद कर लेना
उन्हें हर चीज़ दे देना पर उनको वोट मत देना ।।

गेहूँ और नमक

गेहूँ की कीमत 5 ₹ थी, तब नमक 1 ₹ किलो था आज गेहूं 22 ₹/kg नमक 25 ₹/kg पता है क्यों? क्योंकि नमक कॉरपोरेट के हाथों में है और गेहूं किसानों के हाथ में है।

उन्होंने चलना सीख लिया है..! कविता



वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
जो घर में अब तक बैठे थे, 
उन्होंने लड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को, 
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

उन्हें अपनी ताकत का अहसास नहीं था,
करने को कुछ खास नहीं था..!
गुरुओं ने जो पाठ सिखाए, 
अब उन्होंने पढ़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को, 
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

मज़हब नहीं सिखाता, 
आपस में वैर रखना..!
इस बात को वे समझ गए,
साथ वे भी अा मिले, 
जो रास्ता थे भटक गए..!
हल पकड़ते हाथों ने, 
अब परचम पकड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

वे शांत बैठे थे अपने घर में,
रूखी सूखी खा लेते थे..!
सब्र शुक्र बहुत था उनमें,
गुरू की वाणी गा लेते थे..!
पर ज़मीन पे उनकी जब डाली नज़र,
तब पढ़ना उन्होंने छोड़ दिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

हुक्मरान ये भूल गए,
वाणी में चंडी का वार भी है..!
एक हाथ में गर हल है उनके, 
तो दूजे हाथ तलवार भी है..!
सरहदों के इन रखवालों ने, 
अब किले पे चढ़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

वे शहादत देते आए हैं,
उन्होंने अमर तराने गाए हैं..!
अातांकवादियों से वे डरे नहीं, 
उन्होंने अपने बहुत गंवाए हैं..!
मज़हब उनके लिए इबादत है, 
नफरत की चीज़ नहीं..! 
भूखा अगर कोई सोया है, 
तो वे भी न सोने पाया है..!

हक के लिए अपने, 
अब उन्होंने खड़ना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को,
उन्होंने चलना सीख लिया है..!
वे चल पड़े हैं दिल्ली को, 
उन्होंने चलना सीख लिया है..!

#मनमोहन सिंह।

Sunday, 24 January 2021

डाका डालने से पहले के नारे

नफ़रती गैंग द्वारा 'हिन्दू खतरे में है' 'जय श्री राम' के नारे डाका डालने से पहले डाकुओं द्वारा 'जय भवानी' के नारे का राजनैतिक संस्करण है। इसका जवाब 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' के नारे से देना होगा।

Saturday, 23 January 2021

बाल्जाक

पढ़ना , अनजान दोस्तों का स्वागत करने जैसा है।

Thursday, 21 January 2021

लेनिन के 97वें स्मृति दिवस के अवसर पर


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किसान-प्रश्न पर कम्युनिस्ट दृष्टिकोण : कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू

  (व्ला.इ. लेनिन के कुछ चुने हुए उद्धरण)

"…वर्ग-चेतन मज़दूर के लाल झण्डे का पहला मतलब है, कि हम अपनी पूरी शक्ति के साथ पूरी आज़ादी और पूरी ज़मीन के लिए किसानों के संघर्ष का समर्थन करते हैं; दूसरे, इसका अर्थ है कि हम यहीं नहीं रुकते बल्कि इससे आगे जाते हैं। हम आज़ादी और ज़मीन के साथ ही समाजवाद के लिए युद्ध छेड़ रहे हैं। समाजवाद के लिए संघर्ष पूँजी के शासन के विरुद्ध संघर्ष है। यह सर्वप्रथम और सबसे मुख्य रूप से उजरती मज़दूर द्वारा चलाया जाता है जो प्रत्यक्षतः और पूर्णतः पूँजीवाद पर निर्भर होता है। जहाँ तक छोटे मालिक किसानों का प्रश्न है, उनमें से कुछ के पास ख़ुद की ही पूँजी है, और प्रायः वे ख़ुद ही मज़दूरों का शोषण करते हैं। इसलिए सभी छोटे मालिक किसान समाजवाद के लिए लड़ने वालों की क़तार में शामिल नहीं होंगे, केवल वही ऐसा करेंगे जो कृतसंकल्प होकर सचेतन तौर पर पूँजी के विरुद्ध मज़दूरों का पक्ष लेंगे, निजी सम्पत्ति के विरुद्ध सार्वजनिक सम्पत्ति का पक्ष लेंगे।"

('किसान समुदाय और सर्वहारा')

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"पूँजीवाद के अन्तर्गत छोटा मालिक किसान, वह चाहे या न चाहे, इससे अवगत हो या न हो, एक माल-उत्पादक बन जाता है और यही वह परिवर्तन है जो मूलभूत है, क्योंकि केवल यही उसे, बावजूद इसके कि वह भाड़े के श्रम का शोषण नहीं करता, एक निम्न-पूँजीपति बना देता है और उसे सर्वहारा के एक विरोधी के रूप में बदल देता है। वह अपना उत्पादन बेचता है, जबकि सर्वहारा अपनी श्रम-शक्ति। एक वर्ग के रूप में छोटा मालिक किसान केवल कृषि उत्पादों के मूल्य में वृद्धि ही चाह सकता है और यह बड़े भूस्वामियों के साथ लगान में उसकी हिस्सेदारी और शेष समाज के विरुद्ध भूस्वामियों के साथ उसकी पक्षधरता के समान है। माल-उत्पादन के विकास के साथ ही छोटा मालिक किसान अपनी वर्ग-स्थिति के अनुरूप एक निम्न-भूसम्पत्तिवान मालिक बन जाता है।"

('कृषि में पूँजीवाद के विकास के आँकड़े')

*

"… यदि रूस में वर्तमान क्रान्ति की निर्णायक विजय जनता की पूर्ण सम्प्रभुता क़ायम करती है, यानी एक गणराज्य और एक पूर्ण जनवादी राज्य व्यवस्था की स्थापना करती है, तो पार्टी ज़मीन के निजी मालिकाने को ख़त्म कर देगी और सारी ज़मीन सामान्य सम्पत्ति के रूप में पूरी जनता को सौंप देगी।

"इसके अतिरिक्त, सभी परिस्थितियों में रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी का उद्देश्य, जनवादी भूमि-सुधारों की चाहे जो भी स्थिति हो, ग्रामीण सर्वहारा के स्वतन्त्र वर्ग संगठन के लिए, उसे समझाने के लिए कि उसका हित किसान पूँजीपति वर्ग के हित से असमाधेय रूप से विरोधी है, उसे छोटे पैमाने के मालिकाने के विरुद्ध चेतावनी देने के लिए जो, जब तक माल-उत्पादन मौजूद रहेगा तब तक जनता की दरिद्रता दूर नहीं कर सकता और अन्त में, समस्त दरिद्रता और समस्त शोषण को समाप्त करने के एकमात्र साधन के रूप में एक पूर्ण समाजवादी क्रान्ति की आवश्यकता पर ज़ोर देने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना है।"

('मज़दूर पार्टी के भूमि कार्यक्रम में संशोधन')

*

"कोई पूछ सकता है: इसका हल क्या है, किसानों की स्थिति कैसे सुधारी जा सकती है? छोटे किसान ख़ुद को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से जोड़कर और समाजवादी व्यवस्था के लिए संघर्ष में एवं ज़मीन तथा उत्पादन के अन्य साधनों (कारख़ानें, मशीनें आदि) को सामाजिक सम्पत्ति के रूप में बदल देने में मज़दूरों की मदद करके ही अपने आप को पूँजी की जकड़ से मुक्त कर सकते हैं। छोटे पैमाने की खेती और छोटी जोतों को पूँजीवाद के चतुर्दिक हमले से बचाकर किसान समुदाय को बचाने का प्रयास सामाजिक विकास की गति को अनुपयोगी रूप से धीमा करना होगा, इसका मतलब पूँजीवाद के अन्तर्गत भी ख़ुशहाली की सम्भावना की भ्रान्ति से किसानों को धोखा देना होगा, इसका मतलब मेहनतकश वर्गों में फ़ूट पैदा करना और बहुमत की क़ीमत पर अल्पमत के लिए एक विशेष सुविधाप्राप्त स्थिति पैदा करना होगा।"

('मज़दूर पार्टी और किसान')

*

"यदि, नरोदवादियों के कल्पनालोक में, हम वास्तविक आर्थिक कारणों को मिथ्या विचारधारा से सावधनीपूर्वक अलग करें, तो उसी क्षण पायेंगे कि सामन्ती जागीरों के टूटने से, चाहे वे बँटवारे से टूटें या राष्ट्रीकरण से या म्युनिसिपलीकरण से, सबसे अधिक लाभान्वित होने वाला वर्ग स्पष्ट तौर पर पूँजीवादी किसान ही है। (राज्य-प्रदत्त) ऋण-अनुदान भी पूँजीवादी किसान को ही सर्वाधिक लाभ पहुँचाने के लिए बाध्य है। (किसान भूमि क्रान्ति) भूस्वामित्व की पूरी व्यवस्था को शुद्ध रूप से इन पूँजीवादी फ़र्मों की प्रगति और समृद्धि की शर्तों के अधीन कर देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।"

('सामाजिक जनवाद का भूमि कार्यक्रम')

कॉर्पोरेट को पूरी आजादी देता कृषि कानून*


21/01/2021

इन तीन कृषि कानून के आने के बाद कॉर्पोरेट क्लास को पूरी छूट, आजादी मिल गयी है कि वो जिस प्रदेश के किसान से चाहे कृषि उपज खरीद सकते है, जिस कीमत पर जितना चाहे खरीद कर गोदाम भर सकते है क्योंकि अब जमाखोरी से सम्बंधित कानून में आवश्यक संशोधन कर दिया गया है। फिर खरीदी हुई कृषि उपज को बाजार में पूरे देश मे फैले अपने हजारो बड़े-बड़े रिटेल मॉल के माध्यम से जितनी कीमत चाहे वे हमसे वसूल कर सकते है क्योंकि कीमत एक सीमा के अंदर रखने के लिये कानून में कोई प्रावधान नही रखा गया है।
अप्रैल मई में सरसो का न्यूनतम सरकारी मूल्य था 44 रुपए/ किलो और सरसो के तेल का मूल्य था 80 से  90 रुपए लीटर (खुदरा बाजार में)

अभी तो भंडारण की सीमा थी जिसे जून मे खत्म कर दिया गया और सरसो सेठ जी के गोदाम में पहुंच गई!

आज सरसो का रेट है-लगभग 60 से 65/किलो और सरसो का तेल- 160 रुपए/ लीटर !

अर्थात 166 रुपए किलो जिसपर 200 रुपए से अधिक का मूल्य प्रिंट होकर आना शुरू हो गया है! 

यदि किसान आंदोलन तथा अड़ानी अंबानी विरोध न हो रहा होता तो शायद यह प्रिंट रेट पर ही बिकता!!

अभी सरसो की नई फसल आने में तीन महीने बाकी है.

सचमुच, मोदी सरकार के इस दावे में तनिक भी सच्चाई नही है कि यह कानून किसानों के हित  में लाया गया है और इससे किसानों की आमदनी दुगुनी हो जाएगी।  इस कानून ने कॉर्पोरेट घराने को कृषि उपज पर अधिकतम मुनाफा कमाने की पूरी आजादी प्रदान किया है। इसमें किसानों के लिये कुछ भी नही है, किसानों के नाम पर यह  देशी- विदेशी कॉर्पोरेट के पक्ष में बनाया गया कानून  है।

Wednesday, 20 January 2021

सर्वहारा दृष्टिकोण

http://www.sucicommunist.org/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A3/

Tuesday, 19 January 2021

ए रहबर मुल्को कौम बता



अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर एक  प्रमुख कारण यह था -भारतीय-थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों का विद्रोह।

बिना भारतीय-सैनिकों के सिर्फ ब्रिटिश-सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।

ब्रिटिशों के भारत-छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान बहुत ही कम रहा।

उसी नेवी की बगावत के सिपाहियों को गाँधी ने 'सिपाही नहीं गुण्डे' कहा था और ब्रिटिश ने उस विद्रोह को बेरहमी से कुचलने में कामयाबी पाई थी. 

बगावती-सिपाहियों को गोलियों से भून दिए जाने पर प्रसिद्ध;इन्क्लाबी शायर 'साहिर-लुधियानवी' ने लिखा था ………

* ए रहबर मुल्को कौम बता, 
ये किसका लहू है कौन मरा
क्या कौमो वतन की जय 
गाकर मरते हुए राही गुण्डे थे..
जो बागे गुलामी सह न सके 
वो मुजरिम-ए-शाही गुण्डे थे?
जो देश का परचम ले के उठे 
वो शोख सिपाही गुण्डे थे?
जम्हूर से अब नज़रें न चुरा 
अय रहबर मुल्को कौम बता

ये किसका लहू है कौन मरा ………

किसान आंदोलन और मजदूर वर्ग की भूमिका - नरेंद्र कुमार

आज के किसान आंदोलन में एंगेल्स तथा लेनिन के विचारों के आधार पर मजदूर वर्ग की क्या भूमिका हो ?

कई साथी सिर्फ लेनिन तथा एंगेल्स के उद्धरण पेश कर रहे हैं. उन्हें आज के किसान आंदोलन के संदर्भ में उसका विश्लेषण भी पेश करना चाहिए. इस लेख में 'फ्रांस तथा जर्मनी में किसान का सवाल' लेख से दो उद्धरण पेश किए जा रहे हैं जिसका कई साथी संदर्भ से हट कर अलग - अलग अर्थ निकाल रहे हैं, जबकि एक ही लेख में किसानों के प्रति संपूर्णता में मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी के दृष्टिकोण को पेश करने के लिए एंगेल्स ने ये सारी बातें लिखी हैं. 

पहले एंगेल्स के उस पक्ष को उद्धृत कर विचार किया जाए जिसमें वह पूंजीवाद में छोटी खेती के पुराने उत्पादन संबंध को अनिवार्य रूप से समाप्त होने की बात करते हैं. एंगेल्स लिखते हैं-- 

"हमारी पार्टी का यह कर्तव्य है कि किसानों को बारंबार स्पष्टता के साथ जताए कि •पूंजीवाद का बोलबाला रहते हुए उनकी स्थिति पूर्णतया निराशापूर्ण है, कि •उनकी छोटी जोतों को इस रूप में बरकरार रखना एकदम असंभव है, कि •बड़े पैमाने का पूंजीवादी उत्पादन, उनके छोटे उत्पादन की अशक्त, जीर्ण-शीर्ण प्रणाली को उसी तरह कुचल देगा, जिस तरह रेलगाड़ी ठेला गाड़ी को कुचल देती है.

ऐसा करके हम आर्थिक विकास की अनिवार्य प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेंगे और यह विकास एक न एक दिन छोटे किसानों के मन में हमारी बात को बैठाए  बिना नहीं रह सकता." (पृ.385)

तो क्या यह बात भारत के आंदोलनकारी किसानों को उनके आंदोलन से दूर रहकर मजदूर वर्ग समझा सकता है? 

हम किसान आंदोलन में मजदूर वर्ग के कई संगठनों को बड़ी पूंजी और फासीवादी सरकार के खिलाफ किसानों के संघर्ष का समर्थन तथा उसमें भागेदारी करते पा रहे हैं. ऐसे ही मजदूर संगठन के कार्यकर्ताओं को एक ऐसी पुस्तिका बेचते और बताते पाया कि जिसमें बताया गया है कि 'छोटे किसानों की खेती पूंजीवाद में अनिवार्य रूप से तबाह हो जाएगी.'

मजदूरों का यह संगठन पूरी सक्रियता से दिल्ली के आसपास के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहा है. किसान उनकी बात सुन रहे हैं, लेकिन क्या इस आंदोलन से दूर रहकर या बड़े पूंजीपतियों और फासीवादी सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन का उपहास करते हुए, उन्हें यह बात समझायी जा सकती है ?

अपने उसी लेख में एंगेल्स आगे लिखते हैं,"

....मझोला किसान जहां छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है, वहां उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक भिन्न नहीं होते. वह अपने तजुर्बे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही लोग छोटे किसानों की हालत में पहुंच चुके हैं, पर जहां मझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आम तौर पर नौकर और नौकरानियों की आवश्यकता होती है, वहां बात बिल्कुल दूसरी ही है. कहने की जरूरत नहीं कि मजदूरों की पार्टी को प्रथमत: उजरती मजदूरों की ओर से, यानी इन नौकरों- नौकरानियों और दिहाड़ीदार मजदूरों की ओर से ही लड़ना है. किसानों से ऐसा कोई वादा करना निर्विवाद रूप से निषिद्ध है, जिसमें मजदूरों की उजरती गुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो; परंतु जब तक बड़े और मझोले किसानों का अस्तित्व है, वे उजरती मजदूरों के बिना काम नहीं चला सकते. इसलिए छोटी जोत वाले किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वह इस रूप में सदा बने रह सकते हैं, जहां मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहां बड़े और मझोले किसानों को यह आश्वासन देना गद्दारी की सीमा तक पहुंच जाना होगा. (पृ.385-86)

किसानों के अन्य पूंजीवादी प्रवृत्तियों और कमजोरियों पर प्रकाश डालते हुए एंगेल्स लिखते हैं : -

...." हमें आर्थिक दृष्टि से यह पक्का यकीन है कि छोटे किसानों की तरह, बड़े और मझोले किसान भी अवश्य ही पूँजीवादी उत्पादन और सस्ते विदेशी गल्ले की होड़ के शिकार बन जायेंगे. यह इन किसानों की भी बढ़ती हुई ऋणग्रस्तता और सभी जगह दिखाई पड़ रही अवनति से सिद्ध हो जाता है.."(पृ.386)  
   
आज के किसान आंदोलन में भागीदारी कर रहे छोटे, यहां तक की बड़े किसान भी, मजदूर वर्ग की पार्टी या संगठन द्वारा समझाने के पहले ही, यह समझ रहे हैं कि "बड़ी पूंजी के हमले के कारण उनकी खेती उजड़ जाएगी."

जाहिर सी बात है कि एक वर्ग के रूप में छोटी पूंजी के मालिक यानी टुटपुंजिया वर्ग, बड़ी पूंजी के हमले के खिलाफ अपने अस्तित्व के बचाव के लिए लड़ेगा ही. 

कोई भी मजदूर वर्ग की पार्टी, उसे बड़ी पूंजी के सामने आत्मसमर्पण करने की सलाह नहीं दे सकता है! यदि आप उसका उपहास उड़ाएंगे या आप उसे ज्ञान देंगे कि तुम्हारी बर्बादी निश्चित है तो उन किसानों का जवाब होगा कि: 

"बंधु ! बर्बाद होने से तो लड़ते-लड़ते मर जाना अच्छा है!'

इसलिए पूंजीवाद के सामने निष्क्रिय विरोध या आत्मसमर्पण कर देने की सलाह, हम कतई नहीं दे सकते हैं. चुपचाप रह जाने की नीति पर चलते हुए जो साथी सिर्फ उद्धरणों को पेश करते हैं उनसे हमारा सवाल है कि "आप किसानों को क्या कहना चाहते हैं ? क्या उन्हें लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए? बड़ी पूंजी तथा फासीवादी शक्तियों के खिलाफ अपने अस्तित्व की लड़ाई के लिए क्या किसानों को चुपचाप से बड़ी पूंजी के इस हमले को सहते हुए बिखर जाना चाहिए ?"

एंगेल्स चुप्पी या निष्क्रयता का विरोध करते हैं. वह पूंजीवाद के द्वारा किसानों की तबाही होने तक इंतजार करने की राजनीति का भी विरोध करते हैं. मजदूर वर्ग की ऐतिहासिक जिम्मेवारी को बताते हुए और किसानों को मजदूर वर्ग के साथ ला खड़ा करने के लिए स्पष्ट दिशा निर्देशन देते हुए एंगेल्स आगे लिखते हैं, 

"सर्वहारा की पांतों में जबरन ढकेले जाने से हम जितने ही अधिक किसानों को बचा सकें, जितने अधिक को किसान रहते हुए ही हम अपनी ओर कर सकें, उतनी ही जल्दी और आसानी से सामाजिक कायापलट संपन्न होगा. इस कायापलट को तब तक टालने से, जब तक कि पूंजीवादी उत्पादन सर्वत्र अपनी चरम परिणति पर ना पहुंच जाए और हर छोटा दस्तकार और हर छोटा किसान, बड़े पैमाने के पूंजीवादी उत्पादन का शिकार न बन जाए, हमारा कोई हित साधन नहीं होगा. इसके लिए किसानों के हितार्थ जो माली कुर्बानी करनी होगी. जिसकी पूर्ति सार्वजनिक कोष से की जाएगी, वह पूंजीवादी अर्थतंत्र के दृष्टिकोण से पैसों की बर्बादी मानी जा सकती है, किंतु वस्तुतः धन का अति उत्तम विनियोग है, क्योंकि उससे आम सामाजिक पुनः संगठन के खर्च में संभवत 10 गुनी बचत होगी. अतः इस अर्थ में किसानों के साथ हम अत्यंत उदारता का व्यवहार करने में समर्थ है."
  
[फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल पुस्तिका में एंगेल्स के विचार...खंड 3 भाग 2]

ये उद्धरण एक ही लेख में लगभग एक ही जगह हैं, इसलिए इन दोनों उद्धरण को संपूर्णता में ही समझा जाना चाहिए और वर्तमान आंदोलन से जोड़कर इसकी व्याख्या की जानी चाहिए. 

एंगेल्स  लिखते हैं कि छोटे किसानों की तबाही के लिए इंतजार करने में मजदूर वर्ग का कोई भला नहीं है. 

यही वह महत्त्वपूर्ण पंक्ति है जो हमें इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा होते हुए पूंजीवाद के हमले में किसानो की खेती के अनिवार्य तौर पर तबाही की बात मजदूरों द्वारा किसानों को समझाने का निर्देश देता है.
 
भारत के किसान एक दमनकारी फासीवादी राज्य से लड़ रहे हैं!

वे वित्त पूंजी और एकाधिकार पूंजी के बड़े हमले के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.

इस संघर्ष में साथ देकर ही सामान्य किसानों को समझ में आ सकता है कि "पूंजीवाद के अंतर्गत वे अपनी खेती नहीं बचा सकते हैं."
 
एंगेल्स तथा लेनिन जब इस तरह की बातें कहते हैं तो किसानों के सामने कहीं उन से आगे बढ़कर लड़ने और नेतृत्व देनेवाले संगठित मजदूर वर्ग खड़े होते हैं. 

आज भारत में मजदूर वर्ग और उनके संगठन की भारी कमजोरी यह है कि श्रम कानूनों में लगातार मजदूर विरोधी होने वाले सुधारों और मजदूर वर्ग के छीने जा रहे अधिकारों के बावजूद, पूंजीवाद और उसकी फासीवादी सत्ता के खिलाफ कोई बड़ा प्रतिरोध संघर्ष खड़ा नहीं कर पाए हैं. 

ऐसी स्थिति में हम किसानों को मजदूरों के पीछे आने के लिए राजनीतिक तौर पर आवाहन करने का भौतिक आधार भी तैयार नहीं कर पा रहे हैं. 

इसलिए सबसे पहले तो मजदूर वर्ग की जितनी भी ताकत है, उसे संगठित करके मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों में हुए सुधारों के खिलाफ मजबूत संघर्ष की तैयारी करनी चाहिए. साथ ही जन विरोधी कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष को आगे ले जाना चाहिए और किसानों को इस लड़ाई में साथ देने का आवाहन करना चाहिए, न कि हमें किसानों की इस लड़ाई को धनी किसानों की लड़ाई कह कर, चुप रहना चाहिए या मजदूर वर्ग को इससे अलग रहने की सलाह देनी चाहिए. 

वर्तमान में आंदोलनकारी किसान इस बात को - समझ रहे हैं कि वे तबाह होने वाले हैं, इसीलिए वे लड़ रहे हैं. वे भले इतिहास की गति नहीं समझ रहे हों, लेकिन इतिहास ने किसानों पर समाजवाद के निर्माण की जिम्मेदारी भी नहीं दी है. यह जिम्मेवारी मजदूर वर्ग, उसके संगठन और पार्टी को दी है जिनमें कई ऐसे ऐतिहासिक क्षण में या तो चुप हैं या उद्धरण का खेल खेलते रहे हैं और सिर्फ लंबे-लंबे लेख लिखते रहे हैं!

जब छोटे और मझोले किसान बड़े पूंजीपतियों से और राज्य से अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हों तो ये सारी बातें उन्हें समझाते हुए हमें क्या तटस्थ रहना चाहिए या बड़ी पूंजी के खिलाफ और फासीवादी राज्य के खिलाफ उनके संघर्ष का समर्थन करना चाहिए ? 

एंगेल्स तथा लेनिन अपनी रचनाओं में इस बात पर जोर देते हैं कि समाजवादी यानी मजदूर वर्ग की पार्टी, उनकी छोटी जोत को बचाए रखने की गारंटी नहीं दे सकते हैं. यानी पूंजीवाद के रहते हुए बड़ी पूंजी उनकी छोटी पूंजी को अनिवार्य रूप से निगल जाएगा. इसलिए किसानों को बड़ी पूंजी के खिलाफ संघर्ष करते हुए मजदूरों के साथ तथा मजदूरों के नेतृत्व में आना चाहिए और समाजवाद के लिए संघर्ष में साथ देना चाहिए, ताकि उनके उत्पादों का सही मूल्य मिल सके और तर्कपूर्ण ढंग से मुनाफा के बजाए समाज की आवश्यकओं को केंद्र में रखकर उत्पादन किया जा सके और समाज के लिए उसे उपयोग में लाया जा सके. बदले में किसानों को समाजवादी राज्य उत्पादन के तमाम साधनों तथा उत्पादों को पूरी तरह से खरीदने की गारंटी देगी. 

इस तरह से किसानों को एक बेहतर जीवन दिया जा सकेगा. समाजवादी राज्य ने सोवियत संघ में यही किया था. हमें लेनिन की यह बात याद रखना चाहिए---

"सर्वहारा वर्ग वस्तुतः क्रांतिकारी, वस्तुतः समाजवादी ढंग से काम करने वाला वर्ग, केवल उसी सूरत में होता है, जब वह समस्त मेहनतकशों तथा शोषितों के हरावल के रूप में शोषकों का तख्ता पलटने के लिए संघर्ष में उनके नेता के रूप में सामने आता है और काम करता है. परंतु यह काम वर्ग संघर्ष देहात में पहुंचाए बिना, देहात के मेहनतकश जनसाधारण को शहरी सर्वहारा की कम्युनिस्ट पार्टी के इर्द-गिर्द एकबद्ध किए बिना, सर्वहारा वर्ग द्वारा देहाती मेहनतकशों को शिक्षित-दीक्षित किए बिना पूरा नहीं हो सकता." 
[कृषि प्रश्न पर थिसिसों का आरंभिक मसविदा, लेनिन नई संकलित रचनाएं, भाग- 4"]

भारत के आज की स्थिति में यह स्वीकार करना चाहिए कि लेनिन ने सर्वहारा वर्ग के जिस कार्यभार को रेखांकित किया है, उसे भारत के मजदूर वर्ग और उनके  संगठन   पेश कर में असफल रहे हैं. अन्य शोषित उत्पीड़ित वर्गों के आंदोलन के समय ऐसी पहलकदमी का सर्वथा अभाव रहा है. 

अनिवार्य रूप से हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि मजदूर वर्ग, मजदूर आंदोलन के साथ-साथ किसान आंदोलन को संगठित करने में ऐतिहासिक तौर पर यदि असफल नहीं रही, तो कमजोर अवश्य रही है. मजदूर आंदोलन ट्रेड यूनियन की सीमाओं से आगे नहीं बढ़ पाया. आज तो ट्रेड यूनियन की सीमाओं में लड़े जाने वाले श्रम कानूनों में पूंजी के पक्ष में हो रहे संशोधनों के खिलाफ भी युनियन नहीं लड़ पा रही है. साथ ही किसान सहित अन्य जनवादी आंदोलनों में अपनी भागीदारी करने में काफी पीछे रह रही है. ऐसी स्थिति में हमें मजदूर वर्ग के बीच में काम करने वाले राजनीतिक संगठन के तौर पर अपना आत्मअवलोकन करना चाहिए क्योंकि मजदूरों के मजबूत और राजनीतिक संघर्ष को खड़ा किए बगैर, किसान या दूसरे शोषित उत्पीड़ित समाज, उसके नेतृत्व में या उसके साथ कैसे और क्यों आएंगे ?

●कम्युनिस्ट सेंटर फॉर साइंटिफिक सोशलिज्म
Narendra Kumar

Monday, 18 January 2021

movies

Color version of old B / W movies. Make the most of your free time to watch these movies.

1. *Munimji (1955)*

2. *Kathputli (1957)*

3. *Jan Pahchan (1950)*

4. *Solva Saal (1958)*

5. *Biraj Bahu (1954)*

6. *Do Ustad (1959)*

7. *Raj Hath (1956)*

8. *Khazanchi (1941)*

9. *Sanam (1950)*

10. *Abe Hayat (1955)*

11. *Chhoti Bahen (1959)*

12. *Jailor (1958)*

13. *Samrat Chandrgupt (1958)*

14. *Ek Saal (1957)*

15. *Najma (1943)*

16. *Nastik (1954)*

17. *Mirza Sahiban (1947)*

18. *Lal Haveli (1944)*

19. *Rani Rupmati (1957)*

20. *Tarana (1951)*

21. *Pukar (1939)*

22. *Nau Do Gyaraha (1957)*

23. *Seema (1955)*

24. *Sangdil (1952)*

25. *Sharada (1957)*

26. *House No 44 (1955)*

27. *Ek Hi Raasta (1956)*

28. *Phagun (1958)*

29. *Parivar (1956)*

30. *Basant Bahar (1956)*

31. *Insan Jag Utha (1959)*

32. *Parineeta (1953)*

33. *Dhool Ka Phool (1959)*

34. *Apradhi Kaun (1957)*

35. *Sahara (1958)*

36. *Aag (1948)*

37. *Badal (1951)*

38. *Sujata (1959)*

39. *Shaheed (1948)*

40. *Aah (1953)*

41. *Morni (1956)*

42. *Dil Deke Dekho (1959)*

43. *Ujala (1959)*

44. *Daag (1952)*

45. *Afasana (1951)*

46. *Sadhna (1958)*

47. *Chirag Kahan Roshni Kahan (1959)*

48. *Mirza Ghalib (1954)*

49. *Mela (1948)*

50. *Goonj Uthi Shehnai (1959)*

51. *Raj Tilak (1958)*

52. *Pocket Maar (1956)*

53. *Kaagaz Ke Phool (1969)*

54. *Kali Topi Lal Rumal (1959)*

55. *Miss Mary (1957)*

56. *Andaz (1949)*

57. *Dillagi (1949)*

58. *Love Marriage (1959)*

59. *Patanga (1949)*

60. *Anand Math (1952)*

61. *Jagte Raho (1956)*

62. *Uran Khatola (1955)*

63. *Barsaat (1949)*

64. *Chhoo Mantar (1958)*

65. *Paigham (1959)*

66. *Anari (1959)*

67. *Albela (1951)*

68. *Mr & Mrs 55 (1955)*

69. *Amar (1954)*

70. *Jugnu (1947)*

71. *Babul (1955)*

72. *Chandrlekha (1948)*

73. *Azad (1955)*

74. *Awaara (1951)*

75. *Baiju Bawra (1952)*

76. *Kala Pani (1958)*

77. *Pyaasa (1957)*

78. *Bahar (1951)*

79. *Baazi (1951)*

80. *Anmol Ghadi (1946)*

81. *CID (1956)*

82. *Mahal (1949)*

83. *Do Bigha Zamin (1953)*

84. *Achhut Kanya (1936)*

85. *Madhumati (1958)*

86. *Nagin (1954)*

87. *Sikandar (1941)*

88. Paying Guest (1957)

89. Yahudi (1958)

90. *Chalti Ka Naam Gaadi (1958)*

91. *Tumsa Nahi Dekha (1957)*

92. *Boot Polish (1955)*

93. *Howrah Bridge (1958)*

94. *Devdas (1955)*

95. *Shri 420 (1955)*

Who are “the People” in India?


Today,  the word people is widely used not only by the ruling bourgeoisie ideologue but also  by progressive writers, revolutionary intellectuals and various communist parties in India. 

But what does it mean by the word "people" and "peoples' democratic dictatorship"? 

In 1905, Lenin says: "It now remains to define more precisely what Marx really  meant by 'democratic bourgeoisie' (demokratische Burgerschaft), which together with the workers,  he called the people, in contradistinction to the big  bourgeoisie. .  There is no doubt that the  chief components of the 'people,' whom Marx in 1848 contrasted with the resisting reactionaries and  the  treacherous bourgeoisie, are the  proletariat and peasantry.  Lenin on Two Tactics of Democratic Revolution. Page 134 & 136  Lenin C.W. Vol 9 

Regarding the "liberal bourgeoisie," Lenin excludes them from the ranks of the "people" after the revolution, as they will betray the peasants by taking the side of the landlords.

In 1917, Lenin points out that in a letter to Dr. Kugelmann (12 April 1871), Marx spoke of a "people's revolution"  He then says that , "the idea of a people's' revolution seems estrange on Marx's  lips , and the  Russian  Plekhanovites and Meneheviks...might possibly declare such an expression a slip of the   tongue'. ..but in t h e Europe of 1871, th e proletariat on t h e Continent did not constitute the majority of the people. A "people's" revolution, one actually sweeping the majority into its stream, could be such only if it embraced both the proletariat and the peasants. These two classes then constituted the "people".   Lenin State and Revolution  

After the-revolution, when the new transitional state is established, it can be, says Marx, only a dictatorship of  the Proletariat. 

"In other words: when the democratic bourgeoisie or petty bourgeoisie ascends another step, when not only the revolution but the complete victory of the revolution becomes an accomplished fact, we shall "substitute" (perhaps amid the horrified cries of new, future, Martynovs) for the slogan of the democratic dictatorship, the slogan of a socialist dictatorship of the proletariat, i.e., of a complete socialist revolution."  Two Tactics of Social-Democracy in the Democratic Revolution Lenin 

In his Two Tactics of Social Democracv in the Democratic Revolution Lenin savs: "The task now is to define which classes must build the new superstructure. This definition  is given in the slogan: The democratic dictatorship of the proletariat and peasantry. This slogan defines...the character of the new superstructure (a democratic"  as distinct from a socialist dictatorship),... as bourgeois-democratic development was still  the  order of the day in Russia. 

Thus in his Why Can China's.Red Political Power Exist? of October 1928, Mao speaks of an armed  workers  and peasants"' regime , and in A Single Spark Can Start a Prairie Fire of January 1930, he speaks of  the  correctness of the man about a workers' and peasants democratic political power. 

Stalin also  applies this concept of people  in 1926 on China: 

"I think that  the future revolutionary government in China will in general resemble in character the government we used to talk about in our country in 1905, that  is, something in the nature of a democratic dictatorship  of the proletariat and peasantry,  with the difference, however,  that it  will be  first and foremost an anti-imperialist government. This shall  be an interim state. power for China to attain non-capitalist  development. 

This idea of workers and peasants' political power i.e. people's political power,  originally Lenin's, was not only used by Mao in October 1928 and January 1930, but also appears in the 1931 constitution of the Chinese Soviet Republic. That constitution referred to the political power of  "the state of the democratic dictatorship of the workers and peasants.

But in the late 1930s, Mao  began to depart from the traditional Marxist Leninist concept of people by bringing yet another class-the "national bourgeoisie-into the concept of people. 

 In the article "On the People's Democratic Dictatorship"  (July 1949), Mao says :  

"All the experience the Chinese people have accumulated through several decades teaches us to enforce the people's democratic dictatorship, that is, to deprive the reactionaries of the right to speak and let the people alone have that right.

Who are the people? At the present stage in China, they are the working class, the peasantry, the urban petty bourgeoisie and the national bourgeoisie."

Thus the word people has a different meaning in Marx, Lenin and Stalin's writings from that of Mao's writings.  For the first time Mao included national bourgeois also in the concept of people. 

Also  peoples democratic dictatorship was different from what Marx says  in his Critique of the Gotha Program of 1875  "Between capitalist  and Communist society lies the period of the revolutionary transformation of the one in to the other. There corresponds to this also a political transition  period, in which the state can be nothing but the revolutionary dictatorship of the proletariat."

We need to define who are "the people"  in India? From the Marxist-Leninist stand point, people does not include national bourgeoisie where as from the Maoist stand point  people does include national bourgeoisie.

people

How Mao applies his concept of "people" in the conditions of Soviet Russia of Lenin and Stalin ?  

Mao's concept of 'people" was different from that of Marx, Engels, Lenin and Stalin. Contrary to Mao's concept, national bourgeois was never included under the concept of people by Marx, Engels, Lenin and Stalin and accordingly the word 'people' was used by them in their writings only to include proletariat and the peasantry.  Whether this difference in the concept of people  amounts to a deviation from Marxism Leninism or a contribution in the Marxist Leninist treasury is the most controversial issue. Mao advocated political alliance with the national bourgeois not only prior to peoples' democratic government but also  during the period of socialist construction.  For example, in his most central writing "On the Correct Handling of Contradictions Among the People" 1957 Mao Tse-tung held the dictatorship of  the proletariat to be possible along with a political alliance with the national bourgeoisie. He even proceeded from the fact that the construction of socialism was possible while allying politically with this bourgeois. (Selected Works Vol. V, P-385-387). His approach towards bourgeoisie had not changed when he says in 1962:

"Socialist Society covers a considerably long historical period. In the historical period of Socialism, there are still classes, class contradictions and class struggles, there is the struggle between the Socialist road and the capitalist road, and there is the danger of capitalist restoration. We must recognise the protracted and complex nature of this struggle. We must heighten our vigilance. We must correctly understand and handle class contradictions and class struggle, distinguish the contradictions between ourselves and the enemy from those among the people and handle them correctly. Otherwise a Socialist country like ours will turn into its opposite and degenerate, and capitalist restoration will take place. From now on we must remind ourselves of this every year, every month and every day so that we can retain a rather sober understanding of this  problem and have a Marxist-Leninist line." From "Problems of Socialism,Capitalist Restoration and the Great Proletarian Cultural Revolution" by Shashi Prakash

Thus even in 1962 Mao is on the same line of 1957 i.e. to correctly handle the contradiction among the people (contradiction with the national bourgeois) 

But what is the most surprising and striking on Mao's part is that when Mao refers writings of Lenin and Stalin he fails to understand that his concept of people differs from the concept of 'people' of Lenin and Stalin. When he refers Lenin saying that contradictions among the people exist  he wrongly says that Lenin did not have time enough to analyze this question fully.  This is absolutely in correct. Lenin did analyze this question in full in his Two Tactics of Democratic Revolution. Page 134 & 136 Lenin C.W. Vol 9 . and in "State and Revolution" and came to the conclusion that the chief components of the word  'people, are proletariat and the peasantry.  And  Mao says: 
"Lenin said contradictions among the people exist, but Lenin did not have time enough to analyze this question fully. —"On the Correct Handling of Contradictions among the People" (Speaking Notes), (Feb. 27, 1957), SSCM, pp. 136-7.

And Mao further says :

"As for antagonism, is it possible for contradictions among the people to be transformed from non-antagonistic contradictions into antagonistic ones? It must be said that it is possible; but in Lenin's time this had not yet happened, and perhaps he did not watch this problem carefully since he had such a short time [as leader of the Soviet Union]. —"On the Correct Handling of Contradictions among the People" (Speaking Notes), (Feb. 27, 1957), SSCM, pp. 136-7.

Neither before Lenin nor Stalin, there could have  been a question of possibility of  transforming contradictions among the people from non-antagonistic contradictions into antagonistic contradictions because unlike Mao,  Lenin and Stalin from the very beginning considered antagonistic contradiction between the proletariat and the national bourgeois. Actually, Mao firstly revises  the word "people" and then he falsely alleges that Lenin  did not have time enough to analyze this question fully and then he falsely alleges that Stalin confused two types of contradictions. Mao says :

" After the October Revolution, during the period when Stalin was in charge, for a long time he confused these two types of contradictions."  —"On the Correct Handling of Contradictions among the People" (Speaking Notes), (Feb. 27, 1957), SSCM, pp. 136-7.

Two types of contradiction, one with the enemy and other amongst the people! Stalin would have laughed at Mao. Everybody knows that in Soviet Russia, before and after  the establishment of dictatorship of proletariat, contradiction with the national bourgeoisie was never a non-antagonistic contradiction, national bourgeois was never a part of people. Is it  not an absurd on Mao's part to apply his concept of "people" in the conditions of Russia and make such loose, un-Marxist comments on Lenin and Stalin?

Sunday, 17 January 2021

किसान आंदोलन की मांगें

किसान आंदोलन की मांगें पूंजीवादी मांगे है, पूंजीवाद के चौखटे के भीतर की मांगें है, लेकिन किसानों का गुस्सा और नफरत कॉर्पोरेट घराने और उसकी चहेती फासीवादी मोदी सरकार के खिलाफ बहुत स्पष्टता से उभर कर सामनेआया है। इस अर्थ में इसकी दिशा पूंजीवाद विरोधी है। अगर इस लड़ाई को किसान समाजवाद के लिये लड़ने वाले समाजवादी संघर्ष से जोड़ दे तो लुटेरे कॉर्पोरेट घराने और बुर्जुआ राज्य के अस्तित्व के लिये खतरा उतपन्न हो जायेगा। कम्युनिष्टों के खिलाफ झूठ और घृणा फैलाने के पीछे लुटेरे बुर्जवा वर्ग और उसकी सरकार का यही डर काम कर रहा होता है।

एम के आज़ाद

Saturday, 16 January 2021

स्वामीनाथन कमीशन के रिपोर्ट का उद्देश्य और किसान

बहुसंख्यक किसानों को बरगलाने के लिये ही बुर्जुवा राज्य द्वारा विभिन्न तरह की कमिटी बनाये जाते है, उनके रिपोर्ट लागू करने की बाध्यता सरकारों पर नही होती। नवंबर 2014 में गठित  स्वामीनाथन कमीशन के रिपोर्ट का उद्देश्य भी यही था-पूंजी की सत्ता के खिलाफ बहुसंख्यक  किसानों में भड़कती आग को झूठी उम्मीद और आशा से ठंडा एवम शांत करना। पिछले 15 वर्षों से बुर्जवा सरकारें इस स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट के माध्यम से ठीक यही काम-बहुसंख्यक किसानों को झूठी आशा से बांधे रखने का काम-किया है, उन्हें पूंजी की सत्ता के खिलाफ विद्रोह करने से रोकने का काम किया है।

किसानों के लिये क्रांति और समाजवाद की जरूरत।

    बहुसंख्यक किसान और पूंजीवाद

बहुसंख्यक किसानों के लिये पूंजीवाद फांसी का फंदा साबित हो रहा है, उनकी बदहाली और गरीबी तबतक खत्म नही हो सकती जबतक पूंजी की सत्ता का बोलबाला है। कंपनी राज नही, कंपनी मुक्त राज्य, समाजवादी राज्य ही एक बेहतर आर्थिक परिस्थिति किसानों को दे सकता है जिसमे कृषि उपज की वाजिब कीमत और कॉर्पोरेट लूट से मुक्ति किसानों को मिल पायेगी।

प्रश्न है, समाजवाद में खेती निजी रहेगी या सामूहिक?

डरने की जरूरत नही है, खेती निजी रहे या सामूहिक बहुसंख्यक के हित में ही होगा और यह उस समय की परिस्थिति पर निर्भर करे गा। अभी हम लोग भारत मे निजी खेती की दुर्दशा देख रहे है, सामूहिक खेती का मॉडल हमने चीन में देखा था और सामाजिक खेती का मॉडल रूस में देखा था। भारत मे खेती का कौन सा रूप शुरू में होगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन कॉर्पोरेट सम्पति पर सामाजिक अधिकार होगा। कॉर्पोरेट सम्पति पर सामाजिक अधिकार की स्थापना समाजवाद की दिशा में पहला और निर्णायक कदम हो सकता है।

क्या किसान और मजदूर वर्ग अपने कॉमन दुश्मन  कॉर्पोरेट वर्ग और फासीवादी मोदी सरकार के खिलाफ एक साथ खड़ा होने की तरफ आज बढ़ सकते है?
एम के आज़ाद

Friday, 15 January 2021

Books in Punjabi

ਪੀ.ਡੀ.ਐਫ. ਇੱਥੋਂ ਡਾਊਨਲੋਡ ਕਰੋ- 

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Thursday, 14 January 2021

नाज़िम हिकमत

तुर्की के कम्युनिस्ट महाकवि, मानव-मुक्ति के स्वप्नों और संघर्षों के अप्रतिम चितेरे नाज़िम हिकमत के 117वें जन्मदिन के अवसर पर उनकी छ: छोटी कविताएँ:

.

आशावादी आदमी

 

जब वह बच्‍चा था, उसने 

कभी नहीं तोड़े तितलियों के पंख

बिल्लियों की पूँछ में उसने कभी नहीं बाँधे टिन के डिब्‍बे

माचिस की डिब्‍बी में नहीं बंद किया पतंगों को

चींटियों की बाँबियों को कभी पैरों से नहीं रौंदा।

वह बड़ा हुआ

और ये सारी चीज़े उसके साथ हुईं।

जब वह मरा, मैं उसके बिस्‍तर के पास मौजूद था।

उसने कहा मुझे एक कविता सुनाओ

सूरज और सागर के बारे में

नाभिकीय रियेक्‍टरों और उपग्रहों के बारे में

इंसानियत की महानता के बारे में I

.

 

 

 

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

 

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे रोटी को नमक में डुबोना और खाना

जैसे तेज़ बुखार में रात में उठना

और टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीना

जैसे डाकिये से लेकर भारी डिब्‍बे को खोलना

बिना किसी अनुमान के कि उसमें क्‍या है

उत्‍तेजना, खुशी और सन्‍देह के साथ।

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे सागर के ऊपर से एक जहाज में पहली बार उड़ना

जैसे मेरे भीतर कोई हरकत होती है

जब इस्‍ताम्‍बुल में आहिस्‍ता-आहिस्‍ता अँधेरा उतरता है।

मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूँ

जैसे खुदा को शुक्रिया अदा करना हमें जिन्‍दगी अता करने के लिए।

.

 

 

 

जीना

 

जीना कोई हँसी-मजाक की चीज़ नहीं:

तुम्‍हें इसे संजीदगी से लेना चाहिए।

इतना अधिक और इस हद तक

कि, जैसे मिसाल के तौर पर, जब तुम्‍हारे हाथ बँधे हों

तुम्‍हारी पीठ के पीछे,

और तुम्‍हारी पीठ लगी हो दीवार से

या फिर, प्रयोगशाला में अपना सफेद कोट पहने

और सुरक्षा-चश्‍मा लगाये हुए भी,

तुम लोगों के लिए मर सकते हो --

यहाँ तक कि उन लोगों के लिए भी जिनके चेहरे

तुमने कभी देखे न हों,

हालाँकि तुम जानते हो कि जीना ही

सबसे वा‍स्‍तविक, सबसे सुन्‍दर चीज है।

मेरा मतलब है, तुम्‍हें जीने को इतनी

गम्‍भीरता से लेना चाहिए

कि जैसे, मिसाल के तौर पर, सत्‍तर की उम्र में भी

तुम जैतून के पौधे लगाओ -- 

और ऐसा भी नहीं कि अपने बच्‍चों के लिए,

लेकिन इसलिए, हालाँकि तुम मौत से डरते हो

तुम विश्‍वास नहीं करते इस बात का,

इसलिए जीना, मेरा मतलब है, ज्‍यादा कठिन होता है।

.

 

 

 

लोहे के पिंजरे में शेर

 

देखो लोहे के पिंजरे में कैद उस शेर को

उसकी आँखों की गहराई में झाँको

जैसे दो नंगे इस्‍पाती खंजर

लेकिन वह अपनी गरिमा कभी नहीं खोता

हालाँकि उसका क्रोध

आता है और जाता है

जाता है और आता है

 

 

तुम्‍हें पट्टे के लिए कोई जगह नहीं मिलेगी

उसके घने मोटे अयाल के इर्द-गिर्द

हालाँकि कोड़े के निशान मिलेंगे अभी भी

उसकी पीली पीठ पर जलते हुए

उसके लम्‍बे पैर तनते हैं और दो ताँबे के

पंजों की शक्‍ल में ढल जाते हैं

उसके अयाल के बाल एक-एक कर खड़े होते हैं

उसके गर्वीले सिर के इर्द-गिर्द

उसकी नफरत

आती है और जाती है

जाती है और आती है

काल कोठरी की दीवार पर मेरे भाई की परछाईं

हिलती है

ऊपर और नीचे

ऊपर और नीचे

.

 

 

 

पाँच पंक्तियाँ

 

जीतने के लिए झूठ को जो पसरा है दिल में, गलियों में, किताबों में,

माँओं की लोरियों से लेकर

उन समाचार रिपोर्टों में जो वक्‍ता पढ़ रहा है,

समझना, मेरी प्रिय, क्‍या शानदार खुशी की चीज़ है,

यह समझना कि क्‍या बीत चुका है और क्‍या होने वाला है।

.

 

 

 

तुम

 

तुम मेरी गुलामी हो और मेरी आजादी

तुम हो गर्मियों की एक आदिम रात की तरह जलती हुई मेरी देह

तुम मेरा देश हो

तुम हो हल्‍की भूरी आँखों में हरा रेशम

तुम हो विशाल, सुन्‍दर और विजेता

और तुम मेरी वेदना हो जो महसूस नहीं होती

जितना ही अधिक मैं इसे महसूस करता हूँ।

लेनिन - साहिर

 

तबकों में बटी दुनिया सदियों से परेशां थी 
गमनाकियाँ रिसती थीं, आबाद खराबां से 
ऐश एक का, लाखों की गुरबत से पनपता था 
मंसूब थी ये हालत, क़ुदरत के हिसाबों से 
इख़लाक़ परेशां था, तहज़ीब हराशां थी 
बदकार हज़ूरों से, बदनस्ल जनाबों से 
अय्यार सियासत ने, ढांपा था ज़रायम को 
अरबाबे-कलीसा की, हिक़मत के नकाबों से 
इन्सां के मुक़द्दर को, आज़ाद किया तूने 
मज़हब के फरेबों से, शाही के अज़ाबों से.


कम्युनिस्टों के बीच मतभेद के बारे में लेनिन के विचार


" कम्युनिस्टों के बीच मतभेद दूसरे किस्म के होते हैं . इस मूलभूत फर्क को सिर्फ वे लोग ही नहीं देख सकते ,जो देखना नहीं चाहते हैं . कम्युनिस्टों के बीच मतभेद एक ऐसे जन आन्दोलन के प्रतिनिधियों बीच मतभेद हैं जो जन आन्दोलन , अविश्वसनीय गति से बढ़ा है . , तथा कम्युनिस्टों की जो एक अकेली ,सामान्य तथा फौलादी आधार शिला है ,वह है सर्वहारा क्रांति की पहचान तथा बुर्जुआ जनतांत्रिक भ्रमों और बुर्जुआ संसदवाद के विरुद्ध संघर्ष एवं सर्वहारा की तानाशाही और सोवियत सत्ता की पहचान की आधारशिला . इस आधार पर मतभेदों के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए .इस प्रकार के मतभेद वृद्धिमान प्रक्रियाओं को दर्शाते हैं ,जर्जर हो कर पतन को नहीं ."

( लेनिन:  संग्रहितरचनाएँ , खंड 30 प्रष्ठ 55 ,अंग्रेजी )

डॉक्टर के नाम एक मज़दूर का ख़त..!



हमें मालूम है अपनी बीमारी का
वह एक छोटा-सा शब्द है
जिसे सब जानते हैं
पर कहता कोई नहीं
जब बीमार पड़ते हैं
तो बताया जाता है
सिर्फ़ तुम्हीं (डॉक्टर) हमें बचा सकते हो
जनता के पैसे से बने
बड़े-बड़े मेडिकल कॉलेजों में
खूब सारा पैसा खर्च करके
दस साल तक
डॉक्टरी की शिक्षा पायी है तुमने
तब तो तुम
हमें अवश्य अच्छा कर सकोगे।
क्या सचमुच तुम हमें स्वस्थ
कर सकते हो।
तुम्हारे पास आते हैं जब
बदन पर बचे, चिथड़े खींचकर
कान लगाकर सुनते हो तुम
हमारे नंगे जिस्मों की आवाज़
खोजते हो कारण शरीर के भीतर।
पर अगर
एक नज़र शरीर के चिथड़ों पर डालो
तो वे शायद तुम्हें ज्यादा बता सकेंगे
क्यों घिस-पिट जाते हैं
हमारे शरीर और कपड़े
बस एक ही कारण है दोनों का
वह एक छोटा-सा शब्द है
जिसे सब जानते हैं
पर कहता कोई नहीं।
तुम कहते हो कन्धे का दर्द टीसता है
नमी और सीलन की वजह से
डॉक्टर
तुम्हीं बताओ यह सीलन कहाँ से आई?
बहुत ज्यादा काम
और बहुत कम भोजन ने
दुबला कर दिया है हमें
नुस्खे पर लिखते हो
"और वज़न बढ़ाओ"
यह तो वैसा ही है
दलदली घास से कहो
कि वो खुश्क रहे।

डॉक्टर
तुम्हारे पास कितना वक़्त है
हम जैसों के लिए?
क्या हमें मालूम नहीं
तुम्हारे घर के एक कालीन की कीमत
पाँच हज़ार मरीज़ों से मिली फ़ीस के
बराबर है
बेशक तुम कहोगे
इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं
हमारे घर की दीवार पर
छायी सीलन भी
यही कहानी दोहराती है
हमें मालूम है अपनी बीमारी का कारण
वह एक छोटा-सा शब्द है
जिसे सब जानते हैं
पर कहता कोई नहीं
वह है "ग़रीबी"।

#जर्मनी के महान कवि "बेर्टोल्ट ब्रेष्ट" की कविता।
(चित्र और कविता का अनुवाद: 'चकमक' से साभार।)

Wednesday, 13 January 2021

Wage code 2019

जुलमिराम सिंह यादव

खबर थी कि हरियाणा में मुख्यमंत्री जी की सभा मौसम खराब होने से नहीं हो पाई | मौसम खराब करने वालों पर एक फिल्मी पैरोडी

धरती  से कृषक टकराता बादल को पसीना आ जाता
मुट्ठी अगर वह लहरा देता सावन का महीना आ जाता          

जयघोष की लंगडी आंधी में "खट्टर" टट्टर सब उड़ जाता 
कमकर किसान जब साथ  चलें   रात में सूरज उग आता

Tuesday, 12 January 2021

किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं

किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं , यह समझने के लिए शिमला जाइए । 
शिमला में सेब के बाग है और किसानो से छोटे छोटे व्यापारी सेब ख़रीदकर देश भर में भेजते थे । व्यापारियों के छोटे छोटे गोदाम थे । अड़ानी की नज़र इस कारोबार पर पड़ी । हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार है तो अड़ानी को वहाँ ज़मीन लेने और बाक़ी काग़ज़ी कार्यवाही में कोई दिक़्क़त नहीं आयी । अड़ानी ने वहाँ पर बड़े बड़े गोदाम बनाए जो व्यापारियों के गोदाम से हज़ारों गुना बड़े थे । 

अब अड़ानी ने सेब ख़रीदना शुरू किया , छोटे व्यापारी जो सेब किसानो से 20 रुपय किलो के भाव से ख़रीदते थे, अड़ानी ने वो सेब 22 रुपय किलो ख़रीदा । अगले साल अड़ानी ने रेट बढ़ाकर 23 रुपय किलो कर दिया । अब छोटे व्यापारी वहाँ ख़त्म हो गए , अड़ानी से कम्पीट करना किसी के बस का नहीं था । जब वहाँ अड़ानी का एकाधिकार हो गया तो तो तीसरे साल अड़ानी ने सेब का भाव 6 रुपय किलो कर दिया । 

अब छोटा व्यापारी वहाँ बचा नहीं था , किसान की मजबूरी थी कि वो अड़ानी को 6 रुपय किलो में सेब बेचे । 

टेलिकॉम इंडस्ट्री की मिसाल भी आपके सामने हैं । कांग्रेस की सरकार में 25 से ज़्यादा सर्विस प्रवाइडर थे । JIO ने फ़्री कॉलिंग , फ़्री डेटा देकर सबको समाप्त कर दिया । आज केवल तीन सर्विस प्रवाइडर ही बचे हैं और बाक़ी दो भी अंतिम साँसे गिन रहे हैं । 

कृषि बिल अगर लागू हो गया तो गेन्हु , चावल और दूसरे कृषि उत्पाद का भी यही होगा । पहले दाम बढ़ाकर वो छोटे व्यापारियों को ख़त्म करेंगे और फिर मनमर्ज़ी रेट पर किसान की उपज ख़रीदेंगे । जब उपज केवल अड़ानी जैसे लोगों के पास ही होगी तो मार्केट में इनकी मनॉपली होगी और बेचेंगे भी यह अपने रेट पर । अब सेब की महंगाई तो आप बर्दाश्त कर सकते हो क्यूँकि उसको खाए बिना आपका काम चल सकता है लेकिन रोटी और चावल तो हर आदमी को चाहिए । 

अभी भी वक्त है , जाग जाइए , किसान केवल अपनी नहीं आपकी भी लड़ाई लड़ रहा है ।

— Shishupal Singh

What is Rule 72?



In personal finance, if you divide the number 72 by the rate of interest, you get to know the number of years it will take for you to double the money..
Eg: if the rate of interest is 9%, simply divide the number 72 by 9% and the answer is 8. Thus it will take 8 years to double your money if you invest at 9% p.a. rate of interest.

INTEREST We can use this rule in reverse to know the rate of interest needed to double your money to achieve your set goal.
Eg: If you have 250k today and you need 500k in 5 years. Just divide the number 72 by 5, the answer is 14.41%. Thus you need a type of investment avenue, where you earn at least 14.41% p.a. as rate of interest/returns to double your investment amount in 5 years.

INFLATION
This 'Rule 72' helps you to understand about inflation also. It helps you to calculate the amount of time it will take for inflation to make the real value of money half. Let's say present inflation is 5.5%. When you divide 72 by 5.5% the answer is 13.09 years.  That is to say, if you have 100k in your kitty today, it would take around 13.09 years for the value of the money to be halved..

Simple to use and very useful

Monday, 11 January 2021

साहिर लुधियानवी

*संग्रहणीय* अलग से सेव करके रखने लायक

यह मशहूर शायर *साहिर लुधियानवी* के गीतों की एक पुस्तक है। इसको पढ़ना एक अद्भुत अनुभव है, आप पृष्ठों को वास्तविक पुस्तक की तरह पलट सकते हैं।  गाइड ब्लू लाइन (लिंक) दबाएं।  कहानी पढ़ें।  गीत के अंत में लिंक पर क्लिक करें और गाना प्ले हो जाएगा।

Sunday, 10 January 2021

नीरज

प्यार अगर न थामता उम्र भर, उंगली इस बीमार उमर की, हर पीड़ा वेश्या हो जाती हर आंसू बंजारा होता।।।

 प्यार अगर न होता जग में सारा जग बंजारा होता।। 

नीरज जी की इन कालजयी पंक्तियों में जीवन का दर्शन बीज रूप में छिपा है।

Saturday, 9 January 2021

कौन बनाता हिंदुस्तान! भारत के मज़दूर और गरीब किसान!!



'गाँव के गरीबों से ' लेख का एक महत्वपूर्ण अंश
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" अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि जमींदार या व्यापारी लोगों को ' काम देते हैं ' या वे गरीबों को रोज़गार देते हैं। मिसाल के लिए कहा जाता है कि पडोसी कारख़ाना या पड़ोस का कोई फ़ार्म स्थानीय किसानों की 'परवरिश करता है '। लेकिन असल में मज़दूर अपनी मेहनत से ही अपनी परवरिश करते हैं और उन सबको खिलाते हैं , जो खुद काम नहीं करते । लेकिन जमींदार के खेत में , कारख़ाने या रेलवे में काम करने की इजाज़त पाने के लिए मज़दूर को, जो कुछ वह पैदा करता है , सबका सब मुफ़्त में मालिक को सुपुर्द कर देना पड़ता है और उसे केवल नाममात्र की मज़ूरी मिलती है। इस तरह न ज़मींदार और न व्यापारी मज़दूरों को काम देते हैं , बल्कि मज़दूर अपने श्रम के फल का अधिकतर हिस्सा मुफ़्त में देकर सबके भरण-पोषण का भार उठाते हैं ।
आगे चलिए। सभी आधुनिक देशों में जनता की गरीबी इसलिए पैदा होती है कि मज़दूरों के श्रम से जो तरह-तरह की चीजें पैदा की जाती हैं, वे सब बेचने के लिए , मंडी के लिए होती हैं। कारखानेदार और मिस्त्री-कारीगर , ज़मींदार और धनी किसान जो कुछ भी पैदा करवाते हैं , जो पशुपालन करवाते हैं या जिस अनाज की बोआई-कटाई करवाते हैं, वह सब मंडी में बेचने के लिए , बेचकर रुपया प्राप्त करने के लिए होता है। अब रुपया ही हर जगह राज करनेवाली ताक़त बन गया है। मनुष्य की मेहनत से जो भी माल पैदा होता है, सभी को रुपया से बदला जाता है। रुपए से आप जो भी चाहे खरीद सकते हैं । रुपया आदमी को भी खरीद सकता है, अर्थात जिस आदमी के पास कुछ नहीं है, रुपया उसे रूपएवाले आदमी के यहाँ काम करने को मज़बूर कर सकता है। पुराने समय में, भूदास-प्रथा के ज़माने में , भूमि की प्रधानता थी। जिसके पास भूमि थी, वह ताक़त और राज-काज , दोनों का मालिक था । अब रुपए की , पूंजी की प्रधानता हो गई है। रुपए से जितनी चाहो ज़मीन खरीदी जा सकती है। रुपया ना हो तो ज़मीन भी किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि हल अथवा अन्य औज़ार , घोड़े-बैल खरीदने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है ; कपडे-लत्ते और शहर के बने दूसरे आवश्यक सामान खरीदने के लिए ,यहाँ तक कि टैक्स ( लगान आदि-मेरे शब्द )देने के लिए भी रुपयों की ज़रूरत पड़ती है ।रुपया लेने के लिए लगभग सभी ज़मींदारों ने बैंक के पास ज़मीन रेहन रखी ।रुपया पाने के लिए सरकार धनी आदमियों से और सारी दुनिया के बैंक-मालिकों से क़र्ज़ लेती है और हर वर्ष इन कर्ज़ों पर करोड़ों रुपए सूद देती है ।   
रुपए के वास्ते आज सभी लोगों के बीच भयानक आपसी संघर्ष चल रहा है। हर आदमी कोशिश करता है कि सस्ता ख़रीदे और मंहगा बेचे ।हर आदमी होड़ में दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है ।अपने सौदे को जितना हो सके ,उतना ज्यादा बेचना और लाभवाले बाजार या लाभवाले सौदे को दूसरे से छिपाकर रखना चाहता है ।रुपए के लिए सर्वत्र होनेवाली इस हाथापाई में छोटे लोग ,छोटे दस्तकार या छोटे किसान ही सबसे ज्यादा घाटा में रहते हैं : होड़ में वे बड़े व्यापारियों या धनी किसानों से सदा पीछे रह जाते हैं। छोटे आदमी के पास कभी कुछ बचा नहीं होता । वह आज की कमाई को आज ही खाकर जीता है। पहला ही संकट , पहली ही दुर्घटना उसे अपनी आखिरी चीज़ तक को गिरवी रखने के लिए या अपने पशु को मिट्टी के मोल बेच देने के लिए लाचार कर देती है। किसी कुलक या साहूकार के हाथ में एक बार पड़ जाने के बाद वह शायद ही अपने को उनके चंगुल से निकाल पाए। बहुधा उसका सत्यानाश हो जाता है। हर साल हज़ारों-लाखों छोटे किसान और दस्तकार अपने झोंपड़ों को छोड़कर , अपनी बाँट की ज़मीन को मुफ़्त में ग्राम-समुदाय के हाथ में सौंप कर ( उस समय रूस में ग्राम-समुदाय की व्यवस्था थी और छोटे किसानों पर इस समुदाय एवम् पदाधिकारियों का नियंत्रण था , छोटे किसान ज़मीन बेचने को पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे - मेरे शब्द ) उज़रती मज़दूर , खेत-बनिहार, बेहुनर मज़दूर ,सर्वहारा बन जाते हैं। लेकिन धन के लिए जो यह संघर्ष होता है, उसमे धनी का धन बढ़ता जाता है ।वे करोड़ों रूबल बैंक में जमा करते जाते हैं ।अपने धन के अलावा बैंक में दूसरे लोगों द्वारा जमा किए गए धन से भी वे मुनाफ़ा कमाते हैं। छोटा आदमी दसियों या सैकड़ों रूबल पर , जिन्हें वह बैंक या बचत बैंक में जमा करता है ,प्रति रूबल तीन या चार कोपेक् सालाना सूद पाएगा ।धनी आदमी इन दसियों रूबल से करोड़ों बनाएगा और करोड़ों से अपना लेन-देन बढ़ाएगा तथा एक-एक रूबल पर दस-बीस कोपेक कमाएगा।
इसीलिए सामाजिक-जनवादी(कम्युनिस्ट) मज़दूर कहते हैं कि जनता की गरीबी को दूर करने का एक ही रास्ता है- मौजूदा व्यवस्था को नीचे से ऊपर तक सारे देश में बदलकर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था कायम करना ।दूसरे शब्दों में बड़े जमींदारों से उनके फार्म , कारखानेदारों से उनकी मिलें और कारख़ाने और बैंकपतियों से उनकी पूंजी छीन ली जाएँ, उनकी निजी संपत्ति को ख़त्म कर दिया जाए और उसे देश भर की समस्त श्रमजीवी जनता के हाथों में सौंप दिया जाए ।ऐसा हो जाने पर धनी लोग , जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं, मज़दूरों के श्रम का उपयोग नहीं कर पाएँगे , बल्कि उसका उपयोग स्वयं मज़दूर तथा उनके चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे ।
ऐसा होने पर साझे श्रम की उपज तथा मशीनों और सभी सुधारों से प्राप्त होने वाला लाभ तमाम श्रमजीवियों , सभी मज़दूरों के हाथों में आएँगे ।धन और भी जल्दी बढ़ना शुरू होगा क्योंकि जब मज़दूर पूंजीपतियों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करेंगे, तो वे काम को और अच्छे ढंग से करेंगे ।काम के घंटे कम होंगे। मज़दूरों का खाना , कपड़ा और रहन-सहन बेहतर होगा।उनकी गुजर-बसर का ढंग बिलकुल बदल जाएगा।
लेकिन सारे देश के मौजूदा निज़ाम को बदल देना आसान काम नहीं है ।इसके लिए बहुत ज़्यादा काम करना होगा , दीर्घ काल तक दृढ़ता से संघर्ष करना होगा। तमाम धनी , सभी संपत्तिवान, सारे बुर्जुआ अपनी सारी ताक़त लगाकर अपनी धन-संपत्ति की रक्षा करेंगे ।सरकारी अफसर और फ़ौज सारे धनी वर्ग की रक्षा के लिए खड़ी होगी क्योंकि सरकार खुद धनी वर्ग के हाथ में है ।मज़दूरों को पराई मेहनत पर जीनेवालों से लड़ने के लिए आपस में मिलकर एक होना चाहिए ; उनको खुद एक होना चाहिए और सभी सम्पत्तिहीनों को एक ही मज़दूर वर्ग , एक ही सर्वहारा वर्ग के भीतर एकबद्ध करना चाहिए ।मज़दूर वर्ग के लिए यह लड़ाई कोई आसान काम नहीं होगी , लेकिन अंत में मज़दूरों की विजय होकर रहेगी , क्योंकि बुर्जुआ वर्ग-- वे लोग जो पराई मेहनत पर जीते हैं-- सारी जनता में अल्पसंख्या हैं , जबकि मज़दूर वर्ग गिनती में सबसे ज्यादा है। सम्पत्तिवानों के ख़िलाफ़ मज़दूरों के खड़े होने का अर्थ है , हज़ारों के ख़िलाफ़ करोड़ों का खड़ा होना ।"
 ( व्ला . इ . लेनिन -- ' गाँव के गरीबों से ' )

Friday, 8 January 2021

वर्तमान में मजदूर किसान एकता

तीनो कृषि कानून और चार श्रम सहिंताओं के माध्यम से श्रम कानूनों में बदलाव - सिर्फ और सिर्फ  कॉर्पोरेट हितों का पोषण करने वाले है, मजदुरो और किसानों के हितों के खिलाफ है; इस लिये मजदुरो और किसानों को एक प्लेटफॉर्म पर आकर अपने कॉमन दुश्मन कॉरपोरेट्स और उसकी चहेती मोदी सरकार के खिलाफ तीब्र संघर्ष छेड़ना ही होगा। अलग अलग नही, साथ मिल कर पूंजी की सत्ता के खिलाफ मजबूती से उठ खड़ा होना - उनके सामने सिर्फ और सिर्फ एक यही विकल्प है।

हालांकि एमएसपी सिर्फ 6 % किसानों को ही मिल पाता है, फिर भी इसका विरोध IMF और WTO जैसी साम्राज्यवादी संस्थाएं अपने जरखरीद बुद्धिजीवियों द्वारा लम्बे चौड़े रिपोर्ट के माध्यम से यह प्रचारित करवा रही है कि एमएसपी मजदुरो और गरीब किसानों के हित के खिलाफ है और महगंगाई बढ़ाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। 

एक किसान भाई ने इस पर टिपण्णी की है कि एक लीटर पानी का बोतल और एक किलो गेहू आज बाजार में 20 रुपया में मिलता है। क्या यह माना जाए कि पानी का बोतल एमएसपी नही मिलने के कारण सस्ता है और एमएसपी मिलने के कारण गेहूं महँगा है। क्या इस तरह की घटिया सोच एवम विचारो का प्रचार प्रसार सिर्फ विचारात्मक गलती है, या कॉर्पोरेट और साम्राज्यवादी हितों की खुल्लमखुल्ला और बेशर्म दलाली है ?

Antonio Gramsci

" We are a fighting organization, and in our ranks we study to grow, to refine individuals' and whole organization's ability to fight, to better understand  the enemy's positions and ours, to better adapt our daily activities to them.Learning and culture are nothing other than theoretical conscience of our immediate and highest aims,and the way we can translate them into action."


Thursday, 7 January 2021

Essence of Trotskyism J V Stalin

What is the essence of Trotskyism?
J V  Stalin
The essence of Trotskyism is, first of all, denial of the possibility of completely building socialism in the USSR by the efforts of the working class and peasantry of our country. What does this mean? It means that if a victorious world revolution does not come to our aid in the near future, we shall have to surrender to the bourgeoisie and clear the way for a bourgeois-democratic republic. Consequently, we have here the bourgeois denial of the possibility of completely building socialism in our country, disguised by "revolutionary" phrases about the victory of the world revolution.
Is it possible, while holding such views, to rouse the labour enthusiasm of the vast masses of the working class, to rouse them for socialist emulation, for mass shock-brigade work, for a sweeping offensive against the capitalist elements? Obviously not. It would be foolish to think that our working class, which has made three revolutions, will display labour enthusiasm and engage in mass shock-brigade work in order to manure the soil for capitalism. Our working class is displaying labour enthusiasm not for the sake of capitalism, but in order to bury capitalism once and for all and to build socialism in the USSR Take from it its confidence in the possibility of building socialism, and you will completely destroy the basis for emulation, for labour enthusiasm, for shock-brigade work.
Hence the conclusion: in order to rouse labour enthusiasm and emulation among the working class and to organise a sweeping offensive, it was necessary, first of all, to bury the bourgeois theory of Trotskyism that it is impossible to build socialism in our country.
The essence of Trotskyism is, secondly, denial of the possibility of drawing the main mass of the peasantry into the work of socialist construction in the country-side. What does this mean? It means that the working class is incapable of leading the peasantry in the work of transferring the individual peasant farms to collectivist lines, that if the victory of the world revolution does not come to the aid of the working class in the near future, the peasantry will restore the old bourgeois order. Consequently, we have here the bourgeois denial of the capacity or possibility of the proletarian dictatorship to lead the peasantry to socialism, disguised by a mask of "revolutionary" phrases about the victory of the world revolution.
Is it possible, while holding such views, to rouse the peasant masses for the collective-farm movement, to organise a mass collective-farm movement, to organise the elimination of the kulaks as a class? Obviously not.
Hence the conclusion: in order to organise a mass collective-farm movement of the peasantry and to eliminate the kulaks, it was necessary, first of all, to bury the bourgeois theory of Trotskyism that it is impossible to bring the labouring masses of the peasantry to socialism.
The essence of Trotskyism is, lastly, denial of the necessity for iron discipline in the Party, recognition of freedom for factional groupings in the Party, recognition of the need to form a Trotskyist party. According to Trotskyism, the CPSU(B) must be not a single, united militant party, but a collection of groups and factions, each with its own centre, its own discipline, its own press, and so forth. What does this mean? It means proclaiming freedom for political factions in the Party. It means that freedom for political groupings in the Party must be followed by freedom for political parties in the country, i.e., bourgeois democracy. Consequently, we have here recognition of freedom for factional groupings in the Party right up to permitting political parties in the land of the dictatorship of the proletariat, disguised by phrases about "inner-party democracy,', about "improving the regime" in the Party. That freedom for factional squabbling of groups of intellectuals is not inner-party democracy, that the widely-developed self-criticism conducted by the Party and the colossal activity of the mass of the Party membership is real and genuine inner-party democracy—Trotskyism cannot understand.

Wednesday, 6 January 2021

रेड मेडिसिन

लैंगिक समानता का धरातल पर क्या अर्थ होता है और यह किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है? सर आर्थर न्यूजहोम व डॉ जॉन एडम किंग्सबरी ये दोनों अमेरिका और ब्रिटेन के डॉक्टर थे जिन्होंने स्तालिन काल में सोवियत संघ की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था का आंखों देखा ब्यौरा अपनी किताब "रेड मेडिसिन" में लिखा था। 
इसी किताब से एक अंश पढिये। और जानिए कि समाजवाद क्या प्रदान करता है।

"......जहाँ कहीं भी हम गए, हमने इस सामान्य तथ्य की झलकियां देखी कि सोवियत रूस में लैंगिक भेदभाव देखने को नहीं मिलता। ट्रामों में स्त्री कंडक्टर थीं, जंक्शनों पर स्विचिंग का काम तो अक्सर महिलाएं ही करती दिखती थीं। बहुत सी महिलाएं उन कामों में लगी हुई थीं जिनको सामान्यतः मर्दों का काम समझा जाता है, उदाहरणतया, नौकायन और भूमिगत खदानों में काम करना। हम पुरुष डॉक्टरों से ज्यादा महिला डॉक्टरों से मिले। यह तो हम सबको पता ही है कि रूसी महिला सैनिकों ने महान युद्ध के समय अपने अलग पहचान बनाई थी। 
स्थानीय प्राधिकरण की एक मीटिंग में हमने पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट की प्रमुख अधिकारी और प्रवक्ता के तौर पर महिलाओं को पाया। पुरुषों की तरह औरतें भी उम्र के अठारह साल पूरे होते ही नागरिक का दर्जा पा जाती हैं। औद्योगिक नियमों के अनुसार समान काम के लिए समान वेतन मिलता है, बीमारी बीमा लाभ के लिए महिला और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाता, यद्यपि महिलाओं को मातृत्व के लिए अतिरिक्त लाभ मिलते हैं। महिलाओं ने अपनी पहलकदमी पर सामुदायिक लांड्री, सामुदायिक भोज केंद्र, सामुदायिक नर्सरी जैसे संस्थान खड़े किए हैं, जो उन्हें घर संभालने की जिम्मेदारी से मुक्त करके राजनीतिक और औद्योगिक गतिविधियों में भाग लेने में सहायता करते हैं। महिलाओं की यह राजनीतिक गतिविधि नई नहीं है, महिलाओं ने "नाइलीस्ट" व अन्य क्रांतिकारी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा की हैं। इसके अलावा रूस की महिलाएं हमेशा से आदमियों के साथ कठिन श्रम के कामों में लगी रही हैं, लेकिन क्रांति से पहले उनकी जिंदगी का नियंत्रण पूरी तरह से पुरुषों के हाथ में था। अब रूस की महिला पूर्ण रूप से मुक्त हो चुकी है। अब वे पूर्ण राजनीतिक और आर्थिक समानता का आनंद लेती हैं।
लैंगिक भेदभाव तो सोवियत सरकार के सबसे पहले कामों के साथ ही साफ कर दिए गए थे, उद्योगों में मौजूद कुछेक सुरक्षा नियमों को छोड़कर। वैवाहिक सम्बन्धों में पूर्ण समानता लागू है। कोई भी साथी अपनी मर्जी से विवाह को खत्म कर सकता है।
अब पति अपनी पत्नी से अधिक परिवार का भरण पोषणकर्ता नहीं है। विशेष परिस्थितियों को छोड़कर प्रत्येक योग्य पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी आजीविका खुद कमाए।...."

Tuesday, 5 January 2021

किसानों के लिये क्रांति और समाजवाद की जरूरत


बहुसंख्यक किसानों के लिये पूंजीवाद फांसी का फंदा साबित हो रहा है, उनकी बदहाली और गरीबी तबतक खत्म नही हो सकती जबतक पूंजी की सत्ता का बोलबाला है। कंपनी राज नही, कंपनी मुक्त राज्य, समाजवादी राज्य ही एक बेहतर आर्थिक परिस्थिति किसानों को दे सकता है जिसमे कृषि उपज की वाजिब कीमत और कॉर्पोरेट लूट से मुक्ति किसानों को मिल पायेगी।

प्रश्न है, समाजवाद में खेती निजी रहेगी या सामूहिक?

डरने की जरूरत नही है, खेती निजी रहे या सामूहिक बहुसंख्यक के हित में ही होगा और यह उस समय की परिस्थिति पर निर्भर करे गा। अभी हम लोग भारत मे निजी खेती की दुर्दशा देख रहे है, सामूहिक खेती का मॉडल हमने चीन में देखा था और सामाजिक खेती का मॉडल रूस में देखा था। भारत मे खेती का कौन सा रूप शुरू में होगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन कॉर्पोरेट सम्पति पर सामाजिक अधिकार होगा। कॉर्पोरेट सम्पति पर सामाजिक अधिकार की स्थापना समाजवाद की दिशा में पहला और निर्णायक कदम हो सकता है।

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...