तबकों में बटी दुनिया सदियों से परेशां थी
गमनाकियाँ रिसती थीं, आबाद खराबां से
ऐश एक का, लाखों की गुरबत से पनपता था
मंसूब थी ये हालत, क़ुदरत के हिसाबों से
इख़लाक़ परेशां था, तहज़ीब हराशां थी
बदकार हज़ूरों से, बदनस्ल जनाबों से
अय्यार सियासत ने, ढांपा था ज़रायम को
अरबाबे-कलीसा की, हिक़मत के नकाबों से
इन्सां के मुक़द्दर को, आज़ाद किया तूने
मज़हब के फरेबों से, शाही के अज़ाबों से.
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