Monday, 25 January 2021

कैफी आज़मी की वसीयत- कविता


मेरे बेटे मेरी आँखें मेरे बाद उनको दे देना
जिनहो ने रेत में सर गाड़ रखे है
और ऐसे मुतमइन है जैसे उनको
न कोई देखता है और न कोई देख सकता है, 
मगर यह वक़्त की जासूस नज़रें 
जो पीछा करती हाँ सबका ज़मीरो के अंधेरों तक
अंधेरा नूर पे रहता है ग़ालिब बस सवेरे तक
सवेरा होने वाला है।।

मेरे बेटे मेरी आँखें मेरे बाद उनको दे देना
कुछ अन्धे सूरमा जो तीर अंधेरे में चलाते है
सदा दुश्मन का सीना ताकते ख़ुद ज़ख़्म खाते है
लगा कर जो वतन को दाव पर कुर्सी बचाते हैं
भुना कर खोटे सिक्के धर्म के जो पुन कमाते है
बता दो उनको ऐसे ठग कभी पकड़ भी जाते हैं।।

मेरे बेटे उन्हें थोड़ी सी खुददारी भी दे देना
जो हाकिम क़र्ज़ ले के उसको अपनी जीत कहते हैं
जहाँ रखते है सोना रह्न ख़ुद भी रह्न रहते हैं
और उसके भी वह अपनी जीत कहते हैं
शरीके जुर्म है ये सुन के जो ख़ामोश रहते हैं
क़ुसूर अपना ये क्या कम है कि हम सब उनके सहते हैं।।

मेरे बेटे मेरे बाद उनको मेरा दिल भी दे देना
जो शर रखते हैं सीने में अपने दिल नहीं रखते
है उनकी आसतीं मे वह भी जो क़ातिल नहीं रखते
जो चलते है उन्हीं रसतों पे जो मनज़िल नहीं रखते
यह अपने पास कुछ भी फ़ख़्र के क़ाबिल नहीं रखते
तरस खा कर जिन्हें जनता ने कुर्सी पर बिठाया है
ये ख़ुद से तो न उटठें दे इन्हें तुम ही उठा देना
घटाई है जिन्होंने इतनी क़ीमत अपने सिक्के की
ये ज़िम्मा है तुम्हारा इनकी क़ीमत तुम घटा देना
जो वह फैलाएँ दामन यह वसीयत याद कर लेना
उन्हें हर चीज़ दे देना पर उनको वोट मत देना ।।

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