'गाँव के गरीबों से ' लेख का एक महत्वपूर्ण अंश
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" अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि जमींदार या व्यापारी लोगों को ' काम देते हैं ' या वे गरीबों को रोज़गार देते हैं। मिसाल के लिए कहा जाता है कि पडोसी कारख़ाना या पड़ोस का कोई फ़ार्म स्थानीय किसानों की 'परवरिश करता है '। लेकिन असल में मज़दूर अपनी मेहनत से ही अपनी परवरिश करते हैं और उन सबको खिलाते हैं , जो खुद काम नहीं करते । लेकिन जमींदार के खेत में , कारख़ाने या रेलवे में काम करने की इजाज़त पाने के लिए मज़दूर को, जो कुछ वह पैदा करता है , सबका सब मुफ़्त में मालिक को सुपुर्द कर देना पड़ता है और उसे केवल नाममात्र की मज़ूरी मिलती है। इस तरह न ज़मींदार और न व्यापारी मज़दूरों को काम देते हैं , बल्कि मज़दूर अपने श्रम के फल का अधिकतर हिस्सा मुफ़्त में देकर सबके भरण-पोषण का भार उठाते हैं ।
आगे चलिए। सभी आधुनिक देशों में जनता की गरीबी इसलिए पैदा होती है कि मज़दूरों के श्रम से जो तरह-तरह की चीजें पैदा की जाती हैं, वे सब बेचने के लिए , मंडी के लिए होती हैं। कारखानेदार और मिस्त्री-कारीगर , ज़मींदार और धनी किसान जो कुछ भी पैदा करवाते हैं , जो पशुपालन करवाते हैं या जिस अनाज की बोआई-कटाई करवाते हैं, वह सब मंडी में बेचने के लिए , बेचकर रुपया प्राप्त करने के लिए होता है। अब रुपया ही हर जगह राज करनेवाली ताक़त बन गया है। मनुष्य की मेहनत से जो भी माल पैदा होता है, सभी को रुपया से बदला जाता है। रुपए से आप जो भी चाहे खरीद सकते हैं । रुपया आदमी को भी खरीद सकता है, अर्थात जिस आदमी के पास कुछ नहीं है, रुपया उसे रूपएवाले आदमी के यहाँ काम करने को मज़बूर कर सकता है। पुराने समय में, भूदास-प्रथा के ज़माने में , भूमि की प्रधानता थी। जिसके पास भूमि थी, वह ताक़त और राज-काज , दोनों का मालिक था । अब रुपए की , पूंजी की प्रधानता हो गई है। रुपए से जितनी चाहो ज़मीन खरीदी जा सकती है। रुपया ना हो तो ज़मीन भी किसी काम की नहीं रहेगी, क्योंकि हल अथवा अन्य औज़ार , घोड़े-बैल खरीदने के लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ती है ; कपडे-लत्ते और शहर के बने दूसरे आवश्यक सामान खरीदने के लिए ,यहाँ तक कि टैक्स ( लगान आदि-मेरे शब्द )देने के लिए भी रुपयों की ज़रूरत पड़ती है ।रुपया लेने के लिए लगभग सभी ज़मींदारों ने बैंक के पास ज़मीन रेहन रखी ।रुपया पाने के लिए सरकार धनी आदमियों से और सारी दुनिया के बैंक-मालिकों से क़र्ज़ लेती है और हर वर्ष इन कर्ज़ों पर करोड़ों रुपए सूद देती है ।
रुपए के वास्ते आज सभी लोगों के बीच भयानक आपसी संघर्ष चल रहा है। हर आदमी कोशिश करता है कि सस्ता ख़रीदे और मंहगा बेचे ।हर आदमी होड़ में दूसरे से आगे निकल जाना चाहता है ।अपने सौदे को जितना हो सके ,उतना ज्यादा बेचना और लाभवाले बाजार या लाभवाले सौदे को दूसरे से छिपाकर रखना चाहता है ।रुपए के लिए सर्वत्र होनेवाली इस हाथापाई में छोटे लोग ,छोटे दस्तकार या छोटे किसान ही सबसे ज्यादा घाटा में रहते हैं : होड़ में वे बड़े व्यापारियों या धनी किसानों से सदा पीछे रह जाते हैं। छोटे आदमी के पास कभी कुछ बचा नहीं होता । वह आज की कमाई को आज ही खाकर जीता है। पहला ही संकट , पहली ही दुर्घटना उसे अपनी आखिरी चीज़ तक को गिरवी रखने के लिए या अपने पशु को मिट्टी के मोल बेच देने के लिए लाचार कर देती है। किसी कुलक या साहूकार के हाथ में एक बार पड़ जाने के बाद वह शायद ही अपने को उनके चंगुल से निकाल पाए। बहुधा उसका सत्यानाश हो जाता है। हर साल हज़ारों-लाखों छोटे किसान और दस्तकार अपने झोंपड़ों को छोड़कर , अपनी बाँट की ज़मीन को मुफ़्त में ग्राम-समुदाय के हाथ में सौंप कर ( उस समय रूस में ग्राम-समुदाय की व्यवस्था थी और छोटे किसानों पर इस समुदाय एवम् पदाधिकारियों का नियंत्रण था , छोटे किसान ज़मीन बेचने को पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थे - मेरे शब्द ) उज़रती मज़दूर , खेत-बनिहार, बेहुनर मज़दूर ,सर्वहारा बन जाते हैं। लेकिन धन के लिए जो यह संघर्ष होता है, उसमे धनी का धन बढ़ता जाता है ।वे करोड़ों रूबल बैंक में जमा करते जाते हैं ।अपने धन के अलावा बैंक में दूसरे लोगों द्वारा जमा किए गए धन से भी वे मुनाफ़ा कमाते हैं। छोटा आदमी दसियों या सैकड़ों रूबल पर , जिन्हें वह बैंक या बचत बैंक में जमा करता है ,प्रति रूबल तीन या चार कोपेक् सालाना सूद पाएगा ।धनी आदमी इन दसियों रूबल से करोड़ों बनाएगा और करोड़ों से अपना लेन-देन बढ़ाएगा तथा एक-एक रूबल पर दस-बीस कोपेक कमाएगा।
इसीलिए सामाजिक-जनवादी(कम्युनिस्ट) मज़दूर कहते हैं कि जनता की गरीबी को दूर करने का एक ही रास्ता है- मौजूदा व्यवस्था को नीचे से ऊपर तक सारे देश में बदलकर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था कायम करना ।दूसरे शब्दों में बड़े जमींदारों से उनके फार्म , कारखानेदारों से उनकी मिलें और कारख़ाने और बैंकपतियों से उनकी पूंजी छीन ली जाएँ, उनकी निजी संपत्ति को ख़त्म कर दिया जाए और उसे देश भर की समस्त श्रमजीवी जनता के हाथों में सौंप दिया जाए ।ऐसा हो जाने पर धनी लोग , जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं, मज़दूरों के श्रम का उपयोग नहीं कर पाएँगे , बल्कि उसका उपयोग स्वयं मज़दूर तथा उनके चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे ।
ऐसा होने पर साझे श्रम की उपज तथा मशीनों और सभी सुधारों से प्राप्त होने वाला लाभ तमाम श्रमजीवियों , सभी मज़दूरों के हाथों में आएँगे ।धन और भी जल्दी बढ़ना शुरू होगा क्योंकि जब मज़दूर पूंजीपतियों के लिए नहीं बल्कि अपने लिए काम करेंगे, तो वे काम को और अच्छे ढंग से करेंगे ।काम के घंटे कम होंगे। मज़दूरों का खाना , कपड़ा और रहन-सहन बेहतर होगा।उनकी गुजर-बसर का ढंग बिलकुल बदल जाएगा।
लेकिन सारे देश के मौजूदा निज़ाम को बदल देना आसान काम नहीं है ।इसके लिए बहुत ज़्यादा काम करना होगा , दीर्घ काल तक दृढ़ता से संघर्ष करना होगा। तमाम धनी , सभी संपत्तिवान, सारे बुर्जुआ अपनी सारी ताक़त लगाकर अपनी धन-संपत्ति की रक्षा करेंगे ।सरकारी अफसर और फ़ौज सारे धनी वर्ग की रक्षा के लिए खड़ी होगी क्योंकि सरकार खुद धनी वर्ग के हाथ में है ।मज़दूरों को पराई मेहनत पर जीनेवालों से लड़ने के लिए आपस में मिलकर एक होना चाहिए ; उनको खुद एक होना चाहिए और सभी सम्पत्तिहीनों को एक ही मज़दूर वर्ग , एक ही सर्वहारा वर्ग के भीतर एकबद्ध करना चाहिए ।मज़दूर वर्ग के लिए यह लड़ाई कोई आसान काम नहीं होगी , लेकिन अंत में मज़दूरों की विजय होकर रहेगी , क्योंकि बुर्जुआ वर्ग-- वे लोग जो पराई मेहनत पर जीते हैं-- सारी जनता में अल्पसंख्या हैं , जबकि मज़दूर वर्ग गिनती में सबसे ज्यादा है। सम्पत्तिवानों के ख़िलाफ़ मज़दूरों के खड़े होने का अर्थ है , हज़ारों के ख़िलाफ़ करोड़ों का खड़ा होना ।"
( व्ला . इ . लेनिन -- ' गाँव के गरीबों से ' )
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