Monday, 31 January 2022

Jai Bhim movie - Comment by KK

"Jai Bhim slogan implies emancipation of oppressed working people through constitutional means  without touching the dominant private property - either capitalistic or feudal.  And in that sense it is not a revolutionary slogan."




   

Saturday, 29 January 2022

इन्कार्नेशन थीम की फिल्में

'इन्कार्नेशन' यानी पुनःअवतरण की थीम मुझे हमेशा आकर्षित करती है। हिंदी की कुछ सबसे दिलचस्प कहानियां इसी अवधारणा पर आधारित हैं। उन फिल्मों में कुछ अजीब सा आकर्षण है, जो उन्हें कभी पुराना नहीं पड़ने देता है। इस कड़ी में सबसे पुरानी और तार्किक फ़िल्म कमाल अमरोही की 'महल' है। कुछ ऐसा ही सम्मोहन बिमल रॉय की फिल्म 'मधुमती' में था। जिसकी कहानी इप्टा से जुड़े भारतीय सिनेमा के अप्रतिम निर्देशक ऋत्विक घटक ने लिखी थी। सुभाष घई की 'कर्ज' अपने समय की आइकॉनिक फिल्म थी। "इक हसीना थी" गीत के जरिए 'हैमलेट' की नाटकीय संरचना 'कहानी के भीतर कहानी' का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया था। जिसे बाद में हम 'हैदर' में भी देखते हैं। 

'श्याम सिंह रॉय' का जिक्र बिना हिचकिचाहट इन चुनिंदा फिल्मों के साथ किया जा सकता है। प्लॉट में दो-तीन बड़ी खामियों के बावजूद फिल्म के निर्देशक राहुल सांकृत्यान (यही वर्तनी) इसे एक विजुअल अनुभव में बदल देते हैं। कहानी बहुत हल्के-फुल्के ढंग से नवोदित फिल्म निर्देशक वासुदेव (नानी) के संघर्ष से आरंभ होती है और रोमांटिक कॉमेडी का फ़ील देती है। धीरे-धीरे कहानी का मूड और टोन बदलने लगता है और वह 50 साल पहले के बंगाल में पहुँच जाती है। निर्देशक राहुल ने यह ट्रांस्फार्मेशन बड़ी खूबसूरती से किया है। अतीत की कहानी विजुअल पोएट्री की तरह है। पुनर्जन्म की कथा होने के बावजूद यह फिल्म अपना स्टैंड प्रोग्रेसिव रखी है और देवदासी प्रथा, धर्म की आड़ में शोषण और जातीय असमानता पर सीधे-सीधे बिना किसी लाग-लपेट के बात करती है। 

फिल्म का नायक वामपंथी है। वह खुद को नास्तिक कहता है। दक्षिण के टिपिकल हीरो की तरह ही सही मगर स्पष्ट समाजिक बुराइयों से लड़ता है। यह इसलिए अहम है क्योंकि बीते सात सालों में एक वैचारिक धड़े ने वामपंथ जैसे शब्द को गाली में बदलने कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसे में एक लोकप्रिय सिनेमा का नायक अगर लेफ्टिस्ट है तो यह साहसिक भी है और जरूरत भी। मूल्य वही हैं जिनके लिए भारतीय सिनेमा के पूरे इतिहास में नायक लड़ते नज़र आते हैं। असमानता और धर्मांधता का विरोध और शोषित और वंचित के साथ खड़े होने का साहस। 

इस सबके बावजूद यह 'जय भीम' जैसी कोई यथार्थवादी या सामाजिक बदलाव की फिल्म नहीं है। यह एक मधुर प्रेम कहानी है, जो भाषा की बाध्यता के बावजूद गुनगुनाने लायक गीतों, नवरात्रि में आग की रोशनी में होने वाले अद्भुत नृत्य, चांदनी रात में नौका विहार के दृश्य और कोलकाता के बैकड्रॉप की वजह से यादगार हो जाती है। फिल्म में नवरात्रि के दौरान की हर रात, दुर्गा के अलग रूप और उसके समानांतर परिपक्व होती प्रेम कहानी का भी सुंदर नाटकीय चित्रण है। श्याम और रोज़ी (सई पल्लवी) के किरदार एक-दूसरे के पूरक नज़र आते हैं। 

निर्देशक ने छोटे-छोटे प्रतीकों के माध्यम से देश-काल को लांघती इस कहानी के सूत्र बड़ी खूबसूरती से जोड़े हैं। इस प्रेम कहानी का चरम एक बड़े सोशल मूवमेंट में नज़र आता है, जिसका नेतृत्व श्याम सिंह रॉय करता है, मगर कहीं न कहीं प्रेरणा रोज़ी होती है। यहां पर नायक एक एक्टीविस्ट और सोशल रिफार्मर के रूप में नज़र आता है, जो देवदासी प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है। नक्सलबाड़ी पर लिखी उसकी लाल कवर वाली किताब बार-बार दिखाई जाती है। फिल्म का आंशिक हिस्सा कोर्टरूम ड्रामा भी है और उसमें 'लीगल लोचा' भी है, पर उसे थोड़ा बर्दाश्त किया जा सकता है। फिल्म का अंत मुझे बहुत सुंदर और दार्शनिक लगा मगर नायिका की मृत्यु नहीं। कहानी को जटिल मोड़ तक ले जाने का साहस करने वाले निर्देशक भी कभी-कभी आसान रास्ते की तरफ बढ़ जाते हैं। 

फिल्म को देखने के बाद यह लग सकता है कि मैंने फिल्म की ज्यादा तारीफ कर दी है तो उसकी वजह स्पष्ट है। जब चंदन के तस्कर को नायक बनाया जा रहा हो, लोकप्रिय धारा में सोशल कमिटमेंट को नायकत्व में परिभाषित करना जरूरी है और फिल्म यह काम करती है। एक ऐसा नायक जिसका सोशल कमिटमेंट है, ऐसा किरदार जो बीते 15 सालों में सिनेमा में दिख रहे शहरी अभिजात्य व्यक्तिवाद से हटकर समाज में नायक बनने का हौसला रखता हो, जिसके लिए प्रेम दैहिक आकर्षण से परे एक साहचर्य है और जिस साहचर्य के अपने सामाजिक सरोकार हैं। जब सिनेमा प्रत्यक्ष-परोक्ष में धार्मिक कट्टरता और एक समुदाय के प्रति सांकेतिक वैमनस्य दिखाया जाने लगे, तो धर्मांधता के खिलाफ एक नास्तिक नायक को खड़े दिखाना भी साहस है। 

नानी ने इस नायक को अपनी बॉडी लैंग्वेज से जीवंतता दी है। बिना ज्यादा मैनेरिज़्म का सहारा लिए वो दोनों ही रोल में बिल्कुल अलग शख़्सियत दिखते हैं। सई पल्लवी का अभिनय सुंदर है, खास तौर पर नृत्य में दुर्गा-रूप और प्रेम में डूबी स्त्री का कंट्रास्ट अद्भुत है। युवा निर्देशक राहुल सांकृत्यान के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर कहीं यह पता चलता है कि उनका वैचारिक झुकाव लेफ्ट की तरफ है। हिंदी के प्रखर वामपंथी लेखक राहुल सांकृत्यायन से उनके नाम की साम्यता के पीछे भी शायद ऐसा ही कोई संयोग हो।

श्री दिनेश श्रीनेत के वॉल से

Friday, 28 January 2022

मेरी समीक्षा- फिल्म spring thunder पर ------------------


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आज फिल्म spring thunder देखा, फिल्म अच्छी लगी, ख़ासतौर पर आजकल जो झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा जैसे जंगल युक्त जगहों पर विकास के नाम पर चल रहा है उसकी सच्चाई सामने रखती हुई यह एक अच्छी फिल्म है। 
इसकी शुरुआत एक ठेकेदार - रंगदार, सामंती प्रकृति के इंसान चुन्नु पांडे से होती है, जो वहां की जनता पर अपनी हूकूमत बल प्रयोग से चलाता है और ऐसा गुंडा तत्व से हाथ मिलाते हैं कारपोरेट जगत, जिसे किसी भी कीमत पर अपने बिजनेस के लिए खनिज संपदा ( यूरेनियम ) चाहिए जो जंगलों पहाड़ों के नीचे है । वह टेंडर निकालते हैं जिसे पाने के लिए चुन्नु पांडे  लोगों को वहां से बल प्रयोग से हटाता है जिसके कारण सुरेश लकड़ा के नेतृत्व में लोग विरोध करते हैं।  विरोध जंगल को कटने , जमीन को लूटने से बचाने के लिए होती है, और इन्हीं आंदोलनकारियों को नक्सली नाम दिया जाता है। इस फिल्म में नक्सल की चर्चा जहां है और वहां यही लोग है जो जल, जंगल, जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस फिल्म के एक तरफ प्रकृति के रखवाले ग्रामीण जिन्हें नक्सली माना जाता है है, तो  दूसरी तरफ चुन्नु पांडे जैसे लोभी गुंडा तत्व , हर कीमत पर खनिज सम्पदा पाने को तत्पर कारपोरेट जगत, उनकी मांग को विकास का जामा पहनाने वाली सरकार और  सरकारी काम में बाधा पैदा करने वाले तत्व के खिलाफ खड़ी पुलिस फोर्स  यानी चुन्नु के टेंडर को जमीन पर उतारने को तत्पर पुलिस बल है। ठीक वैसे ही जैसे आजकल झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे जगहों में हो रहा है। विकास का खनन वाला मैप ,आंदोलन और आंदोलन के दमन के लिए पुलिस फोर्स।
यह तो पूरे फिल्म की कहानी है, इसके बीच भी छोटी-छोटी बातों से कई चीजों को सामने रखा गया है। यहां ग्रामीण या जिन्हें नक्सली इंगित किया जा रहा है उनकी लड़ाई पूरी तौर से मानवता की, प्रकृति की रक्षा की लड़ाई है मगर उनका नाम लेकर ये अपराधी तत्व अपराध को अंजाम देते हैं। जैसे फिल्म में ट्रेन में हो रही लूट, हत्या जो चुन्नु तिवारी द्वारा टेंडर पाने  जुगार के लिए किया जाता है , उसके गुंडे दूसरे डब्बों में लूट मचाते हैं, और एक डब्बे में वह  खुद इंजीनियर के साथ बैठा बात करता रहता है, वह खुद उस ट्रेन में बैठे इंजीनियर जो गोली की आवाज सुनकर चौंकता है को कहता है कि  यह "नक्सलाइट हमला है।"
दूसरी बार बस लूट की घटना जो मुन्ना सिंह द्वारा( सांकेतिक रूप में) अंजाम दिया जाता है और उस लूट को भी नक्सली नाम दे दिया जाता है, तीसरी बार तो खुलकर आंदोलनकारियों को बदनाम करने के लिए डॉक्टर कैथरीन के किडनैपिंग का षड्यंत्र रचा जाता है पर वह फेल हो जाता है, चौथी जगह जब चुन्नु द्वारा तालाब के पानी में जहर मिला दी जाती है और लोग मरते हैं और उन्हें बचाने के लिए कैथरिन कुछ दिनों के लिए ग्रामीणों के पास ही रुक जाती है तो उसके नक्सलियों द्वारा किडनैपिंग का  अफवाह उड़ाकर नक्सलियों  की बदनामी की जाती है। इस तरह नक्सली कहलाने वाले ग्रामीण जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं और अपराधी तत्व अलग-अलग अपराध करके उनके नाम को बदनाम कर रहे हैं।
यह फिल्म सच्चाई के काफी करीब है, जहां आतंक, हत्या के बल पर स्वार्थ के लिए खनन शुरू होता है, विश्व पटल पर उसे इस तरह प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह  यूरेनियम की खान का होना, खनन कर यूरेनियम निकालना देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि हो, इंसान की जिंदगी और प्रकृति का छलनी सिना, प्रदूषण का कारनामा, मानव हत्या, ग्रामीणों का दर्द, तबाही सब गौण तत्व हो जाते हैं।
इस फिल्म में प्रतिरोध के रूप में घुंघरू महतो जैसा करेक्टर भी है जो बार-बार जिल्लत और उन रंगदार ठेकेदारों की ठोकर खाकर अन्याय के खिलाफ मजबूती से उठ खड़ा होता है। 
इस फिल्म में एक पात्र कन्नु लोहार भी है, जो आशा से उस विकास की ओर देखता है, पर उनके जैसे लोगों के लिए कोई उम्मीद वहां नहीं होती , उसका बेटा गोल्डन बचपन से ही उस रंगीन दुनिया के सपने देखता तो है पर पैसे के कारण स्कूल में पढ़ भी नहीं पाता और भटकी  जिंदगी जीता है, उसके जैसे स्टार्टम का सपने देखने वाले का फायदा भी मुन्ना सिंह जैसे लोग उठाते है। अपराध में उसे शरिक कर देते हैं। हालांकि बाद में ठोकर खाकर वह भी बदला लेकर जेल चला जाता है।
 सब मिलाकर यह फिल्म संघर्ष शील, न्याय पसंद, प्रकृति प्रेमी ग्रामीणों जिन्हें नक्सलियों माना जाता है की लड़ाई और चुन्नु पांडे जैसे गुंडा व लोभी तत्वों द्वारा जिन्हें सरकार और पुलिस बल की पूरी सुरक्षा मिली रहती है  उस आंदोलन को तोड़ने, उन्हें तबाह करने, बदनाम करने , विकास विरोधी बताने की कहानी है जिसके शीर्ष पर कारपोरेट जगत होता है। इस कारण ही चुन्नु और मुन्ना के मौत के बाद भी यह सिलसिला खत्म नहीं होता, वह लड़ाई जल जंगल जमीन बचाओ से शुरू होकर एक घोषित युद्ध बन जाता है, जिसकी झलक अंत के सीन में मिलती है।   
जब इंजीनियर का बेटा इंजीनियरिंग पढ़कर वापस आता है,  वह देखता है कि उसका अपना शहर अब कैसे पूरी तरह पुलिस छावनी में तब्दील हो चुका है। क्यों?  इसका जवाब रिक्शा वाला देता है।  वह जो बताता है  उसका संकेत यही है कि किस तरह प्रकृति के लिए लड़ने वाले के खिलाफ एक पूरी मिशनरी अब तैनात हो चुकी है। यह मिशनरी इसलिए ताकि जंगल को खोद सके, बहरे करने वाले विस्फोट कर सके, जमीन को खोखला कर सके, जंगल को बंजर कर सके, पूरा जंगल उजाड़ सके, उसमें बाधा बनने वाले को गोली दाग सके ताकि दूर पैसों की गड्ढी पर बैठे कारपोरेट जगत अपना और एक मुनाफा का बिजनस शुरू कर सके क्योंकि विकास नाम का लिगल सर्टिफिकेट उन्होंने  सत्ता पर बैठी सरकार से पा लिया है और उस काम में बाधा डालने वाले प्रकृति प्रेमी विकास विरोधी बनाए जा चुके हैं जो पूरी पुलिस मिशनरी के बंदुक के निशाने पर हैं।
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इलिका

मांगी नौकरियां मिली लाठियां



मांगी नौकरियां मिली लाठियां



अभी दो दिन पहले 25 जनवरी को बिहार कई जिलों में रेलवे में नौकरियाँ के लिए परीक्षा परिणाम में हुवे धांधली को लेकर छात्र सड़क पर उतरकर अपना विरोध जता रहे हैं और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में भी जता रहे थे तो फिर 'जनरक्षक?' पुलिस ने बिहार में आंसू गैस के गोले दागे, छात्रों पर लाठियां भांजी, कहीं-कहीं गोलियां भी चलाई गयी। उत्तर प्रदेश के इलाहबाद में हास्टल और घरों में घुसकर गालियां देते हुए जबरदस्ती दरवाजा तोड़कर, जबरन कमरों में घुसकर छात्रों को पीटकर थाने ले गए हैं। रेलवे तो ऐसे कह रहा है जैसे सारे देश को अकेले वही नौकरी देता है। ऐसा क्या अपराध कर दिया इन छात्रों ने? जो इन छात्रों पर आतंकियों जैसा व्यवहार? इनपर जिस तरह से लाठियां और गोलियां चलाई गयी लगता है ये छात्र नहीं कोई उपद्रवी हैं। 

अभी पिछले साल ए एम यू, जे एन यू और जामिया में इसी तरह हास्टलों में जबरन घुसकर दिल्ली पुलिस ने छात्रों पर भद्दी गालियों के साथ लाठियां भाजी। छात्राओं के कपड़े नोचे जा रहे थे, छात्राओं के सामने हस्त मैथुन कर रहे थे, आर एस एस के गुण्डे। पुलिसिया गुण्डों के अलावा आर एस एस के गुंडे कैंपस में घुसकर जामिया में छात्रों के सिर फोड़ रहे थे…. तब कुछ लोगों ने उसको जस्टीफाई किया था कि ये लोग उपद्रवी/आतंकवादी /नक्सली हैं और ये पाकिस्तान, चीन और आई एस आई…. से फन्डेड लोग हैं। तो क्या ये बिहार और इलाहाबाद के छात्र भी पाकिस्तान, चीन और आई एस आई…. से फन्डेड लोग हैं? कल किसानों-मजदूरों की बारी आयी शिक्षकों, बैंक कर्मियों की बारी आयी फिर ए एम यू, जे एन यू और जामिया की बारी आयी और आज पुनः बिहार और इलाहाबाद के छात्रों की बारी आयी है और निश्चित ही कल आपकी भी बारी आएगी यदि आप आज एक होकर इस बर्बरता के खिलाफ आवाज नहीं उठाया तो।

हमारे देश में इतनी महंगी शिक्षा है और जब इन छात्रों के मां बाप अपना पेट काटकर, पाई-पाई जोड़कर कम पड़ने पर कर्जा लेकर अपने इन बच्चों को शिक्षा दिला, इस उम्मीद के साथ कि बेटा जब शिक्षित हो जाएगा और कहीं ना कहीं नौकरी मिल ही जाएगी, योग्यता के अनुसार ना सही पर नौकरी तो मिल ही जायेगी इसी उम्मीद में अपना पेट काटकर हर कोई अपने बच्चे को महंगी से महंगी शिक्षा दिलाता है पर जब उसके बेटे को नौकरी नहीं मिलती तो उसे लगता है कि मेरा बेटा अयोग्य है यदि योग्य होता तो कहीं ना कहीं तो नौकरी मिल ही गयी होती, वो देखो फलनवां का लड़का उसे नौकरी मिल गयी फलां विभाग /फलां कम्पनी में। 

140 करोड़ की आबादी वाले देश में राज्य और केन्द्र सरकार की सारी सरकारी नौकरियां जोड़ दी जायं तो 1.5 करोड़ भी नहीं पार कर पाएंगी। जब कुल मोटा-मोटा डेढ़ करोड़ सरकारी नौकरियां ही केन्द्र और राज्य को मिलाकर हैं तो डेढ़ करोड़ लोगों को ही तो नौकरियां मिलेंगी। उसमें भी जो विभाग बिक रहा है जैसे एयर इंडिया, वो सरकारी पद तो खत्म! उतनी नौकरियां तो कम हो गयी। अब यहां कुछ तथाकथित विद्वान लोग अपना सुवर जैसा मुँह खोलकर बोलेंगे कि सरकारी विभाग को प्राईवेट के हवाले कर दिया तो ठीक किया। जब सरकारी था तो लोग हरामखोरी करते थे, काम कम और टाइमपास ज्यादा। तो जनाब प्राइवेट संस्था में काम करने वाले लोग भी वही लोग हैं, तो सरकारी संस्थान में काम गड़बड़ क्यूँ, क्योंकि सरकारी संस्थान में हरामखोरी की व्यवस्था है ताकि सरकारी संस्थानों को बदनाम करके उसको बेचकर निजीकरण किया जा सके। 

आप स्वयं देखें कि सरकारी संस्थाओ में काम से ज्यादा लोगों को रखा जाता है, जरूरत 5 लोगों की है तो 7-8 लोगों को नौकरियों पर रखा जाता है और वहीं इसके उलट निजी संस्थानों में जरूरत से भी कम लोगों को रखा जाता है, जरूरत 5 लोगों की है तो 3-4 लोगों को ही नौकरियां पर रख काम निपटा लिया जाता है।

इस रिकॉर्ड तोड़ती बेरोजगारी से जूझते नौजवान जब नौकरी के मुद्दे पर सड़कों पर उतर कर आक्रोश व्यक्त करते हैं और सत्ता के गुण्डे पुलिस लाठियों और बंदूकों के कुंदों से उनकी हड्डियां तोड़ देते हैं तो यह उन नौजवानों के बाप-दादाओं की पीढ़ी की पतनशील चेतनाओं का स्वाभाविक निष्कर्ष ही है जो अभिशाप बन कर उन पर टूटा है। 

ये नौजवान बहुत अच्छी तरह से समझ गए हैं कि नौकरियों से जुड़ा स्थायित्व और सम्मान उनसे छीना जा रहा है, उन्हें पता है कि उनके लिए सरकारी नौकरियों के अवसर निरन्तर खत्म किये जा रहे हैं क्योंकि प्रभावी होती जा रही कारपोरेट संस्कृति की यही मांग है। वे जानते हैं कि प्राइवेट नौकरियों में उनके आर्थिक-मानसिक शोषण के नये-नये नियम-कानून जोड़े जा रहे हैं लेकिन तब भी, वे अपने बाप दादाओं की पीढ़ी से विरासत में प्राप्त वैचारिक दरिद्रता को बड़े ही शौक से ओढ़ने को आतुर हैं। 

इस देश में बेरोजगारी का आलम देख लीजिए कि आरआरबी, एनटीपीसी ने 2019 में 35,281 पोस्टों पर नौकरियों के लिए वैकेंसी निकाली थी और अब तीन साल बाद 2022 में जाकर प्रथम चरण का रिजल्ट निकाला है। 35,281 पदों के लिए एक करोड़ पचहत्तर हजार अर्जियां आईं। अब इन मुट्ठीभर पद पर इन करोड़ों बेरोजगार छात्रों को इस पूंजीवादी व्यवस्था में नौकरियों का सृजन करना सम्भव नहीं है तो शासक वर्ग अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए आरक्षण, मुसलमानों, स्त्रियों, सिक्खों, पिछड़ों, दलितों, ब्राह्मणों, जाटवों, बिहारियों, बंगालियों, पंजाबियों, कश्मीरियों, पाकिस्तानियों, खालिस्तानयों, चीनियों, तालिबानियों…. पर गुमराह कर नफरत का खेल खेलेगा और यदि इस देश के नौजवान इस फूट डालो और राज करो प्रोपोगण्डा को समझकर लड़ाई असली मोर्चे पर आकर बेरोजगारी के खिलाफ करेगा तो नौकरियों की जगह लाठियां तो मिलेंगी। इन्ही गोलियों और लाठियों से डर का माहौल बनाकर बेरोजगार नौजवानों का दमन करेंगे ताकि सड़क पर उतरकर कोई नौजवान नौकरी ना मांगे और यदि गलती से सड़क पर उतरेगा तो ऐसे ही नौकरी की जगह लाठियां मिलेंगी।

जिस दिन रोजगार के लिए, सरकारी नौकरियों के लिए सड़कों पर हड्डियां तुड़वा रहा नौजवानों का विशाल तबका अपने परिवार से विरासत में प्राप्त विचारहीनता के फंदे को खुद के गले से उतार लेगा, जिस दिन उनमें फेक लोकतंत्र को नकारने का राजनीतिक चेतना विकसित होने लगेगी उस दिन से देश की राजनीति भी खुद को बदलने के लिए विवश होने लगेगी। तब तक एक-एक कर रेलवे, हवाई अड्डे, बैंक, भेल, भारतीय पेट्रोलियम, शिक्षण संस्थान सहित बड़ी-बड़ी नवरत्न कंपनियां आदि-आदि बिकती रहेंगी और बिकती जाएंगी। कोई पूछने वाला नहीं रहेगा कि कितने में बिकी, न पूछने पर कोई बताने वाला रहेगा। स्थायी की जगह कांट्रेक्ट यानी ठेका की नौकरियों का बोलबाला बढ़ता जाएगा, मजदूरों के श्रम और गरीबों के सपनों को रौंदने का सिलसिला तेज होता जाएगा। मेहनतकश जनता का दमन लगातार बढ़ता ही जाएगा।

  अब तय आपको करना है कि उनकी खोखली और झूठी उपलब्धियों को सच मानकर यूं ही फेक लोकतंत्र की महानता पर गर्व कर इसी तरह लाठियां खानी हैं या फिर एकजुट होकर इस पूंजीवादी लोकतंत्र को उखाड़कर मेहनतकश जनता का राज कायम करना है। इस पर बल्ली सिंह चीमा की चन्द लाइने याद आ गयी।

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो ।
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो ।।

*अजय असुर*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा*

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*वे रौंद देते हैं*

वे रौंद देते हैं,
किसी को भी, कहीं भी,
जो उनके सामने जाते हैं,
सबसे बड़े लोकतन्त्र के गुमान में। वे यही करते हैं, 
जब आप उनके फासिस्ट राज को चुनौती देने लगते हैं,
पर फिर भी ये सच है की आप कुचल दिए जायेंगे,
बेल बूटे से सजी फौज, आपको पहले पीटती है,
कानून का लबादा ओढ़कर, फिर पीटते हैं, दागते हैं, रौंदते हैं
गुण्डे
तुम्हें रौंद डालने की सोचकर,
और इतना देखकर तुम एक ढेला
याकि पत्थर भी उठाते हो, 
याकि उठाते हो अपना हाथ 
धकेल देने के लिए इन दरिंदो को, 
कोई जोर से शोर करता है, देखो हिंसा, हिंसक, अराजक
फिर पीटे जाते हो तुम, क्या कोई समाधान है इसका, 
सोचा कभी आपने? सोचिएगा?

*पंकज विद्यार्थी, इलाहाबाद*

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Thursday, 27 January 2022

साहिर लुधियानवी

साहिर  ने " छब्बीस। जनवरी " के नाम से एक नज़्म लिखी थी जो आज भी सही प्रतीत होती है । देश ने बहुत प्रगति कर ली है लेकिन आज भी ग़रीबी , बेरोज़गारी , मज़हब , जाति भेद ज्यों की त्यों बनी हुई है । इस के लिए शायर/कवि अपने को भी ज़िम्मेदार  मानते थे ।आज के दौर में ऐसी बात उठाने वाला कोई शायर / कवि नज़र नहीं आ रहा है इसलिए इस नज़्म की कुछ पंक्तियाँ पेश है -

आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हम ने वो हसीं ख़्वाब क्या हुए…………
क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का
मरते थे जिन पर हम वो सज़ा-याब क्या हुए………..
मज़हब का रोग आज भी क्यूँ ला- इलाज है
वो नुस्ख़ा-हा-ए-नादिर-ओ-नायाब क्या हुए…………
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्लगाह
यक-जहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए…………….
मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रह-बरना-ए-क़ौम ख़ता- कार तुम भी हो

——साहिर लुधियानवी
(75 वें गणतंत्र दिवस / अमृत महोत्सव पर विशेष प्रस्तुति )

कविता -हिन्दू




मैं तब हिंदू नहीं था

जब मेरे माँ-बाप
सिर्फ़ इसलिए बेदर्दी से
पीटे जा रहे थे
कि उन्हें मंज़ूर नहीं थी
भीख सरीखी मज़दूरी

मैं तब भी हिंदू नहीं था
जब हमारी बहू बेटियाँ
पशुओं से भी बदतर थीं
और हमारे पशु
तुम्हारी बपौती

मैं तब भी नहीं था हिंदू
जब गुज़रता था
तुम्हारी हवेली से
सिर झुकाए
तुम्हारे मंदिरों से 
कोसों दूर लड़खड़ाते

मैं तब भी हिंदू नहीं था
जब तुम्हारी गंदगी ढोता 
तुम्हारी जूठन को
नियामत समझता था

तुम्हारे तथाकथित धर्म
महान आचारों विचारों की
परिधि से उठाकर 
निर्दयता से बाहर फेंका गया
मैं कब हिंदू था
मुझे मालूम नहीं

जब तुम्हारी घृणित
राजनीति के जूए में
बैलों की कमी पड़ती है
तुम्हारी हिंसक भीड़ में
ज़रूरत पड़ती है
हतबुद्धि पथराये जनों की
जब तुम कमज़ोर पड़ते हो
काल्पनिक विधर्मियों के आगे

तब तुम्हें याद आता है
कि हम लोग भी तो हिंदू हैं

पर तुम भूल जाते हो कि
वह मासूम भी हिंदू थी
जिसकी विदीर्ण लाश
तुम्हारे खेत में मिली थी

हिंदुत्व
हथियार है तुम्हारा
सदियों पुराना
कुत्सित नीति है 
ज़माने से तुम्हारी
यही रीति है

जो तब हमारी समझ में
नहीं आई थीं
कि वह कौन सा नुस्खा है
कि कल तक के पशु
कल तक के अछूत
अचानक हिंदू हो जाते हैं


*-हूबनाथ*

Monday, 24 January 2022

शोषण की बुनियाद जाति या अर्थव्यवस्था



प्रो. लक्ष्मण यादव जैसे कुछ जातिवादी लोग मार्क्सवाद की बहुत ही धूर्ततापूर्ण व्याख्या कर रहे हैं। उन्हें मार्क्स के द्वण्द्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं मालूम फिर भी मार्क्सवाद की आलोचना कर रहे हैं। उनका प्रवचन इस लिंक में देख सकते हैं- https://youtu.be/nY4WfojjRcs  

मार्क्सवाद की समझ न होना, अपने आप में कोई अयोग्यता नहीं है, मगर मार्क्सवाद को समझे बगैर मार्क्सवाद की आलोचना करना तर्कसंगत नहीं है, और अपने जातिवाद को जायज ठहराने के लिये कुतर्कों द्वारा मार्क्सवाद की आलोचना करना धूर्ततापर्ण है। हम उनकी मार्क्सवाद की भौंड़ी व्याख्या पर बाद में कभी बात कर लेंगे, क्योंकि मार्क्सवाद बहुत बड़ा विषय है, सिर्फ मार्क्स की किताबों को पढ़कर इसे पूरी तरह नहीं समझा जा सकता क्योंकि यह कोई जड़सूत्र नहीं है, यह लगातार विकसित हो रहा है। फिलहाल इन प्रोफेसर साहब के अनुसार "मार्क्स की शोषण सम्बन्धी नासमझी" पर बात कर लेते हैं।

प्रोफेसर साहेब कहते हैं कि 'मार्क्स केवल आर्थिक शोषण को ही समझ पाये थे। वे जातीय, नस्लीय और लैंगिक शोषण को नहीं समझ पाए।…… अगर मार्क्स भारत में पैदा होते तो यहां के जातिगत शोषण को देखकर वर्गसंघर्ष की बजाय जातिसंघर्ष की बात करते।'
  
इस तरह ऐसे बहुत लोग हैं जो अपनी गन्दी जातिवादी मानसिकता को जायज ठहराने के लिये ऐसी लफ्फाजी करते रहते हैं।

जनाब प्रोफेसर साहब! जरा गहराई से सोचिये- जातीय, नस्लीय, लैंगिक शोषण का भी आधार आर्थिक ही होता है।

है किसी में दम जो नीता अम्बानी का शोषण कर ले। महिला तो वह भी हैं।

मायावती दलित भी हैं और महिला भी हैं जरा आप उनका  शोषण करके दिखाइए।

रंग के आधार पर काले लोगों का जो शोषण होता रहा उसका भी आधार आर्थिक ही रहा है।

जिसे आप जातिगत शोषण कहते हैं उसका भी बुनियादी कारण आर्थिक ही होता है।

आप यह जानकर और अधिक हैरान होंगे कि जिसे आप यौन शोषण कहते हैं उस यौन शोषण का भी आधार आर्थिक ही होता है।

जब कोई अपने धन के बल पर अपने से आधी या उससे भी कम उम्र की गरीब लड़की से शादी करता है तो मौजूदा संविधान उसे जायज ठहराता है मगर मार्क्स की दृष्टि में वह भी वेश्यावृत्ति/यौन शोषण ही है, जिसका आधार आर्थिक ही होता है। 
  
अब आप कहेंगे कि बाबू जगजीवन राम द्वारा सम्पूर्णानन्द की मूर्ति अनावरण करने पर मूर्त्ति को गोमूत्र से क्यों धुला गया? फलां दलित राष्ट्रपति को मन्दिर में क्यों नहीं घुसने दिया? इसी तरह के और भी लफ्फाजीपूर्ण तर्क हम बहुत सुन चुके हैं। यह शोषण नहीं, यह जातिगत अपमान है और इस जातिगत अपमान का भी कारण आर्थिक ही है।

करोड़पति या अरबपति दलित नेताओं का कभी-कभी जातिगत अपमान होता है तो उसका कारण आर्थिक ही होता है क्योंकि उनकी जाति समूह के 90-95% लोग आर्थिक रूप से विपन्न हैं।

जनाब प्रोफेसर साहब! शोषण का आधार आर्थिक ही होता है, इसे हम यूं भी समझ सकते हैं- अगर किसी जाति विशेष का शोषण अधिक हो रहा है तो उसका सीधा सा कारण है कि उस जाति समूह में गरीबी भी अधिक है। जिस जाति समूह में गरीबी कम है, उनका शोषण और अपमान भी कम है। 

फिर भी जिन्हें लगता है कि भारत में शोषण का आधार जातिगत है, हम उन्हें चुनौती देते हैं, आप छोड़ दीजिए सारा आर्थिक संसाधन, छोड़ दीजिए लाखों रूपये तनख्वाह वाली नौकरियां, फिर आइए जातीय संघर्ष करके दिखाइए। तो समझ में आ जाएगा।

आंख उठाकर पूरे समाज को देख लीजिये, इसके बावजूद तुलसीदास की चौपाई "सबसे अधिक जाति अपमाना" की तर्ज पर 'जातीय अपमान गरीबी से भी ज्यादा खटकता हो' तो आइए हमारे घर, हम आपको फूल माला से पाट देंगे, दिन भर में दस बार आरती उतारेंगे, आपका चरण धोयेंगे, उसे सर माथे चढ़ायेंगे, मगर भोजन नहीं देंगे। भोजन पर पाबन्दी रहेगी। आप कितने दिन इस सम्मान के  भरोसे जियेंगे?
  
इसके उलट आप हमसे कुतर्क कर सकते हैं कि 'कोई आप को रोज भरपेट भोजन दें और बदले में रोज दो जूता मारे, तो ऐसा भोजन आप कितने दिन तक करेंगे?'

इसका जवाब आप को इतिहास में ही मिल जायेगा। इतिहास गवाह है कि जब हमारे पुरखों की सम्पत्ति छीनकर उन्हें गुलाम बना लिया गया तो रोटी के लिए हमारी सैकड़ों पीढ़ियां गुलामी और अपमान सहती रही हैं। 
 
अत: हमारे अपमान के कारण हम गरीब नहीं हैं बल्कि हमारी गरीबी के कारण हमारा अपमान होता रहा है। हमें पहले गरीब बनाया गया तभी हम अपमान सहने के लिए मजबूर हुए।

जिन्हें लगता है कि भारत में शोषण का आधार आर्थिक और जातिगत दोनों ही है, तो ऐसे लोग तो सबसे ज्यादा भ्रमित हैं। 

जो पूछते हैं कि सुबह-सुबह गलियों में झाड़ू कौन लगाता है? उनके सवाल पूछने का मतलब यही होता है कि दलित ही झाड़ू लगाता है। तब तो उन्हें समझना पड़ेगा कि अगर दलित होने के नाते झाड़ू लगा रहा है तो मायावती के भतीजे भी तो दलित हैं, क्यों नहीं वे शहर की गलियों में झाड़ू लगाते हैं? इसका भी बुनियादी कारण आर्थिक ही है।

जिन्हें लगता है कि, मार्क्स भारत में पैदा होते तो वे भी वर्गसंघर्ष की बजाय जातिसंघर्ष की बात करते, तो हम बता दें कि मार्क्स जैसा भौतिकवादी दार्शनिक कहीं भी पैदा हो जाये, वो आप लोगों जैसी घिनौनी लफ्फाजी नहीं कर सकता। वो किसी जाति या धर्म विशेष में जन्म लेने के आधार पर किसी को दोस्त या दुश्मन नहीं बना सकता। 
  
जिस तरह आरएसएस जैसे फिरकापरस्त संगठनों के लोग किसी धर्म विशेष में पैदा होने वालों को दुश्मन समझते हैं उसी तरह किसी जाति विशेष में पैदा होने वालों को आप लोग दुश्मन बता रहे हैं। दोनों ही जन्म के आधार पर दोस्त दुश्मन तय कर रहे हैं। मानवीय संवेदना से भरा हुआ कोई भी आदमी जन्म के आधार पर दोस्त दुश्मन नहीं तय कर सकता। यह तर्कसंगत भी नहीं है क्योंकि कौन कहां पैदा होगा यह उसके वश में नहीं होता।

मार्क्सवाद के सूरज पर थूकने से गन्दगी कहां जायेगी, क्या आपको नहीं मालूम है?
आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी, कैसे यह आदमी प्रोफेसर हो गया? छात्रों को क्या पढ़ाता रहा होगा?

आगे फिर कभी....

*रजनीश भारती*
*जनवादी किसान सभा*

*

Wednesday, 19 January 2022

कविता

*छिछले प्रश्न गहरे उत्तर*   कवि बच्चा लाल 'उन्मेष' 

कौन जात हो भाई? 
"दलित हैं साब!" 
नहीं मतलब किसमें आते हो? /  
आपकी गाली में आते हैं 
गन्दी नाली में आते हैं 
और अलग की हुई थाली में आते हैं साब! 
मुझे लगा हिन्दू में आते हो! 
आता हूं न साब! पर आपके चुनाव में। 

क्या  खाते हो भाई? 
"जो एक दलित खाता है साब!" 
नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो? 
आपसे मार खाता हूं 
कर्ज़ का भार खाता हूं 
और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूं साब! 
नहीं मुझे लगा कि मुर्गा खाते हो! 
खाता हूं न साब! पर आपके चुनाव में। 

क्या पीते हो भाई? 
"जो एक दलित पीता है साब! 
नहीं मतलब क्या-क्या पीते हो? 
छुआ-छूत का गम 
टूटे अरमानों का दम 
और नंगी आंखों से देखा गया सारा भरम साब! 
मुझे लगा शराब पीते हो! 
पीता हूं न साब! पर आपके चुनाव में। 

क्या  मिला है भाई 
"जो दलितों को मिलता है साब! 
नहीं मतलब क्या-क्या मिला है? 
ज़िल्लत भरी जिंदगी 
आपकी छोड़ी हुई गंदगी 
और तिस पर भी आप जैसे परजीवियों की बंदगी साब! 
मुझे लगा वादे मिले हैं! 
मिलते हैं न साब! पर आपके चुनाव में। 

 क्या किया है भाई? 
"जो दलित करता है साब! 
नहीं मतलब क्या-क्या किया है? 
सौ दिन तालाब में काम किया 
पसीने से तर सुबह को शाम किया 
और आते जाते ठाकुरों को सलाम किया साब! 
मुझे लगा कोई बड़ा काम किया! 
किया है न साब! आपके चुनाव का प्रचार..। 


हम हैं - तो गाएँगे 
-----------------------
तुम जाति-ज़हर घोलो 
तुम धर्म की जय बोलो 
इंसान को तुम बांटो 
नफ़रत की फ़सल काटो 
हम अपने एका का 
परचम लहराएँगे .......
जीवन के सरगम पर 
हम हैं - तो गाएँगे  !

   --- आदित्य कमल

एन जी ओ (सेफ्टी वॉल्व)



भिखमंगे आये
नवयुग का मसीहा बनकर,
लोगों को अज्ञान, अशिक्षा और निर्धनता से मुक्ति दिलाने ।
अद्भुत वक्तृता, लेखन–कौशल और
सांगठनिक क्षमता से लैस
स्वस्थ–सुदर्शन–सुसंस्कृत भिखमंगे आये
हमारी बस्ती में ।
एशिया–अफ्रीका–लातिनी अमेरिका के
तमाम गरीबों के बीच
जिस तरह पहुंचे वे यानों और
वाहनों पर सवार,
उसी तरह आये वे हमारे बीच ।
भीख, दया, समर्पण और भय की
संस्कृति के प्रचारक
पुराने मिशनरियों से वे अलग थे,
जैसे कि उनके दाता भी भिन्न थे
अपने पूर्वजों से ।
अलग थे वे उन सर्वोदयी याचकों से भी
जिनके गांधीवादी जांघिये में
पड़ा रहता था
(और आज भी पड़ा रहता है)
विदेशी अनुदान का नाड़ा ।
भिखमंगों ने बेरोजगार युवाओं से
कहा-"तुम हमारे पास आओ,
हम तुम्हें जनता की सेवा करना सिखायेंगे,
वेतन कम देंगे
पर गुजारा–भत्ता से बेहतर होगा
और उसकी भरपाई के लिए
'जनता के आदमी' का
ओहदा दिलायेंगे,
स्थायी नौकरी न सही,
बिना किसी जोखिम के
क्रान्तिकारी बनायेंगे,
मजबूरी के त्याग का वाजिब
मोल दिलायेंगे ।"
"रिटायर्ड, निराश, थके हुए क्रान्तिकारियो,
आओ, हम तुम्हें स्वर्ग का रास्ता बतायेंगे ।
वामपंथी विद्वानो, आओ
आओ सबआल्टर्न वालो,
आओ तमाम उत्तर मार्क्सवादियो,
उत्तर नारीवादियो वगैरह–वगैरह
आओ, अपने ज्ञान और अनुभव से
एन.जी.ओ. दर्शन के नये–नये शस्त्र और शास्त्र रचो,"
आह्वान किया भिखमंगों ने
और जुट गये दाता–एजेंसियों के लिए
नई रिपोर्ट तैयार करने में ।

मित्र के वाल से

लेनिन की कविता के बारे में- नरेंद्र कुमार


1907 की गर्मी में लेनिन भूमिगत रूप से फिनलैण्ड में रहे। ज़ार के हुक्म से दूसरी दूमा 'रूसी संसद' उस वक्त तोड़ दी गई थी। लेनिन व सोशल डेमोक्रेट दल के दूसरे कार्यकर्ताओं के गिरफ़्तार होने का खतरा था। लेनिन फिनलैण्ड से भागकर बाल्टिक के किनारे उस विस्ता गांव में छहा्र नाम से कई महीने रहे। डेढ़ साल के लगातार तीव्र राजनीतिक कामों 'जिसका अधिकांश भूमिगत रूप से करना पड़ा था,' के बाद लेनिन को कुछ समय के लिए आराम करने का मौका मिला। इस अज्ञातवास में उनकी पार्टी के ही एक साथी उनके साथ रहे। एक दिन बाल्टिक के किनारे टहलते हुए लेनिन ने अपने साथी से कहा-पार्टी जनता में प्रचार के काम के लिए काव्य विधा का अच्छी तरह इस्तेमाल नहीं कर रही है; उनका दुख यह था कि प्रतिद्वन्द्वी सोशल रेवोल्येशनरी दल इस मामले में काफी समझदारी का परिचय दे रहे हैं। 'काव्य रचना सबके बूते की बात नहीं है', उनके साथी के यह बात कहने पर लेनिन ने कहा 'जिन्हें लिखने का अभ्यास है, काफी मात्रा में क्रान्तिकारी आकांक्षा तथा समझ है वह क्रांन्तिकारी कविता भी लिख सकते है'। उनके साथी ने उन्हें कोशिश करने के लिए कहा, इस पर, उन्होंने एक 'कविता' लिखने की शुरुआत की और तीन दिन बाद उसे पढ़कर सुनाया। इस लम्बी कविता में लंनिन ने 1901-1907 की क्रान्ति का एक चित्र उकेरा है- जिसके शुरुआती दौर को उन्होंने 'वसन्त' कहा है, उसके बाद शुरु हुए प्रतिक्रिया के दौर को उन्होंने 'शीत' कहा है, आहवान किया है मुक्ति के नये संग्राम के लिए। लेनिन की कविता जेनेवा में चन्द रूसी डेमोक्रेट कार्यकर्त्ताओं द्वारा स्थापित पत्र 'रादुगा' (इन्द्रधनुष) में छपने की बात थी। लेनिन ने कहा था, कविता में लेखक का नाम 'एक रूसी' दिया जाए, न कि उनका नाम। मगर कविता छपने से पहले ही वह पत्रिका बन्द हो गयी। पीटर्सबुर्ग से निर्वाचित डिप्टी, सोशल डेमोक्रेट ग्रेगोयार आलेकशिन्स्की का भूमिगतकालीन नाम पियतर आल था। कविता अब तक उनके संग्रह में ही छिपी रही। उन्होंने पिछले साल (1946) इसका फ्रांसीसी अनुवाद पहली बार फ्रेंच पत्रिका -L' arche में प्रकाशित किया। किसी भाषा में इससे पहले यह प्रकाशित नहीं हुई। जहाँ तक पता चलता है, इसके अलावा लेनिन ने और कोई कविता नहीं लिखी। यही उनकी एकमात्र कविता है। फ्रांसीसी से अनुवाद करके कविता नीचे दी जा रही है। जहां तक सम्भव है-लगभग शाब्दिक अनुवाद किया गया है। मर्जी मुताबिक कुछ जोड़ने या घटाने की कोशिश नहीं की गई है।

अरुण मित्रशारदीय स्वाधीनता, 1947

वह एक तूफानी साल| कविता |
वी आई लेनिन

वह एक तूफानी साल।

आँधी ने सारे देश को अपनी चपेट में ले लिया। बादल बिखर गए

तूफान टूट पड़ा हम लोगों पर, उसके बाद ओले और वज्रपात

जख्म मुँह बाए रहा खेत और गाँव में

चोट दर चोट पर।

बिजली झलकने लगी, खूँखार हो उठी वह झलकन।

बेरहम ताप जलने लगा, सीने पर चढ बैठा पत्थर का भार।

और आग की छटा ने रोशन कर दिया

नक्षत्रहीन अंधेरी रात के सन्नाटे को।

सारी दुनिया सारे लोग तितर-बितर हो गए

एक रूके हुए डर से दिल बैठता गया

दर्द से दम मानो धुटने लगा

बन्द हो गए तमाम सूखे चेहरे।

खूनी तूफान में हजारों हजार शहीदों ने जान गँवायी

मगर यूँ ही उन्होंने दुख नहीं झेला, यूँ ही काँटों का सेहरा नहीं पहना।

झूठ और अंधेरे के राज में ढोंगियों के बीच से

वे बढ़ते गए आनेवाले दिन की मशाल की तरह।

आग की लपटों में, हमेशा जलती हुई लौ में

हमारे सामने ये कुर्बानी के पथ उकेर गए,

ज़िन्दगी की सनद पर, गुलामी के जुए पर, बेड़ियों की लाज पर

उन्होंने नफरत की सील-मुहर लगा दी।

बर्फ ने साँस छोड़ी, पत्ते बदरंग होकर झरने लगे,

हवा में फँसकर घूम-घूम कर मौत का नाच नाचने लगे।

हेमन्त आया, धूसर गालित हेमन्त।

बारिश की रुलाई भरी, काले कीचड़ में डूबे हुए।

इन्सान के लिए जिन्दगी घृणित और बेस्वाद हुई,

ज़िन्दगी और मौत दोनों ही एक-से असहनीय लगे उन्हें।

गुस्सा और र्दद लगातार उन्हें कुरेदने लगा।

उनका दिल उनके घर की तरह ही

बर्फीला और खाली और उदास हो गया।

उसके बाद अचानक वसन्त!

एकदम सड़ते हेमन्त के बीचोंबीच वसन्त,

हम लोगों के उपर उतर आया एक उजला खूबसूरत वसन्त

फटेहाल मुरझाये मुल्क में स्वर्ग की देन की तरह,

ज़िन्दगी के हिरावल की तरह, वह लाल वसन्त!

मई महीने की सुबह सा एक लाल सवेरा

उग आया फीके आसमान में,

चमकते सूरज ने अपनी लाल किरणों की तलवार से

चीर डाला बादल को, कुहरे की कफन फट गयी।

कुदरत की वेदी पर अनजान हाथ से जलायी गयी

शाश्वत होमाग्नि की तरह

सोये हुए आदमियों को उसने रोशनी की ओर खींचा

जोशीले खून से पैदा हुआ रंगीन गुलाब,

लाल लाल फूल, खिल उठे

और भूली-बिसरी कब्रों पर पहना दिया

इ़ज्ज़त का सेहरा।

मुक्ति के रथ के पीछे

लाल झण्डा फहरा कर

नदी की तरह बहने लगी जनता

मानो वसन्त में पानी के सोते फूट पड़े हैं।

लाल झण्डा थरथराने लगा जुलूस पर,

मुक्ति के पावन मन्त्र से आसमान गूँज उठा,

शहीदों की याद में प्यार के आँसू बहाते हुए

जनता शोक-गीत गाने लगी। खूशी से भरपूर।

जनता का दिल उम्मीद और ख्वाबों से भर गया,

सबों ने आनेवाली मुक्ति में एतबार किया

समझदार, बूढ़े, बच्चे सभी ने।

मगर नींद के बाद आता है जागरण।

नंगा यथार्थ,

स्वप्न और मतवालेपन के स्वर्गसुख के बाद ही आता है

वंचना का कडुवा स्वाद।

अन्धेरे की ताकतें छाँह में छिपकर बैठी थीं,

धूल में रेंगतें हुए वे फुफकार रहे थे;

वे घात लगाकर बैठे थे।

अचानक उन्होंने दाँत और छुरा गड़ा दिया

वीरों की पीठ और पाँव पर।

जनता के दुश्मनों ने अपने गन्दे मुँह से

गरम साफ खून पी लिया,

बेफिक्र मुक्ति के दोस्त लोग जब मुश्किल

राहों से चलने की थकान से चूर थे,

निहत्थे वे जब उनींदी बाँसे ले रहे थे

तभी अचानक उन पर हमला हुआ।

रोशनी के दिन बुझ गए,

उनकी जगह अभिशप्त सीमाहीन काले दिनों की कतार ने ले ली।

मुक्ति की रोशनी और सुरज बुझ गया,

अन्धरे में खड़ा रहा एक साँप-नजर।

घिनौने कत्ल, साम्प्रदायिक हिंसा, कुत्सा प्रचार

घोषित हो रहा है देशप्रेम के तौर पर,

काले भूतों का गिरोह त्योहार मना रहा है।

बेलगाम संगदिली से,

जो लोग बदले के शिकार हुए हैं

जो लोग बिना वजह बेरहमी से

विश्वासघाती हमले में मारे गये हैं

उन तमाम जाने-अनजाने शिकारों के खून से वे रंगे हैं।

शराब की भाप में गाली-गलौज करते हुए मुट्ठी  संभाले

हाथ में वोद्का की बोतल लिये कमीनों के गिरोह

दौड़ रहे है पशुओं के झुण्ड की तरह

उनकी जेब में खनक रहे गद्दारी के पैसे

वे लोग नाच रहे हैं डाकुओं का नाच।

मगर इयेमलिया,(1) वह गोबर गणेश

बम से डर से और भी बेवकूफ बन कर चूहे की तरह थरथराता है

और उसके बाद निस्संकोच कमीज़ पर

''काला सौ''(2) दल का प्रतीक टाँकता है।

मुक्ति और खुशी की मौत की घोषणा कर

उल्लुओं की हँसी में

रात के अन्धेरे में प्रतिध्वनि करता है।

शाश्वत बर्फ के राज्य से

एक खूखार जाड़ा बर्फीला तुफान लेकर आया,

सफेद कफन की तरह बर्फ की मोटी परत ने

ढँक लिया सारे मुल्क को।

बर्फ की साँकल में बाँधकर जल्लाद जाड़े ने बेमौसम मार डाला

वसन्त को।

कीचड़ के धब्बे की तरह इधर-उधर दीख पड़ते हैं

बर्फ से दबे बेचारे गाँवों की छोटी-छोटी काली कुटियों के शिखर

बुरे हाल और बदरंग जाड़े के साथ भूख ने

अपना गढ़ बना लिया है सभी जगह तमाम दूषित घरों को।

गर्मी में लू जहाँ आग्नेय उत्ताप को लाती है

उस अन्तहीन बर्फीले क्षेत्र को घेर कर

सीमाहीन बेइन्तहा स्तेपी को घेर कर

तुषार के खूखार वेग आते-जाते हैं सफेद चिड़ियों की तरह।

बंधन तोड़ वे तमाम वेग सांय-सांय गरजते रहे,

उनके विराट हाथ अनगित मुठियों से लगातार बर्फ फेंकते रहे।

वे मौत का गीत गाते रहे

जैसे वे सदी-दर-सदी गाते आए हैं।

तूफान गरज पड़ा रोएँदार एक जानवर की तरह

ज़िदगी की धड़कन जिनमें थोड़ी सी भी बची है उन पर टूट पड़े,

और दुनिया से ज़िदगी के तमाम निशान धो डालने के लिए

पंखवाले भयंकर साँप की तरह झटपट करते हुए उड़ने लगे।

तूफान ने पहाड़ सा बर्फ इकट्ठा करके

पेड़ पौधों को झुका दिया, जंगल तहस-नहस कर दिया।

पशु लोग गुफा में भाग गये हैं।

पथ की रेखाएँ मिट गयी हैं, राही नदारद हैं।

हडडीसार भूखे भेडिए दौड़ आए,

तूफान के इर्द-गिर्द घूमने-फिरने लगे,

शिकार लेकर उनकी उन्मत छीनाझपटी

और चाँद की ओर चेहरा उठाकर चीत्कार,

जो कुछ जीवित हैं सारे डर से काँपने लगे।

उल्लू हँसते हैं, जंगली लेशि(3) तालियाँ बजाते हैं

मतवाले होकर काले दैत्यलोग भँवर में घूमते हैं

और उनके लालची होंठ आवाज करते हैं-

उन्हें मारण-यज्ञ की बू मिली है,

खूनी संकेत का वे इन्तजार करते हैं।

सब कुछ के उपर, हर जगह मौन, सारी दुनिया में बर्फ जमी हुई।

सारी ज़िन्दगी मानो तबाह है,

सारी दुनिया मानो कब्र की एक खाई है।

मुक्त रोशन ज़िदगी का और कोई निशान नहीं है।

फिर भी रात के आगे दिन की हार अभी भी नहीं हुई,

अभी भी कब्र का विजय-उत्सव ज़िदगी को नेस्तानाबूद नहीं करता।

अभी भी राख के बीच चिनगारी धीमी-धीमी जल रही है,

ज़िदगी अपनी साँस से फिर उसे जगाएगी।

पैरों से रौंदे हुए मुक्ति के फूल

आज एकदम नष्ट हो गये हैं,

''काले लोग''(4) रोशनी की दुनिया का खौफ देख खुश हैं,

मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है।

जन्म देने वाली मिट्टी में।

माँ के गर्भ में विचित्र उस बीज ने

आँखों से ओझल गहरे रहस्य में अपने को जिला रखा है,

मिट्टी उसे ताकत देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी,

उसके बाद एक नये जन्म में फिर वह उगेगा।

नयी मुक्ति के लिए बेताब जीवाणु वह ढो लाएगा,

फाड़ डालेगा बर्फ की चादर,

विशाल वृक्ष के तौर पर बढ़कर लाल पत्ते फैलाए

दुनिया को रोशन करेगा,

सारी दुनिया को,

तमाम राष्ट्र की जनता को उसकी छाँह में इकट्ठा करेगा।

हथियार उठाओ, भाइयो, सुख के दिन करीब हैं।

हिम्मत से सीना तानो। कूद पड़ो, लड़ाई में आगे बढ़ो।

अपने मन को जगाओ। घटिया कायराना डर को दिल से भगाओ!

खेमा मजबूत करो! तनाशाह और मालिकों के खिलाफ

सभी एकजुट होकर खड़े हो जाओ!

जीत की किस्मत तुम्हारी मतबूत मजदूर मुट्ठी में!

हिम्मत से सीना तानो! ये बुरे दिन जल्दी ही छंट जाएंगे!

एकजुट होकर तुम मुक्ति के दुशमन के खिलाफ खड़े हो!

वसन्त आएगा… आ रहा है… वह आ गया है।

हमारी बहुवांछित अनोखी खूबसूरत वह लाल मुक्ति

बढ़ती आ रही है हमारी ओर!

तनाशाही, राष्ट्रवाद, कठमुल्लापन ने

बगैर किसी गलती के अपने गुणों को साबित किया है

उनके नाम पर उन्होंने हमें मारा है, मारा है, मारा है,

उन्होंने किसानों की हाड़माँस तक नोचा है,

उन लोगों ने तोड़ दिए है दाँत,

जंजीर से जकड़े हुए इन्सान को उन्होंने कैदखाने में दफनाया है।

उन्होंने लूटा है,  उन्होंने कत्ल किया है

हमारी भलाई के लिए कानून के मुताबिक,

ज़ार की शान के लिए, साम्राज्य की भलाई के लिए!

जार  के गुलामों ने उसके जल्लादों को तृप्त किया है,

उनकी सेनाओं ने उसके लालची ग़िद्धो को दावत दी है

राष्ट्र की शराब और जनता के खून से।

उनके कातिलों को उन्होंने तृप्त किया है,

उनके लोभी गिद्धों को मोटा किया है,

विद्रोही और विनीत विश्वासी दासों की लाश देकर।

ईसा मसीह के सेवकों ने प्रार्थना के साथ

फांसी के तख्तों के जंगल में पवित्र जल का छिड़काव किया है।

शाबाश, हमारे ज़ार की जय हो!

जय हो उसका आशीर्वादप्राप्त फाँसी की रस्सी की!

जय हो उसकी चाबुक-तलवार-बन्दूकधारी पुलिस की!

अरे फौजियो, एक गिलास वोद्का में

अपने पछतावों को डुबो दो!

अरे ओ बहादुरों, चलाओ गोली बच्चो और औरतों पर!

जहाँ तक हो सके अपने भाइयों का कत्ल करो

ताकि तुम लोगों के धर्म पिता खुश हो सकें!

और अगर तुम्हारा अपना बाप गोली खाकर गिर पड़े

तो उसे डूब जाने दो अपने खून में, हाथ के कोड़े से टपकते खून में!

जार की शराब पीकर हैवान बनकर

बगैर दुविधा के तुम अपनी माँ को मारो।

क्या डर है तुम्हें?

तुम्हारे सामने जो लोग हैं वे तो जापानी(5) नहीं हैं।

वे निहायत ही तुम्हारे अपने लोग हैं

और वे बिल्कुल निहत्थे हैं।

हे ज़ार के नौकरो, तुम्हें हुक्म दिया गया है

तुम बात मत करो, फाँसी दो!

गला काटों! गोली चलाओं! घोडे़ के खुर के नीचे कुचल दो!

तुम लोगों के कारनामों का पुरस्कार पदक और सलीब मिलेगा…

मगर युग-युग से तुमलोगों पर शाप गिरेगा

अरे ओ जूडास के गिरोह!

अरी ओ जनता, तुम लोग अपनी आखिरी कमीज दे दो,

जल्दी जल्दी! खोल दो कमीज!

अपनी आखिरी कौड़ी खर्च करके शराब पीओ,

ज़ार की शान के लिए मिट्टी में कुचल कर मर जाओ!

पहले की तरह बोझा ढोनेवाले पशु बन जाओ!

पहले की बोझा ढोने वाले पशु बन जाओ!

हमेशा के गुलामों, कपड़े के कोने से आंसु पोंछो

और धरती पर सिर पटको!

विश्वसनीय सुखी

आमरण ज़ार को जान से प्यारी, हे जनता,

सब बर्दाश्त करते जाओ, सब कुछ मानते चलो पहले की तरह…

गोली! चाबुक! चोट करो!

हे ईश्वर, जनता को बचाओ(6)

शक्तिमान, महान जनता को!

राज करे हमारी जनता, डर से पसीने-पसीने हों ज़ार के लोग!

अपने घिनौने गिरोह को साथ लेकर हमारा जार आज पागल है,

उनके घिनौने गुलामों के गिरोह आज त्योहार मना रहे हैं,

अपने खून से रंगे हाथ उन्होंने धोये नहीं!

हे ईश्वर, जनता को बचाओ!

सीमाहीन अत्याचार!

पुलिस की चाबुक!

अदालत में अचानक सजा

मशीनगन की गोलियों की बौछार की तरह!

सजा और गोली बरसाना,

फाँसी के तख्तों का भयावह जंगल,

तुमलोगों को विद्रोह की सजा देने के लिए!

जेलखाने भर गए हैं

निर्वासित लोग अन्तहीन दर्द से कराह रहें हैं,

गोलियों की बौछार रात को चीर डाल रही है।

खाते खाते गिद्धों को अरुचि हो गई है।

वेदना और शोक मातृ भूमि पर फैल गया है।

दुख में डूबा न हो, ऐसा एक भी परिवार नहीं है।

अपने जल्लादों को लेकर

ओ तानाशाह, मनाओ अपना खूनी उत्सव

ओ खून चूसनेवालों, अपने लालची कुत्तों को लगाकर

जनता का माँस नोंच कर खाओ!

अरे तानाशाह, आग बरसाओ!

हमारा खून पिओ, हैवान!

मुक्ति, तुम जागो!

लाल निशान तुम उड़ो!

और तुम लोगों अपना बदला लो, सजा दो,

आखिरी बार हमें सताओ!

सज़ा पाने का वक्त करीब है,

फैसला आ रहा है, याद रखो!

मुक्ति के लिए

हम मौत के मुँह में जाएंगे; मौत के मुँह में

हम हासिल करेंगे सत्ता और मुक्ति,

दुनिया जनता की होगी!

गैर बराबरी की लड़ाई में अनगिनत लोग मारे जाएँगे!

फिर भी चलो हम आगे बढ़ते जाऐँ

बहुवांछित मुक्ति की ओर!

अरे मजदूर भाई! आगे बढ़ो!

तुम्हारी फौज लड़ाई में जा रही है

आजाद आँखें आग उगल रही हैं

आसमान थर्राते हुए बजाओ श्रम का मृत्युंजयी घण्टा!

चोट करो, हथौड़ा! लगातार चोट करो!

अन्न! अन्न! अन्न!

बढ़े चलो किसानों, बढ़े चलो।

जमीन के बगैर तुम लोग जी नही सकते।

मलिक लोग क्या अभी भी तुमलोगों का शोषण करते रहेंगे?

क्या अभी भी अनन्तकाल तक वे तुमलोगों को पेरते रहेंगे?

बढ़े चलो छात्र, बढ़े चलो।

तुमलोंगों में से अनेकों जंग में मिट जाएँगे।

लालफीता लपेट कर रखा जाएगा

मारे गए साथियों का शवाधार।

जानवरों के शासन के जुए

हमारे लिए तौहीन हैं।

चलो, चूहों को उनके बिलों से खदेडें

लड़ाई में चलों, अरे ओ सर्वहारा!

नाश हो इस दुखदर्द का!

नाश हो ज़ार और उसके तख्त का!

तारों से सजा हुआ मुक्ति का सवेरा

वह देखों उसकी दमक झिलमिला रही है!

खुशहाली और सच्चाई की किरण

जनता की नजर के आगे उभर रही है।

मुक्ति का सूरज बादलों को चीर कर

हमें रोशन करेगा।

पगली घण्टी की जोशीली आवाज

मुक्ति का आवाहन करेगी

और ज़ार के बदमाशों को डपटकर कहेगी

''हाथ नीचा करो, भागो तुम लोग।''

हम जेलखाने तोड़ डालेंगे।

जायज गुस्सा गरज रहा है।

बन्धनमोचन का झण्डा

हमारे योद्धाओं का संचालन है।

सताना, उखराना,(7)

चाबुक, फाँसी के तख्तों का नाश हो!

मुक्त इन्सानों की लड़ाई, तुम तुफान सी पागल बनो!

जलिमों, मिट जाओ!

आओ जड़ से खत्म करें

तानाशाह की ताकत को।मुक्ति के लिए मौत इज्जत है,


आओ तोड़ डालें गुलामी को,

तोड़ डालें गुलामी की शर्म को।

हे मुक्ति, तुम हमें

दुनिया और आजादी दो!

(1) रूसी लोग इयेमलिया नाम बेवकूफी के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते है।

(2) ज़ार के जमाने का चरम प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल।

(3) रूस का अपदेवता।

(4) हर जगह ''काला सौ'' न कहकर ''काला'' से ही लेनिन ने उस दल को बताया है।

(5) साफ है लेनिन ने रूस-जापान युद्ध में ज़ार की सेनाओं के पलायन तथा पराजय का उल्लेख किया है।

(6) ज़ार साम्राज्य संगीत की पंक्ति 'हे ईश्वर, ज़ार को बचाओं' को बदल कर लेनिन ने इस तरह इस्तेमाल किया है। (7) क्रान्तिकारी आन्दोलन के दमन में जुटा हुआ ज़ार का राजनीतिक गुप्तचर विभाग।

Friday, 14 January 2022

मनुस्मृति पर मुकेश कुमार पत्रकार के 25.12 .2021 के एक वीडियो में चर्चा के ऊपर टिप्पणी.


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इस वीडियो में शामिल चार प्रोफेसरों द्वारा मनुस्मृति का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसे सुनने से मनुस्मृति को बिना पढ़े उसकी एक झलक देखने व समझने को मिलती है । हालांकि एक का थोड़ा दोहरा चरित्र देखने को मिला। वे स्पष्ट रूप से बोलते हुए  दिखलाई दिए कि उनका संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रहा है। अतः स्वाभाविक है कि उनका संबंध मनुस्मृति से पूर्णतया समाप्त नहीं हो पाया है।

जो चर्चा हुई है उसके अनुसार आज भी भारतीय समाज में उसकी विरासत एक दूरी तक अल्पमत में ही सही‌ उपस्थित है। रूढ़िवादिता और कूपमंडुकता अभी भी समाज में देखने को मिल रही है। लेकिन सहभागियों ने इन बिंदुओं पर अपने विचार द्वंदात्मक भौतिकवादी नजरिया से रखने में भूल की है। एक ने अपने विचार को संपुष्ट करने के लिए उत्तराखंड की एक घटना का उदाहरण रखा है वह यह कि वहां के एक स्कूल में बच्चों ने खाना खाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि खाना एक दलित महिला द्वारा बनवाया जा रहा था। इस प्रकार उन्होंने अपवाद स्वरूप घटना को सामान्य घटना बतलाने का प्रयास किया है, जो पूर्णतया गलत है।

आज की दौड़ में बहुत सारे तथाकथित दलित पूंजीवादी नेता दलितों के  मसीहा  के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं तथा दलित वाद की राजनीति कर सुनियोजित ढंग से मजदूर वर्ग की एकता को विघटित करने का प्रयास कर रहे हैं। अतः इनके इस चरित्र का भंडाफोड़ करने के साथ-साथ दलित वाद की राजनीति के विरुद्ध संघर्ष चलाने की आवश्यकता है। ये पूंजीवादी नेतागण, जिसे दलित के रूप में  पेश करना चाहते हैं, वे वास्तव में मजदूर हैं तथा वे अपने रोजमर्रा की जिंदगी में काम करते हुए ही जीने को बाध्य हैं। हालांकि मुझे यह कहने में गुरेज नहीं है कि वे आज भी कुछ जनवादी अधिकारों से वंचित हैं लेकिन उन बचे खुचे अधिकारों को प्राप्त करने के लिए वे संघर्षरत हैं तथा हमारे देश का मजदूर वर्ग उनके साथ मिलकर वैसे सारे जनवादी अधिकारों को निश्चय ही प्राप्त कर लेगा तथा देश का मजदूर वर्ग ऐसी निरंकुश पूंजीवादी सत्ता को नेस्तनाबूद कर अपनी सत्ता भी स्थापित करेगा।

हजारों हजार वर्ष पूर्व के आदिम युग से निकलकर मानव समाज के विकास-क्रम में अधिकाधिक श्रम  विभाजन होता गया, निजी संपत्ति आई एवं वर्गीय समाज के साथ राज्य का उदय हुआ। फिर श्रम-विभाजन पर आधारित जात-पांँत की व्यवस्था की  तत्कालीन धर्म और राज्य में अभिव्यक्त हुई। बाद में जाकर संग्रहित कोड के रूप में मनु स्मृति लिखा गया जिसमें मुख्य रूप से राजा और प्रजा के अधिकारों एवं दायित्वों का उल्लेख है। लेकिन आज का समाज गुणात्मक रूप से उससे भिन्न है। आज के पूंजीवादी व्यवस्था में मनुस्मृति के कोड पुराने एवं तर्क़ से परे हो चुके हैं। हमारे देश में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर 25 दिसंबर 1927 में मनुस्मृति को जलाकर प्रतीक स्वरूप उसका विरोध किए थे जिसे अभी भी प्रत्येक 25 दिसंबर को जला कर उसका विरोध किया जाता है। मेरी समझ स्पष्ट है कि इस तरह के कार्यक्रम को निश्चित रूप से दलित वादी नेता के नेतृत्व में वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए चलाया रहा है। अतः ऐसे चल रहे कार्यक्रम ‌का मजदूर वर्ग विरोध करता है।
 
अभी हमारे देश में पूंजीवादी सत्ता का राज्य है। किसी भी काल खंड  के समाज की विवेचना अगर हम करना चाहते हैं तो हमें देखना पड़ेगा कि उस काल में उत्पादन कैसे होते थे, उत्पादन के औजार कैसे थे, उत्पादन के साधनों पर किसका अधिकार था, उत्पादन का तरीका एवं उत्पादन संबंध किस प्रकार का था। जब हम वर्तमान समाज की व्याख्या करते हैं तो पाते हैं कि उत्पादन के साधनों पर पूंजीपति वर्ग का अधिकार है, उत्पादन संबंध मालिक और मजदूर (उजरती मजदूर) का चल रहा है। एक-एक  उत्पादन चाहे छोटे पैमाने पर हो रहा हो या बड़े पैमाने पर, सब कुछ बाजार के लिए हो रहा है या यूं कहें  कि हर जगह माल का उत्पादन हो रहा है। जब हम कहते हैं की हमारा समाज मूलतः सर्वहारा वर्ग/ मजदूर वर्ग और  पूंजीपति वर्ग में बट गया है, वैसी स्थिति में समाज की व्याख्या मनुस्मृति के आधार पर करना पूर्णतया गलत होगा। आज समाज का हर व्यक्ति या तो कहीं न कहीं उत्पादन प्रक्रिया में लगा है या वेरोज़गार है तथा इस प्रक्रिया में लगा व्यक्ति उस विशेष उत्पादित उद्योग का मजदूर/कर्मचारी है या प्रबंधन का व्यक्ति/मालिक है। वैसे कार्यरत मजदूर/कर्मचारी को जाति विशेष के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता। इसी तरह कोयला उद्योग, इस्पात उद्योग, टेल्को- टिस्को, सीमेंट उद्योग, बैंक एवं सरकारी कर्मचारी आदि जैसे संस्थानों में कार्य करने वाले व्यक्ति को जाति के रूप में देखने का प्रयास करना वस्तुत: चल रही व्यवस्था का पक्ष पोषण करने के अलावा और कुछ नहीं है। मैं फिर से यह कहना चाहूंगा कि हमारा समाज मूलतः पूंजीपति वर्ग एवं मजदूर वर्ग में विभाजित है तथा "उत्पादन का पूंजीवादी तरीका उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व, पूंजी संचय के उद्देश्य से मालिक वर्ग द्वारा अधिशेष मूल्य की निकासी, मजदूरी- आधारित श्रम और कम से कम जहां तक तक वस्तुओं का संबंध है- बाजार आधारित होने की विशेषता है।" 

आज देखने को मिल रहा है कि राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पूंजीवादी पार्टियां अपने-अपने स्वार्थ में प्रत्येक को जाति, जो आज के समय में मजदूर वर्गीय दृष्टि से पूर्णतः अतार्किक हो चुका है, के रूप में होने एवं दिखलाने का प्रयास कर रही हैं। जहां तक भाजपा का प्रश्न है वह धर्म के आधार पर मजदूर वर्ग की एकता को खंडित करने का प्रयास कर रही है तथा धर्म को प्रथम प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर रखा है।  लेकिन इस समाज को पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में  बटा हुआ देखने वाला व्यक्ति इसे मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग का दमन व शोषण ही कहेगा। आज  पूंजीवादी बुद्धिजीवी सर्वहारा वर्ग/ मजदूर वर्ग को एक वर्ग के रूप में संगठित हो, देखना नहीं चाहता है, इसलिए उसे जातिगत और धार्मिक चादर ओढ़ाकर वर्गीय एकता को खंडित या बाधित करने का प्रयास कर रहा है। आज देखने को मिल रहा है कि राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय पूंजीवादी पार्टियां तथाकथित जातिगत/ अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक की राजनीति के सहारे अपने-अपने संगठन को मजबूत करने का प्रयास कर रहा हैं। इस दौड़ में भाजपा सबसे आगे है. वह अपने एजेंडे में धर्म को प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर रखा है। परन्तु आज के पूंजीवादी समाज में मजदूर/सर्वहारा, शोषित पीड़ित जनमानस कहीं से भी मनुस्मृति, वेद ,उपनिषद या और कोई धार्मिक पुराण से समाज को संचालित करने की इजाजत नहीं दे सकता और न ही शासित हो सकता है। इस तरह के तमाम पुस्तकों का सही स्थान पुस्तकालय है। जिन्हें ऐसे पुरातन परम्पराओं से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन करना है वह पुस्तकालय में जाकर अध्ययन कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर- मान्यताओं के अनुसार ‌हिंदू होने का विशेष प्रमाण माथे पर टीक या चूरकी रखना है। लेकिन हम पाते हैं कि बिल्कुल नगण्य प्रतिशत ही ऐसे होंगे जो इन पुरानी मान्यताओं को  ढोते  हुए मिलेंगे। आज शासक वर्ग अपने हित में अनेकों तरह का तिकड़म करता है तथा भाड़े के बुद्धिजीवियों को प्रचार प्रसार के लिए लगा रखा है।
                 
मैं तो वाम तथा प्रगतिशील बुद्धिजीवियों  के द्वारा भी जाति के भौतिक आधार को खंडित करने तथा मजदूर वर्ग को सामाजिक वैज्ञानिक विचारधारा से लैस करने के प्रयास में भारी अभाव देख पाता हूं। ऐसी स्थिति में वाम के समर्थक, पार्टी, दल एवं बुद्धिजीवियों की गिनती संशोधन वादी विचारधारा के वाहक के रूप में ही की जाएगी। जिस तरह  हरिद्वार में मठाधीशों की सभा बुलाकर उन लोगों के द्वारा अल्पसंख्यक के विरूद्ध आग उगलने और घृणा फैलाने तथा शस्त्र उठाकर उन्हें नेस्तनाबूद करने का संकल्प लिया गया हैं, ऐसी स्थिति में वाम तथा प्रगतिशील संगठनों एवं मजदूर वर्ग के जन संगठनों को उनका सीधा विरोध करते हुए सड़क पर आना चाहिए तथा समाज में इस तरह की घृणा तथा धार्मिक उन्माद फैलाने वाले शासक वर्ग की चाटुकारिता एवं दलाली का मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए.
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कैफ़ी आज़मी

साथियो आज 14 जनवरी, मशहूर-ओ-मारूफ़ शायर-नग़मा निगार, इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कैफ़ी आज़मी की जयंती है। (जयपुर से प्रकाशित दैनिक अखबार 'सच बेधड़क' में। प्रधान सम्पादक-मनोज माथुर)

क़ैफी आज़मी, तरक़्क़ीपसंद तहरीक के अगुआ और उर्दू अदब के अज़ीम शायर थे। उर्दू अदब को आबाद करने में उनका बड़ा योगदान है। वे इंसान-इंसान के बीच समानता और भाईचारे के बड़े हामी थे। उन्होंने अपने अदब के ज़रिए इंसान के हक, हुकूक और इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ी। मुल्क की सांझा संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाया। 'क़ौमी जंग' और 'नया अदब' जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कैफ़ी आज़मी की शुरुआती नज़्में और ग़ज़लें प्रकाशित हुईं। रूमानियत और ग़ज़लियत से अलग हटकर, उन्होंने अपनी नज़्मों-ग़ज़लों को समकालीन समस्याओं के सांचे में ढाला। कैफ़ी आज़मी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आज़ादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी। मुल्क में जगह-जगह अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहे थे। किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे एक दिशा प्रदान की तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने। इस तहरीक से जुड़े सभी अहम शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की। किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज़्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते। ख़ास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अशआर की मस्नवी 'ख़ानाजंगी' सुनाते, तो हज़ारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता।

एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर साल 1943 में जब कैफ़ी आज़मी मुम्बई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज़ तेईस साल थी। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुम्बई इकाई नई-नई क़ायम हुई थी। वे पार्टी के हॉल टाईमर के तौर पर काम करने लगे। पार्टी के दीगर कामों के अलावा उन्हें उर्दू दैनिक 'क़ौमी जंग' और 'मज़दूर मुहल्ला' के एडीटर की जिम्मेदारी मिली। इस दरमियान कैफ़ी आज़मी ने उर्दू अदब की पत्रिका 'नया अदब' का भी सम्पादन किया। पार्टी कम्यून में एक कमरे का उनका छोटा सा घर, ऑफ़िस भी हुआ करता था। जहां हमेशा यूनियन लीडरों और पार्टी कार्यकर्ताओं का जमघट लगा रहता। कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के बाद कैफ़ी आज़मी का आंदोलन से वास्ता आख़िरी सांस तक बना रहा। साम्यवादी नज़रिए का ही असर है कि उनकी सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है। उन्होंने बर्तानवी साम्राजियत, सामंतशाही, सरमायेदारी और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ जमकर लिखा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिगत जीवन गुज़ार चुके क़ैफी आज़मी ने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया। 'तरबियत' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं,''मिटने ही वाला है खून आशाम देव-ए-जर का राज़/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज।''

साल 1944 में महज़ छब्बीस साल की छोटी सी उम्र में कैफ़ी आज़मी का पहला ग़ज़ल संग्रह 'झनकार' प्रकाशित हो गया था। 'आख़िर-ए-शब', 'इबलीस की मज़लिसे शूरा' और 'आवारा सज़्दे' कैफ़ी आज़मी के दीगर काव्य संग्रह है। कैफ़ी आज़मी ने इंक़लाब और आज़ादी के हक़ में जमकर लिखा। इसके एवज़ में उन्हें कई पाबंदियां और तकलीफ़ें भी झेलनी पड़ीं। लेकिन उन्होंने अपने बग़ावती तेवर नहीं बदले। कैफ़ी आज़मी कॉलमनिगार भी थे। उनके ये कॉलम उर्दू साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' में नियमित प्रकाशित होते थे। 'नई गुलिस्तां' नाम से छपने वाला यह कॉलम राजनीतिक व्यंग्य होता था। जिसमें सम-सामयिक मसलों पर वह तीख़े व्यंग्य करते थे। शादी होने के बाद आर्थिक परेशानियों और मजबूरियों के चलते कैफ़ी आज़मी ने मुंबई के एक व्यावसायिक अखबार 'जम्हूरियत' के लिए रोज़ाना एक नज़्म लिखी। फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया। साल 1948 में निर्माता शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म 'बुज़दिल' में उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी नग़मा लिखा। क़रीब 80 फ़िल्मों में गीत लिखने वाले क़ैफी के गीतों में ज़िंदगी के सभी रंग दिखते हैं। फ़िल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपने नग़मों, शायरी का मेयार नहीं गिरने दिया। सिने इतिहास की क्लासिक 'प्यासा', 'कागज़ के फ़ूल' के लाजवाब नग़मे उन्ही के कलम से निकले हैं। 'अनुपमा', 'हक़ीकत', 'हंसते ज़ख्म', 'पाकीज़ा' वगैरह फिल्मों के शायराना नग़मों ने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। फ़िल्मों से कैफ़ी आज़मी का संबंध आजीविका तक ही सीमित रहा। उन्होंने अपनी शायरी और आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया साल 1973 में देश के बंटवारे पर केन्द्रित फ़िल्म 'गरम हवा' की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला। यही नहीं इसी फिल्म पर संवादों के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

कैफ़ी आज़मी बंटवारे और साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। भारत-पाक विभाजन के समय पार्टी ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को जहां पाकिस्तान पहुंचा दिया, तो वहीं क़ैफ़ी ने हिन्दुस्तान में ही रहकर काम किया। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता जैसी अमानवीय प्रवृतियों पर प्रहार करते हुए कैफ़ी ने लिखा,''टपक रहा है जो ज़ख़्मों से दोनों फ़िरकों के/ब ग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं/तुम इसका रख लो कोई और नाम मौंज़ू सा/किया है ख़ून से जो तुमने वो वजू तो नहीं'' ('लख़नऊ तो नहीं') कैफ़ी आज़मी मुम्बई में चाल के जिस कमरे में रहते थे, वहीं उनके आस-पास बड़ी तादाद में मज़दूर और कामगार रहते थे। मज़दूरों-कामगारों के बीच रहते हुये उन्होंने उनके दुःख, दर्द को समझा और करीब से देखा। मज़दूरों, मज़लूमों का यही संघर्ष उनकी बाद की कविताओं में साफ परिलक्षित होता है,''सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।'' ('मकान') अली सरदार जाफ़री की तरह कैफ़ी ने भी शायरी को हुस्न, इश्क और जिस्म से बाहर निकालकर आम आदमी के दुख-दर्द, संघर्ष तक पहुंचाया। अपनी शायरी को ज़िंदगी की सच्चाइयों से जोड़ा। कैफ़ी आज़मी अत्याचार, असमानता, अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ ताउम्र लड़े और अपनी शायरी, नज्मों से लोगों को भी अपने साथ जोड़ा।

आज़ादी के बाद कैफ़ी ने समाजवादी भारत का तसव्वुर किया था। स्वाधीनता के पूंजीवादी स्वरूप की उन्होंने हमेशा आलोचना की। अपनी नज़्म 'क़ौमी हुक़्मरां' में तत्कालीन भारतीय शासकों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा,''रहजनों से मुफ़ाहमत (समझौता) करके राहबर काफ़िला लुटाते हैं/लेने उठे थे ख़ून का बदला हाथ जल्लाद का बंटाते हैं।'' कैफ़ी के यही आक्रामक तेवर आगे भी बरकरार रहे। उनकी शायरी में समाजी, सियासी बेदारी साफ-साफ दिखाई देती है। सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सद्भाव को उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में बढ़ावा दिया। स्त्री-पुरूष समानता और स्त्री स्वतंत्रता के हिमायती कैफ़ी आज़मी अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' में लिखते हैं,''तोड़ कर रस्म का बुत बंदे-कदामत से निकल/ज़ोफे-इशरत से निकल, वहमे-नज़ाकत से निकल/नफ़्स के खींचे हुये हल्क़ाए-अज़मत से निकल/....राह का ख़ार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे/उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे।''कैफ़ी आज़मी 'भारतीय जननाट्य संघ' (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे। वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर कई साल तक रहे। उनके कार्यकाल में इप्टा की शाखाओं का पूरे भारत में विस्तार हुआ। इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीका मानते थे। अपनी नज़्मों और नाटकों से उन्होंने साम्प्रादियकता पर कड़े प्रहार किये। अपनी एक नज़्म में साम्प्रदायिक लीडरों और कट्टरपंथियों पर निशाना साधते हुये वे कहते हैं,''तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा/अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी।'' ('सोमनाथ') साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस, एक ऐसी घटना है जिसने देश में साम्प्रदायिक विभाजन को और बढ़ाया। हिंदू-मुस्लिम के बीच शक की दीवारें खड़ी कीं। कैफ़ी आज़मी ने ख़ुद बंटवारे का दंश भोगा था, वह एक बार फ़िर साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए आगे आए और उन्होंने अपनी चर्चित नज़्म 'दूसरा बनवास' लिखी, ''पांव सरजू में अभी राम ने धोये भी न थे/कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे/पांव धोये बिना सरजू के किनारे से उठे/राम ये कहते हुये अपने द्वारे से उठे/राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे/छः दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।''

कैफ़ी आज़मी की वैसे तो सभी नज़्में एक से एक बढ़कर एक हैं, लेकिन 'तेलांगना', 'बांगलादेश', 'फ़रघाना', 'मास्को', 'औरत', 'मकान', 'बहूरूपिणी', 'दूसरा वनबास', 'ज़िंदगी', 'पीरे-तस्मा-पा', 'आवारा सज़्दे', 'इब्ने मरियम' और 'हुस्न' नज़्मों का कोई जवाब नहीं। कैफी आज़मी को 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' के अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से भी नवाज़ा गया। मसलन 'अफ्रो-एशियन पुरस्कार', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' आदि। बावजूद इसके वह अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लाल कार्ड को समझते थे और उसे हमेशा अपनी जेब में रखते थे। वामपंथी विचारधारा में उनका अक़ीदा आख़िर तक रहा। अपने व्यवहार में वे पूरी तरह से वामपंथी थे। लेखन और उनकी ज़िंदगी में कोई फ़र्क़ नहीं था। मुल्क में समाजवाद आए, उनका यह सपना था। वह लोगों से अक्सर कहा करते थे कि ''मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद भारत में जिया और समाजवादी भारत में मरूंगा।'' लेकिन अफ़सोस ! कैफ़ी आज़मी की आख़िरी ख़्वाहिश उनके जीते जी पूरी नहीं हो सकी। उनका सपना अधूरा ही रहा। 10 मई, 2002 को यह इंक़लाबी शायर हमसे यह कहकर, हमेशा के लिए जुदा हो गया,''बहार आये तो मेरा सलाम कह देना/मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने।''
जाहिद खान, फेसबुकपर.

तराना-ए-बिस्मिल



बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।

लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।

खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।

कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।

यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी 


ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो

ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो 
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो 

अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो 

तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो 
तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो 

वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो 


गुलामी मिटा दो

दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा,
एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा।

बेचारे ग़रीबों से नफ़रत है जिन्हें, एक दिन,
मैं उनकी अमरी को मिट्टी में मिला दूंगा।

यह फ़ज़ले-इलाही से आया है ज़माना वह,
दुनिया की दग़ाबाज़ी दुनिया से उठा दूंगा।

ऐ प्यारे ग़रीबो! घबराओ नहीं दिल मंे,
हक़ तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा।

बंदे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,
ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा।

जो लोग ग़रीबों पर करते हैं सितम नाहक़,
गर दम है मेरा क़ायम, गिन-गिन के सज़ा दूंगा।

हिम्मत को ज़रा बांधो, डरते हो ग़रीबों क्यों?
शैतानी क़िले में अब मैं आग लगा दूंगा।

ऐ 'सरयू' यक़ीं रखना, है मेरा सुख़न सच्चा,
कहता हूं, जुबां से जो, अब करके दिखा दूंगा।

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं,

खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं,

जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो,

देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो,

देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है

चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?

कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो 
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है 

साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा 
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है 

दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद 
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है 

बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना 
'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है 

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या- राम प्रसाद 'बिस्मिल'

काकोरी कांड में गिरफ्तार होने के बाद क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' पर मुकदमा दायर हो चुका था। बिस्मिल साम्राज्यवादी वर्चस्व के ख़िलाफ क्रांति की मशाल जलाए रखना चाहते थे। 

इसलिए मुकदमे के दौरान उनकी यह आकांक्षा थी कि वे किसी तरह जेल के बाहर आ जाएं, वे यह उम्मीद करते थे कि उनके साथी उन्हें छुड़ा लेंगे। क्रांतिकारी दल ने इसके लिए बाहर सघन प्रयास भी किए लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। विलंब होते देख बिस्मिल ने जेल के भीतर से एक ग़ज़ल के माध्यम से पार्टी के सदस्यों को उलाहना भी भेजा था- 

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !

मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
 
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या

काश ! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते
यूं सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या

आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या!
मजिस्ट्रेट ने इसे इश्क़ का कोई कलाम समझकर बाहर भेजने की अनुमति दे दी थी। दरअसल बिस्मिल फांसी के फंदे में लटककर प्राण नहीं देना चाहते थे उनका हौसला था कि वे कैद से बाहर आकर साम्राज्यवाद से एक बार हथियारबंद संघर्ष करें। ग़ज़ल की इन पंक्तियों के माध्यम से वे बाहर सक्रिय अपने साथियों को यह संदेश देना चाहते थे कि कुछ करना हो तो जल्दी करो, वरना फांसी के फंदे में लटकी उनकी लाश को तुमने छुड़ा भी लिया तो उसका क्या होगा

Thursday, 13 January 2022

पृथ्वी सहित तमाम ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं



महान अन्तरिक्ष वैज्ञानिक और विचारक "गैलिलियो गैलिली " ने दूरबीन का आविष्कार करने के बाद,अन्तरिक्ष में झांककर जब दुनियां को बताया कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर नहीं,बल्कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घुमती है" उनके शोध के विषय में पुस्तक प्रकाशित होते ही समस्त संसार में भारी उत्पात मच गया और उनका सबसे बड़ा दुश्मन,पोप और इसाई मिशनरीज़ बन गयी, संसार की इसाईयत उनका विरोध करने लगे क्यों गैलिलियो का ये सिद्धांत सम्पूर्ण इसाई धर्म की नीव हिलाने के लिए काफी था ,क्योंकि इसाई धर्म के अनुसार "पृथ्वी ब्रहम्मांड का केंद्र है,और सूर्य इसके चारों ओर चक्कर काटता है,साथ ही पृथ्वी स्थिर है" जबकि गैलिलियो का विचार ठीक इसका उल्टा था,जिससे इसाई धर्म के मूल सिद्धांतों और धार्मिक पुस्तक बाइबल की विश्वसनीयता और सत्यनिष्ठ प्रभावित हो रही थी,सो विरोध तो होना ही था. 

विश्व में गैलिलियो की पुस्तकें और पांडुलिपियाँ जलाई गयी, उग्र आन्दोलन के द्वारा भी विरोध किया गया, पोप ने गैलीलियो पर पुस्तक प्रकाशित करने पर रोक, प्रकाशित पांडुलिपियाँ वापस लेने, अपने सिद्धांत से मुकरने और सार्वजनिक माफ़ी मांगने का दवाव डाला गया। पर गैलीलियो अपने सिद्धांत पर डटे रहे, तब विरोध और उग्र हुआ, पोप के कहने पर, अदालत में मुकदमा प्रारम्भ हुआ, गैलीलियो को अपार यातनाएं दी गयीं पर एक बूढ़ा विचारक कब तक अडिग रहता, आखिर नौबत फांसी लगने की आने लगी तब ...! गैलीलियो जब अदालत में हाज़िर किया गया, तो उस बूढ़े विचारक ने बड़े पते की बात कही- बिलकुल वास्तविक...परन्तु अकाट्य सत्य….

आदरणीय जूरी के सदस्यों……!
मै गैलीलियो गैलिली - आप लोगों के अनुसार, अपने शोध एवं सिद्धांत वापस लेता हूँ, और आपके अनुसार घोषणा करता हूँ, कि मेरे सिद्धांत और विचार सत्य नहीं थे, मै तो पागल था…..जो इतने दिनों बेकार ही यातना सहता रहा, बेकार बकवास झक मारता रहा, मै अपने विचार वापस लेता हूँ, और ये भी घोषणा करता हूँ, कि पृथ्वी के चारों ओर सूर्य घूमता है, और पृथ्वी स्थिर है, जैसा कि बाइबल में लिखा है…….मेरे विचार बकवास, और एक बूढ़े आदमी के सड़े दिमाग की उपज मात्र थी कृपया मेरी भूल के लिए मुझे माफ़ करें !

परंतु एक बात फिर भी कहता हूँ, कि जैसे आपके कहने पर मैंने मान लिया, कि सूर्य ही पृथ्वी के चारो ओर घूमता है, मेरा सिद्धांत गलत था मगर सूर्य नहीं मानेगा आपके कहने से वो नहीं घूमेगा पृथ्वी के चारो ओर.. न पृथ्वी आपके कहने से स्थिर हो जायेगा, जैसा कि आपके भय से मैंने कह दिया पर न सूरज आपका कहना सुनेगा, न हीं पृथ्वी आपकी बात मानेगी क्योंकि आप उन्हें न तो दंड दे सकते है, न फांसी पर लटका सकते है, न वे आपसे भयभीत हैं न हीं कभी आप उनको डरा धमका सकते हैं.... सो घूमेगी पृथ्वी ही सूर्य के चारो ओर....

आप चाहे जो करले पर आपके कहने से, मै अपनी बात वापस लेता हूँ.... क्योंकि मेरे कहने से भी वे अपना परिभ्रमण बंद नहीं कर सकते, वे तो घूमते रहेंगे पर मै मान लेता हूँ, जैसा आप कहते हैं, बाइबल कहती है…. वही सत्य है….. मेरे आपके कहने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला....
तब पोप ने, अदालत ने, और राजा-प्रजा ने सोचा विचार किया….. चलो गैलीलियो स्वयं तो स्वीकार कर रहा हैं कि वो गलत था, बाइबल सही है.... इतना ही काफी है, कुछ तो लाज बच रही है वर्ना तो उन्हें लगता था कि गैलीलियो अपनी सत्यता के लिए जान दे देगा, पर सिद्धांत को अमर कर जायेगा, सो इतना ही काफी है भले ही पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घुमती रहे.... बता कौन किसे रहा है... कुछ तो लाज बची।

गैलीलियो ने कहा था आज भी सूर्य के चारों ओर पृथ्वी ही घूम रही है, कितने पोप आये और चले गए, कितने सत्ताधारी विश्व विजेता आये और चले गए, पर कोई भी शक्ति सूर्य को पृथ्वी के चारों ओर नहीं घुमा पायी, अकेले गैलीलियो के आगे समस्त इसाईयत, समस्त शक्ति हार गयी पर आज भी पृथ्वी ही घूम रही है सूर्य के चारों ओर...और सदियों -शताब्दियों तक घुमती रहेगी, और अमर रहेगा गैलीलियो का सिद्धांत! ये है सत्य….

सत्य सदैव जिंदा रहता है, आज गैलीलियो का सिद्धांत प्रमाणिक हो चूका है जो पोप और चर्च गैलीलियो के सिद्धांत व विचारों का विरोध कर रहे थे आज सैकड़ों सालों के बाद उसी चर्च में वर्ष 2008 को गैलीलियो की मूर्ति स्थापित की गयी है और उसी चर्च ने गैलीलियो के सिद्धांत को मान्यता दी है।
वर्तमान पोप ने पूर्व में गैलीलियो के साथ किये गए अमानुषिक अत्याचार के लिए सार्वजनिक माफ़ी भी मांगी हैं।

विनय कुमार सिंह



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Friday, 7 January 2022

सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख (जीवन और कार्य)

(पहली किस्त)




      समाज के विकास और उत्थान में महिलाओं और पुरषों का समान योगदान रहा है। पर जाने अंजाने हम  अक्सर पुरुषों के योगदान की चर्चा   तो करते हैं,  प्रायः  समाज में महिलाओं द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों की उतनी चर्चा नहीं हो पाती  है । 

आइए,  आज हम दो ऐसी ही महान विभूतियों के जीवन और कार्य के बारे में जानेंगे, जिन्होंने स्त्री शिक्षा और दलितों के शिक्षण के क्षेत्र में महान कार्य किया है।

इन दो महान  महिलाओं के नाम हैं , " सावित्री बाई फूले और उनकी सहयोगिनी फातेमा शेख"

सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख दोनों अपने समय की  क्रांतिकारी महिलाएं थीं।  और हां इनका संबंध महाराष्ट्र से था।  दोनों ने  मिलकर साथ में  कार्य किया  शिक्षा और समाज सुधार को अपना क्षेत्र बनाया ।

    फातेम शेख के बारे में  हमे बहुत कम जानकारी मिलती  है। फिर भी हम बारी बारी दोनों के जीवन और कार्यों के बारे में जानने का प्रयत्न करेंगे।


सावित्री बाई फुले


आज से करीबन 190 वर्ष पहले सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिल्हे के नायगांव में हुआ था। सावित्री बाई के पिता का नाम खंडोजी नेवसे था। अभी सावित्री बाई मात्र 5 वर्ष की ही थी कि  उनकी माता को सावत्री के विवाह की चिंता सताने लगी।

      उस समय लड़कियों का विवाह 6 वर्ष से पहले ही कर दिया जाता था। लेकिन पिता खंडोजी ने यह तय कर लिया था कि जब तक अपनी सुपुत्री के लिए उन्हे कोई योग्य वर नहीं मिल जाता तब तक वे अपनी बेटी का विवाह नहीं करेंगे। बेटी की शादी न करने पर आस पास के लोग उन्हें बुरा भला कहने लगे। पर खंडोजी ने योग्य लड़के की तलाश जारी रखी।


     एक बार अपने बेटे ज्योतिबा के लिए गोविंद राव लड़की देखने नायगांव पहुंचे। सावित्री के पिता खंडोजी को यह लड़का बहुत पसंद आया, और 1840 में सावित्री बाई और जोतीबा का विवाह हो गया। उस समय सावित्री बाई की आयु 9 वर्ष थी और जोतीब 13 वर्ष के थे। जोतीबा का पालन पोषण उनकी मौसेरी बड़ी बहन सगुनाबाई ने किया था। 



किस्त 2.


लड़कियों के लिए पहला विद्यालय

और फातेमा शेख 


     विवाह के बाद जोतिबा ने अपनी पढ़ाई जारी  रखी। जोतिबा स्वयं स्कूल में पढ़ने जाते,

 लौट कर वे सावित्री बाई को भी पढ़ाने लगे।  वे चाहते कि सावित्री बाई भी उन्हीं की तरह पढ़ाई करे बहुत जल्द ही सावित्री बाई ने मराठी पढ़ना लिखना सीख लिया। इस के बाद सावित्री बाई ने स्कूली परीक्षा भी पास कर ली । 

     जोतिबा और सावित्री बाई चाहते थे कि उनकी तरह ही समाज के गरीब तबके और महिलाओं को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिले । लेकिन उस समय गरीबों और दलितों के लिए  स्कूल की कोई व्यवस्था नहीं थी। 

 सावत्रि बाई जान गई थी कि महिलाओं को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिलना चाहिए  इन्हीं विचारों से  प्रभावित हो कर उन्हों ने  लड़कियों के लिए स्कूल खोलने का का इरादा कर लिया ।

 लेकिन  सब से बड़ी समस्या थी कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए महिला अध्यापिका कहां से आए ? 

लेकिन कहते हैं ना जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है

 इस समस्या का समाधान तब निकला जब सावित्री बाई  खुद सामने आईं और उन्होंने ने टीचर की ट्रेनिग का कोर्स पूरा कर एक प्रशिक्षित अध्यापिका बन गई ।


इस तरह  जोतीबा और सावित्री बाई के प्रयास से पूना में सन1848 में लड़कियों के लिए पहला विद्यालय आरंभ हुआ।


 लेकिन  फुले परिवार की समस्यायें यहीं खत्म नहीं हुई  , शुरुआत में कोई भी  अभिभावक अपने बच्चों को  विद्यालय में भेजने के लिए तैयार नहीं हुए।  लोग अपनी बच्चियों को पढ़ाना ही  नहीं चाहते थे। उन्हे लगता ऐसा करने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। 

लेकिन सावित्री बाई ने हिम्मत नहीं हारी वे लोगो के घर घर जाती उन्हें प्यार से समझती, शिक्षा का  महत्त्व बताती। 

 उनके इस सास और  कार्य को देखते हुए पूना की एक और साहसी  महिला  उनका साथ देने के लिए आगे आईं । उस महिला का नाम था फातेमा शेख,फातेमा शेख ने भी  सावित्री बाई की तरह ही टीचर ट्रेनिंग का कोर्स पूरा किया ।

    तो देखा आप ने कितनी कठिनाइयों से  लड़कियों के पहले स्कूल की शुरुआत हो पाई , 

कहते हैं ना जब आप किसी अच्छे काम की शुरुआत करते हैं तो आप की सहायता के लिए कई लोग हाथ बटाने के लिए आगे आ ही जाते हैं।

तो इस तरह महिलाओं के लिये पूना में 1848 में पहले स्कूल की शुरुआत हुई।


तीसरी किस्त (3)


सावित्री बाई और फातेमा शेख

 की मेहनत रंग लाई


    सावित्री बाई और फातिमा शेख की मेहनत रंग लाने लगी। जब सावित्री बाई फुले  महिलाओं और दलित बच्चों को पढ़ाने लगे तो पूरे शहर में इस नए प्रयोग की खूब चर्चा होने लगी। कुछ लोग इस कार्य से बड़े प्रभावित हुए।  धीरे धीरे लोग अपनी लड़कियों को विद्यालय में भेजने लगे । 

  अब स्कूल का काम काज बड़े उत्साह के साथ चलने लगा । फातेमा शेख और सावित्री बाई दोनों सवेरे जल्दी उठ जाती पहले  अपने घर के काम काज करतीं और इसके बाद अपने छोटे से स्कूल में आ जाती। सावित्री बाई को अपनी पति जोतीबा का  पूरा सहयोग  मिलता तो दूसरी तरह 

फातेमा के भाई उस्मान शेख भी  इस कार्य में फातेमा का हौसला बढ़ाते । 


  कहते हैं  शुरुआत में विद्यालय में केवल  छे ही लड़कियां ही आया करती थीं ।  जिस भी  दिन कोई विद्यार्थिनी पाठशाला नहीं पहुंचती सावित्री बाई  या फातेमा स्वयं बच्चों के  घर जाकर पता लगाती , यदि उनके परिवार की कुछ समस्या हो तो उसे दूर करने का प्रयास करतीं। अपनी शिक्षिकाओं के इस प्रेम और अपनेपन से विद्यार्थियों को खूब प्रोत्साहन मिलता । 


       फातेमा शेख के साथ में जुड़ जाने के कारण सावित्री बाई का काम बहुत आसान हो गया था।

फातेमा शेख एक मुस्लिम परिवार की महिला थीं।

अपनी बिरादरी की वो पहली पढ़ी लिखी महिला थी। फातेमा शेख अपने बड़े भाई उस्मान शेख के साथ रहती थी । उस्मान शेख महात्मा फुले के मित्र थे जोतीबा के तरह ही वे भी खुले  विचारों के थे उन्हीं के प्रयास से फातेमा शेख भी पढ़ लिख पाई थी। 

  जोतिबा को इस बात की खुशी थी  कि अब  लड़कियों का विद्यालय ठीक से चल रहा है। लेकिन वहीं  दूसरी तरफ समाज के उच्च वर्ग की ओर से इस काम का  विरोध  भी होने लगा ।  बहुत से लोगों ने  इस काम को लेकर जोतीबा के पिता गोविंदराव से  इस बात की शिकायत की। उनका कहना था कि महिलाओं को इस तरह ज्ञान देना शास्त्रों के विरुद्ध है, यह  कार्य हमारे धर्म के विरुद्ध है। 

गोविंद राव पर समाज का दबाव बढ़ने लगा आखिर उन्होंने जोतीबा से इस काम को रोक देने के लिए कहा। 

समाज में कोई भी परिवर्तन आसान नहीं होता शुरुआत में जरूर इस बदलाव का विरोध होता है,

लड़कियों का शिक्षा ग्रहण करना पारंपरिक सोच रखने वाले लोगों के लिए नई बात ही थी।  जोतिबा ने इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया।

उन्हों ने अपना कार्य जारी रखा। अंत में सावित्री बाई और जोतीबा को अपना घर छोड़ना ही पड़ा।


          सावित्री बाई को घर से अधिक अपने विद्यालय की चिंता सातने लगी । अब विद्यालय कहां और कैसे चलेगा ?  

    ऐसे संकट के समय उस्मान शेख और फातिमा शेख सामने आए और उन्होंने अपने घर सावित्री बाई और जितिबा को आसरा दिया । अब फातेमा शेख के घर से ही विद्यालय का काम काज चलने लगा।


किस्त 4.


फातेमा शेख भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका


हम ने देखा कि कुछ  लोगों की ओर से फुले परिवार का विरोध होने लगा  उस समय उस्मान शेख और फातेमा शेख  ने  आगे आकर  जोतीबा और सावित्री बाई के लिए अपने  घर के द्वार खोल दिए । 

      दोस्तों अपने आप में यह एक बड़े साहस का काम रहा होगा । एक तरफ जहां शहर में  फुले परिवार का हर कोई विरोध कर रहा था , कोई भी उन्हें रहने के लिए जगह देने को तैयार नहीं था ऐसी  संकट घड़ी में ,  एक मुस्लिम परिवार  फरिश्ता बनकर  उनकी सहायता के लिए आगे आया। 

है ना….. साहस का काम…... ।

  इसे  ही  तो कहते हैं मानवता और इंसानियत,  जब आप बिना किसी स्वार्थ के ज़ात पात धर्म से आगे दूसरों की सहायता करते हैं। यही इंसानियत और मानवता कहलाती है।

   इसी लिए उस्मान शेख और फातेमा शेख के योगदान को भी फुले परिवार की तरह ही याद किया जाना चाहिए।


 जिस तरह कुछ  उच्च वर्णीय हिंदू फुले का विरोध कर रहे थे  उसी तरह से  मुस्लिम  समाज  के कुछ लोगों की ओर से  फातेमा शेख को भी विरोध सहना पड़ रहा था, सावित्री बाई की तरह ही  फातेमा शेख  के बारे में भी लोग तरह तरह की बातें करने लगे थे। लेकिन  दोनों  बड़ी निडर और बहादुर महिलाए थीं।  दोनों ने हार नहीं मानी, वे  दूनी लगन और मेहनत के साथ इन लड़कियों के भविष्य को संवारने में जुट गईं।


आप के मन में यह सवाल जरूर आ रहा होगा  हो कि भला  कुछ लोग  सावित्री बाई और फातेमा शेख का ऐसा विरोध क्यों कर रहे थे ? जबकि 

वे तो एक अच्छा काम ही कर रहे हैं। 


 है ना…….. ? 


तो बात बड़ी सीधी सी  है, 


यह आज का ज़माना नहीं था बात आज से लग भग दो सौ वर्ष पूर्व की है ।

उस समय  हमारे समाज में पुरषों की सोच थी कि महिलाओं को केवल घर पर ही रहना चाहिए, 

उन्हे  पुरषों जैसे कार्य नहीं करना चाहिए ,

 अपना जीवन  बस घर की चार दिवारी में पर्दे के पीछे रहकर ही गुजारना चाहिए। 


     लेकिन सावित्री बाई और फातेमा शेख तो महिलाओं की। मुक्ति और आज़ादी की बात सोच रही थी,  वे चाहती थी कि महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही पढ़ने लिखने और  दुनिया को जानने और समझने का अधिकार मिलना चाहिए। 

बस यही बात पुरुष समाज को बुरी लगती थी इसी लिए लोग उनका विरोध करने लगे थे।


तो लीजिए….. आप के सवाल का यह जवाब आ गया ।  विरोध के बावजूद  दोनों महिलाएं  अपने मिशन में जुटी रहीं।


 लड़कियों का स्कूल अब ठीक ठाक चलने लगा कुछ दिनों बाद उनके मन में विचार आया कि दलित बच्चों के लिए भी स्कूल जाना चाहिए ।

उन्हें भी शिक्षित होने की जरूरत है।

 ज्ञात रहे कि उस समय केवल उच्च जाति के लोगों के लिए ही पढ़ने लिखने की सुविधा हुआ करती  थी। 

    बहुत जल्द ही उन्होंने वंचित समाज के  दलित बच्चों के लिए भी विद्यालय शुरु किया। फातेमा शेख ऐसी पहली  मुस्लिम महिला है जिसने बहुजन समाज की शिक्षा के लिए काम किया। 


   आप समझ सकते हैं , आज से दो सौ वर्ष पूर्व किसी मुस्लिम महिला का  इस तरह अपने घर से बाहर निकलकर समाज कार्य करना कितना कठिन काम रहा होगा ? 

लेकिन फातेमा शेख किसी चट्टान की तरह सावित्री बाई के साथ खड़ी रही ।



किस्त (5)


क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले


  सावित्री बाई  की राह इतनी आसान नहीं थी। वे जब स्कूल जाने के लिए अपने घर से निकलती तब लोग उनपर तरह तरह की फब्तियां कसते, उन्हें  पत्थर से निशाना बनाया जाता , उनके शरीर पर कभी  कीचड़ तो कभी गोबर फेंक देते, उनके साथ साथ ये दुर्व्यवहार फातेमा शेख को भी सहना पड़ता। लेकिन  इसके बावजूद दोनों समाज सेवा के इस महान कार्य में लगी रहीं।

    एक बार तो हद ही हो गई ,एक आदमी ने सावित्री बाई को रास्ते में रोक कर उनके साथ बदतमीजी करनी चाही सावित्री बाई ने  हिम्मत नही  हारी । उसी वक्त  उन्होंने उस अभद्र व्यक्ति के गाल पर  एक ज़ोर दार चांटा जड़ दिया, इस अचानक हुए प्रहार की उसे उम्मीद न थी वह  ऐसा शर्मसार  हुआ कि दो बारा  जीवन में उसने कभी किसी को छेड़ने का साहस नहीं किया।


    सावित्री बाई की अनुपस्थिति में  स्कूल  प्रशासन की सारी जिम्मेदारी फातेमा शेख ही संभाला करती थी ।  फातेमा शेख का साथ मिलने पर सावित्री बाई को बहुत हौसला मिला। उनके विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। देखते ही देखते सावित्री बाई और फातेमा शेख की जोड़ी ने पुणे शहर के आस पास 18 विद्यालय खोल दिए।

    सवाल यह भी नहीं है कि सावित्री बाई और फातेमा शेख ने कितने बच्चों को पढ़ाया, सब से महत्त्वपूर्ण काम तो है, महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोल देना , उनके इस कार्य से वंचित महिलाओं के साथ साथ मुस्लिम महिलाएं भी आगे आने लगी उनमें भी पढ़ने लिखने की उमंग जाग उठी। इसीलिए सावित्री बाई  को बड़े सम्मान के साथ क्रांतिज्योति और ज्ञानज्योति जैसे नामों  से याद किया जाता है।


    आगे चलकर सावित्री बाई ने अपने सामाजिक कार्य को और विस्तार दिया। उनदिनों समाज में बाल विवाह की प्रथा का  चलन आम था, बहुत सी लड़कियां पति की मृत्यु के बाद  छोटी उम्र में ही विधवा हो जाया करती थी, ऐसी महिलाएं जो विवाह पूर्व मां बन जाती उनके लिए तो समाज में कोई  स्थान ही नहीं था। उन्हें कोई आश्रय देने के लिए तैयार नहीं था। ऐसी सूरत में मां और बच्चे के सामने आत्महत्या का ही मार्ग बचा रहता।

सावित्री बाई इन पीड़ित महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी।


 ऐसी गंभीर समस्या के निदान के लिए ही सावित्री बाई ने पुणे में पहला "बाल हत्या निरोधक गृह  और महिला आश्रम"  की स्थापना की। 

 एक समय में यहां करीबन सौ से अधिक महिलाओं को सावित्री  बाई ने सहारा दिया था।  इस आश्रम में महिलाओं को छोटे मोटे काम सिखाए जाते , उनके बच्चों की  देख भाल की जाती। बड़े होने पर उन्हें स्कूल में दाखिल pकिया जाता। बेसहारा महिलाओं के लिए किए गए  उनके इस कार्य की जितनी सरहाना की जाए कम ही है।  



पीड़ित महिलाओं को मिली नई रोशनी


(अंतिम किस्त )


    हम ने देखा...... सावित्री बाई ने शिक्षा के साथ साथ किस तरह विधवा महिलाएं और ऐसी माताएं जो किसी वहशी की हवस का शिकार हो कर मां बन गईं । जिन्हें समाज ने बहिष्कृत कर दिया,  ऐसी पीड़ित महिलाओं के लिए महात्मा फुले और सावित्री बाई ने 28 जनवरी 1853 को एक आश्रम खोला उस आश्रम का नाम रखा गया" बाल हत्या प्ररिबंधक गृह " भारत में इस तरह महिलाओं के लिए यह पहला आश्रम था। 

आश्रम में ऐसे ही एक दिन काशीबाई नाम की एक महिला आई ।  किसी ने उसके साथ ज्यादती की थी,  वह गर्भवती थी , सावित्री बाई ने उसे सहारा दिया, कुछ दिनों बाद उस अभागी  महिला ने  एक पुत्र को जन्म दिया। 

 जानते हो...... इस के बाद  क्या हुआ ?   महात्मा फुले और सावित्री बाई ने  इसी बालक को गोद ले लिया , यही बालक बड़ा हो कर *यशवंत* कहलाया। सावित्री बाई ने यशवंत को पढ़ा लिखा कर डॉक्टर बनाया ताकि वो भी उन्हीं की तरह समाज में दूसरों के काम आ सके। यशवंत का विवाह उन्होंने दूसरी जाति में किया इस तरह उन्होंने *अंतरजातीय विवाह* को भी प्रोत्साहन दिया।


     जोतिबा का की सीख थी कि जीवन में किसी भी बात को स्वीकारने से पहले उसके बारे में जानना समझना जरूरी है। इस बात के लिए शिक्षा और ज्ञान जरूरी है, इसी लिए उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी।

सावित्री बाई अपने खाली समय में कविताएं भी लिखा करती थीं  कविता लिखने में उनकी विशेष रुचि थी। उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं।


1896 , 97 की बात है  मुंबई , पुणे में उन दिनों  प्लेग की बीमारी फैली हुई थी, इस महामारी के चलते चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ था, ऐसी संकट की घड़ी में उन्होंने अपने  डॉक्टर बेटे यशवंत को अफ्रीका से भारत बुलाया और उस से समाज सेवा के कार्य में जुट जाने को कहा। 


   सावित्री बाई स्वयं भी लोगों की सेवा में जुटी रही इसी दौरान सावित्री बाई  भी प्लेग की चपेट में आ गायी। उनका इलाज किया गया । लेकिन से बच नहीं पाईं, और 10 मार्च 1897 को इस महान समाज सेविका की मृत्यु  हो गई। 


  सावत्री बाई और फातेमा शेख ने  हजारों महिलाओं के जीवन में शिक्षा और ज्ञान की ज्योत जलाकर उनके जीवन को रोशन किया।


देखा आपने …... शिक्षा के द्वारा मनुष्य के जीवन में कितने परिवर्तन आ सकते हैं। 


शिक्षा के इसी मंत्र को महात्मा फुले ने  देखिए  किस खूबसूरती के साथ पेश किया है।


"विद्या बिना मति गयी, 

मति बिना नीति गयी 

नीति बिना गति गयी, 

गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शुद्र कमज़ोर हुए,

देखा….. इतने अनर्थ, 

एक अविद्या ने किये||"


( महात्मा ज्योतिबा फुले)


(मति= बुद्धि, नीति= उसूल, वित्त= धन

शुद्र = गरीब , अविद्या = अशिक्षा)


     इसी लिए आज  इतने वर्षों बाद भी हम सावित्री बाई और फातेमा शेख को बड़े सम्मान  और आदर से याद करते हैं । ऐसे ही लोगों के त्याग और निरंतर प्रयास से समाज में शूद्रों,  स्त्रियों को स्वाभिमान से जीने, पढ़ने लिखने 

का अवसर प्राप्त हुआ। 


मुख्तार खान

(9867210054)





१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...