Monday, 31 January 2022
Jai Bhim movie - Comment by KK
Saturday, 29 January 2022
इन्कार्नेशन थीम की फिल्में
Friday, 28 January 2022
मेरी समीक्षा- फिल्म spring thunder पर ------------------
मांगी नौकरियां मिली लाठियां
Thursday, 27 January 2022
साहिर लुधियानवी
कविता -हिन्दू
Wednesday, 26 January 2022
Monday, 24 January 2022
शोषण की बुनियाद जाति या अर्थव्यवस्था
Wednesday, 19 January 2022
कविता
एन जी ओ (सेफ्टी वॉल्व)
लेनिन की कविता के बारे में- नरेंद्र कुमार
Friday, 14 January 2022
मनुस्मृति पर मुकेश कुमार पत्रकार के 25.12 .2021 के एक वीडियो में चर्चा के ऊपर टिप्पणी.
कैफ़ी आज़मी
तराना-ए-बिस्मिल
बला से हमको लटकाए अगर सरकार फांसी से,
लटकते आए अक्सर पैकरे-ईसार फांसी से।
लबे-दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी,
तमन्ना थी कि करता मैं लिपटकर प्यार फांसी से।
खुली है मुझको लेने के लिए आग़ोशे आज़ादी,
ख़ुशी है, हो गया महबूब का दीदार फांसी से।
कभी ओ बेख़बर तहरीके़-आज़ादी भी रुकती है?
बढ़ा करती है उसकी तेज़ी-ए-रफ़्तार फांसी से।
यहां तक सरफ़रोशाने-वतन बढ़ जाएंगे क़ातिल,
कि लटकाने पड़ेंगे नित मुझे दो-चार फांसी
ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय होऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कान्तिमय हो
अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो
तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो
तेरी प्रसन्नता ही आनन्द का विषय हो
वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुःख में कायर न यह हृदय हो
गुलामी मिटा दो
दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा,
एक बार ज़माने को आज़ाद बना दूंगा।
बेचारे ग़रीबों से नफ़रत है जिन्हें, एक दिन,
मैं उनकी अमरी को मिट्टी में मिला दूंगा।
यह फ़ज़ले-इलाही से आया है ज़माना वह,
दुनिया की दग़ाबाज़ी दुनिया से उठा दूंगा।
ऐ प्यारे ग़रीबो! घबराओ नहीं दिल मंे,
हक़ तुमको तुम्हारे, मैं दो दिन में दिला दूंगा।
बंदे हैं ख़ुदा के सब, हम सब ही बराबर हैं,
ज़र और मुफ़लिसी का झगड़ा ही मिटा दूंगा।
जो लोग ग़रीबों पर करते हैं सितम नाहक़,
गर दम है मेरा क़ायम, गिन-गिन के सज़ा दूंगा।
हिम्मत को ज़रा बांधो, डरते हो ग़रीबों क्यों?
शैतानी क़िले में अब मैं आग लगा दूंगा।
ऐ 'सरयू' यक़ीं रखना, है मेरा सुख़न सच्चा,
कहता हूं, जुबां से जो, अब करके दिखा दूंगा।सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं
सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !
नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो,देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है
चर्चा अपने क़त्ल का अब दुश्मनों के दिल में है,
देखना है ये तमाशा कौन सी मंजिल में है ?
कौम पर कुर्बान होना सीख लो ऐ हिन्दियो
ज़िन्दगी का राज़े-मुज्मिर खंजरे-क़ातिल में है
साहिले-मक़सूद पर ले चल खुदारा नाखुदा
आज हिन्दुस्तान की कश्ती बड़ी मुश्किल में है
दूर हो अब हिन्द से तारीकि-ए-बुग्जो-हसद
अब यही हसरत यही अरमाँ हमारे दिल में है
बामे-रफअत पर चढ़ा दो देश पर होकर फना
'बिस्मिल' अब इतनी हविश बाकी हमारे दिल में है
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या- राम प्रसाद 'बिस्मिल'
Thursday, 13 January 2022
पृथ्वी सहित तमाम ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं
Monday, 10 January 2022
Friday, 7 January 2022
सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख (जीवन और कार्य)
(पहली किस्त)
समाज के विकास और उत्थान में महिलाओं और पुरषों का समान योगदान रहा है। पर जाने अंजाने हम अक्सर पुरुषों के योगदान की चर्चा तो करते हैं, प्रायः समाज में महिलाओं द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों की उतनी चर्चा नहीं हो पाती है ।
आइए, आज हम दो ऐसी ही महान विभूतियों के जीवन और कार्य के बारे में जानेंगे, जिन्होंने स्त्री शिक्षा और दलितों के शिक्षण के क्षेत्र में महान कार्य किया है।
इन दो महान महिलाओं के नाम हैं , " सावित्री बाई फूले और उनकी सहयोगिनी फातेमा शेख"
सावित्री बाई फुले और फातिमा शेख दोनों अपने समय की क्रांतिकारी महिलाएं थीं। और हां इनका संबंध महाराष्ट्र से था। दोनों ने मिलकर साथ में कार्य किया शिक्षा और समाज सुधार को अपना क्षेत्र बनाया ।
फातेम शेख के बारे में हमे बहुत कम जानकारी मिलती है। फिर भी हम बारी बारी दोनों के जीवन और कार्यों के बारे में जानने का प्रयत्न करेंगे।
सावित्री बाई फुले
आज से करीबन 190 वर्ष पहले सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिल्हे के नायगांव में हुआ था। सावित्री बाई के पिता का नाम खंडोजी नेवसे था। अभी सावित्री बाई मात्र 5 वर्ष की ही थी कि उनकी माता को सावत्री के विवाह की चिंता सताने लगी।
उस समय लड़कियों का विवाह 6 वर्ष से पहले ही कर दिया जाता था। लेकिन पिता खंडोजी ने यह तय कर लिया था कि जब तक अपनी सुपुत्री के लिए उन्हे कोई योग्य वर नहीं मिल जाता तब तक वे अपनी बेटी का विवाह नहीं करेंगे। बेटी की शादी न करने पर आस पास के लोग उन्हें बुरा भला कहने लगे। पर खंडोजी ने योग्य लड़के की तलाश जारी रखी।
एक बार अपने बेटे ज्योतिबा के लिए गोविंद राव लड़की देखने नायगांव पहुंचे। सावित्री के पिता खंडोजी को यह लड़का बहुत पसंद आया, और 1840 में सावित्री बाई और जोतीबा का विवाह हो गया। उस समय सावित्री बाई की आयु 9 वर्ष थी और जोतीब 13 वर्ष के थे। जोतीबा का पालन पोषण उनकी मौसेरी बड़ी बहन सगुनाबाई ने किया था।
किस्त 2.
लड़कियों के लिए पहला विद्यालय
और फातेमा शेख
विवाह के बाद जोतिबा ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। जोतिबा स्वयं स्कूल में पढ़ने जाते,
लौट कर वे सावित्री बाई को भी पढ़ाने लगे। वे चाहते कि सावित्री बाई भी उन्हीं की तरह पढ़ाई करे बहुत जल्द ही सावित्री बाई ने मराठी पढ़ना लिखना सीख लिया। इस के बाद सावित्री बाई ने स्कूली परीक्षा भी पास कर ली ।
जोतिबा और सावित्री बाई चाहते थे कि उनकी तरह ही समाज के गरीब तबके और महिलाओं को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिले । लेकिन उस समय गरीबों और दलितों के लिए स्कूल की कोई व्यवस्था नहीं थी।
सावत्रि बाई जान गई थी कि महिलाओं को भी पढ़ने लिखने का अवसर मिलना चाहिए इन्हीं विचारों से प्रभावित हो कर उन्हों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोलने का का इरादा कर लिया ।
लेकिन सब से बड़ी समस्या थी कि लड़कियों को पढ़ाने के लिए महिला अध्यापिका कहां से आए ?
लेकिन कहते हैं ना जहां चाह होती है वहां राह निकल ही आती है
इस समस्या का समाधान तब निकला जब सावित्री बाई खुद सामने आईं और उन्होंने ने टीचर की ट्रेनिग का कोर्स पूरा कर एक प्रशिक्षित अध्यापिका बन गई ।
इस तरह जोतीबा और सावित्री बाई के प्रयास से पूना में सन1848 में लड़कियों के लिए पहला विद्यालय आरंभ हुआ।
लेकिन फुले परिवार की समस्यायें यहीं खत्म नहीं हुई , शुरुआत में कोई भी अभिभावक अपने बच्चों को विद्यालय में भेजने के लिए तैयार नहीं हुए। लोग अपनी बच्चियों को पढ़ाना ही नहीं चाहते थे। उन्हे लगता ऐसा करने से उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा।
लेकिन सावित्री बाई ने हिम्मत नहीं हारी वे लोगो के घर घर जाती उन्हें प्यार से समझती, शिक्षा का महत्त्व बताती।
उनके इस सास और कार्य को देखते हुए पूना की एक और साहसी महिला उनका साथ देने के लिए आगे आईं । उस महिला का नाम था फातेमा शेख,फातेमा शेख ने भी सावित्री बाई की तरह ही टीचर ट्रेनिंग का कोर्स पूरा किया ।
तो देखा आप ने कितनी कठिनाइयों से लड़कियों के पहले स्कूल की शुरुआत हो पाई ,
कहते हैं ना जब आप किसी अच्छे काम की शुरुआत करते हैं तो आप की सहायता के लिए कई लोग हाथ बटाने के लिए आगे आ ही जाते हैं।
तो इस तरह महिलाओं के लिये पूना में 1848 में पहले स्कूल की शुरुआत हुई।
तीसरी किस्त (3)
सावित्री बाई और फातेमा शेख
की मेहनत रंग लाई
सावित्री बाई और फातिमा शेख की मेहनत रंग लाने लगी। जब सावित्री बाई फुले महिलाओं और दलित बच्चों को पढ़ाने लगे तो पूरे शहर में इस नए प्रयोग की खूब चर्चा होने लगी। कुछ लोग इस कार्य से बड़े प्रभावित हुए। धीरे धीरे लोग अपनी लड़कियों को विद्यालय में भेजने लगे ।
अब स्कूल का काम काज बड़े उत्साह के साथ चलने लगा । फातेमा शेख और सावित्री बाई दोनों सवेरे जल्दी उठ जाती पहले अपने घर के काम काज करतीं और इसके बाद अपने छोटे से स्कूल में आ जाती। सावित्री बाई को अपनी पति जोतीबा का पूरा सहयोग मिलता तो दूसरी तरह
फातेमा के भाई उस्मान शेख भी इस कार्य में फातेमा का हौसला बढ़ाते ।
कहते हैं शुरुआत में विद्यालय में केवल छे ही लड़कियां ही आया करती थीं । जिस भी दिन कोई विद्यार्थिनी पाठशाला नहीं पहुंचती सावित्री बाई या फातेमा स्वयं बच्चों के घर जाकर पता लगाती , यदि उनके परिवार की कुछ समस्या हो तो उसे दूर करने का प्रयास करतीं। अपनी शिक्षिकाओं के इस प्रेम और अपनेपन से विद्यार्थियों को खूब प्रोत्साहन मिलता ।
फातेमा शेख के साथ में जुड़ जाने के कारण सावित्री बाई का काम बहुत आसान हो गया था।
फातेमा शेख एक मुस्लिम परिवार की महिला थीं।
अपनी बिरादरी की वो पहली पढ़ी लिखी महिला थी। फातेमा शेख अपने बड़े भाई उस्मान शेख के साथ रहती थी । उस्मान शेख महात्मा फुले के मित्र थे जोतीबा के तरह ही वे भी खुले विचारों के थे उन्हीं के प्रयास से फातेमा शेख भी पढ़ लिख पाई थी।
जोतिबा को इस बात की खुशी थी कि अब लड़कियों का विद्यालय ठीक से चल रहा है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ समाज के उच्च वर्ग की ओर से इस काम का विरोध भी होने लगा । बहुत से लोगों ने इस काम को लेकर जोतीबा के पिता गोविंदराव से इस बात की शिकायत की। उनका कहना था कि महिलाओं को इस तरह ज्ञान देना शास्त्रों के विरुद्ध है, यह कार्य हमारे धर्म के विरुद्ध है।
गोविंद राव पर समाज का दबाव बढ़ने लगा आखिर उन्होंने जोतीबा से इस काम को रोक देने के लिए कहा।
समाज में कोई भी परिवर्तन आसान नहीं होता शुरुआत में जरूर इस बदलाव का विरोध होता है,
लड़कियों का शिक्षा ग्रहण करना पारंपरिक सोच रखने वाले लोगों के लिए नई बात ही थी। जोतिबा ने इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया।
उन्हों ने अपना कार्य जारी रखा। अंत में सावित्री बाई और जोतीबा को अपना घर छोड़ना ही पड़ा।
सावित्री बाई को घर से अधिक अपने विद्यालय की चिंता सातने लगी । अब विद्यालय कहां और कैसे चलेगा ?
ऐसे संकट के समय उस्मान शेख और फातिमा शेख सामने आए और उन्होंने अपने घर सावित्री बाई और जितिबा को आसरा दिया । अब फातेमा शेख के घर से ही विद्यालय का काम काज चलने लगा।
किस्त 4.
फातेमा शेख भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका
हम ने देखा कि कुछ लोगों की ओर से फुले परिवार का विरोध होने लगा उस समय उस्मान शेख और फातेमा शेख ने आगे आकर जोतीबा और सावित्री बाई के लिए अपने घर के द्वार खोल दिए ।
दोस्तों अपने आप में यह एक बड़े साहस का काम रहा होगा । एक तरफ जहां शहर में फुले परिवार का हर कोई विरोध कर रहा था , कोई भी उन्हें रहने के लिए जगह देने को तैयार नहीं था ऐसी संकट घड़ी में , एक मुस्लिम परिवार फरिश्ता बनकर उनकी सहायता के लिए आगे आया।
है ना….. साहस का काम…... ।
इसे ही तो कहते हैं मानवता और इंसानियत, जब आप बिना किसी स्वार्थ के ज़ात पात धर्म से आगे दूसरों की सहायता करते हैं। यही इंसानियत और मानवता कहलाती है।
इसी लिए उस्मान शेख और फातेमा शेख के योगदान को भी फुले परिवार की तरह ही याद किया जाना चाहिए।
जिस तरह कुछ उच्च वर्णीय हिंदू फुले का विरोध कर रहे थे उसी तरह से मुस्लिम समाज के कुछ लोगों की ओर से फातेमा शेख को भी विरोध सहना पड़ रहा था, सावित्री बाई की तरह ही फातेमा शेख के बारे में भी लोग तरह तरह की बातें करने लगे थे। लेकिन दोनों बड़ी निडर और बहादुर महिलाए थीं। दोनों ने हार नहीं मानी, वे दूनी लगन और मेहनत के साथ इन लड़कियों के भविष्य को संवारने में जुट गईं।
आप के मन में यह सवाल जरूर आ रहा होगा हो कि भला कुछ लोग सावित्री बाई और फातेमा शेख का ऐसा विरोध क्यों कर रहे थे ? जबकि
वे तो एक अच्छा काम ही कर रहे हैं।
है ना…….. ?
तो बात बड़ी सीधी सी है,
यह आज का ज़माना नहीं था बात आज से लग भग दो सौ वर्ष पूर्व की है ।
उस समय हमारे समाज में पुरषों की सोच थी कि महिलाओं को केवल घर पर ही रहना चाहिए,
उन्हे पुरषों जैसे कार्य नहीं करना चाहिए ,
अपना जीवन बस घर की चार दिवारी में पर्दे के पीछे रहकर ही गुजारना चाहिए।
लेकिन सावित्री बाई और फातेमा शेख तो महिलाओं की। मुक्ति और आज़ादी की बात सोच रही थी, वे चाहती थी कि महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही पढ़ने लिखने और दुनिया को जानने और समझने का अधिकार मिलना चाहिए।
बस यही बात पुरुष समाज को बुरी लगती थी इसी लिए लोग उनका विरोध करने लगे थे।
तो लीजिए….. आप के सवाल का यह जवाब आ गया । विरोध के बावजूद दोनों महिलाएं अपने मिशन में जुटी रहीं।
लड़कियों का स्कूल अब ठीक ठाक चलने लगा कुछ दिनों बाद उनके मन में विचार आया कि दलित बच्चों के लिए भी स्कूल जाना चाहिए ।
उन्हें भी शिक्षित होने की जरूरत है।
ज्ञात रहे कि उस समय केवल उच्च जाति के लोगों के लिए ही पढ़ने लिखने की सुविधा हुआ करती थी।
बहुत जल्द ही उन्होंने वंचित समाज के दलित बच्चों के लिए भी विद्यालय शुरु किया। फातेमा शेख ऐसी पहली मुस्लिम महिला है जिसने बहुजन समाज की शिक्षा के लिए काम किया।
आप समझ सकते हैं , आज से दो सौ वर्ष पूर्व किसी मुस्लिम महिला का इस तरह अपने घर से बाहर निकलकर समाज कार्य करना कितना कठिन काम रहा होगा ?
लेकिन फातेमा शेख किसी चट्टान की तरह सावित्री बाई के साथ खड़ी रही ।
किस्त (5)
क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले
सावित्री बाई की राह इतनी आसान नहीं थी। वे जब स्कूल जाने के लिए अपने घर से निकलती तब लोग उनपर तरह तरह की फब्तियां कसते, उन्हें पत्थर से निशाना बनाया जाता , उनके शरीर पर कभी कीचड़ तो कभी गोबर फेंक देते, उनके साथ साथ ये दुर्व्यवहार फातेमा शेख को भी सहना पड़ता। लेकिन इसके बावजूद दोनों समाज सेवा के इस महान कार्य में लगी रहीं।
एक बार तो हद ही हो गई ,एक आदमी ने सावित्री बाई को रास्ते में रोक कर उनके साथ बदतमीजी करनी चाही सावित्री बाई ने हिम्मत नही हारी । उसी वक्त उन्होंने उस अभद्र व्यक्ति के गाल पर एक ज़ोर दार चांटा जड़ दिया, इस अचानक हुए प्रहार की उसे उम्मीद न थी वह ऐसा शर्मसार हुआ कि दो बारा जीवन में उसने कभी किसी को छेड़ने का साहस नहीं किया।
सावित्री बाई की अनुपस्थिति में स्कूल प्रशासन की सारी जिम्मेदारी फातेमा शेख ही संभाला करती थी । फातेमा शेख का साथ मिलने पर सावित्री बाई को बहुत हौसला मिला। उनके विद्यालय में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। देखते ही देखते सावित्री बाई और फातेमा शेख की जोड़ी ने पुणे शहर के आस पास 18 विद्यालय खोल दिए।
सवाल यह भी नहीं है कि सावित्री बाई और फातेमा शेख ने कितने बच्चों को पढ़ाया, सब से महत्त्वपूर्ण काम तो है, महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोल देना , उनके इस कार्य से वंचित महिलाओं के साथ साथ मुस्लिम महिलाएं भी आगे आने लगी उनमें भी पढ़ने लिखने की उमंग जाग उठी। इसीलिए सावित्री बाई को बड़े सम्मान के साथ क्रांतिज्योति और ज्ञानज्योति जैसे नामों से याद किया जाता है।
आगे चलकर सावित्री बाई ने अपने सामाजिक कार्य को और विस्तार दिया। उनदिनों समाज में बाल विवाह की प्रथा का चलन आम था, बहुत सी लड़कियां पति की मृत्यु के बाद छोटी उम्र में ही विधवा हो जाया करती थी, ऐसी महिलाएं जो विवाह पूर्व मां बन जाती उनके लिए तो समाज में कोई स्थान ही नहीं था। उन्हें कोई आश्रय देने के लिए तैयार नहीं था। ऐसी सूरत में मां और बच्चे के सामने आत्महत्या का ही मार्ग बचा रहता।
सावित्री बाई इन पीड़ित महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती थी।
ऐसी गंभीर समस्या के निदान के लिए ही सावित्री बाई ने पुणे में पहला "बाल हत्या निरोधक गृह और महिला आश्रम" की स्थापना की।
एक समय में यहां करीबन सौ से अधिक महिलाओं को सावित्री बाई ने सहारा दिया था। इस आश्रम में महिलाओं को छोटे मोटे काम सिखाए जाते , उनके बच्चों की देख भाल की जाती। बड़े होने पर उन्हें स्कूल में दाखिल pकिया जाता। बेसहारा महिलाओं के लिए किए गए उनके इस कार्य की जितनी सरहाना की जाए कम ही है।
पीड़ित महिलाओं को मिली नई रोशनी
(अंतिम किस्त )
हम ने देखा...... सावित्री बाई ने शिक्षा के साथ साथ किस तरह विधवा महिलाएं और ऐसी माताएं जो किसी वहशी की हवस का शिकार हो कर मां बन गईं । जिन्हें समाज ने बहिष्कृत कर दिया, ऐसी पीड़ित महिलाओं के लिए महात्मा फुले और सावित्री बाई ने 28 जनवरी 1853 को एक आश्रम खोला उस आश्रम का नाम रखा गया" बाल हत्या प्ररिबंधक गृह " भारत में इस तरह महिलाओं के लिए यह पहला आश्रम था।
आश्रम में ऐसे ही एक दिन काशीबाई नाम की एक महिला आई । किसी ने उसके साथ ज्यादती की थी, वह गर्भवती थी , सावित्री बाई ने उसे सहारा दिया, कुछ दिनों बाद उस अभागी महिला ने एक पुत्र को जन्म दिया।
जानते हो...... इस के बाद क्या हुआ ? महात्मा फुले और सावित्री बाई ने इसी बालक को गोद ले लिया , यही बालक बड़ा हो कर *यशवंत* कहलाया। सावित्री बाई ने यशवंत को पढ़ा लिखा कर डॉक्टर बनाया ताकि वो भी उन्हीं की तरह समाज में दूसरों के काम आ सके। यशवंत का विवाह उन्होंने दूसरी जाति में किया इस तरह उन्होंने *अंतरजातीय विवाह* को भी प्रोत्साहन दिया।
जोतिबा का की सीख थी कि जीवन में किसी भी बात को स्वीकारने से पहले उसके बारे में जानना समझना जरूरी है। इस बात के लिए शिक्षा और ज्ञान जरूरी है, इसी लिए उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की थी।
सावित्री बाई अपने खाली समय में कविताएं भी लिखा करती थीं कविता लिखने में उनकी विशेष रुचि थी। उनकी कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं।
1896 , 97 की बात है मुंबई , पुणे में उन दिनों प्लेग की बीमारी फैली हुई थी, इस महामारी के चलते चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ था, ऐसी संकट की घड़ी में उन्होंने अपने डॉक्टर बेटे यशवंत को अफ्रीका से भारत बुलाया और उस से समाज सेवा के कार्य में जुट जाने को कहा।
सावित्री बाई स्वयं भी लोगों की सेवा में जुटी रही इसी दौरान सावित्री बाई भी प्लेग की चपेट में आ गायी। उनका इलाज किया गया । लेकिन से बच नहीं पाईं, और 10 मार्च 1897 को इस महान समाज सेविका की मृत्यु हो गई।
सावत्री बाई और फातेमा शेख ने हजारों महिलाओं के जीवन में शिक्षा और ज्ञान की ज्योत जलाकर उनके जीवन को रोशन किया।
देखा आपने …... शिक्षा के द्वारा मनुष्य के जीवन में कितने परिवर्तन आ सकते हैं।
शिक्षा के इसी मंत्र को महात्मा फुले ने देखिए किस खूबसूरती के साथ पेश किया है।
"विद्या बिना मति गयी,
मति बिना नीति गयी
नीति बिना गति गयी,
गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शुद्र कमज़ोर हुए,
देखा….. इतने अनर्थ,
एक अविद्या ने किये||"
( महात्मा ज्योतिबा फुले)
(मति= बुद्धि, नीति= उसूल, वित्त= धन
शुद्र = गरीब , अविद्या = अशिक्षा)
इसी लिए आज इतने वर्षों बाद भी हम सावित्री बाई और फातेमा शेख को बड़े सम्मान और आदर से याद करते हैं । ऐसे ही लोगों के त्याग और निरंतर प्रयास से समाज में शूद्रों, स्त्रियों को स्वाभिमान से जीने, पढ़ने लिखने
का अवसर प्राप्त हुआ।
मुख्तार खान
(9867210054)
१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब
*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...
-
"American personalities cannot ignore that the Soviet Union is not only opposed to the use of the atomic weapon, but also in favor of i...
-
In the ring of life, a tale unfolds, Of courage and strength, where truth beholds, Women wrestlers rise, their voices loud, Against the dark...
-
In a nation where access to education remains a fundamental issue and where an individual's success largely depends on access to resourc...