Saturday, 29 January 2022

इन्कार्नेशन थीम की फिल्में

'इन्कार्नेशन' यानी पुनःअवतरण की थीम मुझे हमेशा आकर्षित करती है। हिंदी की कुछ सबसे दिलचस्प कहानियां इसी अवधारणा पर आधारित हैं। उन फिल्मों में कुछ अजीब सा आकर्षण है, जो उन्हें कभी पुराना नहीं पड़ने देता है। इस कड़ी में सबसे पुरानी और तार्किक फ़िल्म कमाल अमरोही की 'महल' है। कुछ ऐसा ही सम्मोहन बिमल रॉय की फिल्म 'मधुमती' में था। जिसकी कहानी इप्टा से जुड़े भारतीय सिनेमा के अप्रतिम निर्देशक ऋत्विक घटक ने लिखी थी। सुभाष घई की 'कर्ज' अपने समय की आइकॉनिक फिल्म थी। "इक हसीना थी" गीत के जरिए 'हैमलेट' की नाटकीय संरचना 'कहानी के भीतर कहानी' का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया था। जिसे बाद में हम 'हैदर' में भी देखते हैं। 

'श्याम सिंह रॉय' का जिक्र बिना हिचकिचाहट इन चुनिंदा फिल्मों के साथ किया जा सकता है। प्लॉट में दो-तीन बड़ी खामियों के बावजूद फिल्म के निर्देशक राहुल सांकृत्यान (यही वर्तनी) इसे एक विजुअल अनुभव में बदल देते हैं। कहानी बहुत हल्के-फुल्के ढंग से नवोदित फिल्म निर्देशक वासुदेव (नानी) के संघर्ष से आरंभ होती है और रोमांटिक कॉमेडी का फ़ील देती है। धीरे-धीरे कहानी का मूड और टोन बदलने लगता है और वह 50 साल पहले के बंगाल में पहुँच जाती है। निर्देशक राहुल ने यह ट्रांस्फार्मेशन बड़ी खूबसूरती से किया है। अतीत की कहानी विजुअल पोएट्री की तरह है। पुनर्जन्म की कथा होने के बावजूद यह फिल्म अपना स्टैंड प्रोग्रेसिव रखी है और देवदासी प्रथा, धर्म की आड़ में शोषण और जातीय असमानता पर सीधे-सीधे बिना किसी लाग-लपेट के बात करती है। 

फिल्म का नायक वामपंथी है। वह खुद को नास्तिक कहता है। दक्षिण के टिपिकल हीरो की तरह ही सही मगर स्पष्ट समाजिक बुराइयों से लड़ता है। यह इसलिए अहम है क्योंकि बीते सात सालों में एक वैचारिक धड़े ने वामपंथ जैसे शब्द को गाली में बदलने कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसे में एक लोकप्रिय सिनेमा का नायक अगर लेफ्टिस्ट है तो यह साहसिक भी है और जरूरत भी। मूल्य वही हैं जिनके लिए भारतीय सिनेमा के पूरे इतिहास में नायक लड़ते नज़र आते हैं। असमानता और धर्मांधता का विरोध और शोषित और वंचित के साथ खड़े होने का साहस। 

इस सबके बावजूद यह 'जय भीम' जैसी कोई यथार्थवादी या सामाजिक बदलाव की फिल्म नहीं है। यह एक मधुर प्रेम कहानी है, जो भाषा की बाध्यता के बावजूद गुनगुनाने लायक गीतों, नवरात्रि में आग की रोशनी में होने वाले अद्भुत नृत्य, चांदनी रात में नौका विहार के दृश्य और कोलकाता के बैकड्रॉप की वजह से यादगार हो जाती है। फिल्म में नवरात्रि के दौरान की हर रात, दुर्गा के अलग रूप और उसके समानांतर परिपक्व होती प्रेम कहानी का भी सुंदर नाटकीय चित्रण है। श्याम और रोज़ी (सई पल्लवी) के किरदार एक-दूसरे के पूरक नज़र आते हैं। 

निर्देशक ने छोटे-छोटे प्रतीकों के माध्यम से देश-काल को लांघती इस कहानी के सूत्र बड़ी खूबसूरती से जोड़े हैं। इस प्रेम कहानी का चरम एक बड़े सोशल मूवमेंट में नज़र आता है, जिसका नेतृत्व श्याम सिंह रॉय करता है, मगर कहीं न कहीं प्रेरणा रोज़ी होती है। यहां पर नायक एक एक्टीविस्ट और सोशल रिफार्मर के रूप में नज़र आता है, जो देवदासी प्रथा के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है। नक्सलबाड़ी पर लिखी उसकी लाल कवर वाली किताब बार-बार दिखाई जाती है। फिल्म का आंशिक हिस्सा कोर्टरूम ड्रामा भी है और उसमें 'लीगल लोचा' भी है, पर उसे थोड़ा बर्दाश्त किया जा सकता है। फिल्म का अंत मुझे बहुत सुंदर और दार्शनिक लगा मगर नायिका की मृत्यु नहीं। कहानी को जटिल मोड़ तक ले जाने का साहस करने वाले निर्देशक भी कभी-कभी आसान रास्ते की तरफ बढ़ जाते हैं। 

फिल्म को देखने के बाद यह लग सकता है कि मैंने फिल्म की ज्यादा तारीफ कर दी है तो उसकी वजह स्पष्ट है। जब चंदन के तस्कर को नायक बनाया जा रहा हो, लोकप्रिय धारा में सोशल कमिटमेंट को नायकत्व में परिभाषित करना जरूरी है और फिल्म यह काम करती है। एक ऐसा नायक जिसका सोशल कमिटमेंट है, ऐसा किरदार जो बीते 15 सालों में सिनेमा में दिख रहे शहरी अभिजात्य व्यक्तिवाद से हटकर समाज में नायक बनने का हौसला रखता हो, जिसके लिए प्रेम दैहिक आकर्षण से परे एक साहचर्य है और जिस साहचर्य के अपने सामाजिक सरोकार हैं। जब सिनेमा प्रत्यक्ष-परोक्ष में धार्मिक कट्टरता और एक समुदाय के प्रति सांकेतिक वैमनस्य दिखाया जाने लगे, तो धर्मांधता के खिलाफ एक नास्तिक नायक को खड़े दिखाना भी साहस है। 

नानी ने इस नायक को अपनी बॉडी लैंग्वेज से जीवंतता दी है। बिना ज्यादा मैनेरिज़्म का सहारा लिए वो दोनों ही रोल में बिल्कुल अलग शख़्सियत दिखते हैं। सई पल्लवी का अभिनय सुंदर है, खास तौर पर नृत्य में दुर्गा-रूप और प्रेम में डूबी स्त्री का कंट्रास्ट अद्भुत है। युवा निर्देशक राहुल सांकृत्यान के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर कहीं यह पता चलता है कि उनका वैचारिक झुकाव लेफ्ट की तरफ है। हिंदी के प्रखर वामपंथी लेखक राहुल सांकृत्यायन से उनके नाम की साम्यता के पीछे भी शायद ऐसा ही कोई संयोग हो।

श्री दिनेश श्रीनेत के वॉल से

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