Friday, 14 January 2022

मनुस्मृति पर मुकेश कुमार पत्रकार के 25.12 .2021 के एक वीडियो में चर्चा के ऊपर टिप्पणी.


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इस वीडियो में शामिल चार प्रोफेसरों द्वारा मनुस्मृति का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसे सुनने से मनुस्मृति को बिना पढ़े उसकी एक झलक देखने व समझने को मिलती है । हालांकि एक का थोड़ा दोहरा चरित्र देखने को मिला। वे स्पष्ट रूप से बोलते हुए  दिखलाई दिए कि उनका संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रहा है। अतः स्वाभाविक है कि उनका संबंध मनुस्मृति से पूर्णतया समाप्त नहीं हो पाया है।

जो चर्चा हुई है उसके अनुसार आज भी भारतीय समाज में उसकी विरासत एक दूरी तक अल्पमत में ही सही‌ उपस्थित है। रूढ़िवादिता और कूपमंडुकता अभी भी समाज में देखने को मिल रही है। लेकिन सहभागियों ने इन बिंदुओं पर अपने विचार द्वंदात्मक भौतिकवादी नजरिया से रखने में भूल की है। एक ने अपने विचार को संपुष्ट करने के लिए उत्तराखंड की एक घटना का उदाहरण रखा है वह यह कि वहां के एक स्कूल में बच्चों ने खाना खाने से इसलिए इंकार कर दिया क्योंकि खाना एक दलित महिला द्वारा बनवाया जा रहा था। इस प्रकार उन्होंने अपवाद स्वरूप घटना को सामान्य घटना बतलाने का प्रयास किया है, जो पूर्णतया गलत है।

आज की दौड़ में बहुत सारे तथाकथित दलित पूंजीवादी नेता दलितों के  मसीहा  के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं तथा दलित वाद की राजनीति कर सुनियोजित ढंग से मजदूर वर्ग की एकता को विघटित करने का प्रयास कर रहे हैं। अतः इनके इस चरित्र का भंडाफोड़ करने के साथ-साथ दलित वाद की राजनीति के विरुद्ध संघर्ष चलाने की आवश्यकता है। ये पूंजीवादी नेतागण, जिसे दलित के रूप में  पेश करना चाहते हैं, वे वास्तव में मजदूर हैं तथा वे अपने रोजमर्रा की जिंदगी में काम करते हुए ही जीने को बाध्य हैं। हालांकि मुझे यह कहने में गुरेज नहीं है कि वे आज भी कुछ जनवादी अधिकारों से वंचित हैं लेकिन उन बचे खुचे अधिकारों को प्राप्त करने के लिए वे संघर्षरत हैं तथा हमारे देश का मजदूर वर्ग उनके साथ मिलकर वैसे सारे जनवादी अधिकारों को निश्चय ही प्राप्त कर लेगा तथा देश का मजदूर वर्ग ऐसी निरंकुश पूंजीवादी सत्ता को नेस्तनाबूद कर अपनी सत्ता भी स्थापित करेगा।

हजारों हजार वर्ष पूर्व के आदिम युग से निकलकर मानव समाज के विकास-क्रम में अधिकाधिक श्रम  विभाजन होता गया, निजी संपत्ति आई एवं वर्गीय समाज के साथ राज्य का उदय हुआ। फिर श्रम-विभाजन पर आधारित जात-पांँत की व्यवस्था की  तत्कालीन धर्म और राज्य में अभिव्यक्त हुई। बाद में जाकर संग्रहित कोड के रूप में मनु स्मृति लिखा गया जिसमें मुख्य रूप से राजा और प्रजा के अधिकारों एवं दायित्वों का उल्लेख है। लेकिन आज का समाज गुणात्मक रूप से उससे भिन्न है। आज के पूंजीवादी व्यवस्था में मनुस्मृति के कोड पुराने एवं तर्क़ से परे हो चुके हैं। हमारे देश में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर 25 दिसंबर 1927 में मनुस्मृति को जलाकर प्रतीक स्वरूप उसका विरोध किए थे जिसे अभी भी प्रत्येक 25 दिसंबर को जला कर उसका विरोध किया जाता है। मेरी समझ स्पष्ट है कि इस तरह के कार्यक्रम को निश्चित रूप से दलित वादी नेता के नेतृत्व में वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए चलाया रहा है। अतः ऐसे चल रहे कार्यक्रम ‌का मजदूर वर्ग विरोध करता है।
 
अभी हमारे देश में पूंजीवादी सत्ता का राज्य है। किसी भी काल खंड  के समाज की विवेचना अगर हम करना चाहते हैं तो हमें देखना पड़ेगा कि उस काल में उत्पादन कैसे होते थे, उत्पादन के औजार कैसे थे, उत्पादन के साधनों पर किसका अधिकार था, उत्पादन का तरीका एवं उत्पादन संबंध किस प्रकार का था। जब हम वर्तमान समाज की व्याख्या करते हैं तो पाते हैं कि उत्पादन के साधनों पर पूंजीपति वर्ग का अधिकार है, उत्पादन संबंध मालिक और मजदूर (उजरती मजदूर) का चल रहा है। एक-एक  उत्पादन चाहे छोटे पैमाने पर हो रहा हो या बड़े पैमाने पर, सब कुछ बाजार के लिए हो रहा है या यूं कहें  कि हर जगह माल का उत्पादन हो रहा है। जब हम कहते हैं की हमारा समाज मूलतः सर्वहारा वर्ग/ मजदूर वर्ग और  पूंजीपति वर्ग में बट गया है, वैसी स्थिति में समाज की व्याख्या मनुस्मृति के आधार पर करना पूर्णतया गलत होगा। आज समाज का हर व्यक्ति या तो कहीं न कहीं उत्पादन प्रक्रिया में लगा है या वेरोज़गार है तथा इस प्रक्रिया में लगा व्यक्ति उस विशेष उत्पादित उद्योग का मजदूर/कर्मचारी है या प्रबंधन का व्यक्ति/मालिक है। वैसे कार्यरत मजदूर/कर्मचारी को जाति विशेष के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता। इसी तरह कोयला उद्योग, इस्पात उद्योग, टेल्को- टिस्को, सीमेंट उद्योग, बैंक एवं सरकारी कर्मचारी आदि जैसे संस्थानों में कार्य करने वाले व्यक्ति को जाति के रूप में देखने का प्रयास करना वस्तुत: चल रही व्यवस्था का पक्ष पोषण करने के अलावा और कुछ नहीं है। मैं फिर से यह कहना चाहूंगा कि हमारा समाज मूलतः पूंजीपति वर्ग एवं मजदूर वर्ग में विभाजित है तथा "उत्पादन का पूंजीवादी तरीका उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व, पूंजी संचय के उद्देश्य से मालिक वर्ग द्वारा अधिशेष मूल्य की निकासी, मजदूरी- आधारित श्रम और कम से कम जहां तक तक वस्तुओं का संबंध है- बाजार आधारित होने की विशेषता है।" 

आज देखने को मिल रहा है कि राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पूंजीवादी पार्टियां अपने-अपने स्वार्थ में प्रत्येक को जाति, जो आज के समय में मजदूर वर्गीय दृष्टि से पूर्णतः अतार्किक हो चुका है, के रूप में होने एवं दिखलाने का प्रयास कर रही हैं। जहां तक भाजपा का प्रश्न है वह धर्म के आधार पर मजदूर वर्ग की एकता को खंडित करने का प्रयास कर रही है तथा धर्म को प्रथम प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर रखा है।  लेकिन इस समाज को पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग में  बटा हुआ देखने वाला व्यक्ति इसे मजदूर वर्ग पर पूंजीपति वर्ग का दमन व शोषण ही कहेगा। आज  पूंजीवादी बुद्धिजीवी सर्वहारा वर्ग/ मजदूर वर्ग को एक वर्ग के रूप में संगठित हो, देखना नहीं चाहता है, इसलिए उसे जातिगत और धार्मिक चादर ओढ़ाकर वर्गीय एकता को खंडित या बाधित करने का प्रयास कर रहा है। आज देखने को मिल रहा है कि राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय पूंजीवादी पार्टियां तथाकथित जातिगत/ अल्पसंख्यक- बहुसंख्यक की राजनीति के सहारे अपने-अपने संगठन को मजबूत करने का प्रयास कर रहा हैं। इस दौड़ में भाजपा सबसे आगे है. वह अपने एजेंडे में धर्म को प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर रखा है। परन्तु आज के पूंजीवादी समाज में मजदूर/सर्वहारा, शोषित पीड़ित जनमानस कहीं से भी मनुस्मृति, वेद ,उपनिषद या और कोई धार्मिक पुराण से समाज को संचालित करने की इजाजत नहीं दे सकता और न ही शासित हो सकता है। इस तरह के तमाम पुस्तकों का सही स्थान पुस्तकालय है। जिन्हें ऐसे पुरातन परम्पराओं से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन करना है वह पुस्तकालय में जाकर अध्ययन कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर- मान्यताओं के अनुसार ‌हिंदू होने का विशेष प्रमाण माथे पर टीक या चूरकी रखना है। लेकिन हम पाते हैं कि बिल्कुल नगण्य प्रतिशत ही ऐसे होंगे जो इन पुरानी मान्यताओं को  ढोते  हुए मिलेंगे। आज शासक वर्ग अपने हित में अनेकों तरह का तिकड़म करता है तथा भाड़े के बुद्धिजीवियों को प्रचार प्रसार के लिए लगा रखा है।
                 
मैं तो वाम तथा प्रगतिशील बुद्धिजीवियों  के द्वारा भी जाति के भौतिक आधार को खंडित करने तथा मजदूर वर्ग को सामाजिक वैज्ञानिक विचारधारा से लैस करने के प्रयास में भारी अभाव देख पाता हूं। ऐसी स्थिति में वाम के समर्थक, पार्टी, दल एवं बुद्धिजीवियों की गिनती संशोधन वादी विचारधारा के वाहक के रूप में ही की जाएगी। जिस तरह  हरिद्वार में मठाधीशों की सभा बुलाकर उन लोगों के द्वारा अल्पसंख्यक के विरूद्ध आग उगलने और घृणा फैलाने तथा शस्त्र उठाकर उन्हें नेस्तनाबूद करने का संकल्प लिया गया हैं, ऐसी स्थिति में वाम तथा प्रगतिशील संगठनों एवं मजदूर वर्ग के जन संगठनों को उनका सीधा विरोध करते हुए सड़क पर आना चाहिए तथा समाज में इस तरह की घृणा तथा धार्मिक उन्माद फैलाने वाले शासक वर्ग की चाटुकारिता एवं दलाली का मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए.
Vvs



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