साथियो आज 14 जनवरी, मशहूर-ओ-मारूफ़ शायर-नग़मा निगार, इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कैफ़ी आज़मी की जयंती है। (जयपुर से प्रकाशित दैनिक अखबार 'सच बेधड़क' में। प्रधान सम्पादक-मनोज माथुर)
क़ैफी आज़मी, तरक़्क़ीपसंद तहरीक के अगुआ और उर्दू अदब के अज़ीम शायर थे। उर्दू अदब को आबाद करने में उनका बड़ा योगदान है। वे इंसान-इंसान के बीच समानता और भाईचारे के बड़े हामी थे। उन्होंने अपने अदब के ज़रिए इंसान के हक, हुकूक और इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ी। मुल्क की सांझा संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाया। 'क़ौमी जंग' और 'नया अदब' जैसे पत्र-पत्रिकाओं में कैफ़ी आज़मी की शुरुआती नज़्में और ग़ज़लें प्रकाशित हुईं। रूमानियत और ग़ज़लियत से अलग हटकर, उन्होंने अपनी नज़्मों-ग़ज़लों को समकालीन समस्याओं के सांचे में ढाला। कैफ़ी आज़मी का दौर वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आज़ादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी। मुल्क में जगह-जगह अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहे थे। किसानों और कामगारों में एक गुस्सा था, जिसे एक दिशा प्रदान की तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने। इस तहरीक से जुड़े सभी अहम शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की। किसानों और कामगारों की सभाओं में वे जब अपनी नज़्म पढ़ते, तो लोग आंदोलित हो जाते। ख़ास तौर से जब वे अपनी डेढ़ सौ अशआर की मस्नवी 'ख़ानाजंगी' सुनाते, तो हज़ारों लोगों का मजमा इसे दम साधे सुनता रहता।
एक ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर साल 1943 में जब कैफ़ी आज़मी मुम्बई पहुंचे, तब उनकी उम्र महज़ तेईस साल थी। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मुम्बई इकाई नई-नई क़ायम हुई थी। वे पार्टी के हॉल टाईमर के तौर पर काम करने लगे। पार्टी के दीगर कामों के अलावा उन्हें उर्दू दैनिक 'क़ौमी जंग' और 'मज़दूर मुहल्ला' के एडीटर की जिम्मेदारी मिली। इस दरमियान कैफ़ी आज़मी ने उर्दू अदब की पत्रिका 'नया अदब' का भी सम्पादन किया। पार्टी कम्यून में एक कमरे का उनका छोटा सा घर, ऑफ़िस भी हुआ करता था। जहां हमेशा यूनियन लीडरों और पार्टी कार्यकर्ताओं का जमघट लगा रहता। कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के बाद कैफ़ी आज़मी का आंदोलन से वास्ता आख़िरी सांस तक बना रहा। साम्यवादी नज़रिए का ही असर है कि उनकी सारी शायरी में प्रतिरोध का सुर बुलंद मिलता है। उन्होंने बर्तानवी साम्राजियत, सामंतशाही, सरमायेदारी और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ जमकर लिखा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भूमिगत जीवन गुज़ार चुके क़ैफी आज़मी ने साम्राज्यवाद का खुलकर विरोध किया। 'तरबियत' शीर्षक कविता में वे लिखते हैं,''मिटने ही वाला है खून आशाम देव-ए-जर का राज़/आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज।''
साल 1944 में महज़ छब्बीस साल की छोटी सी उम्र में कैफ़ी आज़मी का पहला ग़ज़ल संग्रह 'झनकार' प्रकाशित हो गया था। 'आख़िर-ए-शब', 'इबलीस की मज़लिसे शूरा' और 'आवारा सज़्दे' कैफ़ी आज़मी के दीगर काव्य संग्रह है। कैफ़ी आज़मी ने इंक़लाब और आज़ादी के हक़ में जमकर लिखा। इसके एवज़ में उन्हें कई पाबंदियां और तकलीफ़ें भी झेलनी पड़ीं। लेकिन उन्होंने अपने बग़ावती तेवर नहीं बदले। कैफ़ी आज़मी कॉलमनिगार भी थे। उनके ये कॉलम उर्दू साप्ताहिक 'ब्लिट्ज' में नियमित प्रकाशित होते थे। 'नई गुलिस्तां' नाम से छपने वाला यह कॉलम राजनीतिक व्यंग्य होता था। जिसमें सम-सामयिक मसलों पर वह तीख़े व्यंग्य करते थे। शादी होने के बाद आर्थिक परेशानियों और मजबूरियों के चलते कैफ़ी आज़मी ने मुंबई के एक व्यावसायिक अखबार 'जम्हूरियत' के लिए रोज़ाना एक नज़्म लिखी। फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिया। साल 1948 में निर्माता शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म 'बुज़दिल' में उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी नग़मा लिखा। क़रीब 80 फ़िल्मों में गीत लिखने वाले क़ैफी के गीतों में ज़िंदगी के सभी रंग दिखते हैं। फ़िल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपने नग़मों, शायरी का मेयार नहीं गिरने दिया। सिने इतिहास की क्लासिक 'प्यासा', 'कागज़ के फ़ूल' के लाजवाब नग़मे उन्ही के कलम से निकले हैं। 'अनुपमा', 'हक़ीकत', 'हंसते ज़ख्म', 'पाकीज़ा' वगैरह फिल्मों के शायराना नग़मों ने उन्हें फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया। फ़िल्मों से कैफ़ी आज़मी का संबंध आजीविका तक ही सीमित रहा। उन्होंने अपनी शायरी और आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया साल 1973 में देश के बंटवारे पर केन्द्रित फ़िल्म 'गरम हवा' की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला। यही नहीं इसी फिल्म पर संवादों के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
कैफ़ी आज़मी बंटवारे और साम्प्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। भारत-पाक विभाजन के समय पार्टी ने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को जहां पाकिस्तान पहुंचा दिया, तो वहीं क़ैफ़ी ने हिन्दुस्तान में ही रहकर काम किया। साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता जैसी अमानवीय प्रवृतियों पर प्रहार करते हुए कैफ़ी ने लिखा,''टपक रहा है जो ज़ख़्मों से दोनों फ़िरकों के/ब ग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं/तुम इसका रख लो कोई और नाम मौंज़ू सा/किया है ख़ून से जो तुमने वो वजू तो नहीं'' ('लख़नऊ तो नहीं') कैफ़ी आज़मी मुम्बई में चाल के जिस कमरे में रहते थे, वहीं उनके आस-पास बड़ी तादाद में मज़दूर और कामगार रहते थे। मज़दूरों-कामगारों के बीच रहते हुये उन्होंने उनके दुःख, दर्द को समझा और करीब से देखा। मज़दूरों, मज़लूमों का यही संघर्ष उनकी बाद की कविताओं में साफ परिलक्षित होता है,''सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी।'' ('मकान') अली सरदार जाफ़री की तरह कैफ़ी ने भी शायरी को हुस्न, इश्क और जिस्म से बाहर निकालकर आम आदमी के दुख-दर्द, संघर्ष तक पहुंचाया। अपनी शायरी को ज़िंदगी की सच्चाइयों से जोड़ा। कैफ़ी आज़मी अत्याचार, असमानता, अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ ताउम्र लड़े और अपनी शायरी, नज्मों से लोगों को भी अपने साथ जोड़ा।
आज़ादी के बाद कैफ़ी ने समाजवादी भारत का तसव्वुर किया था। स्वाधीनता के पूंजीवादी स्वरूप की उन्होंने हमेशा आलोचना की। अपनी नज़्म 'क़ौमी हुक़्मरां' में तत्कालीन भारतीय शासकों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा,''रहजनों से मुफ़ाहमत (समझौता) करके राहबर काफ़िला लुटाते हैं/लेने उठे थे ख़ून का बदला हाथ जल्लाद का बंटाते हैं।'' कैफ़ी के यही आक्रामक तेवर आगे भी बरकरार रहे। उनकी शायरी में समाजी, सियासी बेदारी साफ-साफ दिखाई देती है। सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सद्भाव को उन्होंने हमेशा अपनी शायरी में बढ़ावा दिया। स्त्री-पुरूष समानता और स्त्री स्वतंत्रता के हिमायती कैफ़ी आज़मी अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' में लिखते हैं,''तोड़ कर रस्म का बुत बंदे-कदामत से निकल/ज़ोफे-इशरत से निकल, वहमे-नज़ाकत से निकल/नफ़्स के खींचे हुये हल्क़ाए-अज़मत से निकल/....राह का ख़ार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे/उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे।''कैफ़ी आज़मी 'भारतीय जननाट्य संघ' (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे। वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर कई साल तक रहे। उनके कार्यकाल में इप्टा की शाखाओं का पूरे भारत में विस्तार हुआ। इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीका मानते थे। अपनी नज़्मों और नाटकों से उन्होंने साम्प्रादियकता पर कड़े प्रहार किये। अपनी एक नज़्म में साम्प्रदायिक लीडरों और कट्टरपंथियों पर निशाना साधते हुये वे कहते हैं,''तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा/अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी।'' ('सोमनाथ') साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस, एक ऐसी घटना है जिसने देश में साम्प्रदायिक विभाजन को और बढ़ाया। हिंदू-मुस्लिम के बीच शक की दीवारें खड़ी कीं। कैफ़ी आज़मी ने ख़ुद बंटवारे का दंश भोगा था, वह एक बार फ़िर साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए आगे आए और उन्होंने अपनी चर्चित नज़्म 'दूसरा बनवास' लिखी, ''पांव सरजू में अभी राम ने धोये भी न थे/कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे/पांव धोये बिना सरजू के किनारे से उठे/राम ये कहते हुये अपने द्वारे से उठे/राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे/छः दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।''
कैफ़ी आज़मी की वैसे तो सभी नज़्में एक से एक बढ़कर एक हैं, लेकिन 'तेलांगना', 'बांगलादेश', 'फ़रघाना', 'मास्को', 'औरत', 'मकान', 'बहूरूपिणी', 'दूसरा वनबास', 'ज़िंदगी', 'पीरे-तस्मा-पा', 'आवारा सज़्दे', 'इब्ने मरियम' और 'हुस्न' नज़्मों का कोई जवाब नहीं। कैफी आज़मी को 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' के अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्डों से भी नवाज़ा गया। मसलन 'अफ्रो-एशियन पुरस्कार', 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' आदि। बावजूद इसके वह अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लाल कार्ड को समझते थे और उसे हमेशा अपनी जेब में रखते थे। वामपंथी विचारधारा में उनका अक़ीदा आख़िर तक रहा। अपने व्यवहार में वे पूरी तरह से वामपंथी थे। लेखन और उनकी ज़िंदगी में कोई फ़र्क़ नहीं था। मुल्क में समाजवाद आए, उनका यह सपना था। वह लोगों से अक्सर कहा करते थे कि ''मैं गुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद भारत में जिया और समाजवादी भारत में मरूंगा।'' लेकिन अफ़सोस ! कैफ़ी आज़मी की आख़िरी ख़्वाहिश उनके जीते जी पूरी नहीं हो सकी। उनका सपना अधूरा ही रहा। 10 मई, 2002 को यह इंक़लाबी शायर हमसे यह कहकर, हमेशा के लिए जुदा हो गया,''बहार आये तो मेरा सलाम कह देना/मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने।''
जाहिद खान, फेसबुकपर.
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