साहिर ने " छब्बीस। जनवरी " के नाम से एक नज़्म लिखी थी जो आज भी सही प्रतीत होती है । देश ने बहुत प्रगति कर ली है लेकिन आज भी ग़रीबी , बेरोज़गारी , मज़हब , जाति भेद ज्यों की त्यों बनी हुई है । इस के लिए शायर/कवि अपने को भी ज़िम्मेदार मानते थे ।आज के दौर में ऐसी बात उठाने वाला कोई शायर / कवि नज़र नहीं आ रहा है इसलिए इस नज़्म की कुछ पंक्तियाँ पेश है -
आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हम ने वो हसीं ख़्वाब क्या हुए…………
क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का
मरते थे जिन पर हम वो सज़ा-याब क्या हुए………..
मज़हब का रोग आज भी क्यूँ ला- इलाज है
वो नुस्ख़ा-हा-ए-नादिर-ओ-नायाब क्या हुए…………
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्लगाह
यक-जहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए…………….
मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रह-बरना-ए-क़ौम ख़ता- कार तुम भी हो
——साहिर लुधियानवी
(75 वें गणतंत्र दिवस / अमृत महोत्सव पर विशेष प्रस्तुति )
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