प्रो. लक्ष्मण यादव जैसे कुछ जातिवादी लोग मार्क्सवाद की बहुत ही धूर्ततापूर्ण व्याख्या कर रहे हैं। उन्हें मार्क्स के द्वण्द्वात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद, राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं मालूम फिर भी मार्क्सवाद की आलोचना कर रहे हैं। उनका प्रवचन इस लिंक में देख सकते हैं- https://youtu.be/nY4WfojjRcs
मार्क्सवाद की समझ न होना, अपने आप में कोई अयोग्यता नहीं है, मगर मार्क्सवाद को समझे बगैर मार्क्सवाद की आलोचना करना तर्कसंगत नहीं है, और अपने जातिवाद को जायज ठहराने के लिये कुतर्कों द्वारा मार्क्सवाद की आलोचना करना धूर्ततापर्ण है। हम उनकी मार्क्सवाद की भौंड़ी व्याख्या पर बाद में कभी बात कर लेंगे, क्योंकि मार्क्सवाद बहुत बड़ा विषय है, सिर्फ मार्क्स की किताबों को पढ़कर इसे पूरी तरह नहीं समझा जा सकता क्योंकि यह कोई जड़सूत्र नहीं है, यह लगातार विकसित हो रहा है। फिलहाल इन प्रोफेसर साहब के अनुसार "मार्क्स की शोषण सम्बन्धी नासमझी" पर बात कर लेते हैं।
प्रोफेसर साहेब कहते हैं कि 'मार्क्स केवल आर्थिक शोषण को ही समझ पाये थे। वे जातीय, नस्लीय और लैंगिक शोषण को नहीं समझ पाए।…… अगर मार्क्स भारत में पैदा होते तो यहां के जातिगत शोषण को देखकर वर्गसंघर्ष की बजाय जातिसंघर्ष की बात करते।'
इस तरह ऐसे बहुत लोग हैं जो अपनी गन्दी जातिवादी मानसिकता को जायज ठहराने के लिये ऐसी लफ्फाजी करते रहते हैं।
जनाब प्रोफेसर साहब! जरा गहराई से सोचिये- जातीय, नस्लीय, लैंगिक शोषण का भी आधार आर्थिक ही होता है।
है किसी में दम जो नीता अम्बानी का शोषण कर ले। महिला तो वह भी हैं।
मायावती दलित भी हैं और महिला भी हैं जरा आप उनका शोषण करके दिखाइए।
रंग के आधार पर काले लोगों का जो शोषण होता रहा उसका भी आधार आर्थिक ही रहा है।
जिसे आप जातिगत शोषण कहते हैं उसका भी बुनियादी कारण आर्थिक ही होता है।
आप यह जानकर और अधिक हैरान होंगे कि जिसे आप यौन शोषण कहते हैं उस यौन शोषण का भी आधार आर्थिक ही होता है।
जब कोई अपने धन के बल पर अपने से आधी या उससे भी कम उम्र की गरीब लड़की से शादी करता है तो मौजूदा संविधान उसे जायज ठहराता है मगर मार्क्स की दृष्टि में वह भी वेश्यावृत्ति/यौन शोषण ही है, जिसका आधार आर्थिक ही होता है।
अब आप कहेंगे कि बाबू जगजीवन राम द्वारा सम्पूर्णानन्द की मूर्ति अनावरण करने पर मूर्त्ति को गोमूत्र से क्यों धुला गया? फलां दलित राष्ट्रपति को मन्दिर में क्यों नहीं घुसने दिया? इसी तरह के और भी लफ्फाजीपूर्ण तर्क हम बहुत सुन चुके हैं। यह शोषण नहीं, यह जातिगत अपमान है और इस जातिगत अपमान का भी कारण आर्थिक ही है।
करोड़पति या अरबपति दलित नेताओं का कभी-कभी जातिगत अपमान होता है तो उसका कारण आर्थिक ही होता है क्योंकि उनकी जाति समूह के 90-95% लोग आर्थिक रूप से विपन्न हैं।
जनाब प्रोफेसर साहब! शोषण का आधार आर्थिक ही होता है, इसे हम यूं भी समझ सकते हैं- अगर किसी जाति विशेष का शोषण अधिक हो रहा है तो उसका सीधा सा कारण है कि उस जाति समूह में गरीबी भी अधिक है। जिस जाति समूह में गरीबी कम है, उनका शोषण और अपमान भी कम है।
फिर भी जिन्हें लगता है कि भारत में शोषण का आधार जातिगत है, हम उन्हें चुनौती देते हैं, आप छोड़ दीजिए सारा आर्थिक संसाधन, छोड़ दीजिए लाखों रूपये तनख्वाह वाली नौकरियां, फिर आइए जातीय संघर्ष करके दिखाइए। तो समझ में आ जाएगा।
आंख उठाकर पूरे समाज को देख लीजिये, इसके बावजूद तुलसीदास की चौपाई "सबसे अधिक जाति अपमाना" की तर्ज पर 'जातीय अपमान गरीबी से भी ज्यादा खटकता हो' तो आइए हमारे घर, हम आपको फूल माला से पाट देंगे, दिन भर में दस बार आरती उतारेंगे, आपका चरण धोयेंगे, उसे सर माथे चढ़ायेंगे, मगर भोजन नहीं देंगे। भोजन पर पाबन्दी रहेगी। आप कितने दिन इस सम्मान के भरोसे जियेंगे?
इसके उलट आप हमसे कुतर्क कर सकते हैं कि 'कोई आप को रोज भरपेट भोजन दें और बदले में रोज दो जूता मारे, तो ऐसा भोजन आप कितने दिन तक करेंगे?'
इसका जवाब आप को इतिहास में ही मिल जायेगा। इतिहास गवाह है कि जब हमारे पुरखों की सम्पत्ति छीनकर उन्हें गुलाम बना लिया गया तो रोटी के लिए हमारी सैकड़ों पीढ़ियां गुलामी और अपमान सहती रही हैं।
अत: हमारे अपमान के कारण हम गरीब नहीं हैं बल्कि हमारी गरीबी के कारण हमारा अपमान होता रहा है। हमें पहले गरीब बनाया गया तभी हम अपमान सहने के लिए मजबूर हुए।
जिन्हें लगता है कि भारत में शोषण का आधार आर्थिक और जातिगत दोनों ही है, तो ऐसे लोग तो सबसे ज्यादा भ्रमित हैं।
जो पूछते हैं कि सुबह-सुबह गलियों में झाड़ू कौन लगाता है? उनके सवाल पूछने का मतलब यही होता है कि दलित ही झाड़ू लगाता है। तब तो उन्हें समझना पड़ेगा कि अगर दलित होने के नाते झाड़ू लगा रहा है तो मायावती के भतीजे भी तो दलित हैं, क्यों नहीं वे शहर की गलियों में झाड़ू लगाते हैं? इसका भी बुनियादी कारण आर्थिक ही है।
जिन्हें लगता है कि, मार्क्स भारत में पैदा होते तो वे भी वर्गसंघर्ष की बजाय जातिसंघर्ष की बात करते, तो हम बता दें कि मार्क्स जैसा भौतिकवादी दार्शनिक कहीं भी पैदा हो जाये, वो आप लोगों जैसी घिनौनी लफ्फाजी नहीं कर सकता। वो किसी जाति या धर्म विशेष में जन्म लेने के आधार पर किसी को दोस्त या दुश्मन नहीं बना सकता।
जिस तरह आरएसएस जैसे फिरकापरस्त संगठनों के लोग किसी धर्म विशेष में पैदा होने वालों को दुश्मन समझते हैं उसी तरह किसी जाति विशेष में पैदा होने वालों को आप लोग दुश्मन बता रहे हैं। दोनों ही जन्म के आधार पर दोस्त दुश्मन तय कर रहे हैं। मानवीय संवेदना से भरा हुआ कोई भी आदमी जन्म के आधार पर दोस्त दुश्मन नहीं तय कर सकता। यह तर्कसंगत भी नहीं है क्योंकि कौन कहां पैदा होगा यह उसके वश में नहीं होता।
मार्क्सवाद के सूरज पर थूकने से गन्दगी कहां जायेगी, क्या आपको नहीं मालूम है?
आने वाली पीढ़ियां पूछेंगी, कैसे यह आदमी प्रोफेसर हो गया? छात्रों को क्या पढ़ाता रहा होगा?
आगे फिर कभी....
*रजनीश भारती*
*जनवादी किसान सभा*
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