काकोरी कांड में गिरफ्तार होने के बाद क्रांतिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' पर मुकदमा दायर हो चुका था। बिस्मिल साम्राज्यवादी वर्चस्व के ख़िलाफ क्रांति की मशाल जलाए रखना चाहते थे।
इसलिए मुकदमे के दौरान उनकी यह आकांक्षा थी कि वे किसी तरह जेल के बाहर आ जाएं, वे यह उम्मीद करते थे कि उनके साथी उन्हें छुड़ा लेंगे। क्रांतिकारी दल ने इसके लिए बाहर सघन प्रयास भी किए लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए। विलंब होते देख बिस्मिल ने जेल के भीतर से एक ग़ज़ल के माध्यम से पार्टी के सदस्यों को उलाहना भी भेजा था-
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या
दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल,
उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या
काश ! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते
यूं सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या
आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प
सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या!
मजिस्ट्रेट ने इसे इश्क़ का कोई कलाम समझकर बाहर भेजने की अनुमति दे दी थी। दरअसल बिस्मिल फांसी के फंदे में लटककर प्राण नहीं देना चाहते थे उनका हौसला था कि वे कैद से बाहर आकर साम्राज्यवाद से एक बार हथियारबंद संघर्ष करें। ग़ज़ल की इन पंक्तियों के माध्यम से वे बाहर सक्रिय अपने साथियों को यह संदेश देना चाहते थे कि कुछ करना हो तो जल्दी करो, वरना फांसी के फंदे में लटकी उनकी लाश को तुमने छुड़ा भी लिया तो उसका क्या होगा
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