Sunday, 28 March 2021

मक्सिम गोर्की के जन्मदिन (28 मार्च) के अवसर पर - कविता कृष्णपल्लवी



तूफानी पितरेल पक्षी का गीत

(यह विख्‍यात कविता गोर्की ने 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के दौरान क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की अपार ताकत और साहसिक युगपरिवर्तनकारी भूमिका से परिचित होने के बाद उद्वेलित होकर लिखी थी जो पूँजीवादी दुनिया की अमानवीयता को सर्वहारा वर्ग द्वारा दी गई चु‍नौती का अमर दस्‍तावेज बन गई। अपनी गुलामी की बेड़ि‍यों को तोड़कर पूरी मानवता की मुक्ति और उत्‍कर्ष के लिए पूँजीवादी विश्‍व के जालिम मालिकों के विरूद्ध तूफानी रक्‍तरंजित संघर्ष की घोषणा करने वाले शौर्यवान और साहसी सर्वहारा को गोर्की ने इस कविता में बादलों और समुद्र के बीच गर्वीली उड़ानें भरते निर्भीक पितरेल पक्षी के रूप में देखा है जो भयानक तूफान का चुनौतीपूर्ण आहावन कर रहा है। समाज के कायर, बुजदिल बुद्धिजीवियों तथा अन्‍य डरपोक मध्‍यमवर्गीय जमातों को गोर्की ने तूफान की आशंका से भयाक्रान्‍त गंगाचिल्लियों, ग्रेब और पेंगुइन पक्षियों के रूप में देखा है।)
 

समुद्र की रूपहली सतह के ऊपर
हवा के झोंकों से
तूफान के बादल जमा हो रहे हैं और
बादलों तथा समुद्र के बीच
तूफानी पितरेल चक्‍कर लगा रहा है
गौरव और गरिमा के साथ,
अन्‍धकार को चीरकर
कौंध जाने वाली विद्युत रेखा की भान्ति।
कभी वह इतना नीचे उतर आता है
कि लहरें उसके पंखों को दुलराती हैं,
तो कभी तीर की भान्ति बादलों को चीरता
और अपना भयानक चीत्‍कार करता हुआ
ऊंचे उठ जाता है,
और बादल उसके साहसपूर्ण चीत्‍कार में
आनन्‍दातिरेक की झलक देख रहे हैं।
उसके चीत्‍कार में तूफान से
टकराने की एक हूक ध्‍वनित होती है!
उसमें ध्‍वनित है
उसका आवेग, प्रज्‍ज्‍वलित क्षोभ और
विजय में उसका अडिग विश्‍वास।
गंगाचिल्लियां भय से बिलख रही हैं
पानी की सतह पर
तीर की तरह उड़ते हुए,
जैसे अपने भय को छिपाने के लिए समुद्र की
स्‍याह गहराइयों में खुशी से समा जायेंगी।
ग्रेब पक्षी भी बिलख रहे हैं।
संघर्ष के संज्ञाहीन चरम आह्लाह को
वे क्‍या जानेंॽ
बिजली की तड़प उनकी जान सोख लेती है।
बुद्धू पेंगुइन
चट्टानों की दरारों में दुबक रहे हैं,
जबकि अकेला तूफानी पितरेल ही
समुद्र के ऊपर
रूपहले झाग उगलती
फनफनाती लहरों के ऊपर
गर्व से मंडरा रहा है!
तूफान के बादल
समुद्र की सतह पर घिरते आ रहे हैं
बिजली कड़कती है।
अब समुद्र की लहरें
हवा के झोंको के विरूद्ध
भयानक युद्ध करती हैं,
हवा के झोंके अपनी सनक में उन्‍हें
लौह-आलिंगन में जकड़ उस समूची
मरकत राशि को चट्टानों पर दे मारते हैं
और वह चूर-चूर हो जाती है।
तूफानी पितरेल पक्षी चक्‍कर काट रहा है,
चीत्‍कार कर रहा है
अन्‍धकार चीरती विद्युत रेखा की भान्ति,
तीर की तरह
तूफान के बादलों को चीरता हुआ
तेज धार की भान्ति पानी को काटता हुआ।
दानव की भान्ति,
तूफान के काले दानव की तरह
निरन्‍तर हंसता, निरन्‍तर सुबकता
वह बढा जा रहा है-वह हंसता है
तूफानी बादलों पर और सुबकता है
अपने आनन्‍दातिरेक से!
बिजली की तड़क में चतुर दानव
पस्‍ती के मन्‍द स्‍वर सुनता है।
उसका विश्‍वास है कि बादल
सूरज की सत्‍ता मिटा नहीं सकते,
कि तूफान के बादल सूरज की सत्‍ता को
कदापि, कदापि नहीं मिटा सकेंगे।
समुद्र गरजता है… बिजली तड़कती है
समुद्र के व्‍यापक विस्‍तार के ऊपर
तूफान के बादलों में
काली-नीली बिजली कौंधती है,
लहरें उछलकर विद्युत अग्निवाणों को
दबोचती और ठण्‍डा कर देती हैं,
और उनके सर्पिल प्रतिबिम्‍ब,
हांफते और बुझते
समुद्र की गहराइयों में समा जाते हैं।
तूफान! शीघ्र ही तूफान टूट पड़ेगा!
फिर भी तूफानी पितरेल पक्षी गर्व के साथ
बिजली के कौंधों के बीच गरजते-चिंघाड़ते
समुद्र के ऊपर मंडरा रहा है
और उसके चीत्‍कार में
चरम आह्लाद के प्रतिध्‍वनि है-
विजय की भविष्‍यवाणी की भान्ति….
आए तूफान,
अपनी पूरी सनक के साथ आए।

मक्सिम गोर्की की कहानी "हड़ताल"

 

नेपल्ज़ के ट्राम-कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी। रिव्येरा कयाया सड़क की पूरी लंबाई में ट्राम के ख़ाली डिब्बे खड़े थे और विजय-चौक में ड्राइवरों तथा कंडक्टरों की भीड़ जमा थी – बड़े ही ख़ुशमिज़ाज, हो-हल्ला करने वाले और पारे की तरह चंचल नेपल्ज़वासियों की भीड़। इन लोगों के सिरों और बाग़ के जंगले के ऊपर तलवार की तरह पतली फ़व्वारे की धार हवा में चमक रही थी। जिन लोगों को इस बड़े नगर के सभी भागों में काम-काज से जाना था, उनकी भारी भीड़ शत्रुता की भावना अनुभव करते हुए इन हड़तालियों को घेरे थी। ऐसे सभी कारिंदे, कारीगर, छोटे-मोटे व्यापारी और दर्जी आदि हड़तालियों को ऊँचे-ऊँचे और खीझते हुए भला-बुरा कह रहे थे। ग़ुस्से से भरे शब्द, चुभते व्यंग्य-वाक्य हवा में गूँज रहे थे, हाथ लगातार लहरा रहे थे जिनकी मदद से नेपल्ज़वासी कभी न रुकनेवाली अपनी ज़बान की तरह ही बहुत अभिव्यक्तिपूर्ण तथा अच्छे ढंग से अपने को व्यक्त करते हैं।

सागर की ओर से मंद-मंद समीर बह रहा था। नगर-उपवन के बहुत बड़े-बड़े ताड़ वृक्ष गहरे हरे रंग की अपनी शाखाओं के पंखों को धीरे-धीरे हिला रहे थे। इन ताड़ वृक्षों के तने भीमकाय हाथियों के भद्दे पैरों से बहुत मिलते-जुलते थे। बच्चे – नेपल्ज़ की सड़कों-गलियों के अधनंगे बच्चे – गौरैयों की तरह फुदक रहे थे, हवा को अपनी किलकारियों और ठहाकों से गुँजा रहे थे। नक्काशी की प्राचीन कलाकृति से मिलता-जुलता शहर सूरज की किरणों में नहाया हुआ था, पूरे का पूरा मानो आर्गन बाजे के संगीत में डूबा था। खाड़ी की नीली लहरें तट-बँध से टकराती थीं, खंजड़ी जैसी छनक पैदा करती हुई लोगों के शोर और चीख़-चिल्लाहट का साथ देती थीं। भीड़ की ग़ुस्से भरी आवाज़ों का लगभग जवाब दिए बिना हड़ताली एक-दूसरे के साथ सटते जाते थे, बाग़ के जंगले पर चढ़कर लोगों के सिरों के ऊपर से सड़क की ओर बेचैनी से देखते थे और कुत्तों से घिरे हुए भेड़ियों जैसे लगते थे। सभी यह जानते थे कि एक जैसी वर्दी पहने हुए हड़ताली इस दृढ़ निर्णय के सूत्र में कसकर बँधे हुए हैं कि किसी भी हालत में क़दम पीछे नहीं हटाएँगे और भीड़ को इस बात से और भी अधिक ग़ुस्सा आ रहा था। किंतु भीड़ में कुछ दार्शनिक क़िस्म के लोग भी थे, जो बड़े इत्मीनान से सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए हड़ताल के बहुत ही कट्टर विरोधियों के साथ इस प्रकार तर्क-वितर्क कर रहे थे –

"अजी महानुभाव! अगर बच्चों को सेवैयाँ तक खिलाने को पैसे काफ़ी न हों तो आदमी करे भी तो क्या?"

नगरपालिका के बने-ठने पुलिसवाले दो-दो, तीन-तीन की टोलियों में खड़े हुए इस बात की ओर ध्यान दे रहे थे कि लोगों की भीड़ के कारण ट्रामों की गतिविधि में बाधा न पड़े। वे कड़ाई से तटस्थता का अनुकरण कर रहे थे, हड़तालियों तथा हड़ताल-विरोधियों को एक जैसी शांत नज़र से देखते थे। और जब चीख़-चिल्लाहट तथा हाव-भाव बहुत ही उग्र रूप धारण कर लेते थे, तो दोनों पक्षों का ख़ुशमिज़ाजी से मज़ाक़ उड़ाते थे। कोई गंभीर भिड़ंत हो जाने की हालत में दख़ल देने को तैयार फ़ौजी-पुलिस के दस्ते छोटी-छोटी और हल्की-हल्की बंदूक़ें हाथ में लिए हुए पास की तंग-सी गली के घरों की दीवार के साथ सटे खड़े थे। तिकोने टोप, छोटे-छोटे लबादे और पतलूनों पर रक्त की दो धाराओं जैसी पट्टियोंवाले पतलून पहने ये लोग ख़ासे मनहूस लग रहे थे।

आपसी तू-तू मैं-मैं, ताने-बोलियाँ, व्यंग और तर्क-वितर्क – अचानक यह सब कुछ बंद हो गया, लोगों में एक नई, मानो शांति देनेवाली भावना की लहर-सी दौड़ गई, हड़तालियों के चेहरों पर अधिक गंभीरता छा गई, साथ ही वे एक-दूसरे के अधिक निकट हो गए और भीड़ चिल्ला उठी –

"फ़ौजी आ गए!"

हड़तालियों का मज़ाक़ उड़ाती और किलकारी भरी सीटियाँ सुनाई दीं, अभिवादन के नारे गूँज उठे और हल्के भूरे रंग का सूट तथा पनामा टोपी पहने कोई मोटा-सा आदमी पत्थरों की सड़क पर पाँव बजाता हुआ उछलने-कूदने लगा। कंडक्टर और ट्राम-ड्राइवर भीड़ को चीरते हुए धीरे-धीरे ट्रामों की तरफ़ बढ़ने लगे, उनमें से कुछेक तो पायदानों पर चढ़ भी गए – वे पहले से भी ज़्यादा संजीदा हो गए थे और भीड़ की आवाजों का कठोरता से जवाब देते हुए उसे रास्ता देने को मजबूर कर रहे थे। ख़ामोशी छा गई।

तटवर्ती सान्टा लुचीया की ओर से भूरी वर्दियाँ पहने छोटे-छोटे फ़ौजी नाच की तरह हल्के-फुल्के क़दम बढ़ाते, पाँवों से लयबद्ध आवाज़ पैदा करते और बाएँ हाथों को एक ही ढंग से यंत्रवत हिलाते हुए चले आ रहे थे। वे मानो टीन के बने हुए और चाबी से चलने वाले खिलौनों की तरह आसानी से टूट जाने वाले प्रतीत हो रहे थे। त्योरियाँ चढ़ाए और होंठों पर तिरस्कारपूर्वक बल डाले हुए ऊँचे क़द का एक सुंदर अफ़सर इनका नेतृत्व कर रहा था। ऊँचा टोप पहने, लगातार कुछ बोलता और हाथों के असंख्य संकेतों से हवा को चीरता हुआ एक मोटा-सा आदमी उसके साथ-साथ उछलता और दौड़ता चला आ रहा था।

भीड़ तेज़ी से ट्रामों से दूर हट गई – भूरे रंग की माला के मनकों की तरह फ़ौजी पायदानों के पास रुकते हुए, जहाँ हड़ताली खड़े थे, डिब्बों के निकट बिखर गए।

ऊँचा टोप पहनेवाले को घेरे हुए कुछ अन्य धीर-गंभीर लोग हाथों को ज़ोर से हिलाते हुए चिल्ला रहे थे –

"आख़ि‍री बार – Ultima volta! सुन लिया?"

अफ़सर एक ओर को सिर झुकाए हुए ऊब-भरे ढंग से अपनी मूँछों पर ताव दे रहा था। ऊँचे टोप को हिलाता और भागता हुआ वह व्यक्ति उसके पास आया और उसने खरखरी आवाज़ में चिल्लाकर कुछ कहा। अफ़सर ने तिरछी नज़र से उसकी तरफ़ देखा, तनकर खड़ा हो गया, उसने छाती को अकड़ाया और ऊँची आवाज़ में आदेश देने लगा।

ऐसा होते ही फ़ौजी उछलकर ट्रामों के पायदानों पर दो-दो की संख्या में चढ़ने लगे और इसी समय ट्राम-ड्राइवर और कंडक्टर नीचे कूद गए।

भीड़ को यह दिलचस्प मज़ाक़-सा प्रतीत हुआ – लोग चीख़ने-चिल्लाने, सीटियाँ बजाने और ठहाके लगाने लगे। किंतु यह सब एकाएक शांत हो गया और लोग गंभीर तथा तनावपूर्ण चेहरे बनाए और हैरानी से आँखें फैलाए हुए भारी मन से ट्रामों से पीछे हटने लगे और सबसे आगे खड़ी ट्राम की ओर बढ़ चले।

सभी को यह साफ़ दिखाई देने लगा कि ट्राम के पहियों से दो क़दम की दूरी पर पके बालोंवाला एक ड्राइवर, जिसका चेहरा फ़ौजियों जैसा था, सिर से टोपी उतारकर लाइनों के आर-पार चित लेटा हुआ है और चुनौती देती-सी उसकी मूँछें आकाश को ताक रही हैं। बंदर की तरह चुस्त-फुर्तीला, एक नाटा-सा तरुण भी उसके पास ही लेट गया और उसके बाद अन्य लोग भी इत्मीनान से वहीं लेटते चले गए।

भीड़ में दबी-घुटी भनभनाहट थी, मादोन्ना का आह्नान करती हुई भयभीत-सी आवाजें गूँज उठती थीं, कुछ लोग झल्लाकर भला-बुरा भी कहते, औरतें चीख़तीं और आहें भरतीं और इस दृश्य से आश्चर्यचकित छोकरे रबड़ के गेंदों की तरह उछल रहे थे।

ऊँचा टोप पहने व्यक्ति सिसकती-सी आवाज़ में कुछ चिल्लाया, अफ़सर ने उसकी ओर देखकर कंधे झटके – अफ़सर को ड्राइवरों की जगह पर अपने फ़ौजी तैनात करने चाहिए थे, किंतु उसके पास हड़तालियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश-पत्र नहीं था।

तब ऊँचे टोपवाला व्यक्ति जी-हुजूरी करनेवाले कुछ आदमियों को साथ लिए हुए फ़ौजी पुलिसियों की ओर लपका – वे अपनी जगहों से हिले, पटरियों पर लेटे हुए लोगों के पास आए और उन्हें वहाँ से उठाने के इरादे से उन पर झुक गए।

कुछ हाथापाई और झगड़ा हुआ, लेकिन अचानक धूल से लथपथ दर्शकों की सारी भीड़ हिली-डुली, चीख़ी-चिल्लाई और ट्राम की पटरियों की ओर भाग चली। पनामा टोपी पहने हुए व्यक्ति ने टोपी सिर से उतारी, उसे हवा में उछाला, हड़ताली का कंधा थपथपाकर तथा ऊँची आवाज़ में उसे प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहकर सबसे पहले उसके निकट लेट गया।

इसके बाद खुशमिज़ाज और शोर मचाते हुए कुछ लोग, ऐसे लोग जो दो मिनट पहले तक वहाँ नहीं थे, ट्राम की पटरियों पर ऐसे गिरने लगे, मानो उनकी टाँगें काट दी गई हों। वे ज़मीन पर लेटते, हँसते हुए एक-दूसरे की ओर देखकर मुँह बनाते और चिल्लाकर अफ़सर से कुछ कहते जो ऊँचे टोपवाले व्यक्ति के सामने अपने दस्ताने फटकारता, व्यंग्यपूर्वक हँसता और सुंदर सिर को झटकता हुआ कुछ कह रहा था ।

अधिकाधिक लोग पटरियों पर लेटते जाते थे, औरतें अपनी टोकरियाँ और पोटलियाँ फेंक रही थीं, हँसी से लोट-पोट होते हुए छोकरे ठिठुरे पिल्लों की तरह गुड़ी-मुड़ी हो रहे थे और अच्छे कपड़े पहने लोग भी दाएँ-बाएँ करवट लेते हुए धूल में लोट रहे थे।

पहली ट्राम से पाँच फौजियों ने बहुत-से लोगों को पहियों के नीचे लेटे देखा, हँसी के मारे उनका बुरा हाल हो रहा था, वे हैंडलों को थामकर डोलते हुए, सिरों को पीछे की ओर झटकते तथा आगे की तरफ़ झुकते हुए ज़ोर के ठहाके लगा रहे थे। अब वे टीन के बने खिलौनों जैसे बिल्कुल नहीं लग रहे थे।

आधा घंटे के बाद शोर मचाती, चीं-चूँ की आवाज़ पैदा करती हुई ट्रामें सारे नेपल्ज़ में चल रही थीं, उनके पायदानों पर ख़ुशी से मुस्कराते हुए विजेता खड़े थे और डिब्बों के साथ-साथ चलते हुए भी वही बड़ी शिष्टता से पूछ रहे थे –

"टिकट?!"

उनकी ओर लाल और पीले नोट बढ़ाते हुए लोग आँखें मिचमिचाते थे, मुस्कराते थे, ख़ुशमिज़ाजी से बड़बड़ाते थे।

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 5 ♦ मार्च 2021 में प्रकाशित

मक्सिम गोर्की (अक्टूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद)

'बीता कल महान झूठ का दिन था-उसकी सत्ता का अन्तिम दिन।'

"युगों-युगों से इन्सान मकड़ी की तरह, यत्नपूर्वक, तार-दर-तार, पूरी सावधानी से सांसारिक जीवन का मज़बूत मकड़जाल बुनता गया, और झूठ व लालच से इसके पोर-पोर को अधिकाधिक सिक्त करता गया। इन्सान अपने सगे-सहोदर इन्सानों के रक्त-मांस पर पलता रहा। उत्पादन के साधन इन्सानों के दमन का साधन थे - इस मानवद्वेषी झूठ को निर्विकल्प, निर्विवाद सत्य समझा जाता रहा।

और कल यह रास्ता मानवजाति को विश्वयुद्ध के पागलपन तक ले गया। इस दुःस्वप्न की लाल दमक में इस पुरातन झूठ की घिनौनी नग्नता बेनक़ाब हो गयी। अब हम ध्वस्त हो चुकी पुरानी दुनिया को देख सकते हैं। इसके पुराने रहस्य उघड़ चुके हैं और आज अन्धों तक की आँखें खुल गयी हैं और वे अतीत की अवर्णनीय कुरूपता को देख रहे हैं।"

'आज उस झूठ का हिसाब लगाने का दिन है जो कल राज कर रहा था।'

"जनता के सब्र के उग्र विस्फोट ने जीवन के जीर्ण-शीर्ण निज़ाम को ध्वस्त कर दिया है और अब वह अपने पुराने रूप में दुबारा कभी स्थापित नहीं हो सकता। पुराने जीर्ण-शीर्ण अतीत का पूरी तरह नाश नहीं हुआ है,लेकिन आने वाले कल में यह हो जायेगा।

आज काफ़ी ख़ौफ़ छाया हुआ है लेकिन यह स्वाभाविक है और इसे समझा जा सकता है। क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि पुरानी व्यवस्था के तेज़ ज़हर -शराब और सिफ़लिस - से ग्रस्त लोग उदार नहीं हो सकते? क्या यह स्वाभाविक नहीं कि लोग आज भी चोरी करेंगे -अगर चोरी ही कल का बुनियादी नियम रही है?

 क्या यह स्वाभाविक नहीं है कि दसियों, सैकड़ों, हज़ारों लोग मारे जायेंगे, अगर वे बरसों से दसियों लाख की तादाद में मारे जाने के आदी हो गये हैं? आज का बोया बीज कल की फ़सल बनता है।

हमें समझना चाहिए कि आज की गर्द और कीचड़ और अव्यवस्था के बीच अतीत के मज़बूत, लौह जाल से मानवजाति की मुक्ति का महान कार्य शुरू हो चुका है। यह बच्चे के प्रसव जितना ही कठिन और पीड़ादायक है; लेकिन यह कल की बुराई की मृत्यु है, जो कल के मानव के साथ अपनी अन्तिम साँसें ले रही है।

ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि न्याय की जीत की निर्णायक लड़ाई में आगे बढ़ रहे लोगों का नेतृत्व सबसे कम अनुभवी और सबसे कमज़ोर योद्धा, यानी रूसी मेहनतकश, कर रहे हैं - एक पिछड़े देश के लोग, दूसरे किसी भी देश के मुक़ाबले अपने अतीत की मार से बहुत अधिक जर्जर। अभी कल तक सारी दुनिया उन्हें अर्द्धबर्बर के रूप में देखती थी, और आज प्रायः भूख से मरते हुए वे पुराने और अनुभवी सैनिकों के पूरे जोशो-ख़रोश और साहस से जीत या मृत्यु की ओर आगे बढ़ रहे हैं।

हर उस आदमी को जो सच्चे मन से यक़ीन करता है कि स्वतन्त्रता, सुन्दरता और तर्कसंगत जीवन जीने की मानवजाति की आकांक्षा बेकार का सपना नहीं, बल्कि वह असली ताक़त है जो जीवन के नये-नये रूपों का सृजन कर सकती है, एक ऐसा उत्तोलक है जो पूरी दुनिया को उठा सकता है -ऐसे हर ईमानदार आदमी को आज रूस के उत्कट क्रान्तिकारियों द्वारा की जा रही गतिविधियों के सार्वत्रिक महत्व को स्वीकारना ही चाहिए।

क्रान्ति की व्याख्या मानवजाति के शिक्षकों द्वारा प्रणीत और प्रतिपादित महान विचारों और धारणाओं को जीवन में समाहित करने की दिशा में किये गये एक महान प्रयास के रूप में की जानी चाहिए। कल तक यूरोप के समाजवादी विचार रूसी जनता का मार्गदर्शन करते थे; आज रूस का मेहनतकश यूरोपीय विचारों की विजय के लिए उत्कट प्रयास कर रहा है।

अगर दुश्मनों से घिरे, भूख से निढाल, और संख्या में कम, ईमानदार रूसी क्रान्तिकारी पराजित हो जाते हैं तो इस भीषण विपदा की ज़िम्मेदारी यूरोप के पूरे मेहनतकश वर्ग के कन्धों पर भारी पड़ेगी।

रूसी मज़दूर को यक़ीन है कि उसके आत्मिक भाई-बन्धु रूसी क्रान्ति का गला घोंटने की इजाज़त नहीं देंगे, कि वे उस पुरानी व्यवस्था को नया जीवनदान दिये जाने की इजाज़त नहीं देंगे जो मर रही है, और जो तिरोहित हो जायेगी – बशर्ते कि यूरोप का क्रान्तिकारी विचार आज के महती कार्यभारों को समझे।

आइये और हमारे साथ नये जीवन की तरफ़ प्रयाण कीजिये, जिसे सिरजने का काम हम कर रहे हैं, और इसके लिए न ख़ुद को रत्तीभर छूट दे रहे हैं और न ही किसी व्यक्ति या किसी चीज़ के साथ ढिलाई बरत रहे हैं। श्रम के महान आनन्द और प्रगति की ज्वलन्त कामना में चूकें करते, यातनाएँ सहते, अपने कार्यों की ईमानदार विवेचना का काम हम इतिहास पर छोड़ते हैं। पुरानी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष में और नयी व्यवस्था लाने के हमारे उद्यम में हमारा साथ दें। मुक्त और सुन्दर जीवन की ओर आगे बढ़ें!"

~मक्सिम गोर्की 

(अक्टूबर क्रान्ति के तुरन्त बाद)

मक्सिम गोर्की की कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं?"

मक्सिम गोर्की ने अपनी कहानी
"करोड़पति कैसे होते हैं?" में इस जमात की सोच और स्वरूप का क्या सटीक विवरण किया है, जरूर पढ़िए जी -

संयुक्त राज्य अमेरिका के इस्पात और तेल के सम्राटों और बाकी सम्राटों ने मेरी कल्पना को हमेशा तंग किया है। मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि इतने सारे पैसे वाले लोग सामान्य नश्वर मनुष्य हो सकते हैं।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि उनमें से हर किसी के पास कम से कम तीन पेट और डेढ़ सौ दाँत होते होंगे। मुझे यकीन था कि हर करोड़पति सुबह छः बजे से आधी रात तक खाना खाता रहता होगा। यह भी कि वह सबसे महँगे भोजन भकोसता होगा: बत्तखें, टर्की, नन्हे सूअर, मक्खन के साथ गाजर, मिठाइयाँ, केक और तमाम तरह के लज़ीज़ व्यंजन। शाम तक उसके जबड़े इतना थक जाते होंगे कि वह अपने नीग्रो नौकरों को आदेश देता होगा कि वे उसके लिए खाना चबाएँ ताकि वह आसानी से उसे निगल सके। आखिरकार जब वह बुरी तरह थक चुकता होगा, पसीने से नहाया हुआ, उसके नौकर उसे बिस्तर तक लाद कर ले जाते होंगे। और अगली सुबह वह छः बजे जागता होगा अपनी श्रमसाध्य दिनचर्या को दुबारा शुरू करने को।

 लेकिन इतनी ज़बरदस्त मेहनत के बावजूद वह अपनी दौलत पर मिलने वाले ब्याज का आधा भी खर्च नहीं कर पाता होगा।

 निश्चित ही यह एक मुश्किल जीवन होता होगा। लेकिन किया भी क्या जा सकता होगा? करोड़पति होने का फ़ायदा ही क्या अगर आप और लोगों से ज़्यादा खाना न खा सकें..?

 मुझे लगता था कि उसके अन्तर्वस्त्र बेहतरीन कशीदाकारी से बने होते होंगे। उसके जूतों के तलुवों पर सोने की कीलें ठुकी होती होंगी और हैट की जगह वह हीरों से बनी कोई टोपी पहनता होगा। उसकी जैकेट सबसे महँगी मखमल की बनी होती होगी। वह कम से कम पचास मीटर लम्बी होती होगी और उस पर सोने के कम से कम तीन सौ बटन लगे होते होंगे। छुट्टियों में वह एक के ऊपर एक आठ जैकेटें और छः पतलूनें पहनता होगा। यह सच है कि ऐसा करना अटपटा होने के साथ साथ असुविधापूर्ण भी होता होगा… लेकिन एक करोड़पति जो इतना रईस हो बाकी लोगों जैसे कपड़े कैसे पहन सकता है…

 करोड़पति की जेबें एक विशाल गड्ढे जैसी होती होंगी जिनमें वह समूचा चर्च, संसद की इमारत और अन्य छोटी-मोटी ज़रूरतों को रख सकता होगा। लेकिन जहाँ एक तरफ मैं सोचता था कि इन महाशय के पेट की क्षमता किसी बड़े समुद्री जहाज़ के गोदाम जितनी होती होगी मुझे इन साहब की टाँगों पर फिट आने वाली पतलून के आकार की कल्पना करने में थोड़ी हैरानी हुई। अलबत्ता मुझे यकीन था कि वह एक वर्ग मील से कम आकार की रज़ाई के नीचे नहीं सोता होगा। और अगर वह तम्बाकू चबाता होगा तो सबसे नफीस किस्म का और एक बार में एक या दो पाउण्ड से कम नहीं। अगर वह नसवार सूँघता होगा तो एक बार में एक पाउण्ड से कम नहीं। पैसा अपनेआप को खर्च करना चाहता है…

 उसकी उँगलियाँ अद्भुत तरीके से संवेदनशील होती होंगी और उनमें अपनी इच्छानुसार लम्बा हो जाने की जादुई ताकत होती होगी: मिसाल के तौर पर वह साइबेरिया में अंकुरित हो रहे एक डॉलर पर न्यूयार्क से निगाह रख सकता था और अपनी सीट से हिले बिना वह बेरिंग स्टेट तक अपना हाथ बढ़ाकर अपना पसन्दीदा फूल तोड़ सकता था।

 अटपटी बात यह है कि इस सब के बावजूद मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाया कि इस दैत्य का सिर कैसा होता होगा। मुझे लगा कि वह सिर मांसपेशियों और हड्डियों का ऐसा पिण्ड होता होगा जिसे फ़कत हर एक चीज़ से सोना चूस लेने की इच्छा से प्रेरणा मिलती होगी। लब्बोलुआब यह कि करोड़पति की मेरी छवि एक हद तक अस्पष्ट थी। संक्षेप में कहूँ तो सबसे पहले मुझे दो लम्बी लचीली बाँहें नजर आती थीं। उन्होंने ग्लोब को अपनी लपेट में ले रखा था और उसे अपने मुँह की भूखी गुफा के पास खींच रखा था जो हमारी धरती को चूसता-चबाता जा रहा था: उसकी लालचभरी लार उसके ऊपर टपक रही थी जैसे वह तन्दूर में सिंका कोई स्वादिष्ट आलू हो।

 आप मेरे आश्चर्य की कल्पना कर सकते हैं जब एक करोड़पति से मिलने पर मैंने उसे एक निहायत साधारण आदमी पाया।

 एक गहरी आरामकुर्सी पर मेरे सामने एक बूढ़ा सिकुड़ा-सा शख्स बैठा हुआ था जिसके झुरीर्दार भूरे हाथ शान्तिपूर्वक उसकी तोंद पर धरे हुए थे। उसके थुलथुल गालों पर करीने से हज़ामत बनायी गयी थी और उसका ढुलका हुआ निचला होंठ बढ़िया बनी हुई उसकी बत्तीसी दिखला रहा था जिसमें कुछेक दांत सोने के थे। उसका रक्तहीन और पतला ऊपरी होंठ उसके दाँतों से चिपका हुआ था और जब वह बोलता था उस ऊपरी होंठ में ज़रा भी गति नहीं होती थी। उसकी बेरंग आँखों के ऊपर भौंहें बिल्कुल नहीं थीं और सूरज में तपे हुए उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देखकर महसूस होता था कि उसके चेहरे पर थोड़ी और त्वचा होती तो शायद बेहतर होता या लाली लिए हुए वह गतिहीन और मुलायम चेहरा किसी नवजात शिशु के जैसा लगता था। यह तय कर पाना मुश्किल था कि यह प्राणी दुनिया में अभी अभी आया है या यहाँ से जाने की तैयारी में है…

 उसकी पोशाक भी किसी साधारण आदमी की ही जैसी थी। उसके बदन पर सोना घड़ी, अँगूठी और दाँतों तक सीमित था। कुल मिलाकर शायद वह आधे पाउण्ड से कम था। आम तौर पर वह यूरोप के किसी कुलीन घर के पुराने नौकर जैसा नज़र आ रहा था…

जिस कमरे में वह मुझसे मिला उसमें सुविधा या सुन्दरता के लिहाज़ से कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। फर्नीचर विशालकाय था पर बस इतना ही था।

 उसके फर्नीचर को देखकर लगता था कि कभी-कभी हाथी उसके घर तशरीफ लाया करते थे।

"क्या आप… आप… ही करोड़पति हैं..?" अपनी आँखों पर अविश्वास करते हुए मैंने पूछा।

"हाँ, हाँ!" उसने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।

मैंने उसकी बात पर विश्वास करने का नाटक किया और फैसला किया कि उसकी गप्प का उसी वक्त इम्तहान ले लूँ।

"आप नाश्ते में कितना गोश्त खा सकते हैं..?" मैंने पूछा।

"मैं गोश्त नहीं खाता," उसने घोषणा की, "बस सन्तरे की एक फाँक, एक अण्डा और चाय का छोटा प्याला…"

बच्चों जैसी उसकी आँखों में धुँधलाए पानी की दो बड़ी बूँदों जैसी चमक आयी और मैं उनमें झूठ का नामोनिशान नहीं देख पा रहा था।

"चलिए ठीक है," मैंने संशयपूर्वक बोलना शुरू किया। "मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे ईमानदारी से बताइए कि आप दिन में कितनी बार खाना खाते हैं..?"

"दिन में दो बार," उसने ठण्डे स्वर में कहा। "नाश्ता और रात का खाना। मेरे लिए पर्याप्त होता है। रात को खाने में मैं थोड़ा सूप, थोड़ा चिकन और कुछ मीठा लेता हूँ। कोई फल। एक कप कॉफी। एक सिगार…"

मेरा आश्चर्य कद्दू की तरह बढ़ रहा था। उसने मुझे सन्तों की-सी निगाह से देखा। मैं साँस लेने को ठहरा और फिर पूछना शुरू कियाः

"लेकिन अगर यह सच है तो आप अपने पैसे का क्या करते हैं..?"

उसने अपने कन्धों को ज़रा उचकाया और उसकी आँखें अपने गड्ढों में कुछ देर लुढ़कीं और उसने जवाब दियाः

"मैं उसका इस्तेमाल और पैसा बनाने में करता हूँ…"

"किसलिए..?"

"ताकि मैं और अधिक पैसा बना सकूँ…"

"लेकिन किसलिए..?" मैंने हठपूर्वक पूछा।

वह आगे की तरफ झुका और अपनी कोहनियों को कुर्सी के हत्थे पर टिकाते हुए तनिक उत्सुकता से पूछाः

"क्या आप पागल हैं..?"

"क्या आप पागल हैं..?" मैंने पलटकर जवाब दिया।

बूढ़े ने अपना सिर झुकाया और सोने के दाँतों के बीच से धीरे-धीरे बोलना शुरू कियाः

"तुम बड़े दिलचस्प आदमी हो… मुझे याद नहीं पड़ता मैं कभी तुम्हारे जैसे आदमी से मिला हूँ…"

उसने अपना सिर उठाया और अपने मुँह को करीब-करीब कानों तक फैलाकर ख़ामोशी के साथ मेरा मुआयना करना शुरू किया। उसके शान्त व्यवहार को देख कर लगता था कि स्पष्टतः वह अपनेआप को सामान्य आदमी समझता था। मैंने उसकी टाई पर लगी एक पिन पर जड़े छोटे-से हीरे को देखा। अगर वह हीरा जूते की एड़ी जितना बड़ा होता तो मैं शायद जान सकता था कि मैं कहाँ बैठा हूँ।

"और अपने खुद के साथ आप क्या करते हैं..?"

"मैं पैसा बनाता हूँ।" अपने कन्धों को तनिक फैलाते हुए उसने जवाब दिया।

"यानी आप नकली नोटों का धन्धा करते हैं" मैं ख़ुश होकर बोला मानो मैं रहस्य पर से परदा उठाने ही वाला हूँ। लेकिन इस मौके पर उसे हिचकियाँ आनी शुरू हो गयीं। उसकी सारी देह हिलने लगी जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे गुदगुदी कर रहा हो। वह अपनी आँखों को तेज़-तेज़ झपकाने लगा।

"यह तो मसखरापन है," ठण्डा पड़ते हुए उसने कहा और मेरी तरफ एक सन्तुष्ट निगाह डाली। "मेहरबानी कर के मुझसे कोई और बात पूछिए," उसने निमंत्रित करते हुए कहा और किसी वजह से अपने गालों को जरा सा फुलाया।

मैंने एक पल को सोचा और निश्चित आवाज़़ में पूछाः

"और आप पैसा कैसे बनाते हैं..?"

"अरे हाँ! ये ठीकठाक बात हुई!" उसने सहमति में सिर हिलाया। "बड़ी साधारण-सी बात है। मैं रेलवे का मालिक हूँ। किसान माल पैदा करते हैं। मैं उनका माल बाजार में पहुँचाता हूँ। आपको बस इस बात का हिसाब लगाना होता है कि आप किसान के वास्ते बस इतना पैसा छोड़ें कि वह भूख से न मर जाये और आपके लिए काम करता रहे। बाकी का पैसा मैं किराये के तौर पर अपनी जेब में डाल लेता हूँ। बस इतनी-सी बात है।"

"और क्या किसान इससे सन्तुष्ट रहते हैं..?"

"मेरे ख्याल से सारे नहीं रहते!" बालसुलभ साधारणता के साथ वह बोला "लेकिन वो कहते हैं ना, लोग कभी सन्तुष्ट नहीं होते। ऐसे पागल लोग आपको हर जगह मिल जायेंगे जो बस शिकायत करते रहते हैं…"

"तो क्या सरकार आपसे कुछ नहीं कहती..?" आत्मविश्वास की कमी के बावजूद मैंने पूछा।

"सरकार..?" उसकी आवाज़ थोड़ा गूँजी फिर उसने कुछ सोचते हुए अपने माथे पर उँगलियाँ फिरायीं। फिर उसने अपना सिर हिलाया जैसे उसे कुछ याद आया होः "अच्छा… तुम्हारा मतलब है वो लोग… जो वाशिंगटन में बैठते हैं..? ना वो मुझे तंग नहीं करते। वो अच्छे बन्दे हैं… उनमें से कुछ मेरे क्लब के सदस्य भी हैं। लेकिन उनसे बहुत ज़्यादा मुलाकात नहीं होती… इसी वजह से कभी-कभी मैं उनके बारे में भूल जाता हूँ। ना वो मुझे तंग नहीं करते।" उसने अपनी बात दोहरायी और मेरी तरफ उत्सुकता से देखते हुए पूछाः

"क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ऐसी सरकारें भी होती हैं जो लोगों को पैसा बनाने से रोकती हैं..?"

मुझे अपनी मासूमियत और उसकी बुद्धिमत्ता पर कोफ्त हुई।

"नहीं," मैंने धीमे से कहा "मेरा ये मतलब नहीं था… देखिए सरकार को कभी-कभी तो सीधी-सीधी डकैती पर लगाम लगानी चाहिए ना…"

"अब देखिए!" उसने आपत्ति की। "ये तो आदर्शवाद हो गया। यहाँ यह सब नहीं चलता। व्यक्तिगत कार्यों में दखल देने का सरकार को कोई हक नहीं…"

उसकी बच्चों जैसी बुद्धिमत्ता के सामने मैं खुद को बहुत छोटा पा रहा था।

"लेकिन अगर एक आदमी कई लोगों को बर्बाद कर रहा हो तो क्या वह व्यक्तिगत काम माना जायेगा..?" मैंने विनम्रता के साथ पूछा।

"बबार्दी..?" आँखें फैलाते हुए उसने जवाब देना शुरू किया। "बर्बादी का मतलब होता है जब मज़दूरी की दरें ऊँची होने लगें। या जब हड़ताल हो जाये। लेकिन हमारे पास आप्रवासी लोग हैं। वो ख़ुशी-ख़ुशी कम मज़दूरी पर हड़तालियों की जगह काम करना शुरू कर देते हैं। जब हमारे मुल्क में बहुत सारे ऐसे आप्रवासी हो जायेंगे जो कम पैसे पर काम करें और ख़ूब सारी चीजें ख़रीदें तब सब कुछ ठीक हो जायेगा।"

वह थोड़ा-सा उत्तेजित हो गया था और एक बच्चे और बूढ़े के मिश्रण से कुछ कम नज़र आने लगा था। उसकी पतली भूरी उँगलियाँ हिलीं और उसकी रूखी आवाज़ मेरे कानों पर पड़पड़ाने लगीः

"सरकार..? ये वास्तव में दिलचस्प सवाल है। एक अच्छी सरकार का होना महत्वपूर्ण है। उसे इस बात का ख़्याल रहता है कि इस देश में उतने लोग हों जितनों की मुझे ज़रूरत है और जो उतना ख़रीद सकें जितना मैं बेचना चाहता हूँ; और मज़दूर बस उतने हों कि मेरा काम कभी न थमे। लेकिन उससे ज़्यादा नहीं! फिर कोई समाजवादी नहीं बचेंगे। और हड़तालें भी नहीं होंगी। और सरकार को बहुत ज़्यादा टैक्स भी नहीं लगाने चाहिए। लोग जो देना चाहें वह ले ले। इसको मैं कहता हूँ अच्छी सरकार।"

"वह बेवकूफ़ नहीं है। यह एक तयशुदा संकेत है कि उसे अपनी महानता का भान है।" मैं सोच रहा था। "इस आदमी को वाकई राजा ही होना चाहिए…"

"मैं चाहता हूँ," वह स्थिर और विश्वासभरी आवाज़ में बोलता गया "कि इस मुल्क में अमन-चैन हो। सरकार ने तमाम दार्शनिकों को भाड़े पर रखा हुआ है जो हर इतवार को कम से कम आठ घण्टे लोगों को यह सिखाने में ख़र्च करते हैं कि क़ानून की इज़्ज़त की जानी चाहिए। और अगर दार्शनिकों से यह काम नहीं होता तो सरकार फौज बुला लेती है। तरीका नहीं बल्कि नतीजा ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। ग्राहक और मज़दूर को कानून की इज़्ज़त करना सिखाया जाना चाहिए। बस!" अपनी उँगलियों से खेलते हुए उसने अपनी बात पूरी की।
...

"और धर्म के बारे में आप का क्या ख्याल है..?" अब मैंने प्रश्न किया जबकि वह अपना राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ष्ट कर चुका था।

"अच्छा!" उसने उत्तेजना के साथ अपने घुटनों को थपथपाया और बरौनियों को झपकाते हुए कहा: "मैं इस बारे में भली बातें सोचता हूँ। लोगों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। इस बात पर मेरा पूरा यकीन है। सच बताऊँ तो मैं ख़ुद इतवारों को चर्च में भाषण दिया करता हूँ… बिल्कुल सच कह रहा हूँ आपसे।"

"और आप क्या कहते हैं अपने भाषणों में..?" मैंने सवाल किया।

"वही सब जो एक सच्चा ईसाई चर्च में कह सकता है!" उसने बहुत विश्वस्त होकर कहा। "देखिए मैं एक छोटे चर्च में भाषण देता हूँ और ग़रीब लोगों को हमेशा दयापूर्ण शब्दों और पितासदृश सलाह की ज़रूरत होती है… मैं उनसे कहता हूँ…"

"ईसामसीह के बन्दो! ईर्ष्या के दैत्य के लालच से खुद को बचाओ और दुनियादारी से भरी चीज़ों को त्याग दो। इस धरती पर जीवन संक्षिप्त होता है: बस चालीस की आयु तक आदमी अच्छा मज़दूर बना रह सकता है। चालीस के बाद उसे फैक्ट्रियों में रोज़गार नहीं मिल सकता। जीवन कतई सुरक्षित नहीं है। काम के वक्त आपके हाथों की एक गलत हरकत और मशीन आपकी हड्डियों को कुचल सकती है। लू लग गयी और आपकी कहानी खत्म हो सकती है। हर कदम पर बीमारी और दुर्भाग्य कुत्ते की तरह आपका पीछा करते रहते हैं। एक ग़रीब आदमी किसी ऊँची इमारत की छत पर खड़े अन्धे आदमी जैसा होता है। वह जिस दिशा में जायेगा अपने विनाश में जा गिरेगा जैसा जूड के भाई फरिश्ते जेम्स ने हमें बताया है। भाइयो, आप को दुनियावी चीज़ों से बचना चाहिए। वह मनुष्य को तबाह करने वाले शैतान का कारनामा है। ईसामसीह के प्यारे बच्चो, तुम्हारा साम्राज्य तुम्हारे परमपिता के साम्राज्य जैसा है। वह स्वर्ग में है। और अगर तुम में धैर्य होगा और तुम अपने जीवन को बिना शिकायत किये, बिना हल्ला किये बिताओगे तो वह तुम्हें अपने पास बुलायेगा और इस धरती पर तुम्हारी कड़ी मेहनत के परिणाम के बदले तुम्हें ईनाम में स्थाई शान्ति बख़्शेगा। यह जीवन तुम्हारी आत्मा की शुद्धि के लिए दिया गया है और जितना तुम इस जीवन में सहोगे उतना ज़्यादा आनन्द तुम्हें मिलेगा जैसा कि ख़ुद फरिश्ते जूड ने बताया है।"

उसने छत की तरफ इशारा किया और कुछ देर सोचने के बाद ठण्डी और कठोर आवाज़ में कहाः

"हाँ, मेरे प्यारे भाइयो और बहनो, अगर आप अपने पड़ोसी के लिए चाहे वह कोई भी हो, इसे कुर्बान नहीं करते तो यह जीवन खोखला और बिल्कुल साधारण है। ईर्ष्या के राक्षस के सामने अपने दिलों को समर्पित मत करो। किस चीज से ईर्ष्या करोगे..? जीवन के आनन्द बस धोखा होते हैं; राक्षस के खिलौने। हम सब मारे जायेंगे। अमीर और ग़रीब, राजा और कोयले की खान में काम करने वाले मज़दूर, बैंकर और सड़क पर झाड़ू लगाने वाले। यह भी हो सकता है कि स्वर्ग के उपवन में आप राजा बन जायें और राजा झाड़ू लेकर रास्ते से पत्तियाँ साफ कर रहा हो और आपकी खायी हुई मिठाइयों के छिलके बुहार रहा हो। भाइयो, यहाँ इस धरती पर इच्छा करने को है ही क्या..? पाप से भरे इस घने जंगल में जहाँ आत्मा बच्चों की तरह पाप करती रहती है। प्यार और विनम्रता का रास्ता चुनो और जो तुम्हारे नसीब में आता है उसे सहन करो। अपने साथियों को प्यार दो, उन्हें भी जो तुम्हारा अपमान करते हैं…"

उसने फिर से आँखें बन्द कर लीं और अपनी कुर्सी पर आराम से हिलते हुए बोलना जारी रखाः

"ईर्ष्या की उन पापी भावनाओं और लोगों की बात पर ज़रा भी कान न दो जो तुम्हारे सामने किसी की ग़रीबी और किसी दूसरे की सम्पन्नता का विरोधाभास दिखाती हैं। ऐसे लोग शैतान के कारिन्दे होते हैं। अपने पड़ोसी से ईर्ष्या करने से भगवान ने तुम्हें मना किया हुआ है। अमीर लोग भी निर्धन होते हैं: प्रेम के मामले में। ईसामसीह के भाई जूड ने कहा था अमीरों से प्यार करो क्योंकि वे ईश्वर के चहेते हैं। समानता की कहानियों और शैतान की बाकी बातों पर जरा भी ध्यान मत दो। इस धरती पर क्या होती है समानता? आपको अपने ईश्वर के सम्मुख एक-दूसरे के साथ अपनी आत्मा की शुद्धता की बराबरी करनी चाहिए। धैर्य के साथ अपनी सलीब धारण करो और आज्ञापालन करने से तुम्हारा बोझ हल्का हो जायेगा। ईश्वर तुम्हारे साथ है मेरे बच्चो और तुम्हें उसके अलावा किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है!"

बूढ़ा चुप हुआ और उसने अपने होंठों को फैलाया। उसके सोने के दाँत चमके और वह विजयी मुद्रा में मुझे देखने लगा। "आपने धर्म का बढ़िया इस्तेमाल किया," मैंने कहा। "हाँ बिल्कुल ठीक! मुझे उसकी कीमत पता है।" वह बोला, "मैं अपनी बात दोहराता हूँ कि गरीबों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। मुझे अच्छा लगता है यह। यह कहता है कि इस धरती पर सारी चीजें शैतान की हैं। और ऐ इन्सान, अगर तू अपनी आत्मा को बचाना चाहता है तो यहाँ धरती पर किसी भी चीज़ को छूने तक की इच्छा मत कर। जीवन के सारे आनन्द तुझे मौत के बाद मिलेंगे। स्वर्ग की हर चीज़ तेरी है। जब लोग इस बात पर विश्वास करते हैं तो उन्हें सम्हालना आसान हो जाता है। हाँ, धर्म एक चिकनाई की तरह होता है। और जीवन की मशीन को हम इससे चिकना बनाते रहें तो सारे पुर्जे ठीकठाक काम करते रहते हैं और मशीन चलाने वाले के लिए आसानी होती है…"

"यह आदमी वाकई में राजा है," मैंने फैसला किया।

"शायद आप विज्ञान के बारे में कुछ कहना चाहेंगे..?" मैंने शान्ति से सवाल किया।

"विज्ञान..?" उसने अपनी एक उँगली छत की तरफ उठायी। फिर उसने अपनी घड़ी बाहर निकाली, समय देखा और उसकी चेन को अपनी उँगली पर लपेटते हुए उसे हवा में उछाल दिया। फिर उसने एक आह भरी और कहना शुरू किया:

"विज्ञान… हाँ मुझे मालूम है। किताबें। अगर वे अमेरिका के बारे में अच्छी बातें करती हैं तो वे उपयोगी हैं। मेरा विचार है कि ये कवि लोग जो किताबें-विताबें लिखते हैं बहुत कम पैसा बना पाते हैं। ऐसे देश में जहाँ हर कोई अपने धन्धे में लगा हुआ है किताबें पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है…। हाँ और ये कवि लोग ग़ुस्से में आ जाते हैं कि कोई उनकी किताबें नहीं खरीदता। सरकार को लेखकों को ठीकठाक पैसा देना चाहिए। बढ़िया खाया-पिया आदमी हमेशा ख़ुश और दयालु होता है। अगर अमेरिका के बारे में किताबें वाकई ज़रूरी हैं तो अच्छे कवियों को भाड़े पर लगाया जाना चाहिए और अमरीका की ज़रूरत की किताबें बनायी जानी चाहिए… और क्या।"

"विज्ञान की आपकी परिभाषा बहुत संकीर्ण है।" मैंने विचार करते हुए कहा।

उसने आँखें बन्द कीं और विचारों में खो गया। फिर आँखें खोलकर उसने आत्मविश्वास के साथ बोलना शुरू किया:

"हाँ, हाँ… अध्यापक और दार्शनिक… वह भी विज्ञान होता है। मैं जानता हूँ प्रोफेसर, दाइयाँ, दाँतों के डाक्टर, ये सब। वकील, डाक्टर, इंजीनियर। ठीक है, ठीक है। वो सब ज़रूरी हैं। अच्छे विज्ञान को ख़राब बातें नहीं सिखानी चाहिए। लेकिन मेरी बेटी के अध्यापक ने एक बार मुझे बताया था कि सामाजिक विज्ञान भी कोई चीज़ है…। ये बात मेरी समझ में नहीं आयी…। मेरे ख्याल से ये नुकसानदेह चीजें हैं। एक समाजशास्त्री अच्छे विज्ञान की रचना नहीं कर सकता। उनका विज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं होता। एडीसन बना रहा है ऐसा विज्ञान जो उपयोगी है। फोनोगाफ और सिनेमा – वह उपयोगी है। लेकिन विज्ञान की इतनी सारी किताबें? ये तो हद है। लोगों को उन किताबों को नहीं पढ़ना चाहिए जिनसे उनके दिमागों में सन्देह पैदा होने लगें। इस धरती पर सब कुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए और उस सबको किताबों के साथ नहीं गड़बड़ाया जाना चाहिए।"

मैं खड़ा हो गया।

"अच्छा तो आप जा रहे हैं..?"

"हाँ," मैंने कहा "लेकिन शायद चूँकि अब मैं जा रहा हूँ क्या आप मुझे बता सकते हैं करोड़पति होने का मतलब क्या है..?"

उसे हिचकियाँ आने लगीं और वह अपने पैर पटकने लगा। शायद यह उसके हँसने का तरीका था।

"यह एक आदत होती है," जब उसकी साँस आयी तो वह ज़ोर से बोला।

"आदत क्या होती है..?" मैंने सवाल किया।

"करोड़पति होना… एक आदत होती है भाई!"

कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना आखिरी सवाल पूछाः

"तो आप समझते हैं कि सारे आवारा, नशेड़ी और करोड़पति एक ही तरह के लोग होते हैं..?"

इस बात से उसे चोट पहुँची होगी। उसकी आँखें बड़ी हुईं और गुस्से ने उन्हें हरा बना दिया।

"मेरे ख़्याल से तुम्हारी परवरिश ठीकठाक नहीं हुई है।" उसने ग़ुस्से में कहा।

"अलविदा," मैंने कहा।

वह विनम्रता के साथ मुझे पोर्च तक छोड़ने आया और सीढ़ियों के ऊपर अपने जूतों को देखता खड़ा रहा। उसके घर के आगे एक लॉन था जिस पर बढ़िया छँटी हुई घनी घास थी। मैं यह विचार करता हुआ लॉन पर चल रहा था कि शुक्र है मुझे इस आदमी से फिर कभी नहीं मिलना पड़ेगा। तभी मुझे पीछे से आवाज़ सुनायी दी:

"सुनिए!"

मैं पलटा। वह वहीं खड़ा था और मुझे देख रहा था।

"क्या यूरोप में आपके पास ज़रूरत से ज़्यादा राजा हैं..?" उसने धीरे-धीरे पूछा।

"अगर आप मेरी राय जानना चाहते हैं तो हमें उनमें से एक की भी ज़रूरत नहीं है।" मैंने जवाब दिया।

वह एक तरफ को गया और उसने वहीं थूक दिया।

"मैं अपने लिए दो-एक राजाओं को किराये पर रखने की सोच रहा हूँ," वह बोला। "आप क्या सोचते हैं..?"

"लेकिन किसलिए..?"

"बड़ा मज़ेदार रहेगा। मैं उन्हें आदेश दूँगा कि वे यहाँ पर मुक्केबाज़ी करके दिखाएँ…"

उसने लॉन की तरफ इशारा किया और पूछताछ के लहजे में बोला:

"हर रोज एक से डेढ़ बजे तक। कैसा रहेगा..? दोपहर के खाने के बाद कुछ देर कला के साथ समय बिताना अच्छा रहेगा… बहुत ही बढ़िया।"

वह ईमानदारी से बोल रहा था और मुझे लगा कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है।

"लेकिन इस काम के लिए राजा ही क्यों..?"

"क्योंकि आज तक किसी ने इस बारे में नहीं सोचा" उसने समझाया।

"लेकिन राजाओं को तो खुद दूसरों को आदेश देने की आदत पड़ी होती है" इतना कहकर मैं चल दिया।

"सुनिए तो," उसने मुझे फिर से पुकारा।

मैं फिर से ठहरा। अपनी जेबों में हाथ डाले वह अब भी वहीं खड़ा था। उसके चेहरे पर किसी स्वप्न का भाव था।

उसने अपने होंठों को हिलाया जैसे कुछ चबा रहा हो और धीमे से बोला: "तीन महीने के लिए दो राजाओं को एक से डेढ़ बजे तक मुक्केबाज़ी करवाने में कितना खर्च आयेगा आपके विचार से..?"

कौन हैं वे लोग

गुजराती दलित कविता
राजु सोलंकी
अनुवाद: डॉ.जी. के. वणकर

कौन हैं वे लोग

आप चर्चा कर रहे हैं
उस स्टेडियममें बैठे लोगोंने मास्क पहने थे या नहीं
एकदूसरेसे दो गज की दूरी बनायी थी या नहीं
मुझे मालूम है आप ऐसा ही फालतू चर्चा करेंगे
आप कभी भी पूछेंगे नहीं कि
सचमुच वे लोग हैं कौन?
कुम्भमेलेमें करोड़ो हिंदुओंकी विष्टा 
जिन्होंने सर पर ढोयी थी, 
ये वो लोग हैं?
जिनके पाँव प्रधान सेवक ने धोये थे 
क्या ये वही लोग हैं?
दाहोद और गोधरा, राजपीपला और छोटा उदेपुर से 
यहीं अहमदाबादमें 
रास्ते बनाते, मेट्रो के वास्ते गड्ढे खोदनेवाले है ये लोग?
नही,ये वो लोग नहीं हैं
ये तो और ही ग्रहसे आये हैं
कोरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता
उनके शरीरसे पसीना नहीं बहता
उन्हें पेट्रोल या डिझल, सोना या चाँदी
किसीकी महंगाई नहीं अखरती.
यहाँ स्टेडियममें वे उत्सव मना रहै हैं
उनकी सफलता
उनका हर्षोल्लास तो देखो
शेयर बाज़ार की तेज़ी का कैफ है
उनके चेहरों पर.
आपकी चाली के बदबूदार संडास से दूर
आपकी गटरों की गंदगी से परे
कहीं दूर
उनकी अलग दुनिया है.
आपके और उनके बीच सिर्फ नाराबाजीका रिश्ता है
भारत माता की जय 
जय श्री राम
वन्दे मातरम
कान में  कहता हूँ
किसी को बताना मत
ये लोग इक्कीसवीं सदी के अंग्रेज है.
छप्पन के अकालके दौरान खेलते थे अंग्रेज
वही खेल खेल रहे हैं ये अंग्रेज कोरोना काल के.

दर्द



ट्रेडमील पर दौड़ कर निकाला पसीना
क्या जाने 
रोटी नमक की दौड़ धूप में
निकले पसीने का दर्द.....

खाए पिए या भर पेट खा कर
देखो कितनी ख़ूबसूरती से
सलाह दे डालते है कि
स्वस्थ रहने के लिए
पेट का एक चौथाई हिस्सा
पानी से भरा और
एक चौथाई हिस्सा 
रहना चाहिए ख़ाली

कैसे  भूल जाते है कि
आधी आबादी रोटी के न होने पर
बार बार पीती है बस पानी ही 
कभी दिन अच्छा हो तो तभी कहीं
मिल पाता है चावलों का माँड़ या
दाल के नाम पर पानी में तैरते 
कुछ अन्न के दाने.

@अनीश

गिद्धों और भेड़ियों के बीच देवियाँ !


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कुछ वर्ष पहले तक
हमारी बेटियों के नाम होते थे
रूड़ी
कजोड़ी
दाफली
घिंसी
अणछी
ननछि
छोटी
हाबुली
फूलन आदि
गरीब जात की बेटियों के नाम भी
गरीब हुआ करता था
जब वे रखती थी पहला कदम
स्त्री बनने की तरफ
गिद्धों की नजरे तोलने लगती थी
हर एक उभार को
महसूस करने लगते थे रक्त की उष्णता
और
बैठे रहते थे घात लगाए
भेड़िये की तरह
और 
बेटियां मुश्किल से बचा पाती थी 
खुद के मांस को
अभी पता है
वो सब पुराने नाम गायब हो गए हैं 
चलन से
अब नाम रखे जाते हैं
सीता
लक्षमी
दुर्गा
पार्वती
सरस्वती
रामनामियों की तरह
जो गुदवा लेते थे "राम राम राम.... !"
पूरे बदन पर
ताकि बच सके हण्टरों,लातों और जूतों की मार से
और खाल नोचे जाने से
क्या गिद्ध और भेड़िये अब घात नहीं लगाते
क्या बची रहेंगी बेटियाँ
देवी नाम धर कर !
सोचता हूँ 
क्या होता यदि फूलन का नाम फूलन नहीं होता 
होता कोई और
जैसे कि सीता, गीता,शारदा !

चार_कौए

आज के संदर्भ में 
👇👇👇👇
#चार_कौए
_भवानीप्रसाद मिश्र की कविता

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।......

कॉपी पेस्ट
#Nastik_jivan

रेशमी लिपस्टिक मे सनी पूंजी



यदि तुम कविता हो 
पाश के सपनों की 
इतिहास से वाकिफ 
जर्रे जर्रे मे बसती 
क्यो फर्क करती हो  
आज और कल में
कैसे हो गया होमो सैपियंस का डीएनए 
संविधान के मुंह जीरा 
ज्योती धर्म के धन्धाखोर 
हिन्दू मुसलमान मे फैलती नफरत
देश बेचती वोट की सत्ता  
जन्मता विकास   
गद्दी मूर्खों को छोड 
नंगा होता शायर   
धर्म, लिंग, जाति को पीट पीट  
दलित शूद्र महिला पर लिखी नज़्मे 
राजाराम, टेगोर, बंकिम, सुभाष
पुलवामा शहीदों की चिताओ पर रोते  
लव लेटर टु पाकिस्तान लिख
नवाज बिरयानी पर मोदी-लार  
संघी-प्रेम कदमो तले  
भारत-पाक दोस्ती  
सैन्य-अभ्यास की गूंज  
उत्पात मचाते भक्त 
चुनाव ग्रस्त रोगी को 
कोरोना राहत का योग-वरदान 
देशद्रोही आयुर्वेदिक आंदोलन 
लोकतंत्र की कमाई 
लोग और तंत्र की लड़ाई
कमाने-लुटने की जांच   
फैसला करती गुजराती ब्रांच  
अमीर को कोरोना डर 
गरीब को लाकडाऊन खौफ़  
बागी आंदोलन-जीवी 
क्रांति खोजता 
सिस्टम को हारते हाफ़ते देखता 
गाँधी शांति भरा 
क्रांति में जोश तलाशता
विद्रोहियों का बोस बनकर 
निर्भय शांति मे डूबा  
मौत मांगता नौजवान
जिंदगी के बागी बाग मे 
इंकलाब जिंदाबाद 
गो कोरोना गो  
लॉकडाउन 
स्कूल फिर बन्द 
कोरोना पर सुप्रीम ऐलान 
बंगाल एंट्री बैन    
चुनाव मे लिपटा हिन्दुत्व 
समझदार वायरस की सुखी हड्डियों से जलती  
सरकारी खून की दलित होली 
गुंडों का बाशर्म नाच 
बेहोंश अर्धनिंद्रा में सिमटी सभ्यता 
विक्षिप्त मानसिकता से लबरेज
मन की बात सुनते लोग 
हो खुद पर शर्मसार  
करते राजतिलक तैयारी 
अवतार लेकर प्रकट होते बैंक कर्मचारी 
सड़को पर लाखो 
दिन दूनी रात चौगनी 
तरक़्क़ी की कतार मे खड़े  
चोकसी-माल्या को मिलता प्रसाद 
सबका साथ सबका विकास 
जब तक दवाई नही 
तब तक ढिलाई नही
हाथ धोते रहिये 
सैलरी से, नौकरी से 
पेंशन से, छोकरी से 
धरती से, धोकनी से
देश-भक्त सरकार
आपके साथ 
रामराज रूबरू होकर  
नोट, बैंक, रेल, हवाई-अड्डे, बीएसएनएल, एलआईसी 
राक्षश-शैतान  
विश्वविद्यालय, उच्च कोर्ट रामराज पर पसरे पड़े  
रावण-हैवान
हो गया रफूचक्र  
अब सर्च करो 
चाय
थाली और परात
खेती कानून 
एक्सप्रेस-वे का पाकिस्तानी रिस्ता 
दोस्ती के सरहद्दी पुल छापते 
अरबी, चीनी, गलवानी 
विवाद तलते
बाते भूनती  
कलकत्ता, मूम्बई, सूरत की उंचीजात बंदरगाहे  
जाति व्यापार पर काबिज चीन 
वन बेल्ट, वन रोड पर 
पाकिस्तानी सर्जिकल स्ट्राइक 
तिबत्ती सिल्क थ्रेड से बुना एक्सप्रेस-वै 
यूरोप तक पसरा व्यापार 
पूंजी से सजी दुल्हन 
रेशमी लिपस्टिक मे सनी 
भारत भविष्य विधाती   
अमृतसरी व्यापारिक कुल्चे खाकर  
अमृतसर-जामनगर एक्सप्रेसवे पर 
ग्राहक ढूंढती 
दिल्ली-अमृतसर-कटड़ा एक्सप्रेस-वै 
अमृतसर-कोलकाता इंडस्ट्रियल कॉरिडोरी कड़ाहे मे 
देश को तलता कारपोरेट दलाल 
एलिवेटीड-रोड तले राष्ट्रीय ढाबा की खाट पर   
सिलवटे पड़े चीनी सिल्क के बिस्तर पर  
शिखंडी शक्तियों की चिंता 
रेट-टैग पर चिपका पाकिस्तानी-पंजाब 
बलूचिस्तानी रूट प्रेम की लोरी गाकर  
किसानो को फायदे सिखाते अम्बानी-अडानी 
दोगुनी इन्कम की अर्ध-सरकारी बारिश मे  
किसानी फौज का दिल्ली कूच  
पौराणिक वजूद के नट-बोल्ट कसती मेट्रो 
शेषनागिनी ज़हर उगलती बीजेपी 
रेल यात्रा करते सारवरकरी 
मुहम्मद सिंह आज़ाद के गले का नाप लेते
ब्रिटिश जल्लाद 
सत्ता की भूख मिटाती 
हिन्दूत्व रस मे भीगी 
मनुवादी देश-भक्त जलेबियाँ   
बंद आंखो के कोरो से ध्यान लगाते बगुले 
भ्रष्टाचारी डीएनए पर बैठा पार्टी जीन   
शंखनाद पर पलता गद्दार 
मिक्स फ्रूट परोसकर 
आमों का स्वाद पूछते पत्रकार  
नफ़रत की आग से बिजली बनाते 
स्वदेशी तंजीमी अदाकार 
बॉलीवुड गालो की परिधि सरीखे  
ट्रैक्टर के टायरो मे परजीवी गैस भरकर 
मुंबई की शिकायत करता बॉम्बे 
ज़बरदस्त चुप्पी 
हाई-लाइट भारत का हिसाब करता अडानी का देश 
अर्थहीन बंदरगाहों बागानो पर 
संघी खूनी हाथो का अक्स 
सत्ता के अंबानी प्रधानसंतरी 
लीला देखते नीतीश, मायावती, मुलायम 
पतित पावन केजरीवाल-ममता बनर्जी 
दिल्ली-बंगाल बन  
भारत की दौड़ से बाहर  
आजमाये को आजमा आजमा  
गोटियाँ खेलता दलाल मीडिया 
लिटमस टेस्ट के घोल मे तैरता 
अन्तिम दरवाजे पर लटका बौधिकता का ताला 
भ्रष्टाचारी मानसिकता के मवाद मे डूबा 
सियासी झूठ का कारोबार 
एलेक्टोरल बॉन्ड के तिलिस्मी जादू दिखाता    
एजेन्सियों का मकडजाल 
तडी-पार स्टार प्रचारको की भीड़  
जुगाड मे लगी असहमती 
शिक्षा, स्वास्थ की बंद मुट्ठी मे 
मसले हुये बिलो का कंकाल 
ईलाका व्यापार मार्ग की जमीनो पर
नाखून उगलती ऊंगलियाँ 
मशालो की मानिंद 
चलने का जद करती 
रात की बाट जोहती 
संभलकर कदम रखती 
अफ्रीका की संगेमरमरी श्याह गुफाओ मे 
घुसने को बेसब्र औरत  
धार्मिक अफीम के नशे मे चूर
प्रवचन वर्षा कर दुख हरते नेता 
इतिहास को कोसते भविषयवक्ता 
लाचार होते बूढ़े वजूद के घुटनो को बदलना 
बेशक अब नहीं मुमकिन     
पर तुम तो कविता हो 
भूत भविष से वाकिफ  
जर्रे जर्रे पे लिख डालो लेख 
सुना दो कहानियां 
अंबानी अम्बार तले दबे 
अंबानी ब्रांड मोदी खंजर की  
किसान और कमान की 
हिमालया के ढलान की
दसम समुलास मे दर्ज  
पुरुषशुक्त बखान की । 

डॉ पवन कुमार आर्यन

रात मे होलिका जलाते हो



अस्मत लूट कर, जश्न मनाते हो 
जिस्म जलाकर, जश्न मनाते हो 
अरे मनु के औलादों, 
कैसा प्रपंच रचाते हो 
करके बलात्कार 
पीड़िता पे सवाल उठाते हो
वहशी दरिंदों, बेशर्मों 
अपने कुकर्मों को छुपाते हो
इतना पाक साफ रहते हो तो
रात मे क्यों जलाते हो
दबे कूचले लोगों पर,
सितम तुम उठाते हो
कर्मो से नीच तुम,
औरों को नीच बताते हो
ढोंग, पाखंड से बना
कहानी तुम सुनाते हो 
होलिका भी जली, 
मनीषा भी जली 
पर मनीषा को जलाकर
होलिका की याद दिलाते हो
अरे, मनु के औलादों, जानते है
औरों की बहन, बेटियों की
अस्मत लूट कर,
अपने कुकर्मों को छुपाने
रात मे होलिका जलाते हो ।

डॉ. अनिता कुर्रे ।

आओ होलिका से माफी मांगे!



हमें इस बात से,
कुछ लेना देना नहीं,
कि प्रहलाद किसकी भक्ति करता था,
हमें इस बात से भी कुछ लेना देना नहीं,
कि हिरण्याकश्यप अमर था,
हमें इस बात से भी कुछ लेना देना नहीं,
विष्णु ने अमर हिरण्या कश्यप को नरसिम्हा बनकर मार डाला,
हमें अगर लेना है तो इस बात से लेना है,
कि होलिका के पास जो अग्नि में ना जलने वाला वस्त्र था,
जिसे ओढ़कर प्रहलाद मौत के मुंह से निकल आया था,

वह अग्निमुक्त वस्त्र कहां है?
उसको बनाने की तकनीक कहां है?
हिरण्या कश्यप और होलिका वैज्ञानिक रूप से,
इतने स्रमद्ध थे कि उन्होंने अग्नि मुक्त वस्त्र बना डाला?
ऐसा लगता है,
उस अग्निमुक्त वस्त्र की जानकारी,
विष्णु को नहीं थी,
होती तो वह होलिका को जिन्दा नहीं जलने देता!
सोच कर देखिए,
प्रहलाद और नरसिंह ने समाज को क्या दिया?
जिस अग्निमुक्त वस्त्र की तकनीक से पूरी दुनिया का भला हो सकता था,
उसे नष्ट कर दिया,
ऐसे भगवान और भक्त को तो भूल जाना ही भला!
एक निर्दोष नारी को जिन्दा जलाया जाना,
नारी का ही नहीं,
बल्कि धर्म का भी अपमान है,
ये ही दुष्टों का अभिमान है,
आओ,
समाज और मानवता की भलाई के लिए,
अग्निमुक्त वस्त्र बनाने वाले,
हिरण्यकश्यप और
होलिका से माफी मांगे!
होली के त्योहार को मन से त्यागें!

*जोगेन्दर सिंह*

रंगों से डर नही लगता है साहब

रंगों से डर नही लगता है साहब 
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से 
उसके चक्रान्त से 
उसके अन्जाम से उसके पहचान से 
रंगों से डर नही लगता है साहब 
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।

डर लगता है उस दृष्टान्त को सोचकर 
कैसे तड़पाये होंगे 
कैसे नोच नोच खायें होंगे 
कैसे, कैसे उनके साथ पेश आये होंगे 
कैसे ज़बरन आग पे बैठाये होंगे 
कैसे चिन्गारी सुलगाये होंगे 
कैसे खुद को बचाने के लिए तिलमिलाये होंगे 
रंगों से डर नही लगता है साहब 
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।

रंगों से डर नही लगता है साहब, 
डर लगता है उसके वहशीपन से 
डर लगता है उसके चिन्तन मनन से 
डर लगता है उसके मदिरा सेवन से 
डर लगता है उस कलुषित अन्धेरी रात से 
डर लगता है घटी घटनाओं की रात से 
रंगों से डर नही लगता है साहब 
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।

रंगों से डर नही लगता है साहब, 
डर लगता है त्योहार के उपनाम से 
डर लगता है उसके हरकतों शैतान से 
डर लगता है उसके पीछे शैतान से 
डर लगता है उसके पीछे छुपे इमान से 
रंगों से डर नही लगता है साहब 
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से 

कवि_ सूरज पाशवाँ टीटागढ पं बंगाल 
शीर्षक _रंगों से डर नही लगता है साहब

होलिका दहन



कभी दिमाग पे
जोर डाला
होलिका दहन कर
क्यों खुशीयाँ
मना रहे है
अनभिज्ञ हो सत्य से
रूढीवादी परम्परा का
केवल निर्वाह कर रहे है।

ऐसा क्या किया
एक स्त्री ने
कि सदियों से
प्रत्येक वर्ष
उसे आग में
खाक कर रहे है
क्यों पौरूष विहीन
हुआ आज भी पुरूष
डर कर युगों बाद भी
पाप कर्मों को छुपा रहे है।

दहेज रूपी आग में
जलती असंख्य नारी देह
उसके लिए किसको हम 
दोषी ठहरा रहे है
क्या स्त्रीयों को जलाना ही 
सभ्य समाज की पहचान है
होलिका दहन से जिसको 
हम मजबूत बना रहे है।

क्यों नहीं करते कभी
उनका भी होलिका दहन
जो बलात्कार,हत्या ,
भ्रष्टाचार खूब कर रहे है 
लेकर जन्म
स्त्री की कोख से ही 
स्त्रीयों का ही अपमान
खुलेआम कर रहे है ।

क्या इनमें भी ज्यादातर
हिरण्यकश्यप मुलनिवासी के
ही दुश्मन छिपे बैठे है
जो समय समय पे भेष बदल रहे है
उलझा ब्राह्मणवाद के जाल में 
राजा बली के वंशजों को
देखो आँखे खोलकर
कैसे घर घर ठग रहे है।।
©anil_bidlyan

Saturday, 27 March 2021

विज्ञान की दुनियां का पहला शहीद (ब्रूनो) था


×××××××××××××××××××××××××××××

 यह कहानी निकोलस कॉपरनिकस (1473 -1543) से शुरू होती है। वे पोलैंड के रहने वाले थे । गणित व खगोल में इनकी रुचि थी। 

खगोल में अब तक हमारे पास टालेमी का दिया हुआ  ब्रह्मांडीय  मॉडल था। इसके अनुसार पृथ्वी स्थिर थी और केंद्र में थी व सभी अन्य खगोलीय पिंड इसके चारों ओर चक्कर  लगाते दर्शाए गए थे। विद्वानों ने इसका समय-समय पर अध्ययन किया था। गणितीय दृष्टि से कुछ दिक्कतें थी जो इस मॉडल से हल नहीं हो रही थी।

 कॉपरनिकस का मानना था कि यदि पृथ्वी की बजाए सूर्य को केंद्र में रख लिया जाए तो काफी  गणनाए सरल हो सकती हैं। कॉपरनिकस साधु स्वभाव का व्यक्ति था । वह समझता था कि यदि उसने अपना मत स्पष्ट कर दिया तो क्या कुछ हो सकता है। वह चर्च के गुस्से को समझता था, सो उसने चुप रहना उचित समझा। लेकिन उसने अध्ययन जारी रखे। वह बूढ़ा हो गया और उसे अपना अंत निकट लगने लगा। उसने मन बनाया कि वह अपना मत सार्वजनिक करेगा। 

उसने यह काम अपने एक शिष्य जॉर्ज जोकिम रेटिकस को सौंप दिया कि वह इन्हें छपवा दे। उसने यह काम अपने एक मित्र आंद्रिया आसियांडर के हवाले कर दिया। इन्होंने कॉपरनिकस की पुस्तक प्रकाशित करवा दी। यह उसी समय प्रकाशित हुई जब कॉपरनिकस मृत्यु शैया पर था। वह इसकी जांच पड़ताल नहीं कर सकता था। आंद्रिया आसियांडर एक धार्मिक व्यक्ति था। इसका मत कॉपरनिकस के मत से मेल नहीं खाता था। इन्होंने बिना किसी सलाह या इजाजत के पुस्तक में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने पुस्तक  की भूमिका में यह लिख दिया कि कॉपरनिकस की यह सब कल्पना है, यथार्थ अध्ययन नहीं हैँ। पुस्तक के नाम में भी कुछ बदलाव किया। प्रकाशित होते ही यह चर्च की निगाह में आई। चर्च नहीं चाहता था कि किसी भी वैकल्पिक विचार की शुरुआत हो। चर्च ने पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया और सभी प्रतियां जब्त कर ली। किसी तरह कुछ प्रतियां बच गई। चर्च ने समझा अब बात आगे नहीं बढ़ेगी।          

कुछ समय तक सब शांत रहा। एक बार इटली का एक नवयुवक जियार्दानो ब्रूनो 1548 - 1600) चर्च में कुछ पढ़ रहा था, वह पादरी बनना चाहता था। किसी तरह उसके हाथ कॉपरनिकस की पुस्तक लग गई। इन्होंने यह पढी। इनकी इस पुस्तक में  दिलचस्पी बढ़ी। इन्होंने सोचा कि क्यों एक व्यक्ति किसी अलग विचार पर बहस करना चाहता है। इन्होंने इस विषय पर आगे अध्ययन करने का मन बनाया। पादरी बनने की उनकी योजना धरी की धरी रह गई। जैसे-जैसे वह अध्ययन करता गया उसका विश्वास मजबूत होता गया। वह भी चर्च की ताकत और गुस्से को समझता था। इसलिए उन्होंने इटली छोड़ दी। वह इस मत के प्रचार के लिए यूरोप के लगभग एक दर्जन देशों (प्राग , पैरिस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि) में घूमा।

चर्च की निगाह हर जगह थी। कुछ विद्वान इसके मत से सहमत होते हुए भी चर्चा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। चर्च की निगाह में ब्रूनो अब भगोड़ा था। वह जितना भी प्रचार करता चर्च की निगाह में उसका जुर्म उतना ही संगीन होता जाता था। वह छिपता तो भी कहां और कब तक? वैचारिक समझौता उसे मंजूर नहीं था। चर्च ने ब्रूनो को पकड़ने के लिए एक जाल बिछाया। एक व्यक्ति को तैयार किया गया कि वह ब्रूनो से पढ़ना चाहता है। फीस तय की गई। ब्रूनो ने समझा कि अच्छा है एक शिष्य और तैयार हो रहा है। ब्रूनो इस चाल को समझ नहीं पाया। उसने इसे स्वीकार किया और बताए पते पर जाने को तैयार हो गया। इस प्रकार वह चर्च के जाल में फंस गया। जैसे ही वह पते पर पहुंचा चर्च ने उसे गिरफ्तार कर लिया।
          
चर्च ने पहले तो इन्हें बहुत अमानवीय यातनाएं दी। उसे एकदम से मारा नहीं। चर्च ने उसे मजबूर करना चाहा कि वह अपना मत वापस ले ले और चर्च द्वारा स्थापित विचार को मान ले। ब्रूनो अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ। चर्च ने लगातार 6 वर्ष प्रयास किए कि वह बदल जाए। उसे लोहे के संदूक में रखा गया जो सर्दियों में ठंडा और गर्मियों में गर्म हो जाता था। किसी भी तरह की यातनाएं उसके मनोबल को डिगा नहीं पाई। अब तक चर्च को भी पता चल चुका था कि ब्रूनो मानने वाला नहीं है। न्यायालय का ड्रामा रचा गया। चर्च ने सजा सुनाई कि इस व्यक्ति को ऐसे मौत दी जाए कि एक बूंद भी रक्त की न बहे। ब्रूनो ने इस फरमान को सुना और इतना ही कहा-' आप जो ये मुझे सजा दे रहे हो, शायद मुझसे बहुत डरे हुए हो'

17 फरवरी सन 1600 को ब्रूनो को रोम के Campo dei Fiori चौक में लाया गया। उसे खंभे से बांध दिया गया। उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया ताकि वह कुछ और न बोल सके। उसे जिंदा जला दिया गया।
 इस प्रकार ब्रूनो विज्ञान की दुनिया का पहला शहीद बना। 

लोग वर्षों से मान्यताओं, धारणाओं, प्रथाओं और भावनाओं के पीछे इतने पागल हैं कि वे अपने विचारों से अधिक न कुछ सुनना चाहते हैं और न देखना। बदलना व त्यागना तो उससे भी बड़ी चुनौती है। यह जो एक डर बनाया जाता है असल में वो कुछ लोगों के एकाधिकार के छिन जाने के कारण बनाया जाता है,  इसलिए वे इस डर को बनाये रखने की हिमायती है बशर्ते उसके पीछे कितनी ही कल्पनायें क्यों न गढ़नी पड़ जाए।

पोस्ट साभार :- श्री आर पी विशाल
Srujan group

एक बेरोजगार का दर्द

😢देश में अब रोज़गार नहीं है ❗😱

डिग्रियां टंगी दीवार सहारे, 
                 मेरिट का ऐतबार नहीं है, 
           सजी है अर्थी नौकरियों की, 
    देश में अब रोज़गार नहीं है। 

शमशान हुए बाज़ार यहां सब, 
   चौपट कारोबार यहां सब, 
      डॉलर पहुंचा आसमान पर, 
          रुपया हुआ लाचार यहां सब, 
             ग्राहक बिन व्यापार नहीं है, 
                    देश में अब रोज़गार नहीं है। 

                    चाय से चीनी रूठ गई है, 
              दाल से रोटी छूट गई है, 
         साहब खाएं मशरूम की सब्जी, 
     कमर किसान की टूट गई है, 
  है खड़ी फसल ख़रीदार नहीं है, 
देश में अब रोज़गार नहीं है।

दाम सिलेंडर के दूने हो गए,
     कल के हीरो नमूने हो गए,
        मेकअप-वेकअप हो गया महंगा,
             चाँद से मुखड़े सूने हो गए,
                  नारी है पर श्रृंगार नही है,
                       देश मे अब रोज़गार नही है।

                       साधु-संत व्यापारी हो गए,
                    व्यापारी घंटा-धारी हो गए,
                कैद में आंदोलनकारी हो गए,
             सरकार से कोई सरोकार नही है,
        युवा मगर लाचार नही है
    देश मे अब रोज़गार नही है।
देश मे अब रोज़गार नही है।

 **

Friday, 26 March 2021

महान उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़'(1911-1984) की ये बेहतरीन नज़्म


......................
ऐ नए साल बता, तुझमें नया-पन क्या है
हर तरफ़ ख़ल्क़ ने क्यूँ शोर मचा रक्खा है

रौशनी दिन की वही, तारों भरी रात वही
आज हम को नज़र आती है हर इक बात वही

आसमाँ बदला है, अफ़सोस, ना बदली है ज़मीं
एक हिंदसे का बदलना कोई जिद्दत तो नहीं

अगले बरसों की तरह होंगे क़रीने तेरे
किस को मालूम नहीं बारह महीने तेरे

जनवरी, फ़रवरी और मार्च पड़ेगी सर्दी
और अप्रैल, मई, जून में होगी गर्मी

तेरा मन दहर में कुछ खोएगा, कुछ पाएगा
अपनी मीआद बसर कर के चला जाएगा

तू नया है तो दिखा सुबह नयी, शाम नयी
वरना इन आँखों ने देखे हैं नए साल कई

बे-सबब देते हैं क्यूँ लोग मुबारकबादें
ग़ालिबन भूल गए वक़्त की कड़वी यादें

तेरी आमद से घटी उम्र जहाँ में सब की
'फ़ैज़' ने लिक्खी है यह नज़्म निराले ढब की
............................
अर्थ
(ख़ल्क़ - मानवता)
(हिंदसे - संख्या; जिद्दत - नया-पन)
(अगले - पिछले/गुज़रे हुए; क़रीने - क्रम)
(दहर - दुनिया; मीआद - मियाद/अवधि)
(बे-सबब - बे-वजह; ग़ालिबन - शायद)
(आमद - आना; ढब - तरीक़ा)

मक्सिम गोर्की के ‘संस्कृति के निर्माताओं’, तुम किसके साथ हो?

''आप मुझ पर 'नफरत के प्रचार' का इल्जाम लगाते हैं और मुझे सलाह देते हैं कि मैं 'प्यार का प्रचार करूँ'। शायद आप सोचते हैं कि मैं मज़दूरों से कहूँ: पूँजीपतियों को प्यार करो, क्योंकि वे आपकी ताकत चूसते हैं; उन्हें इसलिए प्यार करो क्योंकि वे व्यर्थ ही तुम्हारी धरती के खजानों को बर्बाद करते हैं; इन लोगों से प्यार करो जो तुम्हारे लोहे के भण्डार को बन्दूकें बनाने में बर्बाद करते हैं और उन्हीं बन्दूकों से तुम्हें तबाह करते हैं; उन बदमाशों को प्यार करो जिनकी वजह से तुम्हारे बच्चे भुखमरी से सूखते जाते हैं; उन लोगों को प्यार करो जो खुद ऐशो-इशरत की ज़िन्दगी बसर करने के लिए तुम्हें लूटते और बर्बाद करते हैं; पूँजीपति को प्यार करो, क्योंकि उसका गिरिजाघर तुम्हें अज्ञान के अँधेरे में रखता है। नहीं, ग़रीबों को अमीरों से प्यार करने का उपदेश देना, मज़दूर को अपने मालिक से प्यार करने का उपदेश देना मेरा पेशा नहीं है। मैं किसी को तसल्ली नहीं दे सकता। मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, और यह बात मुझे बहुत दिनों से मालूम है कि दुनिया में नफरत का वातारण छाया है और मैं देखता हूँ कि यह वातारण दिन-ब-दिन गहरा और तेज़ होता जा रहा है और इसके अच्छे नतीजे नहीं निकल रहे हैं! वक्त आ गया है कि आप लोग जो ''मानवतावादी हैं और व्यावहारिक बनना चाहते हैं,'' यह समझ लें कि दुनिया में दो किस्म की नफरतें चल रही हैं। एक नफरत है जो क़ातिलों के दिलों में है, जो उनकी आपसी स्पर्धा और भविष्य के डर से पैदा होती है, क़ातिलों को क़यामत का सामना करना ही है। दूसरी नफरत; मेहनतकश वर्ग की नफरत है, जो जिन्दगी की मौजूदा तस्वीर से है और इस एहसास ने, कि शासन करने का अधिकार उनका ही होना चाहिए इस नफरत की लौ को और भी तेज़ और रोशन कर दिया है। ये दोनों नफरतें गहराई के एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच चुकी हैं कि कोई भी चीज़ या आदमी उनका आपस में समझौता नहीं करवा सकता, और वर्गों के बीच के अवश्यम्भावी संघर्ष और मेहनतकशों की जीत के सिवा कोई चीज़ दुनिया को इस नफरत से मुक्ति नहीं दिला सकती।

-मक्सिम गोर्की के 'संस्कृति के निर्माताओं', तुम किसके साथ हो?'नामक लेख का एक अंश (एक अमेरिकी पत्रकार को उत्तर)

On Stalin

Conrad Karamazov
on 22 November in Facebook group Marxist Leninist: Discussion .........

Many people are frustrated by the overwhelming amount of anti-Soviet propaganda which still lingers from the Cold War in both leftist circles and society in general.
It is for that reason I've compiled a list of 42 books, articles, videos and spreadsheets which serve to counter the one-sided histories every schoolchild in the western world is spoonfed about the subject.
Please feel free to contribute more!
----Soviet historical resource list---- 
Compiled by Conrad Karamazov

1. Another View of Stalin by Ludo Martens: 
2. Stalin: A biography by the Marx-Engels-Lenin Institute: 
https://www.marxists.org/…/biographies/1947/stalin/index.htm
3. The Real Life of Stalin by Dennis McKinsey: 
4. Natural Disasters and Human Actions in the Soviet Famine of 1931-1933 by Mark B. Tauger: 
5.The 1932 Harvest and 1933 Famine by Mark B. Tauger: 
6. The "Soviet Story" Debunked by Aleksandr Dyukov: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/soviet_story_2008.pdf
7. Stalin's 4 Attempts at Resignation: an article by Socialist Musings 
8. The American Historical Review #4 volume 98: On the Soviet Penal system by Mario Souza: 
9. Fraud, Famine and Fascism by Douglas Tottle: 
10. Lies Concerning the History of the Soviet Union by Mario Souza: 
11. Khrushchev Lied by Grover Furr: 
12. Soviet Democracy by Pat Sloan: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/pat-sloan-soviet-dem…
13. The CPSU in an Election Campaign by Ronald J. Hill: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/the-cpsu-in-a-soviet…
14. Stalin and the Struggle for Democratic Reform by Grover Furr (parts 1 and 2): 
15. The Triumph of Evil by Austin Murphy: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/austin-murphy-the-tr…
16. The Great Conspiracy Against Russia by Sayers and Khan: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/great-conspiracy-aga…
17. The Stalin Constitution (an analysis of the 1936 consitiution) by Prof. I. Maisky: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/stalin-constitiution…
18. The 1936 constitution of the Union of Soviet Socialist Republics: 
https://www.marxists.org/…/arch…/stalin/works/1936/12/05.htm
19. Soviet Democracy and Bourgeois Sovietology by Marat Perfilyev: 
https://archive.org/…/SovietDemocracyAndBourgeoisSovietology
20. On the Question of Stalin: an open letter from the Communist Party of China (1963): 
https://www.marxists.org/…/ch…/documents/polemic/qstalin.htm
21. Blackshirts and Reds: Rational Fascism & Overthrow of Communism by Michael Parenti: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/michael-parenti-blac…
22. Red Medicine: Socialized Health in Soviet Russia by Newsholme and Kingsbury: 
https://www.marxists.org/…/news…/1933/red-medicine/index.htm
23. The Soviet Union: Facts, Descriptions and Statistics: bureau of Soviet Information, Washington DC 
https://www.marxists.org/…/…/government/1928/sufds/index.htm
24. Video: The Moscow Trials by TheFinnishBolshevik (parts 1-3) 
25. Video: Soviet Women Remember Socialism: 
26. Video: Soviet worker and musician look back: 
27. Worker's Participation in the Soviet Union by Mick Costello: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/workers-participatio…
28. Is Soviet Communism a New Civilization? By Sydney and Beatrice Webb: 
https://mltheory.files.wordpress.com/…/issovietcommunismane… 
29. Video: The USSR: Democratic or Totalitarian? By Tovarishch Endymon: 
30. Video: Soviet Government and Electoral System by TheFinnishBolshevik: 
31. Video: The Nature of the Soviet Union: State Capitalism? By Tovarishch Endymon 
32. Most Russians Prefer Return of Soviet Union and Socialism: poll (Telesur) 
https://www.telesurtv.net/…/Poll-Most-Russians-Prefer-Retur…
33. Russians Name Stalin, Lenin as 'most outstanding world figures' (Telesur) 
https://www.telesurtv.net/…/Russians-Name-Stalin-Lenin-as-M…
34. Life After the USSR: Buying the Dream, Living the Nightmare by Eric Draitser: 
https://www.telesurtv.net/…/Life-After-the-USSR-Buying-the-…
35. Education in the USSR: Anglo-Soviet Youth Friendship Alliance: 
36. Black Bolshevik by Harry Haywood: 
http://ouleft.org/…/uploa…/Harry-Haywood-Black-Bolshevik.pdf
37. Annual Growth Rates in the USSR 1941-1989: 
https://www.marxists.org/…/econ…/statistics/growth-rates.htm
38. Soviet Industrial Output 1940-1985: 
https://www.marxists.org/…/government/economics/statistics/…
39. Work Hours 1940-1985: 
https://www.marxists.org/…/eco…/statistics/working-hours.htm 
40. How the Soviets Work by H. N Brailsford 
https://www.marxists.org/…/brai…/1927/soviets-work/index.htm
41. Soviet Russia: A Living History by William Henrey Chamberlin 
https://www.marxists.org/…/cha…/1929/soviet-russia/index.htm
42. Soviet Mainstreet by Myra Page: 
https://www.marxists.org/…/a…/page/1933/mainstreet/index.htm

राम राज्य - ओशो

शुगर की बीमारी....
कुछ यूं फैली है साहब..

लोगो ने रिश्तों में भी मिठास रखनी छोड़ दी..!!!!

🎯 

 राम के समय को तुम
रामराज्य कहते हो।
हालात आज से भी बुरे थे। कभी भूल कर रामराज्य फिर मत ले आना!
एक बार जो भूल हो गई, हो गई।
अब दुबारा मत करना।
राम के राज्य में आदमी बाजारों में गुलाम की तरह बिकते थे। कम से कम आज आदमी बाजार में गुलामों की तरह तो नहीं बिकता!
और जब आदमी गुलामों की तरह बिकते रहे होंगे,
तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, नहीं तो कोई बिकेगा कैसे? किसलिए बिकेगा?
दीन और दरिद्र ही बिकते होंगे। कोई अमीर तो बाजारों में बिकने न जाएंगे।
कोई टाटा, बिड़ला, डालमिया तो बाजारों में बिकेंगे नहीं।
स्त्रियां बाजारों में बिकती थीं!
वे स्त्रियां गरीबों की स्त्रियां ही होंगी।
उनकी ही बेटियां होंगी।
कोई सीता तो बाजार में नहीं बिकती थी।
उसका तो स्वयंवर होता था।
तो किनकी बच्चियां बिकती थीं बाजारों में?
और हालात निश्चित ही भयंकर रहे होंगे।
क्योंकि बाजारों में ये बिकती स्त्रियां और लोग--आदमी और औरतें दोनों,
विशेषकर स्त्रियां--राजा तो खरीदते ही खरीदते थे,
धनपति तो खरीदते ही खरीदते थे, जिनको तुम ऋषि-मुनि कहते हो, वे भी खरीदते थे! गजब की दुनिया थी!
ऋषि-मुनि भी बाजारों में बिकती हुई स्त्रियों को खरीदते थे! 
अब तो हम भूल ही गए वधु शब्द का असली अर्थ।
अब तो हम शादी होती है नई-नई, तो वर-वधु को आशीर्वाद देने जाते हैं।
हमको पता ही नहीं कि हम किसको आशीर्वाद दे रहे हैं! राम के समय में--और राम के पहले भी--
वधु का अर्थ होता था,
खरीदी गई स्त्री!
जिसके साथ तुम्हें पत्नी जैसा व्यवहार करने का हक है, लेकिन उसके बच्चों को तुम्हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा!
पत्नी और वधु में यही फर्क था। सभी पत्नियां वधु नहीं थीं, और सभी वधुएं पत्नियां नहीं थीं। वधु नंबर दो की पत्नी थी।
जैसे नंबर दो की
बही होती है न,
जिसमें चोरी-चपाटी का सब लिखते रहते हैं!
ऐसी नंबर दो की पत्नी थी वधु।
ऋषि-मुनि भी वधुएं रखते थे! और तुमको यही भ्रांति है कि ऋषि-मुनि गजब के लोग थे।
इन ऋषि-मुनियों में और तुम्हारे पुराने ऋषि-मुनियों में बहुत फर्क मत पाना तुम। कम से कम इनकी वधुएं तो नहीं हैं! कम से कम ये बाजार से स्त्रियां तो नहीं खरीद ले आते! इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से स्त्री खरीद कर लाए। आज यह बात ही अमानवीय मालूम होगी। मगर यह जारी थी!
रामराज्य में शूद्र को हक नहीं था वेद पढ़ने का! यह तो कल्पना के बाहर थी बात कि डाक्टर अंबेडकर जैसे शूद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचयिता हो सकता था ! ?????
असंभव।
खुद राम ने एक शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया था--गरम सीसा,
उबलता हुआ सीसा!
क्योंकि उसने चोरी से, कहीं वेद के मंत्र पढ़े जा रहे थे, वे छिप कर सुन लिए थे। यह उसका पाप था;
यह उसका अपराध था। और राम तुम्हारे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं! राम को तुम अवतार कहते हो! और महात्मा गांधी रामराज्य को फिर से लाना चाहते थे। क्या करना है?
शूद्रों के कानों में फिर से सीसा पिघलवा कर भरवाना है? उसके कान तो फूट ही गए होंगे।
शायद मस्तिष्क भी विकृत हो गया होगा।
उस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना! शायद आंखें भी खराब हो गई होंगी। क्योंकि ये सब जुड़े हैं; कान, आंख, नाक, मस्तिष्क, सब जुड़े हैं।
और दोनों कानों में अगर सीसा उबलता हुआ...! 
तुम्हारा खून क्या खाक उबल रहा है !
उबलते हुए शीशे की जरा
कल्पना करो!!!
सोचो!
उबलता हुआ सीसा जब कानों में भर दिया गया होगा,
तो चला गया होगा पर्दों को तोड़ कर,
भीतर मांस-मज्जा तक को प्रवेश कर गया होगा;
मस्तिष्क के स्नायुओं तक को जला गया होगा।
फिर इस गरीब पर क्या गुजरी, किसी को क्या लेना-देना है! धर्म का कार्य पूर्ण हो गया। ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की।
यह धर्म की रक्षा थी!
और तुम कहते हो,
"मौजूदा हालात खराब हैं!'
युधिष्ठिर जुआ खेलते हैं, फिर भी धर्मराज थे!
और तुम कहते हो, मौजूदा हालात खराब हैं!
आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्मत कर सकोगे?
और जुआरी भी कुछ छोटे-मोटे नहीं,
सब जुए पर लगा दिया।
पत्नी तक को दांव पर लगा दिया!
एक तो यह बात ही अशोभन है, क्योंकि पत्नी कोई संपत्ति नहीं है।
मगर उन दिनों यही धारणा थी, स्त्री-संपत्ति!
उसी धारणा के अनुसार आज भी जब बाप अपनी बेटी का विवाह करता है,
तो उसको कहते हैं कन्यादान! क्या गजब कर रहे हो! गाय-भैंस दान करो तो भी समझ में आता है।
कन्यादान कर रहे हो! यह दान है? स्त्री कोई वस्तु है?
ये असभ्य शब्द, ये असंस्कृत हमारे प्रयोग शब्दों के बंद होने चाहिए। अमानवीय हैं,
अशिष्ट हैं, असंस्कृत हैं। 
मगर युधिष्ठिर धर्मराज थे। और दांव पर लगा दिया अपनी पत्नी को भी! हद्द का दीवानापन रहा होगा।
पहुंचे हुए जुआरी रहे होंगे। इतना भी होश न रहा। और फिर भी धर्मराज धर्मराज ही बने रहे; इससे कुछ अंतर न आया। इससे उनकी प्रतिष्ठा में कोई भेद न पड़ा। इससे उनका समादर जारी रहा।
भीष्म पितामह को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर ब्रह्मज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! गुरु द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था। मगर गुरु द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे! अगर कौरव अधार्मिक थे,
दुष्ट थे, तो कम से कम भीष्म में इतनी हिम्मत तो होनी चाहिए थी!
और बाल-ब्रह्मचारी थे और इतनी भी हिम्मत नहीं?
तो खाक ब्रह्मचर्य था यह!
किस लोलुपता के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे थे?
और द्रोण तो गुरु थे अर्जुन के भी, और अर्जुन को बहुत चाहा भी था।
लेकिन धन तो कौरवों के पास था;
पद कौरवों के पास था; प्रतिष्ठा कौरवों के पास थी।
संभावना भी यही थी कि वही जीतेंगे।
राज्य उनका था। पांडव तो भिखारी हो गए थे। इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे।
और कसूर कुछ कौरवों का हो, ऐसा समझ में आता नहीं। जब तुम्हीं दांव पर लगा कर सब हार गए, तो मांगते किस मुंह से थे? मांगने की बात ही गलत थी। जब हार गए तो हार गए। खुद ही हार गए, अब मांगना क्या है? 
लेकिन गुरु द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए; खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे।
यही गुरु द्रोण एकलव्य का अंगूठा कटवा कर आ गए थे अर्जुन के हित में, क्योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा। तब इन्होंने एकलव्य को इनकार कर दिया था शिक्षा देने से। क्यों? क्योंकि शूद्र था।
और तुम कहते हो, "मौजूदा हालात बिलकुल पसंद नहीं!' 
एकलव्य को मौजूदा हालात उस समय के पसंद पड़े होंगे? उस गरीब का कसूर क्या था अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी कि मुझे भी स्वीकार कर लो शिष्य की भांति, मुझे भी सीखने का अवसर दे दो? लेकिन नहीं,
शूद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा सकता है!
मगर एकलव्य अनूठा युवक रहा होगा।
अनूठा इसलिए कहता हूं कि उसका खून नहीं खौला।
खून खौलता तो साधारण युवक, दो कौड़ी का। सभी युवकों का खौलता है,
इसमें कुछ खास बात नहीं। उसका खून नहीं खौला।
शांत मन से उसने इसको स्वीकार कर लिया। एकांत जंगल में जाकर गुरु द्रोण की प्रतिमा बना ली। और उसी प्रतिमा के सामने शर-संधान करता रहा। उसी के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा। अदभुत युवक था। उस गुरु के सामने धनुर्विद्या का अभ्यास करता रहा जिसने उसे शूद्र के कारण इनकार कर दिया था; अपमान न लिया। अहंकार पर चोट तो लगी होगी, लेकिन शांति से, समता से पी गया।
धीरे-धीरे खबर फैलनी शुरू हो गई कि वह बड़ा निष्णात हो गया है। तो गुरु द्रोण को बेचैनी हुई, क्योंकि बेचैनी यह थी कि खबरें आने लगीं कि अर्जुन उसके मुकाबले कुछ भी नहीं। और अर्जुन पर ही सारा दांव था।
अगर अर्जुन सम्राट बने, और सारे जगत में सबसे बड़ा धनुर्धर बने, तो उसी के साथ गुरु द्रोण की भी प्रतिष्ठा होगी। उनका शिष्य, उनका शागिर्द ऊंचाई पर पहुंच जाए, तो गुरु भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा। उनका सारा का सारा न्यस्त स्वार्थ अर्जुन में था। और एकलव्य अगर आगे निकल जाए, तो बड़ी बेचैनी की बात थी। 
तो यह बेशर्म आदमी, जिसको कि ब्रह्मज्ञानी कहा जाता है, यह गुरु द्रोण, जिसने इनकार कर दिया था एकलव्य को शिक्षा देने से, यह उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया! शिक्षा देने से इनकार करने वाला गुरु, जिसने दीक्षा ही न दी, वह दक्षिणा लेने पहुंच गया! हालात बड़े अजीब रहे होंगे! शर्म भी कोई चीज होती है! इज्जत भी कोई बात होती है! आदमी की नाक भी होती है! ये गुरु द्रोण तो बिलकुल नाक-कटे आदमी रहे होंगे! किस मुंह से--जिसको दुत्कार दिया था--उससे जाकर दक्षिणा लेने पहुंच गए! 
और फिर भी मैं कहता हूं, एकलव्य अदभुत युवक था; दक्षिणा देने को राजी हो गया। उस गुरु को, जिसने दीक्षा ही नहीं दी कभी! यह जरा सोचो तो! उस गुरु को, जिसने दुत्कार दिया था और कहा कि तू शूद्र है! हम शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते!
बड़ा मजा है! जिस शूद्र को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं कर सकते, उस शूद्र की भी दक्षिणा स्वीकार कर सकते हो! मगर उसमें षडयंत्र था, चालबाजी थी। 
उसने चरणों पर गिर कर कहा, आप जो कहें। मैं तो गरीब हूं, मेरे पास कुछ है नहीं देने को। मगर जो आप कहें, जो मेरे पास हो, तो मैं देने को राजी हूं। यूं प्राण भी देने को राजी हूं।
तो क्या मांगा? मांगा कि अपने दाएं हाथ का अंगूठा काट कर मुझे दे दे!
जालसाजी की भी कोई सीमा होती है! अमानवीयता की भी कोई सीमा होती है! कपट की, कूटनीति की भी कोई सीमा होती है! और यह ब्रह्मज्ञानी! उस गरीब एकलव्य से अंगूठा मांग लिया। और अदभुत युवक रहा होगा,
दे दिया उसने अपना अंगूठा! तत्क्षण काट कर अपना अंगूठा दे दिया! जानते हुए कि दाएं हाथ का अंगूठा कट जाने का अर्थ है कि मेरी धनुर्विद्या समाप्त हो गई। अब मेरा कोई भविष्य नहीं। इस आदमी ने सारा भविष्य ले लिया। शिक्षा दी नहीं, और दक्षिणा में, जो मैंने अपने आप सीखा था, उस सब को विनिष्ट कर दिया।||।
💥💥💥💥💥
क्या
अभी
भी
चाहीये
हमें
राम राज्य ???
📝📝📝📝📝

संस्कृति - हरिशंकर परसाई


भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुंचा और उसे दे ही रहा था कि एक दूसरे आदमी ने उसको खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था।
पहले आदमी ने पूछा, ' क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देते?'
रंगीन आदमी बोला ? ' ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते। तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूं। देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर। हृदय की अधिक महत्ता है। '
पहला आदमी बोला, ' लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है। अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं हो जाएगी! '
रंगीन आदमी हंसा, फिर बोला, ' देखो, मैं बतलाता हूं कि उसकी भूख कैसे बुझेगी। '
यह कहकर वह उस भूखे के सामने बांसुरी बजाने लगा। दूसरे ने पूछा, 'यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा?'
रंगीन आदमी बोला, 'मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूं। तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी। '
वह फिर बांसुरी बजाने लगा।
और तब वह भूखा उठा और बांसुरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी।
-----------------
"इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं।"
"दुनिया भर के पगले सिर्फ पगले.होते हैं.- भारत के पगले आध्यात्मिक.होते हैं।"
"अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है, सभ्यता बरस रही है।"
~ हरिशंकर परसाई - पुण्यतिथि पर सादर

बेर्टोल्ट ब्रेख्त

हँसने वाले को
ख़ौफ़नाक ख़बर
अभी तक बस मिली नहीं है।
मुझसे कहा जाता है :  
तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब हैं।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिलास के लिए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ।
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ! 
- बेर्टोल्ट ब्रेख्त

Bihar Spl. Armed Police Bill, 2021-1.pdf


बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021 के पास हो जाने के बाद पुलिस के पास मुख्यतः ये अधिकार होंगे-


1. बिना वारंट के गिरफ्तार करने की शक्ति

2. बिना वारंट के तलाशी लेने की शक्ति

3. पुलिस अधिकारियों को इस कानून के द्वारा इम्युनिटी प्रदान किया गया है। जब तक सरकार लिखित अनुमति न दे तब तक न्यायालय इनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नही कर सकती।


इस लिये इसका व्यापक विरोधकिया जा रहा है और इसकी तुलना आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट, यानि सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) से किया जा रहा है।


Bihar Spl. Armed Police Bill, 2021-1.pdf 

Monday, 22 March 2021

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं



________________________
1⃣ सपने
सपने हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोयी आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई हथेली पर आये
पसीने को सपने नहीं आते
शैल्फ़ों में पड़े इतिहास के ग्रन्थों को
सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
सहनशील दिलों का होना
सपनों के लिए नींद की नज़र होनी लाजिमी है
सपने इसीलिए सभी को नहीं आते
________________________

2⃣ सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना – बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है
सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

(पाश की पंजाबी में प्रकाशित अन्तिम कविता, जनवरी, 1988)
________________________

3⃣ अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये
आँख की पुतली में 'हाँ' के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझे थे क़ुर्बानी-सी वफ़ा
लेकिन 'गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
'गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है

'गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है

'गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है
कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक़्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।
________________________

4⃣ दो और दो तीन

मैं प्रमाणित कर सकता हूँ -
कि दो और दो तीन होते हैं।
वर्तमान मिथिहास होता है।
मनुष्य की शक्ल चमचे जैसी होती है।
तुम जानते हो -
कचहरियों, बस-अड्डों और पार्कों में
सौ-सौ के नोट घूमते फिरते हैं।
डायरियाँ लिखते, तस्वीरें खींचते
और रिपोर्टें भरते हैं।
'कानून रक्षा केन्द्र' में
बेटे को माँ पर चढ़ाया जाता है।
खेतों में 'डाकू' मज़दूरी करते हैं।
माँगें माने जाने का ऐलान
बमों से किया जाता है।
अपने लोगों से प्यार का अर्थ
'दुश्मन देश' की एजेण्टी होता है।
और
बड़ी से बड़ी ग़द्दारी का तमग़ा
बड़े से बड़ा रुतबा हो सकता है
तो -
दो और दो तीन भी हो सकते हैं।
वर्तमान मिथिहास हो सकता है।
मनुष्य की शक्ल भी चमचे जैसी हो सकती है।
________________________

5⃣ सच

तुम्हारे मानने या न मानने से
सच को कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इन दुखते अंगों पर सच ने एक उम्र भोगी है।
और हर सच उम्र भोगने के बाद,
युग में बदल जाता है,
और यह युग अब खेतों और मिलों में ही नहीं,
फ़ौजों की कतारों में विचर रहा है।
कल जब यह युग
लाल किले पर बालियों का ताज पहने
समय की सलामी लेगा
तो तुम्हें सच के असली अर्थ समझ आयेंगे।
अब हमारी उपद्रवी जाति को
इस युग की फितरत तो चाहे कह लेना,
लेकिन यह कह छोड़ना,
कि झोंपड़ियों में फैला सच,
कोई चीज़ नहीं।
कितना सच है?
तुम्हारे मानने या न मानने से,
सच को कोई़ फ़र्क नहीं पड़ता।
________________________

6⃣ भारत

भारत -
मेरे आदर का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयुक्त किया जाये
शेष सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।
इस शब्द का अभिप्राय
खेतों के उन बेटों से है
जो आज भी पेड़ों की परछाइयों से
वक़्त मापते हैं।
उनकी पेट के बिना, कोई समस्या नहीं
और भूख लगने पर
वे अपने अंग भी चबा सकते हैं।
उनके लिए जि‍न्दगी एक परम्परा है,
और मौत का अर्थ है मुक्ति।
जब भी कोई पूरे भारत की,
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है
तो मेरा दिल करता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ,
उसे बताऊँ
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
बल्कि खेतों में दायर हैं
जहाँ अनाज पैदा होता है
जहाँ सेंधें लगती हैं---
________________________

7⃣ बेदख़ली के लिए विनय-पत्र
(इन्दिरा गाँधी की मृत्यु तथा इसके पश्चात सिखों के कत्ले-आम पर एक प्रतिक्रिया)

मैंने उम्र भर उसके खि़ला़फ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके शोक में सारा ही देश शामिल है
तो इस देश में से मेरा नाम काट दो

मैं ख़ूब जानता हूँ नीले सागरों तक फैले हुए
इस खेतों, खदानों और भट्ठों के भारत को
वह ठीक इसी का साधारण-सा कोई कोना था
जहाँ पहली बार
जब मज़दूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया
किसी के खुरदुरे बेनाम हाथों में
ठीक वही वक़्त था
जब इस कत्ल की साज़ि‍श रची गयी
कोई भी पुलिस नहीं ढूँढ़ सकेगी इस साज़ि‍श की जगह
क्योंकि ट्यूबें केवल राजधानी में जगती हैं
और खेतों, खदानों, भट्ठों का भारत
बहुत अँधेरा है

और ठीक इसी सर्द-अँधेरे में होश सँभालने पर
जीने के साथ-साथ
जब पहली बार इस जि‍न्दगी के बारे में सोचना शुरू किया
मैंने ख़ुद को इसके कत्ल की साज़ि‍श में शामिल पाया
जब भी भयावह शोर के पदचिह्न देख-देख कर
मैंने ढूँढ़ना चाहा टर्रा-र्रा-ते हुए टिड्डे को
शामिल पाया है, अपनी पूरी दुनिया को
मैंने सदा ही उसे कत्ल किया है
हर परिचित व्यक्ति की छाती में से ढूँढ़कर
अगर उसके कातिलों के साथ यूँ ही सड़कों पर निपटना है
तो मेरे हिस्से की सज़ा मुझे भी मिले
मैं नहीं चाहता कि केवल इसलिए बचता रहूँ
कि मेरा पता नहीं है भजन लाल बिश्नोई को -
इसका जो भी नाम है - गुण्डों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूँ
मैं उस पायलट की
कपटी आँखों में चुभता भारत हूँ
हाँ, मैं भारत हूँ चुभता हुआ उसकी आँखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें भी अभी काट दो

* भजन लाल बिश्नोई - हरियाणा का तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री (नवम्‍बर 1984)

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...