गुजराती दलित कविता
राजु सोलंकी
अनुवाद: डॉ.जी. के. वणकर
कौन हैं वे लोग
आप चर्चा कर रहे हैं
उस स्टेडियममें बैठे लोगोंने मास्क पहने थे या नहीं
एकदूसरेसे दो गज की दूरी बनायी थी या नहीं
मुझे मालूम है आप ऐसा ही फालतू चर्चा करेंगे
आप कभी भी पूछेंगे नहीं कि
सचमुच वे लोग हैं कौन?
कुम्भमेलेमें करोड़ो हिंदुओंकी विष्टा
जिन्होंने सर पर ढोयी थी,
ये वो लोग हैं?
जिनके पाँव प्रधान सेवक ने धोये थे
क्या ये वही लोग हैं?
दाहोद और गोधरा, राजपीपला और छोटा उदेपुर से
यहीं अहमदाबादमें
रास्ते बनाते, मेट्रो के वास्ते गड्ढे खोदनेवाले है ये लोग?
नही,ये वो लोग नहीं हैं
ये तो और ही ग्रहसे आये हैं
कोरोना उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता
उनके शरीरसे पसीना नहीं बहता
उन्हें पेट्रोल या डिझल, सोना या चाँदी
किसीकी महंगाई नहीं अखरती.
यहाँ स्टेडियममें वे उत्सव मना रहै हैं
उनकी सफलता
उनका हर्षोल्लास तो देखो
शेयर बाज़ार की तेज़ी का कैफ है
उनके चेहरों पर.
आपकी चाली के बदबूदार संडास से दूर
आपकी गटरों की गंदगी से परे
कहीं दूर
उनकी अलग दुनिया है.
आपके और उनके बीच सिर्फ नाराबाजीका रिश्ता है
भारत माता की जय
जय श्री राम
वन्दे मातरम
कान में कहता हूँ
किसी को बताना मत
ये लोग इक्कीसवीं सदी के अंग्रेज है.
छप्पन के अकालके दौरान खेलते थे अंग्रेज
वही खेल खेल रहे हैं ये अंग्रेज कोरोना काल के.
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