Sunday, 28 March 2021

मक्सिम गोर्की की कहानी "हड़ताल"

 

नेपल्ज़ के ट्राम-कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी। रिव्येरा कयाया सड़क की पूरी लंबाई में ट्राम के ख़ाली डिब्बे खड़े थे और विजय-चौक में ड्राइवरों तथा कंडक्टरों की भीड़ जमा थी – बड़े ही ख़ुशमिज़ाज, हो-हल्ला करने वाले और पारे की तरह चंचल नेपल्ज़वासियों की भीड़। इन लोगों के सिरों और बाग़ के जंगले के ऊपर तलवार की तरह पतली फ़व्वारे की धार हवा में चमक रही थी। जिन लोगों को इस बड़े नगर के सभी भागों में काम-काज से जाना था, उनकी भारी भीड़ शत्रुता की भावना अनुभव करते हुए इन हड़तालियों को घेरे थी। ऐसे सभी कारिंदे, कारीगर, छोटे-मोटे व्यापारी और दर्जी आदि हड़तालियों को ऊँचे-ऊँचे और खीझते हुए भला-बुरा कह रहे थे। ग़ुस्से से भरे शब्द, चुभते व्यंग्य-वाक्य हवा में गूँज रहे थे, हाथ लगातार लहरा रहे थे जिनकी मदद से नेपल्ज़वासी कभी न रुकनेवाली अपनी ज़बान की तरह ही बहुत अभिव्यक्तिपूर्ण तथा अच्छे ढंग से अपने को व्यक्त करते हैं।

सागर की ओर से मंद-मंद समीर बह रहा था। नगर-उपवन के बहुत बड़े-बड़े ताड़ वृक्ष गहरे हरे रंग की अपनी शाखाओं के पंखों को धीरे-धीरे हिला रहे थे। इन ताड़ वृक्षों के तने भीमकाय हाथियों के भद्दे पैरों से बहुत मिलते-जुलते थे। बच्चे – नेपल्ज़ की सड़कों-गलियों के अधनंगे बच्चे – गौरैयों की तरह फुदक रहे थे, हवा को अपनी किलकारियों और ठहाकों से गुँजा रहे थे। नक्काशी की प्राचीन कलाकृति से मिलता-जुलता शहर सूरज की किरणों में नहाया हुआ था, पूरे का पूरा मानो आर्गन बाजे के संगीत में डूबा था। खाड़ी की नीली लहरें तट-बँध से टकराती थीं, खंजड़ी जैसी छनक पैदा करती हुई लोगों के शोर और चीख़-चिल्लाहट का साथ देती थीं। भीड़ की ग़ुस्से भरी आवाज़ों का लगभग जवाब दिए बिना हड़ताली एक-दूसरे के साथ सटते जाते थे, बाग़ के जंगले पर चढ़कर लोगों के सिरों के ऊपर से सड़क की ओर बेचैनी से देखते थे और कुत्तों से घिरे हुए भेड़ियों जैसे लगते थे। सभी यह जानते थे कि एक जैसी वर्दी पहने हुए हड़ताली इस दृढ़ निर्णय के सूत्र में कसकर बँधे हुए हैं कि किसी भी हालत में क़दम पीछे नहीं हटाएँगे और भीड़ को इस बात से और भी अधिक ग़ुस्सा आ रहा था। किंतु भीड़ में कुछ दार्शनिक क़िस्म के लोग भी थे, जो बड़े इत्मीनान से सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए हड़ताल के बहुत ही कट्टर विरोधियों के साथ इस प्रकार तर्क-वितर्क कर रहे थे –

"अजी महानुभाव! अगर बच्चों को सेवैयाँ तक खिलाने को पैसे काफ़ी न हों तो आदमी करे भी तो क्या?"

नगरपालिका के बने-ठने पुलिसवाले दो-दो, तीन-तीन की टोलियों में खड़े हुए इस बात की ओर ध्यान दे रहे थे कि लोगों की भीड़ के कारण ट्रामों की गतिविधि में बाधा न पड़े। वे कड़ाई से तटस्थता का अनुकरण कर रहे थे, हड़तालियों तथा हड़ताल-विरोधियों को एक जैसी शांत नज़र से देखते थे। और जब चीख़-चिल्लाहट तथा हाव-भाव बहुत ही उग्र रूप धारण कर लेते थे, तो दोनों पक्षों का ख़ुशमिज़ाजी से मज़ाक़ उड़ाते थे। कोई गंभीर भिड़ंत हो जाने की हालत में दख़ल देने को तैयार फ़ौजी-पुलिस के दस्ते छोटी-छोटी और हल्की-हल्की बंदूक़ें हाथ में लिए हुए पास की तंग-सी गली के घरों की दीवार के साथ सटे खड़े थे। तिकोने टोप, छोटे-छोटे लबादे और पतलूनों पर रक्त की दो धाराओं जैसी पट्टियोंवाले पतलून पहने ये लोग ख़ासे मनहूस लग रहे थे।

आपसी तू-तू मैं-मैं, ताने-बोलियाँ, व्यंग और तर्क-वितर्क – अचानक यह सब कुछ बंद हो गया, लोगों में एक नई, मानो शांति देनेवाली भावना की लहर-सी दौड़ गई, हड़तालियों के चेहरों पर अधिक गंभीरता छा गई, साथ ही वे एक-दूसरे के अधिक निकट हो गए और भीड़ चिल्ला उठी –

"फ़ौजी आ गए!"

हड़तालियों का मज़ाक़ उड़ाती और किलकारी भरी सीटियाँ सुनाई दीं, अभिवादन के नारे गूँज उठे और हल्के भूरे रंग का सूट तथा पनामा टोपी पहने कोई मोटा-सा आदमी पत्थरों की सड़क पर पाँव बजाता हुआ उछलने-कूदने लगा। कंडक्टर और ट्राम-ड्राइवर भीड़ को चीरते हुए धीरे-धीरे ट्रामों की तरफ़ बढ़ने लगे, उनमें से कुछेक तो पायदानों पर चढ़ भी गए – वे पहले से भी ज़्यादा संजीदा हो गए थे और भीड़ की आवाजों का कठोरता से जवाब देते हुए उसे रास्ता देने को मजबूर कर रहे थे। ख़ामोशी छा गई।

तटवर्ती सान्टा लुचीया की ओर से भूरी वर्दियाँ पहने छोटे-छोटे फ़ौजी नाच की तरह हल्के-फुल्के क़दम बढ़ाते, पाँवों से लयबद्ध आवाज़ पैदा करते और बाएँ हाथों को एक ही ढंग से यंत्रवत हिलाते हुए चले आ रहे थे। वे मानो टीन के बने हुए और चाबी से चलने वाले खिलौनों की तरह आसानी से टूट जाने वाले प्रतीत हो रहे थे। त्योरियाँ चढ़ाए और होंठों पर तिरस्कारपूर्वक बल डाले हुए ऊँचे क़द का एक सुंदर अफ़सर इनका नेतृत्व कर रहा था। ऊँचा टोप पहने, लगातार कुछ बोलता और हाथों के असंख्य संकेतों से हवा को चीरता हुआ एक मोटा-सा आदमी उसके साथ-साथ उछलता और दौड़ता चला आ रहा था।

भीड़ तेज़ी से ट्रामों से दूर हट गई – भूरे रंग की माला के मनकों की तरह फ़ौजी पायदानों के पास रुकते हुए, जहाँ हड़ताली खड़े थे, डिब्बों के निकट बिखर गए।

ऊँचा टोप पहनेवाले को घेरे हुए कुछ अन्य धीर-गंभीर लोग हाथों को ज़ोर से हिलाते हुए चिल्ला रहे थे –

"आख़ि‍री बार – Ultima volta! सुन लिया?"

अफ़सर एक ओर को सिर झुकाए हुए ऊब-भरे ढंग से अपनी मूँछों पर ताव दे रहा था। ऊँचे टोप को हिलाता और भागता हुआ वह व्यक्ति उसके पास आया और उसने खरखरी आवाज़ में चिल्लाकर कुछ कहा। अफ़सर ने तिरछी नज़र से उसकी तरफ़ देखा, तनकर खड़ा हो गया, उसने छाती को अकड़ाया और ऊँची आवाज़ में आदेश देने लगा।

ऐसा होते ही फ़ौजी उछलकर ट्रामों के पायदानों पर दो-दो की संख्या में चढ़ने लगे और इसी समय ट्राम-ड्राइवर और कंडक्टर नीचे कूद गए।

भीड़ को यह दिलचस्प मज़ाक़-सा प्रतीत हुआ – लोग चीख़ने-चिल्लाने, सीटियाँ बजाने और ठहाके लगाने लगे। किंतु यह सब एकाएक शांत हो गया और लोग गंभीर तथा तनावपूर्ण चेहरे बनाए और हैरानी से आँखें फैलाए हुए भारी मन से ट्रामों से पीछे हटने लगे और सबसे आगे खड़ी ट्राम की ओर बढ़ चले।

सभी को यह साफ़ दिखाई देने लगा कि ट्राम के पहियों से दो क़दम की दूरी पर पके बालोंवाला एक ड्राइवर, जिसका चेहरा फ़ौजियों जैसा था, सिर से टोपी उतारकर लाइनों के आर-पार चित लेटा हुआ है और चुनौती देती-सी उसकी मूँछें आकाश को ताक रही हैं। बंदर की तरह चुस्त-फुर्तीला, एक नाटा-सा तरुण भी उसके पास ही लेट गया और उसके बाद अन्य लोग भी इत्मीनान से वहीं लेटते चले गए।

भीड़ में दबी-घुटी भनभनाहट थी, मादोन्ना का आह्नान करती हुई भयभीत-सी आवाजें गूँज उठती थीं, कुछ लोग झल्लाकर भला-बुरा भी कहते, औरतें चीख़तीं और आहें भरतीं और इस दृश्य से आश्चर्यचकित छोकरे रबड़ के गेंदों की तरह उछल रहे थे।

ऊँचा टोप पहने व्यक्ति सिसकती-सी आवाज़ में कुछ चिल्लाया, अफ़सर ने उसकी ओर देखकर कंधे झटके – अफ़सर को ड्राइवरों की जगह पर अपने फ़ौजी तैनात करने चाहिए थे, किंतु उसके पास हड़तालियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश-पत्र नहीं था।

तब ऊँचे टोपवाला व्यक्ति जी-हुजूरी करनेवाले कुछ आदमियों को साथ लिए हुए फ़ौजी पुलिसियों की ओर लपका – वे अपनी जगहों से हिले, पटरियों पर लेटे हुए लोगों के पास आए और उन्हें वहाँ से उठाने के इरादे से उन पर झुक गए।

कुछ हाथापाई और झगड़ा हुआ, लेकिन अचानक धूल से लथपथ दर्शकों की सारी भीड़ हिली-डुली, चीख़ी-चिल्लाई और ट्राम की पटरियों की ओर भाग चली। पनामा टोपी पहने हुए व्यक्ति ने टोपी सिर से उतारी, उसे हवा में उछाला, हड़ताली का कंधा थपथपाकर तथा ऊँची आवाज़ में उसे प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहकर सबसे पहले उसके निकट लेट गया।

इसके बाद खुशमिज़ाज और शोर मचाते हुए कुछ लोग, ऐसे लोग जो दो मिनट पहले तक वहाँ नहीं थे, ट्राम की पटरियों पर ऐसे गिरने लगे, मानो उनकी टाँगें काट दी गई हों। वे ज़मीन पर लेटते, हँसते हुए एक-दूसरे की ओर देखकर मुँह बनाते और चिल्लाकर अफ़सर से कुछ कहते जो ऊँचे टोपवाले व्यक्ति के सामने अपने दस्ताने फटकारता, व्यंग्यपूर्वक हँसता और सुंदर सिर को झटकता हुआ कुछ कह रहा था ।

अधिकाधिक लोग पटरियों पर लेटते जाते थे, औरतें अपनी टोकरियाँ और पोटलियाँ फेंक रही थीं, हँसी से लोट-पोट होते हुए छोकरे ठिठुरे पिल्लों की तरह गुड़ी-मुड़ी हो रहे थे और अच्छे कपड़े पहने लोग भी दाएँ-बाएँ करवट लेते हुए धूल में लोट रहे थे।

पहली ट्राम से पाँच फौजियों ने बहुत-से लोगों को पहियों के नीचे लेटे देखा, हँसी के मारे उनका बुरा हाल हो रहा था, वे हैंडलों को थामकर डोलते हुए, सिरों को पीछे की ओर झटकते तथा आगे की तरफ़ झुकते हुए ज़ोर के ठहाके लगा रहे थे। अब वे टीन के बने खिलौनों जैसे बिल्कुल नहीं लग रहे थे।

आधा घंटे के बाद शोर मचाती, चीं-चूँ की आवाज़ पैदा करती हुई ट्रामें सारे नेपल्ज़ में चल रही थीं, उनके पायदानों पर ख़ुशी से मुस्कराते हुए विजेता खड़े थे और डिब्बों के साथ-साथ चलते हुए भी वही बड़ी शिष्टता से पूछ रहे थे –

"टिकट?!"

उनकी ओर लाल और पीले नोट बढ़ाते हुए लोग आँखें मिचमिचाते थे, मुस्कराते थे, ख़ुशमिज़ाजी से बड़बड़ाते थे।

मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 5 ♦ मार्च 2021 में प्रकाशित

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