रंगों से डर नही लगता है साहब
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से
उसके चक्रान्त से
उसके अन्जाम से उसके पहचान से
रंगों से डर नही लगता है साहब
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।
डर लगता है उस दृष्टान्त को सोचकर
कैसे तड़पाये होंगे
कैसे नोच नोच खायें होंगे
कैसे, कैसे उनके साथ पेश आये होंगे
कैसे ज़बरन आग पे बैठाये होंगे
कैसे चिन्गारी सुलगाये होंगे
कैसे खुद को बचाने के लिए तिलमिलाये होंगे
रंगों से डर नही लगता है साहब
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।
रंगों से डर नही लगता है साहब,
डर लगता है उसके वहशीपन से
डर लगता है उसके चिन्तन मनन से
डर लगता है उसके मदिरा सेवन से
डर लगता है उस कलुषित अन्धेरी रात से
डर लगता है घटी घटनाओं की रात से
रंगों से डर नही लगता है साहब
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से ।
रंगों से डर नही लगता है साहब,
डर लगता है त्योहार के उपनाम से
डर लगता है उसके हरकतों शैतान से
डर लगता है उसके पीछे शैतान से
डर लगता है उसके पीछे छुपे इमान से
रंगों से डर नही लगता है साहब
डर लगता है उसके पीछे छुपे राज से
कवि_ सूरज पाशवाँ टीटागढ पं बंगाल
शीर्षक _रंगों से डर नही लगता है साहब
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