Monday, 30 November 2020

लघु किसान और चल रहा किसान आंदोलन- दामोदर



कृषि बिल को लेकर किसानों के आंदोलन ने कृषि प्रश्न को फिर से राजनीतिक बहस के मध्य में लाकर खड़ा कर दिया है।

मोदी नीत सरकार को कोसते हुए विशेषज्ञ इस समस्या की जड़ 2014 के बाद से आई फ़ासीवाद परस्त सरकार पर ठीकरा फोड़ रहे हैं, और कोस रहे हैं, पर वे शायद भूल गए की इन बिलों पर काम आज की प्रगतिशीलता की हरावल कांग्रेस थी। 2012 में यू पी ए II के तहत कृषि रिपोर्ट में इस तरह की योजना के बारे में सरकार को रिपोर्ट पेश की गई थी, जिसमें भारतीय कृषि क्षेत्र में भूमि विखंडन से उपज रही समस्या और अन्य सुझाव दिए गए थे, जो  मोदी सरकार की इन बिलों में परिलक्षित होता हम देख सकते हैं। मोदी सरकार का किसान या सम्पूर्ण मेहनतकश हित विरोधी चरित्र पर हमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन कांग्रेस और उसकी सरकार को क्लीन चिट देना और उस समय को 2014 के मुकाबले स्वर्णिमयुग वाली संज्ञा का हम जोरदार विरोध करते हैं। फ़ासीवाद विरोधी नारा लगाने वाले यह शायद भूल जाते हैं कि समूचा खेल पूंजी और उसके पुनरुत्पादन का है। दिमित्रोव थीसिस को उद्धरित करने के बावजूद फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष को वृहत पूँजीवादी संघर्ष से अलग कर राजनीतिक दिशाहीनता की स्थिति का निर्माण करते हैं, और तब यह सारा संघर्ष तात्कालिकता, सांख्यकी और अनुभवजन्य समझ (empirical understanding) के दायरे में कैद हो कर रह जाता है। जिसकी चाहत शासक वर्ग को हमेशा से रहती है।

 आंदोलन अगर होता भी है तो उन्हें खांचों में बांधने का काम आंदोलनकारियों का नेतृत्व ही कर देता है, फिर राज्य सत्ता को इस तरह के आंदोलन को खुद में समाहित (coopt) या उसे बांधने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इतिहास इस का सबूत और गवाह है।

चल रहे किसान आंदोलन के साथ भी यही हो रहा है। तथाकथित 'मुख्यधारा के विशेषज्ञों' की बात करने से कोई लाभ नहीं है, पर क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़े लोग भी आंदोलनों के नेतृत्व और वर्ग चरित्र पर सवाल कर रहे हैं। परंतु आंदोलन केवल नेतृत्व या नेतृत्वकारी वर्ग से उसकी सिर्फ पहचान नहीं होती। आज किसानों का आन्दोलन बड़े किसान के हाथ में है, और उसकी भाषा और मांगे भी बड़े किसानों के पक्ष वाली है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस आन्दोलन को छोटे, और मध्यम किसानों का भी समर्थन प्राप्त है। 

कुछ वामपंथी संगठन इसे बड़े किसानों की साजिश और सीमान्त-मध्यम किसानों की नासमझी बता कर पूरे मुद्दे को यांत्रिक और सतही तौर पर विश्लेषित कर रहे हैं। उनके मुताबिक चूँकि यह आन्दोलन का नेतृत्व बड़े किसानों के हाथ है, और पूंजीवाद कि यह नियति है कि उसमे छोटे किसान का खात्मा होगा, इसलिए कम्युनिस्ट खेमे को इस आन्दोलन से अलग रहना चाहिये। 

उनकी तक़रीर इस बात पर सही है कि चल रहे आन्दोलन को जिस तरह से संसदीय वामपंथ और कुछ और ग्रुप ने समर्थन दे रहे हैं, और इसमें फासीवाद (असल में मोदी सरकार) विरोधी संभावनाओं को तलाश रहे हैं वह नारोदवादी समझ से ज्यादा कुछ नहीं। किंतु इस आन्दोलन को केवल इस बात पर की उसका नेतृत्व कुलकों के हाथ में है नकारना यांत्रिक समझ की उपज है, जिसका कम से कम मार्क्सवादी समझदारी में कोई स्थान नहीं है।

इस आंदोलन में बड़ी संख्या में सीमांत किसानों और युवाओं का होना देश में सामाजिक आर्थिक संबंधों में हो रही तब्दीलियों की तरफ इशारा कर रहा है। 
श्रम और पूंजी के अन्तरद्वेष और खींचातानी से उभरे सामाजिक आर्थिक संबंध नए संघर्षों की ओर इशारा कर रही है।

औद्योगिक क्षेत्र में कम होते रोज़गार के कारण जनसंख्या का बड़ा तबका बेरोज़गार की फौज में तब्दील हो गया है। पूँजीवाद व्यवस्था बेशी जनसंख्या (surplus population) की विशाल कतार खड़ी कर देती है। यह बेरोज़गार का बड़ा हिस्सा छोटे और सीमांत किसान के बच्चे हैं, जो latent reserve के तौर पर जन्म ले श्रम की रिज़र्व सेना का हिस्सा बन जाते हैं।

सीमांत किसान का सर्वहाराकरण तो बहुत पहले से ही हो चुका है, इनका बड़ा हिस्सा तो वह है जो अपने जीवोपार्जन के लिए श्रम शक्ति को साल दर साल खेती के बाद पूंजी को बेचता आया है। इनका ज़मीन से जुड़ाव बना हुआ है, किंतु ये वे  मज़दूर है जिनके पास जमीन का मालिकाना हक बाक़ी है, (proletarians with land holding). इनकी चिंता का कारण है कि जो बिल में प्रावधान है उससे उनकी रही सही जीवोपार्जन का साधन भी नष्ट होने की संभावना है।

यह बात सही है कि सीमांत किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की परिधि से बाहर रहते हैं किंतु यह बात को नकारा नहीं जा सकता कि यही एम.एस.पी उनके द्वारा बेचे गए अधिषेक जिंस का मानक भी तय करता है। आढ़तियों से अधिकतर संबंध केवल मोल भाव का न हो कर सामाजिक भी होता है। बड़े किसान आढ़ती भी होते हैं और सामाजिक तौर से दूसरे संबंधों से भी सीमांत किसानों द्वारा जुड़े होते हैं। 

ये बिल एक और काम करने जा रहा है। कृषि में पूंजी संचयन जो अभी तक औद्योगिक पूंजी से अलग रही उसको यह बिल औद्योगिक पूंजी के अंतर्गत सम्मिलित कर लेगा। अभी जो कृषि क्षेत्र में पूंजी का संचयन हो रहा है उसकी पहुंच और रफ्तार दोनों ही औद्योगिक पूंजी के मुकाबले धीमी और कम गति की है, एक बार जब यह औद्योगिक पूंजी द्वारा सम्मलित हो जाएगा तो इसकी रफ्तार द्रुत गति से बढ़ेगी। यही बात कई औद्योगिक घराने करते आये हैं और मोदी सरकार ने अपने वर्ग चरित्र का निर्वहन करते हुए यह कर भी दिया है।

यह आंदोलन केवल बड़े किसानों का ना रह उनलोगों का भी हो गया है जिनकी चिंता उनके पूंजी द्वारा अधिशेषित (surplused) हो जाने की है। यह बिल उनकी असमंजसता की स्थिति को संकट में तब्दील कर दिया है।
हर आंदोलन का बहु चरित्र होता है, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उसका वर्ग विश्लेषण कर सही आंकलन करें।

पूंजीवाद खुद को जीवित रखने लिए हमेशा से नई संभावनाओं को तलाशता है और जन्म भी देता है, वह इन आंदोलनों को खुद में समाहित करने का काम भी करता है और उन्हें खत्म करने का भी। सवाल मज़दूर आंदोलन के सामने यह है कि इस तरह के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के रुख को कैसे पूँजीवादी विरोधी रास्ते पर ले आता है।

यदि संसदीय वाम नरोदनिक हो गया है तो क्या खुद को विशुद्धिवादी वाम कहने वाले विरूपित लेनिनवादी तो नहीं हो गये?

Saturday, 28 November 2020

अगस्त बेबेल के नाम एंगेल्स का पत्र लन्दन, २० जून १८७३


मैं पहले तुम्हारे पत्र का जवाब दे रहा हूं, क्योंकि लीब्कनेख्त का ख़त अभी तक मार्क्स के पास है और वह उसे इस वक़्त ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं।हेपनर नहीं, बल्कि हेपनर के नाम यार्क के ख़त से जिस पर समिति के दस्तख़त हैं, हम लोगों को यह आशंका हुई कि तुम्हारे कारावास को पार्टी के अधिकारीगण, जो दुर्भाग्यवश सब के सब लासालपंथी हैं, «Volksstaat» को " सच्चे" «Neuer Social-Demokrat» बना डालने के लिए इस्तेमाल करेंगे। यार्क ने तो साफ़-साफ़ क़बूल किया कि उनका यही इरादा था। और चूंकि समिति का दावा था कि सम्पादकों को नियुक्त करने और हटाने का उसे अधिकार है, इसलिए ख़तरा सचमुच काफ़ी बड़ा था। हेपनर के आसन्न निर्वासन से ये योजनायें और भी मज़बूत होती थीं। इस सूरत में हमारे लिए यह जानना परमावश्यक था कि स्थिति क्या है। यह चिट्ठी-पत्री इसी लिए की जा रही है...
जहां तक लासालपंथियों के प्रति पार्टी के रुख का सवाल है, तुम हम लोगों से ज़्यादा अच्छी तरह से विचार कर सकते हो कि खास-खास मामलों में कौनसी कार्यनीति अपनानी चाहिए। लेकिन विचारने की बात यह भी है कि जब कोई तुम्हारी तरह एक हद तक आम जर्मन मज़दूर संघ के प्रतियोगी की स्थिति में हो तो वह बड़ी आसानी से अपने प्रतिद्वन्द्वी का बहुत ज़्यादा लिहाज़ करने लगता है और इसकी आदत पड़ जाती है कि हमेशा सबसे पहले उसकी ही बात सोचे । लेकिन आम जर्मन मजदूर संघ और सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी , ये दोनों ही अभी जर्मन मजदूर वर्ग के अत्यन्त अल्पसंख्यक भाग हैं। हमारी राय (दीर्घ-कालीन व्यवहार द्वारा उसकी पुष्टि हो चुकी है ) यह है कि प्रचार क्षेत्र में सही कार्यनीति यह है कि अपने विरोधियों में से अलग-अलग व्यक्तियों और जहां-तहां से कुछ सदस्यों को फुसलाकर साथ नहीं लाना चाहिए , बल्कि अभी तक निष्क्रिय आम जनसमुदाय के बीच काम करना चाहिए। एक ऐसे व्यक्ति की अपरिष्कृत शक्ति, जिसे हमने खुद आरम्भ से ही प्रशिक्षित करके तैयार किया है , दस लासालपंथी रंगे सियारों से ज़्यादा मूल्यवान है, जो हमेशा अपने साथ पार्टी में गलत प्रवृत्तियों के बीज लेकर आते हैं। और अगर कहीं हमें आम जनता अपने स्थानीय नेताओं के बिना मिल सके , तो वह भी ठीक है । पर होता यह है कि हमें साथ ही साथ इन नेताओं की एक पूरी जमात को भी लेना पड़ता है। वे अपने भूतपूर्व विचारों से नहीं तो अपने भूतपूर्व सार्वजनिक वक्तव्यों से तो बंधे ही होते हैं, और वे यह साबित करने की सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस करते हैं कि हमने अपने पुराने सिद्धान्तों का परित्याग नहीं किया है, बल्कि उलटे सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी सच्चे लासालपंथ का प्रचार करती है। आइजेनाख़ में दुर्भाग्य से यही बात हुई गोकि सम्भवत: उस समय उससे बचा नहीं जा सकता था। लेकिन इसमें जरा भी शक नहीं कि इन तत्त्वों ने पार्टी को नुक़सान पहुंचाया है। मैं विश्वासपूर्वक यह नहीं कह सकता कि ये लोग पार्टी में अगर न आये होते तो पार्टी आज कम से कम उतनी ही ताक़तवर न रहती जितनी कि वह है। जो भी हो, अगर इन तत्त्वों को नयी कुमक हासिल हुई तो मैं इसे दुर्भाग्य की बात समझूंंगा। 
          "एकता" के नारे से हमें गुमराह नहीं होना चाहिए। जिन लोगों की ज़बान से यह शब्द सबसे ज्यादा सुनने को मिलता है, वे ही सबसे ज्यादा फूट के बीज बो रहे हैं। उदाहरण के लिए,सारी फूटों को उकसानेवाले,स्विट्ज़रलैंडी जूरा के बकूनिनपंथी ही सबसे ज्यादा एकता की गुहार कर रहे हैं। एकता की रट लगानेवाले ये जिहादी या तो ऐसे कम अक्ल लोग हैं जो सभी चीज़ों को एक ही हांडी में मिलाकर उसका एक बदरंग झोल तैयार करना चाहते हैं , ऐसा झोल जो जहां वह बैठना शुरू हुआ नहीं कि अपना सारा अलगाव प्रगट कर देगा और ज्यादा तीखेपन के साथ प्रगट कर देगा क्योंकि तब सब कुछ एक ही बर्तन के अन्दर होगा (इसकी बढ़िया मिसाल जर्मनी में वे लोग उपस्थित करते हैं जो मजदूरों और निम्नपूंजीपतियों के मेल-मिलाप की बातें करते हैं )। या ऐसे लोग एकता की रट लगाते हैं जो बिना जाने-बूझे ( उदाहरणार्थ म्यूलबर्गर जैसे लोग ) या जान-बूझकर आन्दोलन की विशुद्धता नष्ट करना चाहते हैं। इसी लिए सबसे बड़े संकीर्णतावादी और सबसे बड़े गुल-गपाड़िये तथा बदमाश कुछ ख़ास मौकों पर सबसे ज़्यादा गला फाड़कर एकता की दुहाई देते हैं। हमें अपनी ज़िन्दगी में एकता की गुहार मचानेवालों से ज़्यादा किसी ने परेशान नहीं किया है और न कोई इनसे ज्यादा धोखेबाज़ निकला है।
 स्वभावतः पार्टी का हर नेतृत्व सफलताएं चाहता है। और यह बहुत अच्छी चीज़ भी है। पर ऐसी भी परिस्थितियां होती हैं जब यह ज़रूरी हो जाता है कि अधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ों के लिए तात्कालिक सफलता निछावर कर देने का साहस दिखाया जाये। खासकर यह हमारी जैसी पार्टी के लिए ज़रूरी है जिसकी अन्तिम सफलता परम सुनिश्चित है और जिसने अपने जीवनकाल में और हमारे देखते-देखते इतनी ज़बर्दस्त प्रगति की है। उसके लिए सदा ही और अनिवार्य तात्कालिक सफलता की कोई ज़रूरत नहीं है, उदाहरण के लिए इंटरनेशनल को ही लें। कम्यून के बाद  उसे विपुल सफलता प्राप्त हुई । पूंजीपति वर्ग, जिसे लकवा मार गया था, उसे सर्वशक्तिमान मानने लगा था। इंटरनेशनल के सदस्यों की बहुत बड़ी संख्या विश्वास करने लगी थी कि यह अवस्था चिरकाल तक क़ायम रहेंगी । पर हम अच्छी तरह जानते थे कि बुलबुला जरूर फूटेगा। सभी ऐरे- गैरे नत्थू-खैरे उसके साथ हो लिये थे। उसके अन्दर बैठे संकीर्णतावादियों की बन आयी। इस आशा से कि उन्हें नीच से नीच और मूर्खतापूर्ण से मूर्खतापूर्ण हरकतें करने की इजाजत है, वे इंटरनेशनल का दुरुपयोग करने लगे। हमने यह नहीं होने दिया। हम बखूबी जानते थे कि बुलबुला एक दिन ज़रूर फूटेगा। इसलिए हमने इस बात की फ़िक्र नहीं की कि आफ़त टली रहे, बल्कि इस बात का खयाल रखा कि इंटरनेशनल जब संकट से बाहर निकले , वह खरा, बेदाग़ हो और उसमें कहीं मिलावट न हो। हेग में बुलबुला फूटा और तुम जानते ही हो कि कांग्रेस के अधिकांश प्रतिनिधि निराश और पस्त होकर घर लौटे थे। और फिर भी इंटरनेशनल में विश्व बन्धुत्व और मेल-मिलाप का आदर्श पाने की कल्पना करनेवाले प्रायः इन सभी निराश लोगों के अपने घर में जो झगड़े थे वे हेग में हुए झगड़े से कहीं ज्यादा कटुतापूर्ण थे ! अब संकीर्णतावादी झगड़ेबाज़ मेल-मिलाप के उपदेश दे रहे हैं और हम लोगों पर कलहप्रिय और तानाशाह होने का आरोप लगा रहे हैं ! पर अगर हमने हेग में समझौते का रास्ता अपनाया होता , फूट दबा दी होती और फूट न पड़ने दी होती तो परिणाम क्या होता? संकीर्णतावादी, ख़ासकर बकूनिनपंथी, एक वर्ष और पा जाते जिसमें वे इंटरनेशनल के नाम पर और भी बड़ी-बड़ी मूर्खताएं और कलंकपूर्ण कृत्य करते। सबसे विकसित देशों के मजदूर उकताकर विमुख हो जाते । बुलबुला फूटता नहीं, बल्कि हलकी-हलकी खरोंचे खाकर धीरे-धीरे पिचकता और अगली कांग्रेस , जिसमें संकट का सामने आना प्रत्येक दशा में अनिवार्य था , निकृष्टतम वैयक्तिक दंगों और फ़साद का अखाड़ा बनकर रह जाती, क्योंकि सिद्धान्त की तो हेग में ही कुरबानी दी जा
चुकी होती! तब इंटरनेशनल सचमुच टुकड़े-टुकड़े हो जाता - " एकता " के कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाता ! इसके बदले , हमने ससम्मान सड़े-गले तत्त्वों से छुटकारा प्राप्त कर लिया है। (अन्तिम और निर्णायक अधिवेशन में मौजूद कम्युन के सदस्यों का कहना है कि यूरोप के सर्वहारा वर्ग के इन गद्दारों का फैसला सुनानेवाली कचहरी के अधिवेशन ने जितना ज़बर्दस्त असर उनके ऊपर डाला, उतना कम्यून के किसी अधिवेशन ने नहीं डाला था।) दस महीनों तक हमने उन्हें झूठ, कुत्सा एवं षड्यंत्रों में अपनी शक्ति व्यय करने दी, और आज कहां हैं वे ? इंटरनेशनल के विशाल बहुमत के ये तथाकथित प्रतिनिधि आज स्वयं ऐलान करते हैं कि अगली कांग्रेस में आने की उनकी हिम्मत नहीं है (और तफ़सीलें *Volksstaats*  के लिए एक लेख में हैं जो इस चिट्ठी के साथ भेजा जा रहा है)। और अगर हमें यह काम दोबारा करना हो तो कुल मिलाकर, हम इससे भिन्न मार्ग नहीं अपनायेंगे। बेशक , कार्यनीतिक भूलें सदा होती ही रहती हैं।
         जो भी हो , मेरा ख़याल है कि लासालपंथियों के कार्यकुशल तत्त्व समय आने पर आप ही तुम्हारी ओर उन्मुख होंगे। इसलिए पकने के पहले ही फल को तोड़ लेना, जैसा कि एकतावादी चाहते हैं , बुद्धिमानी नहीं होगी। 
    वैसे तो वृद्ध हेगेल पहले ही फ़रमा चुके हैं : जो पार्टी अपने में फूट के लिए तैयार हो और उस फूट को झेल सके , वह यह सिद्ध करती है कि वह जीवनक्षम पार्टी है। सर्वहारा का आन्दोलन अनिवार्यतः विकास की विभिन्न मंजिलों से होकर गुजरता है। हर मंज़िल में चलनेवालों का एक हिस्सा फंसकर रह जाता है और आगे बढ़ने में साथ नहीं देता। यही वजह है कि " सर्वहारा की एकता" एक दूसरे के विरुद्ध जीवन-मरण के संघर्ष (जैसा संघर्ष रोमन साम्राज्य में, घनघोर दमन के बीच , ईसाई पंथों के बीच चला करता था) में रत विभिन्न पार्टी दलों में सब जगह सचमुच निष्पन्न हो रही है। 
     तुम्हें यह भी हरगिज़ न भूलना चाहिए कि «Neuer Social-Democrats के ग्राहकों की संख्या Volksstaats के ग्राहकों से यदि अधिक है तो इसका कारण यह है कि प्रत्येक पंथ अनिवार्यतः अपने मत का दीवाना होता है और इसकी बदौलत, खासकर उन इलाक़ों में जहां वह नवोदित है - मसलन् श्लेज़विग-होल्स्टिन में आम जर्मन मजदूर संघ – पार्टी से ( जो संकीर्णतावादी सनकों से मुक्त वास्तविक आन्दोलन का ही प्रतिनिधित्व करती है ) अधिक तात्कालिक सफलताएं प्राप्त
करता है। पर दूसरी ओर, दीवानापन बहुत दिन नहीं चलता।
   पत्र ख़त्म करना है, क्योंकि डाक छूटनेवाली है। जल्दी में इतना और जोड़ दूं- मार्क्स फ्रांसीसी अनुवाद (पूंजी का पहला खंड) के समाप्त होने तक (यानी लगभग जुलाई के अंत तक ) लासाल के साथ नहीं उलझ सकते , अलावा इसके बहुत ज़्यादा मेहनत करने की वजह से उन्हें आराम की सख्त ज़रूरत है ...

फ्रेडरिक एंगेल्स-Worker's Unity

वो महान मज़दूर नेता, जिसकी कही हुई बातें आज भी सच हैं- 'पूरी दुनिया को आज भी कम्युनिज़्म का भूत सता रहा है'

मज़दूरों के महान नेता फ्रेडरिक एंगेल्स के दूसरे शताब्दी वर्ष पर विशेष

मज़दूर वर्ग के महान नायकों में से एक और कार्ल मार्क्स के अभिन्न दोस्त फ्रेडरिक एंगेल्स के जन्म की 200वीं वर्षगांठ पूरी दुनिया मना रही है।

एंगेल्स जर्मनी के राइन प्रान्त में स्थित बारमेन नगर में 28 नवंबर 1820 में जन्म लिया था। महज 24 साल की उम्र में ही "इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा' – जैसी अद्भुत प्रखरता से युक्त क्लासिकी किताब लिखी, जो उस समय पूरी दुनिया की आंख खोलने वाली साबित हुई।

मज़दूर वर्ग के महान नेता कार्ल मार्क्स के साथ उनकी दोस्ती की मिसालें आज भी दी जाती हैं। दोनों ने मिलकर 'कम्युनिस्ट घोषणा पत्र' लिखा, जिसका आज पूरी दुनिया के हर कोने में, हर भाषा में अनुवाद कर पढ़ा जाता है। आज भी मज़दूरों और समाज बदलने वालों के लिए ये बाइबिल की तरह है।

कम्युनिस्ट घोषणा पत्र की शुरुआती लाइनें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस समय थी। उदाहरण के लिए-

"यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है — कम्युनिज़्म का भूत ।
इस भूत को भगाने के लिए पोप और ज़ार , मेटरनिख़ ( Metternich ) और गीज़ो ( Guizot ) , फ़्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन पुलिस के भेदिये – बूढ़े यूरोप के सारे सत्ताधारी एक हो गए हैॆं।
कौन – सी ऐसी विरोधी पार्टी है , जिसे उसके सत्तारूढ़ विरोधियों ने कम्युनिस्ट कहकर कोसा न हो ?
कौन – सी ऐसी विरोधी पार्टि है , जिसने कम्युनिज़्म के कलंकपूर्ण लांछन को उलटे अपने से अधिक आगे बढ़ी हुई विरोधी पार्टियों और अपने प्रतिक्रियावादी विरोधियों पर भी न लगाया हो ?"
भारत में सामाजिक बदलाव के पुरोधा डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने जिन पांच पुस्तकों को अनिवार्य रूप से पढ़ने की सलाह दी थी, उसमें 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' भी शामिल है।'

एंगेल्स ने अपनी किताब "इंग्लैंड में मजदूर वर्ग की दशा" में 1844 में इंग्लैंड के औद्योगिक इलाकों में आकर काम करनेवाले आयरिश प्रवासी मजदूरों की जो अकथ कहानी लिखी है, वही हाल आज बिहार, यूपी, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और एमपी के प्रवासी मजदूरों की है।

एंगेल्स एक दार्शनिक, वैज्ञानिक, पत्रकार थे और मार्क्सवाद के संस्थापक कार्ल मार्क्स के साथी थे।

जर्मनी में धनी व्यवसायी मालिकों और प्रोटेस्टेंट परिवार में जन्मे, फ्रेडरिक शुरू से ही अन्यतम विद्रोही थे। उन्होंने नास्तिक मान्यताओं को रखा और इंग्लैंड में काम करने वाले गरीबों की स्थिति पर अपना पहला काम लिखने के लिए अपने परिवार को छोड़ दिया।

1845 में उनकी पहली पुस्तक, द कंडीशन ऑफ द वर्किंग क्लास इन इंग्लैंड, ने शहरी सर्वहारा वर्ग के प्रथम-वृत्तांत को उजागर किया। एंगेल्स ने ब्रिटिश औद्योगीकरण के भार के तहत श्रमिक वर्ग की पीड़ा का दस्तावेजीकरण किया।

इसमें, उन्होंने श्रमिक वर्ग की स्थितियों का वर्णन किया – बाल श्रम, असमान काम करने की स्थिति, और औद्योगिक कार्य दुर्घटनाओं से व्यापक विकृतियाँ आदि। उन्होंने यहां तर्क दिया कि मजदूर वर्ग पूंजीपति वर्ग के खिलाफ क्रांति का नेतृत्व करेगा क्योंकि समाज समाजवाद की ओर अग्रसर है।

एंगेल्स ने पूंजीवाद में महिलाओं के उत्पीड़न के सवालों पर विस्तार से चर्चा की।

उनकी पुस्तक "द ओरिजिन ऑफ द फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड द स्टेट" ही सबसे पहले पूंजीवाद की अभिन्न प्रमुख विशेषता के रूप में विषम पारिवारिक संरचना और महिलाओं की अधीनता पर चर्चा की थी।

उन्होंने विस्तार से बताया कि "परिवार" वास्तव में एक सबसे हालिया आगमन था और अधिकांश सहस्राब्दियों के लिए न केवल यह अस्तित्व में था, बल्कि बहुपत्नी, सामूहिक समुदायों का आदर्श था।

वह अपने परिवार के पूंजीपति वर्ग के खिलाफ हो गए और वैचारिक और वैज्ञानिक सोच की स्थापना की जो दुनिया भर में श्रमिकों के क्रांतियों को प्रेरित करेगा।

अपनी संपत्ति के साथ, उन्होंने कार्ल मार्क्स के बहुत सारे काम किए, जिसमें उनकी प्रभावशाली 'पूंजी' भी शामिल थी।

अपनी एक और बहुचर्चित किताब 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' में एंगेल्स ने लिखा है, "राजनीतिक अर्थशास्त्रियों का दावा है कि दुनिया की सारी दौलत का स्रोत मेहनत। वास्तव में वह स्रोत है लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे यह सामग्री प्रदान करती है जिसे मेहनत दौलत में बदल देता है। पर वह इससे भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है और इस हद तक है कि कहा जा सकता है कि इंसान को भी मेहनत ने ही बनाया है।"

साल भर पहले एंगेल्स की किताब वर्किंग कंडिशन इन इंग्लैंड (इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग की दशा) किताब का हिंदी अनुवाद गार्गी प्रकाशन लेकर आया था। उस समय वर्कर्स यूनिटी ने वर्ल्ड बुक फ़ेयर में ही एक परिचर्चा आयोजित की थी।

उस परिचर्चा में वक्ताओं का कहना था कि अगर इस किताब से इंग्लैंड की जगह भारत कर दिया जाए या उसकी जगह इस देश के किसी राज्य का नाम रख दिया जाय तो वही हालात मिलेंगे जो आज से डेढ़ सौ साल पहले इंग्लैंड में मज़दूरों के हुआ करते थे।

और इसमें कोई शक नहीं कि असमान पूँजीवादी विकास के चलते भारत के राज्यों के मेहनतकश नौजवान ज्यादा उद्योग-धंधे वाले विकसित राज्यों और महानगरों में काम की तलाश में जाते हैं।

वे सबसे खराब सेवा शर्तों पर, सबसे कम मजदूरी पर, नारकीय और अमानवीय स्थितियों में रहते और काम करते हैं। अर्थव्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर खड़े ये मेहनतकश जितना पाते हैं, उससे कई गुना ज्यादा कमाकर मालिकों की तिजोरी भरते हैं।

औद्योगिक दुर्घटनाओं में, भवन निर्माण में, सीवर या टैंक में मरनेवाले मजदूरों में सबसे ज्यादा संख्या इनकी ही होती है। वे जहाँ भी जाते हैं, जी तोड़ मेहनत करते हैं, अकूत मूल्य योगदान करते हैं। बदले में इनको अपमान, तिरस्कार और दमन-उत्पीड़न के सिवा क्या मिलता है?

गुजरात में प्रवासी मजदूरों के साथ जो हो रहा है वह पहले भी असम, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में हुआ है। फर्क इतना ही है कि गुजरात मे यह हमला कहीं ज्यादा संस्थावद्ध और संगठित है।

जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर नफरत और हिंसा फैलानेवाली फासीवादी ताकतें आज देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हक में खुलकर काम कर रही हैं। उनके खिलाफ मेहनतकशों की एकता कायम करना और लड़ना बेहद जरूरी है। लेकिन इस दुर्दशा की असली जड़ पूँजीवाद है। उसे ही उखाड़ना इसका अन्तिम समाधान है।

एंगेल्स ने – 6 अगस्त 1895 को अंतिम सांस ली और अंत तक मज़दूर वर्ग के लिए अपनी ज़िंदगी को समर्पित किया।

मार्क्स की 14 मार्च 1883 में जब मौत हुई तो एंगेल्स ने इंग्लैंड में उनकी कब्र पर अपने परम दोस्त के बारे में एक संक्षिप्त भाषण दिया था। वो भाषण आज उस दोस्ती के लिए याद किया जाता है जिसके केंद्र में मज़दूर वर्ग मुक्ति थी, जिसमें इतिहास के सबक थे और भविष्य की अंतरदृष्टि थी।

Friday, 27 November 2020

फ्रेडरिक एंगेल्स( 28.11.1820-05.08.1895)

#सर्वहारा वर्ग के महान नेता कॉ एंग्लेस को याद करते हुए :---
   फ्रेडरिक एंगेल्स( 28.11.1820-05.08.1895)
भारतीय इतिहास के सामंती समाज में गुप्त काल के दौरान सामंतवाद का जो विकास हुआ उसने राजाओं को अतिरिक्त आदर देने के लिए जमीन पर लेट कर के दंडवत करने का सत्ता के द्वारा आयोजन शुरू हुआ और इस तरह से सत्ता के सामने पूरी तरह से छूट जाने झूठ जाने के नाम को आदर्श आदर और सम्मान के रूप में महिमामंडित किया गया रूसी सामंती समाज में आदर और सम्मान की इस परंपरा को भाव वादी दृष्टिकोण से आलोचना करते हुए लिओ टॉलस्टॉय ने लिखा कि
' "आदर" शब्द का अविष्कार किया गया था उस ख़ाली जगह को भरने के लिए जहाँ प्यार होना चाहिए था' 
लेकिन एंग्लेस ने आदर्शवाद के इस खोल को फाड़ कर के आदर शब्द के पीछे छिपे शोषण उत्पीड़न की पहरेदारी वाले पक्ष को बेनकाब कर दिया।
 एंगेल्स इस मोहक लेकिन खोखली बात की वास्तविक जड़ में जाते हैं और उद्घाटित करते हैं कि जब समाज में एक संपत्तिशाली, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग अस्तित्व में आ गया जो बाकी समाज के श्रम द्वारा किए गए उत्पादन का उपभोग करता था तो ऐसी व्यवस्था को स्वीकृति दिलाने के लिए इस प्रभु वर्ग के प्रति 'आदर-सम्मान' की जरूरत पड़ी, प्यार तो इन दो वर्गों के बीच मुमकिन ही नहीं था! 
इस ' *आदर-सम्मान'* को स्थापित करने के लिए कानून बने, हम्मुराबी से मनु तक की स्मृतियाँ लिखी गईं - विधायक, जज-काजी आए, धर्म-ईश्वर बना - पुजारी-प्रचारक आए, शिक्षा व्यवस्था बनी - द्रोणाचार्य जैसे गुरुजी आए, और इन सबसे भी आदर-सम्मान कायम न रहे तो आखिरी उपाय के तौर पर पुलिस-फौज का डंडा बनाया गया - बोल, अब भी नहीं करेगा तू आदर-सम्मान? 
इसीलिए प्रेम-मोहब्बत-अहिंसा-भाईचारे, कामरेडसिप  के सारे मोहक प्रचार तब तक खोखले हैं जब तक ये इस संपत्तिशाली, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग से मुक्ति की बात से न जुड़ें हों।
भारत के संदर्भ में देखें तो इस आदर आदर और मान सम्मान देने की परंपरा को बढ़ाने में ब्राह्मणवाद ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। ब्राह्मणवाद की जड़े इसी संपत्ति संबंध और विशेषाधिकार से पाला पोसा जा रहा है।
 भारत के इतिहास में जाति व्यवस्था से लेकर पूंजीवादी व्यवस्था तक में शोषण करने के इस विशेष अधिकार की मुख्य भूमिका है। इसे ब्राह्मणवाद हर काल में मेहनतकश जनता को आतंकित करके, बहला-फुसलाकर के और धर्म के जंजाल में फंसा कर के रक्षा की है।
भारत के संदर्भ में पेरियार जब धर्म और ब्राह्मणवाद पर प्रहार करते हैं तो कुछ हद तक शोषण करने के इस विशेषाधिकार पर भी हमला करते हैं। यहीं पर अंबेडकर      चूक जाते हैं। जब जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए वह शोषण करने की पूंजीवादी व्यवस्था का, लोकतंत्र के नाम पर संविधान के निर्माण का हिस्सा बन कर के रक्षा करने वाली पंक्ति में खड़ा हो जाते हैं। इसलिए आज के मेहनतकश समाज को यदि जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ना है, शोषण उत्पीड़न के खिलाफ लड़ना है तो आदर और मान सम्मान के खोखले बाजीगरी से निकल कर के पूंजीवादी तथा तमाम तरह के शोषण उत्पीड़न की जो व्यवस्था है उसको पर प्रहार करना होगा, उसे बदलना होगा। तभी ब्राह्मणवाद और उसके इतनी गहरी जमी जड़ों को समाप्त किया जा सकता है।
 अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद पर हमला करते हुए एक दूसरा भाव वादी विचारधारा बौद्धिजम के जाल में मेहनतकशों को फंसा देते हैं,। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब बौद्ध मठों में उत्पादन से कट करके बौद्ध भिक्षुक निष्क्रिय और अय्याशी में रम गए, तब ब्राह्मणवादी शक्तियां सामंती उत्पादक शक्तियों को संगठित करके बौद्धिजम को पूरे भारतीय प्रायद्वीप में तबाह कर दिया।
 ब्राह्मणवाद पर मुहम्मद खिलजी और दूसरे सल्तनत के शासकों ने  प्रहार किया लेकिन वे उसे तबाह नहीं कर पाए क्योंकि उसकी जड़ें उत्पादन व्यवस्था को नियंत्रण करने वाली सामंती उत्पादन संबंध से जुड़ा था और यही प्रक्रिया पूरे भारत के इतिहास में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाए रहा। मुगल काल में भी अकबर से लेकर औरंगजेब तक शिखर पर रहते हुए अपनी नौकरशाही और नीचे की सामंती सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखा जिसमें ब्राह्मणवाद की ताकत बनी रही।  जब पूंजीवाद का विकास हुआ तो ब्राह्मणवादी शक्तियों ने अंग्रेज शासकों की नौकरशाही और भारत के आजादी के बाद वाली नौकरशाही में मजबूत जगह बना ली। 
इस तरह से ब्राह्मणवाद की जड़ें भूमि संबंधों से लेकर नौकरशाही तक व्याप्त हो गई जिनका व्यापारी वर्ग और अन्य सामंती शोषक जाति तथा वर्गों से मजबूत गठबंधन रहा।
 ब्राह्मणवाद इन सबों का वैचारिक तथा दार्शनिक नेता भारतीय राजनीति में बना रहा। आज सभी संसदीय राजनीति करने वाली पार्टियां ब्राह्मणवाद के साथ समझौता किए हुए हैं और उसे मजबूत बना रहे हैं। ब्राह्मणवाद और उसके दंडवत वाली संस्कृति के खिलाफ सिर्फ वही राजनीतिक शक्ति लड़ सकती है जो पूंजीवादी व्यवस्था और इसकी रक्षा करने वाले अन्य वर्गों पर सीधे-सीधे प्रहार कर वैज्ञानिक समाजवाद के निर्माण और सभी सामाजिक संपत्ति पर समाज के अधिकार वाली व्यवस्था की बात करता है . जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने प्रतिपादित किया और लेनिन स्तालिन ने मजदूरों के प्रथम राज्य के रूप में स्थापित किया , जिस दिशा में आगे बढ़ते हुए माओ ने चीन में क्रांति की और समाजवाद के निर्माण के लिए कोशिश की।

Wednesday, 25 November 2020

गोर्की_के_नाम_लेनिन_का_पत्र



,,ईश्वर की धारणा को सौंदर्य देकर तुमने उन जंजीरों को आकर्षक बनाने की कोशिश की है जिनसे वे लोग मजदूरों और किसानों को जकड़ते है।,,,
,,यह खयाल गलत है कि ईश्वर की धारणा सामाजिक भावना को जगाती और संगठित करती है।,,,
,,,ईश्वर की धारणा ने हमेशा ही सामाजिक अनुभूतियों को कुंठित किया है और उन्हें सुलाया है और हमेशा ही जीवित की जगह मृत को प्रतिष्ठित किया है।यह धारणा हमेशा दासता की प्रतीक रही है।ईश्वर की धारणा ने कभी व्यक्ति को समाज से जोड़ा नहीं।इसने हमेशा शोषित वर्ग के हाथ पैर जकड़ कर उसे शोषकों की महानता में आस्था के साथ जोड़ा है।

    ,,,तुम्हारे अच्छे स्वास्थ की कामना करता हूं।

( लेनिन संकलित रचनाएं,,खंड,35,पृष्ठ,,127,29,,उद्धरण,,लेनिन ,धर्म संबंधी विचार पृष्ठ,42)

लेनिन के साथ गोर्की

Thursday, 19 November 2020

आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव- मार्था मेडीरोज़





आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव
अगर नहीं आते-जाते दूर ठाँव, 
नहीं पढ़ते रहते अगर कुछ भी
अगर नहीं सुनते थापें जीवन की
अगर सराहते नहीं स्वयं को

आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव
जब गँवा देते हैं अपना आत्मसम्मान
जब दूसरों से नहीं लेते कोई मदद

आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव
अगर बन जाते हैं अपनी लतों के गुलाम
पकड़ते हैं एक ही राह सदा
अगर आप नहीं बदलते अपनी दिनचर्या
अगर नहीं धारते रंग बिरंगी भूषा
या अजनबियों से नहीं बतियाते

आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव
अगर जज्बात के अहसासात से रहते हैं दूर
और ऐसे भावों को नहीं देते कोई भाव
जिनसे आपकी आँखों में आ जाए नमी
और तेज हो जाएँ धड़कनें

आप मृत्यु की ओर बढ़ते हैं दबे पाँव
अगर नहीं बदलते अपना जीवन
जब सन्तुष्ट न हों अपने काम या प्रेम से 
अनिश्चित की रक्षा के लिए जब नहीं उठाते कोई जोखिम
अगर नहीं पोसते कोई सपना
अगर जीवन में कम से कम एक बार
नहीं ठुकराते कोई अच्छी राय

*अनुवाद: भुवेंद्र त्यागी*

Wednesday, 18 November 2020

ओम प्रसाद बाल्मिकी की कविता



चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?

(नवम्बर, 1981)

Monday, 16 November 2020

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता – हम राज करें

तुम राम भजो!
खाने की टेबुल पर जिनके
पकवानों की रेलमपेल
वे पाठ पढ़ाते हैं हमको
'सन्तोष करो, सन्तोष करो!'
उनके धन्‍धों की ख़ातिर
हम पेट काटकर टैक्स भरें
और नसीहत सुनते जायें –
'त्याग करो, भई त्याग करो!'
मोटी-मोटी तोंदों को जो
ठूँस-ठूँसकर भरे हुए
हम भूखों को सीख सिखाते –
'सपने देखो, धीर धरो!'
बेड़ा ग़र्क़ देश का करके
हमको शिक्षा देते हैं -
'तेरे बस की बात नहीं
हम राज करें, तुम राम भजो!'
(इस कविता का मनबहकी लाल ने अपने निराले अन्दाज में अनुवाद किया है।)
कविता परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित पुस्‍तक 'कहे मनबहकी खरी-खरी' से ली गयी है।

Sunday, 15 November 2020

हमारी पार्टी के इतिहास के कुछ अनुभव

चीन की क्रांति के अनुभव , यानी देहाती आधार क्षेत्रों का निर्माण करना , देहातों की तरफ से शहरों को घेर लेना और अंत में शहरों पर कब्जा कर लेना , संभवतः आपके बहुत से देशों में पूरी तरह लागू नहीं हो सकेंगे , हालांकि वे संदर्भ - सामग्री के रूप में आपके काम आ सकते हैं। मैं आपको विनम्रता पूर्वक परामर्श देना चाहता हूं कि चीन के अनुभवों को यांत्रिक रूप से लागू न करें। किसी भी अन्य देश के अनुभव केवल संदर्भ - सामग्री के रूप में ही काम आ सकते हैं , उन्हें कठमुल्ला सूत्र नहीं समझना चाहिए । मार्क्सवाद - लेनिनवाद का सार्वभौमिक सत्य और आपके अपने देश की ठोस स्थितियां - इन दोनों को एक - दूसरे से मिलाना जरूरी है।
 --" हमारी पार्टी के इतिहास के कुछ अनुभव "
      माओ त्से तुंग    25 सितंबर ,1956 
(लातिन अमरीका की कुछ कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत का एक अंश)

Saturday, 14 November 2020

आर्थर मिलर

"सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ नाटक वह है, जो सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ सवालों को उठाता हो। यदि ऐसा नहीं है तो वह महज़ एक तकनीक भर है। अपने समय में मैं किसी ऐसे रंगमंच की कल्पना भी नहीं कर सकता, जिसमें दुनिया को बदल देने का जज़्बा या माद्दा न हो।"

-आर्थर मिलर

Friday, 13 November 2020

स्वर्ग के विरुद्ध- राजेश त्यागी

देवता,
जो अब तक, 
पसरे थे परलोक में,
इस दुनिया से दूर;
कूद पड़े हैं अचानक,
ऐन दुनिया के बीचों-बीच!
वे मांग रहे है-
जमीन और खून!
लड़ना होगा
भूखी मिट्टी को,
फिर एक बार,
स्वर्ग के विरुद्ध!

"तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ " -मुक्तिबोध ।


इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

Wednesday, 11 November 2020

एक खोज - शशिप्रकाश


दर्द जितना गहरा था
उतने ही अकेले थे हम।
उतनी ही अधिक शिद्दत से
कारणों की तलाश थी,
संग - साथ की चाहत थी
उतनी ही ज़रूरत महसूस की प्यार की।
और दर्द की गहराई
और बढ़ गयी,
और अधिक अकेले पड़ गये हम।
इस पूरी दुनिया के लिए
और अधिक प्यार की चाहत से
लबरेज़ थे हमारे दिल।
एक दिशा थी
रोशनी की तीखी लकीर की तरह 
स्वप्न से जागृति में प्रवेश करती हुई।
- शशिप्रकाश

Artwork: Arbol, Siqueiros.

Monday, 9 November 2020

सत्ता बेख़ौफ़ आदमी से डरती है


सत्ता जितनी ताक़तवर दिखती है
शायद उतनी होती नहीं है
संगीनों की नोकें
बूटों की थप-थप
जेल की चहारदीवारी
के ख़ौफ़ से ही
लोग दुबक जाते हैं
इससे भी ज़्यादा
शायद बाल-बच्चों की चिन्ता
बूढ़ी माँ का क्या होगा?
बीमार पिता की देखभाल कौन करेगा?
घर का किराया कौन भरेगा?
यह आंशका ही कँपा देती है
लेकिन, जब कोई बेख़ौफ़ इंसान
सत्ता के सामने तनकर खड़ा हो जाता है
तब सत्ता बुरी तरह डर जाती है
सहम जाती है
भीतर से हिल जाती है
असल में अन्याय पर टिकी सत्ता की
अपनी कोई ठोस ज़मीन नहीं होती है
जब तक उसका ख़ौफ़ है,
तब तक वह क़ायम है
इसीलिए, सत्ता बेख़ौफ़ आदमी से डरती है
फिर वह आदमी
80 वर्षीय एक बूढ़ा कवि ही क्यों न हो?

वरवर राव

Sunday, 8 November 2020

एक नवोदित लेखक के नाम नदेज्‍़दा क्रुप्‍स्‍काया का पत्र



3 जुलाई, 1936

प्रिय साथी,
मुझे लगता है कि तुमने जो रास्‍ता अपनाया है वह सही नहीं है। तुम यदि एक सच्‍चे कवि, एक ऐसे लेखक बनना चाहते हो जिससे जनता मुहब्‍बत करे और जिसे वह पसन्‍द करे, तो तुम्‍हें बहुत काम करना पड़ेगा, अपने को उसके योग्‍य बनाना पड़ेगा। इस कार्य में कोई विश्‍वविद्यालय, लेखकों का कोई भी संघ तुम्‍हारी मदद नहीं कर सकेगा।
तुम्‍हारे पत्र से मैं यह नहीं समझ पायी कि तुम्‍हें किस चीज़ की तकलीफ़ है, तुम्‍हारे साहित्यिक जीवन के अलावा और वह कौन सी चीज़ है जो तुम्‍हें उद्विग्‍न कर रही है। अपने इर्द-गिर्द के समस्‍त जीवन को जो व्‍यक्ति ''लेखक की गाड़ी की खिड़की से'' बिना किसी लगाव के देखता है वह कभी सच्‍चा लेखक नहीं बन सकेगा। तुम खनन संस्‍थान में काम कर रहे हो, किन्‍तु खनिकों के जीवन के बारे में, उनके मनोभावों के बारे में क्‍या तुम्‍हें कोई जानकारी है? ये खनिक सर्वहारा वर्ग का एक प्रमुख अंग है, और उनमें तुम्‍हारी दिलचस्‍पी नहीं है ... मैं आशा करती हूँ कि यह स्थिति सिर्फ इसी समय तक सीमित रहेगी।
मुझे लगता है कि तुम इन्‍जीनियर नहीं बन सकोगे, उसके लिए एक भिन्‍न प्रकार का रुझान आवश्‍यक होता है, एक भिन्‍न प्रकार की ट्रेनिंग की ज़रूरत होती है।
मैं सलाह दूँगी कि तुम किसी खान के अन्‍दर जाओ, जो ज्ञान तुमने प्राप्‍त किया है उसका उपयोग करो, वहाँ पर साधारण मज़दूरों के साथ कन्‍धा मिलाकर काम करो, वे किस तरह रहते हैं, उनके घर की क्‍या परिस्थितियाँ हैं इसका ध्‍यान से निरीक्षण करो। तब कविताओं के लिए जो विषय तुम चुनोगे वे जीवन के अनुरूप होंगे और तुम्‍हें ऐसी चीज़ें मिलेंगी जो तुम्‍हें प्रेरणा प्रदान करेंगी। नवोदित लेखकों में अक्‍सर बहुत नकचढ़े किस्‍म का एक अहम् पाया जाता है -- और बहुत बार तो मज़दूरों के बच्‍चों में भी यह अहम् देखने को मिलता है -- किन्‍तु (उसे) मन-दिमाग से पूरे तौर से निकाल बाहर करना चाहिए।

भ्रातृपूर्ण शुभकामनाओं के साथ,
एन. क्रुप्‍स्‍काया

मैं जानना चाहता हूं



 

ज्यों ज्यों उसके तराजू में तेजाब चढ़ता गया
  मेरा जिस्म खाली होता गया
मेरी उम्मीदों  का बर्तन जितना खाली होता 
 उतना ही सुरीला उसके मुनाफे का संगीत बजता 
मेरे घर की सीलन से उसके कारखाने की बिजली चलती  
जितनी अधिक  सीलन उतनी ही तेज उसकी रोशनी होती 
 मैं जानना चाहता हूं
 कि बुढ़ापा बेबसी के कंधे पर एक रिक्शा उठाए  
 अपनी  उम्र का खोया हुआ कागज खोजने की जगह 
 रोटी खोजता है कि  पाप के मुंह पर 
अपने पैरों से पुण्य का पैडल मारता है
 किस्त का  ट्रैक्टर जब  बीज बोता है
 तब उसकी शाखों में फल की जगह ब्याज क्यों लगता है
क्या दुनिया की सारी बकरियां इसलिए बच्चा जनती है 
ताकि नर्म गोश्त के मसाले से राजा की थाली  गमकती रहे
जब एक भांड़ गीत गाता है 
तब एक विद्रोही के मुंह में थूक क्यों भर उठता  है
ढाबे का वह दस साल का बच्चा
तुम्हारी ठंडी पड़ी चाय की केतली में 
अपने कच्चे बचपन की  हरारत ही नहीं उड़ेलता 
तुम्हारे पाप का घड़ा भी थोड़ा उलीच देता है
 तुमने कभी सिर्फ दस रूपये की दवा के बिना 
 अपनी बेटी खो चुकी एक मां की आंखों में 
सफेद तारों को मरते हुए देखा  है 
जिसमें पूरा आसमान ही अपराधों का कफन पहन कर आंसुओं के कटघरे में सर झुकाए खड़ा रहता है
वह युवक जो दुनिया को कैनवास की तरह 
अपनी मुठ्ठियों में बंद कर लेना चाहता है 
वह  जिंदा रहने के लिए
 अपनी सांस बेंचकर  नौकरी खोजता  है 
लेकिन वह यह पता नहीं लगा पाता कि
बेरोजगारी खुदा की  वह नेमत है
 जिसकी कुदाल से पसीने की कब्र खोदकर 
मुनाफे की नींव में पहली ईंट रखी जाती है
   वह औरत जिसकी उम्मीदों की रसोई 
कुछ दानों का इंतजार करते करते थक कर सो गई  
  उसे क्यों लगता है कि 
  उसकी कोख आज पहली बार खाली हो कर बांझ हो गई 
 वह किसान जो अपने घर का बचा हुआ अंतिम बीज भी मिट्टी में खो देने की हिम्मत रखता है 
वह अपने अंतिम बीज को बचाने के लिए 
 क्या  अन्याय के हर नस्ल की मिट्टी नहीं खोद सकता 
जिसकी छाती पर दुख चढ़कर बैठा है
 वह यह क्यों नहीं तौल पाता कि 
उसके दुख का ताला उसके जैसा है 
लेकिन वह ताले की चाबी दुश्मनों के शिविर में ढूंढ़ता है
 वह अस्सी साल की छीझ गई बुढ़िया 
 आज भी सर पर  अपनी भूख का वजन रखकर 
गली-गली अपनी बची हुई सांसो की उम्र बेंचती है 
 लेकिन  यहां गद्दारी कमंडल में मालिक की खुद्दारी रखकर
  जवान होते  परिंदों का नकली ख्वाब बेंचती है

@जुल्मीराम सिंह यादव
        16.10.2020

Friday, 6 November 2020

लिबलिबे-लिजलिजे लिबरल

 
"लिबरल लोग संघर्ष की पैरवी कर ही नहीं सकते क्योंकि वे संघर्ष से डरते हैं । प्रतिक्रिया के तीव्र होने पर वे संविधान का रोना रोने लगते हैं, और इसप्रकार अपने तीव्र अवसरवाद से वे लोगों का दिमाग भ्रष्ट करने का काम करते हैं ।

 ...जब किसी लिबरल को गाली दी जाती है तो वह कहता है कि शुक्र है कि उन्होंने उसे पीटा नहीं, जब उसकी पिटाई होती है तो वह खुदा का शुक्रिया अदा करता है कि उन्होंने उसकी जान नहीं ली. अगर उसकी जान चली जाए तो वह ईश्वर को धन्यवाद देगा कि उसकी अनश्वर आत्मा को उसके नश्वर शरीर से मुक्ति मिल गयी ।"

--- व्ला. इ. लेनिन

Wednesday, 4 November 2020

फ़हमीदा रियाज़ की कविता

फ़हमीदा रियाज़ पाकिस्तान की प्रसिद्ध कवियत्री थीं। वे अपनी आखिरी दम तक पाकिस्तान में कट्टरपंथियों से लड़ती रहीं। जेल/देश निकाला जैसे अत्याचारों को सहती रहीं। वारली आदिवासियों के अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व करने वाली कॉमरेड गोदावरी पारुलेकर पर उन्होंने गोदावरी नाम से उपन्यास भी लिखा। जब भारत में कट्टरपंथियों की ताकत बढ़ने लगी, तब उन्होंने बहुत सुंदर नज़्म लिखी। वह नज़्म प्रसंगवश यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। दुनिया के सारे कट्टरपंथी चाहे वे किसी भी धर्म/संप्रदाय के हों, हिंसा ही उनका अंतिम हथियार है। इस हिंसा की हमेशा भर्त्सना होनी चाहिए।
🔴
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।

प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!

क्‍या हमने दुर्दशा बनाई
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा
उल्‍टे पाँव चलते जाना
ध्‍यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।

आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया ज़माना
एक जाप सा करते जाओ
बारम्बार यही दोहराओ
कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।
🟢
*फ़हमीदा रियाज़*

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...