Monday, 30 November 2020

लघु किसान और चल रहा किसान आंदोलन- दामोदर



कृषि बिल को लेकर किसानों के आंदोलन ने कृषि प्रश्न को फिर से राजनीतिक बहस के मध्य में लाकर खड़ा कर दिया है।

मोदी नीत सरकार को कोसते हुए विशेषज्ञ इस समस्या की जड़ 2014 के बाद से आई फ़ासीवाद परस्त सरकार पर ठीकरा फोड़ रहे हैं, और कोस रहे हैं, पर वे शायद भूल गए की इन बिलों पर काम आज की प्रगतिशीलता की हरावल कांग्रेस थी। 2012 में यू पी ए II के तहत कृषि रिपोर्ट में इस तरह की योजना के बारे में सरकार को रिपोर्ट पेश की गई थी, जिसमें भारतीय कृषि क्षेत्र में भूमि विखंडन से उपज रही समस्या और अन्य सुझाव दिए गए थे, जो  मोदी सरकार की इन बिलों में परिलक्षित होता हम देख सकते हैं। मोदी सरकार का किसान या सम्पूर्ण मेहनतकश हित विरोधी चरित्र पर हमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन कांग्रेस और उसकी सरकार को क्लीन चिट देना और उस समय को 2014 के मुकाबले स्वर्णिमयुग वाली संज्ञा का हम जोरदार विरोध करते हैं। फ़ासीवाद विरोधी नारा लगाने वाले यह शायद भूल जाते हैं कि समूचा खेल पूंजी और उसके पुनरुत्पादन का है। दिमित्रोव थीसिस को उद्धरित करने के बावजूद फ़ासीवाद विरोधी संघर्ष को वृहत पूँजीवादी संघर्ष से अलग कर राजनीतिक दिशाहीनता की स्थिति का निर्माण करते हैं, और तब यह सारा संघर्ष तात्कालिकता, सांख्यकी और अनुभवजन्य समझ (empirical understanding) के दायरे में कैद हो कर रह जाता है। जिसकी चाहत शासक वर्ग को हमेशा से रहती है।

 आंदोलन अगर होता भी है तो उन्हें खांचों में बांधने का काम आंदोलनकारियों का नेतृत्व ही कर देता है, फिर राज्य सत्ता को इस तरह के आंदोलन को खुद में समाहित (coopt) या उसे बांधने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती। इतिहास इस का सबूत और गवाह है।

चल रहे किसान आंदोलन के साथ भी यही हो रहा है। तथाकथित 'मुख्यधारा के विशेषज्ञों' की बात करने से कोई लाभ नहीं है, पर क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़े लोग भी आंदोलनों के नेतृत्व और वर्ग चरित्र पर सवाल कर रहे हैं। परंतु आंदोलन केवल नेतृत्व या नेतृत्वकारी वर्ग से उसकी सिर्फ पहचान नहीं होती। आज किसानों का आन्दोलन बड़े किसान के हाथ में है, और उसकी भाषा और मांगे भी बड़े किसानों के पक्ष वाली है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस आन्दोलन को छोटे, और मध्यम किसानों का भी समर्थन प्राप्त है। 

कुछ वामपंथी संगठन इसे बड़े किसानों की साजिश और सीमान्त-मध्यम किसानों की नासमझी बता कर पूरे मुद्दे को यांत्रिक और सतही तौर पर विश्लेषित कर रहे हैं। उनके मुताबिक चूँकि यह आन्दोलन का नेतृत्व बड़े किसानों के हाथ है, और पूंजीवाद कि यह नियति है कि उसमे छोटे किसान का खात्मा होगा, इसलिए कम्युनिस्ट खेमे को इस आन्दोलन से अलग रहना चाहिये। 

उनकी तक़रीर इस बात पर सही है कि चल रहे आन्दोलन को जिस तरह से संसदीय वामपंथ और कुछ और ग्रुप ने समर्थन दे रहे हैं, और इसमें फासीवाद (असल में मोदी सरकार) विरोधी संभावनाओं को तलाश रहे हैं वह नारोदवादी समझ से ज्यादा कुछ नहीं। किंतु इस आन्दोलन को केवल इस बात पर की उसका नेतृत्व कुलकों के हाथ में है नकारना यांत्रिक समझ की उपज है, जिसका कम से कम मार्क्सवादी समझदारी में कोई स्थान नहीं है।

इस आंदोलन में बड़ी संख्या में सीमांत किसानों और युवाओं का होना देश में सामाजिक आर्थिक संबंधों में हो रही तब्दीलियों की तरफ इशारा कर रहा है। 
श्रम और पूंजी के अन्तरद्वेष और खींचातानी से उभरे सामाजिक आर्थिक संबंध नए संघर्षों की ओर इशारा कर रही है।

औद्योगिक क्षेत्र में कम होते रोज़गार के कारण जनसंख्या का बड़ा तबका बेरोज़गार की फौज में तब्दील हो गया है। पूँजीवाद व्यवस्था बेशी जनसंख्या (surplus population) की विशाल कतार खड़ी कर देती है। यह बेरोज़गार का बड़ा हिस्सा छोटे और सीमांत किसान के बच्चे हैं, जो latent reserve के तौर पर जन्म ले श्रम की रिज़र्व सेना का हिस्सा बन जाते हैं।

सीमांत किसान का सर्वहाराकरण तो बहुत पहले से ही हो चुका है, इनका बड़ा हिस्सा तो वह है जो अपने जीवोपार्जन के लिए श्रम शक्ति को साल दर साल खेती के बाद पूंजी को बेचता आया है। इनका ज़मीन से जुड़ाव बना हुआ है, किंतु ये वे  मज़दूर है जिनके पास जमीन का मालिकाना हक बाक़ी है, (proletarians with land holding). इनकी चिंता का कारण है कि जो बिल में प्रावधान है उससे उनकी रही सही जीवोपार्जन का साधन भी नष्ट होने की संभावना है।

यह बात सही है कि सीमांत किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की परिधि से बाहर रहते हैं किंतु यह बात को नकारा नहीं जा सकता कि यही एम.एस.पी उनके द्वारा बेचे गए अधिषेक जिंस का मानक भी तय करता है। आढ़तियों से अधिकतर संबंध केवल मोल भाव का न हो कर सामाजिक भी होता है। बड़े किसान आढ़ती भी होते हैं और सामाजिक तौर से दूसरे संबंधों से भी सीमांत किसानों द्वारा जुड़े होते हैं। 

ये बिल एक और काम करने जा रहा है। कृषि में पूंजी संचयन जो अभी तक औद्योगिक पूंजी से अलग रही उसको यह बिल औद्योगिक पूंजी के अंतर्गत सम्मिलित कर लेगा। अभी जो कृषि क्षेत्र में पूंजी का संचयन हो रहा है उसकी पहुंच और रफ्तार दोनों ही औद्योगिक पूंजी के मुकाबले धीमी और कम गति की है, एक बार जब यह औद्योगिक पूंजी द्वारा सम्मलित हो जाएगा तो इसकी रफ्तार द्रुत गति से बढ़ेगी। यही बात कई औद्योगिक घराने करते आये हैं और मोदी सरकार ने अपने वर्ग चरित्र का निर्वहन करते हुए यह कर भी दिया है।

यह आंदोलन केवल बड़े किसानों का ना रह उनलोगों का भी हो गया है जिनकी चिंता उनके पूंजी द्वारा अधिशेषित (surplused) हो जाने की है। यह बिल उनकी असमंजसता की स्थिति को संकट में तब्दील कर दिया है।
हर आंदोलन का बहु चरित्र होता है, यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उसका वर्ग विश्लेषण कर सही आंकलन करें।

पूंजीवाद खुद को जीवित रखने लिए हमेशा से नई संभावनाओं को तलाशता है और जन्म भी देता है, वह इन आंदोलनों को खुद में समाहित करने का काम भी करता है और उन्हें खत्म करने का भी। सवाल मज़दूर आंदोलन के सामने यह है कि इस तरह के स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के रुख को कैसे पूँजीवादी विरोधी रास्ते पर ले आता है।

यदि संसदीय वाम नरोदनिक हो गया है तो क्या खुद को विशुद्धिवादी वाम कहने वाले विरूपित लेनिनवादी तो नहीं हो गये?

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