मैं पहले तुम्हारे पत्र का जवाब दे रहा हूं, क्योंकि लीब्कनेख्त का ख़त अभी तक मार्क्स के पास है और वह उसे इस वक़्त ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं।हेपनर नहीं, बल्कि हेपनर के नाम यार्क के ख़त से जिस पर समिति के दस्तख़त हैं, हम लोगों को यह आशंका हुई कि तुम्हारे कारावास को पार्टी के अधिकारीगण, जो दुर्भाग्यवश सब के सब लासालपंथी हैं, «Volksstaat» को " सच्चे" «Neuer Social-Demokrat» बना डालने के लिए इस्तेमाल करेंगे। यार्क ने तो साफ़-साफ़ क़बूल किया कि उनका यही इरादा था। और चूंकि समिति का दावा था कि सम्पादकों को नियुक्त करने और हटाने का उसे अधिकार है, इसलिए ख़तरा सचमुच काफ़ी बड़ा था। हेपनर के आसन्न निर्वासन से ये योजनायें और भी मज़बूत होती थीं। इस सूरत में हमारे लिए यह जानना परमावश्यक था कि स्थिति क्या है। यह चिट्ठी-पत्री इसी लिए की जा रही है...
जहां तक लासालपंथियों के प्रति पार्टी के रुख का सवाल है, तुम हम लोगों से ज़्यादा अच्छी तरह से विचार कर सकते हो कि खास-खास मामलों में कौनसी कार्यनीति अपनानी चाहिए। लेकिन विचारने की बात यह भी है कि जब कोई तुम्हारी तरह एक हद तक आम जर्मन मज़दूर संघ के प्रतियोगी की स्थिति में हो तो वह बड़ी आसानी से अपने प्रतिद्वन्द्वी का बहुत ज़्यादा लिहाज़ करने लगता है और इसकी आदत पड़ जाती है कि हमेशा सबसे पहले उसकी ही बात सोचे । लेकिन आम जर्मन मजदूर संघ और सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी , ये दोनों ही अभी जर्मन मजदूर वर्ग के अत्यन्त अल्पसंख्यक भाग हैं। हमारी राय (दीर्घ-कालीन व्यवहार द्वारा उसकी पुष्टि हो चुकी है ) यह है कि प्रचार क्षेत्र में सही कार्यनीति यह है कि अपने विरोधियों में से अलग-अलग व्यक्तियों और जहां-तहां से कुछ सदस्यों को फुसलाकर साथ नहीं लाना चाहिए , बल्कि अभी तक निष्क्रिय आम जनसमुदाय के बीच काम करना चाहिए। एक ऐसे व्यक्ति की अपरिष्कृत शक्ति, जिसे हमने खुद आरम्भ से ही प्रशिक्षित करके तैयार किया है , दस लासालपंथी रंगे सियारों से ज़्यादा मूल्यवान है, जो हमेशा अपने साथ पार्टी में गलत प्रवृत्तियों के बीज लेकर आते हैं। और अगर कहीं हमें आम जनता अपने स्थानीय नेताओं के बिना मिल सके , तो वह भी ठीक है । पर होता यह है कि हमें साथ ही साथ इन नेताओं की एक पूरी जमात को भी लेना पड़ता है। वे अपने भूतपूर्व विचारों से नहीं तो अपने भूतपूर्व सार्वजनिक वक्तव्यों से तो बंधे ही होते हैं, और वे यह साबित करने की सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस करते हैं कि हमने अपने पुराने सिद्धान्तों का परित्याग नहीं किया है, बल्कि उलटे सामाजिक-जनवादी मज़दूर पार्टी सच्चे लासालपंथ का प्रचार करती है। आइजेनाख़ में दुर्भाग्य से यही बात हुई गोकि सम्भवत: उस समय उससे बचा नहीं जा सकता था। लेकिन इसमें जरा भी शक नहीं कि इन तत्त्वों ने पार्टी को नुक़सान पहुंचाया है। मैं विश्वासपूर्वक यह नहीं कह सकता कि ये लोग पार्टी में अगर न आये होते तो पार्टी आज कम से कम उतनी ही ताक़तवर न रहती जितनी कि वह है। जो भी हो, अगर इन तत्त्वों को नयी कुमक हासिल हुई तो मैं इसे दुर्भाग्य की बात समझूंंगा।
"एकता" के नारे से हमें गुमराह नहीं होना चाहिए। जिन लोगों की ज़बान से यह शब्द सबसे ज्यादा सुनने को मिलता है, वे ही सबसे ज्यादा फूट के बीज बो रहे हैं। उदाहरण के लिए,सारी फूटों को उकसानेवाले,स्विट्ज़रलैंडी जूरा के बकूनिनपंथी ही सबसे ज्यादा एकता की गुहार कर रहे हैं। एकता की रट लगानेवाले ये जिहादी या तो ऐसे कम अक्ल लोग हैं जो सभी चीज़ों को एक ही हांडी में मिलाकर उसका एक बदरंग झोल तैयार करना चाहते हैं , ऐसा झोल जो जहां वह बैठना शुरू हुआ नहीं कि अपना सारा अलगाव प्रगट कर देगा और ज्यादा तीखेपन के साथ प्रगट कर देगा क्योंकि तब सब कुछ एक ही बर्तन के अन्दर होगा (इसकी बढ़िया मिसाल जर्मनी में वे लोग उपस्थित करते हैं जो मजदूरों और निम्नपूंजीपतियों के मेल-मिलाप की बातें करते हैं )। या ऐसे लोग एकता की रट लगाते हैं जो बिना जाने-बूझे ( उदाहरणार्थ म्यूलबर्गर जैसे लोग ) या जान-बूझकर आन्दोलन की विशुद्धता नष्ट करना चाहते हैं। इसी लिए सबसे बड़े संकीर्णतावादी और सबसे बड़े गुल-गपाड़िये तथा बदमाश कुछ ख़ास मौकों पर सबसे ज़्यादा गला फाड़कर एकता की दुहाई देते हैं। हमें अपनी ज़िन्दगी में एकता की गुहार मचानेवालों से ज़्यादा किसी ने परेशान नहीं किया है और न कोई इनसे ज्यादा धोखेबाज़ निकला है।
स्वभावतः पार्टी का हर नेतृत्व सफलताएं चाहता है। और यह बहुत अच्छी चीज़ भी है। पर ऐसी भी परिस्थितियां होती हैं जब यह ज़रूरी हो जाता है कि अधिक महत्त्वपूर्ण चीज़ों के लिए तात्कालिक सफलता निछावर कर देने का साहस दिखाया जाये। खासकर यह हमारी जैसी पार्टी के लिए ज़रूरी है जिसकी अन्तिम सफलता परम सुनिश्चित है और जिसने अपने जीवनकाल में और हमारे देखते-देखते इतनी ज़बर्दस्त प्रगति की है। उसके लिए सदा ही और अनिवार्य तात्कालिक सफलता की कोई ज़रूरत नहीं है, उदाहरण के लिए इंटरनेशनल को ही लें। कम्यून के बाद उसे विपुल सफलता प्राप्त हुई । पूंजीपति वर्ग, जिसे लकवा मार गया था, उसे सर्वशक्तिमान मानने लगा था। इंटरनेशनल के सदस्यों की बहुत बड़ी संख्या विश्वास करने लगी थी कि यह अवस्था चिरकाल तक क़ायम रहेंगी । पर हम अच्छी तरह जानते थे कि बुलबुला जरूर फूटेगा। सभी ऐरे- गैरे नत्थू-खैरे उसके साथ हो लिये थे। उसके अन्दर बैठे संकीर्णतावादियों की बन आयी। इस आशा से कि उन्हें नीच से नीच और मूर्खतापूर्ण से मूर्खतापूर्ण हरकतें करने की इजाजत है, वे इंटरनेशनल का दुरुपयोग करने लगे। हमने यह नहीं होने दिया। हम बखूबी जानते थे कि बुलबुला एक दिन ज़रूर फूटेगा। इसलिए हमने इस बात की फ़िक्र नहीं की कि आफ़त टली रहे, बल्कि इस बात का खयाल रखा कि इंटरनेशनल जब संकट से बाहर निकले , वह खरा, बेदाग़ हो और उसमें कहीं मिलावट न हो। हेग में बुलबुला फूटा और तुम जानते ही हो कि कांग्रेस के अधिकांश प्रतिनिधि निराश और पस्त होकर घर लौटे थे। और फिर भी इंटरनेशनल में विश्व बन्धुत्व और मेल-मिलाप का आदर्श पाने की कल्पना करनेवाले प्रायः इन सभी निराश लोगों के अपने घर में जो झगड़े थे वे हेग में हुए झगड़े से कहीं ज्यादा कटुतापूर्ण थे ! अब संकीर्णतावादी झगड़ेबाज़ मेल-मिलाप के उपदेश दे रहे हैं और हम लोगों पर कलहप्रिय और तानाशाह होने का आरोप लगा रहे हैं ! पर अगर हमने हेग में समझौते का रास्ता अपनाया होता , फूट दबा दी होती और फूट न पड़ने दी होती तो परिणाम क्या होता? संकीर्णतावादी, ख़ासकर बकूनिनपंथी, एक वर्ष और पा जाते जिसमें वे इंटरनेशनल के नाम पर और भी बड़ी-बड़ी मूर्खताएं और कलंकपूर्ण कृत्य करते। सबसे विकसित देशों के मजदूर उकताकर विमुख हो जाते । बुलबुला फूटता नहीं, बल्कि हलकी-हलकी खरोंचे खाकर धीरे-धीरे पिचकता और अगली कांग्रेस , जिसमें संकट का सामने आना प्रत्येक दशा में अनिवार्य था , निकृष्टतम वैयक्तिक दंगों और फ़साद का अखाड़ा बनकर रह जाती, क्योंकि सिद्धान्त की तो हेग में ही कुरबानी दी जा
चुकी होती! तब इंटरनेशनल सचमुच टुकड़े-टुकड़े हो जाता - " एकता " के कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाता ! इसके बदले , हमने ससम्मान सड़े-गले तत्त्वों से छुटकारा प्राप्त कर लिया है। (अन्तिम और निर्णायक अधिवेशन में मौजूद कम्युन के सदस्यों का कहना है कि यूरोप के सर्वहारा वर्ग के इन गद्दारों का फैसला सुनानेवाली कचहरी के अधिवेशन ने जितना ज़बर्दस्त असर उनके ऊपर डाला, उतना कम्यून के किसी अधिवेशन ने नहीं डाला था।) दस महीनों तक हमने उन्हें झूठ, कुत्सा एवं षड्यंत्रों में अपनी शक्ति व्यय करने दी, और आज कहां हैं वे ? इंटरनेशनल के विशाल बहुमत के ये तथाकथित प्रतिनिधि आज स्वयं ऐलान करते हैं कि अगली कांग्रेस में आने की उनकी हिम्मत नहीं है (और तफ़सीलें *Volksstaats* के लिए एक लेख में हैं जो इस चिट्ठी के साथ भेजा जा रहा है)। और अगर हमें यह काम दोबारा करना हो तो कुल मिलाकर, हम इससे भिन्न मार्ग नहीं अपनायेंगे। बेशक , कार्यनीतिक भूलें सदा होती ही रहती हैं।
जो भी हो , मेरा ख़याल है कि लासालपंथियों के कार्यकुशल तत्त्व समय आने पर आप ही तुम्हारी ओर उन्मुख होंगे। इसलिए पकने के पहले ही फल को तोड़ लेना, जैसा कि एकतावादी चाहते हैं , बुद्धिमानी नहीं होगी।
वैसे तो वृद्ध हेगेल पहले ही फ़रमा चुके हैं : जो पार्टी अपने में फूट के लिए तैयार हो और उस फूट को झेल सके , वह यह सिद्ध करती है कि वह जीवनक्षम पार्टी है। सर्वहारा का आन्दोलन अनिवार्यतः विकास की विभिन्न मंजिलों से होकर गुजरता है। हर मंज़िल में चलनेवालों का एक हिस्सा फंसकर रह जाता है और आगे बढ़ने में साथ नहीं देता। यही वजह है कि " सर्वहारा की एकता" एक दूसरे के विरुद्ध जीवन-मरण के संघर्ष (जैसा संघर्ष रोमन साम्राज्य में, घनघोर दमन के बीच , ईसाई पंथों के बीच चला करता था) में रत विभिन्न पार्टी दलों में सब जगह सचमुच निष्पन्न हो रही है।
तुम्हें यह भी हरगिज़ न भूलना चाहिए कि «Neuer Social-Democrats के ग्राहकों की संख्या Volksstaats के ग्राहकों से यदि अधिक है तो इसका कारण यह है कि प्रत्येक पंथ अनिवार्यतः अपने मत का दीवाना होता है और इसकी बदौलत, खासकर उन इलाक़ों में जहां वह नवोदित है - मसलन् श्लेज़विग-होल्स्टिन में आम जर्मन मजदूर संघ – पार्टी से ( जो संकीर्णतावादी सनकों से मुक्त वास्तविक आन्दोलन का ही प्रतिनिधित्व करती है ) अधिक तात्कालिक सफलताएं प्राप्त
करता है। पर दूसरी ओर, दीवानापन बहुत दिन नहीं चलता।
पत्र ख़त्म करना है, क्योंकि डाक छूटनेवाली है। जल्दी में इतना और जोड़ दूं- मार्क्स फ्रांसीसी अनुवाद (पूंजी का पहला खंड) के समाप्त होने तक (यानी लगभग जुलाई के अंत तक ) लासाल के साथ नहीं उलझ सकते , अलावा इसके बहुत ज़्यादा मेहनत करने की वजह से उन्हें आराम की सख्त ज़रूरत है ...
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