Monday, 9 November 2020

सत्ता बेख़ौफ़ आदमी से डरती है


सत्ता जितनी ताक़तवर दिखती है
शायद उतनी होती नहीं है
संगीनों की नोकें
बूटों की थप-थप
जेल की चहारदीवारी
के ख़ौफ़ से ही
लोग दुबक जाते हैं
इससे भी ज़्यादा
शायद बाल-बच्चों की चिन्ता
बूढ़ी माँ का क्या होगा?
बीमार पिता की देखभाल कौन करेगा?
घर का किराया कौन भरेगा?
यह आंशका ही कँपा देती है
लेकिन, जब कोई बेख़ौफ़ इंसान
सत्ता के सामने तनकर खड़ा हो जाता है
तब सत्ता बुरी तरह डर जाती है
सहम जाती है
भीतर से हिल जाती है
असल में अन्याय पर टिकी सत्ता की
अपनी कोई ठोस ज़मीन नहीं होती है
जब तक उसका ख़ौफ़ है,
तब तक वह क़ायम है
इसीलिए, सत्ता बेख़ौफ़ आदमी से डरती है
फिर वह आदमी
80 वर्षीय एक बूढ़ा कवि ही क्यों न हो?

वरवर राव

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