ज्यों ज्यों उसके तराजू में तेजाब चढ़ता गया
मेरा जिस्म खाली होता गया
मेरी उम्मीदों का बर्तन जितना खाली होता
उतना ही सुरीला उसके मुनाफे का संगीत बजता
मेरे घर की सीलन से उसके कारखाने की बिजली चलती
जितनी अधिक सीलन उतनी ही तेज उसकी रोशनी होती
मैं जानना चाहता हूं
कि बुढ़ापा बेबसी के कंधे पर एक रिक्शा उठाए
अपनी उम्र का खोया हुआ कागज खोजने की जगह
रोटी खोजता है कि पाप के मुंह पर
अपने पैरों से पुण्य का पैडल मारता है
किस्त का ट्रैक्टर जब बीज बोता है
तब उसकी शाखों में फल की जगह ब्याज क्यों लगता है
क्या दुनिया की सारी बकरियां इसलिए बच्चा जनती है
ताकि नर्म गोश्त के मसाले से राजा की थाली गमकती रहे
जब एक भांड़ गीत गाता है
तब एक विद्रोही के मुंह में थूक क्यों भर उठता है
ढाबे का वह दस साल का बच्चा
तुम्हारी ठंडी पड़ी चाय की केतली में
अपने कच्चे बचपन की हरारत ही नहीं उड़ेलता
तुम्हारे पाप का घड़ा भी थोड़ा उलीच देता है
तुमने कभी सिर्फ दस रूपये की दवा के बिना
अपनी बेटी खो चुकी एक मां की आंखों में
सफेद तारों को मरते हुए देखा है
जिसमें पूरा आसमान ही अपराधों का कफन पहन कर आंसुओं के कटघरे में सर झुकाए खड़ा रहता है
वह युवक जो दुनिया को कैनवास की तरह
अपनी मुठ्ठियों में बंद कर लेना चाहता है
वह जिंदा रहने के लिए
अपनी सांस बेंचकर नौकरी खोजता है
लेकिन वह यह पता नहीं लगा पाता कि
बेरोजगारी खुदा की वह नेमत है
जिसकी कुदाल से पसीने की कब्र खोदकर
मुनाफे की नींव में पहली ईंट रखी जाती है
वह औरत जिसकी उम्मीदों की रसोई
कुछ दानों का इंतजार करते करते थक कर सो गई
उसे क्यों लगता है कि
उसकी कोख आज पहली बार खाली हो कर बांझ हो गई
वह किसान जो अपने घर का बचा हुआ अंतिम बीज भी मिट्टी में खो देने की हिम्मत रखता है
वह अपने अंतिम बीज को बचाने के लिए
क्या अन्याय के हर नस्ल की मिट्टी नहीं खोद सकता
जिसकी छाती पर दुख चढ़कर बैठा है
वह यह क्यों नहीं तौल पाता कि
उसके दुख का ताला उसके जैसा है
लेकिन वह ताले की चाबी दुश्मनों के शिविर में ढूंढ़ता है
वह अस्सी साल की छीझ गई बुढ़िया
आज भी सर पर अपनी भूख का वजन रखकर
गली-गली अपनी बची हुई सांसो की उम्र बेंचती है
लेकिन यहां गद्दारी कमंडल में मालिक की खुद्दारी रखकर
जवान होते परिंदों का नकली ख्वाब बेंचती है
@जुल्मीराम सिंह यादव
16.10.2020
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