Sunday, 28 November 2021

बिटकॉइन और क्रिप्‍टोकरेंसी

बिटकॉइन और क्रिप्‍टोकरेंसी: संकटग्रस्‍त पूँजीवाद के भीतर लोभ-लालच, सट्टेबाज़ी और अपराध को बढ़ावा देने के नये औजार

हाल के वर्षों में भारत सहित दुनिया के कई हिस्‍सों में खाते-पीते लोगों के बीच बिटकॉइन और अन्‍य क्रिप्टोकरेंसी में निवेश करके पैसे से पैसा बनाने की एक नयी सनक पैदा हुई है। इस सनक को बढ़ावा देने का काम इण्‍टरनेट, सोशल मीडिया और मुख्‍यधारा की मीडिया पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों ने किया है जिनमें  लोगों को बिना मेहनत किये रातों-रात अमीर बन जाने के सब्‍ज़बाग़ दिखाये जाते हैं। इन विज्ञापनों में लोगों को बताया जाता है कि क्रिप्‍टोकरेंसी में निवेश करके वे बैंक और शेयर बाज़ार में किये गये निवेश के मुक़ाबले कई गुना ज्‍़यादा पैसा बना सकते हैं। ऐसे में ताज्‍जुब की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में दुनिया के तमाम देशों की ही तरह भारत के खाते-पीते लोगों ने इस देश के मज़दूरों के निर्मम शोषण से जमा की गयी पूँजी को क्रिप्‍टोकरेंसी में जमकर निवेश किया है। इस प्रक्रिया में कुछ लोगों ने ख़ूब पैसे कमाये भी हैं जिसकी वजह से अन्‍य लोगों को यह उम्‍मीद रहती है कि उनके भी वारे-न्‍यारे हो जाएँगे। लेकिन बहुतेरे इस जुए में बर्बाद भी हुए हैं। साथ ही हमेशा की तरह इस निवेश में धोखाधड़ी और घोटाले भी आने शुरू हो गये हैं। पूँजीवाद की उम्र बढ़ाने के लिए समर्पित तमाम आर्थि‍क विशेषज्ञ लम्‍बे समय से क्रिप्‍टोकरेंसी में अनियंत्रित निवेश और सट्टेबाज़ी के ख़तरों को लेकर सरकार को आगाह करते आये हैं। आरबीआई ने 2018 में क्रिप्‍टोकरेंसी पर पाबन्‍दी भी लगायी थी, लेकिन मार्च 2020 में उच्‍चतम न्‍यायालय ने इस पाबन्‍दी को असंवैधानिक करार दिया था जिसके बाद क्रिप्‍टोकरेंसी में निवेश में ज़बर्दस्‍त उछाल देखने में आया। एक अनुमान के मुताबिक़ अब तक 10 करोड़ से भी ज्‍़यादा भारतीयों ने क्रिप्‍टोकरेंसी में 75 हज़ार करोड़ रुपये का निवेश किया है। इस वजह से क्रिप्‍टोकरेंसी का बुलबुला फूलता जा रहा है, लेकिन यह कोई भीषण संकट का रूप ले इससे पहले भारत सरकार क्रिप्‍टोकरेंसी में होने वाले निवेश को प्रतिबन्धित या विनियमित करने के लिए नया क़ानून बनाने जा रही है। 

क्रिप्‍टोकरेंसी है क्‍या और यह काम कैसे करती है?

क्रिप्‍टोकरेंसी एक प्रकार की डिजिटल मुद्रा (करेंसी) है जिसे क्रिप्टोग्राफ़ी की तकनीक के ज़रिये सुरक्षित बनाया जाता है। हम आगे देखेंगे कि आजकल क्रिप्‍टोकरेंसी का इस्‍तेमाल मुद्रा के रूप में कम और सट्टेबाज़ी व निवेश के रूप में ज्‍़यादा हो रहा है और इसे सही मायने में मुद्रा नहीं कहा जा सकता है। बिटकॉइन क्रिप्टोकरेंसी का एक उदाहरण है। इण्टरनेट पर बिटकॉईन के अलावा दुनिया में इस समय 6000 से भी अधिक क्रिप्‍टोकरेंसी उपलब्‍ध हैं, मसलन इथीरियम, लाइटकॉइन, रिपल और मोनेरो आदि। बिटकॉइन की खोज सातोशी नाकामोतो 2008 में एक रहस्यमयी व्यक्ति (या व्‍यक्तियों के एक समूह) ने की थी जिसकी पहचान अब तक उजागर नहीं हुई है। बिटकॉइन व अन्‍य क्रिप्‍टोकरेंसी की विशेषता यह है कि यह दुनिया के किसी भी देश, बैंक या किसी भी संस्था द्वारा विनियमित नहीं होती। इस प्रकार यह एक विकेन्द्रीकृत मुद्रा है जो किसी केन्द्रीय संस्था या बैंक द्वारा नहीं बल्कि ब्लॉकचेन नामक तकनीक की बदौलत कम्प्यूटर नेटवर्क के ज़रिये संचालित होती है।

आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा का लेनदेन प्राय: बैंकों या अन्य वित्‍तीय संस्‍थाओं के ज़रिये होता है जिसमें बैंक व वित्‍तीय संस्‍थाएँ अपने सभी खाताधारकों के बही-खातों का प्रबन्धन करते हैं। चूँकि ये संस्‍थाएँ सरकार द्वारा विनियमित की जाती हैं इसलिए इनके ज़रिये मुद्रा का लेनदेन करने की इस प्रणाली में लोगों का भरोसा बना रहता है। लेकिन अगर कोई ऐसी तकनीक विकसित हो जो लोगों के बीच होने वाले लेनदेन से सम्‍बन्धित बही-खातों का स्‍वत: ही पारदर्शी ढंग से प्रबन्‍धन करती हो तो इस काम के लिए किसी बैंक या वित्‍तीय संस्‍था की ज़रूरत ही नहीं होगी। ब्‍लॉकचेन ऐसी ही एक तकनीक है जिसके ज़रि‍ये क्रिप्‍टोकरेंसी का लेनदेन भरोसेमन्‍द तरीक़े से किया जा सकता है। इस प्रकार बिना किसी सांस्थानिक हस्तक्षेप के ज़रिये लेनदेन किये जा सकते हैं और इसमें समय व धन दोनों की बचत भी होती है। इस तकनीक में बही-खाते किसी केन्द्रीय संस्था के पास नहीं रहते बल्कि इस नये माध्यम से मुद्रा का लेनदेन करने वाले सभी लोगों के पास डिजिटल रूप में उपलब्ध होते हैं। इस क़ि‍स्म का ऑनलाइन लेनदेन करने वाले सभी लोग इण्टरनेट के माध्यम से एक विशेष प्रकार के कम्प्यूटर नेटवर्क (पियर-टू-पियर या डिस्‍ट्रीब्‍यूटेड नेटवर्क) से जुड़े होते हैं जिसमें डेटा किसी एक सर्वर पर नहीं बल्कि नेटवर्क के सभी कम्‍प्‍यूटरों पर मौजूद होता हैं। इस प्रक्रिया से होने वाले लेनदेन को सुरक्षित बनाने के लिए 'डिजिटल सिग्नेचर' और क्रिप्टोग्राफ़ी की तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे लेनदेनों के सत्यापन की प्रक्रिया 'बिटकॉइन माइनिंग' का अंग है जो जटिल गणितीय समीकरणों को हल करने की कुशलता की माँग करती है। इस कुशलता से लैस विशेषज्ञों को 'बिटकॉइन माइनर्स' कहते हैं। बिटकॉइन नेटवर्क में जब भी कोई लेनदेन होता है तो नेटवर्क में उपस्थित सभी 'माइनर्स' को अधिसूचना भेजी जाती है। जो 'माइनर' लेनदेन का सत्यापन सबसे पहले करता है उसके खाते में ए‍क निश्चित मात्रा में बिटकॉइन चले जाते हैं। इस प्रकार 'माइनर्स' न सिर्फ़ बिटकॉइन का सत्यापन करते हैं, बल्कि वे उनका निर्माण भी करते हैं। बिटकॉइन नेटवर्क में होने वाले कई लेनदेनों को मिलाकर एक ब्लॉक बनता है। ये ब्लॉक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, इसी वजह से इस तकनीक को ब्लॉकचेन कहते हैं। हर ब्लॉक पर अपने पिछले ब्लॉक की पहचान दर्ज होती है और इस प्रकार सभी ब्लॉक एक श्रृंखला में जुड़े होते हैं। ब्लॉकचेन की इस तकनीक को हैक करना इसलिए मुश्किल है क्योंकि हैकर को सिर्फ़ एक ब्लॉक में नहीं बल्कि बिटकॉइन की शुरुआत से लेकर अबतक के सभी ब्लॉकों में छेड़छाड़ करनी होगी जोकि लगभग असम्भव है।  

आज क्रिप्‍टोकरेंसी का इस्‍तेमाल किस रूप में हो रहा है?

क्रिप्‍टोकरेंसी की शुरुआत 2007-8 के वैश्विक वित्‍तीय संकट के बाद हुई थी और इसे भविष्‍य की विश्‍वव्‍यापी मुद्रा के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। अराजकतावादी और 'लिबर्टेरियन' विचारों से प्रभावित कई लोग इसका समर्थन इसलिए करते हैं क्‍योंकि यह किसी सरकार या वित्‍तीय संस्‍था के नियंत्रण में नहीं है। लेकिन एक दशक से भी ज्‍़यादा का समय बीतने के बावजूद आज बिटकॉइन जैसी क्रिप्‍टोकरेंसी का मुद्रा के रूप में बेहद सीमित इस्‍तेमाल ही हो रहा है और ज्‍़यादातर इसका इस्‍तेमाल सट्टेबाज़ी या निवेश के एक माध्‍यम के रूप में हो रहा है। पूँजीवाद के दायरे में क्रिप्‍टोकरेंसी जैसी चीज़ कभी भी अन्‍य मुद्राओं की जगह ले पायेगी यह मुमकिन नहीं लगता। ऐसा इसलिए क्‍योंकि केवल ऐसी ही चीज़ मुद्रा के रूप में काम कर सकती है जो एक ऐसे सार्वभौमिक समतुल्‍य का काम कर सके जिसके सापेक्ष अन्‍य मालों के मूल्‍य (सामाजिक रूप से आवश्‍यक श्रमकाल) को मापा जा सके और जो साथ ही साथ विनिमय के माध्‍यम का भी काम कर सके यानी जिसके ज़रिये चीज़ों को ख़रीदा-बेचा जा सके। ग़ौरतलब है कि बिटकॉइन जैसी क्रिप्‍टोकरेंसी के मूल्‍य का किसी देश में उत्‍पादित वस्‍तुओं और सेवाओं के मूल्‍य से कोई रिश्‍ता नहीं होता है, बल्कि इसका मूल्‍य इसपर हो रही अटकलबाज़ी के आधार पर बहुत ही तेज़ी से कम या ज्‍़यादा होता रहता है। इसके मूल्‍य की यह अस्थिरता अपनेआप में इसे मुद्रा के रूप में स्‍वीकार होने की राह में बहुत बड़ी बाधा है। इसके अलावा क्रिप्‍टोकरेंसी का इस्‍तेमाल करके बाज़ार में आम तौर पर चीज़ों को ख़रीदा या बेचा नहीं जा सकता है। इण्‍टरनेट पर कुछ कम्‍पनियों ने कुछ उत्‍पादों व सेवाओं को बिटकॉइन से ख़रीदा जा सकता है, लेकिन ये बेहद सीमित है। 

पारम्‍परिक रूप से धातुएँ, ख़ासकर सोना और चाँदी, ऐसे सार्वभौमिक समतुल्‍य और विनिमय के माध्‍यम का काम करती थीं। यह बात सच है कि आधुनिक दौर में काग़ज़ के नोट और प्‍लास्टिक व कुछ इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यमों ने भी मुद्रा का स्‍थान ग्रहण किया है जिनका स्‍वयं का मूल्‍य किसी सुनिश्चित मात्रा में धातु के मूल्‍य के बराबर हो ऐसा आवश्‍यक नहीं है। लेकिन ग़ौरतलब बात यह है कि ऐसा इसलिए मुमकिन हो पाता है कि देशों की सरकारें इसकी गारण्‍टी देती हैं और सरकारों की यह क्षमता उनकी अर्थव्‍यवस्‍था की स्थिति से निर्धारित होती है। लेकिन बिटकॉइन जैसी क्रिप्‍टोकरेंसी सरकारों के नियंत्रण से मुक्‍त हैं, इसलिए लोगों के बीच मुद्रा के रूप में इनपर भरोसा क़ायम होना बहुत मुश्किल है। इसके अतिरिक्‍त इसकी एक सीमा यह भी है कि इण्‍टरनेट का इस्‍तेमाल न करने वाले दुनिया के अरबों लोगों के लिए इसका कोई मायने नहीं है। 

मुद्रा के रूप में भले ही बिटकॉइन जैसी क्रिप्‍टोकरेंसी भले ही स्‍थापित न हो पायी हो, लेकिन इसके बावजूद दुनिया भर में उनपर निवेश लगातार बढ़ता जा रहा है। उनके मूल्‍य को लेकर लगायी जा रही अटकलों की वजह से दुनियाभर में क्रिप्‍टोकरेंसी पर आधारित सट्टेबाज़ी का विशाल विश्‍वव्‍यापी बाज़ार निर्मित हुआ है। क्रिप्‍टोकरेंसी पर ट्रेडिंग करने में मदद करने वाले ढेरों प्‍लेटफ़ॉर्म विकसित हुए हैं जिन्‍हें क्रिप्‍टो-एक्‍सचेंज कहा जाता है। वास्‍तविक अर्थव्‍यवस्‍था में मुनाफ़े की गिरती दर के संकट की वजह से हुए पूँजी को लाभप्रद निवेश के अवसर कम होते जा रहे हैं जिसका नतीजा यह हो रहा है कि पूँजी अधिक मुनाफ़े की चाहत में सट्टाबाज़ार की ओर रुख़ कर रही है क्‍योंकि वहाँ मुनाफ़ा कमाने के अवसर दिखते हैं। तमाम निवेशकों को क्रिप्‍टोकरेंसी के निवेश में शेयर बाज़ार की सट्टेबाज़ी से भी ज्‍़यादा मुनाफ़ा कमाने की सम्‍भावना दिखती है। यह बात दीगर है कि इसमें जोखिम भी ज्‍़यादा होता है क्‍योंकि भविष्‍य में क्रिप्‍टोकरेंसी के मूल्‍य बढ़ने की अटकल पर आधारित सट्टेबाज़ी से एक बुलबुला फूलता जाता है जिसे देर-सबेर फूटना ही होता है, जिसके बाद कई निवेशक बर्बाद हो जाते हैं। पिछले एक दशक के दौरान कई बार यह बुलबुला फूटता रहा है, लेकिन नये निवेश और नये सिरे से अटकलबाज़ी की वजह से बुलबुला फिर से फूलने लगता है।

इसके अतिरिक्‍त आज के दौर में क्रिप्‍टोकरेंसी का एक अन्‍य उपयोग इण्‍टरनेट की मदद से ग़ैर-क़ानूनी रूप से ड्रग्‍स और हथियारों की ख़रीदफ़रोख्‍़त में किया जा रहा है। ऐसा तथाकथित डार्क वेब के ज़रिये किया जाता है जो इण्‍टरनेट की एक भीतरी परत होती है जिसतक आम इण्‍टरनेट उपयोगकर्ताओं की पहुँच नहीं होती है और जिसके लिए एक विशेष सॉफ़्टवेयर की ज़रूरत होती है। डार्क वेब में बिटकॉइन जैसी क्रिप्‍टोकरेंसी का इस्‍तेमाल ड्रग्‍स और हथियार को गुमनाम रूप में ख़रीदने में भी किया जा रहा है। 

ब्‍लॉकचेन की अचूक तकनीक की वजह से बिटकॉइन व अन्‍य क्रिप्‍टोकरेंसी की माइनिंग की प्रक्रिया में कोई धाँधली होना बहुत मुश्किल है, लेकिन क्रिप्‍टो-एक्‍सचेंज के ज़रिये बिटकॉइन में होने वाले निवेश और सट्टेबाज़ी की प्रकिया में धोखाधड़ी और घोटालों के कई मामले सामने आते रहे हैं। मिसाल के लिए हाल ही में कर्नाटक में बिटकॉइन घोटाला सामने आया जिसमें एक व्‍यक्ति ने अवैध रूप से हज़ारों बिटकॉइन हाथिया लिए थे। 

इस प्रकार हम पाते हैं कि आज के पूँजीवादी दौर में ब्‍लॉकचेन जैसी अचूक तकनीक के आधार पर बनी क्रिप्‍टोकरेंसी का उपयोग सट्टेबाज़ी के ज़रिये बेहिसाब मुनाफ़े के लिए और ड्रग्‍स व अवैध हथियारों की ख़रीद-फ़रोख्‍़त  करने के लिए और धोखाधड़ी करने के लिए किया जा रहा है। पूँजीवाद की चौहद्दी के भीतर क्रिप्‍टोकरेंसी का यही हश्र हो सकता है क्‍योंकि भरोसे में कमी की वजह से वह मुद्रा के रूप में स्‍थापित नहीं हो सकेगी। लेकिन समाजवाद की उन्‍नत मंजिलों में ब्‍लॉकचेन जैसी तकनीकों का इस्‍तेमाल आर्थिक लेनदेन को आसान व भरोसेमन्‍द बनाने के लिए बेशक किया जा सकेगा।

Anand Singh

Saturday, 27 November 2021

दलितों पर बढ़ते हमलों का मुंहतोड़ जवाब दो!

इलाहाबाद के फाफामऊ के गोहरी गांव में पासी(दलित) जाति के एक ही परिवार के चार लोगों की ठाकुर जाति के दबंगों द्वारा निर्मम हत्या के विरोध में इंक़लाबी छात्र मोर्चा का बयान- 

दलितों पर बढ़ते हमलों का मुंहतोड़ जवाब दो!

दलित आंदोलन को संसदीय- सुधारवादी दलदल से बाहर निकालो और क्रांतिकारी दिशा दो!! 

अभी 26 नवंबर 2021 को इस देश के दलित बुद्धिजीवी संविधान निर्माण का जश्न मना ही रहे थे तभी इलाहाबाद के फाफामऊ के गोहरी गांव में पासी जाति से संबंध रखने वाले एक पूरे परिवार को ही सामंती ठाकुरों द्वारा धारदार हथियारों से कत्ल कर दिया गया और उस परिवार की एक 17 वर्षीय नाबालिग लड़की के साथ हत्या करने से पहले बलात्कार भी की गई। कुल चार लोगों को उनके घर में घुसकर धारदार हथियारों से काट डाला गया। यह घटना संभवतः 24 नवंबर की रात में हुई है और अगले दिन 25 तारीख को गांव वालों को पता चला। यह परिवार एक गरीब किसान वर्ग से आता है। जो गांव से थोड़ी दूर पर मिट्टी का एक घर और झोपड़ी बनाकर रहते थे। पिछले 2 सालों से ठाकुरों के साथ इनका विवाद चल रहा था। विवाद की शुरुआत आये दिन ठाकुरों द्वारा इन गरीब किसानों की फसल चरा देने से हुई थी। जिसका पुलिस में शिकायत करने पर 2 साल पहले भी इस परिवार पर हमला किया गया था। बाद में SC- ST एक्ट के तहत मुकदमा भी दर्ज हुआ था लेकिन एक भी दोषियों को गिरफ्तार नहीं किया गया। अभी दो महीने पहले एक बार फिर ठाकुर लोग इन लोगों के घर में घुसकर इनको लाठी डंडे से मारे थे जिसमें कुछ लोगों का सर भी फुट गया था। पीड़ित दलित परिवार द्वारा मामले का एफआईआर भी दर्ज कराया गया लेकिन कोई कार्यवाई नहीं हुई।

इस घटना से संबंधित जो रिपोर्टें आ रही हैं उनसे यह स्पष्ट है कि इस घटना की वजह ठाकुरों का सामंती- जातिवादी सोच- श्रेष्ठताबोध व पीड़ितों का दलित जाति का होना है। ठाकुर परिवार को यह बर्दाश्त ही नहीं हुआ कि कोई पासी(दलित) कैसे उनसे आंख मिला सकता है और उनके खिलाफ सर उठाकर खड़ा हो सकता है। आखिर एक जातिविशेष से जुड़े लोगों के अंदर इतनी हिम्मत कहाँ से आती है कि वो पूरे के पूरे दलित परिवार को ही काट कर मार डाले? 

इंक़लाबी छात्र मोर्चा का मानना है कि यह हिम्मत इसलिए आती है कि उन्हें पता है कि सत्ता और व्यवस्था के सारे केंद्रों पर उनके जाति- वर्ग के लोग बैठे हुए हैं। और वो ये भी जानते है कि दलितों के अंदर इतनी ताकत नहीं है कि वो इनका जवाब दे सकें। ज्यादा से ज्यादा वो कोर्ट- कचहरियों का चक्कर लगाएंगे फिर थक हारकर अपने रोजी- रोटी के जुगाड़ में लग जाएंगे। उनके बुद्धिजीवी रोती- गिड़गिड़ाती हुई कुछ कविताएं और कहानियां लिखकर अपना गुस्सा शांत का लेंगे और इनके नेताओं का क्या है उन्हें तो कभी भी विधानसभा की एक शीट देकर खरीदा जा सकता है। इस घटना में भी  पुलिस- प्रशासन का ठाकुरों से मिलीभगत साफ जाहिर है। इस ठाकुर परिवार का शासन और प्रशासन में अंदर तक पकड़ है। उन्हें पता है कि अंततः उनके साथ होना कुछ नहीं है। ज्यादा से ज्यादा कुछ दिन की गिरफ्तारी होगी, जेल में मेहमानों की तरह आवभगत होगी और फिर सबूतों के अभाव में सब बरी हो जाएंगे। 

‌अभी हाल ही में 'जय भीम' फ़िल्म की बुद्धिजीवी दायरे में काफी तारीफ की गई। एक लिहाज से यह फ़िल्म बहुत ही घटिया है क्योंकि यह अन्ततः दलितों- शोषितों के अंदर इस सड़ी- गली व्यवस्था के प्रति विश्वास और श्रद्धा पैदा करती है। गोहरी की यह घटना कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी बिहार और देश के अन्य राज्यों में भी दलितों के जनसंहार की ऐसी और इससे बड़ी तमाम घटनाएं घटती रही हैं। जिनमें से एक में भी दलितों को इंसाफ नहीं मिला और हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि गोहनी गांव के इस घटना में भी दलितों को कोई इंसाफ नहीं मिलेगा। इसके लिए हम कुछ उदाहरण आपके सामने रख रहे हैं बिहार के बथानीटोला में रणवीर सेना द्वारा 21 दलितों की हत्या कर दी गयी सेशन कोर्ट ने तीन को मौत की सजा दी और 20 को आजीवन कारावास लेकिन पटना हाई कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में सभी दोषियों को बाइज्जत बरी कर दिया। बिहार के ही लक्ष्मणपुर बाथे जनसंहार में 58 दलितों की निर्मम हत्या की गई और सभी दोषियों को हाई कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। बिहार सहित पूरे देश में दलितों के साथ जनसंहार के ऐसे अनगिनत मामले हैं जिसमें दोषियों को सजा नहीं हुई। कुछ दिन वे जेल में रहे। फिर जमानत पर बाहर आ गए और अंततः बरी कर दिए गए।

सच बात तो यह है कि इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बाबा साहेब अंबेडकर को मात्र संविधान निर्माता के रूप में प्रचारित कर दलितों के पढ़े- लिखे और व्हाइट कॉलर वर्ग को अपने अंदर समायोजित कर लिया है। इन 5% व्हाइट कॉलर दलितों का इस्तेमाल यह ब्राम्हणवादी व्यस्था भयानक शोषण- उत्पीड़न और और जुल्म की शिकार दलित जनता के आक्रोश और उनके जेहन में धधक रहे आग को ठंढा करने के लिए करती है। दलित आंदोलन के भीतर का सुधारवाद और अवसरवाद दलितों पर जुल्म के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितने कि यह ब्राह्मणवादी- सामंती लोग और व्यवस्था।

अगर हमें दलितों के ऊपर जुल्म और दमन को कमजोर करना है, उनके साथ हुए जुल्मों और जन संहारों का जवाब देना है तो हमें बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों से सीखना होगा कि किस तरह नक्सलवादी- क्रांतिकारी पार्टियों और संगठनों ने पूरे बिहार से सवर्ण- सामंती ताकतों व उनकी रणवीर सेना को उन्हीं की भाषा में जवाब देते हुए नेस्तनाबूद कर दिया। हालांकि अभी भी वहां सामंती व्यवस्था को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका है और लड़ाई आज भी जारी है।

दलितों को अगर जातीय उत्पीड़न व ब्राह्मणवादी- सामंती जुल्मों से मुक्ति पानी है तो संसदीय- सुधारवादी दलदल से बाहर निकलना होगा और एकताबद्ध होकर हत्यारों का उन्हीं की भाषा में मुंहतोड़ जवाब देने के लिए संगठित होना होगा। यह सब तभी सम्भव होगा जब वो सुधारवादी रास्ते को छोड़कर क्रांतिकारी रास्ते पर चलना शुरू करेंगे।

                                                  कार्यकारिणी
                                            इंक़लाबी छात्र मोर्चा
                                                   इलाहाबाद
                                                 27/11/2021

Wednesday, 24 November 2021

A study guide for beginners to understand Trotskyism and it's flaws from a critical point of view

J.V. Stalin: The Discussion with Sergei Eisenstein on the Film Ivan the Terrible


One of the consequence of the anti-Stalin campaign initiated by the CPSU in 1953 has been that a number of facets of Stalin's interventions on cultural questions are virtually unknown in the Communist movement. It is a telling commentary on this state of affairs that Paresh Dhar in his review of Asok Chattopadhyaya's book Martiya Chirayat Bhabana - Silpa Sahitya Prasanga (in Bengali) can write that 'what is most striking is that by a special research work, Asok has unveiled Stalin's numerous involvements with art and literature of which we never heard before', (Frontier, May 24th, 1997).

This discussion took place between Stalin, Zhdanov and Molotov from the political leadership of the CPSU(b), and S.M, Eisenstein and N. Cherkasov at the end of February, 1947. It was an integral part of the attempt by the Bolshevik party in the post-war period to raise the artistic level of Soviet culture and to eliminate weaknesses in ideological and political content.1 Prior to the discussion the Central Committee of the CPSU(b) had on September 4th, 1946 taken a decision on the film Glowing life. Parts of the decision which bear on Ivan the Terrible are cited here:

'The fact of the matter is that many of our leading cinema workers - producers, directors and scenario writers - are taking a lighthearted and irresponsible attitude to their duties and are not working conscientiously on the films they produce. The chief defect in their work is failure to study subject matter... Producer Eisenstein betrayed ignorance of historical facts in the second series of Ivan Grozny, depicting Ivan Grozny's progressive army, the oprichniki, as a gang of degenerates reminiscent of the American Ku Klux Klan. Ivan Grozny, a man of strong will and character, is shown as a spineless weakling, as a Hamlet type...

'One of the fundamental reasons for the production of worthless films is the lack of knowledge of subject matter and the lighthearted attitude of scenario writers and producers to their work.

'The Central Committee finds that the Ministry of Cinematography, and primarily its head, Comrade Bolshakov, exercises inadequate supervision over film studios, producers and scenario writers, is doing too little to improve the quality of films and is spending large sums of money to no useful purpose. Leading officials of the Ministry of Cinematography take an irresponsible attitude to the work entrusted to them and are indifferent to the ideological and political content and artistic merits of the films being produced.

'The Central Committee is of the opinion that the work of the Ministry's Art Council is incorrectly organized. The council does not ensure impartial and

business-like criticism of films for production. It often takes an apolitical attitude in its judgement of film and pays little attention to their idea-content. Many of its members display lack of principle in their assessment of films, their judgment being based on personal, friendly relations with the producers. The absence of criticism in the cinema and the prevalent narrow-circle atmosphere are among the chief reasons for the production of poor films.

'Art workers must realise that those who continue to take an irresponsible, lighthearted attitude to their work, may well find themselves superfluous and outside the ranks of progressive Soviet art, for the cultural requirements and demands of the Soviet theatregoer have developed and the Party and Government will continue to cultivate among the people good taste and encourage exacting demands on works of art.' (Decisions of the Central Committee, C.P.S.U.(b) On Literature and Art (]946-1948), Moscow, 1951, pp. 26-28.)

1. An earlier criticism of the films of Eisenstein (Strike, The Battleship Potemkin, October, and The General Line) was published in 1931: I. Anissimov, 'The Films of Eisenstein'. This has been reprinted in Bulletin International, 64-67, April-July 1983, pp. 74-91. (In French).

We were summoned to the Kremlin at about 11 o'clock [In the evening - Ed.]. At 10.50 we reached the reception. Exactly at 11 o'clock Poskrebyshev came out to escort us to the cabinet.

At the back of the room were Stalin, Molotov and Zhdanov.

We entered, exchanged greetings and sat around the table.

Stalin. You wrote a letter. The answer got delayed a little. We are meeting late. I first thought of giving a written answer but then I decided that talking will be better. As I am very busy and have no time I decided to meet you here after a long interval. I received your letter in November.

Zhdanov. You received it while stilI in Sochi.

Stalin. Yes, yes. In Sochi. What have you decided to do with the film?

We are saying that we have divided the second part of the film into two sections, because of which the Livonsky March has not been included. As a result there is a disproportion between the different parts of the film. So it is necessary to correct the film by editing the existing material and to shoot mainly the Livonsky march.

Stalin. Have you studied History?

Eisenstein. More or less.

Stalin. More or less? I am also a little familiar with history. You have shown the oprichnina incorrectly. The oprichnina was the army of the king. It was different from the feudal army which could remove its banner and leave the battleground at any moment - the regular army, the progressive army was formed. You have shown this oprichnina to be like the Ku-Klux-Klan.

Eisenstein said that they wear white cowls but we have black ones.

Molotov. This does not make a major difference.

Stalin. Your tsar has come out as being indecisive, he resembles Hamlet. Everybody prompts him as to what is to be done, and he himself does not take any decision... Tsar Ivan was a great and a wise ruler, and if he is compared with Ludwig XI (you have read about Ludwig XI who prepared absolutism for Ludwig XIV), then Ivan the Terrible is in the tenth heaven. The wisdom of Ivan the Terrible is reflected by the following: he looked at things from the national point of view and did not allow foreigners into his country, he barricaded the country from the entry of foreign influence. By showing Ivan the Terrible in this manner you have committed a deviation and a mistake. Peter Ist was also a great ruler, but he was extremely liberal towards foreigners, he opened the gate wide to them and allowed foreign influence into the country and permitted the Germanisation of Russia. Catherine allowed it even more. And further. Was the court of Alexander I really a Russian court? Was the Court of Nicolaus I a Russian court? No, they were German courts.

The most outstanding contribution of Ivan the Terrible was that he was the first to introduce the government monopoly of external trade. Ivan the Terrible was the first and Lenin was the second.

Zhdanov. The Ivan the Terrible of Eisenstein came out as a neurotic.

Molotov. In general, emphasis was given to psychologism, excessive stress was laid on internal psychological contradictions and personal emotions.

Stalin. It is necessary to show the historical figure in correct style. For example it was not correct that in the first series Ivan the Terrible kissed his wife so long. At that period it was not permitted.

Zhdanov. The film is made in the Byzantine style but there also it was not done.

Molotov. The second series is very restricted in domes and vaults, there is no fresh air, no wider Moscow, it does not show the people. One may show conversations, repressions but not this.

Stalin. Ivan the Terrible was extremely cruel. It is possible to show why he had to be cruel.

One of the mistakes of Ivan the Terrible was that he did not completely finish off the five big feudal families. If he had destroyed these five families then there would not have been the Time of Troubles. If Ivan the Terrible executed someone then he repented and prayed for a long time. God disturbed him on these matters... It was necessary to be decisive.

Molotov. It is necessary to show historical incidents in a comprehensive way. For example the incident with the drama of Demyan Bedny Bogatyp. Demyan Bedny mocked the baptism of Russia, but in reality acceptance of Christianity was a progressive event for its historical development.

Stalin. Of course, we are not good Christians but to deny the progressive role of Christianity at that particular stage is impossible. This incident had a very great importance because this turned the Russian state to contacts with the West, and not to an orientation towards the East.

About relations with the East, Stalin said that after the recent liberation from the Tatar yoke, Ivan the Terrible united Russia in a hurried way so as to have a stronghold to face a fresh Tatar attack. Astrakhan was already conquered and they could have attacked Moscow at any moment, The Crimean Tatars also could have done this.

Stalin. Demyan Bedny did not have the correct historical perspective. When we shifted the statue of Minin and Podzharsky closer to the church of Vasily Blazhenova then Demyan Bedny protested and wrote that the statue must be thrown away and that Minin and Podzharsky must be forgotten. In answer to this letter, I called him 'Ivan, do not forget your own family'. We cannot throw away history...'

Next Stalin made a series of remarks regarding the interpretation of Ivan the Terrible and said that Malyuta Skuratov was a great army general and died a hero's death in the war with Livonia.

Cherkasov in reply said that criticism always helped and that after criticism Pudovkin made a good film Admiral Nakhimov. 'We are sure that we will not do worse. I am working on the character of Ivan the Terrible not only the film, but also in the theatre. I fell in love with this character and think that our alteration of the scenes will be correct and truthful'.

In response to this Stalin replied (addressing Molotov and Zhdanov) - 'Let's try?'

Cherkasov I am sure that the alteration will be successful.

Stalin. May god help you, - every day a new year. (Laughs.)

Eisenstein. We are saying that in the first part a number of moments were successful and this gives us the confidence for making the second series.

Stalin. We are not talking about what you have achieved, but now we are talking about the shortcomings.

Eisenstein asked whether there were some more instructions regarding the film.

Stalin. I am not giving you instructions but expressing the viewer's opinion. It is necessary that historical characters are reflected correctly. What did Glinka show us? What is this Glinka. This is Maksim and not Glinka. [They were talking about the film Composer Glinka made by L. Arnshtam. The main role was played by B. Chirkov.] Artist Chirkov could not express himself and for an artist the greatest quality is the capability to transform himself. (Addressing Cherkasov) - you are capable of transforming yourself.

In answer to this Zhdanov said that Cherkasov was unlucky with Ivan the Terrible. There was still panic with regard to Spring and he started to act as a janitor - in the film In the Name of Life he plays a janitor.

Cherkasov said that he had acted the maximum number of tsars and he had even acted as Peter Ist and Aleksei.

Zhdanov. According to the hereditary line. He proceeded according to the hereditary line.

Stalin. It is necessary to show historical figures correctly and strongly. (To Eisenstein). You directed Alexander Nevsky. It came out very well. The most important thing is to maintain the style of the historical period. The director may deviate from history; it is not correct if he simply copies from the historical materials, he must work on his ideas but within the boundary of style. The director may vary within the style of that historical period.

Zhdanov said that Eisenstein is fascinated by the shadows (which distracts viewers from the action), and the beard of Ivan the Terrible and that Ivan the Terrible raises his head too often, so that his beard can be seen.

Eisenstein promised to shorten the beard of Ivan the Terrible in future.

Stalin. (Recalling different actors from the first part of the film Ivan the Terrible) Kurbsky - is magnificent. Staritsky is very good (Artist Kadochnikov). He catches the flies excellently. Also: the future tsar, he is catching flies with his hands! These type of details are necessary. They reveal the essence of man.

...The conversation then switched to the situation in Czechoslovakia in connection with Cherkasov's participation in the Soviet film festival. Cherkasov narrated the popularity of the Soviet Union in Czechoslovakia.

The discussion then touched upon the destruction of the Czechoslovakian cities by the Americans.

Stalin. Our job was to enter Prague before the Americans. The Americans were in a great hurry, but owing to Koniev's attack we were able to outdistance the Americans and strike Prague just before its fall. The Americans bombed Czechoslovakian industry. They maintained this policy throughout Europe, for them it was important to destroy those industries which were in competition with them. They bombed with taste.

Cherkasov spoke about the album of photographs of Franco and Goebbels which was with Ambassador Zorin at his villa.

Stalin. It is good that we finished these pigs. It is horrifying to think what would have happened if these scoundrels had won.

Cherkasov mentioned the graduation ceremony of the Soviet colony in Prague. He spoke of the children of emigrants who were studying there. It was very sad for these children who think of Russia as their motherland, as their home, when they were born there and had never been to Russia.

Stalin. It is unfortunate for these children. They are not at fault.

Molotov. Now we are giving a big opportunity to the children to return to Russia.

Stalin pointed to Cherkasov that he had the capacity for incarnation and that we have still the capacity to incarnate the artist Khmelev.

Cherkasov said that he had learnt a lot while working as an extra in the Marine Theatre in Leningrad. At that time the great master of incarnation Shaliapin acted and appeared on stage.

Stalin. He was a great actor.

Zhdanov asked: how is the shooting of the film Spring going on.

Cherkasov. We will finish it soon. Towards spring we are going to release Spring.

Zhdanov said that he liked the content of Spring a lot. The artist Orlova played very well.

Cherkasov. The artist Plyatt acted very well.

Zhdanov. And how did Ranevskaya act! (Waves his hand.)

Cherkasov. For the first time in my life I appeared in a film without a beard, without a moustache, without a cloak, without make-up. Playing the role of a director, I am a bit ashamed of my appearance and I feel like hiding behind my characters. This role is a lot of responsibility because I must represent a Soviet director and all our directors are worried: How will a Soviet director be shown?

Molotov. And here Cherkasov is settling scores with all the directors! When the film Spring was called into question, Cherkasov read an editorial in the newspaper Soviet Art regarding Spring and decided the film was already banned. And then Zhdanov said: Cherkasov saw that all the preparations for Spring had perished so he took on the role of a janitor. Then Zhdanov spoke disapproving of the critical storm which had come up around Spring.

Stalin was interested to know how the actress Orlova had acted. He approved of her as an actress.

Cherkasov said that this actress had a great capability of working and an immense talent.

Zhdanov. Orlova acted extremely well. And everybody remembered Volga-Volga and the role of the postman Orlova had played.

Cherkasov. Have you watched In the Name of Life?

Stalin. No, I have not watched it, but we have a good report from Kliment Efremovich. Voroshilov liked the film.

Then that means that all the questions are solved. What do you think Comrades (addresses Molotov and Zhdanov), should we give Comrades Cherkasov and Eisenstein the opportunity to complete the film? - and added - please convey all this to Comrade Bolshakov.

Cherkasov asked about some details in the film and about the outward appearance of Ivan the Terrible.

Stalin. His appearance is right, there is no need to change it. The outward appearance of Ivan the Terrible is fine.

Cherkasov. Can the scene about the murder of Staritskova be retained in the scenario?

Stalin. You may retain it. The murder did take place.

Cherkasov. We have a scene in which Malyuta Skuratov strangles the Metropolit Philip.

Zhdanov. It was in the Tver Otroch-Monastery?

Cherkasov. Yes, is it necessary to keep this scene? Stalin said that it was necessary to retain this scene as it was historically correct.

Molotov said it was necessary to show repression but at the same time one must show the purposes for which it was done. For this it was necessary to show state activities on a wider canvas and not to immerse oneself only with the scenes in the basements and enclosed areas. One must show wide state activity.

Cherkasov expressed his ideas regarding the future of the altered scenes and the second series.

Stalin. How does the film end? How better to do this, to make another two films - that is second and third series. How are we planning to this?

Eisenstein said that it was better to combine the already shot material of the second series with what was left of the scenario - and produce one big film.

Everyone agreed to this.

Stalin. How is your film going to end?

Cherkasov said that the film would end with the defeat of Livonia, the tragic death of Malyuta Skuratov, the march towards the sea where Ivan the Terrible is standing, surrounded by the army, and says, 'We are standing on the sea and will be standing!'

Stalin. This is how it turned out and a bit more than this.

Cherkasov asked whether it would be necessary to show the outline of the film for confirmation by the Politburo.

Stalin. It is not necessary to present the scenario, decide it by yourselves. It is generally difficult to judge from the scenario, it is easier to talk about a ready product. (To Molotov.) You must be wanting to read the scenario?

Molotov. No, I work in other fields. Let Bolshakov read it.

Eisenstein said that it was better not to hurry with the production of this film.

This comment drew an active reaction from everybody.

Stalin. It is absolutely necessary not to hurry, and in general to hasten the film would lead to its being shut down rather than its being released. Repin worked on the Zaporozhye Cossacks Writing Their Reply to the Turkish Sultan for 11 years.

Molotov. 13 years.

Stalin (with insistence) 11 years.

Everybody came to the conclusion that only a long spell of work may in reality produce a good film.

Regarding the film Ivan the Terrible Stalin said - That if necessary take one and a half, two even three years to produce this film. But the film should be good, it should be 'sculptured'. We must raise quality. Let there be fewer films, but with greater quality. The viewer has grown up and we must show him good productions.

It was discussed that Tselikovskaya acted well in other characters, she acts well but she is a ballerina.

We answered that it was impossible to summon another actress to Alma-Ata.

Stalin said that the directors should be adamant and demand whatever they need. But our directors too easily yield on their own demands. It sometimes happens that a great actor is necessary but it is played by someone who does not suit the role. This is because the actor demands and receives the role while the director agrees.

Eisenstein. The actress Gosheva could not be released from the Arts Theatre in Alma-Ata for the shooting. We searched two years for an Anastasia.

Stalin. Artist Zharov incorrectly looked upon his character without any seriousness in the film Ivan the Terrible. He is not a serious Army-General.

Zhdanov. This is not Malyuta Skuratov but an opera-hat.

Stalin. Ivan the Terrible was a more nationalist tsar, more foresighted, he did not allow foreign influence in Russia. Peter Ist opened the gate to Europe and allowed in too many foreigners.

Cherkasov said that it was unfortunate and a personal shame that he had not seen the second part of the film Ivan the Terrible. When the film was edited and shown he had been at that time in Leningrad.

Eisenstein also added that he had not seen the complete version of the film because he had fallen ill after completing it.

This caused great surprise and animation.

The discussion ended with Stalin wishing them success and saying 'May god help them!'

They shook hands and left. At 00.10 minutes the conversation ended.

An addition was made to this report by Eisenstein and Cherkasov:

'Zhdanov also said: 'In the film there is too much over-indulgence of religious rituals.'

Translated from the Russian by Sumana Jha.

Courtesy: G. Maryamov: Kremlevskii Tsenzor, Moscow, 1992, pp. 84-91.  www,revolutionarydemocracy.org

Tuesday, 23 November 2021

D.D. Kosambi and the argument Indian Marxists ignored.


..."There can be no doubt, it seems to me, as to who rules India today : it is the Indian bourgeoisie. True, production is still overwhelmingly petty bourgeois in character (written in 1953. My note). But this cannot be more than a transitory stage, and already the nature of the class in power casts a pervasive influence over the political, intellectual and social life of the country. 
                 THE DECLINE OF FEUDALISM

Feudalism's decline in India may be said to date from the inability of Indian feudalism to defend the country against British penetration. To be sure, The British conquered and held the country by means of an Indian army, paid from India's resources and under British discipline; though in this respect the feudal powers of the day were not so different as might at first appear, since their own armies, also maintained at Indian expense, were often staffed by European drill sergeants and artillery experts. The difference - and it was a crucial difference - was that the British paid all their soldiers regularly in cash every month, in war or peace, paying also for supplies acquired during the march or for the barracks. The contrast is pointed out by the opposing Indian factions that fought the Battle of Panipat (A.D. 1761). Ahmad Shah Durrani's soldiers mutinied after winning the battle because they had not been paid for years; while their opponents the Marathas, maintained themselves by looting the countryside. Faced with opposition of this kind, the British-led arms were bound to triumph...........
Indian feudalism tried its strength against the British bourgeoisie for the last time in the unsuccessful rebellion of 1857. Soon thereafter, the British abandoned their long-standing policy of liquidating feudal principalities and instead began to bolster up remaining regimes of this kind - provided they were weak enough to be dependent and hence compliant. Marx noted that the very same people who fought in the British Parliament against aristocratic privilege at home voted to maintain far worse rajahs and nabobs in India - as a matter of policy, for profit.

Despite British support, and in a sense because of it, Indian feudalism no longer had any independent strength and vitality of its own. Its economic basis had been ruined by the construction of railroads, the decay of village industry, the establishment of a system of fixed assessment of land values and payment of taxes in cash rather than in kind, the importation of commodities from England, and the introduction of mechanised production in Indian cities...............................................................With British rule came survey and registry of land plots, cash taxes, cash crops for large-scale export to a world market (indigo, cotton, jute, tea, tobacco, opium), registration of debts and mortgages, alienability of the peasant's land - in a word the framework within which land could gradually be converted into capitalist private property which the former usurer could acquire and rent out and exploit...................
How thoroughly British rule undermined Indian feudalism has been dramatically demonstrated by events of recent years. The police action undertaken in 1948 by India's central government against Hyderabad, the largest and most powerful remaining feudal state, was over in two days. Political action in Travancore and Mysore, direct intervention in Junagadh and Kashmir, indirect intervention in Nepal, the absorption of Sikkim, the jailing of Saurashtra barons as common criminals - all these events showed that feudal privilege meant nothing before the new paramount power, the Indian bourgeoisie........
Another process involved in the liquidation of feudalism is exemplified by what has been happening since independence in the Gangetic basin. There the East India Company had created the class of Zamindars, tax collectors whose function was to extract tribute in kind from the peasant and convert it into cash payment to the company. As times went on, the Zamindars acquired the status and privileges of landholders and in return provided valuable political support for British rule. In recent years, a new class of capitalist landlords and well-to-do peasants of the kulak variety has been substituted for the zamindars by legislative action (the zamindars, of course receiving compensation for their expropriated holdings).
Everywhere in India, by one means or another, feudal wealth has already become capital, either of the owner or his creditors. [ Every feudalism known to history rested, in the final analysis, upon primitive handicraft production, and upon a special type of land ownership. The former of these is no longer basic in India, and the latter does not exist. ] Talk of fighting feudalism today is on a level with talk of fighting dinosaurs...................................

( On The Class Structure of India; Exasperating Essays, 1954).

From Marxist Internet Archive Library

Monday, 15 November 2021

जब एक लड़की हौसला करे, घर से निकलने का!



जब घर से निकलने पर
अपने लिए ये सुनो कि ये आवारा हो चुकी,
ये किसी की नहीं सुनती,मनमानी करती है,हाथ से निकल गई,
तो उस वक़्त
तुम नाराज मत होना, पीछे मुड़कर भी मत देखना,
तुम आगे बढ़ना,दो कदम - चार कदम ओर आगे बढ़ाना 
और थोड़ी ओर आवारापन्ती करना,
तुम जी लेना अपनी  तमाम सहेलियो , बहनों,
और शायद मां के हिस्से का भी....
जो कभी घर की दहलीज को लांग ना सकी
जो कभी हौसला ना कर सकी खुद को आवारा कहलवाने का,
और अच्छी बने रहने के लिए 
जिसने गुजार दी अपनी पूरी उम्र ,
घर के एक कोने में,जो कभी उसका ना हो सका
तुम कभी अपनी मां जैसी अच्छी मत होना ,
तुम तो बस ऐसी ही रहना,
खिलखिलाती हुई,मुस्कुराती हुई,
अन्याय के खिलाफ झंडा उठाती हुई,
गलियों सड़कों में घुमती हुई,आवारापन्ती करती हुई,
एक आवारा सी लड़की 
तुम  तो बस ऐसी ही रहना ......  !
Jaspreet

Saturday, 13 November 2021

कठोपनिषद

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्‌ ॥

Meaning

When the five senses cease and are at rest and the mind resteth with them and the Thought ceaseth from its workings, that is the highest state, say thinkers.

Hindi Meaning

''जब पाँचो इन्द्रियाँ शान्त होकर स्थिर हो जाती हैं तथा मन भी उनके साथ स्थिर हो जाता है, और 'बुद्धि' की प्रक्रियाएँ भी शान्त हो जाती हैं तो वह उच्चतम अवस्था (परमा गति) होती है, ऐसा मनीषीगण कहते है।

कठोपनिषद

किसान विरोधी कृषि कानून 2020 क्या है ? और उसका विरोध कैसे करें?


कृषि विधेयक-2020, जो संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर के बाद अब कानून बन गया है। यह कानून क्या है और उसका किसानों सहित आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा- इस पर आइये चर्चा करें। कृषि सम्बन्धी 3 कानून क्रमश: है- (1) कृषि उपज व्यापार व वाणिज्य कानून: (ii) कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून, (ii) आवश्यक वस्तु कानून (i) कृषि उपज व्यापार व वाणिज्य कानून: पहले कृषि उपज बेचने के लिए कृषि मण्डी (व क्रय केन्द्र) जाना पड़ता था। वहां पर सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीददारी की जाती थी। अब इस कानून में परिवर्तन द्वारा कृषि उत्पाद अब कहीं भी (मण्डी के बाहर भी) खरीदा बेचा जा सकता है। इस नये प्राविधान द्वारा सरकार का कहना है कि इस कानून द्वारा हमने किसानों को मण्डी से आजाद कर दिया है। किसान अब मण्डी से बाहर भी न्यूतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर अपनी उपज बेचकर लाभ कमा सकता है। बाहर विक्री से किसानों को मण्डी टैक्स से भी छुटकारा मिल जायेगा। इससे किसानों को अतिरिक्त लाभ होगा। दूसरी और आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि सरकार (इस कानून द्वारा) मण्डी व न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) खत्म करके किसानों को बड़ी कम्पनियों का गुलाम बनाना चाहती है। इस पर सरकार का कहना है कि न तो मण्डी खत्म होगी और न ही MSP सरकार का कहना है कि ऐसा दुष्प्रचार करके विरोधी पार्टिया सरकार के खिलाफ किसानों को बरगला रही हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि मण्डी के बाहर विक्री पर जब किसानों को कोई टैक्स नहीं देना है तो किसान मण्डी के बाहर ही अपना उत्पाद बेचना चाहेगा, क्योंकि बड़ी कम्पनियां किसानों को अपने जाल में फंसाने के लिए कुछ दिनों तक अच्छे मूल्य दे सकती हैं। फिर तो सरकारी मण्डी का औचित्य ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि मण्डी में कारोबार धीरे-धीरे सिमटता जायेगा और एक दिन मण्डी ही खत्म अर्थात् बन्द हो जायेगी। हॉ, जब कोई निजी धन्नासेठ उस मण्डी को खरीद लेगा, तो मण्डी फिर से जगमगाने लगेगी। मतलब यह कि जब सरकारी मण्डी ही खतम हो जायेगी तो सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य भी औचित्य विहीन होकर खत्म हो जायेगा। किसान अपनी उपज की विक्री के लिए देशी विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों पर पूरी तरह निर्भर हो जायेंगे। इस प्रकार यह कानून कम्पनियों के लाभ के लिए किसानों की बर्बादी का दस्तावेज है।

(ii) कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून इसे कान्ट्रैक्ट फार्मिंग या हिन्दी में संविदा ठेका खेती कानून भी कहते हैं। इसके तहत कम्पनियां जिस चीज का उत्पादन करवाना चाहँगी, जिससे उसको लाभ हो न कि किसान या आम जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर उत्पादन) उसके लिए वह किसानों को खाद, बीज, रासायनिक दवायें इत्यादि देंगे। उसे सरकारी सब्सिडी दिलवायेंगी और उपज को अपने कर्मचारियों या बिचवलियों द्वारा खरीद लेंगी। या कम्पनियां लीज पर खेत लेकर खेती करवायेंगी। या साझा खेती करवायेंगी, अर्थात् खेत किसान का और कृषि संसावन बड़ी कम्पनियों का, दोनों साझे में उत्पादन करेंगे, करवायेंगे और लाभ-हानि में दोनों बराबर के हिस्सेदार होंगे L इस कानून द्वारा सरकार का कहना है कि किसानों को जब निजी धनाढ्य निवेशक मिल जायेंगे तो किसानों को लागत के सामानों उसकी मंहगाई, उसकी अभावग्रस्तता, उसके लिए कर्ज में फंसने की समस्या व चिंता से मुक्ति मिल जायेगी। क्योंकि पूंजीवादी कम्पनियां किसानों से उत्पादन करवाके करार के अनुसार सारा उत्पादन खरीद लेगी। इससे किसान, बिना चिंता के, केवल लाभ में ही रहेगा। उसका जीवन खुशहाल हो जायेगा। सरकार का कहना है कि किसानों की खुशहाली के लिए ही हमने किसानों को मण्डी के अवतियों (छोटे व्यापारी) से आजादी दे दी है, क्योंकि ये अव्रतियों किसानों को MSP न देकर उन्हें लूटते थे। हो, सरकार का यह कहना है तो सही है कि अड़तिये किसानों को लूटते थे अतः होना तो यह चाहिए था कि सरकार इस लूट से किसानों की रक्षा करती लेकिन हो रहा है उल्टा अड़तियों की छोटी लूट से मुक्ति का हवाला देकर सरकार ने बड़ी लूट करने वाले देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों (बड़े खिलाड़ियों) के मुँह में किसानों को ढकेल दिया है। मतलब यह कि छोटी पूँजी (अढ़तियों की जगह किसानों को बड़ी पूंजी का निवाला बनाया जा रहा है। उन्हें कम्पनियों का गुलाम बनाया जा रहा है।

(iii) आवश्यक वस्तु कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अनुसार अनाज, दलहन, आलू, प्याज, खाद्य तेलों इत्यादि को आवश्यक वस्तु घोषित करके सरकार उसका भण्डारण करती थी और अपने नियंत्रण में आवश्यकतानुसार उसको बाजार में देती थी और सस्ते गल्ले की दुकान से उसका वितरण करती थी। निजी लाभ हेतु कम्पनियों द्वारा उसकी खरीद विक्री व उसके अनियंत्रित भण्डारण पर प्रतिबन्ध था। इससे बाजार भाव नियंत्रित रहता था, लेकिन अब इस कानून में संसोधन द्वारा बड़ी निजी पूंजी को असीम भण्डारण की छूट दे दी गयी है। इससे अब एफ.सी.आई. जैसे सरकारी गोदामों का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा।

कुल मिलाकर यह कि इस कानून द्वारा पूंजीवादी कम्पनियां हर इंसान की भूख पर नियंत्रण करके उसे अपनी अंगुलियों पर नचायेंगी। इससे केवल किसान एवं ग्रामीण मजदूर ही नहीं, शहरी मजदूर व मध्यम वर्ग भी कम्पनियों के रहमो करम पर निर्भर होंगे। अतः यह अमानवीय कानून बडी पूंजी के निजी लाभ के लिए आम जनता को भूख की आग में झोंक देने वाला है। इसलिए इस भुखमरी कानून के खिलाफ सिर्फ किसानों को ही नहीं, बल्कि अन्य जनता को भी लड़ना होगा। बहरहाल, ये तीनों कानून एक दूसरे से सम्बन्धित और एक दूसरे पर निर्भर है। अतः सम्पूर्ण कृषि कानून के खिलाफ आवाज उठानी होगी। दूसरी बात यह कि इस कृषि कानून का विरोध करने के लिए समर्थन की मांग पर मजदूर व मध्यम वर्ग कह सकते हैं कि यह किसानों का मामला है। इससे हमें क्या लेना-देना। लेना-देना है मित्रों! क्योंकि कम्पनियों के खाद्यान्न भण्डारण अधिकार से मुखमरी का संकट पैदा होगा, जो सभी गरीबों को प्रभावित करेगा। अतः सभी को मिलकर इस कानून का विरोध करना होगा। उसी प्रकार निजीकरण का विरोध करने के लिए समर्थन की मांग पर किसान कह सकता है। यह मजदूरों का मामला है, शिक्षा व रोजगार, छात्रों-नौजवानों का मामला है इससे हमें क्या लेना-देना नहीं, किसान भाईयों कृपया ध्यान दें! कान्ट्रैक्स फार्मिंग भी कृषि का बड़ी कम्पनियों के हाथ में निजीकरण ही है, मंहगी होती शिक्षा और घटता रोजगार भी निजीकरण (के चलते) ही है। अतः किसानों को भी मजदूरों व छात्र युवाओं के साथ मिलकर निजीकरण का एवं श्रम कानून का विरोध करना होगा। अन्त में यह कि कृषि कानून का. एक तरह से कहा जाय तो. एक सबसे खतरनाक पहलू यह है कि किसानों एवं मालिक देशी-विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों के बीच कोई विवाद होने पर किसान न्यायालय नहीं जा सकता। विवादों पर केवल एस.डी.एम. का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। विपरीत निर्णय आने पर अन्तिम तौर पर डी. एम. के यहाँ अपील की जा सकती है।

प्रश्न है कि उपरोक्त सारी समस्याओं की आखिरी जननी कौन है? उत्तर है- 1991-95 में लागू की गई निजीकरण, उदारीकरण व विश्वीकरणवादी नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव इन सारी समस्याओं की जन्मदाता है। विदेशी पूंजी विज्ञान तकनीक व मशीनों पर 1947 से पहले से ही निर्भर यहां के उद्योग, सेवा व्यापार को छोड़कर यदि कृषि क्षेत्र को देखा जाय तो 1950-60 के दशक में विदेशी बीज, खाद, दवाओं पर निर्भर हरित क्रांति यहां लागू की गई। यदि ऐसा नहीं किया गया होता, कृषि में मुख्यतः विदेशी (व देशी) पूंजीपति हरित क्रांति के मार्फत नहीं घुसे होते तो फिर डंकल प्रस्ताव रूपी नई आर्थिक नीति कृषि क्षेत्र में नहीं आ पाती और न ही आज कान्ट्रैक्ट फार्मिंग का आधार बनता। अतः कृषि कानूनों के विरोध के लिए जब तक नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव का विरोध नहीं होगा, साथ ही उन नीतियों, प्रस्तावों के निर्माता, संचालक व निर्देशक देशी-विदेशी पूंजीपतियों व उनकी व्यवस्था का विरोध नहीं होगा, तब तक ये समस्यायें खत्म नहीं होंगी कृपया ध्यान दें, इन्हीं देशी-विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों के लूटकारी हितों में ही ये सारे कानून, नीतियां, प्रस्ताव राजसत्ता द्वारा लागू की गई है। अतः सत्ता सरकार को भी पूंजीवादी कहते हुए उसका विरोध करना होगा। जहां तक राजनीतिक पार्टियों की बात है तो भाजपा का यह कहना है तो सही कि अपनी सरकार के जमाने में कांग्रेस खुद कृषि सुधार व श्रम सुधार विधेयक संसद के पटल पर लाई थी और आज उसका विरोध करके यह किसानों व श्रमिकों को बरगला कर
सत्ता सरकार में जाने के लिए केवल वोट की राजनीति कर रही है। ऐसा कहकर भाजपा खुद कबूल कर रही है आज जो कांग्रेस कर रही है, उसी तरह कांग्रेसी राज में इन विधेयकों का विरोध करके हम भी वोट की राजनीति कर रहे थे। अर्थात् हमारा (भाजपा) व कांग्रेस का कृषि कानून व श्रम कानून का विरोध मात्र एक नाटक व दिखावा है। प्रमाण, राज्यसभा में अल्पमत सरकार द्वारा इन विधेयकों का पास होना यही बताता है कि हंगामा, बहिर्गमन करके कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों ने नकली विरोध करके इसे पास होने में सहयोग दिया ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि सत्ताधारी पार्टी सहित विपक्षी पार्टियां भी जनविरोधी पूंजीवादी पार्टियां ही है। अतः किसान विरोधी कृषि कानून बनना ही था।

यहीं पर एक बात बताते चलें। आपको याद होगा कि अंग्रेजी काल में इसी संसद में जब मजदूर विरोधी औद्योगिक विवाद मिल (ट्रेड डिस्प्यूट बिल) पेश हो रहा था तो भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने सदन में बम फेंक कर उसका विरोध किया था। ये लोग जेल गये और सजा पाये। यह था साम्राज्यवाद पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारियों का मजदूर किसान समर्थक चरित्र। जबकि आज औद्योगिक बिल के साथ-साथ किसान विरोधी कृषि बिल भी संसद में पास हो गया लेकिन विरोध के नाम पर हुआ केवल हंगामा व बहिर्गमन पक्ष-विपक्ष का ऐसा चरित्र देखकर ही मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवादी जनतंत्र में चुनाव हर पांच साल में यह फैसला करने के लिए होता है कि कौन सी पार्टी सत्ता में जाकर पूंजीपतियों के पक्ष में मजदूरों किसानों का शोषण व दमन करेगी। अतः ध्यान रहे, मजदूरों-किसानों, नौजवानों को केवल MSP APMC (मण्डी कानून) या श्रम कानून के लिए खुद को केवल सुधारवादी आन्दोलन तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए क्योंकि देशी-विदेशी पूंजी के विराट संकेन्द्रण के प्रतिक्रियावादी युग में आज पूंजीवादी सुधारवाद सम्भव नहीं है। अतः किसानों, मजदूरों व बेरोजगारों को पूंजीवाद - साम्राज्यवाद व उसकी नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव के खिलाफ क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा, फूट डालो- राज करो वाली जाति-धर्म की पूंजीवादी राजनीति से खुद को अलग करके, उसका विरोध करते हुए वर्गीय एकता बनानी होगी। तभी श्रमिक वर्गों को शोषण, उत्पीड़न, दमन से मुक्ति मिलेगी और किसानों, मजदूरों की जिन्दगी खुशहाल हो पायेगी।

अन्तिम बात आपको याद होगा कि रूस के सुधावादी समाजवाद को 1990 में गिराकर पूंजीवाद की पूर्णतः पुनर्स्थापना करके साम्राज्यवादियों ने खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद ने 1991-95 में नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव को पूरी दुनिया पर थोप दिया। तभी से पहले से कहीं अधिक) मजदूरों, किसानों नौजवानों की समस्यायें बढ़ते-बढ़ते आज हालात बद से बदतर होते गये हैं। एक तरफ जैसे कृषि कानून, श्रम कानून, निजीकरण मंहगाई, बेकारी भी बढ़ती गई, तो दूसरी तरफ देशी-विदेशी पूंजीपतियों की पूंजियां बेतहाशा बढ़ती गई है। उपरोक्त बातों का मतलब यह है कि रूस के बचे-खुचे समाजवाद में भी (कह लीजिए तो) ऐसी ताकत थी, जिससे विश्वभर के पूंजीपतियों की बेतहाशा लूट-पाट पर अंकुश लग सकता था, नयी आर्थिक नीति व शंकल प्रस्ताव लागू नहीं किया जा सकता था। हालांकि इन्हीं सुधारवादियों संशोधनवादियों के कुकर्मों के कारण ही रूस में समाजवाद का पतन हुआ और फिर नई आर्थिक नीति व डकल प्रस्ताव साम्राज्यवादियों द्वारा भूमण्डल पर थोपा गया) बहरहाल, उपरोक्त तथ्य यह बताता है कि पूंजीवाद की और बढ़ते हुए बचे-खुचे समाजवाद से भी जब पूंजीवाद- साम्राज्यवाद की असीम लुटेरी प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है तो क्रांतिकारी समाजवाद तो पूंजीवाद को ही मिटाकर श्रमिकों को पूर्ण मुक्ति दिला सकता है। अतः मजदूरों, किसानो नौजवानों को कृषि कानून, श्रम कानून व शिक्षा रोजगार के लिए संघर्ष करते हुए खुद को समाजवादी चेतना से अर्थात् मार्क्सवाद, लेनिनवाद से शिक्षित प्रशिक्षित करना होगा वैज्ञानिक क्रांतिकारी समाजवाद को लक्ष्य बनाकर जब आप संघर्षों में कूदेंगे, तभी शोषण, उत्पीड़न, दमन से आपकी मुक्ति होगी। मार्क्सवाद लेनिनवाद ही एकमात्र रास्ता है, जिसे आप श्रमिकों को चुनना ही होगा।

(बलिया )    जनार्दन सिंह ।
 
जुलाई- नवम्बर 2020, मंथन, अंक 27 में प्रकाशित ।

Thursday, 11 November 2021

सोवियत संघ ने वेश्‍यावृत्ति का ख़ात्‍मा कैसे किया ◆तेजिन्दर



वेश्यावृत्ति प्राचीन काल से हमारे समाज में मौजूद रही है। इसकी शुरुआत समाज के वर्गों में बँटने और स्त्रियों की दासता के साथ ही हो गयी थी। लेकिन *पूँजीवाद के साथ ही देह व्यापार का यह धन्धा एक व्यापक और संगठित रूप में अस्तित्व में आया।* इसने एक खुली आज़ाद मण्डी पैदा की जिसमें कारख़ानों में पैदा हुए माल से लेकर इंसानी रिश्तों और जिस्मों को भी मुनाफे के लिए खरीदा और बेचा जाने लगा। इसके साथ ही कलकत्ता, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक में देह व्यापार की मण्डियाँ और उसके साथ ही दुनियाभर में मानव तस्करी का एक व्यापक कारोबार पैदा हुआ।

*अकेले भारत में ही लगभग 30 लाख से ज्यादा वेश्याएं हैं। इनमें 12 से 15 साल तक की करीब 35 प्रतिशत लड़कियाँ हैं जो इस अमानवीय धन्धे में फँसी हुई हैं।* हर साल लाखों औरतों और लड़कियों की एक जगह से दूसरी जगह तस्करी की जाती है और जबरन इस धन्धे में धकेला जाता है। इस व्यवस्था की तरफ से भी इस समस्या से निपटने के लिए कोशिशें की जाती रही हैं और बहुत से एन.जी.ओ. और समाजसेवी संस्थाएँ भी इसको लेकर काम कर रही हैं। लेकिन इन सबका असली मकसद इस समस्या के बुनियादी कारणों पर पर्दा डालना ही है। आज इस अमानवीय धन्धे को कानूनी रूप देने की कोशिशें की जा रही हैं जिससे इसके हल का सवाल ही ख़त्म किया जा सके। इस व्यवस्था की जूठन पर पलने वाले तमाम बुद्धिजीवी इसके पक्ष में दलीलें गढ़ रहे हैं और मीडिया द्वारा इन दलीलों को आम राय में बदलने की कोशिशें भी जारी हैं।

बीसवीं सदी के शुरू में अमेरिका व यूरोप के पूँजीवादी देशों में वेश्यावृत्ति के खिलाफ ज़ोरदार मुहिमें चलायी गयी थीं। मगर औरतों की हालत सुधारना इन मुहिमों का मकसद नहीं था, क्योंकि इनके पीछे असली कारण था यौन रोगों का बड़े स्तर पर फैलना। इसलिए ये मुहिमें वेश्यावृत्ति विरोधी न होकर वेश्याओं की विरोधी थीं। इन मुहिमों का विश्लेषण अमेरिकी लेखक डाइसन कार्टर ने अपनी प्रसिद्ध किताब 'पाप और विज्ञान' में काफी विस्तार से किया है। इसके साथ ही रूस में अक्तूबर 1917 की क्रान्ति से पहले और बाद में वेश्यावृत्ति की स्थिति का जिक्र भी इस किताब में किया गया है।

*रूस में क्रान्ति से पहले वेश्यावृत्ति*

रूस में जारशाही के दौर में वेश्यावृत्ति का एक संगठित ढाँचा मौजूद था। यह पूरा संगठित ढाँचा रूसी बादशाह ज़ार की सरकार की देखरेख में चलाया जाता था। इसे 'पीले टिकट' की व्यवस्था कहा जाता था। जो औरतें वेश्यावृत्ति को पेशे के तौर पर अपनाती थीं, उनको एक पीला टिकट दिया जाता था, लेकिन इसके बदले उनको अपने पासपोर्ट (पहचानपत्र) को त्यागना पड़ता था। इसका मतलब था एक नागरिक के तौर पर अपने सभी अधिकारों को गँवाना। एक बार इस धन्धे में आने के बाद वापसी के सभी दरवाज़े बन्द कर दिये जाते थे। कोई भी औरत वेश्यावृत्ति के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकती थी क्योंकि पासपोर्ट के बिना कहीं नौकरी नहीं की जा सकती थी। इसके इलावा इन औरतों की सामाजिक हैसियत भी पूरी तरह ख़त्म कर दी जाती थी। ऐसी औरतों के लिए अलग इलाके बनाये गए थे, जैसे भारत में 'रेड लाइट एरिया' हैं। मतलब कि इन औरतों का अस्तित्व निचले दरजे के जीवों के रूप में था। इस प्रबन्ध को कायम रखने पीछे मकसद था सरकार को इससे हो रही आमदनी। वेश्याओं को अपनी आमदनी का एक हिस्सा जिला प्रमुख या दूसरे सरकारी अफसरों को देना पड़ता था।

क्रान्ति से पहले तक अकेले पीटर्सबर्ग शहर में सरकारी लायसेंसप्राप्त औरतों की संख्या 60,000 थी। 10 में से 8 वेश्याएं 21 साल से कम उम्र की थीं। आधे से ज़्यादा ऐसीं थीं, जिन्होंने 18 साल से पहले ही इस पेशे को अपना लिया था। रूस में नैतिक पतन का यह कीचड़ जहाँ एक तरफ आमदनी का स्रोत था, वहीं दूसरी तरफ यह रूस के कुलीन लोगों के लिए विदेशों से आने वाले लोगों के सामने शर्मिन्दगी का कारण भी बनता था। इसलिए इन कुलीन लोगों ने ज़ार सरकार पर दबाव बनाया और ज़ार द्वारा इस मसले पर विचार करने के लिए एक कांग्रेस भी बुलाई गई। इस कांग्रेस में मज़दूर संगठनों द्वारा भी अपने सदस्य भेजे गये। मज़दूर नुमाइंदों द्वारा यह बात पूरे जोर-शोर से उठाई गई कि रूस में वेश्यावृत्ति का मुख्य कारण ज़ारशाही का आर्थिक और राजनैतिक ढाँचा है। लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे विचारों को दबा दिया गया। पुलिस अधिकारियों का कहना था कि 'भले घरानों' की औरतें पर प्रभाव न पड़े, इसलिए ज़रूरी है कि 'निचली जमात' की औरतें ज़िन्दगी भर के लिए यह पेशा करती रहें।

*अक्तूबर 1917 क्रांति के पश्चात*

अकतूबर, 1917 में रूस के मज़दूरों और किसानों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में ज़ारशाही को पलट कर समाजवादी क्रान्ति कर दी। निजी मालिकाने को ख़त्म करके पैदावार के साधनों का समाजीकरण किया गया। इस क्रान्ति का उद्देश्य सिर्फ आर्थिक गुलामी की बेड़ियों को ही तोड़ना नहीं था बल्कि इसने लूट पर आधारित पुरानी व्यवस्था द्वारा पैदा की तमाम सामाजिक बीमारियों (शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, औरतों की गुलामी आदि) पर भी चोट की।

सोवियत शासन ने वेश्यावृत्ति के खिलाफ सबसे पहला हमला 1923 में किया। वेश्यावृत्ति की समस्या को पूरी तरह समझने के लिए डाक्टरों, मनोविशेषज्ञों और मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा 1923 में एक प्रश्नावली तैयार की गयी और रूस की हज़ारों औरतों और लड़कियों में बाँटा गया।

इस प्रश्नावली का मकसद उन कारणों और स्थितियों का पता लगाना था, जिसमें एक औरत अपना जिस्म तक बेचने के लिए तैयार हो जाती है। हर स्तर और हर उम्र की अलग-अलग स्त्रियों से इन सवालों के उत्तर लिखित और गोपनीय तरीकों से लिये गये।

इस सर्वेक्षण के बाद जो तथ्य सामने आये वे थेः

– देह व्यापार की सिर्फ वह स्त्री शिकार बनीं, जिनको दूसरे लोगों ने जानबूझ कर बहकाया था। किन लोगों ने? उन लोगों ने नहीं जिन्होंने पहले-पहले उनके शरीर का सौदा किया था,  बल्कि उन पुरुषों-स्त्रियों ने जो वेश्यावृत्ति के व्यापार से लम्बे-चौड़े मुनाफे कमा रहे थे या वे लोग जो व्यभिचार के अड्डे चलाते थे।

– व्यभिचार इसलिए कायम है क्योंकि भारी संख्या में भूखी-नंगी लड़कियाँ मौजूद हैं, इसलिए कि व्यभिचार का व्यापार करने से करारा मुनाफ़ा हाथ लगता है।

– सोवियत विशेषज्ञों को पता लगा कि ज़्यादातर लड़कियाँ आम तौर पर इतनी गरीब होतीं कि थोड़ी रकम का लालच भी उनको वेश्यावृत्ति की तरफ घसीट ले जाता।

– ज़्यादातर औरतों ने कहा कि यदि उनको कोई अच्छा काम मिले तो वह इस धन्धे को छोड़ देंगी।

इन तथ्यों की रौशनी में सोवियत सरकार ने सबसे पहले 1925 में वेश्यावृत्ति के ख़िलाफ़ एक कानून पास किया। देश की सभी सरकारी संस्थाओं, ट्रेड यूनियनों और स्थानीय संगठनों को निर्देश दिया गया कि वे फौरन ही नीचे लिखे उपायों को अमल में लायें:

(यहाँ हम 'पाप और विज्ञान' किताब से इस कानून सम्बन्धित हवाले दे रहे हैं।)

मजदूर संगठनों की मदद से मजदूरों की हथियारबंद सुरक्षा फौज मजदूर स्त्रियों की छँटनी हर हालत में बन्द करे। किसी भी हालत में आत्म-निर्भर, अविवाहित स्त्रियों, गर्भवती स्त्रियों, छोटे बच्चों वाली स्त्रियों और घर से अलग रहने वालों लड़कियों को काम से हटाया नहीं जाये।
उस समय फैली हुई बेरोज़गारी के आंशिक हल के रूप में स्थानिक सत्ताधारी संस्थाओं को निर्देश दिया गया कि वे सहकारी फैक्टरियाँ और खेती संगठित करें जिससे बेसहारा भूखी-नंगी स्त्रियों को काम पर लगाया जा सके।
स्त्रियों को स्कूलों और प्रशिक्षण-केन्द्रों में भरती होने के लिए उत्साहित किया जाये और मजदूर संगठन इस भावना के खि़लाफ़ कारगर संघर्ष चलायें कि स्त्रियों को मिलों-फैक्टरियों आदि में काम नहीं करना चाहिए।
उन स्त्रियों के लिए जिनके पास रहने की 'कोई निश्चित जगह नहीं है', और उन लड़कियों के लिए जो गाँव से शहर में आयी हैं, आवास अधिकारी रिहाइश हेतु सहकारी मकान का प्रबंध करें।
बेघर बच्चों और जवान लड़कियों की सुरक्षा के नियम सख़्ती के साथ लागू किये जायें।
यौन-रोगों और वेश्यावृत्ति के ख़तरे के ख़िलाफ़ आम लोगों को जागरूक करने के लिए अज्ञानता पर हमला किया जाये। आम लोगों में यह भावना जगायी जाये कि अपने नये जनतंत्र से हम इन रोगों को उखाड़ फेंकें।
ठेकेदारों, वेश्याओं और ग्राहकों के प्रति तीन अलग रवैये

– सोवियत सरकार द्वारा ठेकेदारों और वेश्याघरों के मालिकों (जिन में मकान मालिक और होटलों के मालिक भी शामिल थे) के लिए सख़्त रवैया अपनाने के लिए कहा गया। फौज को हिदायत दी गई कि मनुष्यों का व्यापार करने वालों और वेश्यावृत्ति से लाभ कमाने वाले लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाये और कानून मुताबिक सजा दी जाये।

– वेश्यावृत्ति में फँसी औरतों के बारे में लोगों और फौज को चेतावनी दी गयी कि उनके साथ अच्छा बरताव किया जाये। यह भी कहा गया कि छापे के दौरान उनको बराबर को नागरिक समझा जाये। ऐसी भी धारा थी कि इन औरतों को गिरफ्तार न किया जाये। उनको अदालत में सिर्फ ठेकेदारों के खि़लाफ़ गवाही देने के लिए ही लाया जाता था।

– ग्राहकों के प्रति सामाजिक दबाव की पहुँच अपनायी गयी। ग्राहकों को गिरफ्तार नहीं किया जाता था बल्कि उनका नाम-पता और नौकरी की जगह का पता ले लिया जाता था। फिर बाजार में एक तख़्ता लगा दिया जाता, जिस पर ग्राहकों के नाम और पतों के साथ लिखा जाता थाः 'औरतों के शरीर को खरीदने वाला'। ऐसे नामों की सूची सभी बड़ी-बड़ी इमारतों और मिलों-फैक्टरियाँ के बाहर लटकती रहती थी।

*सामाजिक पुनर्वास*

ऐसी औरतें भी थीं, जिनकी अस्पताल और स्वास्थ्य केन्द्रों में देख-रेख की जा रही थी, जो अपने आप को समाज के अनुकूल नहीं ढाल पा रही थीं। इसलिए यह सम्भावना बनी हुई थी कि ऐसी औरतें फिर से देह व्यापार के धन्धे में जा सकतीं हैं। फिर सामाजिक पुनर्वास की एक योजना तैयार की गयी। संक्षेप में में यह योजना इस तरह थीः

मरीज़ को तब छुट्टी दी जाती जब समाज के एक हिस्से में उसके रहने का पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर लिया जाता। यहाँ उसका अतीत गोपनीय रखा जाता था। इस अतीत के बारे में सिर्फ उन्हीं गिने-चुने लोगों को पता होता था जिनके साथ अस्पताल में रहते हुए अन्तिम कुछ महीनों में मरीज़ ने पत्र-व्यवहार किया था। सामाजिक काम के ये वालंटियर पहले से ही एक ऐसी नौकरी की जगह तजवीज करते रहते थे, जिसके लिए स्त्री-रोगी को खास शिक्षा दी गयी होती थी। ये लोग उसके रहने के लिए किसी परिवार में प्रबन्ध कर देते। इस स्त्री के किसी नये परिवार में आने की हर बारीकी पर बड़ा ध्यान दिया जाता जिससे उसके पिछले जीवन के बारे में किसी को शक न हो सके।
गिने-चुने देखभाल करने वालों का दल हर स्त्री को लंबे समय तक सहायता की गारंटी करता। हमारे देशों में भी जांच-पड़ताल का समय देने का प्रबंध है। लेकिन उससे यह देखभाल बुनियादी तौर पर भिन्न थी। इस देखभाल का आधार था बराबरी के आधार पर व्यक्तिगत दोस्ती। ज़्यादा महत्व इस बात को दिया जाता था कि पुरानी मरीज अपने नये काम धंधे में सफलता प्राप्त करे। कम से कम एक देखभाल करने वाला इस स्त्री के साथ-साथ काम करता था।
हर जिले के देखभाल करने वालों के अलग-अलग दल मिलकर सहायता समितियाँ बनाते थे, डाक्टरों, मनो-विशेषज्ञों और फैक्ट्री मैनेजरों से सलाह-मशवरे के लिए इन समितियों की महीने में तीन बार बैठकें होती थीं। किसी भी मरीज़ के मामलो में थोड़ी भी गड़बड़ नजर आने पर विशेषज्ञ और अनुभवी सहायकों से फौरन मदद ली जा सकती थी। जैसे-जैसे समय बीता, पूरी तरह ठीक स्त्रियां इन समितियों के काम को और भी अच्छा बनाने के लिए उनमें शामिल होने लगीं।
विवाह, धंधे, तनख्वाह, किराये वगैरह की किसी तरह की कठिनाई में उलझ जाने पर उनकी ज़्यादा हिफ़ाज़त के लिए समितियों ने खास कानूनी मदद का भी प्रबंध कर दिया था।
पुरानी मरीजों को इस बात के लिए उत्साहित किया जाता कि जिन स्त्रियों का अब भी अस्पतालों में इलाज हो रहा है उन से निजी पत्र व्यवहार करें। इस का उद्देश्य यह था कि समाज में फिर से दाखिल होने की अस्पताल के मरीजों की इच्छा बढ़े और वह जल्दी ही समाज में फिर से वापस आ सकें।
सोवियत संघ के वेश्यावृत्ति के खिलाफ पंद्रह साल के संघर्ष के बादः

– अभियान के पहले दौर के पाँच साल के बाद ही, 1928 में, गैर-पेशेवर वेश्यावृत्ति पूरी तरह खत्म हो गयी। 25,000 से ज्यादा पेशेवर स्त्रियां अस्पतालों से निकल कर सम्मानित नागरिक बन गयी थीं। लगभग 3 हजार पेशेवर वेश्याएं अब भी मौजूद थीं।

– 80 प्रतिशत से कुछ कम स्त्रियां अस्पताल से निकलकर उद्योग और खेतों में काम करने के लिए पहुँच चुकी थीं।

– 40 प्रतिशत से अधिक 'शॉक ब्रिगेडों' में काम करने वालों में चली गई या देश के लिए इज्जत वाला काम करके उन्होंने नाम कमाया। ज़्यादातर ने विवाह कर लिया और माँएँ बन गयीं।

डायसन कार्टर के शब्दों में: "इस तरह व्यभिचार के ख़िलाफ़ संघर्ष – जो अब 'गुलामों और पीड़ितों' का संघर्ष बन गया था – सोवियत जीवन से युगों पुराने व्यभिचार के व्यापार को सदा के लिए मिटा देने में सफल रहा। इस संघर्ष ने यौन-रोगों का भी ख़ात्मा कर दिया। रूस की नयी पीढ़ी ने वेश्या को देखा तक नहीं है।"

रूस में समाजवादी काल के दौरान नशाख़ोरी और वेश्यावृत्ति जैसी समस्याओं के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ा गया और इनको को ख़त्म करने में सफलता भी मिली। उस दौर में अपनायी गयी नीतियाँ सिर्फ इसलिए ही नहीं सफल हुईं कि ज़ारशाही के बाद कोई ईमानदार सरकार आ गयी थी। इन समस्याओं को ख़त्म करने में सफलता मिलने का असली कारण यह था कि इन बुराइयों की जड़ निजी मालिकाने पर आधारित ढाँचा रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के नेतृत्व में अक्टूबर, 1917 के क्रान्ति के बाद ख़त्म कर दिया गया था। पैदावार के साधनों का साझा मालिकाना होने के कारण पैदावार भी पूरे समाज की ज़रूरत को सामने रखकर की जाती थी न कि कुछ लोगों के मुनाफे के लिए। इस लिए नयी बनी सोवियत सरकार द्वारा बनायी गयी नीतियाँ भी बहुसंख्यक मेहनतकश जनता को ध्यान में रखकर बनायी जाती थीं न कि मुट्ठीभर लोगों के मुनाफे के लिए।

आज पूँजीवाद ढाँचा पहले से ओर भी पतित हो चुका है और नशाख़ोरी, वेश्यावृत्ति जैसी बुराइयाँ और भी व्यापक रूप धर चुकी हैं। आज जब समाजवादी दौर के सुनहरे इतिहास पर कीचड़ फेंका जा रहा है, तो आज जरूरी है कि समाजवादी दौर की उपलब्धियों का सच आम लोगों तक पहुँचाया जाये जिससे इस बूढ़ी बीमार व्यवस्था को और भी नंगा किया जा सके। आज बेशक रूस और चीन में समाजवादी ढाँचा कायम नहीं रहा, लेकिन इस दौर की उपलब्धियाँ आज भी हमें मौजूदा लूट-आधारित व्यवस्था को ख़त्म करने और नयी समाजवादी व्यवस्था खड़ा करने के लिए प्रेरित करती हैं।

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Wednesday, 10 November 2021

छठ पर्व

वैसे तो पृथ्वी पर मानव तथा अन्य जीव जंतु एवं पेड़ पौधों के जन्म लेने और विकसित होकर आज तक पहुंचने में कितने साल लग गए सही सही तो नहीं कह सकते, लेकिन हजारों या लाख वर्ष भी  समय लगा हो सकता है।
                   मुझे जो बात करनी है वह यह कि मनुष्य जब बानर से नर की अवस्था में आया तो उसका दिमाग अलग तरह से काम करना शुरू किया। प्रकृति से उसका सामना हर हमेशा होता रहता था, इसलिए प्राकृतिक घटनाओं को जानने की जिज्ञासा भी उसके अंदर पैदा होने लगी। ज्ञान के अभाव में अनुमान के आधार पर चीजों की समझ एवं व्याख्या करने लगा ।लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया उसके दिमाग का विकास भी प्रकृति के साथ क्रिया- प्रतिक्रिया करने से  बढ़ता गया। प्राकृतिक चीजों का सही ज्ञान न होने से उसके प्रति डर या उसके द्वारा कोई अपशकुन न हो जाए, तरह-तरह की आराधना एवं देवी देवताओं की कल्पना कर उसकी मूर्तियां बना, उसका पूजन भी शुरू किया। बहुत सारी परंपराएं एवं पूजन प्रथाएं हैं धीरे-धीरे खत्म भी होती गई उसके कारण के विश्लेषण में मैं अभी नहीं जा रहा हूं।
                   मुझे जो बात कहनी है ,वह छठ का त्योहार जो प्रतिवर्ष लाखों लोग बिहार, उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग और झारखंड में विशेष रुप से धूमधाम तथा अति पवित्रता का ध्यान रखते हुए मनाया जाता है। यह पूरे साल में दो बार होती है एक कार्तिक एवं दूसरा चैत मास में। यह शुरू कैसे हुआ इसके इतिहास में  अभी मुझे नहीं जाना है। एक बात तो तय है कि आज भी बहुत से अनपढ़ लोग मानते हैं कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसकी परिक्रमा करता है। जब  कि वैज्ञानिकों ने सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा वार्षिक और दैनिक गति से करती है तथा सूर्य भी अपनी धुरी पर परिक्रमा करता है।
                 मुझे बातें ज्यादा विस्तार में न जाकर छठ पूजा के महिमा एवं इसके अनुष्ठान के संबंध में करनी है। इसे मानने वालों का कहना है कि इसके करने की प्रक्रिया में कोई गलती हो गई या  अपवित्र हो गया तो बहुत बड़ी अनहोनी, अपशकुन हो सकता है ।आज विज्ञान का युग है और वैज्ञानिक प्रकृति जन्य चीजों को जानना और उसका वैज्ञानिक विश्लेषण करने में भी लगे हुए हैं। ऐसी भी मान्यता है कि छठ व्रत करने से मन में मानी हुई लालसा या मन्नत पूरी हो जाती है।
                लेकिन मैं इससे सहमत नहीं होता। मनुष्य रोज या  या कहें कि अपने जीवन में कुछ न कुछ करते रहता है, इस क्रम में सफलता और असफलता उसे मिलती रहती है। इसके कारण को पता लगाने से हम निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि सफलता और असफलता के क्या कारण हैं। यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है कि सूर्य  के अभाव में पृथ्वी पर का जीवन असंभव है। वैज्ञानिक  अब तक की खोज में सफल हुए हैं कि सूर्य का भी अंत होगा और जब सूर्य का अंत होगा तो पृथ्वी का अंत होना भी स्वाभाविक है। लेकिन इसमें लाखों वर्ष से भी अधिक लग सकते हैं ऐसा ही कुछ कथन है।
                  लोगों का विश्वास- अंधविश्वास है  इसलिए प्रतिवर्ष छठ किए जा रहे हैं, सफलता मिली तो छठ मैया की झोली में और असफलता मिली तो अपने कर्म को दोषी मानना और कोसना।
                अब मैं अपनी कुछ बातें विश्लेषणात्मक रूप में कहूंगा ।एक बात जो मैं कहना चाहता हूं कि इस त्योहार में डूबते सूर्य और ऊगते सूर्य की पूजा जो की जाती है ,इस बिंदु पर मुझे कहना है कि सूरज कभी  न तो डूबता है और न उगता है। पृथ्वी अपनी दैनिक गति से अपनी धुरी पर एक बार घूम जाती है इसलिए अभी हमारे यहां सूर्य अगर डूब रहा है तो कहीं रात होगी या दिन या कोई और समय होगा अथवा सूरज उग रहा होगा। इसलिए डूबते सूरज को और उगते सूरज को अर्घ देने की मान्यता आज जब हम सूरज और पृथ्वी के बारे में जान गए हैं तो खंडित हो जाती है। एक बात और देखने को मिल रही है कि इस पर्व का वाहक मध्यवर्ग बहुतायत रूप से है। मजदूर वर्ग भी अल्प संख्या में ही सही लेकिन इस दौड़ में शामिल है।
                 अब इसके  पवित्रता पर भी कुछ अनुभव साझा करना चाहता हूं। आज से 45 वर्ष पहले की पटना शहर की ही बात है। हम पांच छ: साथियों ने तय किया कि छठ के प्रसाद को पहला अर्घ देने के पहले ही खाया जाए। लेकिन वो अर्घ के  पहले ही प्रसाद देगा कौन? क्योंकि उसको भारी अपशकुन या कोई बड़ी हानि हो जाएगी। इसी क्रम में एक साथी के घर छठ हो रहा था, वह तैयार हुआ की दउरा मैं ही घर का ले चलूंगा और  रास्ते में कहीं गली में जगह देखकर ठेकुआ निकाल लेना होगा ।हुआ ऐसा ही, उस साथी के सहयोग से ठेकुआ तो निकल गया। अब हुआ कि इसका  पारन अथार्त  खाया जाए। वह साथी भी जो डगरा लेकर गया था, घाट पर रख कर आया और हम सभी साथी मेरे ही डेरा पर बैठकर प्रेम से उसे सब कोई खाया, यहां तक कि मेरी पत्नी भी बोलते हुए खाई कि जब सब मर ही जाएंगे तो मैं जी कर क्या करूंगी? उसने भी ठेकुआ खाया। हम सभी साथी आज तक सकुशल हैं। उत्थान- पतन गिरना- उठना तो सबके जीवन में इस पूंजीवादी व्यवस्था में लगा हुआ है। लेकिन प्रसाद को पहले ही खाने से कोई अपशकुन नहीं हुआ। हमारे कहने का तात्पर्य है कि इसे के पीछे एक बहुत बड़ा अंधविश्वास चला आ रहा है और लोग लकीर के फकीर बन ढ़ोए जा रहे हैं ।तर्क, विवेक, विज्ञान सम्मत दिमाग लोग विकसित ही नहीं कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि शासक वर्ग / पूंजीपति वर्ग को इस से खूब लाभ हो रहा है। मनुष्य अपनी समस्याओं के वास्तविक कारण के तरफ न जाय, तर्क एवं विवेक को सोचने का आधार न बनावे तो इस वर्ग को फायदा ही फायदा है। इसके व्यवस्था की आयु बढ़ते ही रहेगी। इसलिए शासक वर्ग, पूंजीपति वर्ग एवं मध्य वर्ग के साथ ही राज्य भी इसके मनाने और सुचारू रूप से संपन्न हो, भरपूर मदद करता है।धर्म निरपेक्षता की नीति का दूर-दूर तक अवहेलना एवं खुला खेल होता है। मजदूर को खासकर अपनी सोच और समझदारी इसके प्रति विज्ञान सम्मत बनाने की अति आवश्यकता है।
                  मैं इस पर्व के पीछे डर ,भय एवं अंधविश्वास का सिद्धांत जो काम कर रहा है, उसका ही मूल रूप से आलोचनात्मक विश्लेषण कर रहा हूं ।इसकी मान्यता मनुष्य को पूर्ण मानव बनने में बाधक है। इसलिए इसका क्रिटिकल विश्लेषण तो होना ही चाहिए ।यह मेरे अपने विचार हैं मेरा किसी को आहत या किसी के ऊपर अपने विचार थोपने का प्रयास नहीं है।
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Saturday, 6 November 2021

October Revolution

The revolutions in France in 1848 and 1871 came to grief chiefly because the peasant reserves proved to be on the side of the bourgeoisie. The October Revolution was victorious because it was able to deprive the bourgeoisie of its peasant reserves, because it was able to win these reserves to the side of the proletariat, and because in this revolution the proletariat proved to be the only guiding force for the vast masses of the laboring people of town and country. 

सत्यजीत राय की फिल्मों में स्त्रियां _______________________ *सुलोचना*



सत्यजीत रे बांग्ला फ़िल्म निर्देशक थे; पर उससे पहले वे एक लेखक थे| अपने दो नयनों से उन्होंने जो कुछ देखा, उसे कागज़ पर उतारा| उनके भीतर फ़िल्मकार को दुनिया ने उनके लेखकीय चरित्र से अधिक सराहा| फ़िल्म बनाने से पहले उन्होंने विश्व की अनेक भाषाओं की फ़िल्मों को न सिर्फ़ देखा बल्कि उनका गहरा अध्ययन किया| रे के फ़िल्मों की भाषा भले ही बांग्ला हो, पर उनके फ़िल्मों की पटभूमि इतनी सरल पर शक्तिशाली है कि कोई भी आम मनुष्य उस फ़िल्म को अपने जीवन के करीब महसूस कर सकता है| यही कारण रहा कि भारत की क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्में होने के बावजूद रे के फ़िल्मों की पहुँच भौगोलिक और भाषाई सीमाओं के बाहर तक है। आज भी यूट्यूब पर मौज़ूद उनकी कई फ़िल्मों के सब टाइटल्स फ्रेंच या अंग्रेजी में मिलते हैं| 

रे की फ़िल्मों की एक गौरतलब बात है उनकी फिल्मों में चित्रित स्त्रियाँ, जो ग्रामीण और शहरी दोनों परिवेश से आती हैं, जिनका अपना एक आस्तित्व तो है पर वे पुरुषों से न तो प्रतिस्पर्धा करती हैं और न ही घृणा। शायद यह भी वज़ह रही कि उन्हें सराहा गया कि उन्होंने समाज में स्त्रियों को ऊँचा करने के लिए पुरुषों को कमतर नहीं आँका| पिता और प्रख्यात कवि सुकुमार राय के अल्प वयस में निधन में बाद रे को उनकी माँ ने पाला| यह पहली वज़ह रही होगी कि उन्होंने पुरुषों से इतर स्त्री आस्तित्व को समझा, वरना नब्बे के दशक से पहले लोग स्त्रियों का पृथक आस्तित्व भी नहीं मानते थे| उसके बाद रे के जीवन में आईं उम्र में उनसे चार से बड़ी उनकी ममेरी बहन, बिजया दास जिनसे वे अत्यधिक प्रभावित हुए और आगे चलकर दोनों ने सामाजिक मापदंडों को किनारे रख विवाह किया| बिजया राय ने विवाह के बाद अपने फ़िल्मी करियर और संगीत प्रेम को विदा कहा और बन गईं रे के फ़िल्मों की सज्जाकार और प्रोप सलाहकार| फ़िल्म "ओपूर संसार" में शर्मीला को उन्होंने ही तैयार किया था| "चारुलता" की माधबी के प्रॉप्स उनके ही दिए हुए थे| इस प्रकार सत्यजित सज्जा के लिए बिजया की अभिरुचि पर भरोसा रखते थे|

सत्यजीत राय का नाम आते ही हिंदी जगत के लोग जिस फ़िल्म का नाम लेते हैं वह है "चारुलता" (१९६४)| रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी "नष्ट नीड़" पर आधारित यह फिल्म एक अकेली गृहिणी, चारू (माधवी मुखर्जी द्वारा अभिनीत) की कहानी है,  जो एक अमीर घर की बहू है पर जिसके पति के पास व्यस्तता के कारण समय का अभाव है। ऐसे में अकेलेपन का शिकार हुई स्त्री के समवयसी देवर का आगमन उसकी चाहनाओं और महत्वाकांक्षाओं को कैसे जगाता है। फिल्म चारुलता की दुविधा, शादी में असंतोष की भावनाओं और रिश्तों के भ्रम को कलात्मक तरीके से दर्शाती है।

फ़िल्म "महानगर" (१९६३) में परिवार के बोझ को साझा करने के लिए एक गृहिणी एक कामकाजी पत्नी में बदल जाती है। फ़िल्म ससुराल और पति के  सांस्कृतिक सदमे सुंदर तरीके से चित्रित करता है| फ़िल्म कामयाबी के साथ मिलने वाली स्वतंत्रता, छुआछूत और संघर्ष की भावना को खूबसूरती से बयाँ करती है। 

१९६० में बनी फ़िल्म "देवी" में १७ वर्षीय दयामयी (शर्मीला टैगोर) को उसके ससुर द्वारा देवी के रूप में प्रचारित किया जाता है। कहानी अंधविश्वास, रहस्यवाद और अंध विश्वास की शिकार महिलाओं के उत्पीड़न की कहानी है। दया, जो बाद में अपने ऊपर लगाए गए इस देवी-रूपी अवतार को तोड़ने में असमर्थ रह जाती है। इस फ़िल्म की ख़ूबसूरती ही यह है कि इसमें फ़िल्मकार ने अपनी तरफ से कोई क्रांति करने की कोशिश नहीं की|

१९८४ में बनी फ़िल्म "घरे-बाईरे" रवींद्रनाथ टैगोर के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है जिसे स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में फिल्माया गया है| यह एक स्वदेशी नेता, एक उदारवादी नेता और गृहिणी बिमला (स्वातिलेखा चटर्जी अभिनीत) के बीच का प्रेम त्रिकोण है,  जहाँ स्त्री को उसके घरेलू जीवन के बाहर की दुनिया के अन्वेषण के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

१९५५ में बनी फिल्म "पथेर पाँचाली" सत्यजीत रे के निर्देशन की पहली फिल्म है और यह विभुतिभूषण बंद्योपाध्याय के बंगाली उपन्यास पर आधारित है। यह अपु और उसकी बड़ी बहन दुर्गा के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है। यह फ़िल्म अपू ट्रिलॉजी (पथेर पाँचाली-१९५५, अपराजितो-१९५६ और अपूर संसार-१९५९) की कड़ी की प्रथम फ़िल्म है| तीनों फ़िल्मों की कहानी पहली कहानी का ही विस्तार है|  कहानी का नायक भले ही अपू हो, पर महिला पात्रों को अत्यंत प्रभावी तरीके से दर्शाया गया है। बड़ी बहन, दुर्गा (उमा दासगुप्ता) को जिज्ञासु, देखभाल करने वाली और प्रकृति के करीब एक आत्मा के रूप में चित्रित किया गया है। माँ,  सर्वजया (करुणा बनर्जी) को पहली दो फिल्मों में एक पूर्ण चरित्र के रूप में देखा जाता है, जो गरीबी से जूझ रहे गाँव के जीवन के दौरान अपनी गरिमा बनाए रखती है और बाद में एक बच्चे के खो जाने से दुखी हो जाती है। पत्नी, अपर्णा (शर्मिला टैगोर), अपूर संसार में अपू के जीवन के लिए सांत्वनात्मक आनंद लाती है और अपने पति के सिगरेट के पैकेट पर एक संदेश लिखती हुई दिखाई देती है, जो उसे कम धूम्रपान करने की याद दिलाती है! ये सभी महिलाएं अपू के जीवन और सीखने को विभिन्न तरीकों से प्रभावित करती हैं।

१९६९ में बनी फ़िल्म "अरण्येर दिन रात्रि" समय से आगे की फ़िल्म थी। तीन दोस्त जो शहर से आते हैं, पलामू आकर आदिवासी जीवन से रू ब रू होते हैं और वहाँ की अलग-अलग वर्ग की महिलाओं के आज़ाद ख्याल और निर्भीकता को देख हैरान होते हैं। फ़िल्म में अलग-अलग वर्ग की अलग-अलग ज़रूरतों को भी बखूबी दर्शाया है|

सत्यजीत की फ़िल्मों में स्त्री वस्तु नहीं है, वह सज्जा की सामान भी नहीं है| वहाँ महिलाओं के अधिकारों को बरकरार रखने की ज़द्दोजहद है और वह इसके लिए उपकरण तलाशता है और तराशता भी है, लेकिन पुरुषों की कीमत पर नहीं।

स्त्री दर्पण से साभार

Friday, 5 November 2021

मजाज़ लखनवी,

इंकलाबी शायर मजाज़ लखनवी, 
'सरमाएदारी' पर उनकी लाइनें जो आज भी मौजू हैं --

कलेजा फुक रहा है और जबाँ कहने से आरी है।
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज यह सरमाएदारी है।

यह वह आँधी है जिसके रो में मुफलिस का नशेमन है,
यह वह बिजली है जिसकी जद में हर दहकान का खरमन है।

यह अपने हाथ में तहजीब का फानूस लेती है,
मगर मजदूर के तन से लहू तक चूस लेती है।

यह इंसानी बला खुद खूने इंसानी की गाहक है,
वबा से बढकर मुहलक, मौत से बढ़कर भयानक है।

न देखें हैं बुरे इसने, न परखे हैं भले इसने,
शिकंजों में जकड कर घोंट डाले है गले इसने।

कहीं यह खूँ से फरदे माल व जर तहरीर करती है,
कहीं यह हड्डियाँ चुन कर महल तामीर करती है।

गरीबों का मुकद्दस खून पी-पी कर बहकती है
महल में नाचती है रक्सगाहों में थिरकती है।

जिधर चलती है बर्बादी के सामां साथ चलते हैं,
नहूसत हमसफर होती है साथ चलते हैं।

यह अक्सर टूटकर मासूम इंसानों की राहों में,
खुदा के जमजमें गाती है, छुपकर खनकाहों में।

यह गैरत छीन लेती है, हिम्मत छीन लेती है,
यह इंसानों से इंसानों की फतरत छीन लेती है।

गरजती, गूँजती यह आज भी मैदाँ में आती है,
मगर बदमस्त है हर हर कदम पर लड़खड़ाती है।

मुबारक दोस्तों लबरेज है इस का पैमाना,
उठाओ आँधियाँ कमजोर है बुनियादे काशाना।

-- मजाज़ लखनवी
बजरिये साथी Gajender Rawat

पाखंडवाद

पप्पू मंदिर में पूजा करने गया जब बाहर आया तो एक भिखारी ने उससे भीख माँगी...

पप्पू ने उसको दुत्कार दिया
भिखारी से अपमान सहन नही हुआ...

उसने पप्पू से पूछा - मंदिर क्यों आते हो ?

पप्पू : पूजा करने ?

पूजा किसलिए करते हो ?

पप्पू : अपने घर की सुख समृद्धि के लिए अपने कारोबार और परिवार के लिए समृद्धि माँगता हूँ...

भिखारी : हम क्या यहाँ बैठकर झख मारते हैं ? रोज 10 - 12 घंटे माँगते हैं और जब से पैदा हुए हैं तब से माँग रहे हैं लेकिन आज तक भिखारी ही हैं...

तू क्या समझता है दस पंद्रह मिनट को आकर तू अपनी इच्छा पूरी करवा लेगा ? 

अबे जब हम जन्म से मांग रहे हैं और अब तक भी भिखारी हैं...

जब हमको इन्होने कुछ नही दिया तो तुझको क्या देगा ? 

हमसे दीन हीन और कौन होगा? 

अगर इसको किसी पर दया दिखानी थी तो हम पर दिखानी थी, जब हमको ही कुछ नही दिया तो तुझको क्या देगा..?

जबकि तेरे पास तो कुछ कमी नही है, गाड़ी, बंगले, कार सब कुछ है ।

एक बात समझ ले हम मंदिर के बाहर बैठकर भी भगवान के नाम पर जरुर मांगते हैं लेकिन भगवान से नही इंसान से ही माँगते हैं...

 ..लक्ष्मी पूजा, मूर्ति पूजा और पाखंडो को समझे और इस अन्धविश्वास , पाखंडवाद को ख़त्म करे...।



              

दलित सिनेमा

कितनी विडंबना है कि कैंसर, एड्स, कुपोषण, शराब, तम्बाकू, गुटखा इत्यादि पर असंख्य विज्ञापन बने हैं इस देश में यहां तक कि लिंगभेद, रंगभेद पर कम ही सही मगर बात हुई ही है लेकिन #जातिवाद के खिलाफ कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि इसपर कोई विज्ञापन बना सकें। हर टीवी चैनल पर जातिवाद के ख़िलाफ़ विज्ञापन होना चाहिए था। साथ ही सभ्य समाज में आचरण, विचार, मानवीय भावनाओं हेतु व्यवहार कैसा होना चाहिए उसका प्रचार भी जरूरी था।

हाशिये में पड़े समाज अर्थात बहिष्कृत समाज को जगाने, शिक्षित व जाग्रत करने में दक्षिण सिनेमा का बड़ा योगदान रहा है। हिंदी बाहुल्य क्षेत्र चाहे वह सिनेमा हो, साहित्य हो, या मीडिया हो अधिकांश जनजागृति के मामलों में भ्रमित करने वाले तथ्य मिलते हैं बाक़ी गलत परम्परा, मान्यता को पोषित, संरक्षित करने वाला कंटेंट मिलता है। जबतक हमारी मान्यताओं के विपरीत तर्क व उनके तथ्य हमें ज्ञात नहीं होंगे बदलाव कैसे आयेगा?

वर्तमान समय में साहित्य व सिनेमा में काफ़ी बदलाव आया है। भले ही हाशिये के लोगों का प्रतिनिधित्व बेहद नगण्य हो मगर उनकी बातें लगातार हो रही है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि दलित,आदिवासी,पिछड़ों ने अपने वेब चैनल, पत्रिकाएं, यूट्यूब चैनल, सोशल मीडिया के टूल्स, अन्य कॉमन प्लेटफार्म पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी और लोगों तक ऐतिहासिक, वर्तमान परिदृश्य पर अपने विचार प्रेषित किये हैं। 

आर्टिकल 15 से लेकर भीमा कोरेगांव, शरणम गच्छामि, सैराट, 500, दी शुद्र या #जयभीम इत्यादि तक एक बदलाव की आहट ही नहीं उस पक्ष की पीड़ा, मौजूदगी और समस्यायों पर मंथन है। हिंदी सिनेमा या हिंदी साहित्य की कहानी में दलित केवल सेवक, ड्राइवर, गरीब, शोषित के रूप में ही दिखाई पड़ता है कभी मुख्य हीरो की भूमिका में नहीं दिखा और न ही दलित कलाकार कोई हीरो जैसे बड़े चेहरे में नहीं दिखाई दिया। 

अब समय बदल रहा है क्योंकि आप बात करने लगे हैं। बेझिझक बिना किसी की परवाह किये बगैर अपनी बात बोलने लगे हैं। लोग क्या सोचेंगे, लोग क्या बोलेंगे,अंजाम क्या होगा या कौन क्या धारणाएं बनाएगा इसकी चिंता छोड़कर, संवैधानिक दायरे में,सभ्य व शालीनता के साथ अपना पक्ष हर रोज़ रख रहे हैं और गलत बातों का विरोध भी बड़ी मुखरता से कर रहे हैं। यही ताकत है जो आपका ध्यान रहेगा अन्यथा पीड़ित, शोषित,अपमानित और बहिष्कृत ही परिभाषित होंगे। 


Thursday, 4 November 2021

दीप ऐसा

🔥 दीप ऐसा जो सबके घर में रोशनी बिखेरे
🍨 मिष्ठान ऐसा जो कड़वाहट दूर कर सब में मिठास घोले

एक ऐसे समय में
जब त्योहार की खुशियां संपदा का प्रतीक बन जाए
जब बड़ी आबादी खुशियों से महरूम हो
जब महँगाई ने त्योहार की खुशियाँ छीन, दिवाला निकाला हो

तब आइए
ऐसी खुशी का संकल्प लें,
जहाँ दीपक की रोशनी हर कोने-अतरे भी फैले
जग से अंधेरा मिटा सके, हर जहाँ रौशनी बिखेर सके
और हर दिल में कड़वाहट और नफरत की जगह
मिठास घोल सके, सबमें प्यार जगा सके!

ऐसी दीपावली की खुशियां लाने के लिए,
आइए संकल्प लें!

♨️ दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं

-मुकुल
मज़दूर सहयोग केंद्र
'संघर्षरत मेहनतकश' पत्रिका, 'मेहनतकश' वेबसाइट और 'मेहनतकश' यूट्यूब चैनल के साथ

Wednesday, 3 November 2021

दो साल पुरानी पोस्ट... शायरी के कद्रदान दोस्तों के लिए रिपीट टेलीकास्ट....

दो साल पुरानी पोस्ट... शायरी के कद्रदान दोस्तों के लिए रिपीट टेलीकास्ट....
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कई बार हम कोई ऐसा शेर सुनते हैं जो बहुत मशहूर होता है पर हम उसके शायर के नाम से अनजान होते हैं.. यहां तक कि कई शेर ऐसे हैं जिनके शायर उस इकलौते शेर की वजह से मशहूर हुए.. ऐसे शेरों को मिसाली शेर बोला जाता है.. मतलब आम बातचीत में भी मिसाल देने के लिए ये शेर खूब इस्तेमाल किए जाते हैं... कुछ शेर - शायरों के नाम के साथ - मुलाहिजा फरमाइए.....

1) आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं 
सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं 

-----हैरत इलाहाबादी

2) ज़िन्दगी जिंदादिली का नाम है 
मुर्दा दिल ख़ाक जिया करते हैं 

----नासिख लखनवी

3) बड़े गौर से सुन रहा था जमाना
तुम्ही सो गये दास्ताँ कहते कहते

----साक़िब लखनवी 

4) कुछ तो होते हैं मुहब्बत में जुनूं के आसार 
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं 

----ज़हीर दहलवी

5) करीब है यारो रोज़े-महशर, छुपेगा कुश्तों का खून क्योंकर 
जो चुप रहेगी ज़ुबाने–खन्जर, लहू पुकारेगा आस्तीं का

रोज़े-महशर = प्रलय का दिन 

----(अमीर मीनाई)

6) कैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो 
खूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो 

(कैस = मजनू)

----- मियांदाद सय्याह (मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द)

7) हम तालिबे-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम 
बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा

---- नवाब मुहम्मद मुस्तफा खान शेफ़्ता

8) खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर 
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है

---- अमीर मीनाई

9) उम्र सारी तो कटी इश्के-बुतां में मोमिन
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे 

---- हकीम मोमिन खां मोमिन

10) हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम 
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता 

----- अकबर इलाहाबादी

11) लोग टूट जाते हैं एक घर के बनाने में, 
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में. 

----- बशीर बद्र

12 ) कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा, 
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा. 

----- अहमद नदीम क़ासमी

13) ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है.

---- इकबाल

14) चल साथ कि हसरतें दिल-ए-मरहूम से निकले 
आशिक का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले 

------ मो.अली फिदवी

15 ) नाज़ुक खयालियाँ मिरी तोड़ें उदू का दिल
मैं वो बला हूँ शीशे से पत्थर को तोड़ दूं 

(उदू = दुश्मन)

---- ज़ौक

16) ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 

--------------- जिगर मुरादाबादी

17 ) यहां लिबास की कीमत हैं आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम कर दे

---- बशीर बद्र.

18 ) बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था 
हर शाख पे उल्लू बैठें हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा

----- रियासत हुसैन रिजवी उर्फ 'शौक बहराइची'

19) हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले

----------- मिर्ज़ा ग़ालिब.

और...

20) कुछ ना कहने से भी छिन जाता हैं ऐजाजे सुखन
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती हैं..

------ मुजफ्फर वारसी.

इस लिस्ट में आप लोग भी इजाफा कर सकते हैं..

अंत में, शायरी के कद्रदानों के लिए एक सवाल.... क्या कोई बता सकता हैं कि ये शेर किस जनाब का लिखा है...???

सर पर चढ़कर बोल रहे हैं, पौधे जैसे लोग,
पेड़ बने खामोश खड़े हैं, कैसे-कैसे लोग.....

कमैंट्स:

कुछ इस तरह से मुझसे सौदा किया मेरे वक़्त ने..
तुजुर्बे देकर वो मुझ से मेरी नादानियां ले गया...

ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै 
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है ! 
शायद जिगर मोरदाबादी का शेर है।

आसमां अपनी बुलंदी पे जो इतराता है
भूल जाता है जमीं से ही नज़र आता है
                    ~~वसीम बरेलवी~~

वो मोत भी क्या सुहानी होगी
वो मोत भी क्या सुहानी होगी 

सुन बेवफा 

जो तेरी याद में आनी होगी ।।।।

तुझे पा लेने में वो बेताब कैफियत कहाँ..
जिंदगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट जाए...!!

ठान लिया था कि अब और शायरी नहीं लिखेंगे,
पर उनका पल्लू गिरा देखा और अल्फ़ाज़ बग़ावत कर बैठे..

परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता   -बशीर बद्र


१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...