Saturday, 13 November 2021

किसान विरोधी कृषि कानून 2020 क्या है ? और उसका विरोध कैसे करें?


कृषि विधेयक-2020, जो संसद के दोनों सदनों से पारित होकर राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर के बाद अब कानून बन गया है। यह कानून क्या है और उसका किसानों सहित आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा- इस पर आइये चर्चा करें। कृषि सम्बन्धी 3 कानून क्रमश: है- (1) कृषि उपज व्यापार व वाणिज्य कानून: (ii) कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून, (ii) आवश्यक वस्तु कानून (i) कृषि उपज व्यापार व वाणिज्य कानून: पहले कृषि उपज बेचने के लिए कृषि मण्डी (व क्रय केन्द्र) जाना पड़ता था। वहां पर सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीददारी की जाती थी। अब इस कानून में परिवर्तन द्वारा कृषि उत्पाद अब कहीं भी (मण्डी के बाहर भी) खरीदा बेचा जा सकता है। इस नये प्राविधान द्वारा सरकार का कहना है कि इस कानून द्वारा हमने किसानों को मण्डी से आजाद कर दिया है। किसान अब मण्डी से बाहर भी न्यूतम समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर अपनी उपज बेचकर लाभ कमा सकता है। बाहर विक्री से किसानों को मण्डी टैक्स से भी छुटकारा मिल जायेगा। इससे किसानों को अतिरिक्त लाभ होगा। दूसरी और आन्दोलनरत किसानों का कहना है कि सरकार (इस कानून द्वारा) मण्डी व न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) खत्म करके किसानों को बड़ी कम्पनियों का गुलाम बनाना चाहती है। इस पर सरकार का कहना है कि न तो मण्डी खत्म होगी और न ही MSP सरकार का कहना है कि ऐसा दुष्प्रचार करके विरोधी पार्टिया सरकार के खिलाफ किसानों को बरगला रही हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि मण्डी के बाहर विक्री पर जब किसानों को कोई टैक्स नहीं देना है तो किसान मण्डी के बाहर ही अपना उत्पाद बेचना चाहेगा, क्योंकि बड़ी कम्पनियां किसानों को अपने जाल में फंसाने के लिए कुछ दिनों तक अच्छे मूल्य दे सकती हैं। फिर तो सरकारी मण्डी का औचित्य ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि मण्डी में कारोबार धीरे-धीरे सिमटता जायेगा और एक दिन मण्डी ही खत्म अर्थात् बन्द हो जायेगी। हॉ, जब कोई निजी धन्नासेठ उस मण्डी को खरीद लेगा, तो मण्डी फिर से जगमगाने लगेगी। मतलब यह कि जब सरकारी मण्डी ही खतम हो जायेगी तो सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य भी औचित्य विहीन होकर खत्म हो जायेगा। किसान अपनी उपज की विक्री के लिए देशी विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों पर पूरी तरह निर्भर हो जायेंगे। इस प्रकार यह कानून कम्पनियों के लाभ के लिए किसानों की बर्बादी का दस्तावेज है।

(ii) कृषक कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून इसे कान्ट्रैक्ट फार्मिंग या हिन्दी में संविदा ठेका खेती कानून भी कहते हैं। इसके तहत कम्पनियां जिस चीज का उत्पादन करवाना चाहँगी, जिससे उसको लाभ हो न कि किसान या आम जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर उत्पादन) उसके लिए वह किसानों को खाद, बीज, रासायनिक दवायें इत्यादि देंगे। उसे सरकारी सब्सिडी दिलवायेंगी और उपज को अपने कर्मचारियों या बिचवलियों द्वारा खरीद लेंगी। या कम्पनियां लीज पर खेत लेकर खेती करवायेंगी। या साझा खेती करवायेंगी, अर्थात् खेत किसान का और कृषि संसावन बड़ी कम्पनियों का, दोनों साझे में उत्पादन करेंगे, करवायेंगे और लाभ-हानि में दोनों बराबर के हिस्सेदार होंगे L इस कानून द्वारा सरकार का कहना है कि किसानों को जब निजी धनाढ्य निवेशक मिल जायेंगे तो किसानों को लागत के सामानों उसकी मंहगाई, उसकी अभावग्रस्तता, उसके लिए कर्ज में फंसने की समस्या व चिंता से मुक्ति मिल जायेगी। क्योंकि पूंजीवादी कम्पनियां किसानों से उत्पादन करवाके करार के अनुसार सारा उत्पादन खरीद लेगी। इससे किसान, बिना चिंता के, केवल लाभ में ही रहेगा। उसका जीवन खुशहाल हो जायेगा। सरकार का कहना है कि किसानों की खुशहाली के लिए ही हमने किसानों को मण्डी के अवतियों (छोटे व्यापारी) से आजादी दे दी है, क्योंकि ये अव्रतियों किसानों को MSP न देकर उन्हें लूटते थे। हो, सरकार का यह कहना है तो सही है कि अड़तिये किसानों को लूटते थे अतः होना तो यह चाहिए था कि सरकार इस लूट से किसानों की रक्षा करती लेकिन हो रहा है उल्टा अड़तियों की छोटी लूट से मुक्ति का हवाला देकर सरकार ने बड़ी लूट करने वाले देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों (बड़े खिलाड़ियों) के मुँह में किसानों को ढकेल दिया है। मतलब यह कि छोटी पूँजी (अढ़तियों की जगह किसानों को बड़ी पूंजी का निवाला बनाया जा रहा है। उन्हें कम्पनियों का गुलाम बनाया जा रहा है।

(iii) आवश्यक वस्तु कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अनुसार अनाज, दलहन, आलू, प्याज, खाद्य तेलों इत्यादि को आवश्यक वस्तु घोषित करके सरकार उसका भण्डारण करती थी और अपने नियंत्रण में आवश्यकतानुसार उसको बाजार में देती थी और सस्ते गल्ले की दुकान से उसका वितरण करती थी। निजी लाभ हेतु कम्पनियों द्वारा उसकी खरीद विक्री व उसके अनियंत्रित भण्डारण पर प्रतिबन्ध था। इससे बाजार भाव नियंत्रित रहता था, लेकिन अब इस कानून में संसोधन द्वारा बड़ी निजी पूंजी को असीम भण्डारण की छूट दे दी गयी है। इससे अब एफ.सी.आई. जैसे सरकारी गोदामों का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा।

कुल मिलाकर यह कि इस कानून द्वारा पूंजीवादी कम्पनियां हर इंसान की भूख पर नियंत्रण करके उसे अपनी अंगुलियों पर नचायेंगी। इससे केवल किसान एवं ग्रामीण मजदूर ही नहीं, शहरी मजदूर व मध्यम वर्ग भी कम्पनियों के रहमो करम पर निर्भर होंगे। अतः यह अमानवीय कानून बडी पूंजी के निजी लाभ के लिए आम जनता को भूख की आग में झोंक देने वाला है। इसलिए इस भुखमरी कानून के खिलाफ सिर्फ किसानों को ही नहीं, बल्कि अन्य जनता को भी लड़ना होगा। बहरहाल, ये तीनों कानून एक दूसरे से सम्बन्धित और एक दूसरे पर निर्भर है। अतः सम्पूर्ण कृषि कानून के खिलाफ आवाज उठानी होगी। दूसरी बात यह कि इस कृषि कानून का विरोध करने के लिए समर्थन की मांग पर मजदूर व मध्यम वर्ग कह सकते हैं कि यह किसानों का मामला है। इससे हमें क्या लेना-देना। लेना-देना है मित्रों! क्योंकि कम्पनियों के खाद्यान्न भण्डारण अधिकार से मुखमरी का संकट पैदा होगा, जो सभी गरीबों को प्रभावित करेगा। अतः सभी को मिलकर इस कानून का विरोध करना होगा। उसी प्रकार निजीकरण का विरोध करने के लिए समर्थन की मांग पर किसान कह सकता है। यह मजदूरों का मामला है, शिक्षा व रोजगार, छात्रों-नौजवानों का मामला है इससे हमें क्या लेना-देना नहीं, किसान भाईयों कृपया ध्यान दें! कान्ट्रैक्स फार्मिंग भी कृषि का बड़ी कम्पनियों के हाथ में निजीकरण ही है, मंहगी होती शिक्षा और घटता रोजगार भी निजीकरण (के चलते) ही है। अतः किसानों को भी मजदूरों व छात्र युवाओं के साथ मिलकर निजीकरण का एवं श्रम कानून का विरोध करना होगा। अन्त में यह कि कृषि कानून का. एक तरह से कहा जाय तो. एक सबसे खतरनाक पहलू यह है कि किसानों एवं मालिक देशी-विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों के बीच कोई विवाद होने पर किसान न्यायालय नहीं जा सकता। विवादों पर केवल एस.डी.एम. का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। विपरीत निर्णय आने पर अन्तिम तौर पर डी. एम. के यहाँ अपील की जा सकती है।

प्रश्न है कि उपरोक्त सारी समस्याओं की आखिरी जननी कौन है? उत्तर है- 1991-95 में लागू की गई निजीकरण, उदारीकरण व विश्वीकरणवादी नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव इन सारी समस्याओं की जन्मदाता है। विदेशी पूंजी विज्ञान तकनीक व मशीनों पर 1947 से पहले से ही निर्भर यहां के उद्योग, सेवा व्यापार को छोड़कर यदि कृषि क्षेत्र को देखा जाय तो 1950-60 के दशक में विदेशी बीज, खाद, दवाओं पर निर्भर हरित क्रांति यहां लागू की गई। यदि ऐसा नहीं किया गया होता, कृषि में मुख्यतः विदेशी (व देशी) पूंजीपति हरित क्रांति के मार्फत नहीं घुसे होते तो फिर डंकल प्रस्ताव रूपी नई आर्थिक नीति कृषि क्षेत्र में नहीं आ पाती और न ही आज कान्ट्रैक्ट फार्मिंग का आधार बनता। अतः कृषि कानूनों के विरोध के लिए जब तक नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव का विरोध नहीं होगा, साथ ही उन नीतियों, प्रस्तावों के निर्माता, संचालक व निर्देशक देशी-विदेशी पूंजीपतियों व उनकी व्यवस्था का विरोध नहीं होगा, तब तक ये समस्यायें खत्म नहीं होंगी कृपया ध्यान दें, इन्हीं देशी-विदेशी पूंजीवादी कम्पनियों के लूटकारी हितों में ही ये सारे कानून, नीतियां, प्रस्ताव राजसत्ता द्वारा लागू की गई है। अतः सत्ता सरकार को भी पूंजीवादी कहते हुए उसका विरोध करना होगा। जहां तक राजनीतिक पार्टियों की बात है तो भाजपा का यह कहना है तो सही कि अपनी सरकार के जमाने में कांग्रेस खुद कृषि सुधार व श्रम सुधार विधेयक संसद के पटल पर लाई थी और आज उसका विरोध करके यह किसानों व श्रमिकों को बरगला कर
सत्ता सरकार में जाने के लिए केवल वोट की राजनीति कर रही है। ऐसा कहकर भाजपा खुद कबूल कर रही है आज जो कांग्रेस कर रही है, उसी तरह कांग्रेसी राज में इन विधेयकों का विरोध करके हम भी वोट की राजनीति कर रहे थे। अर्थात् हमारा (भाजपा) व कांग्रेस का कृषि कानून व श्रम कानून का विरोध मात्र एक नाटक व दिखावा है। प्रमाण, राज्यसभा में अल्पमत सरकार द्वारा इन विधेयकों का पास होना यही बताता है कि हंगामा, बहिर्गमन करके कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों ने नकली विरोध करके इसे पास होने में सहयोग दिया ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि सत्ताधारी पार्टी सहित विपक्षी पार्टियां भी जनविरोधी पूंजीवादी पार्टियां ही है। अतः किसान विरोधी कृषि कानून बनना ही था।

यहीं पर एक बात बताते चलें। आपको याद होगा कि अंग्रेजी काल में इसी संसद में जब मजदूर विरोधी औद्योगिक विवाद मिल (ट्रेड डिस्प्यूट बिल) पेश हो रहा था तो भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने सदन में बम फेंक कर उसका विरोध किया था। ये लोग जेल गये और सजा पाये। यह था साम्राज्यवाद पूंजीवाद विरोधी क्रांतिकारियों का मजदूर किसान समर्थक चरित्र। जबकि आज औद्योगिक बिल के साथ-साथ किसान विरोधी कृषि बिल भी संसद में पास हो गया लेकिन विरोध के नाम पर हुआ केवल हंगामा व बहिर्गमन पक्ष-विपक्ष का ऐसा चरित्र देखकर ही मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवादी जनतंत्र में चुनाव हर पांच साल में यह फैसला करने के लिए होता है कि कौन सी पार्टी सत्ता में जाकर पूंजीपतियों के पक्ष में मजदूरों किसानों का शोषण व दमन करेगी। अतः ध्यान रहे, मजदूरों-किसानों, नौजवानों को केवल MSP APMC (मण्डी कानून) या श्रम कानून के लिए खुद को केवल सुधारवादी आन्दोलन तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए क्योंकि देशी-विदेशी पूंजी के विराट संकेन्द्रण के प्रतिक्रियावादी युग में आज पूंजीवादी सुधारवाद सम्भव नहीं है। अतः किसानों, मजदूरों व बेरोजगारों को पूंजीवाद - साम्राज्यवाद व उसकी नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव के खिलाफ क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा, फूट डालो- राज करो वाली जाति-धर्म की पूंजीवादी राजनीति से खुद को अलग करके, उसका विरोध करते हुए वर्गीय एकता बनानी होगी। तभी श्रमिक वर्गों को शोषण, उत्पीड़न, दमन से मुक्ति मिलेगी और किसानों, मजदूरों की जिन्दगी खुशहाल हो पायेगी।

अन्तिम बात आपको याद होगा कि रूस के सुधावादी समाजवाद को 1990 में गिराकर पूंजीवाद की पूर्णतः पुनर्स्थापना करके साम्राज्यवादियों ने खासकर अमरीकी साम्राज्यवाद ने 1991-95 में नई आर्थिक नीति व डंकल प्रस्ताव को पूरी दुनिया पर थोप दिया। तभी से पहले से कहीं अधिक) मजदूरों, किसानों नौजवानों की समस्यायें बढ़ते-बढ़ते आज हालात बद से बदतर होते गये हैं। एक तरफ जैसे कृषि कानून, श्रम कानून, निजीकरण मंहगाई, बेकारी भी बढ़ती गई, तो दूसरी तरफ देशी-विदेशी पूंजीपतियों की पूंजियां बेतहाशा बढ़ती गई है। उपरोक्त बातों का मतलब यह है कि रूस के बचे-खुचे समाजवाद में भी (कह लीजिए तो) ऐसी ताकत थी, जिससे विश्वभर के पूंजीपतियों की बेतहाशा लूट-पाट पर अंकुश लग सकता था, नयी आर्थिक नीति व शंकल प्रस्ताव लागू नहीं किया जा सकता था। हालांकि इन्हीं सुधारवादियों संशोधनवादियों के कुकर्मों के कारण ही रूस में समाजवाद का पतन हुआ और फिर नई आर्थिक नीति व डकल प्रस्ताव साम्राज्यवादियों द्वारा भूमण्डल पर थोपा गया) बहरहाल, उपरोक्त तथ्य यह बताता है कि पूंजीवाद की और बढ़ते हुए बचे-खुचे समाजवाद से भी जब पूंजीवाद- साम्राज्यवाद की असीम लुटेरी प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है तो क्रांतिकारी समाजवाद तो पूंजीवाद को ही मिटाकर श्रमिकों को पूर्ण मुक्ति दिला सकता है। अतः मजदूरों, किसानो नौजवानों को कृषि कानून, श्रम कानून व शिक्षा रोजगार के लिए संघर्ष करते हुए खुद को समाजवादी चेतना से अर्थात् मार्क्सवाद, लेनिनवाद से शिक्षित प्रशिक्षित करना होगा वैज्ञानिक क्रांतिकारी समाजवाद को लक्ष्य बनाकर जब आप संघर्षों में कूदेंगे, तभी शोषण, उत्पीड़न, दमन से आपकी मुक्ति होगी। मार्क्सवाद लेनिनवाद ही एकमात्र रास्ता है, जिसे आप श्रमिकों को चुनना ही होगा।

(बलिया )    जनार्दन सिंह ।
 
जुलाई- नवम्बर 2020, मंथन, अंक 27 में प्रकाशित ।

No comments:

Post a Comment

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...