Sunday, 18 October 2020

Woman Liberation

Is kitchen gender related? Is it domain of a particular gender? Same question is for cooking also. (not talking about commercial kitchen or cooking, like in restaurants). 
Kitchen is a mini "prison" for women, especially in undeveloped capitalist countries, like in India, whether modular or modern.
It will be negated into community kitchen in Socialism and will be base for real freedom of women. Rearing of children, too, must be community task.

By KK Singh, ND 

#Women #Feminism

Marx on Nationalisation of Land, 1872


'I assert that the economical development of society, the increase and concentration of people, the very circumstances that compel the capitalist farmer to apply to agriculture collective and organised labour, and to have recourse to machinery and similar contrivances, will more and more render the nationalisation of land a "Social Necessity", against which no amount of talk about the rights of property can be of any avail. The imperative wants of society will and must be satisfied, changes dictated by social necessity will work their own way, and sooner or later adapt legislation to their interests.

What we require is a daily increasing production and its exigencies cannot be met by allowing a few individuals to regulate it according to their whims and private interests, or to ignorantly exhaust the powers of the soil. All modern methods, such as irrigation, drainage, steam ploughing, chemical treatment and so forth, ought to be applied to agriculture at large. But the scientific knowledge we possess, and the technical means of agriculture we command, such as machinery, etc., can never be successfully applied but by cultivating the land on a large scale.

If cultivation on a large scale proves (even under its present capitalist form, that degrades the cultivator himself to a mere beast of burden) so superior, from an economical point of view, to small and piecemeal husbandry, would it not give an increased impulse to production if applied on national dimensions?

The ever-growing wants of the people on the one side, the ever-increasing price of agricultural produce on the other, afford the irrefutable evidence that the nationalisation of land has become a social necessity.

Such a diminution of agricultural produce as springs from individual abuse, will, of course, become impossible whenever cultivation is carried on under the control and for the benefit of the nation. ...

In France, it is true, the soil is accessible to all who can buy it, but this very facility has brought about a division into small plots cultivated by men with small means and mainly relying upon the land by exertions of themselves and their families. This form of landed property and the piecemeal cultivation it necessitates, while excluding all appliances of modern agricultural improvements, converts the tiller himself into the most decided enemy to social progress and, above all, the nationalisation of land. Enchained to the soil upon which he has to spend all his vital energies in order to get a relatively small return, having to give away the greater part of his produce to the state, in the form of taxes, to the law tribe in the form of judiciary costs, and to the usurer in the form of interest, utterly ignorant of the social movements outside his petty field of employment; still he clings with fanatic fondness to his bit of land and his merely nominal proprietorship in the same. In this way the French peasant has been thrown into a most fatal antagonism to the industrial working class. ...

To nationalise the land, in order to let it out in small plots to individuals or working men's societies, would, under a middle-class government, only engender a reckless competition among themselves and thus result in a progressive increase of "Rent" which, in its turn, would afford new facilities to the appropriators of feeding upon the producers.

The nationalisation of land will work a complete change in the relations between labour and capital, and finally, do away with the capitalist form of production, whether industrial or rural. Then class distinctions and privileges will disappear together with the economical basis upon which they rest. To live on other people's labour will become a thing of the past. There will be no longer any government or state power, distinct from society itself! Agriculture, mining, manufacture, in one word, all branches of production, will gradually be organised in the most adequate manner. National centralisation of the means of production will become the national basis of a society composed of associations of free and equal producers, carrying on the social business on a common and rational plan. Such is the humanitarian goal to which the great economic movement of the 19th century is tending.'

Friday, 16 October 2020

' मैं जानना चाहता हूं '- कविता



 ' मैं जानना चाहता हूं '

ज्यों ज्यों उसके तराजू में तेजाब चढ़ता गया
  मेरा जिस्म खाली होता गया
मेरी उम्मीदों  का बर्तन जितना खाली होता 
 उतना ही सुरीला उसके मुनाफे का संगीत बजता 
मेरे घर की सीलन से उसके कारखाने की बिजली चलती  
जितनी अधिक  सीलन उतनी ही तेज उसकी रोशनी होती 
 मैं जानना चाहता हूं
 कि बुढ़ापा बेबसी के कंधे पर एक रिक्शा उठाए  
 अपनी  उम्र का खोया हुआ कागज खोजने की जगह 
 रोटी खोजता है कि  पाप के मुंह पर 
अपने पैरों से पुण्य का पैडल मारता है
 किस्त का  ट्रैक्टर जब  बीज बोता है
 तब उसकी शाखों में फल की जगह ब्याज क्यों लगता है
क्या दुनिया की सारी बकरियां इसलिए बच्चा जनती है 
ताकि नर्म गोश्त के मसाले से राजा की थाली  गमकती रहे
जब एक भांड़ गीत गाता है 
तब एक विद्रोही के मुंह में थूक क्यों भर उठता  है
ढाबे का वह दस साल का बच्चा
तुम्हारी ठंडी पड़ी चाय की केतली में 
अपने कच्चे बचपन की  हरारत ही नहीं उड़ेलता 
तुम्हारे पाप का घड़ा भी थोड़ा उलीच देता है
 तुमने कभी सिर्फ दस रूपये की दवा के बिना 
 अपनी बेटी खो चुकी एक मां की आंखों में 
सफेद तारों को मरते हुए देखा  है 
जिसमें पूरा आसमान ही अपराधों का कफन पहन कर आंसुओं के कटघरे में सर झुकाए खड़ा रहता है
वह युवक जो दुनिया को कैनवास की तरह 
अपनी मुठ्ठियों में बंद कर लेना चाहता है 
वह  जिंदा रहने के लिए
 अपनी सांस बेंचकर  नौकरी खोजता  है 
लेकिन वह यह पता नहीं लगा पाता कि
बेरोजगारी खुदा की  वह नेमत है
 जिसकी कुदाल से पसीने की कब्र खोदकर 
मुनाफे की नींव में पहली ईंट रखी जाती है
   वह औरत जिसकी उम्मीदों की रसोई 
कुछ दानों का इंतजार करते करते थक कर सो गई  
  उसे क्यों लगता है कि 
  उसकी कोख आज पहली बार खाली हो कर बांझ हो गई 
 वह किसान जो अपने घर का बचा हुआ अंतिम बीज भी मिट्टी में खो देने की हिम्मत रखता है 
वह अपने अंतिम बीज को बचाने के लिए 
 क्या  अन्याय के हर नस्ल की मिट्टी नहीं खोद सकता 
जिसकी छाती पर दुख चढ़कर बैठा है
 वह यह क्यों नहीं तौल पाता कि 
उसके दुख का ताला उसके जैसा है 
लेकिन वह ताले की चाबी दुश्मनों के शिविर में ढूंढ़ता है
 वह अस्सी साल की छीझ गई बुढ़िया 
 आज भी सर पर  अपनी भूख का वजन रखकर 
गली-गली अपनी बची हुई सांसो की उम्र बेंचती है 
 लेकिन  यहां गद्दारी कमंडल में मालिक की खुद्दारी रखकर
  जवान होते  परिंदों का नकली ख्वाब बेंचती है

@जुल्मीरामसिंह यादव
        16.10.2020

खेत मजदूर यूनियन कायम करने की जरुरत... लेनिन


"जमीन सारी जनता को।" यह ठीक है। लेकिन जनता वर्गों में विभाजित है। इस सच्चाई को हर मजदूर जानता है, देखता है, महसूस करता है, झेलता है, इसे बुर्जुआ वर्ग जानबूझकर छुपाने की कोशिश करता है और टुंटपुंजिया वर्ग हमेशा भूल जाता है।
तन्हा गरीब की कोई मदद नहीं करता। गांव के उजरती मजदूर, खेत मजदूर, दिहाड़ीदार, सबसे गरीब किसान और अर्द्ध-सर्वहारा अगर खुद अपनी मदद नहीं करते, तो उनकी मदद कोई "राज्य" नहीं करेगा। इसके लिए पहला कदम होना चाहिए देहाती सर्वहारा का स्वतंत्र वर्ग संगठन बनाना। 
(रूस में खेत मजदूर यूनियन कायम करने की जरूरत- लेनिन)

'हर हालात में और जनवादी भू व्यवस्था सुधार की हर परिस्थिति में देहाती सर्वहारा के स्वतंत्र संगठन के लिए अधिक रूप से कोशिश करना, उसे समझाना कि उसके और किसान बुर्जुआ वर्ग के हितों में अनम्य विरोध है, उसे चेतावनी देना कि छोटी खेती बाड़ी की व्यवस्था में उसकी आस्था भ्रममूल्क है क्योंकि वह माल उत्पादन के चलते जन- समूहों की गरीबी कभी दूर नहीं कर सकती और अंततः उसे सारी गरीबी और समस्त शोषण के उन्मूलन के एकमात्र रास्ते के रूप में पूर्ण समाजवादी क्रांति की आवश्यकता बताना पार्टी अपना कार्यक्रम निर्धारित करती है।'
(रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के 1906 कांग्रेस में मंज़ूर कार्यक्रम से )

छोटे किसान- एंगेल्स

फ्रेडरिक  एंगेल्स..
हम छोटे किसानों के आम जन समुदाय को, उनकी संपूर्ण आर्थिक स्थिति, की खास ढंग की शिक्षा दीक्षा और उनके अलग थलग जीवन विधि से उत्पन्न पूर्वाग्रह को देखते हुए, जिनको पूंजीवादी अखबारों और बड़े जमींदार (आज के धनी किसान) यत्नपूर्वक जीवित रखते और पुष्ट करते हैं, अभी झटपट अपने साथ ला सकते हैं, जबकि उनसे ऐसे वादे करें जिनके बारे में हम खुद जानते हैं कि हम उनका पालन नहीं कर सकेंगे। यानी, हमें उनसे यह वादा करें कि उन्हें आक्रांत करने वाली सभी आर्थिक शक्तियों से उनकी संपत्ति की हर हालत में रक्षा की जाएगी, बल्कि उन्हें उन भारों से भी मुक्त किया जाएगा जिनसे वह पहले ही दबे हुए हैं: काश्तकार को स्वतंत्र भूमिधर किसान बना दिया जाएगा और बंधक के बोझ से दबकर दम तोड़ते हुए खेत के मालिकों के कर्जे भरे जाएंगे। यदि हम ऐसा भी कर सकें, तो हम फिर उस बिंदु पर पहुंच जाएंगे, जहां से वर्तमान स्थिति अनिवार्यता: फिर नए सिरे से उत्पन्न होगी। हम किसानों को मुक्ति नहीं, सिर्फ मोहलत दिलाएंगे।
लेकिन हमारा हित इस बात में नहीं है कि किसानों को रातों-रात अपनी और कर लें, ताकि अगले दिन ही हमारे अपने वादे पूरे ना हो सकने के कारण वह हाथ से निकल जायें। जिस तरह सदा के लिए मालिक बनाने का स्वपन दिखाने वाला छोटा दस्तकार पार्टी सदस्य के रूप में हमारे लिए बेकार है, उसी तरह वह किसान भी बेकार है, जो आशा करता है कि हम छोटी जोत रूपी उसकी संपत्ति को स्थायित्व प्रदान करेंगे। 

एंगेल्स - "फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल"

  

एंगेल्स लिखते हैं-

"अतः ऐसा वादे करने से, जैसे कि यह कि हम छोटी जोत को स्थायी रूप से बरकरार रखना चाहते हैं, हम पार्टी का और छोटे किसानों का और बड़ा अहित नहीं कर सकते। ऐसी करने का मतलब सीधे-सीधे किसानों की मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर देना। और पार्टी को हुल्लड़बाजी यहूदी विरोधियों के निम्न स्तर पर ले आना होगा। इसके विपरीत, हमारी पार्टी का यह कर्तव्य है कि किसानों को बारम्बार स्पष्टता के साथ जताये कि पूंजीवाद का बोलबाला रहते हुए उनकी स्थिति पूर्णतया निराशापूर्ण है, कि उनकी छोटी जोतों को इस रूप में बरकरार रखना एकदम असंभव है, कि बड़े पैमाने का पूंजीवादी उत्पादन उनके छोटे उत्पादन की अशक्त, जीर्ण-शीर्ण प्रणाली को उसी तरह कुचल देगा, जिस तरह रेलगाड़ी ठेलागाड़ी को कुचल देती है। ऐसा करके  हम आर्थिक विकास की अनिवार्य प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेंगे। और यह विकास एक ना एक दिन छोटे किसानों के मन में हमारी बात को बैठाये बिना नहीं रह सकता।

... मझोला किसान जहां छोटी जोत वाले किसानों के बीच रहता है, वहां उसके हित और विचार उनके हित और विचारों से बहुत अधिक दिन नहीं होते। वह अपने तजुर्बे से जानता है कि उसके जैसे कितने ही छोटे किसानों की हालत में पहुंचे जा चुके हैं। जहां मझोले और बड़े किसानों का प्राधान्य होता है और कृषि के संचालन के लिए आम तौर पर खेतिहर मजदूरों की आवश्यकता होती है, वहां बात बिल्कुल दूसरी है, कहने की जरूरत नहीं है कि मजदूरों की पार्टी को प्रथमत: उजरती मजदूरों की ओर से, यानी खेत मजदूरों और दिहाड़ी मजदूरों की ओर से लड़ना है। किसानों से कोई वादा करना निर्विवाद से निषिद्ध है, जिसमें मजदूरों की उजरती गुलामी को जारी रखना सम्मिलित हो। परंतु जब तक बड़े और मझोले किसानों का अस्तित्व है, वे उजरती मजदूरों के बिना काम नहीं चला सकते। इसलिए छोटी जोत वालों किसानों को हमारा यह आश्वासन देना कि वह इस रूप में सदा बने रह सकते हैं जहां मूर्खता की पराकाष्ठा होगी, वहां बड़े और मझोले किसानों को यह आश्वासन देना गद्दारी की सीमा तक पहुंच जाना होगा"

~ फ्रांस और जर्मनी में किसानों का सवाल, फ्रेडरिक एंगेल्स

छोटी किसानी

लेनिन कहते हैं:

"छोटी किसानी खुद को पूँजी के दासत्व से तभी आज़ाद कर सकती है जब वह खुद को मज़दूर वर्ग के आंदोलनों के साथ एकाकार कर ले, जब वह समाजवादी व्यवस्था के लिए मज़दूरों के संघर्ष में उनका साथ दे, ताकि भूमि और उसके साथ साथ अन्य उत्पादन के साधनों (फैक्ट्री, कार्य, मशीन इत्यादि) का सामाजिक संपत्ति में रूपांतरण हो सके। छोटे पैमाने की खेती और छोटी जोतों को पूँजीवाद के हमलों से बचाकर किसान समुदाय को बचाने की तमाम कोशिशें सामाजिक विकास की गति को बेवजह धीमा करेंगी; इसका मतलब होगा पूँजीवाद के भीतर समृद्धि का भ्रम देते हुए किसानों के साथ छल करना, इसका मतलब होगा मेहनतकश वर्गों में फूट डालते हुए बहुसंख्या के हितों की कीमत पर अल्पसंख्या के लिए विशेषाधिकार की स्थिति पैदा करना।"

~ लेनिन (मज़दूरों की पार्टी और किसान)

Peasant question



We should keep in mind the following:
It is the duty of our Party to explain to the peasants again and again the absolute hopelessness of their position so long as the domination of capitalism continues, and to show them the absolute impossibility of maintaining their small plots of land as such and the absolute assurance that capitalist large-scale production will supplant their powerless, antiquated small industry just as the railway supplants the wheel-barrow. ~ Friedrich Engels, "The Peasant Question in France and Germany", Neue Zeit, 1894  

However, in the abscence of working class party and its movement; what should peasnt do? Are they bound to be the ally of bourgeoies?   What demand we may support for them? This is the vital question.

Prussian’ path

In India the foundation for the 'Prussian' path – the gentry's manorial economy – has been historically absent since there is no allotted peasant land that could have taken the form of 'wages' (Lenin, Collected Works, vol. XII, 3rd Edition, p. 226).

Friday, 9 October 2020

-पं० राम प्रसाद ‘बिस्मिल’

(प्रस्तुत है शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का यह मशहूर क्रांतिकारी गीत जिसे न तो पूंजीवादी मीडिया के दल्ले ठीक से कह पाते हैं और ना ही उनके मुंह से यह अच्छा लगता है )

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ! हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?

एक से करता नहीं क्यों दूसरा कुछ बातचीत, देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है।
रहबरे-राहे-मुहब्बत! रह न जाना राह में, लज्जते-सेहरा-नवर्दी दूरि-ए-मंजिल में है।

अब न अगले वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़, एक मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है ।
ए शहीद-ए-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफ़िल में है।

खींच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद, आशिकों का आज जमघट कूच-ए-कातिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैयार हैं सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हाथ जिनमें हो जुनूँ , कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,
और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है , सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

हम तो निकले ही थे घर से बाँधकर सर पे कफ़न, जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ मौत की महफ़िल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

यूँ खड़ा मकतल में कातिल कह रहा है बार-बार, "क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?"
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब, होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है! सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

जिस्म वो क्या जिस्म है जिसमें न हो खूने-जुनूँ, क्या वो तूफाँ से लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है ??

                                                                                         

Wednesday, 7 October 2020

प्यारी मनीषा

प्यारी मनीषा, 
मैं तुमसे कभी नहीं मिली,
ना हीं कभी हमने एक दूसरे के सुख - दुःख को सुना,
भूगोल के टेढ़े - मेढ़े  उभारों ने भले ही, हमें एक दूसरे से काफ़ी दूर रखा हो,
पर जिंदगी के अनुभवों ने हमें, कई बार उन नुकड़ों पर मिलाया है,
जहां हम अकेले में, सब से छिप कर ,आंसुओं को पिया करते हैं।

और जब उस दिन तुम, 
 हस्पताल में दर्द से कराह रही थी,
सच पूछो, मैं भी मर रही थी तुम्हारे साथ तिल - तिल कर।
तुम्हारी हर चिख़, 
मेरी सांसों को अपने नाखूनों से कुरेद रही थी।

मैं जानती हूं,
चूल्हे से उठते धुएं को गुथ कर
मेरी तरह तुमने भी, ढेर सारे सपने देख रखें होंगें,
जिन्हें इन ब्राह्मणवादी भेड़िये नोचते आए हैं,
और उनके दातों में फसे गोश्त का चटकरा,
संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार  लेते आए हैं।
समाज जलाता रहा है तुम्हें बार - बार,
तुम्हारी जीब से रिश्ते खून में नहाता रहा है बार - बार।

क्या बदला तुम्हारे और मेरे लिए मनीषा?
वो कुआं आज भी ठाकुर का है, जिसमें, जाने कितनी मनीषा को इस समाज ने डुबो दिया।
मैं ठुकराती हूं, ठाकुर के  इस कुएं को,
जिसने  सींचा है  जातिवाद के बरगद को अब तक।
जिसकी मोटी लताओं में झूलता रहा है ब्राह्मणवाद,
जिनकी जड़ों से लिपटा रहा है ठाकुरों का लोकतंत्र।

अब न्यूज चैनल पर बैठा कोई ठाकुर,
अपने अंदर के ब्राह्मणवाद को थपकियां दे थोड़ी देर सुला देगा,
ढकोसलों कि परत दर परत चादर ओढ़ 
तब तक स्वांग रचेगा जब तक कि तुम भुला ना दी जाओ।

पर मैं तुम्हें याद करती रहूंगी मनीषा,
इस पितृ सत्ता और ब्राह्मणवाद को राख़ कर,
अपने अंतिम सांस तक भर्ती रहूंगी उस ठाकुर के कुएं को।

 *तीजू भगत*

Tuesday, 6 October 2020

नई शिक्षा नीति -शिक्षकों का शोषण, कॉर्पोरेट निवेशकों का पोषण



1. अधिकांश मिहनतकस गरीब लोग चाहते है कि उनके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़े लेकिन उन जैसों के लिए प्राइवेट स्कूल में बच्चों को  पढा पाना बहुत मुश्किल है। बड़े प्राइवेट स्कूलों में बच्चे पढ़ाने से तो आधे से ज्यादा वेतन खत्म हो जाएगा और सरकारी स्कूल में  पढाई अच्छी नही है।

2. सरकार शिक्षा का निजीकरण कर रही है, इसका सीधा मतलब है- शिक्षा सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगो के लिये मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करेगा जब कि विशाल गरीब मिहनतकस जनता अपने बच्चों को आर्थिक कारणो से इन निजी स्कूलों में भेजने में असमर्थ रहेगी। 

3. नई शिक्षा नीति में सरकारी स्कूलों की शिक्षा में सुधार या उनकी संख्या में वृद्धि को ले कर कोई चर्चा नही है जबकि इस देश बहुसंख्यक मजदूर जनता के बच्चे अपनी शिक्षा इन्ही सरकारी स्कूलों से ले पाते है।

4. 'नई शिक्षा नीति' का दस्तावेज खुद स्वीकार करता है कि देश में अब भी 25% यानी 30 करोड़ से ऊपर लोग अनपढ़ हैं फिर भी इसमें शिक्षा की सार्वभौमिकता का पहलू छोड़ दिया गया है। यानी शिक्षा की पहुंच को आखिरी आदमी तक ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं।

5. सरकार का सारा ध्यान इस बात पर है कि शिक्षा के क्षेत्र को एक मुनाफे का सेक्टर (Profitable Sector) बनाने के लिये सरकारी खर्च  बढाना (वर्तमान 3% से 6% करने का प्रस्ताव) ताकि शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ते  कॉर्पोरेट और निजी निवेश का मुनाफा सुनिश्चित किया जा सके।


6. नई शिक्षा नीति में शिक्षा के क्षेत्र में निवेश कर रहे शेयर होल्डरों, कॉर्पोरेट निवेशकों के हितों को प्राथमिकता दी गयी है, "सबको शिक्षा"  का राष्टीय उद्देश्य अब बहुत पीछे छूट गया है, शिक्षा अब बाजार में बिकने वाला एक माल बन गया है। शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे अधिकांश शिक्षकों का बेतहासा शोषण और कॉर्पोरेट निवेशकों के मुनाफे का पोषण- यह है नई शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य।

7. कोरोनाकाल मे डिजिटल तकनीक के प्रयोग की बाध्यता के चलते बहुत सारे प्राइवेट स्कूलों के शिक्षक सड़क पे आ चुके हैं। नई शिक्षा नीति डिजिटल तकनीक के व्यापक प्रयोग की बात करता है। यह शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त बेरोजगारी को और बढ़ाएगी। इसके अलावे, बहुत से बच्चे डिजिटल डिवाइस और इंटरनेट अफ़्फोर्ड नही करने के चलते इस तरह की शिक्षा से वंचित हो जाने को विवश हो जाते है।

Monday, 5 October 2020

कानून का राज्य



सुना ,यहाँ कानून का राज्य है
और कानून के हाथ बहुत लंबे हैं 
कहते हैं कि कानून अपने लंबे हाथों से 
लंबा डंडे वाला हथौड़ा पकड़े होता है 
डंडे से ही कानून की व्याख्या होती है
और कानून का राज्य कानून की व्याख्या से चलता है ।

कानून की व्याख्या में सबूतों पर बहस होती है
बहस पैसे लेकर वकील करते हैं 
और सबूत जाँच से मिलते हैं...
जाँच पुलिस करती है
जो कई सबूत जुटा सकती है , मिटा सकती है 
उठा सकती है ,बना सकती है , बिगाड़ सकती है 
इस प्रकार...जाँच कई तरह से चलाई जाती है
कभी जाँच के लिए जांच-कमीशन भी बिठाया जाता है ।

इस जाँच के चलने और कमीशनों के बैठने का जो द्वन्द्व है , 
उसे समझना आसान नहीं है
इसके चलने और बैठने में जो मध्यमान रफ़्तार
हासिल की जाती है वह वर्षों , दसकों तक 
और कभी- कभी तो सदियों तक या अंतहीन 
काल-यात्रा करती है और सबूत ढूंढती है 
सबूत जो अक्सरहाँ साफ सामने हुआ करते हैं
उन्हें ढूंढते हुए कानून बहुत सी कानूनी प्रक्रियाओं , 
जिसे आम भाषा में पेचीदगियां भी कहते हैं ,
से गुज़रता है.....और इस बीच 
सबूत से उम्मीद की जाती है कि वह साबुत रहे ।
दरअसल भाई ,कानून तो कानून है और
कानून अपनी रफ़्तार से ही चला करता है
ठीक इसीलिए यह उक्ति प्रसिद्ध है -
कानून के घर देर है ,  अंधेर नहीं !

अब देर की बात क्या की जाए
और अंधेर ! .... की तो पूछिए मत
पर इससे यह तो पता चलता ही है कि
कानून के राज्य में कानून का एक घर होता है
जिसे प्रायः ज्ञानी लोग न्याय का मंदिर कहा करते हैं ।
इस मंदिर में न्याय का मुख्य पुजारी
काला चोंगा पहन कर विराजता है
और न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बांध कर ।
देवी के हाथ में एक तराज़ू होता है और सामने एक कटघरा 
जिससे तमाम मुज़रिम और गवाह गुज़रते हैं
सुनते है कि कानून की नज़र में सब बराबर हैं
फिर क्यों कहा जाता है कि कानून अँधा होता है ?
अगर कानून अँधा होता है
तो फिर कानून की नज़र का क्या तुक है ?
फिर उसकी नज़र पर क्यों ऊपर से पट्टी बाँधी गई होती है !
इससे तो लगता है - कानून को दरअसल सबकुछ दिखता है 
और किसी ख़ास मकसद से उसे अँधा बनाया गया है
या हो सकता है वह अंधा बनने का नाटक करता हो...
कि उसकी नज़र में सब बराबर हैं ।
जाने दीजिए , यही तो कानून है , यही कानून की नज़र है
और इसी नज़रिए से कानून का राज्य चलता है ।

इस कानून के राज्य में
बाज़ लोग कानून को कमीज़ की ज़ेब में
या फिर बटुए में , या मुट्ठी में भी लेकर चलते हैं
वे कानून से खेलते हैं जैसे कि लूडो का खेल
और कानून उनसे खेलता है
ये उनका आपसी मामला है ।

हम साधारण लोग कानून को हाथ में भी नहीं ले सकते
खेलने की बात तो दूर ...
कानून को हाथ में लेने वाले लोग अलग किस्म के होते हैं
उन्हें ही कानूनी अधिकार होता है कि 
वे कानून हाथ में लेकर खेलें ।
वे हाथ में लेकर उसे तोड़ सकते हैं , मरोड़ सकते हैं
मरोड़ कर बदल भी सकते हैं
हमारे लिए कानून से खेलने की मनाही है
और उसे हाथ में लेने की तो और भी सख्त मनाही है
कानून हाथ में रखने के लिए 
सख़्त डंडे की ज़रूरत होती है ।
यह दीगर बात है कि प्रायः हम जैसे लोगों को
पकड़ कर कानूनी धारा लगा दी जाती है
और कहा जाता है कि हमने कानून हाथ में लिया है
और हद तो तब हो जाती है जब वो कहते हैं कि
हमने कानून हाथ में लेकर तोड़ा है !

अब देखिए न कानून में हमें जीने का अधिकार है
और जब हम कहते हैं कि हम भूख से मर रहे हैं
या कि मेरी बेटी को बलात्कार कर मार दिया गया
या कि मुझे गंदे नाले और कचरे तक ठेल कर मारा जा रहा है
तो कानून हाथ में रखने वाले हमें ही रपेट देते हैं-
'साले, कानून बकता है !'
'बेटा , ठेल दूंगा  ऐसा भीतर 
कि सारा कानून बाहर निकल जाएगा 
और तू बाहर नहीं निकल पाएगा '
या कि - 'दिखाऊँ कानून ?'

कानून को देखने की हिम्मत सब में नहीं होती 
क्योंकि कानून दिखाने के बड़े अजीबो-गरीब
तरीके होते हैं जिनमे कानूनन जान भी जा सकती है
कानून ह्यूमन-राईट वालों को चिल्लाने का अधिकार देता है 
और कानून वालों को , हूरकर ठेलते हुए कानून दिखाने का !
खैर ,इसी तरह सारी दुनिया में कानून का राज्य 
चलाया जाता रहा है , चल रहा है ....
हमें कानून के राज्य को अच्छी तरह समझना चाहिए ।

                              ---- आदित्य कमल

DECISION : बुर्जुवा कानून के साये में अब वेश्यावृति!


 क्योकि पूंजीवादी सरकार अपने नागरिकों को सम्मानित रोजगार मुहैया कराने में  अक्षम है, न्यायपालिका ने आजीविका के लिए महिलाओ को वेश्यावृति  का  पेशा चुनने का रास्ता साफ कर दिया है। हमारी संस्कृति के धार्मिक पन्नो में जिन महिलाओं को देवी कह कर महिमा मंडित किया गया है, उन सभी के लिये पूंजीवाद में सम्मानजनक आजीविका  मुहैया कराना सम्भव नही है।

वेश्यावृत्ति से जुड़े एक मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा है कि इम्मोरल ट्रैफिक प्रिवेंशन एक्ट के तहत वेश्यावृत्ति जुर्म नहीं है। जस्टिस पृथ्वीराज के चव्हाण ने कहा कि किसी औरत को अपनी मर्जी का पेशा चुनने का अधिकार है। ऐसे में किसी भी महिला को उसकी सहमति के बिना लंबे वक्त तक सुधार गृह में नहीं रखा जा सकता है।

फैसला वेश्यावृत्ति के आरोप में पकड़ी गईं तीन युवतियों की याचिका पर सुनाया गया है। इन युवतियों को सुधार गृह में रखा गया था। जस्टिस चव्हाण ने कहा कि कानून का मकसद देह व्यापार को खत्म करना है, न कि महिलाओं को दंडित करना।

Sunday, 4 October 2020

अदम गोंडवी

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये

मत्स्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.


Friday, 2 October 2020

Bhagat Singh

"Apparently I have acted like a terrorist. But I am not a terrorist. I am a revolutionary who has got such definite ideas of a lengthy programme… Here I warn my readers to be careful while reading my words. They should not try to read between the lines. Let me announce with all the strength at my command that I am not a terrorist and I never was, except perhaps in the beginning of my revolutionary career. And I am convinced that we cannot gain anything through those methods."

And he  (Bharat Singh) went further:

"Terrorism is a confession that the Revolutionary mentality has not penetrated down to the masses. It is thus a confession of our failure… Its history is a history of failures in every land—in France, in Russia, in the Balkan countries, in Germany, in Spain, everywhere. It bears the germs of defeat within itself… It is aloof from the life of the masses and once installed on the throne runs the risk of being petrified into tyranny."


https://anarchyindia.wordpress.com/bhagat-singh/bhagat-singh-and-the-ghadar-movement/

Thursday, 1 October 2020

पूंजीवादी "राम राज्य" में रेप रोकना नामुमकिन



आज पूंजीवादी भारत मे  हमारे शहर एवम देहात दबंग धनपशुओं और गरीब मिहनतकस जनता के बीच विभाजित है। आपराधिक दमन की अधिकांश घटनाये मिहनतकस जनता के खिलाफ ही होती है जो शहर एवम देहात के दबंग धनपशुओं द्वारा किये जाते है। 

 एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 में महिलाओं के खिलाफ 3,78,236 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे जिनमें 33,356 रेप के मामले थे। उसी रिपोर्ट के अनुसार 2018 भारत मे प्रतिदिन 87 बलात्कार की घटनाये दर्ज कराई गयी थी। 

इन बलात्कारियो के तार फासीवादी भाजपा से कितने जुड़े है, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भाजपा के अधिकांश एमपी और विधायकों के नाम औरतो के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है।
आज बीजेपी के 116 एमपी यानी कुल एमपी के 39% के खिलाफ आपराधिक मामले है। इसलिये इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिये कि भाजपा और राज्यमशीनरी हमेशा इस तरह के आपराधिक मामलों में अपराधियों को बचाते हुए नजर आते है। या फिर लोगो के बढ़ते गुस्से एवं विरोध को देखते हुए इक्के दुक्के केस में, जैसे हैदराबाद बलात्कार केस, "बलात्कारी"  का पुलिस द्वारा सीधा एनकाउंटर कर दिया जाता है। इस तरह ताबर-तोड़ न्याय दिलाने का मध्ययुगीन नुख्शे में पुलिस और प्रशासन  को हीरो बना दिया जाता है, कानून और पुलिस  पर लोगो का भरोसा थोड़े समय के लिये जीत लिया जाता है। लेकिन बलात्कार की घटनाये रोज रोज यथावत होती रहती है।

     अक्सर मीडिया  और हम विरोध करने वाले सिर्फ उसी घटना तक अपने को सीमित रखते है जो अचानक एक खबर बन जाता है। 

इस पूंजीवादी सत्ता के रहते हुए, शहर और देहात के  पूंजीवादी दबंगो और उसकी पार्टी को अपराध करने से रोक पाने की बात कोरी कल्पना है। 

पूंजीवादी "राम-राज्य" में नही, शहरी एवम देहाती पूंजीवादी दबंगो से मुक्त मजदूर राज्य में ही बलात्कार की घटनाओं से पूर्ण मुक्ति पायी जा सकती है।

पूंजीवादी "राम राज्य" में रेप रोकना नामुमकिन



आज पूंजीवादी भारत मे  हमारे शहर एवम देहात दबंग धनपशुओं और गरीब मिहनतकस जनता के बीच विभाजित है। आपराधिक दमन की अधिकांश घटनाये मिहनतकस जनता के खिलाफ ही होती है जो शहर एवम देहात के दबंग धनपशुओं द्वारा किये जाते है। 

 एक रिपोर्ट के अनुसार 2018 में महिलाओं के खिलाफ 3,78,236 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे जिनमें 33,356 रेप के मामले थे। उसी रिपोर्ट के अनुसार 2018 भारत मे प्रतिदिन 87 बलात्कार की घटनाये दर्ज कराई गयी थी। 

इन बलात्कारियो के तार फासीवादी भाजपा से कितने जुड़े है, यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि भाजपा के अधिकांश एमपी और विधायकों के नाम औरतो के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज है।
आज बीजेपी के 116 एमपी यानी कुल एमपी के 39% के खिलाफ आपराधिक मामले है। इसलिये इसमें कोई आश्चर्य नही होना चाहिये कि भाजपा और राज्यमशीनरी हमेशा इस तरह के आपराधिक मामलों में अपराधियों को बचाते हुए नजर आते है। या फिर लोगो के बढ़ते गुस्से एवं विरोध को देखते हुए इक्के दुक्के केस में, जैसे हैदराबाद बलात्कार केस, बलात्कारी  का पुलिस द्वारा सीधा एनकाउंटर। इस तरह पुलिस को हीरो बना दिया जाता है, कानून और पुलिस  पर लोगो का भरोसा थोड़े समय के लिये जीत लिया जाता है। लेकिन बलात्कार की घटनाये रोज रोज यथावत होती रहती है। लेकिन मीडिया  और हम विरोध करने वाले सिर्फ उसी घटना तक अपने को सीमित रखते है जो अचानक एक खबर बन जाता है। 
इस पूंजीवादी सत्ता के रहते हुए, शहर और देहात के  पूंजीवादी दबंगो और उसकी पार्टी को अपराध करने से रोक पाने की बात कोरी कल्पना है। 

पूंजीवादी "राम-राज्य" में नही, शहरी एवम देहाती पूंजीवादी दबंगो से मुक्त मजदूर राज्य में ही बलात्कार की घटनाओं से पूर्ण मुक्ति पायी जा सकती है।

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...