प्यारी मनीषा,
मैं तुमसे कभी नहीं मिली,
ना हीं कभी हमने एक दूसरे के सुख - दुःख को सुना,
भूगोल के टेढ़े - मेढ़े उभारों ने भले ही, हमें एक दूसरे से काफ़ी दूर रखा हो,
पर जिंदगी के अनुभवों ने हमें, कई बार उन नुकड़ों पर मिलाया है,
जहां हम अकेले में, सब से छिप कर ,आंसुओं को पिया करते हैं।
और जब उस दिन तुम,
हस्पताल में दर्द से कराह रही थी,
सच पूछो, मैं भी मर रही थी तुम्हारे साथ तिल - तिल कर।
तुम्हारी हर चिख़,
मेरी सांसों को अपने नाखूनों से कुरेद रही थी।
मैं जानती हूं,
चूल्हे से उठते धुएं को गुथ कर
मेरी तरह तुमने भी, ढेर सारे सपने देख रखें होंगें,
जिन्हें इन ब्राह्मणवादी भेड़िये नोचते आए हैं,
और उनके दातों में फसे गोश्त का चटकरा,
संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार लेते आए हैं।
समाज जलाता रहा है तुम्हें बार - बार,
तुम्हारी जीब से रिश्ते खून में नहाता रहा है बार - बार।
क्या बदला तुम्हारे और मेरे लिए मनीषा?
वो कुआं आज भी ठाकुर का है, जिसमें, जाने कितनी मनीषा को इस समाज ने डुबो दिया।
मैं ठुकराती हूं, ठाकुर के इस कुएं को,
जिसने सींचा है जातिवाद के बरगद को अब तक।
जिसकी मोटी लताओं में झूलता रहा है ब्राह्मणवाद,
जिनकी जड़ों से लिपटा रहा है ठाकुरों का लोकतंत्र।
अब न्यूज चैनल पर बैठा कोई ठाकुर,
अपने अंदर के ब्राह्मणवाद को थपकियां दे थोड़ी देर सुला देगा,
ढकोसलों कि परत दर परत चादर ओढ़
तब तक स्वांग रचेगा जब तक कि तुम भुला ना दी जाओ।
पर मैं तुम्हें याद करती रहूंगी मनीषा,
इस पितृ सत्ता और ब्राह्मणवाद को राख़ कर,
अपने अंतिम सांस तक भर्ती रहूंगी उस ठाकुर के कुएं को।
*तीजू भगत*
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