सुना ,यहाँ कानून का राज्य है
और कानून के हाथ बहुत लंबे हैं
कहते हैं कि कानून अपने लंबे हाथों से
लंबा डंडे वाला हथौड़ा पकड़े होता है
डंडे से ही कानून की व्याख्या होती है
और कानून का राज्य कानून की व्याख्या से चलता है ।
कानून की व्याख्या में सबूतों पर बहस होती है
बहस पैसे लेकर वकील करते हैं
और सबूत जाँच से मिलते हैं...
जाँच पुलिस करती है
जो कई सबूत जुटा सकती है , मिटा सकती है
उठा सकती है ,बना सकती है , बिगाड़ सकती है
इस प्रकार...जाँच कई तरह से चलाई जाती है
कभी जाँच के लिए जांच-कमीशन भी बिठाया जाता है ।
इस जाँच के चलने और कमीशनों के बैठने का जो द्वन्द्व है ,
उसे समझना आसान नहीं है
इसके चलने और बैठने में जो मध्यमान रफ़्तार
हासिल की जाती है वह वर्षों , दसकों तक
और कभी- कभी तो सदियों तक या अंतहीन
काल-यात्रा करती है और सबूत ढूंढती है
सबूत जो अक्सरहाँ साफ सामने हुआ करते हैं
उन्हें ढूंढते हुए कानून बहुत सी कानूनी प्रक्रियाओं ,
जिसे आम भाषा में पेचीदगियां भी कहते हैं ,
से गुज़रता है.....और इस बीच
सबूत से उम्मीद की जाती है कि वह साबुत रहे ।
दरअसल भाई ,कानून तो कानून है और
कानून अपनी रफ़्तार से ही चला करता है
ठीक इसीलिए यह उक्ति प्रसिद्ध है -
कानून के घर देर है , अंधेर नहीं !
अब देर की बात क्या की जाए
और अंधेर ! .... की तो पूछिए मत
पर इससे यह तो पता चलता ही है कि
कानून के राज्य में कानून का एक घर होता है
जिसे प्रायः ज्ञानी लोग न्याय का मंदिर कहा करते हैं ।
इस मंदिर में न्याय का मुख्य पुजारी
काला चोंगा पहन कर विराजता है
और न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बांध कर ।
देवी के हाथ में एक तराज़ू होता है और सामने एक कटघरा
जिससे तमाम मुज़रिम और गवाह गुज़रते हैं
सुनते है कि कानून की नज़र में सब बराबर हैं
फिर क्यों कहा जाता है कि कानून अँधा होता है ?
अगर कानून अँधा होता है
तो फिर कानून की नज़र का क्या तुक है ?
फिर उसकी नज़र पर क्यों ऊपर से पट्टी बाँधी गई होती है !
इससे तो लगता है - कानून को दरअसल सबकुछ दिखता है
और किसी ख़ास मकसद से उसे अँधा बनाया गया है
या हो सकता है वह अंधा बनने का नाटक करता हो...
कि उसकी नज़र में सब बराबर हैं ।
जाने दीजिए , यही तो कानून है , यही कानून की नज़र है
और इसी नज़रिए से कानून का राज्य चलता है ।
इस कानून के राज्य में
बाज़ लोग कानून को कमीज़ की ज़ेब में
या फिर बटुए में , या मुट्ठी में भी लेकर चलते हैं
वे कानून से खेलते हैं जैसे कि लूडो का खेल
और कानून उनसे खेलता है
ये उनका आपसी मामला है ।
हम साधारण लोग कानून को हाथ में भी नहीं ले सकते
खेलने की बात तो दूर ...
कानून को हाथ में लेने वाले लोग अलग किस्म के होते हैं
उन्हें ही कानूनी अधिकार होता है कि
वे कानून हाथ में लेकर खेलें ।
वे हाथ में लेकर उसे तोड़ सकते हैं , मरोड़ सकते हैं
मरोड़ कर बदल भी सकते हैं
हमारे लिए कानून से खेलने की मनाही है
और उसे हाथ में लेने की तो और भी सख्त मनाही है
कानून हाथ में रखने के लिए
सख़्त डंडे की ज़रूरत होती है ।
यह दीगर बात है कि प्रायः हम जैसे लोगों को
पकड़ कर कानूनी धारा लगा दी जाती है
और कहा जाता है कि हमने कानून हाथ में लिया है
और हद तो तब हो जाती है जब वो कहते हैं कि
हमने कानून हाथ में लेकर तोड़ा है !
अब देखिए न कानून में हमें जीने का अधिकार है
और जब हम कहते हैं कि हम भूख से मर रहे हैं
या कि मेरी बेटी को बलात्कार कर मार दिया गया
या कि मुझे गंदे नाले और कचरे तक ठेल कर मारा जा रहा है
तो कानून हाथ में रखने वाले हमें ही रपेट देते हैं-
'साले, कानून बकता है !'
'बेटा , ठेल दूंगा ऐसा भीतर
कि सारा कानून बाहर निकल जाएगा
और तू बाहर नहीं निकल पाएगा '
या कि - 'दिखाऊँ कानून ?'
कानून को देखने की हिम्मत सब में नहीं होती
क्योंकि कानून दिखाने के बड़े अजीबो-गरीब
तरीके होते हैं जिनमे कानूनन जान भी जा सकती है
कानून ह्यूमन-राईट वालों को चिल्लाने का अधिकार देता है
और कानून वालों को , हूरकर ठेलते हुए कानून दिखाने का !
खैर ,इसी तरह सारी दुनिया में कानून का राज्य
चलाया जाता रहा है , चल रहा है ....
हमें कानून के राज्य को अच्छी तरह समझना चाहिए ।
---- आदित्य कमल
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