Tuesday, 23 February 2021

अल्पसंख्यक- कविता



मैं पाकिस्तान में सताया गया हिंदू हूँ
मैं हिंदुस्तान में दबाया गया मुस्लिम हूँ
मैं इज़रायल का मारा फ़िलिस्तीनी हूँ
मैं जर्मनी में कत्ल हुआ यहूदी हूँ
मैं इराक का जलाया हुआ कुवैती हूँ
मैं चीन द्वारा कुचला गया तिब्बती हूँ
मैं अमेरिका में घुटता हुआ ब्लैक हूँ
मैं आइसिस से प्रताड़ित यज़ीदी हूँ

मैं तुर्कों के हाथों छलनी अर्मेनियाई हूँ
मैं पूर्वी पाकिस्तान में जिबह हुआ बंगाली हूँ
मैं हुतू के हाथों उजाड़ा गया तुत्सी हूँ
मैं नानचिंग में कत्ल किया गया चायनीज़ हूँ
मैं मध्य अफ़्रीका में मक़तूल ईसाई हूँ
मैं दार्फ़ुर में दफ़न ग़ैर अरबी हूँ

मैं अशोक से हारा कलिंगी हूँ
मैं रशिया से त्रस्त सीरियन हूँ, पॉलिश हूँ, हंगेरियन हूँ, यूक्रेनी हूँ
मैं अकबर से परास्त मेवाड़ी हूँ
मैं ब्रिटेन के हाथों लुटा एशियाई हूँ, अफ़्रीकी हूँ, ऑस्ट्रेलियाई हूँ, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिकी हूँ

मैं अमेरिका के हथियारों से तबाह किया गया इराकी हूँ, वियतनामी हूँ, लीबियन हूँ, अफ़ग़ानिस्तानी हूँ, लगभग 70 नागरिकताओं की जलती हुई कहानी हूँ

मैं म्यांमार से भगाया गया रोहिंग्या हूँ
मैं श्रीलंका से मिटाया गया तमिल हूँ
मैं चौरासी का सिख हूँ
मैं भारत के जंगलों से उजाड़ा गया आदिवासी हूँ
मैं अपनी धरती पर कैद कश्मीरी हूँ
मैं कश्मीर से बेघर किया गया कश्मीरी पंडित हूँ
मैं असम का बंगाली हूँ
मैं ख़ुद के देश में रंगभेद झेलता पूर्वोत्तर का वासी हूँ

मैं पितृसत्ता से जान बचाती हुई लड़की हूँ
मैं परिवार से निकाला हुआ समलैंगिक हूँ
मैं शोर में दबाया गया सवाल हूँ
मैं वेदों से बहिष्कृत एक जाति हूँ
मैं सामाजिक सम्मान के लिए मारा गया प्रेमी हूँ
मैं धर्मांधों से धमकाया गया नास्तिक हूँ
मैं भीड़ से बाहर धकेली गयी चेतना हूँ
मैं तर्कहीनों से सहमा हुआ तर्कवादी हूँ

मैं बाज़ार के बीच एक ग़ैर बिकाऊ व्यक्ति हूँ
मैं राष्ट्रीयता में खोयी हुई आँचलिकता हूँ
मैं प्रचलित सुंदरता में अप्रचलित चेहरा हूँ
मैं मुख्यधारा से नष्ट की गई मौलिकता हूँ

मैं कभी किसी गाँव का, कभी किसी राज्य का, कभी किसी देश का, कभी किसी समाज का, कभी किसी संस्था का, तो कभी पूरी दुनिया का अल्पसंख्यक हूँ
मैं बहुसंख्यकों को दिखाया गया खतरा हूँ
मैं लुटेरी सत्ता का सबसे आसान मोहरा हूँ
और मैं जानता हूँ कि ये दोनों हँसेंगे अगर मैं खुद को निर्दोष कहूँगा

तो फिर मेरी धरती कौनसी है?
मेरा देश किधर है?
मेरा घर कहाँ है?
क्या मैं इस पृथ्वी पर हमेशा खानाबदोश रहूँगा?

#घोरकलजुग
अपूर्व भारद्वाज

Monday, 22 February 2021

On peasants

One of Marx's more important pieces of political writing is the The Eighteenth Brumaire of Louis Bonaparte (1851) (pdf). Here is his analysis of the causes of the specific nature of peasant political consciousness leading to the election of Napoleon III:
The small-holding peasants form an enormous mass whose members live in similar conditions but without entering into manifold relations with each other. Their mode of production isolates them from one another instead of bringing them into mutual intercourse. The isolation is furthered by France's poor means of communication and the poverty of the peasants. Their field of production, the small holding, permits no division of labor in its cultivation, no application of science, and therefore no multifariousness of development, no diversity of talent, no wealth of social relationships. Each individual peasant family is almost self-sufficient, directly produces most of its consumer needs, and thus acquires its means of life more through an exchange with nature than in intercourse with society. A small holding, the peasant and his family; beside it another small holding, another peasant and another family. A few score of these constitute a village, and a few score villages constitute a department. Thus the great mass of the French nation is formed by the simple addition of homologous magnitudes, much as potatoes in a sack form a sack of potatoes. Insofar as millions of families live under conditions of existence that separate their mode of life, their interests, and their culture from those of the other classes, and put them in hostile opposition to the latter, they form a class. Insofar as there is merely a local interconnection among these small-holding peasants, and the identity of their interests forms no community, no national bond, and no political organization among them, they do not constitute a class. They are therefore incapable of asserting their class interest in their own name, whether through a parliament or a convention. They cannot represent themselves, they must be represented. Their representative must at the same time appear as their master, as an authority over them, an unlimited governmental power which protects them from the other classes and sends them rain and sunshine from above. The political influence of the small-holding peasants, therefore, finds its final expression in the executive power which subordinates society to itself.

He writes of his own observations of working people in the Economic and Philosophic Manuscripts in 1844:
When communist artisans associate with one another, theory, propaganda, etc., is their first end. But at the same time, as a result of this association, they acquire a new need – the need for society – and what appears as a means becomes an end. In this practical process the most splendid results are to be observed whenever French socialist workers are seen together. Such things as smoking, drinking, eating, etc., are no longer means of contact or means that bring them together. Association, society and conversation, which again has association as its end, are enough for them; the brotherhood of man is no mere phrase with them, but a fact of life, and the nobility of man shines upon us from their work-hardened bodies.


Also interesting in the Eighteenth Brumaire is Engels' statement on the law of history as class struggle in his preface to the third edition of the book:
In addition, however, there was still another circumstance. It was precisely Marx who had first discovered the great law of motion of history, the law according to which all historical struggles, whether they proceed in the political, religious, philosophical or some other ideological domain, are in fact only the more or less clear expression of struggles of social classes, and that the existence and thereby the collisions, too, between these classes are in turn conditioned by the degree of development of their economic position, by the mode of their production and of their exchange determined by it. This law, which has the same significance for history as the law of the transformation of energy has for natural science -- this law gave him here, too, the key to an understanding of the history of the Second French Republic. He put his law to the test on these historical events, and even after thirty-three years we must still say that it has stood the test brilliantly.


किसान आंदोलन के संदर्भ में मार्क्सवाद और अंबेडकर वाद का फर्क !


मार्क्सवाद तथा अंबेडकरबाद में एक बड़ा फर्क है । वह है मार्क्सवाद के द्वंदात्मक भौतिकवाद तथा अंबेडकरवाद के भाववाद के बीच।  मार्क्स ने द्वंदात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से इतिहास को गति देने वाले वर्ग संघर्ष को रेखांकित किया , जबकि भाववाद को अपने दृष्टिकोण का आधार बनाने के कारण समाज के वर्गीय और सामाजिक शक्तियों को नजरअंदाज कर अंबेडकर अतीत में बुध के भाववादी विचारों के माध्यम से वर्तमान के जाति उत्पीड़न का समाधान खोजना शुरू किया। सच्चाई यह है कि बुद्ध भी अपने समय में उत्पादक शक्तियों में सबसे उन्नत  कृषक और व्यापारियों को अपने सामाजिक आंदोलन का आधार बनाया था।
  इस पूरी प्रक्रिया में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वर्ग संघर्ष को हाशिए पर डालने के लिए पूरी दुनिया में वित्त पूंजी के माध्यम से चलने वाले विश्वविद्यालय तथा एनजीओ ने वर्ग संघर्ष की जगह पर जाति ,धर्म 'क्षेत्र और पहचान की लड़ाई को आगे बढ़ाया। लेकिन पिछले तीन दशकों में नवउदारवादी नीति के तहत बड़ी पूंजी ने वित्त पूंजी के साथ मिलकर के सभी देशों में जो मेहनतकशों और छोटी पूंजी के मालिकों के ऊपर जो कत्लेआम मचाया है , उसके बाद से वर्ग संघर्ष एक बार फिर से पूरी दुनिया में जीवंत हो चुका है। बड़ी पूंजी के फंडों से चलने वाले विश्व विद्यालय और एनजीओ मार्क्सवाद तथा वर्ग संघर्ष की विचारधारा को आउटडेटेड घोषित कर चुका था । लेकिन पूरी दुनिया में और आज की तारीख में भारत का किसान आंदोलन एक बार फिर से इस बात को स्थापित कर रहा है कि वर्ग संघर्ष  ही इतिहास को गति देने वाली और समाज को बदलने वाली मुख्य शक्ति बनेगी।

नरेंद्र कुमार

किसान आंदोलन को जन आंदोलन के रूप में गांव शहर फैला दो !


वित्त पूंजी तथा भारतीय एकाधिकार पूंजी के संयुक्त हमले के खिलाफ संगठित हों। मोदी सरकार ने कृषि कानून तथा श्रम कानूनों में संशोधन कर मजदूरों और किसानों की कमाई तथा साधन छीन कर बड़े पूंजीपतियों के हवाले करने के लिए अड़ी है। किसान आंदोलन के साथ-साथ मजदूरों का आंदोलन और फिर पूंजी के रखवाली इस व्यवस्था के खिलाफ व्यापक जनांदोलन आज समय की मांग है। डब्ल्यूटीओ, विश्व बैंक तथा वित्त पूंजी के परजीवी मालिकों के खिलाफ विकल्प पेश करने के लिए , एक नई व्यवस्था के निर्माण के लिए , तमाम साधनों के सामाजीकरण और सभी मेहनत करने वालों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित करने के लिए , रोजगार मुहैया कराने के लिए एकजुट हो ।

नरेंद्र कुमार

Thursday, 18 February 2021

दुपट्टा से बांधी गई मेरी बच्चियों ! -नरेंद्र कुमार

#दुपट्टा से बांधी गई मेरी बच्चियों !
तुम्हारी तकलीफ :
तुम्हारा यह उत्पीड़न 
हमारे लिए
असहनीय !
निशब्द हूँ मैं !
 हम अपनी किस कमजोरी की
 सजा पा रहे हैं !
क्या हम अपनी इस कमजोरी से
 उबर पाएंगे !
सदियों से बांटकर जातियों में
 शोषण और उत्पीड़न को जारी रखने का
 कानून बनाया गया 
कभी मनुस्मृति के रूप में तो 
कभी दुनिया भर के लोकतंत्र के संविधान के रूप में
कभी आधुनिक संविधान लिखने वालों ने भी
 चुनौती नहीं दी 
शोषण उत्पीड़न के उस स्वरूप को 
जिसके पीछे चलता है शासन पूंजी के तंत्र का 
कोई नहीं खड़ा होता है पूंजी के इस तंत्र को
 खुलेआम चुनौती देने के लिए
 और पूंजी का यह तंत्र
 बांटता है हमें कभी धर्म 
कभी क्षेत्र के रूप में 
कभी  राष्ट्र के रूप में 
और सब जगह पूरी दुनिया में 
निर्बाध गति से गतिशील है यह
 लोग पलक पाखरे बिछाए हुए हैं
 इसके आगमन के लिए 
 इसके आलिंगन के लिए
इसे अपने जन जन के रक्त से स्नान कराने के लिए
 यह पवित्र है , दुनिया का सबसे पवित्र वस्तु 
और इसके साथ सामाजिक संबंधों में बंधा
 वह हर वर्ग जिसका रुधिर यह चूसता है
 वह अपवित्र है
सारी दुनिया के लिए तुम भी 
इसी अपवित्र समाज का हिस्सा हो 
मेरी प्यारी बच्चियों !
 और इसीलिए अपने समाज की पवित्रता के लिए 
तुम्हें और हमें जलाना ही होगा
 इस पवित्र वस्तु से जुड़े पूरे
सामाजिक संबंधों को
 हमें जलना ही होगा
 वर्ग संघर्ष की आग में
चल रहे हैं किसान और उनके बच्चे
अपने देश के अंदर और बाहर की सरहदों पर
 हमें जलाना होगा
 स्त्रियों और मेहनतकशों को बांधने वाले
उन तमाम सामाजिक संबंधों को
संस्कृति से लेकर उन दुपट्टो और फंदों को
जिस से बांध दिए जाते हो या लटक जाते हैं
 तुम जैसी बच्चियां , स्त्रियां और कर्ज से दबे किसान
हमें जलना होगा
अपने समय के सबसे ज्वलंत सवालों से !

न्याय की देवी



न्याय की देवी तुम गाय की तरह पवित्र हो
तुम्हारा दर्शन मात्र हम गरीबों के लिए पुण्य है
 जिस खूंटे से तुम बंधी रहती हो 
उसकी कोठी की शान में तुम हमेशा 
चार चांद लगाती रहती हो
यह तो लाज़मी है कि जिस मालिक की तुम गाय हो
अपने थन से दूध की बाल्टी तो उसी की भरोगी 
और  चाहिए भी यही
क्योंकि धर्म और कर्तव्य की मर्यादा तो यही है
आखिर  वह आपका मालिक जो  ठहरा 
अब चारा चाहे मालिक की खाओ या काले चोर की
 इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता
न्याय की गौ माता हमारे लिए तो
 तुम्हारा गोबर और मूत्र ही पवित्र है
 सुनते हैं ऐसा शास्त्रों में भी लिखा गया है 
और महाजन भी तो यही कहते हैं
हां तुम इतनी गऊ हो इतनी गऊ हो कि 
अपने मालिक की क्रूरता पर भी तुम उसके कंधे चाटती हो 
लेकिन दूसरों को अपनी तरफ आते देख 
उसे सींग पर उठा लेती हो 
 तुम्हारा मालिक  इसी अदा पर तो तुम्हें
 पवित्र गाय मानकर तुम्हारी पूजा करता है 
हां यह दीगर बात है कि 
कभी-कभार तुम्हारी थोड़ी सी शरारत पर
 या दूध कम कर देने पर
 तुम पर वह डंडे बरसाना नहीं भूलता 
फिर भी न्याय की देवी  
तुम्हारी यह सरलता है या खूंटे की मजबूरी
जो तुम्हें सदैव पवित्र बनाए रखती है
 न्याय की देवी तुम ऐसे ही पवित्र बनी रहो
मालिक के लिए दूध तथा हमारे लिए गोबर देती रहो

 *जुल्मीरामसिंह यादव*

औरतो के ऊपर- कविता

उन्होंने ने तीस पार औरतों पर "तीसी सो खीसी" कह चुटकुले बनाए और आप......आप हंसी

क्योंकि आप तीस नहीं सोलह बरस की किशोरी थीं।

फिर उन्होंने सोलह साला लड़कियों की चपलता, भावुकता,कमनीयता पर चुटकुले बनाए......

और आप ......हंसी

क्योंकि अब आप १६ बरस की नादान‌ छोकरी  नहीं तैंतीस की परिपक्व (?) औरत थीं।

उन्होंने सपाट छाती वाली औरतों पर "ब्रेस्ट है या पिंपल" वाले  चुटकुले बनाए 

और आप हंसी......आपको‌ नाज़ था अपने उभारों पर

उन्होंने भरे बदन वाली आपकी सहेली पर "चोली के पीछे क्या है" गाते हुए ताना कसा 

और आप.....हंसी, 

कि इकहरे बदन‌ की आप दुपट्टे से अपने वक्ष को ढंके,  उनसे "शालीनता" का सर्टिफिकेट लेकर इत्मीनान से थीं! 

 उन्होंने ने काली औरतों, मोटी औरतों पर चुटकुले बनाए,मीम बनाए.....
और आप हंसी.......
 आप ने हंस हंस के फारवर्ड किए क्योंकि आप गोरी चिट्टी और छरहरी थीं।

आपके पति/ब्वाय फ्रेंड ने मुसलमान औरतों पर "कहती हैं बुरका और पहनती हैं सर पर" या "आहिस्ता करो भाई जान" वाला चुटकुला सुनाया और आप फिक्क से हंस पड़ी क्योंकि आप औरत तो थीं, लेकिन मुसलमान नहीं। 

उन्होंने ने ट्रांस जेंडर औरतों , समलैंगिक औरतों की यौनिकता पर चुटकुले बनाए.....
और आप हंस दी......क्यूंकि कुरान-पुराण-बाईबिल ने आपको समलैंगिकता के "नार्मल" होने की समझ नहीं दी। 

उन्होंने ने अनपढ़ औरतों ,गंवई औरतों, काम वाली बाईयों पर चुटकुले बनाए.....
और आप हंस दीं.......

क्योंकि आप बाई नहीं babe/bae थीं, मालकिन थीं और पढ़ी लिखी थीं!

उन्होंने सोनिया,स्मृति,सुषमा,रेणुका सहित राजनीति में तमाम औरतों के  चरित्र को चुटकुला बना दिया.....

और आप फिर हंसी,
क्यूंकि आप apolitical, career oriented, good girl हैं! 

उन्होंने ने जे एन‌ यू की लड़कियों पर चुटकुले बनाए..... आपने बढ़-चढ़कर सुनाए......
क्योंकि आप जे एन यू की लड़की नहीं।

और फिर एक दिन यूं हुआ कि ......
.
.
.
.
.
उन्होंने आपको "बाई" कह कर आपका मज़ाक उड़ा दिया
..... क्यूंकि आप बाई की मालकिन("हाउसवाइफ")
भले हों लेकिन आपके मालिक तो वही हैं!

आप रुआंसी हुई,तमतमाईं और कमर कस कर घर से बाहर निकल आईं।

आपने कालेज  मे टाॅप किया तो उन्होंने ने हंस कर कहा कि लड़कियां तो‌ मुस्कुरा कर नंबर ले लेती हैं!

आप फिर भी मुस्कुराईं क्योंकि यह तो‌ मज़ाक था।

आपकी सहेली को प्रमोशन मिला तो वो बोले कि क्लीवेज दिखाकर और बाॅस के साथ सो कर मिला!

 आप अपने प्रमोट ना होने से दुःखी थीं, सो नज़र अंदाज़ कर गईं! 

आप gynaecologist हैं, उन्होंने आपको "दाई" कह दिया...

आपने अपमानित महसूस किया, लेकिन "रिश्ते" बनाए रखने के लिए कुछ बोले बिना आप वहां से हट गईं!!

उन्होंने ने "मेरी काॅम" के पति होने की बेचारगी पर चुटकुले बनाए

और आप हंस दीं ...... 

क्योंकि आप "सफलता" के लिए "नारीत्व" को छोड़कर  "मर्दाना" हुई औरतों को समझ नहीं पा रही थीं।

उन्होंने ने *#मी_टू* में बोलने वाली औरतों पर चुटकुले बनाए और आप लग गई फारवर्ड करने में क्योंकि आपके साथ कभी ऐसा हुआ नहीं! 

उन्होंने औरतों को झगड़ालू,शंकालु,
ईर्ष्यालु,लालची,कमअक्ल होने पर चुटकुले बनाए और आप उनके साथ हंसती रहीं.....क्योंकि "स्पोर्टिंग" होना भी तो ज़रूरी है!

और अब जब उन्होंने ने आपकी शिक्षा,आपकी कमाई,आपके सपनों,आपकी उड़ानों,आपके हौसलों,आपकी इच्छाओं,आपकी यौनिकता,आपके प्रेम,आपकी च्वायस.....आपके अस्तित्व और आपके जीवन को ही चुटकुला
बना दिया है....

अब जब उनके लिए बलात्कार चुटकुला है....

एसिड अटैक चुटकुला है....

आपके अधिकार चुटकुला हैं.....

आपका आवाज़ उठाना चुटकुला है...

तब आप सर को‌ हाथों में थामे सोच रही कि.......

"ये ऐसे क्यूं हैं?"

#PoliticsOfHumor

#HumorIsASeriousMatter

 

.......
Nidhi mishra की  पोस्ट

Monday, 15 February 2021

अभी वही है निज़ामे कोहना / ख़लीलुर्रहमान आज़मी



अभी वही है निज़ामे कोहना अभी तो जुल्मों सितम वही है
अभी मैं किस तरह मुस्कहराऊं अभी रंजो अलम वही है

नये ग़ुलामों अभी तो हाथों में है वही कास-ए-गदाई
अभी तो ग़ैरों का आसरा है अभी तो रस्मों करम वही है

अभी कहां खुल सका है पर्दा अभी कहां तुम हुए हो उरियां
अभी तो रहबर बने हुए हो अभी तुम्हा भरा भरम वही है

अभी तो जम्हूबरियत के साये में अमिरियत पनप रही है
हवस के हाथों में अब भी कानून का पुराना कलम वही है

मैं कैसे मानूं कि इन खुदाओं की बंदगी का तिलिस्मह टूटा
अभी वही पीरे-मैकदा है अभी तो शेखो-हरम वही है

अभी वही है उदास राहें वही हैं तरसी हुई निगाहें
सहर के पैगम्बारों से कह दो यहां अभी शामे-ग़म वही है ।

सन्तराम बी. ए. 14 फरवरी, 1887 जयंती विशेष




     एक प्रतिबद्ध जाति तोड़क सन्तराम जी और उनके 'जातपात तोड़क मण्डल' ने अपने जाति-विरोध से पूरे देश का ध्यान खींचा था। पर उसे जितना समर्थन मिला था, उससे कहीं ज्यादा रूढ़िवादियों ने उसका विरोध किया था। विरोधियों में देश के चोटी के विद्वान सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' भी थे। स्मरण कर रहे हैं कंवल भारती।

जाति और वर्गविहीन समाज के निर्माण के लिए आजीवन कार्य करने वालों में एक महान विभूति सन्तराम जी थे, जो सन्तराम बी. ए. (14 फरवरी 1887-5 जून 1988 ) के नाम से जाने जाते थे। वह कुम्हार जाति से थे, और अपने समय के सर्वाधिक चर्चित लेखक थे। चांद, सुधा, और सरस्वती पत्रिकाओं में उनके लेख जेरेबहस रहते थे। उन्होंने उर्दू में 'क्रान्ति' पत्रिका निकाली थी। इसके सिवा वह जालन्धर कन्या महाविद्यालय की मुख्य पत्रिका 'भारतीय' और लाहौर की 'विश्वेश्वरानन्द वैदिक संस्थान' की पत्रिका विश्व ज्योति' के भी सम्पादक बने। उनकी लोकप्रियता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राहुल सांकृत्यायन भी उनसे मिलकर उनके परम मित्र हो गए थे। यह सम्भवतः पिछली सदी का पहला दशक होगा, जब राहुल जी ने लाहौर में सन्तराम जी से पहली भेंट की थी। राहुल जी का यात्रा-सम्बन्धी पहला लेख भी उन्हीं की पत्रिका 'भारतीय' में छपा था। जिस समय राहुल जी ने सन्तराम जी से भेंट की, उस समय राहुल जी आर्यसमाजी साधु थे। लेखक के रूप में अभी वह ख्यात नहीं हुए थे। बाद में जब वह रामोदार से राहुल सांकृत्यायन बने[i], तो उन्होंने सन्तराम जी पर मार्मिक संस्मरण लिखा था, जो उनकी किताब 'जिनका मैं कृतज्ञ' में संकलित है। एक जगह वह एक रोचक प्रसंग लिखते हैं, 'उनका घर होशियारपुर के पास ही 'पुरानी बस्सी' गांव में था, जहां वह अपने बाग वाले मकान में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। मेरे वहां रहते ही उनको पुत्री पैदा हुई। पंजाबिन महिला के स्वास्थ्य को देखकर आश्चर्य होता था। सवेरे उन्होंने घर का सब काम काज किया। भैंस का दूध भी दुहा और दोपहर को मालूम हुआ, लड़की पैदा हुई। जात-कर्म-संस्कार का पुरोहित मैं बना और मैंने ही लड़की का नाम गार्गी चुना।'

राहुल जी का संस्मरण हमें एक और सूचना देता है कि सन्तराम जी का एकमात्र होनहार पुत्र तरुणाई में ही मर गया था। बाद में उन्होंने लाहौर के कृष्णनगर में अपना घर बनवा लिया और पहली पत्नी के मरने पर एक महाराष्ट्रीयन महिला को सहधर्मिणी बनाया। पर देश के बॅंटवारे के बाद सन्तराम जी का लाहौर वाला आशियाना हाथ से चला गया, पर उनका जन्मस्थान (पुरानी बस्सी) भारत में ही रहा था। इसी पुरानी बस्सी में 14 फरवरी 1887 को उनका जन्म हुआ था।

*सन्तराम*

सन्तराम जी अपनी तरुणाई में ही आर्यसमाजी हो गए थे। आर्य समाज में जिस संस्था की वजह से वह विख्यात हुए, वह संस्था 'जातपात तोड़क मण्डल' थी, जिसे उन्होंने 1922 में स्थापित किया था। वह उसके सचिव थे। इसी मण्डल ने 1936 में डा. आंबेडकर को अपने वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देने के लिए लाहौर बुलाया था। इस अधिवेशन के लिए डा. आंबेडकर ने जो अध्यक्षीय भाषण तैयार किया था, उसमें वेद-शास्त्रों की निन्दा होने के कारण मण्डल के अनेक सदस्य उससे सहमत नहीं थे। पर आंबेडकर उसमें परिवर्तन करने को तैयार नहीं थे। परिणामतः, मण्डल ने अधिवेशन को ही स्थगित कर दिया था। किन्तु डा. आंबेडकर ने उस भाषण को पुस्तकाकार में मुद्रित करा दिया था। 'एनीलेशन आफ कास्ट' उनकी वही चर्चित पुस्तक है।

सन्तराम जी और उनके 'जातपात तोड़क मण्डल' ने अपने जाति-विरोध से पूरे देश का ध्यान खींचा था। पर उसे जितना समर्थन मिला था, उससे कहीं ज्यादा रूढ़िवादियों ने उसका विरोध किया था।  विरोधियों में देश के चोटी के विद्वान सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' भी थे। उन्होंने 'मतवाला' (1924) में 'वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान स्थिति' शीर्षक अपने लेख में लिखा था- 'शूद्रों के प्रति केवल सहानुभूति प्रदर्शन कर देने से ब्राह्मणों का कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता, न 'जातपात तोड़क मण्डल' के मन्त्री सन्तराम जी के करार देने से इधर दो हजार वर्ष के अन्दर संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के यथार्थ शत्रु सिद्ध हो सकते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन कठोर से कठोर होने पर भी अपने समय की मयार्दा से दृढ़ सम्बन्ध हैं। खैर, वर्णव्यवस्था की रक्षा के लिए जिस 'जायते वर्ण संकर' की तरह के अनेकानेक प्रमाण उद्धृत किए गए हैं, उसकी सार्थकता इस समय मुझे तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ती, न 'जातपात तोड़क मण्डल' की ही विशेष कोई आवश्यकता प्रतीत हो सकती है। ब्रह्म समाज के रहते हुए सन्तराम जी आदि ने मण्डल की स्थापना क्यों की ? ब्रह्म समाज की ही एक शाखा क्यों नहीं कायम कर ली ?' उन्होंने यहां तक लिखा कि ब्राह्मणों ने शूद्रों के लिए कठोर नियम इसलिए बनाए थे, क्योंकि ''उनके दूषित बीजाणु तत्कालीन समाज के मंगलमय शरीर को अस्वस्थ करते थे। निष्कलुष होकर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर होने वाले शुद्ध परमाणुकाय समाज को शूद्रों से कितना बड़ा नुकसान पहुंचता था, यह मण्डल के सदस्य समझते, यदि वे भागवादी, अधिकारवादी, मानवादी-इस तरह जड़वादी न होकर, त्यागवादी या अध्यात्मवादी होते। इतने पीड़नों को सहते हुए अपने जरा से बचाव के लिए, अगर द्विज समाज ने शूद्रों के प्रति कुछ कठोर अनुशासन कर भी दिए, तो हिसाब में शूद्रों द्वारा किए गए अत्याचार द्विज समाज को अधिक सहने पड़े थे।''

निराला जी का यह 'क्रान्तिकारी लेख' उनके निबन्ध संग्रह 'चाबुक; में संकलित है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि 'जातपात तोड़क मण्डल' को हिन्दू समाज ने किस कदर उपेक्षित किया था। बहुत से आर्यसमाजी भी नहीं चाहते थे कि सन्तराम जी मण्डल को चलाएं। इसलिए मण्डल के अधिकांश सदस्य, जिनमें गोकुल चन्द्र नारंग, भाई परमानन्द और महात्मा हंसराज जैसे प्रगतिशील बुद्धिजीवी शामिल थे, घोर हिन्दूवादी होने के कारण, डा. आंबेडकर को मण्डल के अधिवेशन का अध्यक्ष बनाए जाने के विरोध में मण्डल से अलग हो गए थे। इनमें भाई परमानन्द जैसे बहुत से लोग तो बाद में हिन्दू महासभा में चले गए थे। इसलिए यह अकारण नहीं है कि उस समय के हिन्दू ब्रह्म समाज के तो पक्ष में थे, जो जाति को मानता था, पर जाति का खण्डन करने वाले 'जातपात तोड़क मण्डल' के खिलाफ थे। पर आर्यसमाजियों के असहयोग के कारण सन्तराम जी ने मण्डल को समाप्त नहीं किया, बल्कि उसे स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयं चलाया।


सन्तरामजी ने हिन्दू-मुस्लिम-एकता और जातिभेद के उन्मूलन पर सौ से भी ज्यादा लघु पुस्तिकायें लिखी थीं, जिनके विचारों ने हिन्दू समाज में हलचल मचा दी थी। इन पुस्तिकाओं को वे मुफ्त बांटते थे। सुबह-शाम जब वह सैर को निकलते थे, तो अपनी जेब में उनको रख लेते थे, और जो भी मिलता, उसे देते चलते थे। उनकी 1948 में प्रकाशित किताब 'हमारा समाज' तो आज भी हिन्दुओं के लिए आंखें खोल देने वाली किताब है। मैंने इस किताब को 1975 में पढ़ा था, और उसके बाद से मैं उसे पवित्र ग्रन्थ की तरह सॅंभालकर रखे हुए हूं। मेरी दृष्टि में वह एक वैज्ञानिक वेद है, जिसके सूत्र अगर हिन्दुओं के कानों में पड़ जायें, तो उनके दिमाग के जाले साफ हो जायें। कुछ का उल्लेख मैं यहां जरूर करना चाहूंगा। यथा :

'शेरशाह सूरी के समय में हेमचन्द्र (हेमू बक्कल) नामक एक बनिए ने अपना नाम विक्रमादित्य रखकर हिन्दूराज्य स्थापित करना चाहा। उसने दिल्ली आदि कई स्थानों पर मुगल सेनाओं को हराया। परन्तु राजपूतों ने उसकी सेना में भर्ती होने से इन्कार कर दिया। वे कहते थे कि हम क्षत्रिय होकर नीच वर्ण के वैश्य के अधीन काम नहीं कर सकते। फलतः, जब हेमचन्द्र को बैरम खां से हार हुई, तो उन्हीं राजपूतों को मुसलमानों का गुलाम बनने में किसी तरह के अपमान का अनुभव न हुआ।' (पृष्ठ 226)

'गुजरात का एक ढेढ़ (अछूत) जब तक हिन्दू रहा, वर्णव्यवस्था के ठेकेदारों ने उसे उठने न दिया। परन्तु ज्यों ही उसने मुसलमान बनकर अपना नाम नासिरुद्दीन खुसरो रखा, त्यों ही उसने खिलजी वंश की सारी सत्ता अपने हाथों में ले ली। हिन्दू रहते हुए वह किसी क्षत्रिय स्त्री का स्पर्श तो दूर, दर्शन भी न कर सकता था। मुसलमान बनकर उसने राजा कर्णराव की स्त्री देवल देवी के साथ विवाह कर लिया था।' (पृष्ठ 227)

'जिस वर्ष मैलाना मुहम्मद अली और शौकत अली की माता का देहान्त हुआ, उस समय भाई परमानन्द जी उनके पास सम्वेदना प्रकट करने गए। बातचीत में मौलाना ने भाई जी से कहा कि आप लोग व्यर्थ ही शुद्धि और अछूतोद्धार का रोड़ा अटका कर इस्लाम की प्रगति को रोकना चाहते हैं। इसमें आपको कभी सफलता नहीं मिल सकती। भाई जी ने पूछा, क्यों? मौलाना ने उत्तर दिया, देखिए, यह भंगिन जा रही है। मैं इसे मुसलमान बनाकर आज ही अपनी बेगम बना सकता हूं। क्या आप में या मालवीय जी में यह साहस है? मैं किसी भी हिन्दू को मुसलमान बनाकर अपनी लड़की दे सकता हूं। क्या कोई हिन्दू नेता ऐसा कर सकता है? मैं आज 'शुद्ध' होता हूं। क्या कोई मेरी स्थिति का हिन्दू नेता मेरे लड़के को लड़की देगा? यदि नहीं, तो फिर आप शुद्धि और अछूतोद्धार का ढोंग रचकर इस्लाम के मार्ग में रोड़ा क्यों अटका रहे हैं?' (पृष्ठ 178-79)


14 नवंबर 1956 को आंबेडकर ने नागपुर में अपनी पत्नी सविता और समता सैनिक कार्यकर्ताओं के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया

'आप पूछेंगे कि जातपांत को मानते हुए जब हिन्दुओं की विभिन्न जातियां इक्टठी रह सकती हैं, तो मुसलमान हिन्दुओं के साथ क्यों नहीं रह सकते ? इसका कारण यह है कि जिस प्रकार सब कोढ़ी-जिनमें से किसी की नाक में कोढ़ है, किसी के पैर में, किसी के हाथ की उॅंगलियों में-इकट्ठे रह सकते हैं, पर कोई निरोग व्यक्ति उन कोढ़ियों के साथ मिलकर नहीं रह सकता, उसी प्रकार हिन्दुओं की जातियां-जो सब की सब जातपांत रूपी कोढ़ से पीड़ित हैं-इकट्ठी रह सकती हैं, पर मुसलमान, जिनमें जातपांत का रोग नहीं है, इनके साथ रहना स्वीकार नहीं कर सकते। द्विज ने शूद्र की आत्मप्रतिष्ठा को ही कुचल डाला है। वह द्विज के हाथों होने वाली मानहानि को अनुभव करने में असमर्थ हो गया है। पर मुसलमान को यह अपमान अखरता है।' (पृष्ठ 237) इस तरह के उदाहरणों से सन्तराम जी की किताब भरी पड़ी है।

मैंने 16 जनवरी 1996 को इलाहाबाद में 'जन संस्कृति मंच' के राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने पेपर में सन्तराम जी के योगदान का उल्लेख किया था, वह सुधीर विद्यार्थी को अच्छा लगा, और उन्होंने इसका जिक्र सन्तराम जी की बेटी गार्गी चड्ढा से दिल्ली में किया। उसकी प्रतिक्रिया में 20 मार्च 1997 को मुझे 51, नवजीवन विहार, नई दिल्ली से गार्गी चड्ढा का अन्तर्देशीय पत्र मिला, जिसमें उन्होंने अपनी स्थिति का बहुत ही मार्मिक वर्णन करते हुए लिखा था- 'भैया, मैं सच कहती हूं कि मुझे यह जानकर सच्ची आन्तरिक प्रसन्नता हुई कि पिता जी के त्याग, निष्काम, समाज सेवाओं को स्मरण रखने वाला उनका कोई सपूत तो है। मैं उनकी एकमात्र जीवित सन्तान हूं। उन्हें कभी मुझमें या उनके अन्य स्नेहियों में कोई अन्तर नहीं जान पड़ता था।[ii] जो उनके विचारों-जातपांत तोड़क विचारों-का व्यक्ति होगा, वही उनका प्रिय था। शायद आप जानते ही होंगे, कि उस महान त्यागी ने देश से जातिभेद का महाघातक रोग मिटाने के लिए अपना पूर्ण जीवन संघर्षों, विद्रोहों, अभावों का सामना करते हुए लगा दिया। कहा करते थे-जातिभेद हिन्दुओं का महान घातक शत्रु है। इसे जड़मूल से मिटाना ही मेरे जीवन का ध्येय है। सिवाए विद्रोहों के उनकी झोली में कुछ कम ही पड़ा। अपने आप में ही बोला करते थे-'चला जाऊॅंगा छोड़कर जब इस आशियाने को, वफाएं तब याद आयेंगी मेरी इस जमाने को।'

उन्होंने अन्त में लिखा था-'मैं चाहती थी मेरे रहते उनके पुराने लेख, जो आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने तब रहे होंगे, पुस्तक रूप में प्रकाशित हो सकें, तो अच्छा है। प्रयत्न भी किया, पर अभी सफलता नहीं मिल पाई। आप तो अच्छे लेखक हैं, सम्भवतया आपके प्रयत्न से इस कार्य में सफलता मिल सके।'

उनका दूसरा पत्र 17 अप्रैल 1997 का मिला। इसमें उन्होंने सन्तराम जी के बारे में एक-दो नई सूचनाएं दी थीं, जिनका उल्लेख जरूरी है। उन्होंने लिखा था- '1991 तक मेरे पति भीमसेन चड्ढा, (जो मेरे पास नहीं, पिता जी के पास ही चले गए), पिताजी के मिशन को सजीव रखने के लिए पूर्ण सहयोग देते थे। पिताजी की उन्होंने पांच वर्ष वह सेवा की, जो बेमिसाल है। श्रद्धेय विष्णु प्रभाकर जी ने लिखा था कि पंडित जी की वह सेवा हुई कि भगवान को भी ईर्ष्या

होने लगी होगी।' उन्होंने यह भी लिखा कि 1987 में उनके शतायु होने के अवसर पर साहित्य अकादमी ने रवीन्द्र भवन में उनका सम्मान किया था। उसके एक वर्ष बाद 5 जून 1988 को उन्होंने अपनी बेटी के यहां ही अन्तिम सांस ली।

गार्गी जी ने सन्तराम जी के असंख्य लेखों के प्रकाशन के लिए कई प्रकाशकों से सम्पर्क किया था। पर किसी ने कोई रुचि नहीं ली थी। उन्होंने मुझे इस उम्मीद से आग्रह किया था कि शायद यह महत्वपूर्ण काम मेरे हाथों होना लिखा हो। मैंने कोशिश भी की थी। पर वह अपनी भारी अस्वस्थता के कारण सामग्री उपलब्ध नहीं करा सकीं। बाद में उनसे पत्र-सम्पर्क भी टूट गया। गम्भीर रोगों से ग्रस्त अब वह जीवित भी कहां होंगी ?

हिन्दू धर्म में वर्ण, वर्ण में शूद्र, शूद्र में जाति, जाति में क्रमिक ऊंच नीच, ब्राह्मण के आगे सारे नीच ! अब गर्व से कैसे कहें कि हम हिन्दू हैं ???

Friday, 12 February 2021

स्तालिनग्राद के लिए प्रेम गीत~ पाब्लो नेरूदा





रक्त रंजित रुई के एक क़तरे को मेरे लिए बचा लेना
एक जंगी राएफल और एक हल मेरे लिए
उन्हें मेरी क़ब्र पर रख दिया जाए
खून से लाल हुई तुम्हारी  मिट्टी का एक एक कण
ये ऐलान करेगा, अगर किसी को शक़ है
कि तुमने मुझे प्यार किया और मैं तुम्हें प्यार करते हुए मरा
अफ़सोस, मैं तुम्हारे कंधे से कंधा मिला नहीं लड़ पाया
मैं तुम्हारी शान में ये एक काला ग्रनेड छोड़े जा रहा हूँ
प्यार का ये एक गीत, ओ मेरे प्यारे स्तालिनग्राद!

इतिहास के सबसे रक्तरंजित जंगों में से एक, स्तालिनग्राद की जंग, में रूसी लाल सेना और सोवियत नागरिकों की नाज़ी फ़ासिस्टों पर हुई ऐतिहासिक जीत को याद करते हुए चिली के क्रांतिकारी कवि पाब्लो नेरुदा की रचना.

2 फरवरी (1943-2021) को सोवियत जनता की फासिस्टों पर इस जीत की 78वी वर्षगांठ थी.
अनुवाद : Satya Veer Singh

Friday, 5 February 2021

किसान आंदोलन

बहुसंख्यक किसानों के लिये पूंजीवाद फांसी का फंदा साबित हो रहा है, उनकी बदहाली और गरीबी तबतक खत्म नही हो सकती जबतक पूंजी की सत्ता का बोलबाला है। कंपनी राज नही, कंपनी मुक्त राज्य, समाजवादी राज्य ही एक बेहतर आर्थिक परिस्थिति किसानों को दे सकता है जिसमे कृषि उपज की वाजिब कीमत और कॉर्पोरेट लूट से मुक्ति किसानों को मिल पायेगी।

एम के आजाद

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...