Wednesday, 29 June 2022

कातिलों को पहचानिए इन इशारों से👇


"मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति अनवर सादात के हत्यारे से न्यायाधीश ने पूछा: "तुमने प्रेजिडेंट को क्यों मारा?"
वो बोला: "क्योंकि वह धर्मनिरपेक्ष था!"
न्यायाधीश ने पूछा, "धर्मनिरपेक्ष का क्या अर्थ है?"
हत्यारे ने कहा, "मुझे नहीं पता!"
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*मिस्र के दिवंगत लेखक नागुइब महफौज़ की हत्या के प्रयास के मामले में न्यायाधीश ने उसके हत्यारे से पूछा:
"तुमने उसे चाकू क्यों मारा?"
आतंकवादी बोला: "उसके उपन्यास
''हमारे पड़ोस के बच्चे'' की वजह से।"
जज ने पूछा, "क्या आपने यह उपन्यास पढ़ा है?"
हत्यारा, "नहीं!"
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*एक अन्य जज ने मिस्र के लेखक फ़राज़ फ़ौदा की हत्या करने वाले आतंकवादी से पूछा: "तुमने फ़राज़ फ़ौदा की हत्या क्यों की?"
आतंकवादी बोला: "क्योंकि वह काफ़िर है!"
न्यायाधीश ने पूछा, "तुम्हें कैसे पता चला कि वह काफिर था?"
आतंकवादी बोला: "उसकी लिखी किताबों के अनुसार!"
जज ने कहा, "उनकी कौन सी किताब ने आपको यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि वह काफ़िर थे?"
आतंकवादी: "मैंने उसकी कोई किताब नहीं पढ़ी है!"
जज: "क्या!?"
आतंकवादी ने जवाब दिया, "मैं पढ़ या लिख ​​नहीं सकता!"
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**घृणा ज्ञान से नहीं बल्कि हमेशा अज्ञानता से उपजती और फैलती है। और कातिल सिर्फ वो नहीं होता जो तलवार चलाता है।

साभार

कुमार विनोद के वॉल से

Tuesday, 28 June 2022

₹ 23/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!

₹ 23/- प्रति किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!
चमड़ा सिटी के नाम से प्रसिद्ध कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 कि.मी. के दायरे में आप घूमने जाओ तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी! यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं! इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता हैं!
इस चर्बी से मुख्यतः 3 ही वस्तुएं बनती हैं!
(1) एनामिल पेंट (जिसे अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं!)
(2) ग्लू (फेविकोल) इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं!)
(3) सबसे महत्वपूर्ण जो चीज बनती हैं वह है "देशी घी"

जी हाँ तथाकथित "शुध्द देशी घी" 
यही देशी घी यहाँ थोक मण्डियों में 120 से 150 रूपए किलो तक खुलेआम बिकता हैं! इसे बोलचाल की भाषा में "पूजा वाला घी" बोला जाता हैं!
इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भण्डारे कराने वाले भक्तजन ही करते हैं! लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके अद्भूत पुण्य कमा रहे हैं!

इस "शुध्द देशी घी" को आप बिलकुल नहीं पहचान सकते! 
बढ़िया रवे दार दिखने वाला यह ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता हैं!

दिल्ली एनसीआर के शुद्ध भैंस के देसी घी के कथित ब्रांड ***रस व ***रम( कानूनी पक्ष को देखते हुए पूरा नाम अंकित नहीं किया गया है) इसे 20 25  वर्ष पहले से ही इस्तेमाल कर रहे हैं जानवरों की चर्बी को।

औधोगिक क्षेत्र में कोने कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं! शादियों पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता हैं! कुछ लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं! जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं, क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े (भैंस का नर बच्चा) की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो! शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना संभल पाते होंगे अनुमान सहज ही लगाया जा सकता हैं!
अब आप स्वयं सोच लो आप जो वनस्पति घी आदि खाते हो उसमें क्या मिलता होगा!
कोई बड़ी बात नहीं कि देशी घी बेंचने का दावा करने वाली बड़ी बड़ी कम्पनियाँ भी इसे प्रयोग करके अपनी जेब भर रही हैं!

इसलिए ये बहस बेमानी हैं कि कौन घी को कितने में बेच रहा हैं, 
अगर शुध्द घी ही खाना है तो अपने घर में गाय पाल कर ही शुध्द खा सकते हो, या किसी गाय भैंस वाले के घर का घी लेकर खाएँ, यही बेहतर होगा! आगे आपकी इच्छा..... विषमुक्त भारत।

पराग गर्ग

Gujrat 2002 Riots

शाब्बाश इंडियन एक्सप्रेस 

कल का सम्पादकीय "In SC's Name" और आज का प्रमुख लेख "Gujrat 2002 Riots" जिसे लीना मिश्रा और सोहिनी घोष ने लिखा है, सभी ने पढ़ना चाहिए. 

सुप्रीम कोर्ट को अगर अपनी गरिमा की सच में चिंता है तो इंडियन एक्सप्रेस द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब देना चाहिए. परसों सुप्रीम कोर्ट ने ना सिर्फ़ मोदी जी को एकदम झकास क्लीन चिट अर्पित की बल्कि गुजरात में हुई 2002 की बर्बरता झेल रहे लोगों के साथ खड़े होने वाले जन सरोकार रखने वाली बहादुर महिला टीस्ता सीतलवाद और अपने विवेक को गिरवीं ना रखने वाले पुलिस अधिकारी पर 'मिलजुल कर मुद्दे को हरा रखने और राज्य की छवि ख़राब करने की साजिश की, आदि' के आरोप लगाए, मानो जैसे पुलिस को इशारा ही दिया जा रहा हो. दोनों कोतुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. 

न्याय की मूर्तियों, उस तर्क से तो सुप्रीम कोर्ट खुद भी गुनहगार है. इन न्यायमूर्तियों के बारे में मौजूदा न्यायमूर्तियों की क्या राय है? इस लेख में दी गई सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियों का हिंदी अनुवाद इस तरह है. 

" बेस्ट बेकरी केस और बिलकिस बानो केस को गुजरात राज्य से बाहर शिफ्ट किया जाए क्योंकि न्याय नहीं हो रहा है..बेक़सूर बच्चे और महिलाएं जलाए जा रहे थे और आधुनिक नीरो दूसरी तरफ देख रहे थे..'बिगडैल बच्चों' को कानून के शिकंजे से बचाने की योजनाएं बना रहे थे..पूरी न्याय प्रणाली को अगवा कर लिया गया था, उसे तार तार किया जा रहा था, कुचला जा रहा था, विकृत किया जा रहा था, तोड़कर फेंका जा रहा था..सरकारी वकील जिसे क़सूरवारों को सज़ा दिलानी थी, आरोपियों के बचाव का वकील बन गया था..अदालतें मूक दर्शक बन रही थीं, गुजरात प्रशासन के रवैये में भी बहुत सी गंभीर कमियां थीं..डीजीपी साहब जब गवाह अपने बयानों से पलट रहे थे तो आपने एस पी से क्यों नहीं पूछा? पूछा था, सर, उन्होंने बताया की गवाहों को आरोपियों द्वारा 'जीत' लिया जा रहा है..अच्छा तो आपने पुलिस कमिश्नर से उस वक़्त पूछा जब सभी आरोपी रिहा हो गए!..दस मुकदमों को तुरंत रोक दिया जाए और उन्हें गुजरात से बाहर के राज्यों में भेजा जाए..एक सेल बनाई जाए और उन सभी मुकदमों को फिर से शुरू किया जाए जिनमें आरोपी रिहा हो चुके हैं..इनके अलावा सभी 2000 मुकदमों जिनमें फाइनल रिपोर्ट लग चुकी है, फिर से खोला जाए, सभी की गहन जाँच की जाए..जो भी एनजीओ इस काम में मदद करना चाहते हैं उन्हें ऐसा करने की छूट दी जाए, सभी मामलों की तह तक जाया जाए..धर्मांध लोग सबसे खतरनाक आतंकवादी होते हैं.."

Friday, 24 June 2022

बढ़ती महँगाई का असली कारण

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*बढ़ती महँगाई का असली कारण*
*गहराते पूँजीवादी आर्थिक संकट के दौर में समूचे पूँजीपति वर्ग द्वारा आपदा को अवसर में बदलकर जारी लूट और मुनाफ़ाख़ोरी*

✍ सम्पादकीय (जून, 2022)
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/15390
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अपनी सरकार के आठ साल बीतते-बीतते आखिरकार नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता को "अच्छे दिन" दिखला ही दिये! थोक महँगाई दर मई 2022 में 15.08 प्रतिशत पहुँच चुकी थी और खुदरा महँगाई दर इसी दौर में 7.8 प्रतिशत पहुँच चुकी थी। थोक कीमतों का सूचकांक उत्पादन के स्थान पर थोक में होने वाली ख़रीद की दरों से तय होता है, जबकि खुदरा कीमतों का सूचकांक महँगाई की अपेक्षाकृत वास्तविक तस्वीर पेश करता है, यानी वे कीमतें जिन पर हम आम तौर पर बाज़ार में अपने ज़रूरत के सामान ख़रीदते हैं। बढ़ते थोक व खुदरा कीमत सूचकांक का नतीजा यह है कि मई 2021 से मई 2022 के बीच ही आटा की कीमत में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। दूध रु. 50/लीटर व वनस्पति तेल औसतन रु. 200/लीटर का आँकड़ा पार कर रहे हैं। घरेलू रसोई गैस की कीमतों में 76 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है और वह करीब रु. 1010 प्रति सिलेण्डर की दर पर बिक रहा है। कॉमर्शियल रसोई गैस की कीमतों में 126 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है जो कि अब लगभग रु. 2400 पर बिक रहा है। मोदी सरकार ने हाल ही में विधानसभा चुनावों की समाप्ति के बाद पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी करते हुए दोनों के ही शतक लगवा दिये थे। लेकिन इसके बाद गुजरात व कुछ अन्य राज्यों में चुनावों के मद्देनज़र और पूँजीपति वर्ग के विचारणीय हिस्से को इसका नुकसान होने के कारण उसे करीब 10 रुपये तक घटा दिया। लेकिन फिर भी अभी पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी करों का बोझ है और वह सरकार द्वारा जनता की लूट का एक प्रमुख ज़रिया है। अगर हम 2017 से तुलना करें, तो चावल की कीमत में 24 प्रतिशत, गेहूँ की कीमत में 24 प्रतिशत, आटे की कीमत में 28 प्रतिशत, तूर/अरहर की कीमत में 21 प्रतिशत, मूँग की कीमत में 29 प्रतिशत और मसूर की कीमत में 32 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसी प्रकार खाद्य तेलों में मूँगफली के तेल में 41 प्रतिशत, सरसो तेल में 71 प्रतिशत, वनस्पति तेल में 112 प्रतिशत, सोयाबीन तेल में 101 प्रतिशत, सूरजमुखी तेल में 107 प्रतिशत और पाम तेल में 128 प्रतिशत की कीमत बढ़ोत्तरी हुई है। सब्जि़यों में इन्हीं पाँच वर्षों में आलू में 65 प्रतिशत, प्याज़ में 69 प्रतिशत, टमाटर में 155 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है, जबकि इन्हीं पाँच वर्षों में दूध की कीमत में 25 प्रतिशत, खुली चाय की कीमत में 41 प्रतिशत और नमक की कीमत में 28 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
दूसरी तरफ, आम मेहनतकश आबादी की आय में या तो गिरावट आयी है या फिर वह लगभग स्थिर है। अभी हालत यह है कि एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार अगर आप रु. 25,000 कमाते हैं तो आप भारत के ऊपरी 10 प्रतिशत आबादी में आते हैं! उजरती श्रमिकों का 57 प्रतिशत भारत में रु. 10,000 से कम कमाता है और समस्त उजरती श्रमिकों की बात करें तो उनकी औसत आय रु. 16,000 है। निश्चित तौर पर, इसमें सबसे कम कमाने वाले मज़दूर वे हैं जो कि अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और कुल मज़दूर आबादी का करीब 93 प्रतिशत बनते हैं। यानी, एक ओर महँगाई सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहीं दूसरी ओर आम मेहनतकश आबादी की औसत आमदनी विशेष तौर पर कोविड महामारी के बाद से या तो ठहरावग्रस्त है या फिर घटी है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के पहले नौ माह के दौरान ग्रामीण खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में मात्र 1.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, जबकि ग्रामीण गैर-खेतिहर वास्तविक मज़दूरी में 1.2 प्रतिशत की गिरावट आयी। भारत की राज्य सरकारों के कर्मचारियों की औसत वास्तविक आय में 2019 से 2021 के अन्त तक 6.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसी दौर में मनरेगा मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में मात्र 4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इसके अलावा, स्टॉक मार्केट में सूचीबद्ध 2800 कम्पनियों के कर्मचारियों की आय में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई, हालाँकि इसका बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय व उच्च मध्यवर्गीय कर्मचारियों के खाते में गया और आम मज़दूरों की मज़दूरी में बहुत ही कम बढ़ोत्तरी हुई। सबसे बुरी हालत अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की रही। कोविड महामारी के दौरान ही उनकी औसत मज़दूरी में बढ़ी बेरोज़गारी के कारण 22 प्रतिशत की गिरावट आयी थी। आज की हालत आप इससे समझ सकते हैं कि ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकरण करवाने वाले 28 करोड़ असंगठित मज़दूरों की औसत मज़दूरी रु. 10,000 प्रति माह से भी कम है।
*ऐसे में समझा जा सकता है कि बढ़ती महँगाई हम मेहनतकशों-मज़दूरों पर कैसा कहर बरपा कर रही है। हमें यह समझना चाहिए कि महँगाई कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है। न ही बेरोज़गारी कोई प्राकृतिक आपदा है। यह एक ऐसी व्यवस्था द्वारा पैदा होती हैं जिसके केन्द्र में मुट्ठी भर पूँजीपतियों का मुनाफ़ा होता है। जब हम पूँजीपतियों की बात करते हैं तो इसका अर्थ केवल टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अदानी जैसे बड़े पूँजीपति ही नहीं हैं, बल्कि बड़े दुकानदारों, ठेकेदारों, पूँजीवादी धनी किसान व कुलक भी पूँजीपति वर्ग में शामिल हैं। मौजूदा दौर में रिकॉर्ड-तोड़ महँगाई के पीछे भी यह समूचा पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता खड़ी है। पूँजीपतियों का मुनाफ़ा जारी मुनाफे के संकट के दौर में कायम रखा जा सके, इसके लिए संकट का बोझ आम मेहनतकश जनता पर डाला जा रहा है, उसकी मज़दूरी को कम करके पूँजीपतियों के मुनाफे की दर को कायम रखा जा रहा है। यही महँगाई के आम बुनियादी कारण हैं।* इस सम्पादकीय लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि वर्तमान महँगाई के मूल कारण किस प्रकार समूचे पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी और समूची पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता है।
लेकिन सबसे पहले उन ग़लत धारणाओं को समझना ज़रूरी है जो पूँजीपति वर्ग और उसके टट्टू हमारे बीच फैलाते हैं और जिसका शिकार कुछ मूर्ख बुद्धिजीवी भी हो जाते हैं।
*पहली ग़लत धारणा यह है कि महँगाई बढ़ने का मूल कारण मज़दूरी में बढ़ोत्तरी है या फिर यह कि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी की महँगाई बढ़ने में कोई भूमिका होती है।* मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में ही ट्रेडयूनियन नेता वेस्टन की इस दलील को तर्कों और तथ्यों समेत ख़ारिज कर दिखलाया था कि मज़दूरी बढ़ने से कीमतों के बढ़ने का कोई रिश्ता नहीं होता है। सामाजिक तौर पर, कीमतों का निर्धारण मालों के उत्पादन के लगने वाले सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम से निर्धारित होने वाले सामाजिक मूल्य से होता है। यह सही है कि हर माल अपने मूल्य पर नहीं बिकता और उसकी कीमत उसके मूल्य से ऊपर या नीचे हो सकती है और आम तौर पर होती ही है। इसका कारण मुनाफे की दर का औसतीकरण होता है। जिन सेक्टरों में मुनाफे की दर कम होती है, उनसे उन सेक्टरों की ओर पूँजी का प्रवाह होता है जहाँ मुनाफे की दर ज़्यादा होती है। जाहिर है, हर पूँजीपति अधिक से अधिक मुनाफा कमाना चाहता है, तो वह अपनी क्षमता के अनुसार उन सेक्टरों में पूँजी निवेश को प्राथमिकता देता है जिनमें मुनाफे की दर ज़्यादा होती है। ये समीकरण बदलते रहते हैं और इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था में अलग-अलग सेक्टरों के बीच पूँजी का आपसी प्रवाह सतत् जारी रहता है। नतीजतन, आपूर्ति और माँग के समीकरणों में बदलाव आता है और कीमतों में उतार-चढ़ाव आता रहता है। नतीजतन, माल अपने मूल्य से कम या ज़्यादा कीमत पर बिकते हैं।
कम मुनाफे की दर वाले सेक्टरों से अधिक मुनाफे की दर वाले सेक्टरों की ओर पूँजी का यह सतत् प्रवाह मुनाफे की दर का समूची अर्थव्यवस्था के स्तर पर औसतीकरण करता रहता है और इसके कारण ही मालों की उत्पादन कीमतें उनके सामाजिक मूल्य (यानी उनमें लगे सामाजिक श्रम की मात्रा) से कम या ज़्यादा होती हैं। बाज़ार में तात्कालिक तौर पर माँग और आपूर्ति के समीकरण में आने वाले बदलावों के चलते उत्पादन कीमतों में तात्कालिक उतार-चढ़ाव पैदा होते हैं, जिन्हें हम बाज़ार कीमतें कहते हैं। बाज़ार कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव अन्तत: एक-दूसरे को प्रति-सन्तुलित करते हैं। लेकिन अलग-अलग मालों के लिए बाज़ार कीमतों के सामाजिक मूल्य से ऊपर या नीचे होने के बावजूद समूची अर्थव्यवस्था के स्तर पर कुल कीमतों का योग कुल सामाजिक मूल्य के योग के बराबर ही रहता है क्योंकि अर्थव्यवस्था में कुल जितना मूल्य पैदा होता है, कुल मिलाकर उतना ही मूल्य बिक्री के ज़रिए वास्तवीकृत होता है।
*इसलिए मालों की कीमत मज़दूरी के बढ़ने की वजह से नहीं बढ़ती और न ही उनके घटने की वजह से घटती है। यदि मज़दूरी बढ़ती है और कुल मूल्य उत्पादन स्थिर होता है या वह मज़दूरी से कम रफ्तार से बढ़ता है तो बस यह होता है कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े की दर में गिरावट आती है। इसका उल्टा भी सच है; यानी यदि मज़दूरी घटती है और कुल मूल्य उत्पादन स्थिर रहता है या फिर मज़दूरी के घटने से कम रफ्तार से घटता है, तो मुनाफे की दर बढ़ती है।* इन बातों को आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है कि वस्तुओं की कीमतों के बढ़ने, यानी महँगाई के बढ़ने में मज़दूरी में होने वाली बढ़ोत्तरी का कोई योगदान नहीं होता है। उल्टे मज़दूर वर्ग द्वारा मज़दूरी को बढ़ाने की माँग पहले से बढ़ी महँगाई की प्रतिक्रिया होती है, न कि बढ़ती महँगाई बढ़ी हुई मज़दूरी की प्रतिक्रिया। कुछ "यथार्थवादी" मूर्खों का ऐसा मानना है कि पूँजीपति वर्ग की समूची लागत और कुछ नहीं बल्कि मज़दूरी है और यह कि बढ़ती महँगाई में कम ही सही मगर बढ़ती मज़दूरी की भी भूमिका है! यह मूर्खों का एक गिरोह है जो मार्क्सवाद के नाम पर मज़दूर वर्ग में मूर्खतापूर्ण बातें फैलाने की अपनी परियोजना में लगा हुआ है और 'यथार्थ' नामक पत्रिका निकालता है।
*दूसरी ग़लत धारणा यह है कि मौजूदा दौर में महँगाई के लिए केवल इजारेदार पूँजीपति वर्ग द्वारा इजारेदार कीमत द्वारा वसूला जाने वाला इजारेदार लगान जिम्मेदार है। यह भी भयंकर मूर्खतापूर्ण और नुकसानदेह सोच है जो कि बड़े इजारेदार पूँजीपतियों को छोड़कर बाकी पूँजीपतियों से मज़दूर वर्ग का मोर्चा बनाने की वर्ग सहयोगवादी नतीजे पर पहुँचती है और मज़दूर वर्ग की स्वतन्त्र राजनीति को भयंकर नुकसान पहुँचाती है।* पहले समझ लेते हैं कि इजारेदार पूँजीपति कौन होता है। इजारेदार पूँजीपति वह होता है जिसका अपने निवेश के क्षेत्र में पूर्ण या लगभग पूर्ण एकाधिकार होता है और इसलिए वह अपने माल की कीमत अपने माल के मूल्य से ऊपर रख सकता है। इसे इजारेदार कीमत कहते हैं। यह इजारेदारी किसी भी वजह से हो सकती है। मसलन, कोई कम्पनी कोई विशेष माल बनाती है जिसकी तकनोलॉजी केवल उसके पास ही है, या किसी खनिज के भण्डार पर यदि किसी पूँजीपति का एकाधिकार हो, या फिर राजनीतिक इजारेदार कीमत के ज़रिए किसी पूँजीपति या पूँजीपति वर्ग के किसी हिस्से को सरकार द्वारा निर्धारित इजारेदार कीमत के कारण इजारेदार लगान प्राप्त होता हो, जैसे कि भारत में पूँजीवादी धनी किसानों-कुलकों को लाभकारी मूल्य यानी एम.एस.पी. की इजारेदार कीमत के ज़रिए मिलने वाला इजारेदार लगान।
इजारेदार कीमत के बारे में भी तमाम तथाकथित मार्क्सवादियों जैसे कि 'यथार्थ' पत्रिका के बौड़म गिरोह की विचित्र समझदारी है। इनको लगता है कि इजारेदार पूँजीपति इजारेदार कीमत के तौर पर कोई भी मनमानी कीमत बाज़ार पर थोप सकता है। यह भयंकर मूर्खतापूर्ण बात है। वजह यह कि इजारेदार पूँजीपति भी इजारेदार कीमत को उस स्तर पर ही रख सकता है, जिस स्तर पर उसके इतने माल बिक सकें कि उसे अतिलाभ (यानी औसत मुनाफे से ऊपर मुनाफा) प्राप्त हो सके। दूसरे शब्दों में, जैसा कि मार्क्स ने बताया था, इजारेदार पूँजीपति भी मालों की कीमत मनमाने तरीके से नहीं रख सकते और यदि कोई रखता है तो बाज़ार उस पूँजीपति की अक्ल जल्द ही ठिकाने लगा देता है और उसे अनुशासित कर देता है! इजारेदार कीमत के लिए ऊपरी सीमा है इजारेदार पूँजीपति के माल के लिए बाज़ार में मौजूद प्रभावी माँग, यानी ऐसी माँग जिसके पीछे क्रय-क्षमता मौजूद है। दूसरे शब्दों में, उस माल को ख़रीदने की औक़ात रखने वाले पर्याप्त ख़रीदार। लेकिन केवल इजारेदार पूँजीपतियों को अकेले मज़दूर वर्ग की तक़लीफ़ों के लिए जिम्मेदार ठहराने वाले मूर्ख "मार्क्सवादी" राजनीतिक अर्थशास्त्र की इन बातों को नहीं समझते हैं और जाने-अनजाने इजारेदार पूँजीपति वर्ग के अतिरिक्त बाकी पूँजीपति वर्ग को दोषमुक्त कर देते हैं। इसका राजनीतिक नतीजा यह होता है कि वे पूँजीपति वर्ग के बाकी हिस्सों जैसे कि धनी व्यापारी, पूँजीवादी कुलक-फार्मर, छोटे पूँजीपतियों आदि के साथ मज़दूर वर्ग की दोस्ती और मोर्चे की बात करने लगते हैं। यह एक भयंकर सर्वहारा वर्ग विरोधी पूँजीवादी राजनीतिक लाइन है, जिसको बेनक़ाब करना और उसे नष्ट करना मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी ताक़तों का फ़र्ज है।
बहरहाल, जैसा कि हम आगे इस लेख में देखेंगे, मौजूदा दौर में, इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार कीमतों के ज़रिए वसूला जाने वाला इजारेदार लगान महँगाई का आधारभूत कारण नहीं है। वजह यह कि जिन भी मालों की कीमतों में हम सबसे ज़्यादा महँगाई देख रहे हैं, उनके उत्पादन के क्षेत्र में ऐसा एकाधिकार मौजूद ही नहीं है कि कोई इजारेदार पूँजीपति इजारेदार कीमत को बाज़ार पर थोप सके। हुआ यह है कि कोविड लॉकडाउन और उसके बाद यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया भर में लगभग सभी बुनियादी मालों व सेवाओं की आपूर्ति श्रृंखला के अस्त-व्यस्त और भंग होने के कारण महज़ इजारेदार पूँजीपति वर्ग के पास ही नहीं, बल्कि आम तौर पर समूचे पूँजीपति वर्ग के पास मालों और सेवाओं पर ऊँची कीमतें वसूलने की क्षमता आ गयी है जो कि सीधे तौर पर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजकता, युद्ध और मुनाफाखोरी के कारण माँग-आपूर्ति के समीकरण में पैदा हुए भारी असन्तुलन का ही परिणाम है।
संक्षेप में, *मज़दूरी का बढ़ना दामों के बढ़ने का कारण नहीं है और न ही महज़ इजारेदार पूँजीपति वर्ग महँगाई का अकेले जिम्मेदार है, बल्कि समूचा पूँजीपति वर्ग ही मौजूदा आपदा को अवसर में बदलने में लगा है और आपूर्ति श्रृंखलाओं के टूटने और माँग-आपूर्ति के समीकरण में आपूर्ति की तुलना में माँग की सापेक्षिक बढ़ोत्तरी के कारण बढ़ी हुई कीमतों का लाभ उठा रहा है, जमाखोरी करके कीमतों को बढ़ा रहा है, सट्टेबाज़ी कर रहा है और समूचे मेहनतकश वर्ग को लूटने में लगा हुआ है।*
मौजूदा दौर में अभूतपूर्व रूप से महँगाई के बढ़ने की इन ग़लत व्याख्याओं के खण्डन के बाद अब हम सकारात्मक तौर पर समझते हैं कि महँगाई के मौजूदा दौर में सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करने के पीछे प्रमुख आधारभूत कारण क्या हैं।
*महँगाई की वर्तमान लहर के पीछे मूलत: निम्न प्रमुख मूलभूत कारण मौजूद हैं:
पहला है पिछले डेढ़ दशकों से मुनाफे की गिरती औसत दर का संकट जिससे विश्व पूँजीवादी व्यवस्था लाख दावों के बावजूद उभरती नज़र नहीं आ रही है। कोविड महामारी और उसके कारण थोपे गये कुप्रबन्धित लॉकडाउन के पहले से ही भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ मुनाफे की गिरती औसत दर के संकट से जूझ रहीं थीं। मुनाफ़े की गिरती औसत दर का संकट पूँजीपति वर्ग की ही मुनाफ़े की अन्धी हवस से पैदा होता है। पूँजीपति वर्ग आपसी प्रतिस्पर्द्धा में भी लगा होता है और मज़दूर वर्ग से नये मूल्य में अपने यानी मुनाफे के हिस्से को बढ़ाने की होड़ में भी लगा होता है।*
पूँजीपतियों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा होती है बाज़ार के बड़े से बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करना। जो पूँजीपति अपनी लागत को न्यूनातिन्यून करके अपनी कीमतों को ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बना सकता है, वही अपने प्रतिद्वन्द्वियों को प्रतिस्पर्द्धा में पीछे छोड़कर बाज़ार के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर सकता है और अपने मुनाफे को बढ़ा सकता है। इसके लिए पूँजीपति वर्ग श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी व मशीनें लगाता है ताकि माल के उत्पादन की प्रति इकाई लागत को घटाया जा सके। जो पूँजीपति अन्य पूँजीपतियों को इसमें पीछे छोड़ता है, वह तात्कालिक तौर पर अपने माल को अन्य पूँजीपतियों की औसत लागत से कम लागत पर पैदा करता है और उनके औसत दाम से कुछ कम दाम पर बेच सकता है। ऐसे में, उसे तात्कालिक तौर पर एक बेशी मुनाफ़ा मिलता है क्योंकि बाज़ार कीमतें उत्पादन की औसत स्थितियों से तय होती हैं, जबकि इस पूँजीपति की उत्पादन की स्थितियाँ बेहतर होती हैं और इसलिए लागत अन्य पूँजीपतियों से कम होती है। जो पूँजीपति प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ते हैं, तबाह न होने की सूरत में, कालान्तर में वे भी उन्नत तकनोलॉजी व मशीनें लगाते हैं और अपनी लागत को कम करते हैं। अन्तत:, तकनोलॉजी के मामले में पैदा हुआ अन्तर समाप्त हो जाता है और पहले आगे निकलने वाले पूँजीपति का बेशी मुनाफ़ा भी समाप्त हो जाता है। प्रतिस्पर्द्धा की यह पूरी प्रक्रिया समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में सतत् जारी रहती है। लेकिन मुनाफे को अधिकतम बनाने की अलग-अलग पूँजीपतियों की यह प्रतिस्पर्द्धा ही अन्त में समूची पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की मुनाफे की औसत दर को गिराती है। कारण यह कि नया मूल्य और बेशी मूल्य (जो कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफे का स्रोत होता है) केवल जीवित श्रम से ही पैदा होता है। मशीनें, कच्चा माल, इमारतें आदि नया मूल्य नहीं पैदा करतीं। वे केवल अपना मूल्य माल के मूल्य में स्थानान्तरित करती हैं। जब समूची अर्थव्यवस्था में पूँजीपति वर्ग की आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण जीवित श्रम पर पूँजी निवेश सापेक्षिक तौर पर मृत श्रम यानी मशीनों, कच्चे माल आदि पर निवेश के मुकाबले कम होता है, तो मुनाफे की औसत दर में अन्तत: गिरावट आती है। यही नियमित अन्तरालों पर बार-बार आने वाले पूँजीवादी संकट का मूल कारण होता है।
इसके अलावा, समूचा पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग से भी प्रतिस्पर्द्धा में लगा होता है। यह प्रतिस्पर्द्धा होती है नये मूल्य में अपने हिस्से को बढ़ाने की। मशीनों, कच्चे माल आदि द्वारा पहले से उत्पादित मूल्य बस माल में स्थानान्तरित होते हैं, जबकि जीवित श्रम ख़र्च होने की प्रक्रिया में यानी मज़दूर उत्पादन करने की प्रक्रिया में अपनी श्रमशक्ति के मूल्य बराबर मूल्य पैदा करने के अलावा पूँजीपति के लिए बेशी मूल्य भी पैदा करते हैं। इसलिए नये उत्पादित मूल्य के दो ही हिस्से होते हैं: मज़दूरी और मुनाफ़ा। यदि मज़दूरी बढ़ती है, तो अन्य स्थितियों के समान रहने पर, मुनाफ़ा घटता है और यदि मुनाफ़ा बढ़ता है, तो अन्य स्थितियों के समान रहने पर, मज़दूरी घटती है। मज़दूर अपनी मज़दूरी को बढ़ाने के लिए संघर्ष करते हैं। पूँजीपति वर्ग उनकी मोलभाव की क्षमता को कम करने के लिए उन पर निर्भरता को घटाने का प्रयास करता है और उन्नत मशीनें व तकनोलॉजी लगाकर उनकी संख्या को सापेक्षिक तौर पर कम करता है। यानी प्रति यंत्र श्रमिक संख्या को घटाता है। इसके कारण भी उत्पादन की प्रक्रिया में जीवित श्रम सापेक्षत: कम होता जाता है और मृत श्रम पर निवेश बढ़ता जाता है, जो कि उन्हीं कारणों से मुनाफे की औसत दर को अन्तत: गिराता है, जिनका हमने ऊपर जिक्र किया है।
जब मुनाफे की औसत दर गिरती है, तो पूँजीपति वर्ग द्वारा निवेश की दर भी कम होती है क्योंकि पूँजीपति समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उत्पादन में निवेश नहीं करता है, बल्कि मुनाफे के लिए करता है। ऐसे में पूँजीपति वर्ग उत्पादन में निवेश करने की बजाय अपने पूँजी के आधिक्य को सट्टेबाज़ी और शेयर बाज़ार में खपाता है। निवेश की दर कम होने के साथ छँटनी होती है, नयी भर्तियाँ बेहद कम हो जाती हैं और नतीजतन रोज़गार की दर में कमी आती है। रोज़गार की दर में कमी आने के कारण मज़दूरों की रिज़र्व सेना मज़दूरों की सक्रिय सेना की तुलना में बढ़ती है और जैसे-जैसे श्रम की माँग के सापेक्ष श्रम की आपूर्ति बढ़ती है वैसे-वैसे औसत मज़दूरी में कमी आती है। औसत मज़दूरी में कमी आने के साथ-साथ, संकट के दौर में निवेश में कमी के साथ तमाम मालों व सेवाओं की आपूर्ति भी माँग की तुलना में घट सकती है। नतीजतन, उनकी बाज़ार कीमतों में बढ़ोत्तरी आ सकती है। इतना स्पष्ट है कि संकट के कारण मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में कमी आती है और उनके लिए महँगाई की दर में बढ़ोत्तरी होती है।
मौजूदा दौर में *कमरतोड़ महँगाई का दूसरा कारण, जिसने पहले से मुनाफे की गिरती औसत दर का संकट झेल रही पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को मन्दी के भँवर में और बुरी तरह से फँसा दिया, वह था 2019 में कोविड महामारी और उसके बाद दुनिया के अधिकांश देशों में पूँजीपति वर्ग द्वारा थोपे गये अनियोजित किस्म के लॉकडाउन। इन लॉकडाउनों ने पूरी दुनिया में पूँजीवादी उत्पादन और सर्कुलेशन की व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया। इसके कारण आपूर्ति श्रृंखलाएँ लगभग सभी क्षेत्रों में ही बाधित हुईं। इसके कारण बाज़ार में अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं की माँग और आपूर्ति में एक भारी असन्तुलन पैदा हुआ जिसके कारण उनकी कीमतें बढ़ने लगीं। लॉकडाउन के खुलने के साथ अचानक माँग में और भी वृद्धि आयी, जबकि उत्पादन और सर्कुलेशन की प्रक्रिया अभी सुचारू रूप से गति नहीं पकड़ पायी थी। खाद्य तेलों की कीमतों में पिछले वर्ष आया ज़बर्दस्त उछाल और उसमें अब तक बनी हुई तेज़ी के पीछे मूल कारण यही था।* चीन की अर्थव्यवस्था के लॉकडाउन के खुलने के बाद वनस्पति तेलों की वैश्विक माँग में भारी कमी आयी थी, जबकि विश्व भर में वनस्पति तेलों के प्रमुख उत्पादक देशों में उत्पादन अभी गति नहीं पकड़ पाया था। नतीजतन, आपूर्ति माँग के सापेक्ष काफी कम हो गयी और वैश्विक बाज़ार में इसकी कीमतों में उछाल आया। भारत में इनकी कीमतों में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी होने का एक कारण यह था कि भारत के तिलहन उत्पादक धनी किसानों व कुलकों तथा वनस्पति तेल उत्पादक पूँजीपतियों के दबाव के कारण वनस्पति तेल के आयात पर भारत सरकार ने 35 से 40 प्रतिशत तक का आयात शुल्क लगा रखा था, जिसे सरकार ने अभी हाल ही में कम किया है। ऊपर से भारत अपने खाद्य तेल उपभोग के 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा के लिए आयात पर निर्भर है। नतीजतन, विश्व बाज़ार में कीमतों में पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता और पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी के कारण आये उछाल का असर भारत में खाद्य तेलों की कीमत पर काफी ज़ोरदार तरीके से पड़ा। इसी प्रकार अन्य कई बुनियादी आवश्यक उत्पादों की कीमतों में वृद्धि का एक तात्कालिक कारण कोविड महामारी के पूरे दौर में आपूर्ति श्रृंखलाओं का टूटना था। ठीक इसी दौर में पूँजीपतियों ने मालों की कीमत को अधिक बढ़ाने का काम किया क्योंकि बढ़ी सापेक्षिक माँग के कारण उनके पास यह क्षमता थी कि वे अपने मालों पर ऊँची कीमतें वसूल सकते थे।
*यहाँ दो बातें ग़ौर करने लायक हैं। पहला यह कि यह काम केवल बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग ने नहीं किया बल्कि पूँजीवादी कुलकों-फार्मरों, व्यापारियों व बिचौलियों समेत सभी पूँजीपतियों ने किया। पूँजीपति इसी प्रकार आपदा को अवसर में बदलते हैं। दूसरा यह कि महँगाई का आधारभूत कारण इजारेदार कीमतें नहीं थीं, बल्कि सापेक्षिक माँग में अनपेक्षित बढ़ोत्तरी के कारण कीमतों में आया उछाल था।* यह प्रक्रिया चीन में हाल ही में लगे दूसरे लॉकडाउन के दौर तक जारी रही है और अभी भी जारी है।
*तीसरा कारण, जिसने बहुत से बुनियादी मालों की आपूर्ति श्रृंखलाओं को और भी ज़्यादा बाधित किया वह है रूस-यूक्रेन युद्ध। रूस तेल व प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करने वाला एक प्रमुख देश है। यूरोप के अधिकांश देश अपनी ऊर्जा-सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए रूस से आपूर्ति पर निर्भर करते हैं। रूस से आपूर्ति के बाधित होने के कारण विश्व बाज़ार में तेल व प्राकृतिक गैस की कीमतों में उछाल आया है। तेल व प्राकृतिक गैस की कीमतों में उछाल का अर्थ है सभी मालों की कीमतों में उछाल क्योंकि ये उत्पाद कई अन्य उत्पादों के उत्पादन में कच्चे माल के रूप में शामिल होते हैं और साथ ही परिवहन की पूरी व्यवस्था इन पर निर्भर करती है। लिहाज़ा हर वस्तु के परिवहन की लागत में भी भारी बढ़ोत्तरी हुई जिसके कारण सभी मालों व सेवाओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी हुई है।* इसके अलावा, रूस और यूक्रेन मिलकर दुनिया भर में गेहूँ की आपूर्ति के बड़े हिस्से के लिए उत्तरदायी हैं। यूक्रेन सूरमुजखी और मक्के का भी भारी पैमाने पर निर्यात करता है। युद्ध ने विश्व बाज़ार में इन खाद्य मालों की आपूर्ति में भी भारी कमी लायी जिसके कारण इन बुनियादी मालों की कीमतों में भी भारी उछाल आया है। इसके कारण, समूचा पूँजीपति वर्ग ही तमाम देशों में इसका फ़ायदा उठा रहा है। भारत में भी गेहूँ उत्पादन करने वाले पूँजीवादी कुलकों-फार्मरों ने लाभकारी मूल्य पर गेहूँ सरकारी मण्डी में बेचने की बजाय खुले बाज़ार में 30 से 40 प्रतिशत ऊपर कीमतों पर बेचा। वहीं व्यापारियों व बिचौलियों ने ऊँची कीमतों पर निर्यात की उम्मीद में गेहूँ की बड़े पैमाने पर जमाखोरी की। इस साल गेहूँ के उत्पादन में भी गर्मी की भीषण लहर के कारण कमी आयी और वह अनुमान से कम रहा। पहले मोदी ने दुनिया के अन्य पूँजीवादी देशों को आश्वासन दिया कि रूस और यूक्रेन से गेहूँ की आपूर्ति में जो कमी आयी है, उसे "विश्व गुरू" भारत पूरा करेगा! लेकिन जब गेहूँ के उत्पादन में कमी आयी, सरकारी ख़रीद में कमी आयी और देश में गेहूँ व आटे के दाम आसमान छूने के कारण सामाजिक असन्तोष पैदा हुआ, तो "विश्व गुरू" की हवा निकल गयी! इसके बाद मोदी द्वारा देश में गेहूँ की कमी का ख़तरा पैदा होने पर गेहूँ के निर्यात पर रोक लगाने की नौटंकी की गयी। लेकिन इसके बावजूद ये व्यापारी और बिचौलिये अभी भी गेहूँ की जमाखोरी करके बैठे हैं और घरेलू बाज़ार में कीमतों को ऊँचा करने में लगे हुए हैं। सरकारी ख़रीद कम होने के कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए गेहूँ के वितरण में भी कमी आयी है और नतीजतन गेहूँ और आटे की कीमत घरेलू बाज़ार में भी काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है। खाद्यान्न के व्यापार व संसाधन में लगे बड़े पूँजीपति भी इसका पूरा फ़ायदा उठाने में लगे हुए हैं। गेहूँ व अन्य खाद्यान्न समेत सब्जियों व खाद्य तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी की मार सीधे सबसे ग़रीब मेहनतकश आबादी पर पड़ रही है। पूँजीपति वर्ग के लिए भी एक स्तर तक मुद्रास्फीति का बढ़ना अच्छा होता है। लेकिन जब यह एक सीमा से ऊपर जाती है, तो यह मज़दूरी को बढ़ाने का दबाव भी पैदा करता है जो कि उनके मुनाफे की औसत दर में गिरावट ला सकता है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने गेहूँ के निर्यात पर पाबन्दी लगा दी ताकि गेहूँ की कीमतों पर नियन्त्रण पाया जा सके। साथ ही, वनस्पति तेलों पर लगने वाले आयात शुल्क में भी कमी की गयी है ताकि वनस्पति तेलों का सस्ता आयात किया जाये क्योंकि भारत अपनी खाद्य तेल आवश्यकताओं के 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्से के लिए आयात पर निर्भर है। लेकिन फिलहाल मोदी सरकार के ये कदम कामयाब नहीं हो रहे हैं क्योंकि पूँजीपति वर्ग की मुनाफ़ाखोरी हमेशा पूँजीवादी सरकार के नियन्त्रण में नहीं रहती और इसके अलावा स्वयं पूँजीपति वर्ग बाज़ार को नियन्त्रित नहीं करता है बल्कि बाज़ार की अपनी एक गति होती है जो पूँजीपति वर्ग को नियन्त्रित करती है।
*महँगाई का भारत में चौथा और कुछ मायने में सबसे अहम कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले भारी कर और शुल्क हैं।* जनता को एक लीटर पेट्रेाल व डीज़ल पर पिछले एक वर्ष में 27 से लेकर 32 रुपये तक टैक्स देना पड़ा है। यानी पेट्रेाल व डीज़ल की कीमतों पर 30 से 40 प्रतिशत जनता केवल टैक्स के रूप में पूँजीवादी सरकार को चुकाती है। दिसम्बर 2021 के आँकड़े के अनुसार, भारत सरकार ने 2018 से 2021 के बीच तीन वित्तीय वर्षों में इन टैक्सों के ज़रिए रु. 8 लाख करोड़ की भारी कमाई की। पूँजीवादी सरकार व नेताशाही द्वारा इस मुनाफ़ाखोरी के ज़रिए देश की जनता की जेब पर भारी डाका डाला जाता है। यह देश के आर्थिक अधिशेष से सरकार द्वारा निचोड़ा जाने वाला कर है जिसका बोझ सीधे सबसे ग़रीब जनता पर पड़ता है। *इसके कारण, देश में सभी वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन की लागत में बढ़ोत्तरी होती है और इस बढ़ोत्तरी को पूँजीपति अपनी जेब से नहीं चुकाते हैं बल्कि अपने माल की कीमत में स्थानान्तरित करते हैं। नतीजतन, देश में आम तौर पर महँगाई का सबसे प्रमुख कारण पेट्रोलियम उत्पादों पर वसूला जा रहा भारी कर है।* अभी हाल ही में मोदी सरकार ने पेट्रेाल व डीज़ल के दामों में करीब 10 रुपये की कटौती की है। इसका एक बुनियादी आर्थिक कारण यह है कि एक सीमा से ज़्यादा मुद्रास्फीति पूँजीपति वर्ग के लिए भी अच्छी नहीं होती है, जिसकी व्याख्या हम ऊपर कर चुके हैं। लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका प्रमुख कारण है गुजरात और हिमाचल प्रदेश और बाद में कर्नाटक जैसे राज्यों में करीब आ रहे विधानसभा चुनाव। इन दोनों आर्थिक व राजनीतिक कारणों से मोदी सरकार ने पेट्रोल व डीज़ल के दामों में कटौती की है। लेकिन इसकी वजह से महँगाई में जो कमी आती है, पूँजीपति वर्ग उसका भी इस्तेमाल मज़दूर वर्ग की मज़दूरी को कम करने के लिए करता है।
इसके अलावा, पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों का एक स्कूल मुद्रा की आपूर्ति को महँगाई के बढ़ने-घटने का प्रमुख कारण मानता है। इस स्कूल को मॉनिटरिस्ट या मौद्रिकतावादी स्कूल कहा जाता है। मूलत: उसका मानना है कि मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने पर महँगाई बढ़ती है क्योंकि तब मुद्रा का अवमूल्यन हो जाता है, जबकि मुद्रा की आपूर्ति को घटाने पर महँगाई कम होती है क्योंकि मुद्रा का मूल्य बढ़ता है। अधिकांश पूँजीवादी देशों के केन्द्रीय सरकारी बैंक इस मूर्खतापूर्ण अवधारणा पर अमल करते हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी हाल ही में ब्याज़ दर बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में तरलता यानी मुद्रा की मात्रा को नियंत्रित करने का रास्ता अख्तियार किया है। लेकिन इतिहास गवाह है कि मुद्रा की आपूर्ति अन्तत: वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था द्वारा नियंत्रित होती है न कि वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था मुद्रा की आपूर्ति से निर्धारित होती है। 2008-09 में जब आर्थिक संकट के कारण दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में तरलता की कमी आयी थी तो स्टिम्युलस पैकेज देने के नाम पर अधिकांश देशों में केन्द्रीय बैंकों ने बड़े पैमाने पर मुद्रा बाज़ार में डाली थी। लेकिन इसके कारण आम तौर पर महँगाई में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी, उल्टे मुद्रास्फीति की दर में अमेरिका और यूरोप के प्रमुख पूँजीवादी देशों में कमी आयी थी। केवल स्टॉक बाज़ार में स्टॉकों की कीमत बढ़ी थी और अचल सम्पत्ति यानी रियल एस्टेट में कीमतों में उछाल आया था क्योंकि यह सारी अतिरिक्त मुद्रा सट्टेबाज़ी में गयी थी न कि उत्पादक अर्थव्यवस्था में। कागज़ी नोटों के रूप में मुद्रा की आपूर्ति बढ़ने या घटने का कीमतों पर केवल तात्कालिक तौर पर ही कुछ प्रभाव पड़ सकता है। आखिरकार यह वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था की स्थिति और गति होती है जो कि मालों की कीमतों, यानी आम तौर पर महँगाई के स्तर का निर्धारण करती है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मुद्रा की आपूर्ति को नियंत्रित करने का भी बस इतना ही असर पड़ेगा कि पूँजी बाज़ार में ऋण की कीमत बढ़ेगी, जो कि निवेश की दर में और भी कमी लायेगी, बेरोज़गारी को और बढ़ाएगी, कुल घरेलू माँग में कमी आने के साथ अर्थव्यवस्था संकट के भँवर में और भी बुरी तरह से उलझेगी।
इसी प्रकार पूँजीवाद को पूँजीवाद से बचाने के प्रयासों में लगा जॉन मेनॉर्ड कींस के शिष्यों का भी एक स्कूल है जिसके अनुसार महँगाई बढ़ने का कारण रोज़गार की दर ऊँची होना है, जो कि औसत मज़दूरी को बढ़ा देता है और इस प्रकार लागत को बढ़ाकर दामों को बढ़ा देता है! हम पहले ही देख चुके हैं कि इस सिद्धान्त का सच्चाई से कोई रिश्ता नहीं है। 1970 के दशक में शुरू हुई मन्दी के दौरान भी हमने देखा है और इक्कीसवीं सदी की पहली महामन्दी के पूरे दौर में भी हम देख रहे हैं कि महँगाई की ऊँची दरें रोज़गार व औसत मज़दूरी की ऊँची दरों के कारण नहीं पैदा हुई हैं, उल्टे महँगाई की ऊँची दरों के साथ हम अर्थव्यवस्था के ठहराव, बेरोज़गारी और घटती औसत मज़दूरी दर के साक्षी बन रहे हैं। जैसा कि मार्क्स ने बताया था, अन्य कारकों के समान रहने पर, ऊँची मज़दूरी केवल निम्न मुनाफ़े की दर का कारण बनती है, न कि दामों के बढ़ने का। इस बात को आर्थिक आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है। कींसवादियों और मौद्रिकतावादियों की इन ग़लत व्याख्याओं का वर्गीय प्रकार्य है बेरोज़गारी और महँगाई के लिए पूँजीवाद को दोषमुक्त किया जाय और इसका बोझ मज़दूर वर्ग या मौद्रिक नीति पर डालकर पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता, मुनाफ़ाखोरी और मानवद्रोही चरित्र को छिपाया जाय। अफ़सोस और विडम्बना की बात है कि कई तथाकथित मार्क्सवादी भी महँगाई और बेरोज़गारी की इन छद्म व्याख्याओं से प्रभावित हो जाते हैं और उन्हें मार्क्सवादी व्याख्याओं के रूप में पेश करते हैं।
*ऊपर हमने जिन चार कारणों का जिक्र किया है वे महँगाई में मौजूदा दौर में आयी ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी के लिए मुख्यत: और मूलत: जिम्मेदार हैं। ये पूँजीवादी व्यवस्था की देन है न कि कोई प्राकृतिक आपदा।* पूँजीवादी व्यवस्था में वस्तुओं का उत्पादन समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं किया जाता। उनका उत्पादन मालों के रूप में होता है और उत्पादन का मकसद होता है मुट्ठी भर पूँजीपतियों और धन्नासेठों का मुनाफ़ा, जिनका उत्पादन के साधनों पर मालिकाना होता है। एक ऐसी व्यवस्था में समाज की आवश्यकताओं का आकलन कर योजनाबद्ध तरीके से श्रम का आबण्टन कर उत्पादन नहीं किया जाता। पूँजीपति वर्ग आपस में अधिक से अधिक मुनाफ़े के लिए प्रतिस्पर्द्धा करता है और सामाजिक तौर पर अराजकतापूर्ण तरीके से सभी मालों का उत्पादन होता है। यह व्यवस्था नियमित अन्तराल पर इसी मुनाफे की हवस के कारण मुनाफे की गिरती औसत दर के संकट की शिकार होती है जिसका ख़ामियाजा भी सबसे ज़्यादा मेहनतकश आबादी को ही उठाना पड़ता है। निश्चित तौर पर, ऐसे संकट के दौर में छोटे और मँझोले पूँजीपति तबाह होते हैं, कुछ बड़े पूँजीपति भी तबाह होते हैं, पूँजी कम से कम हाथों में केन्द्रित होती है और इसी की प्रतिसन्तुलनकारी गति के तौर पर कुछ नये बड़े पूँजीपति भी पैदा होते हैं और पूँजीवादी घरानों के टूटने के कारण भी नये पूँजीपति पैदा होते हैं। नतीजतन, पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी के एकाधिकारीकरण की प्रक्रिया हमेशा एक रुझान के तौर पर मौजूद रहती है और वह कभी पूर्ण एकाधिकारीकरण तक नहीं पहुँच सकती है। बिना प्रतिस्पर्द्धा के पूँजीवाद सम्भव ही नहीं है और एकाधिकारीकरण बढ़ने के साथ भी प्रतिस्पर्द्धा समाप्त नहीं होती, बल्कि बड़े पूँजीपतियों के बीच और भी अधिक तीखी और हिंस्र होती जाती है। यही कारण है कि आम तौर पर समूची अर्थव्यवस्था में महँगाई के बढ़ने का कारण मूलत: और मुख्यत: कभी इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार कीमतों के ज़रिए लूटा जाने वाला इजारेदार लगान नहीं होता है। इजारेदार लगान के ज़रिए समूची पूँजीवादी व्यवस्था के पैमाने पर केवल दो चीज़ें होती हैं: पहला, अन्य सेक्टरों से इजारेदारी वाले सेक्टरों में मूल्य का स्थानान्तरण और दूसरा, आम मेहनतकश जनता की औसत कमाई में एक सीमा तक कटौती। पूरी अर्थव्यवस्था के पैमाने पर उतना मूल्य ही वास्तवीकृत हो सकता है, जितना कि पैदा होता है। आज के दौर में भी *महँगाई का कारण कुछ इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा इजारेदार लगान की वसूली नहीं है बल्कि आर्थिक संकट के दौर में, जो कि कोविड व युद्ध जैसे बाह्य कारणों के चलते और भी गहरा गया है, पूँजीपति वर्ग द्वारा आपदा को अवसर में बदला जाना है। और यह काम केवल बड़े पूँजीपति नहीं कर रहे हैं, बल्कि धनी किसानों-कुलकों, व्यापारियों, आढ़तियों, बिचौलियों जैसे छोटे व मँझोले पूँजीपतियों से लेकर अदानी, अम्बानी आदि जैसे बड़े पूँजीपतियों तक, समूचे पूँजीपति वर्ग द्वारा किया जा रहा है।*
जब संकट के दौर में कुल उत्पादित नये मूल्य में मज़दूरी का हिस्सा बढ़ती बेरोज़गारी, मज़दूर अधिकारों पर हमले और पूँजीपति वर्ग द्वारा वास्तविक मज़दूरी को घटाये जाने के कारण घटता है, तो मुनाफे का हिस्सा जाहिरा तौर पर बढ़ता है। यदि कुल उत्पादित नया मूल्य घट भी रहा हो, यानी उत्पादन में संकट के दौर में कमी भी आ रही हो, तो भी बेरोज़गारी व मज़दूरों की बढ़ती रिजर्व सेना के कारण औसत मज़दूरी में कमी आने की सूरत में मुनाफे का हिस्सा सापेक्षिक तौर पर और निरपेक्ष तौर पर भी बढ़ सकता है। मौजूदा संकट के दौर में यह हुआ भी है। कुल नये उत्पादित मूल्य में (जो कि अभी भी कोविड महामारी के पहले के स्तर से काफी कम है) मज़दूरी के हिस्से में भारी कमी आने के कारण मुनाफे का हिस्सा बढ़ा है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह हिस्सा इजारेदार पूँजीपतियों के लिए ही बढ़ा है या फिर यह उनके द्वारा इजारेदार लगान वसूलने के कारण बढ़ा है। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि मुनाफे की गिरती औसत दर के कारण निवेश की दर में कमी और बेरोज़गारी में बढ़ोत्तरी व मज़दूर वर्ग के अधिकारों पर हमले के फलस्वरूप औसत मज़दूरी में आयी कमी है। इसके साथ, बाह्य कारणों के चलते उत्पादन व आपूर्ति में कमी ने मालों की बाज़ार कीमतों को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। लिहाज़ा, कुल उत्पादित नये मूल्य के कोविड पूर्व स्तर से अभी भी पर्याप्त नीचे होने के बावजूद भी मुनाफे का उसमें हिस्सा मज़दूरी की तुलना में बढ़ा है, मज़दूर वर्ग की औसत आय में कमी आयी है और नतीजतन आम मेहनतकश आबादी के लिए महँगाई विशेष तौर पर बढ़ी है। साथ ही, आर्थिक संकट और कोविड व युद्ध के बाह्य झटकों के कारण आपूर्ति श्रृंखलाओं के बाधित होने के कारण भी आम तौर पर सभी मालों की कीमतों में बढ़ोत्तरी आयी है और इसका बोझ भी सबसे ज़्यादा मेहनतकश जनता को उठाना पड़ रहा है, जबकि समूचा पूँजीपति वर्ग इस आपदा को अवसर में तब्दील करने में लगा हुआ है।
यह मौजूदा दौर में महँगाई के अभूतपूर्व रूप से बढ़ने के मूल कारण हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की अराजकता और मुनाफ़ाखोरी के कारण ऐसे दौर पूँजीवादी व्यवस्था में आते ही रहते हैं और हर बार उसका बोझ मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता पर ही पड़ता है। ऐसी व्यवस्था में आप और किसी बात की उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं। इस आर्थिक अनिश्चितता और सामाजिक असुरक्षा से समाजवादी व्यवस्था ही मज़दूर वर्ग और आम जनता को निजात दिला सकती है।
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Thursday, 23 June 2022

जाति को सबसे बड़ा झटका तो वर्ग संघष से ही लगा -दीपंकर भट्टाचार्य,महासचिव,भाकपा माले


• लोहियावादी विमर्श में तो सबसे ज्यादा जाति की बात हावी है।
*सोशल इंजीनियरिंग से जाति प्रथा को फिर से नई जिंदगी मिल गई।
*अम्बेडकर के अनुसार- एक दौर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का गठबंधन था।
*फिर दूसरे दौर में ब्राह्मण और बनिया का गठबंधन था।
*लेकिन आज के दौर को क्या कहिएगा?
*नरेंद्र मोदी भी ब्राह्मण नहीं हैं।

अब आप देखिये कि हमने क्या बातें उठाई. हमने कहा कि सामंतवाद को खत्म करना है. सामंतवाद का एक भौतिक आधार है पूरे देश में जो भूमि संबंध कायम है, वह सामंतवाद का भौतिक आधार है. इस जमीन के सवाल को छोड़ करके, सिर्फ अगर हम ब्राह्मणवाद की बात करेंगे, मनुवाद की बात करेंगे, तो मनुवाद से आज के दौर का सामंतवाद समझ में नहीं आएगा. बिहार में हमारी लड़ाई शुरू हुई तो सबसे पहले जिस सेना से हमें टकराना पड़ा, वह भूमि सेना थी. वह कोई ब्राह्मणों की सेना नहीं थी, कोई मनुवादी सेना नहीं थी. वह कुर्मी जमींदारों की, धनी किसानों की, कुलकों की सेना थी. कभी आपको टकराना पड़ा लोरिक सेना से, जरूर आपको रणवीर सेना से भी टकराना पड़ा, ब्रह्मर्षि सेना से भी टकराना पड़ा. अतः आज पूरे भारत में सामंतवाद को समझने के लिए, सामंती अवशेष इतना मजबूत कैसे हैं, इसे समझने के लिए यह समझना होगा कि किन लोगों को जमींदारी उन्मूलन का सबसे ज्यादा फायदा मिला. जो भी थोड़ा-बहुत भूमि सुधार हुआ, उससे एक बड़ा धनी किसानों का तबका उभरा, नए जमींदारों का तबका उभरा, उसको अगर आप नहीं समझ पाएंगे, बस मनुवाद - मनुवाद चिल्लाते रहेंगे, उससे कोई खरोंच तक नहीं आएगी, उससे पूरे देश में जो सामंती व्यवस्था है, वह जैसी है वैसी ही बनी रहेगी.
तो यह एक बड़ा सवाल है, तथाकथित अम्बेडकरवादी विमर्श में, तथाकथित लोहियावादी विमर्श में इस पूरे भौतिक आधार को आर्थिक आधार को छोड़ दिया जाता है, और आर्थिक आधार को, भौतिक आधार को छोड़ करके आप सिर्फ जाति की बात करने लगते हैं, तो उससे जाति का खात्मा नहीं होता. उलटे हमने देखा कि जाति मजबूत हो जा रही है. हम चले थे जाति को खत्म करने के लिए, लेकिन हमारे दिलोदिमाग पर सबसे ज्यादा तो जाति की बात हावी है. हम अगर मजदूरों को देखेंगे, तो पहचानेंगे कि ये दलित है, ये पिछड़ा है, ये किसी ऊंची जाति से है, और अगर कभी जाति से आया कोई व्यक्ति मजदूर बना, तो हम उसको मानेंगे कि यह तो ब्राह्मणवाद की साजिश है. मतलब यह है कि पूरे देश में जो सामाजिक विकास की गति है, उसे हम नहीं समझते. अम्बेडकर ऐसा नहीं करते थे. अम्बेडकर में जबर्दस्त गति है, आप देखेंगे कि वे 1950 तक पूरी अर्थव्यवस्था में क्या बदलाव आ रहा है, उसको भलीभांति देख रहे थे..

= आज अगर हिंदुस्तान में जातियां कुछ कमजोर हुई हैं, शिथिल हुई हैं, तो कैसे हुई हैं? वह क्या सिर्फ लोहियावादी विमर्श से, अम्बेडकरवादी विमर्श से और तथाकथित सामाजिक न्याय के आंदोलन से या सोशल इंजीनियरिंग से हुआ है? सोशल इंजीनियरिंग से जातियां कमजोर नहीं हुई. सोशल इंजीनियरिंग से जाति प्रथा को फिर से नई जिंदगी मिल गई, उसको नई ताकत मिल गई. जाति कमजोर हुई है एक तो उसको झटका लगा आर्थिक विकास से. अगर हम आर्थिक विकास को नहीं देखेंगे कि कल-कारखाने लग रहे हैं, उद्योग बढ़ रहे हैं, मजदूर वर्ग का निर्माण हो रहा है, गांव से लोग शहर जा रहे हैं, इस माइग्रेशन (आबादी का स्थानांतरण) को नहीं समझेंगे, इस बात को नहीं समझेंगे कि नए औद्योगिक मजदूर वर्ग का विकास और निर्माण हो रहा है, तो जाति प्रथा में आई शिथिलता को नहीं समझ पायेंगे.

अम्बेडकर ने जब लेबर पार्टी का निर्माण किया था, तो उन्होंने यह कहा था कि लेबर पार्टी में भी फर्क रहता है. एक दलित मजदूर और एक ऊंची जाति से आने वाला मजदूर, दोनों मजदूर होते हुए भी कहीं-न-कहीं थोड़ा सामाजिक रूप में, सांस्कृतिक रूप में, उनकी सोच में, एक फर्क रह जाता है. यह फर्क और कुछ दिन तक रहेगा. इस फर्क के खिलाफ हमको लड़ना होगा. यह एकता हमको कायम करनी होगी. लेकिन ये लोग जो एक जगह आ रहे हैं, तो हमको लगता है कि जाति को सबसे बड़ा झटका जो लगा, वह इस आर्थिक विकास, सामाजिक विकास की जो वस्तुगत धारा है, उसी धारा से झटका लगा. दूसरा उसको बड़ा झटका लगा वर्ग संघर्ष से बल्कि सबसे बड़ा झटका इसको वर्ग संघर्ष से ही लगा. इस देश में सामंतवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, साम्राज्यवाद के खिलाफ कम्युनिस्टों की जो लड़ाई हुई, कुछ लोग समझते हैं कि उससे तो जाति को कोई झटका ही नहीं लगा. कम्युनिस्ट तो जातिवादी हैं. यह जो सोच-समझ है, वह अम्बेडकरवादी समझ नहीं है.

इसलिए यह समझना कि अम्बेडकर जहां तक पहुंचे थे 1956 में वहीं जाकर वे रुक जाते, ठहर जाते, यह समझना शायद ठीक नहीं है, अम्बेडकर अगर रहते, तो वो 1956 से लेकर  आज 2016, पिछले 60 साल में देश में जो बहुत बड़े बड़े बदलाव आए, बड़े बदलाव मतलव - जमींदारी उन्मूलन और उसके बाद तथाकथित हरित क्रांति हुई, देश में तथाकथित कृषि विकास हुआ, कृषि सुधार का काम हुआ, और उसके अंदर से, कुछ लोग कहते हैं कि नया जमींदार उभरा और आज तो कॉरपोरेट जमींदारी की बात हो रही है, तो ये जो नई जमींदारी और इसमें पिछड़ी जातियों के अंदर से इतना बड़ा एक कुलक तबका निकलकर आया, अम्बेडकर जरूर इसका हिसाब लगाते और उसके आधार पर भी तब जाति- उन्मूलन की लड़ाई कैसे आगे बढ़ेगी इसके बारे में उनको सोचना पड़ता, जैसे उस दौर में उन्होंने कहा कि देश में शासक वर्ग, हुकूमत चलाने वाले वर्ग कौन हैं - तो अम्बेडकर कहते हैं कि ब्राह्मण हैं. ब्राह्मण अकेले नहीं हैं. एक दौर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का गठबंधन था, और आज ब्राह्मण और बनिया का गठबंधन है. यह ब्राह्मण-बनिया गठबंधन बनिया मतलब वे छोटे दुकानदारों के बारे में नहीं कह रहे हैं, बनिया मतलब वे बिड़ला के बारे में कह रहे थे, टाटा के बारे में कह रहे थे. और गांधी के बारे में कह रहे थे कि वे फ्यूडल सर्फ ऑफ कारपोरेट कैपिटल हैं ये जो कंपनी वाली पूंजी है उसके वे सामंती दास हैं. राजनीति में ये उसी के बल पर कूदते हैं, उसी के बल पर राजनीति करते हैं. तो जो उनकी नजर थी ब्राह्मण-बनिया संश्रय (एलायंस), उस दौर के लिए तो बात ठीक थी, उस समय तक जिस तरह से राजनीति में ऊंची जातियों का, और उसमें भी खास तौर से ब्राह्मणों का जो एकछत्र दबदबा था, तो उस समय अगर आप उसे कहेंगे कि यही गवनिंग क्लास (शासक वर्ग) है, तो यह बात एक हद तक मेल खाती थी. लेकिन आज अगर कोई यह कह दे कि यही शासक वर्ग है, और उसमें से ही शासक प्रतिनिधियों को ढूंढ़ें, तो बात वहां रुकी हुई नहीं है.

/ आप उत्तर प्रदेश में बीएसपी को देखिए, उनको कोई ब्राह्मणवाद से लड़ना नहीं है, उनको कत्तई ब्राह्मणों से लड़ना नहीं है, उल्टे उनको तो टिकट दे देना है, उनके साथ सत्ता में जाना है. उनको तो लड़ना है सपा से, मुलायम सिंह से लड़ना है. उत्तर प्रदेश में यादव जाति का जो वर्चस्व बढ़ा हुआ है, जो नया तबका उभरा है, उससे उनकी लड़ाई है. अब उनकी ब्राह्मणों से लड़ाई पुरानी पड़ गई है. लेकिन आज भी कुछ लोग अम्बेडकरवाद के नाम पर इसी संकीर्णता पर कायम हैं कि उनको और कुछ नहीं देखना है. अभी हमारे कामरेड स्वपन जी का निधन हुआ, स्वपन जी के निधन बाद हमने जब शोक प्रकट करते हुए ट्विटर पर लिखा कि का. स्वपन मुखर्जी नहीं रहे, तो हमने देखा कि एक अम्बेडकरवादी डॉक्टर, जो अन्यथा खूब प्रगतिशील बातें करते हैं, उन्होंने कहा कि एक और ब्राह्मण विकेट गिरा. एक और ब्राह्मण मरे.. अगर आपको इतना ही देखना है कि उनकी जाति क्या है, ऐसा तो अम्बेडकर कतई नहीं करते थे. वे कहते थे कि जन्म तो एक दुर्घटना है, किसी को कहां मालूम कि कौन कहां जाकर पैदा होगा, इसलिए आप काम देखिए, उनके विचारों को देखिए, मगर आपके लिए विचार कोई मायने नहीं रखता कि वह भाजपा का ब्राह्मण है, मनुवादी ब्राह्मण है या संयोग से ब्राह्मण घर में
पैदा हुआ कोई कम्युनिस्ट पार्टी का नेता है, जिन्होंने पूरी जिंदगी मजदूरों के लिए, किसानों के लिए, दलितों-गरीबों के लिए लड़ाई में लगा दी. इसमें आपको कोई फर्क नहीं लगता. अभी जेएनयू में एक संगठन खड़ा हुआ 'बापसा' नाम का- बिरसा अम्बेडकर-फुले छात्र संगठन, इन लोगों ने सवाल खड़ा किया कि रोहित वेमुला की लड़ाई आइसा वाले कैसे लड़ेंगे, आइसा वाले तो ब्राह्मणवादी हैं. और संयोग से इस बार अध्यक्ष पद के लिए हमारे जो उम्मीदवार थे, वे मोहित पांडे थे. तो ये सवाल खड़ा कर रहे हैं कि कोई पांडे, रोहित वेमुला की लड़ाई कैसे लड़ सकता है. इसीलिए जब जेएनयू में कड़ी लड़ाई के बाद हम जीते, तो उन्होंने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी की जीत हुई है, और जेएनयू में आइसा की, वामपंथियों की जीत हुई है. दोनों में कोई फर्क नहीं है क्योंकि दोनों जगह ब्राह्मणों की जीत हुई है.

अगर आपको अम्बेडकरवाद को, दलितवाद को यहां ले जाना है, तो उससे कोई बात निकलेगी नहीं. इसीलिए हम कहते हैं कि इस दौर में जहां हम लोग अम्बेडकर और भगत सिंह के विचारों को लेकर चल रहे हैं, वहीं हमें इस संकीर्णतावाद से भी लड़ना होगा. ऐसा संकीर्णतावादी विचार जरूर आ सकता है. हमें इस इतिहास को याद रखना होगा. यह संकीर्णतावाद अगर कहीं आ रहा है, तो उसके पीछे एक लंबा इतिहास है. सचमुच इस देश में जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था रही है, उसके अंदर इतनी क्रूरता थी, इतना अन्याय कूट-कूट कर भरा हुआ था, कि उससे कुछ दिनों तक एक किस्म का पूर्वाग्रह, विरोध का पूर्वाग्रह चलेगा. इतने दिनों तक दलितों की उपेक्षा व अपमान के खिलाफ, उसकी प्रतिक्रिया में थोड़ा-बहुत पूर्वाग्रह आ ही सकता है. हमें उसे समझना होगा, और उसको समझते हुए, उसके साथ जूझते हुए और आगे बढ़ते हुए हमलोगों को वर्ग की पूरी एकता कायम करनी होगी.

Wednesday, 22 June 2022

महान जाति विरोधी योद्धा अय्यंकालि के स्मृतिदिवस (18 जून) के अवसर पर



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*महान अय्यंकालि की विरासत को याद करो!* 
*क्रान्तिकारी जाति-उन्‍मूलन आन्‍दोलन को आगे बढ़ाओ!* 
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साथियो!
आपमें से शायद कुछ ने ही महान जाति-विरोधी योद्धा अय्यंकालि का नाम सुना हो। इसकी वजह समझी जा सकती है। अय्यंकालि उन जाति-विरोधी योद्धाओं में से थे, जिन्‍होंने ब्राह्मणवादियों और उनकी सत्‍ता से समानता का हक़ हासिल करने के लिए एक जुझारू लड़ाई लड़ी और कामयाब हुए। उन्‍होंने सरकार का इन्‍तज़ार नहीं किया जो बिरले ही ब्राह्मणवादियों और उच्‍च जाति के सामन्‍तों के विरुद्ध जाती थी, क्‍योंकि ये सामन्‍ती ब्राह्मणवादी शक्तियों तो शुरू से अन्‍त तक ब्रिटिश सत्‍ता के चाटुकार और समर्थक रहीं। अय्यंकालि ने सुधारों के लिए प्रार्थनाएं और अर्जियां नहीं दीं, बल्कि सड़क पर उतर कर ब्राह्मणवादियों की सत्‍ता को खुली चुनौती दी और उन्‍हें परास्‍त भी किया। अय्यंकालि ने सिद्ध किया कि दमित और उत्‍पीडि़त आबादी न सिर्फ लड़ सकती है, बल्कि जीत भी सकती है। अय्यंकालि का संघर्ष आज के जाति-उन्‍मूलन आन्‍दोलन के लिए बेहद प्रासंगिक है। आज अय्यंकालि के संघर्ष को याद करना जाति-उन्‍मूलन के आन्‍दोलन को सुधारवाद व व्‍यवहारवाद के गोल चक्‍कर से निकालने के लिए ज़रूरी है।
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कौन थे अय्यंकालि?

अय्यंकालि का जन्‍म 28 अगस्‍त 1863 को ब्रिटिश भारत के दक्षिण में त्रावणकोर की रियासत में तिरुवनन्‍तपुरम जिला के वेंगनूर में हुआ था। उनका जन्‍म केरल की सर्वाधिक दमित व उत्‍पीडि़त दलित जातियों में से एक पुलयार जाति में हुआ था। त्रावणकोर में पुलयार लोगों को ब्राह्मणवादी पदानुक्रम में सबसे नीचे का स्‍थान दिया गया था। उन्‍हें नायर जाति के ज़मींदारों से लेकर ब्राह्मणों तक के अपमानजनक और बर्बर किस्‍म के दमन और उत्‍पीड़न का सामना करना पड़ता था। इस स्थिति ने अय्यंकालि के दिल में बग़ावत की आग को जलाया। शुरुआत में वे अपने अन्‍य पुलयार दोस्‍तों के साथ मिलकर काम के बाद ऐसे गीतों और नृत्‍यों का सृजन करने लगे जो कि इस स्थिति के खिलाफ आवाज़ उठाते थे। इसके कारण कई युवा दलित उनसे जुड़ने लगे। अय्यंकालि शुरू से ही समझते थे कि उच्‍च जातियों द्वारा दलितों के दमन और उनके खिलाफ की जाने वाली हिंसा के प्रश्‍न पर अंग्रेज़ सरकार कुछ नहीं करने वाली है। इसलिए इस दमन और हिंसा का जवाब उन्‍होंने खुद सड़कों पर देने का रास्‍ता अपनाया। उनके इर्द-गिर्द एकत्र युवाओं का एक समूह अस्तित्‍व में आने लगा और यह समूह हर हमले का जवाब ब्राह्मणवादियों को सड़कों पर देने लगा। यह हिंसा वास्‍तव में आत्‍मरक्षा के लिए की जाने वाली हिंसा थी। लेकिन इस प्रकार के जवाबी हमलों ने ब्राह्मणवादी शक्तियों को सकते में ला दिया। अय्यंकालि के इस रास्‍ते के चलते दलित आम मेहनतकश आबादी उन्‍हें चाहने लगी और उन्‍हें कई प्रकार की उपाधियां देने लगी जैसे कि उर्पिल्‍लई और मूथपिल्‍ला।

अय्यंकालि कई प्रकार के धार्मिक सुधारकों से प्रभावित हुए जिनमें अय्यावु स्‍वामिकल और नारायण गुरू प्रमुख थे। ये दोनों ही हिन्‍दू धर्म के भीतर जातिगत भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। मानवतावाद इनके धार्मिक दर्शन का आधार था। यही कारण था कि नारायण गुरू ने अपनी एक रचना में हिन्‍दू देवताओं के अलावा ईसा और मुहम्‍मद को भी ईश्‍वर के रूप में स्‍वीकार किया और कहा कि ये सभी एक ही मानवतावादी विचार का समर्थन करते हैं और ये विचार जाति प्रथा के खिलाफ हैं। अय्यंकालि दार्शनिक तौर पर धार्मिक सुधार आन्‍दोलन से आगे नहीं गये। इस रूप में वे एक सामाजिक व राजनीतिक क्रान्तिकारी तो थे, लेकिन वैज्ञानिक भौतिकवादी दृष्टिकोण तक नहीं पहुंच पाए थे। इसका एक कारण यह था कि अय्यंकालि निरक्षर थे और उनके पास विज्ञान का कोई शिक्षण नहीं था। साथ ही, उनके समय के केरल के समाज में तर्कवाद और भौतिकवाद को स्‍थापित करने की लड़ाई अभी अपने भ्रूण रूप में ही थी। लेकिन किसी भी जन नेता या संगठन के प्रगतिशील होने का पैमाना यह नहीं कि वह भौतिकवादी था या नहीं, बल्कि यह होता है कि वह अपने दौर के दमन और शोषण के खि़लाफ क्रान्तिकारी तरीके से लड़ता है या नहीं। यानी वह दमनकारी सत्‍ता के विरोधी नज़रिये को अपनाता है या नहीं। यदि कोई भौतिकवाद को मानकर भी राजनीतिक तौर पर सुधारवाद और व्‍यवहारवाद पर चले, तो ऐतिहासिक तौर पर वह क्रान्तिकारी प्रगतिशील नहीं माना जा सकता है। अगर यह बात न समझी जाय तो पूरे मानव इतिहास में वैज्ञानिक भौतिकवादियों के अलावा कोई प्रगतिशील ही नहीं रह जायेगा: न स्‍पार्टकस, न मौर्य काल में हुए पहले शूद्रों व दलितों के विद्रोह के नेता, न बिरसा मुण्‍डा, न चीनी ताइपिंग किसान विद्रोह के नेता, और न ही हमारे देश में अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियार उठाने वाली शुरुआती क्रान्तिकारी धाराएं जैसे कि 'युगान्‍तर' व 'अनुशीलन'।

लेकिन इसके बावजूद सबसे अहम बात यह है कि अय्यंकालि अपने संघर्ष के तौर-तरीकों में एक वैज्ञानिक और भौतिकवादी थे। वे किसी भी दमित व उत्‍पीडित आबादी के संघर्ष में बल की भूमिका को समझते थे। वे समझते थे कि लुटेरे और दमनकारी शासकों का सलाह व सुझाव देने से दिल नहीं बदला जा सकता है क्‍योंकि उनका शासन ही मेहनतकश व दलित जनता की लूट और दमन पर टिका है। उन्‍हें संगठित होकर अपनी ताक़त के बल पर झुकाया जा सकता है। वे किसी ईश्‍वरीय शक्ति के भरोसे नहीं बैठे रहे, बल्कि उन्‍होंने दमन व उत्‍पीड़न के खिलाफ खुद सड़कों पर उतर कर संघर्ष किया। वे ब्रिटिश सरकार के भी भरोसे नहीं बैठे रहे, बल्कि संगठित जन के बल प्रयोग से ब्राह्मणवादी शक्तियों को झुकने पर मजबूर कर दिया।

अय्यंकालि का महत्‍व आज सबसे ज्‍यादा इसी बात के लिए है। आज भी सुधारवाद और व्‍यवहारवाद की सोच जाति-उन्‍मूलन के आन्‍दोलन पर हावी है।* *यह सोच इस आन्‍दोलन को कई दशकों से सरकार को अर्जियां देने, प्रार्थनाएं करने, इस या उस पूंजीवादी पार्टी की पूंछ पकड़कर चलने और अस्मितावाद की खोखली सोच से आगे नहीं जाने दे रही है। ऐसे में, जाति-अन्‍त के आन्‍दोलन को सही रूप में आगे ले जाने के लिए अय्यंकलि के आन्‍दोलन की विरासत बेहद अहम है। अफसोस की बात है कि अधिकांश मेहनतकश दलित भाई और बहन इसके बारे में जानते ही नहीं हैं, क्‍योंकि जिस प्रकार भारत की पूंजीवादी सत्‍ता ने दलित आन्‍दोलन में सुधारवाद और व्‍यवहारवाद की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया, उसी प्रकार इसने ऐसे सभी जाति-विरोधी योद्धाओं की विरासत को जनता से छिपाया और दूर किया, जो कि जाति अन्‍त की लड़ाई में क्रान्तिकारी तरीके से सत्‍ता-विरोधी रास्‍ते को अपनाते थे।
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 अय्यंकालि ने क्‍या किया था?

अय्यंकालि ने खुले तौर पर ब्राह्मणवादी वर्चस्‍व को चुनौती देते हुए 1893 में एक ऐसा आन्‍दोलन शुरू किया, जिसने केरल के समाज की तस्‍वीर को बदल डाला। अय्यंकालि ने एक बैलगाड़ी ख़रीदी (जिसकी आज्ञा उस समय दलितों को नहीं थी), ऐसे कपड़े पहने जिनका अधिकार केवल उच्‍च जातियों को था, और एक सार्वजनिक सड़क के बीचों-बीच हाथ में एक हथियार लिए निकल पड़े। उस समय पुलयारों व अन्‍य दलितों को यह अधिकार नहीं हासिल था कि वे सार्वजनिक सड़कों पर चल सकें। उन्‍हें सड़कों के किनारे मिट्टी व कीचड़ में चलना पड़ता था। जब अय्यंकालि ने यह विद्रोह की कार्रवाई की तो, ब्राह्मणों व अन्‍य उच्‍च जाति के लोगों में गुस्‍से की लहर दौड़ गयी। लेकिन अय्यंकालि के हाथों में हथियार देखकर किसी को भी उन्‍हें रोकने की हिम्‍मत नहीं हुई। अय्यंकालि की इस कार्रवाई से पूरे त्रावणकोर रियासत के दलितों में एक लहर फैल गयी। जगह-जगह दलितों ने इसी प्रकार की बग़ावती कार्रवाई को अंजाम देना शुरू किया। इसकी वजह से कई जगहों पर दलितों व उच्‍च जातियों की सामन्‍ती शक्तियों की बीच सड़कों पर हिंस्र टकराव हुए। इनको चेलियार दंगों के नाम से जाना जाता है। दोनों ही पक्षों के लोग हताहत हुए। लेकिन इन विद्रोहों के कारण सन् 1900 तक यह स्थिति पैदा हो गयी कि केरल में दलित अधिकांश सार्वजनिक सड़कों पर चलने का अधिकार हासिल कर चुके थे। यह अय्यंकालि का पहला बड़ा क्रान्तिकारी संघर्ष और विजय थी।

कुछ पुलयारों को ईसाई मिशनरी स्‍कूलों में शिक्षा का सीमित अधिकार प्राप्‍त हुआ था। लेकिन शिक्षा पाने के लिए उन्‍हें ईसाई धर्म को अपनाना होता था। लेकिन अय्यंकालि का मानना था कि सभी सार्वजनिक स्‍कूलों में दलितों को बराबरी से शिक्षा का अधिकार होना चाहिए। ब्रिटिश सरकार ने कहने के लिए 1907 में दलित बच्‍चों को सरकारी स्‍कूलों में दाखिले का अधिकार दिया, लेकिन स्‍थानीय अधिकारी आराम से यह अधिकार छीन लेते थे। ऐसा नहीं था कि ब्रिटिश सरकार को यह पता नहीं था। लेकिन उसने कभी भी ऐसे ब्राह्मणवादियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की क्‍योंकि भारत में ब्रिटिश सत्‍ता के सबसे प्रमुख समर्थन आधार ब्राह्मणवादी सामन्‍ती शक्तियां ही थीं। अय्यंकालि ने 1907 में ही साधु जन प्रपालना परिषद् (गरीबों की सुरक्षा हेतु संगठन) बनाया था। पहले तो अय्यंकालि ने पुलयारों द्वारा संचालित स्‍कूलों को स्‍थापित करने के लिए आन्‍दोलन किया। लेकिन इसके बाद उन्‍होंने उनका आन्‍दोलन सरकार और ब्राह्मणवादी सामन्‍तों के विरुद्ध बन गया। इसका कारण यह था कि उन्‍होंने एक दलित बच्‍ची का दाखिला एक सरकारी स्‍कूल में करवाने का प्रयास किया लेकिन इसके जवाब में ब्राह्मणवादियों ने दलितों पर हिंस्र हमले किये और ऊरुट्टमबलम में एक स्‍कूल को जला दिया। इसके जवाब में अय्यंकालि ने सभी खेतिहर मज़दूरों की एक हड़ताल संगठित की। इनमें से अधिकांश दलित थे। यह आधुनिक भारत में खेतिहर मज़दूरों की पहली हड़ताल थी। इस हड़ताल को अय्यंकलि ने तब तक जारी रखा जब तक कि सभी दलित बच्‍चों को सरकारी स्‍कूलों में बिना रोक-टोक दाखिले का अधिकार नहीं मिल गया। यह आधुनिक भारत के इतिहास में खेतिहर मज़दूरों की पहली हड़ताल थी। इस दौरान जब भी दलितों पर उच्‍च जाति के सामन्‍तों ने हमले किये तो अय्यांकालि के संगठन के नेतृत्‍व में दलितों ने भी जवाबी हमले किये। इस वजह से उच्‍च जाति सामन्‍तों को अब हमला करने से पहले सौ बार सोचना पड़ता था और उनके हमले नगण्‍य हो गये। इस आन्‍दोलन ने जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी को खोला और उन्‍हें स्‍वयं संगठित होकर सत्‍ता के विरुद्ध आन्‍दोलन का रास्‍ता दिखलाया। यह उस समय बहुत बड़ी बात थी।

अय्यंकालि ने पुलयार जाति की स्त्रियों के लिए ऊपरी शरीर को ढंकने के अधिकार के लिए आन्‍दोलन में केन्‍द्रीय भूमिका निभाई। नादरों को यह अधिकार अपने आन्‍दोलन के कारण पहले ही मिल चुका था, लेकिन पुलयारों को यह अधिकार 1915 में जाकर हासिल हुआ। इस आन्‍दोलन में भी अय्यंकालि ने किसी प्रबुद्ध प्रशासक को अर्जियां देने या बुद्धिजीवियों के द्वारा सरकार को प्रार्थनाएं और सलाहें पेश करने पर नहीं बल्कि जनता की संगठित पहलकदमी पर भरोसा किया। इन सभी आन्‍दोलनों के ज़रिये अय्यंकालि ने दिखलाया कि समाज में दलितों को वास्‍तविक अधिकार रैडिकल जनसंघर्षों के बूते मिले। उनका पहला ज़ोर ही हमेशा जनता को रैडिकल संघर्षों के लिए संगठित करने के लिए होता था, जो कि सरकार के विरुद्ध होते थे। वे सरकार को प्रार्थना पत्र लिखने में कम भरोसा करते थे और मानते थे कि चीज़ें सरकार को लिखे गये आवेदन पत्रों से नहीं बदलतीं, क्‍योंकि सरकार दलितों व ग़रीबों के पक्ष में नहीं होती बल्कि शासक वर्ग की नुमाइन्‍दगी करती है। वे जानते थे कि इस सरकार के खिलाफ जुझारू जनसंघर्षों के बूते ही चीज़ों को बदला जा सकता है।
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अय्यंकालि से आज का जाति-उन्‍मूलन आन्‍दोलन क्‍या सीख सकता है?

अय्यंकालि से आज का जाति-उन्‍मूलन आन्‍दोलन तीन चीज़ें सीख सकता है और उसी सीखनी ही चाहिए। पहला, जनता की शक्ति और पहलकदमी पर भरोसा और दूसरा, आवेदनबाज़ी, अर्जियां देने और प्रार्थना-पत्रों की बजाय रैडिकल सत्‍ता-विरोधी जनसंघर्षों से दलित मुक्ति का संघर्ष। अफसोस की बात है कि दलित मुक्ति के संघर्ष का बड़ा हिस्‍सा आज सुधारवाद, व्‍यवहारवाद और अस्मितावाद के दलदल में धंसा हुआ है। इस व्‍यवहारवाद के ही तार्किक परिणति के तौर पर आठवले, मायावती, पासवान, उदित राज और थिरुमावलवन जैसे लोग पैदा होते हैं, जो कि सवर्णवादी प्रतिक्रियावादी और पूँजीवादी शक्तियों की गोद में जाकर बैठ जाते हैं और दलित अस्मिता के नाम पर दलित मेहनतकश आबादी को छलते हैं। जब तक जाति-अन्‍त आन्‍दोलन इस व्‍यवहारवाद, सुधारवाद और अस्मितावाद के दलदल से निकलेगा नहीं, तब तक हमारे हालात में कोई बुनियादी सुधार नहीं हो सकता है।

तीसरी बात यह कि अय्यंकालि ने जाति अन्‍त के आन्‍दोलन को वर्ग संघर्ष से जोड़ दिया जब उन्‍होंने खेतिहर मज़दूरों की हड़ताल संगठित की और वह भी इ‍सलिए ताकि सभी दलित बच्‍चों को सरकारी स्‍कूलों में बिना भेदभाव के शिक्षा मिल सके। उन्‍होंने अपने संगठन को भी ग़रीब मेहनतकशों का संगठन बताया न कि किसी जाति-विशेष का। आज भी हमें इस बात को समझना होगा कि हम अगर दलित मुक्ति के संघर्ष में दलित जातिगत अस्मिता को आधार बनाएंगे, तो लड़ाई शुरू करने से पहले ही हार जाएंगे। क्‍योंकि इसके ज़रिये हम ब्राह्मणवादी ताकतों को यह मौका देते हैं कि वे ग़ैर-दलित जातियों में भी अस्मितावाद को भड़काए। यदि सभी जातियां अपनी अस्मिताओं के आधार पर रूढ़ हो जाएंगी तो क्‍या हम जाति-अन्‍त की लड़ाई को जीत सकते हैं? कभी नहीं!

ब्राह्मणवादी पूंजीवादी शक्तियों को पराजित करने का रास्‍ता क्‍या है? यह कि हम ग़ैर-दलित जातियों के ग़रीब मेहनतकश लोगों को भी जाति-अन्‍त के आन्‍दोलन के साथ जोड़ दें और उन्‍हें दिखलाएं कि उनके असली दुश्‍मन स्‍वयं उनकी जातियों के कुलीन और अमीर हैं, जो कि सारे संसाधनों पर कब्‍ज़ा जमाकर बैठे हैं। समस्‍त मेहनतकशों की वर्ग एकता के बूते ही दलित मेहनतकश आबादी मेहनतकशों के तौर पर अपने हक़ों को भी जीत सकती है और साथ ही जाति-अन्‍त के ज़रिये अपनी मुक्ति को हासिल कर सकती है। अस्मिताओं के टकराव में हम हमेशा हारेंगे। इसमें सभी ग़रीब मेहनतकश हारेंगे, चाहें वे किसी भी जाति के हों। इसलिए हमारे संघर्ष की ज़मीन अस्मितावाद और पहचान की राजनीति नहीं हो सकती, बल्कि ग़रीबों और मेहनतकशों की एक ऐसी राजनीति ही हो सकती है जो कि जाति-अन्‍त के प्रश्‍न को पुरज़ोर तरीके से उठाती हो। इसी वर्ग-आधारित साझे संघर्ष के ज़रिये ही तमाम ग़ैर-दलित जातियों के ग़रीब मेहनतकशों के जातिगत पूर्वाग्रहों को भी एक लम्‍बी प्रक्रिया में दोस्‍ताना संघर्ष से खत्‍म किया जा सकता है। ज़रा सोचिये साथियो! क्‍या आज तक अस्मिताओं के टकराव के रास्‍ते से समूची मेहनतकश आबादी के जातिगत पूर्वाग्रह खत्‍म हुए हैं, या बढ़े हैं? वे लगातार बढ़े हैं और इसका खामियाज़ा सबसे ज्‍यादा आम मेहनतकश दलित आबादी को और समूची मेहनतकश आबादी को उठाना पड़ा है। अय्यंकालि की विरासत हमें दिखलाती है कि सत्‍ता के खिलाफ आमूलगामी संघर्ष और जाति अन्‍त की लड़ाई में समूची मेहनतकश जनता को साथ लेकर ही हम जाति व्‍यवस्‍था के खिलाफ कारगर तरीके से लड़ सकते हैं।

साथियो! 18 जून  को अय्यंकालि का 79वां स्मृतिदिवस है। कई जाति-विरोधी व्‍यक्तित्‍वों को खुद भारत की सरकार ने आज़ादी के बाद से ही प्रचारित-प्रसारित किया है लेकिन अय्यंकालि को नहीं। क्‍यों? क्‍योंकि अय्यंकालि आमूलगामी तरीके से और जुझारू तरीके से सड़क पर उतरकर संघर्ष का रास्‍ता अपनाते थे; क्‍योंकि अय्यंकालि सरकार की भलमनसाहत या समझदारी के भरोसे नहीं थे, बल्कि जनता की पहलकदमी पर भरोसा करते थे। यही कारण है कि सरकार अय्यंकालि के रास्‍ते और विचारों के इस पक्ष को हमसे बचाकर रखती है। क्‍योंकि यदि मेहनतकश दलित और दमित जनता उनके बारे में जानेगी, तो उनके रास्‍ते के बारे में भी जानेगी और यह मौजूदा पूंजीवादी व जातिवादी सत्‍ता ऐसा कभी नहीं चाहेगी कि उसके विरुद्ध रैडिकल संघर्ष के रास्‍ते को जनता जाने और अपनी पहलकदमी में भरोसा पैदा करे। यही कारण है कि अय्यंकालि की विरासत को जनता की शक्तियों को याद करना चाहिए। उनकी स्‍मृतियों को प्रगतिशील ताकतों को जीवित रखना चाहिए। उनके आन्‍दोलन के रास्‍ते को व्‍यापक मेहनतकश और दलित जनता में हमें ले जाना होगा। इस पूरी जाति-अन्‍त की क्रान्तिकारी मुहिम में हमसे जुडि़ये! हमसे सम्‍पर्क करिये!
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जाति व्‍यवस्‍था का नाश हो!
ब्राह्मणवाद का नाश हो! 
पूंजीवाद का नाश हो! 
अय्यंकालि की विरासत जिन्‍दाबाद!
जाति-उन्‍मूलन का जुझारू संघर्ष  जिन्‍दाबाद! 
बिन हवा न पत्‍ता हिलता है! बिन लड़े न कुछ भी मिलता है! 
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 अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच 
 नौजवान भारत सभा

तुम कैसे हो प्रिय- विद्यानन्द



मानवता करती चीत्कार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है
मजहवी उन्मादी उत्पात प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है
इंसानी लहू का व्यापार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है।

भूख तो है और रोटी भी है
छत है और है बेघर भी
कपड़े हैं और हैं ठिठुरे भी
हस्पताल भी है बीमार भी है
इनका आपस मे मेल नहीं
क्योकि इनका व्यापार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है।

खेतों में कारखानों में
खदानों में औऱ जंगल मे
वही मसक्कत होती है 
वही पसीने बहते हैं
जो तुम उधर बनाते हो
हम भी वही बनाते है
पर अपना अधिकार नहीं
अपना कारोबार नहीं
सारे तिजारतदार प्रिय
इस पार भी हैं उस पार भी हैं।

बेरोजगारों की कतार भी है
भूखों की जमात भी है
बेघर और बीमार भी हैं
मन्दिर मस्जिद गिरजे भी है
मजहब है उन्माद भी है
हम यूं ही बांटे जाते है
इन अफीमों का कारोबार प्रिय 
इस पार भी है उस पर भी है।

सारे मसले एक से हैं
पर बांटे गए लकीरों से
हथियारों के जखीरों से
तोपों से बारूदों से
जंगों के तिजारतदारों से
क्योकि वही सियासतदान प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है
लकीरों का व्यापार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है
ताबूतों का कारोबार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है
सरहद के पैरोकार प्रिय
इस पार भी है उस पार भी है।

विद्यानन्द

Tuesday, 21 June 2022

योगा कर!

एक कविता जो लाखों लोगों की आवाज़ बन गयी थी :

भूख लगी है? योगा कर!
काम चाहिये? योगा कर!
क़र्ज़ बहुत है? योगा कर!
रोता क्यों है? योगा कर!

अनब्याही बेटी बैठी है?
घर में दरिद्रता पैठी है?
तेल नहीं है? नमक नहीं है?
दाल नहीं है? योगा कर!

दुर्दिन के बादल छाये हैं?
पन्द्रह लाख नहीं आये हैं?
जुमलों की बत्ती बनवा ले
डाल कान में! योगा कर!

किरकिट का बदला लेना है?
चीन-पाक को धो देना है?
गोमाता-भारतमाता का
जैकारा ले! योगा कर!

हर हर मोदी घर घर मोदी?
बैठा है अम्बानी गोदी?
बेच रहा है देश धड़ल्ले?
तेरा क्या बे? योगा कर!

-राजेश चन्द्र

Thursday, 16 June 2022

भारत में उनका जातिवाद लागू नहीं होता

वे मार्क्सवाद को जाने बगैर बड़ी बेशर्मी से कहते हैं कि भारत में मार्क्सवाद लागू नहीं होता। सच्चाई यह है कि भारत में उनका जातिवाद लागू नहीं होता। 
 हर जाति में अमीर और गरीब हैं। अगर अमीरों का मुनाफा बढ़ाने के लिए मँहगाई बढ़ाते हैं तो मँहगाई से गरीबों की कमर टेढ़ी हो जाती है। मँहगाई के विरुद्ध विद्रोह करते हैं तो गरीबों के पक्ष में हो जाते है। इसी तरह बेरोजगारी से अमीरों का फायदा तो गरीबों का नुक़सान होता है। अपनी जाति के अमीरों का भला करते हैं तो उनकी जाति के गरीबों का बुरा हो जाता है। कोई भी जातिवादी संगठन अपनी जाति के अमीरों का भला करता है तो गरीबों का नुक़सान होता है, और गरीबों का भला करता है तो अमीरों का नुक़सान होता है। अत: कोई भी जातिवादी संगठन अपनी जाति के अमीर व गरीब दोनों का भला नहीं कर सकता। जातीय संगठन केवल गरीबों के बीच ही फूट डालकर उन्हें कमजोर करते हैं अमीर लोग तो जाति धर्म से ऊपर उठ कर आपस में मिले ही हुए हैं। अत: जातीय संगठन अपनी जाति का नहीं सिर्फ अमीरों का ही भला कर पाते हैं।
 इस प्रकार हम देखते हैं कि हर जाति में अमीर और गरीब हैं, दोनों के हित परस्पर विरोधी हैं, इस लिए किसी भी जाति के संगठन अपनी पूरी जाति का पक्ष नहीं ले सकते हैं। इन अर्थों में अमीरों व गरीब में बंटे हुए समाज में जातिवाद लागू नहीं होता। जब कि मार्क्सवाद तो भूख का विज्ञान है, जहाँ- जहाँ भूख लगती वहाँ-वहाँ मार्क्सवाद लागू होता।
                                                 रजनीश भारती
                                         जनवादी किसान सभा


मजदूर वर्ग की सामाजिक भूमिका और राजनीतिकरण


https://www.aicctu.org/shramik-solidarity/2019/11/%E0%A4%AE%E0%A4%9C%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3


(प्रस्तुत है 31 अगस्त-1 सितंबर को भुवनेश्वर में आयोजित हुई राष्ट्रीय कार्यशाला में चर्चा किया गया तीसरा व अंतिम पेपर).

"असल में, ऐसे मंडलों (सामाजिक जनवादी) के अधिकतर सदस्य एक आदर्श नेता के तौर पर उसे देखते हैं, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के रूप में काम करता है. चूंकि किसी भी ट्रेड यूनियन का सचिव, मान लीजिए ब्रिटिश, हमेशा मजदूरों को आर्थिक संघर्ष चलाने में मदद करता है, वो उन्हें फैक्टरी में होने वाले शोषण का पर्दाफाश करने में मदद करता है, वो कानून द्वारा अन्याय और हड़ताल व धरने के अधिकार को कमजोर करने वाले कदमों के बारे में समझाता है (जैसे, सभी को ये चेतावनी देता है कि हड़ताल अमुक फैक्टरी में चल रही है), बुर्जुआ वर्ग से ताल्लुक रखने वाले आर्बिट्रेशन कोर्ट के जजों के भेदभाव वाले व्यवहार के बारे में बताता है, आदि, आदि. संक्षिप्त में कहा जाए तो हर ट्रेड यूनियन सचिव "सरकार और मालिकों के खिलाफ आर्थिक संघर्ष" चलाता है और चलाने में मदद करता है. पर इस बात को हम जितना जोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने से ही सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता. सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन सचिव नहीं होना चाहिए, बल्कि एक ऐसा जन नायक होना चाहिए, जो दमन और अन्याय के हर प्रतिरूप पर, फिर चाहे वो कहीं भी दिखे, या फिर किसी भी वर्ग के लोग उससे प्रभावित होते हों, प्रतिक्रिया जाहिर कर सके; जो इन सभी प्रतिरूपों का सामान्यीकरण कर सके और उनमें से पूंजीवादी शोषण और पुलिसिया हिंसा की एक अविभाज्य तस्वीर दिखा सके; जो हर घटना का, चाहे वो कितनी भी छोटी हो, फायदा उठा सके, ताकि वह अपने समाजवादी विश्वासों और लोकतांत्रिक मांगों को सभी लोगों को समझा सके, वह सबको सर्वहारा के मुक्ति संग्राम के वैश्विक और ऐतिहासिक महत्व के बारे में आसानी से और साफ-साफ समझा सके.'' - लेनिन, क्या करें?

क्या वर्ग खत्म हो गए हैं - कुछ बहसें

पूंजीवाद के इस नव-उदारवादी दौर में मजदूर वर्ग के बदलते स्वरूप के संदर्भ में, कई बहसें चल रही हैं, जिनमें ये कहा जाता है कि वर्ग खत्म हो गए हैं, और अब वर्ग विश्लेषण से जनता को गोलबंद करने में मदद नहीं मिल सकती. हम इसे आर्थिक आधार पर संकुचित करने वाला दृष्टिकोण मानते हैं. वर्ग एक बहु-आयामी, व्यापक श्रेणी है और इसे सिर्फ किसी आर्थिक श्रेणी में बांधा नहीं जा सकता. कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को व्यापक रूप में "सर्वहारा" तक मानने को तैयार नहीं हैं, और वो उन्हें सिर्फ "प्रीकारिएत" (अनिश्चित श्रेणी का मजदूर) मानते हैं. हम इसे वर्गीय श्रेणियों को समझने का एक गै़र-द्वंद्ववादी तरीका मानते हैं. कोई भी व्यक्ति जो, अपनी आजीविका के लिए, अपनी मानसिक या शारीरिक, श्रम-शक्ति को बेचता है, वो श्रमिक वर्ग से आता है. मजदूर वर्ग को टुकड़े-टुकड़े करने से उनके मजदूर के दर्जे से इनकार नहीं किया जा सकता. किसी "मजदूर" के "सर्वहारा" बनने की प्रक्रिया उसके राजनीतिकरण की प्रक्रिया है और इसी तरह से "खुद में वर्ग होना" "खुद के लिए वर्ग होने" में बदलता है.

समय की मांग ये है कि भारतीय परिस्थिति के नव-उदारवादी चरण में ठोस परिस्थितियों में मार्क्सवाद का इस्तेमाल किया जाए और एक व्यापक विचार एवं "वर्ग" की समझ तक पहुंचा जाए. ऐसा करने से हम भारतीय परिस्थितियों में वर्ग की बहुआयामी और व्यापक समझ तक पहुंचते हैं जो हर तरह के दमन, जिसमें जाति, साम्प्रदायिकता और लिंग आधारित दमन भी शामिल है, को समाहित करती है. इस मामले में ये समझा जाना चाहिए कि, वर्ग की कोई "शुद्ध" श्रेणी नहीं होती, यहां तक कि "मजदूरों" की वो श्रेणी भी नहीं, जो हमारे जैसे, पुराने सामंतवादी अवशेषों का भार ढ़ोते, पिछड़े पूंजीवादी देश में होती है.


वर्ग की श्रेणी को सिर्फ संगठित क्षेत्र के मजदूरों तक सीमित नहीं किया जा सकता. आईटी सेक्टर के उच्च वेतन वाले कर्मचारियों से लेकर ग्रामीण क्षेत्र में चंद सिक्कों के लिए मरम्मत का काम करने वाले तक, सभी एक ही श्रमिक वर्ग का हिस्सा हैं. मजदूरों की प्रकृति में बदलाव और उनमें विखंडीकरण हमें उन्हें मजदूर वर्ग की श्रेणी में डालने से नहीं रोक सकता. अगर पूंजी की नीति मजदूरों को उनकी पहचान, वेतन, अनौपचारिकता, कानूनी संरक्षण आदि के नाम पर बांटना है, तो मजदूर वर्ग आंदोलन को मजदूर वर्ग की व्यापक और मुख्तलिफ श्रेणियों को संगठित और एकताबद्ध करने की वकालत करके, उस नीत का प्रतिरोध करना चाहिए. हमें वर्ग के ढांचे के भीतर पहचानों की विभिन्न श्रेणियों को समाहित करने के प्रभावशाली तरीके विकसित करने होंगे. मिसाल के तौर पर, स्कीम कामगारों और सफाई कर्मचारियों में अधिकांश महिला कामगार हैं. जब हम उन्हें मजदूर वर्ग के तौर पर संगठित करते हैं तो हमें सामाजिक सम्मान और लिंग आधारित हिंसा के पहलू भी जोड़ने चाहिए, और ये हमारे मजदूर वर्ग के बीच काम का हिस्सा होना चाहिए. काम की प्रकृति, वेतन और सुरक्षा, सामाजिक और रोजगार की सुरक्षा, मांगों के चरित्र और अपेक्षाओं में भारी अंतर हो सकता है. लेकिन फिर भी वे सभी एक ही मजदूर वर्ग का हिस्सा हैं.

उदारीकरण और दक्षिणपंथी विचारों का उभार

हम ट्रेड यूनियन के स्तर पर मजदूरों के आर्थिक मामलों को संबोधित करने और विभिन्न तरीकों से उनके राजनीतिकरण के काम को कर रहे हैं. लेकिन, कुछ समय से, रोजमर्रा के ट्रेड यूनियन काम में हमारे ज्यादा व्यस्त होने की वजह से, ट्रेड यूनियन वाला पहलू हावी हो गया और हमारे काम का राजनीतिक पहलू, जाहिर है, हमारे नेक इरादों के बावजूद, कमतर रह गया या पीछे चला गया. हालांकि, अखिल भारतीय स्तर पर केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ सभी मान्यता प्राप्त केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के साझा मंच के ज़रिए हमारी ऊपर से पहलकदमियां लगातार चल रही हैं और राज्य स्तर पर भी ये पहलकदमियां जारी हैं. अब हम ऐसे पड़ाव पर आ गए हैं, जहां, कम से कम, हमारे अपने मजदूर वर्ग के आधार का एक छोटा हिस्सा, जो हमारे ही झंडे तले संगठित है, वो साम्प्रदायिक, मनुवादी और फासीवादी राजनीतिक विचारों और प्रभाव का शिकार बना है. हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, इसके कारणों को समझना होगा, और वर्गीय आधार पर प्रभावशाली राजनीतिकरण के लिए तरीके निकालने होंगे.

ऐसा नहीं है कि हमारे अपने ही आत्मगत व आंतरिक कारणों की वजह से राजनीतिकरण का पहलू पीछे रह गया है, बल्कि इसका मुख्य कारण, पिछले तीन दशकों में उदारीकरण की नीतियों को लागू करने से देश की औद्योगिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों में हुआ बदलाव जिम्मेदार है. नयी परिस्थितियों ने देश के मजदूर वर्ग आंदोलन के सामने नई चुनौतियां पेश की हैं. अनौपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी के तेजी से बढ़ने, और औपचारिक क्षेत्रों में भी अनौपचारिक कामगारों के उच्च अनुपात के चलते मजदूर वर्ग की संरचना में आया बदलाव कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में गया है. तो, मजदूरों का राजनीतिकरण तो छोड़िए, हमें मजदूरों को ट्रेड यूनियन तले संगठित करने तक में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. संगठित क्षेत्र में, स्थाई, कमोबेश स्थिर श्रमशक्ति, जो अपने कार्यस्थल से पहचानी जाती है, वही ट्रेड यूनियन का आधार रही है. लेकिन ये संख्या बहुत तेजी से घट रही है. आज मजदूर वर्ग में ठेका, अप्रेंटिस, ट्रेनी, जैसे बहुत ही अनियमित और अन्य तरह की अनौपचारिक श्रम शक्ति की तादाद ज्यादा है. ऐसे में, उनका राजनीतिकरण और उन्हें संगठित करने के लिए भी हमें कुछ खास सचेतन प्रयास करने होंगे और ढांचे तैयार करने होंगे.

साम्प्रदायिक फासीवाद का शिकार बने मजदूरों से संबंधित एक अनुभव

"द इन्फॉर्मल इकॉनॉमी एंड इंडियन वर्किंग क्लास - अनईवन एंड कंबाइंड डेवलपमेंट" में श्री बिल क्रेन की एक दिलचस्प टिप्पणी है, जो कि मजदूर वर्ग खासतौर से अनौपचारिक मजदूरों के साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया को अच्छी तरह दिखाता है, जो इस प्रकार हैः

"...उनका औपचारिक रोजगार खत्म हो गया, तो कपड़ा मजदूर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में शामिल हो गए. उनमें से जो भाग्यशाली थे उन्हें पॉवर-लूम प्रतिष्ठानों में बुनकरों का काम मिल गया, जहां उन्हें ज्यादा देर तक काम करना होता था, लेकिन उनकी आमदनी मिल के मुकाबले आधे से भी कम थी. मिलों के बंद होने पर दलित (भारत की सबसे पिछड़ी जातियों के सदस्य) और मुस्लिम सबसे ज्यादा प्रभावित हुए जिन्हें इन मिलों से बेहतर जीवन का मौका मिला था. राज्य सरकार ने पुराने मिल मजदूरों को अपने-अपने लघु उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया, उनमें से कुछ ने रेहड़ी-खोमचा लगाने, रिक्शा खींचने या मरम्मत करने के काम करने जैसे छोटे-मोटे काम-धंधे करने की कोशिश की. उनमें से कई ऐसा नहीं कर पाए, क्योंकि वो नये काम करने के लिए पैसा नहीं जुटा पाए, और जो इसमें सफल रहे, वो एक बार बिजनेस शुरु करने पर, आजीविका कमाने के लिए आत्म-शोषण, और अपने ही परिवार के शोषण के विध्वंसक चक्र में फंस गए. अन्य मिल मजदूरों को हफ्ते में सिर्फ एक या दो दिन के लिए दिहाड़ी मजदूरी या सिक्योरिटी गार्ड जैसे काम मिले; बाकी जो अब बूढ़े हो गए थे, या दशकों तक सूत के तंतुओं के फेफड़ों में जम जाने की वजह से बाईसिनोसिस के मरीज़ बन गए थे, उन्हें कोई काम नहीं मिला.

"जब मिलों को तोड़ा गया तो अचानक ये साफ हो गया कि वो मजदूर और समुदाय जो अहमदाबाद से आए थे, उन्होंने नौकरी के साथ और बहुत कुछ खो दिया है. 2002 में, शहर में दंगे भड़क गए जिनके दौरान, पूरे गुजरात की तरह, यहां भी मुस्लिमों का जनसंहार किया गया. शहर में इससे पहले भी साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, लेकिन मिल और उसके आस-पास के समुदाय अकसर उनसे अलग ही रहे थे. लेकिन अब, पूर्व मजदूरों ने खुद को एक संगठित और संकेन्द्रित वर्ग के तौर पर नहीं देखा बल्कि ग़रीब मजदूरों, छोटे कामगारों, और बेरोजगारों की भीड़ के तौर पर पाया. अब वे अपर्याप्त संसाधनों के लिए एक-दूसरे से लड़ रहे थे, वे शहरी अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर थे, वे अपने सुरक्षा के प्राथमिक स्रोत के तौर पर अपने-अपने धर्म और जातियों की तरफ चले गए जो, उनके बेकार हो जाने के बाद उनकी एकमात्र बची हुई सामाजिक पूंजी थी. इसके चलते वो आरएसएस-भाजपा जैसी राजनीतिक ताकतों और तात्कालिक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का आसान शिकार बन गए, जो उन्हें साम्प्रदायिक आधार पर बांटना चाहते थे. जेन ब्रिमैन का कहना है कि इसी वजह से, "बीसवीं सदी के अंत में शहरी अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्रों से मजदूरों की भारी संख्या में छंटनी और साम्प्रदायिक हिंसा के फूट पड़ने में सीधा संबंध दिखता है."

तब अनौपचारिकता, मजदूरों की गरीबी और निराशा और साम्प्रदायिक दंगे, और अब फासीवादी विचारधारा का हमला, उन्हें फासीवादी राजनीतिक प्रभाव का आसान शिकार बना देता है. अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण ये दिखाते हैं कि छोटी कंपनियों के मालिक, ग़रीब और बेरोजगार फासीवादियों का सामाजिक आधार बनते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के लगातार खत्म होने, औपचारिक क्षेत्र के लगातार हाशिए पर ढकेले जाने, और अनौपचारिक क्षेत्र के लगातार बढ़ने से मजदूरों के बीच ग़रीबी, बेरोजगारी और निराशा बढ़ती है. इसका नतीजा ये होता है कि वो अपने असली दुश्मन यानी सत्ताधारी वर्ग, राज्य और सरकारी नीतियों को निशाना बनाने की बजाय मुस्लिमों, दलितों और वामपंथियों में अपने काल्पनिक दुश्मन को ढूंढने लगते हैं. अंततः उन्हें साम्प्रदायिक, कॉरपोरेट फासीवादी राजनीतिक विचारों और ताकतों द्वारा अपना लिया जाता है, जिनमें वे खुद की दुर्दशा, गरीबी, बेरोजगारी और दुख का हल खोजते हैं. अगर हमें इनसे लड़ना है तो हमें एक ओर फासीवादी राजनीति के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज़, ज्यादा धारदार बनाना होगा, और मजदूर वर्ग के विभिन्न हिस्सों में अपने विचारधारात्मक अभियान को और सघन करना होगा. दुर्भाग्य से, हमारे ज्यादातर अभियान दूसरे या तीसरे स्तर के नेतृत्व और बहुत छोटे से आधार में अटक जाते हैं और जमीनी स्तर पर व्यापक मजदूरों तक उनकी पहुंच नहीं बन पाती. जबकि फासीवादी विचार धार्मिक त्यौहारों, रीति रिवाजों के द्वारा और कॉरपोरेट संचालित मीडिया और बड़े स्तर पर बहुत ही सुगठित और सुविचारित गोयबल्सवादी प्रचार (हिटलर के जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ) के ज़रिए हर घर तक पहुंच रहे हैं. हमें अपने जन राजनीतिक अभियानों को जमीनी स्तर तक पहुंचाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे.

रेडिकलिज्म और राजनीतिकरण

हमें वर्ग राजनीति के साथ मजदूरों के असल जीवन के मुद्दों और अनुभवों को जोड़कर फासीवादी विचारधारा और राजनीतिक प्रभावों का पर्दाफाश करना होगा और उनका मुकाबला करना होगा. अगर हाल में शुरू किये गये सफाई मजदूर अधिकार अभियान (सम्मान) नामक फोरम हमारे मजदूर वर्ग के काम में सामाजिक सम्मान के पहलू को जोड़ने का एक तरीका है तो, ऐसे फोरम हमारे काम में इसी तरह के अन्य पहलुओं को जोड़कर ऐसी प्रतिकूल विचारधाराओं का प्रतिवाद करने का तरीका हो सकते हैं. ऐसे ही हमारे प्रतिवादी अभियानों को अपने काम का अंतर्निहित हिस्से के तौर पर "सम्मान" जैसे फोरम के बनाने के बारे में सोचा जा सकता है, और साथ ही इन अभियानों को औपचारिक और अमूर्त राजनीति का शिकार बनने से रोका जा सकता है.

राजनीतिकरण कोई काल्पनिक मामला नहीं है. मजदूरों की राजनीतिक चेतना को एक स्तर से दूसरे स्तर तक बढ़ाना राजनीतिकरण की प्रक्रिया की शुरुआत होती है. असंगठित मजदूरों का यूनियन में संगठित होना उनकी चेतना के बढ़ने का एक स्तर है. अगर मजदूर जो अपने मालिक से इतना डरे हुए हैं, वही उसके खिलाफ विद्रोह की शुरुआत करें और अपने अधिकारों की मांग करें तो ये भी उनकी चेतना में एक और वृद्धि है. अपने संघर्ष को फैक्टरी की दीवारों से निकाल कर राज्य के खिलाफ संघर्ष करना, अन्य क्षेत्रों के संघर्षरत मजदूरों और संघर्षरत जनता का सहयोग करना, उनकी राजनीतिक चेतना के बढ़ने का प्रतीक है. आखिरकार, मजदूर वर्ग को यह आत्मसात करना होगा कि अपनी दासता की बेड़ियों से मुक्ति और समाज के अन्य हिस्सों की दमित जनता की मुक्ति का एकमात्र हल शोषक पूंजीपति वर्ग से सत्ता छीनना है. इस आधारभूत स्तर की राजनीतिक चेतना को पाने की प्रक्रिया का इस तरह के टेढ़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे, मुश्किल राजनीतिकरण के रास्ते से गुजरना आवश्यक है. मजदूर वर्ग के राजनीतिकरण का कोई एक, आसान, हाथों-हाथ काम करने वाला फार्मुला नहीं है. ये काम सिर्फ बार-बार करने से ही हो सकता है, और इसी तरह से मजदूर वर्ग अन्य देशों जैसे सोवियत रूस, चीन, क्यूबा आदि में भी सफलतापूर्वक शोषक वर्ग की सत्ता को पलट चुका है. मजदूर वर्ग का आगे बढ़ता कारवां कई विघ्न-बाधाओं, धक्कों और हिंसक दमन के बावजूद आगे ही बढ़ता जाएगा.

'फोरम' - राजनीतिकरण और असंगठितों को संगठित करने के केन्द्र के तौर पर

शुरुआत में जब हमने फोरम के तौर पर काम करना शुरु किया था, तब हमने फोरम को ग्राम्शी की 'परिषद' या लेनिन के 'सोवियत' के समकक्ष सोच कर बनाया था, जो कि भविष्य में सर्वहारा की राजनीतिक सत्ता की मूलभूत इकाई बनी थीं. इसके अलावा, जब हम फ्रैक्शनल कार्य में लगे तो इसका खास औचित्य था. और इन फोरमों ने आने वाले समय में हमारे ट्रेड यूनियन के कामकाज के मूलभूत केन्द्रों को विकसित करने का काम किया. दुर्भाग्य से एक समय पर आकर, कुछ जगहों पर यही फोरम कष्टसाध्य जमीनी ट्रेड यूनियन काम से बचने का रास्ता बन गया. तब हमने, अपनी खुद की ट्रेड यूनियनें विकसित करने, फ्रैक्शनल काम से हटने और साथ ही ऐक्टू के बतौर ट्रेड यूनियन केंद्र के निर्माण की प्रक्रिया में इस काम को छोड़ दिया.

लेकिन अब इस नई परिस्थिति में जब फासीवादी विचारधारा और राजनीति का हमला तेज़ हो रहा है हमें नई भूमिका और उद्देश्यों के साथ फिर से फोरम बनाने होंगे. आज के हालात में, मजदूरों के बीच साम्प्रदायिक फासीवाद के वैचारिक, राजनीतिक प्रचार का मुकाबला करने के लिए फोरम बहुत कारगर तरीका हो सकता है और यह मजदूरों के राजनीतिकरण के प्रारंभिक केन्द्र के तौर पर भी कार्य कर सकता है.

हमारे पास मजदूरों की नौकरी से संबंधित मुद्दों को तत्काल संबोधित करने के लिए अलग-अलग ट्रेड यूनियन हैं; हमारे पास शासन की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए ट्रेड यूनियन केंद्र है. लेकिन, मजदूर वर्ग के आंदोलन के भीतर से और ट्रेड यूनियन के ढांचे के बाहर से मजदूरों के राजनीतिकरण के लिए मूलभूत संस्था या ढांचा नहीं है. हालांकि ऐसे में ज्यादातर जगहों पर कम्यूनिस्ट पार्टियां मौजूद हैं, लेकिन उनकी बहुत ही अलग भूमिका होती है. हमें कोई ऐसा तरीका निकालना होगा जिसमें हम अलग-अलग ट्रेड यूनियनों, ट्रेड यूनियन केंद्र और फोरमों के कामकाज को एकीकृत कर सकें.

जहां हमारी ट्रेड यूनियन नहीं हैं, खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में, वहां फोरम जन राजनीतिक अभियानों और मजदूर वर्ग में काडर निर्माण के लिए, संपर्क और केन्द्रक विकसित करने के लिये मजदूरों के स्टडी सर्कल आयोजित करने, पर जोर दे सकता है. नवउदारवादी हमलों और बढ़ते अनौपचारीकरण के संदर्भ में भी फोरम मददगार हो सकते हैं, और ये अनौपचारिक क्षेत्र में मजदूरों को संगठित करने की दिशा में पहला कदम हो सकते हैं. मजदूरों को ही फोरम चलाने की जिम्मेदारी दी जा सकती है जबकि वरिष्ठ नेता उनका दिशा निर्देशन कर सकते हैं, उनके सलाहकार बन सकते हैं. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि इन फोरमों के सक्रिय कामकाज से वरिष्ठ नेताओं की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है. इन फोरमों का नाम और उनकी बुनावट जमीनी स्तर की कमेटियों की रचनात्मकता और कल्पनाशीलता पर छोड़ी जा सकती है कि वे स्थानीय ज़रूरत के अनुसार तय कर लें. यहां स्थानीय का मतलब आवश्यकतानुसार उद्योग, वार्ड, मुहल्ला और पंचायत से लेकर औद्योगिक क्षेत्र, बेल्ट और ज़िला, आदि हो सकता है. राज्य समितियों को इस प्रक्रिया को तेज़ करना चाहिए.

राजनीतिकरण की अंतर्वस्तु

हमारे पास पहले से ही विभिन्न फोरमों में इस तरह का काम हो रहा है. कई जगहों पर हमारे बिरादराना युवा एवं छात्र संगठन इस तरह की भूमिका निभाते हैं जिनके ज़रिए श्रीपेरुम्बुदूर के युवा मजदूर और दिल्ली के सफाई कर्मचारी संगठित हुए. बिहार जैसे राज्य में हमें आइरला के काडर दिखते हैं जो ग्रामीण इलाकों में असंगठित मजदूरों को संगठित करने में महती भूमिका अदा करते हैं. कर्नाटक में भी हम युवा वाहिनियां बनाने पर विचार कर रहे हैं. इससे पहले के पेपर में कई अनुभवों की चर्चा हुई थी, रेलवे मजदूरों ने खेत मजदूरों को संगठित करने के केन्द्र के तौर पर भूमिका निभाई थी. फोरम का चाहे जो भी रूप हो, राजनीतिकरण की प्रक्रिया का मुख्य पहलू यह है कि मजदूरों को उनकी फैक्टरियों एवं उद्योगों और मुख्य रूप से उनकी ट्रेड यूनियन वाली मानसिकता से बाहर लाया जाए और इस देश के नागरिक के तौर पर और समाज के एक सदस्य के तौर पर उनकी सामाजिक भूमिका को खोला जाए. राजनीतिकरण की यह प्रक्रिया तब तक शुरु नहीं हो सकती जब तक उन्हें ट्रेड यूनियन के ढांचे की कैद से बाहर नहीं लाया जाएगा जो कि ट्रेड यूनियन के अंतर्गत संगठित किसी भी मजदूर की नैसर्गिक चेतना हो जाती है. अपने एक क्लासिक लेख, 'क्या करें' में लेनिन कहते हैं कि, "मजदूरों में वर्ग राजनीतिक चेतना सिर्फ बाहर से ही आ सकती है, यानी ये सिर्फ आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मजदूर और मालिक के संबंधों की दायरे के बाहर से ही संभव है. वो परिधि जिसमें से ये ज्ञान हासिल किया जा सकता है वो राजसत्ता और सरकार के साथ सभी वर्गों और हिस्सों के संबंधों की परिधि है, सभी वर्गों के बीच के अंतरसंबंधों की परिधि है." राजनीतिकरण और राजनीतिक चेतना का संबंध इसके स्वरूप से ज्यादा इसकी अंतर्वस्तु से होता है.

राजनीतिकरण का ढांचा

नीचे राजनीतिकरण के वो सामान्य पहलू दिए गए हैं जो हमने इन दिनों अपने कार्य में इस्तेमाल किए हैं. '80 के दशक के अंत से ही हमारे ट्रेड यूनियन मोर्चे पर काम करने की शुरुआत से ही 'मजदूरों का राजनीतिकरण और ट्रेड यूनियनों का जनवादीकरण हमारी केन्द्रीय विषयवस्तु रही है.

  1. विभिन्न ज्वलंत राजनीतिक मुद्दों पर नियमित राजनीतिक हस्तक्षेप और जुझारू संघर्ष आयोजित करना.
  2. "किसी एक" उद्योगपति/पूंजीपति के खिलाफ मजदूरों की चेतना और संघर्ष के स्तर को पूंजी/पूंजीवाद के खिलाफ चेतना और संघर्ष के स्तर तक बढ़ाना.
  3. चेतना को "अपने में वर्ग" से "अपने लिए वर्ग" तक उन्नत करना.
  4. मजदूरों के तात्कालिक मुद्दों को उठाना और इसे राजसत्ता के साथ जोड़ते हुए पर्दाफाश करना ताकि राज्य के खिलाफ संघर्ष निर्देशित हों, और उन्हें अमीरों और पूंजीपति वर्ग के हाथों से सत्ता छीन कर मजदूर वर्ग और शोषित वर्ग द्वारा राजनीति सत्ता पर काबिज होने के महत्व के बारे में शिक्षित करना.
  5. ट्रेड यूनियन के काम को फैक्टरी से बाहर ले जाना.
  6. असंगठितों को संगठित करना.
  7. विभिन्न स्तरों पर कक्षाएं और कार्यशालाएं आयोजित करना.
  8. किसी भी उद्योग में संघर्षरत मजदूरों के साथ सक्रिय एकजुटता स्थापित करना.
  9. संघर्षरत खेत मजदूरों और किसानों के साथ सक्रिय एकजुटता स्थापित करना.
  10. मजदूर वर्ग की राजनीति को ट्रेड यूनियन के काम के साथ जोड़ना.
  11. मजदूरों को क्रांतिकारी पार्टी और क्रांतिकारी राजनीति से जोड़ना.

क्या करें?

ऊपर दिए गए ढांचे के अनुसार, हमें राजनीतिकरण की दिशा में निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:

  1. मजदूर वर्ग के बीच फैलने वाली प्रतिक्रियावादी विचारधारा का प्रतिवाद करने वाले नियमित जन राजनीतिक अभियान आयोजित करना.
  2. बदलाव को समझने और उसके लिए खुद को तैयार करने के लिए नियमित सामाजिक जांच-पड़ताल आयोजित करना.
  3. नियमित तौर पर पाठ्यक्रम पर आधारित अध्ययन, स्टडी सर्कल और इसी तरह के अन्य तरीकों को अपनाना ताकि मजदूर वर्ग के मुख्य भाग को आकर्षित किया जा सके. ये अध्ययन शिविर व्यवस्थित तौर पर शोषण, अतिरिक्त मूल्य और मुनाफे, राज्य की प्रकृति, वेतन के सवाल, ट्रेड यूनियन की कार्यनीति, श्रम का सम्मान, साम्प्रदायिकता, मनुवाद, मजदूरों की सामाजिक भूमिका, ट्रेड यूनियनों की राजनीति, बुनियादी सामाजिक बदलाव, क्रांति आदि जैसे विषयों पर हो सकते हैं.
  4. राजनीतिकरण के हमारे प्रयासों के केंद्र में "मजदूर फोरमों" को बनाना, ताकि साम्प्रदायिक और अन्य तरह की प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रभावों का प्रतिवाद किया जा सके और असंगठित मजदूरों को संगठित करने का काम शुरु किया जा सके.

 


Wednesday, 15 June 2022

मानवाधिकार : मुस्लिम महिलाओं के अधिकार - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ


एक पाकिस्तानी महिला, जो अपने नाम का खुलासा नहीं करना चाहती है, कहती है, "इब्राहीमी आस्था के उदय के बाद से ही महिलाओं को ललचाने वाली दुष्ट शक्तियों  के तौर पर देखा जाता रहा है, जो पुरुषों को बहकाती हैं, जो रोते हुए मिथक पुरुषों को मूर्खता और मृत्यु के लिए प्रेरित करती थीं। उनका मासिक धर्म उन्हें गंदा और अशुद्ध बनाता है, उनकी योनि से बहने वाला रस शैतान का दिया हुआ लालच है। उसे मनुष्य के पतन और मानवता की परीक्षा के लिए दोषी ठहराया जाता है।" यह बयान उस छिपे हुए गुस्से का इज़हार है, जो महिलाओं में अपने साथ होने वाले अन्याय और भेदभाव से उपजा है, हालांकि उनमें इस मामले पर बोलने की हिम्मत नहीं है, बल्कि वे अपनी भावनाओं को छुपाना चाहती है.
यह उस भेदभाव की तस्वीर है, जिसका महिलाओं को प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक सामना करना पड़ा है। पुरुषों के लिए एक महिला जरूरत पड़ने पर भोगी जा सकने वाली वस्तु, बच्चों को जन्म देने वाली मशीन और अपने क़ाबू में रखने लायक एक संपत्ति से अधिक कुछ नहीं है, हालांकि वह उसे एक दुष्ट चीज और शैतान का दूत भी मानता है। दरअसल महिलाओं को अपने वश में रखना पुरुष सत्तात्मक समाज की एक चाल है। यहां तक कि सदियों में उन्होंने महिलाओं के मन में भी इन विश्वासों को इस तरह भर दिया है कि वे भी यही मानने लगी हैं कि वे वास्तव में एक दुष्ट चीज हैं और उन्हें समाज में रहने की अनुमति देना पुरुषों का एहसान है, इसलिए उन्हें अधिकार है कि वे उसे चाहे पीटें, यातना दें, उसके साथ बलात्कार करें या उसके साथ जो चाहें, जब चाहें करें।
इस पुरुषसत्तात्मक दुनिया में, महिलाएं अपनी संरचना के कारण भी हमेशा व्यवस्थित हिंसा और भेदभाव की चपेट में रही हैं। आज की दुनिया में भी दृश्य ज़्यादा बदला नहीं है। अगर हम आंकड़ों पर एक नजर डालें तो हमें असली कहानी पता चलेगी।
• 2003 में, दुनिया भर में 35 प्रतिशत महिलाओं को शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार बनाया गया।
• ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इज़राइल, दक्षिण अफ्रीका और संयुक्त राज्य अमेरिका में घरेलू हिंसा में 40 से 70 प्रतिशत महिलाओं की हत्या होती देखि गई है। 
• दुनिया भर में 64 मिलियन से अधिक लड़कियां बालवधुएँ हैं, दक्षिण एशिया में 20 से 24 वर्ष की आयु की 46 प्रतिशत महिलाओं ने और पश्चिम और मध्य अफ्रीका में 41 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि उनकी पहली शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो चुकी थी। बाल विवाह के परिणामस्वरूप जल्दी होने वाली अवांछित गर्भावस्था दुनिया भर की किशोर लड़कियों के जीवन के लिए खतरा पैदा करती है। गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं 15 से 19 वर्ष की लड़कियों की मृत्यु का प्रमुख कारण हैं।
• नाइजीरिया में एक उपचार केंद्र ने सूचित किया है कि यौन संचारित संक्रमणों के उपचार के लिए आने वाली 15 प्रतिशत महिला रोगियों की आयु 5 वर्ष से कम थी। इसके अतिरिक्त 6 प्रतिशत लड़कियां 6 से 15 वर्ष की आयु के बीच थीं। 
• विश्व में लगभग 14 करोड़ लड़कियों और महिलाओं को महिला जननांग छेदन का सामना करना पड़ा है।
• आधुनिक समय में अवैध मानव तस्करी लाखों महिलाओं और लड़कियों को गुलामी के दलदल में धकेलती है। दुनिया भर में बंधुआ मजदूरी के अनुमानित 20.9 मिलियन पीड़ितों में से 55 प्रतिशत महिलाएं और लड़कियां होती हैं, जिन में से अनुमानित 4.5 मिलियन में से 98 प्रतिशत यौन शोषण के लिए मजबूर हैं। 
• आधुनिक समय में बलात्कार युद्ध की एक व्यापक रणनीति रही है। रूढ़िवादी अनुमान बताते हैं कि बोस्निया और हर्जेगोविना में 1992-1995 के युद्ध के दौरान 20,000 से 50,000 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था, जबकि 1994 के रवांडा नरसंहार में लगभग 2,50,000 से 5,00,000 महिलाओं और लड़कियों को निशाना बनाया गया था।
• यूरोपीय संघ के देशों में 40 से 50 प्रतिशत महिलाएं काम के दौरान अवांछित यौन शोषण, शारीरिक स्पर्श या अन्य प्रकार के यौन उत्पीड़न का अनुभव करती हैं। 
• भारत और दक्षिण एशिया के कुछ हिस्सों में बेटे के जन्म को काफी  प्राथमिकता दी जाती है। पितृसत्तात्मक मानसिकता, आय में कम योगदान और दहेज की असीमित मांगों के कारण लड़कियों को परिवार के लिए एक बोझ माना जाता है।
• भारत में प्रसव पूर्व लिंग चयन और भ्रूणहत्या के कारण पिछले 20 वर्षों में प्रति वर्ष आधा मिलियन लड़कियों की प्रसव पूर्व हत्या और मृत्यु हुई।
• कोरिया गणराज्य में, लगभग 30 प्रतिशत मादा भ्रूणों का गर्भपात कर दिया गया। इसके विपरीत, 90 प्रतिशत से अधिक गर्भ, जिनमें पुरुष भ्रूण थे, उन का सामान्य जन्म हुआ।
• चीन की 2000 की जनगणना के अनुसार, नवजात लड़कियों और लड़कों का अनुपात 100:119 था।
• मेक्सिको में, स्यूदाद जुआरेज़ में युवा महिलाओं की हत्या और गायब होने की घटनाओं की उच्च दर, जिसमें हाल ही में खतरनाक बढ़ोतरी देखी गई है, पिछले 10 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रही है।
• भारत और पाकिस्तान में हजारों महिलाएं दहेज हत्या की शिकार होती हैं। अकेले भारत में ही 2005 में लगभग 7000 दहेज हत्याएं हुईं, जिनमें अधिकांश पीड़ित 15 से 34 वर्ष की आयु की थीं।
ये उनमें से बहुत थोड़े से आँकड़े हैं जो मुझे इस विषय पर शोध करते समय प्राप्त हुए। दुनिया के हर देश में, हर समाज में और हर संस्कृति में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का अपना कारण और अपना औचित्य है। वे जो कुछ भी छुपा  सकते हैं, उसे छिपाते हैं और अपने यहाँ की एक आदर्श तस्वीर पेश करने की कोशिश करते हैं, जिसमें वे खुद फरिश्ते, और बाकी दुनिया शैतान जैसी दिखती है।
लेकिन जब हम महिलाओं के लिए अपमानजनक और खतरनाक होने के नाते किसी  और संस्कृति और धर्म की निंदा करने का फैसला करते हैं, तो हम लैंगिक हिंसा की विस्तृत दुनिया से खुद को दूर और अलग-थलग दिखाने का प्रयास कर रहे होते हैं। ऐसा कर के हम अपने हाथ उठा कर कह सकते हैं कि इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, जब कि वास्तविकता तो यह है कि लैंगिक हिंसा किसी विशिष्ट क्षेत्र या संस्कृति की  पैदाइश नहीं है, और यह एक ऐसी चीज़ है, जिसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं।
                                                                                             ...........जारी


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१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...