Thursday, 23 June 2022

जाति को सबसे बड़ा झटका तो वर्ग संघष से ही लगा -दीपंकर भट्टाचार्य,महासचिव,भाकपा माले


• लोहियावादी विमर्श में तो सबसे ज्यादा जाति की बात हावी है।
*सोशल इंजीनियरिंग से जाति प्रथा को फिर से नई जिंदगी मिल गई।
*अम्बेडकर के अनुसार- एक दौर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का गठबंधन था।
*फिर दूसरे दौर में ब्राह्मण और बनिया का गठबंधन था।
*लेकिन आज के दौर को क्या कहिएगा?
*नरेंद्र मोदी भी ब्राह्मण नहीं हैं।

अब आप देखिये कि हमने क्या बातें उठाई. हमने कहा कि सामंतवाद को खत्म करना है. सामंतवाद का एक भौतिक आधार है पूरे देश में जो भूमि संबंध कायम है, वह सामंतवाद का भौतिक आधार है. इस जमीन के सवाल को छोड़ करके, सिर्फ अगर हम ब्राह्मणवाद की बात करेंगे, मनुवाद की बात करेंगे, तो मनुवाद से आज के दौर का सामंतवाद समझ में नहीं आएगा. बिहार में हमारी लड़ाई शुरू हुई तो सबसे पहले जिस सेना से हमें टकराना पड़ा, वह भूमि सेना थी. वह कोई ब्राह्मणों की सेना नहीं थी, कोई मनुवादी सेना नहीं थी. वह कुर्मी जमींदारों की, धनी किसानों की, कुलकों की सेना थी. कभी आपको टकराना पड़ा लोरिक सेना से, जरूर आपको रणवीर सेना से भी टकराना पड़ा, ब्रह्मर्षि सेना से भी टकराना पड़ा. अतः आज पूरे भारत में सामंतवाद को समझने के लिए, सामंती अवशेष इतना मजबूत कैसे हैं, इसे समझने के लिए यह समझना होगा कि किन लोगों को जमींदारी उन्मूलन का सबसे ज्यादा फायदा मिला. जो भी थोड़ा-बहुत भूमि सुधार हुआ, उससे एक बड़ा धनी किसानों का तबका उभरा, नए जमींदारों का तबका उभरा, उसको अगर आप नहीं समझ पाएंगे, बस मनुवाद - मनुवाद चिल्लाते रहेंगे, उससे कोई खरोंच तक नहीं आएगी, उससे पूरे देश में जो सामंती व्यवस्था है, वह जैसी है वैसी ही बनी रहेगी.
तो यह एक बड़ा सवाल है, तथाकथित अम्बेडकरवादी विमर्श में, तथाकथित लोहियावादी विमर्श में इस पूरे भौतिक आधार को आर्थिक आधार को छोड़ दिया जाता है, और आर्थिक आधार को, भौतिक आधार को छोड़ करके आप सिर्फ जाति की बात करने लगते हैं, तो उससे जाति का खात्मा नहीं होता. उलटे हमने देखा कि जाति मजबूत हो जा रही है. हम चले थे जाति को खत्म करने के लिए, लेकिन हमारे दिलोदिमाग पर सबसे ज्यादा तो जाति की बात हावी है. हम अगर मजदूरों को देखेंगे, तो पहचानेंगे कि ये दलित है, ये पिछड़ा है, ये किसी ऊंची जाति से है, और अगर कभी जाति से आया कोई व्यक्ति मजदूर बना, तो हम उसको मानेंगे कि यह तो ब्राह्मणवाद की साजिश है. मतलब यह है कि पूरे देश में जो सामाजिक विकास की गति है, उसे हम नहीं समझते. अम्बेडकर ऐसा नहीं करते थे. अम्बेडकर में जबर्दस्त गति है, आप देखेंगे कि वे 1950 तक पूरी अर्थव्यवस्था में क्या बदलाव आ रहा है, उसको भलीभांति देख रहे थे..

= आज अगर हिंदुस्तान में जातियां कुछ कमजोर हुई हैं, शिथिल हुई हैं, तो कैसे हुई हैं? वह क्या सिर्फ लोहियावादी विमर्श से, अम्बेडकरवादी विमर्श से और तथाकथित सामाजिक न्याय के आंदोलन से या सोशल इंजीनियरिंग से हुआ है? सोशल इंजीनियरिंग से जातियां कमजोर नहीं हुई. सोशल इंजीनियरिंग से जाति प्रथा को फिर से नई जिंदगी मिल गई, उसको नई ताकत मिल गई. जाति कमजोर हुई है एक तो उसको झटका लगा आर्थिक विकास से. अगर हम आर्थिक विकास को नहीं देखेंगे कि कल-कारखाने लग रहे हैं, उद्योग बढ़ रहे हैं, मजदूर वर्ग का निर्माण हो रहा है, गांव से लोग शहर जा रहे हैं, इस माइग्रेशन (आबादी का स्थानांतरण) को नहीं समझेंगे, इस बात को नहीं समझेंगे कि नए औद्योगिक मजदूर वर्ग का विकास और निर्माण हो रहा है, तो जाति प्रथा में आई शिथिलता को नहीं समझ पायेंगे.

अम्बेडकर ने जब लेबर पार्टी का निर्माण किया था, तो उन्होंने यह कहा था कि लेबर पार्टी में भी फर्क रहता है. एक दलित मजदूर और एक ऊंची जाति से आने वाला मजदूर, दोनों मजदूर होते हुए भी कहीं-न-कहीं थोड़ा सामाजिक रूप में, सांस्कृतिक रूप में, उनकी सोच में, एक फर्क रह जाता है. यह फर्क और कुछ दिन तक रहेगा. इस फर्क के खिलाफ हमको लड़ना होगा. यह एकता हमको कायम करनी होगी. लेकिन ये लोग जो एक जगह आ रहे हैं, तो हमको लगता है कि जाति को सबसे बड़ा झटका जो लगा, वह इस आर्थिक विकास, सामाजिक विकास की जो वस्तुगत धारा है, उसी धारा से झटका लगा. दूसरा उसको बड़ा झटका लगा वर्ग संघर्ष से बल्कि सबसे बड़ा झटका इसको वर्ग संघर्ष से ही लगा. इस देश में सामंतवाद के खिलाफ, पूंजीवाद के खिलाफ, साम्राज्यवाद के खिलाफ कम्युनिस्टों की जो लड़ाई हुई, कुछ लोग समझते हैं कि उससे तो जाति को कोई झटका ही नहीं लगा. कम्युनिस्ट तो जातिवादी हैं. यह जो सोच-समझ है, वह अम्बेडकरवादी समझ नहीं है.

इसलिए यह समझना कि अम्बेडकर जहां तक पहुंचे थे 1956 में वहीं जाकर वे रुक जाते, ठहर जाते, यह समझना शायद ठीक नहीं है, अम्बेडकर अगर रहते, तो वो 1956 से लेकर  आज 2016, पिछले 60 साल में देश में जो बहुत बड़े बड़े बदलाव आए, बड़े बदलाव मतलव - जमींदारी उन्मूलन और उसके बाद तथाकथित हरित क्रांति हुई, देश में तथाकथित कृषि विकास हुआ, कृषि सुधार का काम हुआ, और उसके अंदर से, कुछ लोग कहते हैं कि नया जमींदार उभरा और आज तो कॉरपोरेट जमींदारी की बात हो रही है, तो ये जो नई जमींदारी और इसमें पिछड़ी जातियों के अंदर से इतना बड़ा एक कुलक तबका निकलकर आया, अम्बेडकर जरूर इसका हिसाब लगाते और उसके आधार पर भी तब जाति- उन्मूलन की लड़ाई कैसे आगे बढ़ेगी इसके बारे में उनको सोचना पड़ता, जैसे उस दौर में उन्होंने कहा कि देश में शासक वर्ग, हुकूमत चलाने वाले वर्ग कौन हैं - तो अम्बेडकर कहते हैं कि ब्राह्मण हैं. ब्राह्मण अकेले नहीं हैं. एक दौर में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का गठबंधन था, और आज ब्राह्मण और बनिया का गठबंधन है. यह ब्राह्मण-बनिया गठबंधन बनिया मतलब वे छोटे दुकानदारों के बारे में नहीं कह रहे हैं, बनिया मतलब वे बिड़ला के बारे में कह रहे थे, टाटा के बारे में कह रहे थे. और गांधी के बारे में कह रहे थे कि वे फ्यूडल सर्फ ऑफ कारपोरेट कैपिटल हैं ये जो कंपनी वाली पूंजी है उसके वे सामंती दास हैं. राजनीति में ये उसी के बल पर कूदते हैं, उसी के बल पर राजनीति करते हैं. तो जो उनकी नजर थी ब्राह्मण-बनिया संश्रय (एलायंस), उस दौर के लिए तो बात ठीक थी, उस समय तक जिस तरह से राजनीति में ऊंची जातियों का, और उसमें भी खास तौर से ब्राह्मणों का जो एकछत्र दबदबा था, तो उस समय अगर आप उसे कहेंगे कि यही गवनिंग क्लास (शासक वर्ग) है, तो यह बात एक हद तक मेल खाती थी. लेकिन आज अगर कोई यह कह दे कि यही शासक वर्ग है, और उसमें से ही शासक प्रतिनिधियों को ढूंढ़ें, तो बात वहां रुकी हुई नहीं है.

/ आप उत्तर प्रदेश में बीएसपी को देखिए, उनको कोई ब्राह्मणवाद से लड़ना नहीं है, उनको कत्तई ब्राह्मणों से लड़ना नहीं है, उल्टे उनको तो टिकट दे देना है, उनके साथ सत्ता में जाना है. उनको तो लड़ना है सपा से, मुलायम सिंह से लड़ना है. उत्तर प्रदेश में यादव जाति का जो वर्चस्व बढ़ा हुआ है, जो नया तबका उभरा है, उससे उनकी लड़ाई है. अब उनकी ब्राह्मणों से लड़ाई पुरानी पड़ गई है. लेकिन आज भी कुछ लोग अम्बेडकरवाद के नाम पर इसी संकीर्णता पर कायम हैं कि उनको और कुछ नहीं देखना है. अभी हमारे कामरेड स्वपन जी का निधन हुआ, स्वपन जी के निधन बाद हमने जब शोक प्रकट करते हुए ट्विटर पर लिखा कि का. स्वपन मुखर्जी नहीं रहे, तो हमने देखा कि एक अम्बेडकरवादी डॉक्टर, जो अन्यथा खूब प्रगतिशील बातें करते हैं, उन्होंने कहा कि एक और ब्राह्मण विकेट गिरा. एक और ब्राह्मण मरे.. अगर आपको इतना ही देखना है कि उनकी जाति क्या है, ऐसा तो अम्बेडकर कतई नहीं करते थे. वे कहते थे कि जन्म तो एक दुर्घटना है, किसी को कहां मालूम कि कौन कहां जाकर पैदा होगा, इसलिए आप काम देखिए, उनके विचारों को देखिए, मगर आपके लिए विचार कोई मायने नहीं रखता कि वह भाजपा का ब्राह्मण है, मनुवादी ब्राह्मण है या संयोग से ब्राह्मण घर में
पैदा हुआ कोई कम्युनिस्ट पार्टी का नेता है, जिन्होंने पूरी जिंदगी मजदूरों के लिए, किसानों के लिए, दलितों-गरीबों के लिए लड़ाई में लगा दी. इसमें आपको कोई फर्क नहीं लगता. अभी जेएनयू में एक संगठन खड़ा हुआ 'बापसा' नाम का- बिरसा अम्बेडकर-फुले छात्र संगठन, इन लोगों ने सवाल खड़ा किया कि रोहित वेमुला की लड़ाई आइसा वाले कैसे लड़ेंगे, आइसा वाले तो ब्राह्मणवादी हैं. और संयोग से इस बार अध्यक्ष पद के लिए हमारे जो उम्मीदवार थे, वे मोहित पांडे थे. तो ये सवाल खड़ा कर रहे हैं कि कोई पांडे, रोहित वेमुला की लड़ाई कैसे लड़ सकता है. इसीलिए जब जेएनयू में कड़ी लड़ाई के बाद हम जीते, तो उन्होंने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी की जीत हुई है, और जेएनयू में आइसा की, वामपंथियों की जीत हुई है. दोनों में कोई फर्क नहीं है क्योंकि दोनों जगह ब्राह्मणों की जीत हुई है.

अगर आपको अम्बेडकरवाद को, दलितवाद को यहां ले जाना है, तो उससे कोई बात निकलेगी नहीं. इसीलिए हम कहते हैं कि इस दौर में जहां हम लोग अम्बेडकर और भगत सिंह के विचारों को लेकर चल रहे हैं, वहीं हमें इस संकीर्णतावाद से भी लड़ना होगा. ऐसा संकीर्णतावादी विचार जरूर आ सकता है. हमें इस इतिहास को याद रखना होगा. यह संकीर्णतावाद अगर कहीं आ रहा है, तो उसके पीछे एक लंबा इतिहास है. सचमुच इस देश में जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था रही है, उसके अंदर इतनी क्रूरता थी, इतना अन्याय कूट-कूट कर भरा हुआ था, कि उससे कुछ दिनों तक एक किस्म का पूर्वाग्रह, विरोध का पूर्वाग्रह चलेगा. इतने दिनों तक दलितों की उपेक्षा व अपमान के खिलाफ, उसकी प्रतिक्रिया में थोड़ा-बहुत पूर्वाग्रह आ ही सकता है. हमें उसे समझना होगा, और उसको समझते हुए, उसके साथ जूझते हुए और आगे बढ़ते हुए हमलोगों को वर्ग की पूरी एकता कायम करनी होगी.

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