Monday, 28 February 2022

चमत्कार

👉हजार साल पहले महमूद गजनवी ने दो बातें सिद्ध की - 

1.पहली बात यह कि इस देश के मंदिरों में भगवान नहीं, बेईमान बैठे हैं !
                     और दूसरी
2.इस देश के बड़े-बड़े दुर्गों में राजा नहीं, कायर रहते हैं!

        पर आज भी हम इन बेईमानों में चमत्कार ढूंढ रहे हैं, ये हमारी आस्था नहीं, हमारा अज्ञान है!       

1025 में महमूद गजनवी ने देवसोमनाथ को लूटा,तब इस देश में यही सब हो रहा था, जो 2019 हो रहा है!एक हजार साल बीत गये, पर हम नहीं सुधरे!
आज भी यज्ञ और हवन हो रहे हैं, मन्त्र जाप हो रहे हैं, तंत्र-साधना चल रही है !

बताते हैं कि "महमूद" जब गजनी से चला तो गुप्तचरों ने गुजरात के राजा को बताया कि महमूद "देवसोमनाथ" को लूटने आ रहा है,तो गुजरात के राजा ने अपने राजपुरोहित और सोमनाथ के पुजारियों से सलाह की कि देवसोमनाथ को कैसे बचाया जाय ? तो पंडितों ने कहा - पूरे राज्य से घी, दूध और धन इकट्ठा करो, हम यज्ञ, हवन और मृत्युंजय जाप करेंगे!गजनवी यहाँ तक नहीं पहुंचेगा और रास्ते में ही अँधा हो जायेगा!पूरे राज्य में ऐसा किया गया।

       पर गजनवी अंधा नहीं हुआ और निकट आ गया! गुजरात की सरहदों में आ गया तो गुजरात का कायर राजा लड़ने की बजाय रात में गुजरात छोड़कर भाग गया,और जब गजनवी देवसोमनाथ पहुंचा तो चंद पण्डे, पुजारियों को देखकर हैरान हो गया कि गजनी से सोमनाथ तक मेरे से कोई लड़ने तक नहीं आया और मैं बिना किसी अवरोध के मन्दिर तक पहुँच गया।

पुजारियों को देखकर उसने पूछा कि ये क्या कर रहे हैं तो लोगों ने बताया कि ये हवन, यज्ञ और मारण मन्त्र चल रहे हैं, ये आपको अन्धा करने की विधियाँ चल रही हैं, वही विधियाँ आज भी चल रही हैं, वो हवन, यज्ञ आज भी उसी रूप में जारी हैं।

सोमनाथ मन्दिर में अथाह धन देखकर गजनवी अचम्भित हो गया कि इतना धन कैसे इकट्ठा हुआ तो लोगों ने बताया कि मूर्ति का चमत्कार है जो हवा में लटकी है।

इस चमत्कार को जानने के लिये गजनवी ने मन्दिर का गुम्बद तुड़वाया तो चारों तरफ चुम्बक निकला और चमत्कारी मूर्ति जमीन पर आ गिरी।

बस यही एक चमत्कार है, जो हजार साल पहले से इस देश में काम कर रहा है बाकी बेईमानी के अलावा इस देश में दूसरा कोई भौतिक चमत्कार नहीं है।
।।जय विज्ञान।।

Friday, 25 February 2022

युद्ध कविता

यूक्रेन में फंसे छात्र

ये जो लोग उक्रेन से छात्रों को सुरक्षित लाने के लिए इतने चिंतित हैं, इन्होंने ये भी सोचना चाहिए कि इन छात्रों को उक्रेन चीन रूस जार्जिया न जाने कहां कहां जाना क्यों पडता है? इस देश में ऐसी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था क्यों नहीं है जो सभी छात्रों को यहीं शिक्षा हासिल हो सके? यहां शिक्षा इतनी महंगी क्यों है कि सिर्फ अमीरों के लिए आरक्षित हो गई है? जिन्हें यहां मौका नहीं मिलता वो इन देशों में जाकर खरीद लेते हैं, पर यहां सबके लिए समान सुलभ सार्वजनिक सार्वत्रिक शिक्षा व्यवस्था का विरोध करते हैं। तब इन्हें टैक्सपेयर का पैसा याद आता है। अब सरकार इन्हें लाने की व्यवस्था करेगी तो किसका पैसा लगेगा रे?
एकमात्र आरक्षण जिसका विरोध करना चाहिए वह यह अमीरों वाला आरक्षण है। पर ये लोग विरोध करते हैं अगर वंचितों उत्पीडितों के लिए थोडी सी भी सुविधा दी जाये। तब इन्हें मेरिट याद आती है, ये उक्रेन वगैरह में कौन सी मेरिट से जाते हैं भाई, पैसे की मेरिट से न? 
खैर, फिर भी हम इनकी तरह अपने साथी इंसानों से नफरत नहीं करते, वो तो इनके प्रिय मोदी शाह टाटा अंबानी अदानी का काम है जो ऐसी तकलीफ में भी तीन गुना भाडा मांगते हैं। हम तो इंसानी हमदर्दी वाले हैं। सरकार करे इन्हें लाने की व्यवस्था, हम नहीं करेंगे विरोध, टैक्सपेयर्स के पैसे के नाम पर।



विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार पक्की करो

*जनता बनाम संघ-बीजेपी*

*विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार पक्की करो*

*साथ ही मेहनतकश जनता के सवालों पर जन संघर्ष तेज करो* 

साथियों,
कुछ राज्यों में मौजूदा विधानसभा चुनावों का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह जनता बनाम भाजपा चुनाव में बदल गया है। ज्यादातर जगहों पर ये आम लोग ही हैं - मजदूर, किसान, निम्न मध्यम वर्ग के लोग, रेहड़ी-पटरी वाले, छात्र और युवा आदि – जो भाजपा के खिलाफ सबसे प्रबल प्रचारक बन गए हैं। जनता अब धन बल, बाहुबल व मीडिया प्रचार के बल पर होने वाले चुनाव प्रचार में मूक दर्शक मात्र नहीं है। इसके बजाय वह इस बार के चुनावों में सक्रिय खिलाड़ी है, और सफलतापूर्वक सांप्रदायिक और राष्ट्रवादी उन्माद को भड़काने के आरएसएस-बीजेपी के फासीवादी मंसूबों और साजिशों को विफल कर रहे हैं और भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों से अपने जीवन व आजीविका की समस्याओं-तकलीफों - मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी, किसानों के मुद्दे, महिलाओं के खिलाफ अपराध, शिक्षा और स्वास्थ्य से परे, सरकार कोरोना के दौरान लोगों को बीमारी और भूख - पर स्पष्ट और तीखे प्रश्न पूछ उनसे जवाब मांग रहे हैं। 

यह चुनाव ऐसे वक्त में हो रहा है, जब दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं पर महंगाई आसमान छू रही है, बेरोजगारी ऐसी तेजी से बढ़ रही है कि 20 से 30 उम्र की तो लगभग पूरी पीढ़ी ही अब बेरोजगार है, श्रमिकों के सामने छंटनी और गिरती मजदूरी मुंह बाये खड़ी है, किसानों के खेतों को छुट्टे सांड व अन्य पशु नष्ट कर रहे हैं और किसानों व छोटे व्यवसायियों की आय में तेज गिरावट आई है। ऑनलाइन डिजिटल शिक्षा के नाम पर बंद स्कूल, लगभग न के बराबर स्वास्थ्य सेवाएं, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और दलितों पर अत्याचार, सरकार द्वारा अपराधियों के बजाय पीड़ितों पर पूरी ताकत दिखाना, जैसे हाथरस में हम सबने देखा, यही बीजेपी सरकारों का मूल चरित्र है।

1 फरवरी को जो आम बजट पेश हुआ, उसने भी साफ दिखा दिया है कि इस सरकार के लिए बेरोजगारी, महंगाई, बढ़ती भुखमरी, शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था की सम्पूर्ण बदइंतजामी व उसे महंगा कर आम लोगों की पहुँच से दूर करना, आदि समस्याओं का कोई महत्व नहीं। वह अब उन के समाधान हेतु कोई कदम उठाना तो दूर उनका जिक्र तक नहीं कर रही है। इसके बजाय वह बड़े कॉर्पोरेट पूंजीपति घरानों जैसे अदानी, अंबानी, टाटा, आदि की दौलत व मुनाफे बढ़ाने में पूरी ताकत से जुटी है। यहां तक कि अंबानी की दौलत एक ही साल में दुगनी हो गई। उधर किसान आंदोलन के सामने झुकना तो पड़ा मगर गरूर से भरी मोदी सरकार अब किसानों से इसका बदला लेने पर उतारू है – कृषि बजट व एमएसपी पर फसलों की सरकारी खरीद के लक्ष्य दोनों में पहले के मुकाबले और कटौती कर दी गई है। खाद्य सब्सिडी में बड़ी कटौती बताती है कि गरीब लोगों को कोरोना काल में मिल राशन चुनावों के बाद बंद होने वाला है। शिक्षा-स्वास्थ्य, आदि का तो जिक्र तक नहीं किया गया। 
   
नरेंद्र मोदी द्वारा सांप्रदायिक-राष्ट्रवादी उन्माद फैलाने के लिए फिरोजपुर फ्लाईओवर पर चली गई चाल बुरी तरह विफल रही है, अधिकांश लोग उससे बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुए हैं। इसने बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया है, यहां तक ​​कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को वहां से उम्मीदवार बनाकर अयोध्या और मंदिर के मुद्दे पर पूरे चुनावी माहौल को सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण करने की रणनीति को छोड़कर गोरखपुर वापस भागना पड़ा है। इसी तरह, विभिन्न राज्यों में कई प्रमुख भाजपा नेताओं और मंत्रियों को अपने ही निर्वाचन क्षेत्रों में लोकप्रिय प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है और कई जगहों पर प्रचार करने से भी रोका जा रहा है।

इसकी एक बड़ी वजह है किसानों के साथ हुआ विश्वासघात - उन्हें लग रहा है कि चुनाव में बीजेपी की जीत मोदी के लिए कृषि कानूनों को वापस लाने का पक्का संकेत होगा। दूसरे, छात्र और युवा भयावह बेरोजगारी और भर्ती प्रक्रिया के मुद्दे पर आरएसएस-भाजपा शासन के 'सबका साथ, सबका विकास' मॉडल की क्रूरता का भी अनुभव कर रहे हैं। जनता के अन्य सभी तबकों को भी ऐसा ही अनुभव हुआ है जब भी उन्होंने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने की कोशिश की है। यहां तक ​​कि जिन लोगों ने कोरोना के दौरान घुटती सांसों से हांफ रहे अपने रिश्तेदारों-दोस्तों को बचाने के लिए सिर्फ ऑक्सीजन सिलिन्डर का अनुरोध किया, उन्हें भी इस 'मजबूत' सरकार द्वारा नहीं बख्शा गया, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र और यहां तक ​​कि उनकी अपनी पार्टी के ही क्यों न हों।

अतः मौजूदा स्थितियों में राज्य विधानसभा चुनावों में फासीवादी भाजपा की चुनावी हार एक स्वागत योग्य और सकारात्मक परिणाम होगी, क्योंकि यह निश्चित रूप से फासीवादी आरएसएस-भाजपा के लिए एक झटका होगा और पूरे देश की जनता में भाजपा विरोधी गुस्से के बढ़ते ज्वार के ताप को और बढ़ा देगा। इसलिए फासीवादी भाजपा की चुनावी हार सुनिश्चित करने के लिए सभी फासीवाद विरोधी ताकतों को अपनी पूरी ताकत लगा जनता से बीजेपी को एक भी वोट न देने की अपील करनी चाहिए।

हम जानते हैं कि सिर्फ भाजपा की चुनावी हार से ही जनजीवन की समस्याएं हल नहीं हो जाएंगी। लेकिन आम लोगों की बढ़ती राजनीतिक चेतना, शक्तिशाली इजारेदार कॉर्पोरेट पूंजी और उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया घरानों द्वारा वित्तपोषित आरएसएस-बीजेपी के सांप्रदायिक और कट्टर प्रचार के सामने उनके जीवन की वास्तविक समस्याओं पर जोर, और राजसत्ता व कॉर्पोरेट पूंजी के बीच संबंधों की उनकी बढ़ती जानकारी उन्हें इस एहसास की ओर ले जाएगी कि यह न केवल इस या उस बुर्जुआ पार्टी की सरकार बल्कि वह पूंजीवादी व्यवस्था ही है जो उनके गहन शोषण और अत्यधिक दुख-तकलीफ के लिए जिम्मेदार है। जैसे-जैसे पूंजीवाद का आर्थिक संकट गहराता जा रहा है, इसके भी जल्द से जल्द होने की संभावना है और अभी जनता के विभिन्न तबकों के जो संघर्ष उभर रहे हैं उनका ज्वार बढ़ता ही जाएगा। इन जनसंघर्षों पर नृशंस दमनचक्र चलाने, सभी जनवादी अधिकारों को छीनने और मेहनतकश जनता में आपसी वैमनस्य पैदा करने वाली फासिस्ट बीजेपी सरकार को चुनावी झटका भी इस दिशा में एक बड़ा काम होगा। इसलिए बीजेपी को चुनाव में हराना इस वक्त की बड़ी जरूरत है।  

इससे पहले कि हम समाप्त करें, एक चेतावनी। फासीवादी भाजपा चुनाव में हार और सरकार की बागडोर खोने से बचने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। वे लोगों की एकता को तोड़ने और अपने लिए आपसी दुश्मनी पैदा करने के लिए हर तरह के जोड़-तोड़ का इस्तेमाल करेंगे। आम लोगों व सभी फासीवाद विरोधी ताकतों के लिए अनिवार्य है कि वे ऐसी किसी भी घटना के लिए सतर्क रहें और चुनावों से पहले और बाद में आरएसएस-भाजपा के जघन्य मंसूबों को विफल करने के लिए लोगों के बीच एकता और एकजुटता बनाए रखने के ऐसे किसी भी प्रयास पर तत्काल इसे विफल करने वाली प्रतिक्रिया दें।

साभार, 
*'यथार्थ' | 'द ट्रुथ' | 'सर्वहारा' | सर्वहारा एकता मंच | इफ्टू (सर्वहारा)*

Thursday, 24 February 2022

यू. पी. विधानसभा चुनाव में हर जाति धर्म के जनसाधारण मेहनतकशों से अपील



80- 20 या 15-85 का नारा लगाने वाले 10% पूंजीवादियों के पक्ष में नहीं, बल्कि 90% गरीब मेहनतकशों के पक्ष में मतदान करे ।

धर्मसम्प्रदायवादियों व छद्म धर्मनिरपेक्षों के पक्ष में नहीं, बल्कि सम्प्रदायवाद-विरोधियों के पक्ष में मतदान करे।

राजनीतिक जातिवाद करने वालों के पक्ष में नहीं, बल्कि राजनीति में जातिवाद का विरोध करने वालों के पक्ष में मतदान करे।

खुला-छिपा जातिगत भेदभाव करने वालों के पक्ष में नहीं, बल्कि जातिगत भेदभाव, ऊँच-नीच का विरोध करने वालों के पक्ष में मतदान करे।

देशी विदेशी पूँजीशाहों का लाभ परिसम्पत्तियां बढ़ाने वाली और 90% जनसाधारण की मंहगाई, बेरोजगारी बढ़ाने वाली निजीकरण, उदारीकरण, विश्वीकरण की नीतियां 
लागू करने  वालों के पक्ष में नहीं, बल्कि उनका लगातार विरोध करने वालों के पक्ष में मतदान करे ।

राजाओं- महाराजाओं के दान खैरात की तरह मुफ्त राशन, मुफ्त बिजली जैसे नारों के पक्ष में नहीं, बल्कि सबको रोजगार देने, मंहगाई कम व खत्म करने, शिक्षा- स्वास्थ्य , रेलवे, सड़क आदि का निजीकरण खत्म करने की दिशा में काम करने वालों के पक्ष में मतदान करे ।

कृषि सुधार, श्रम सुधार, शिक्षा सुधार की नीतियां लागू करने वालों, उनके मौन समर्थकों व ढुलमुल विरोधियों के पक्ष में नहीं, बल्कि उन सुधारों- नीतियों का लगातार विरोध करने वालों के पक्ष में
            मतदान करें

ओमप्रकाश सिंह ।

गोपालपुर विधानसभा, आज़मगढ़ से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के उम्मीदवार मित्रसेन को वोट दें!

गोपालपुर विधानसभा, आज़मगढ़ से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) के उम्मीदवार मित्रसेन को वोट दें!

चुनाव चिन्ह:-ईंट

भाइयो! साथियो! विधानसभा चुनाव ऐसी स्थिति में हो रहा है जबकि कोरोना महामारी में सरकार की भयंकर बदइन्तज़ामी व आपराधिक लापरवाही, कमरतोड़ मँहगाई, बेरोज़गारी, बहुत कम मज़दूरी, चिकित्सा सुविधा व खाद्य सुरक्षा के अभाव आदि से आम जनता का जीना दूभर हो गया है। खेतों, निर्माण कार्यों और ईंट-भट्ठे आदि में काम करने वाले ग्रामीण मज़दूर, शहरों के औद्योगिक तथा दिहाड़ी मज़दूर, रेहड़ी-खोमचा लगाने वाले, छोटा-मोटा धन्धा करने वाले तथा छोटे-ग़रीब किसान भयानक दुर्दशा के शिकार हैं। बेरोज़गारी की मार से त्रस्त छात्र-नौजवान हताशा-निराशा के शिकार होकर आत्महत्या तक करने को मजबूर हो गये हैं। अल्पसंख्यकों, स्त्रियों, दलितों पर अत्याचार के पुराने सभी रिकॉर्ड टूट चुके हैं और  मेहनतकशों, छात्रों, कर्मचारियों के आन्दोलनों के दमन के लिए प्रदेश में पुलिसराज क़ायम है।

उत्तरप्रदेश में भाजपा के "रामराज्य" के पाँच साल,

मेहनतकश बेहाल, पूँजीपति-नेता-नौकरशाह मालामाल!

पिछले पाँच सालों में जनता के अधिकारों पर डाका डालकर पूँजीपतियों की तिजोरी भरने वाली भाजपा ने उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में "लोक कल्याण" संकल्प पत्र-2022 के नाम से अपना चुनावी घोषणा पत्र या जुमला पत्र जारी किया है। भाजपा के इस जुमला पत्र में ग्रामीण-शहरी मजदूरों, छात्रों, कर्मचारियों, महिलाओं, किसानों सभी के लिए झूठे वायदे और शिक्षा, चिकित्सा, खाद्य सुरक्षा, आवास, बिजली, परिवहन जैसे मुद्दों पर ख़ूब ज़ुबानी जमाख़र्च किया गया है। पिछले चुनाव में भी भाजपा ने ऐसे ही ढेर सारे वायदे किये थे। आइये देखते हैं कि भाजपा ने पाँच साल में उन वायदों पर कितना अमल किया। पिछले चुनाव में भाजपा ने 70 लाख रोज़गार पैदा करने का दम भरा था। लेकिन सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक़ मार्च 2017 से नवम्बर 2021 के बीच प्रदेश में बेरोज़गारी दर दोगुनी हो गयी। प्रदेश में लगभग 17 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं और पिछले पाँच साल में 16 लाख लोग अपनी नौकरियाँ गवाँ चुके हैं। नयी भर्तियाँ निकाली नहीं जा रही हैं, जो भर्तियाँ निकल भी रही हैं उनमें परीक्षा का पर्चा लीक होना और घूसखोरी एक नियम बन चुका है।

चुनाव से पहले भाजपा ने ग्रामीण मज़दूरों के लिए श्रम क़ानून बनाने का वादा किया था, लेकिन चुनाव के बाद ग्रामीण मजदूरों के लिए श्रम क़ानून बनाना तो दूर, औद्योगिक मज़दूरों के लिए बने श्रम क़ानून को भी प्रदेश में 1 हज़ार दिनों के लिए निरस्त कर दिया। मज़दूरी न देने पर मालिकों को जेल की सज़ा के नियम को भी ख़त्म कर दिया। भाजपा की केन्द्र सरकार ने सारे श्रम क़ानूनों को समाप्त कर मज़दूर विरोधी '4 लेबर कोड' बना दिया। कोरोना महामारी के दौरान मज़दूरों को दवा-इलाज, खाने का प्रबन्ध करने की जगह हजारों किलोमीटर से पैदल निकल पड़ने वाले लाखों मज़दूरों को सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया। कर्मचारियों के कई भत्ते समाप्त कर दिये। योगी सरकार द्वारा 21 जिलों की बिजली को प्राइवेट हाथों में सौंपने की स्कीम कर्मचारियों के बड़े पैमाने पर विरोध और चुनाव के कारण अमल में लाने से कुछ समय के लिए रोक दिया गया है लेकिन सरकार की मंशा साफ़ है। उत्तर प्रदेश के संविदा कर्मियों, आशा कर्मियों, आँगनबाड़ी, रोज़गार अनुदेशक, रसोइयों, शिक्षामित्रों के मानदेय बढ़ाने या कर्मचारी का दर्ज़ा देने की माँग को कुचल दिया गया। चुनाव के नज़दीक आने पर इनके मानदेय में भाजपा सरकार द्वारा 1000 रुपये की वृद्धि का जो झुनझुना दिया भी गया उसे अभी तक लागू नहीं किया गया।

प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति यह है कि लगभग 1 लाख 59 हज़ार परिषदीय विद्यालयों में से 1 लाख से ज़्यादा बिना प्रधानाध्यापक के चल रहे हैं। प्रदेश के 40,000 से ज़्यादा स्कूलों में बच्चे ज़मीन पर बैठकर पढ़ाई करते हैं। 50 हज़ार से अधिक स्कूलों में क्लासरूम, फ़र्नीचर, शौचालय, पेयजल, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं हैं। प्राइवेट स्कूलों की लूट और सरकारी तन्त्र की बदहाल स्थिति देश के मेहनतकशों के बेटे-बेटियों को शिक्षा से दूर ढकेल रही है।

प्रदेश में चिकित्सा की बदहाली का आलम यह है कि औसतन सवा तीन लाख लोगों पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र है और एक लाख की आबादी पर केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है जबकि मानक के हिसाब से हर एक लाख की आबादी पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर 30 हज़ार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र होना चाहिए। ज़्यादातर प्राथमिक, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र डॉक्टरों और कर्मचारियों के भयंकर अभाव से जूझ रहे हैं। प्रदेश के ज़्यादातर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र फ़ार्मासिस्टों के भरोसे चल रहे हैं और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर एमडी डॉक्टर तक नहीं हैं। लोग इलाज कराने के लिये झोलाछाप डॉक्टरों व प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर हैं। प्रदेश में चिकित्सकों के 88 प्रतिशत व नर्सों के लगभग 80 प्रतिशत पद ख़ाली हैं।

मँहगाई की वजह से ग़रीबों-मेहनतकशों का जीना मुहाल है। आज़मगढ़ के देवारा का पूरा इलाक़ा हर बार बाढ़ की चपेट में आ जाता है। लोगों की फ़सल बर्बाद हो जाती है। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। कच्चे घर पानी से गिरने लगते हैं। साँप के काटने से लोगों की मौत हो जाती है। भाजपा के नेता हर चुनाव में इस इलाके के लोगों को बाढ़ से मुक्ति दिलाने का वायदा करते हैं और चुनाव बीतने के बाद भूल जाते हैं।

महिलाओं की सुरक्षा और 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' का नारा देने वाली भाजपा सरकार में सबसे ज़्यादा महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध करने वाले सांसद-विधायक हैं। उन्नाव और हाथरस की बर्बर घटनाएँ सभी को याद होंगी। महिलाओं के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा अपराध उत्तर प्रदेश में होते हैं। इसी तरह एनसीआरबी द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार दलितों के ख़िलाफ़ अपराध के मामले में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है।

भाजपा की राजनीति ही अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर टिकी है। सीएए-एनआरसी की साज़िश के ख़िलाफ़ जब देश भर में इंसाफ़पसन्द नागरिकों ने सड़कों पर उतर कर विरोध किया तो उत्तर प्रदेश सरकार ने भयंकर दमन किया। फ़र्ज़ी मुक़दमें लगाकर लोगों को जेलों में ठूँस दिया। चुनाव आते ही भाजपा फ़िर से हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण करने के लिए मथुरा में मन्दिर का मामला उछाल रही है। भाजपा ने पिछले पाँच साल में जनान्दोलनों का बर्बर दमन किया है। छात्रों के प्रतिरोध को कुचलने के लिए छात्र संघ चुनावों पर रोक लगा दी है। पूरे प्रदेश को पुलिस राज में तब्दील करने वाली भाजपा गुण्डाराज-माफ़ियाराज से मुक्ति दिलाने का ढोंग कर रही है जबकि सबसे ज़्यादा अपराधियों को भाजपा ने ही टिकट दिया है।

वास्तव में भाजपा ने केवल पूँजीपतियों का कल्याण किया है। ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार हालिया वर्ष 2021 में 84 प्रतिशत घरों की आमदनी तेज़ी से घटी है। वहीं भारत के 100 सबसे अमीर परिवारों की आमदनी में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। देश के 98 धन्नासेठों के पास उतना धन इकट्ठा हो गया है जितना देश के 55 करोड़ लोगों के पास भी नहीं है। कोरोना महामारी के दौरान भी सरकार ने पूँजीपतियों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसीलिए पूँजीपतियों ने भी भाजपा के चुनाव प्रचार में अपनी तिजोरियाँ खोल दी हैं। वास्तव में मन्दी के शिकार पूँजीपति वर्ग को भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी की ही ज़रूरत है। क्योंकि भाजपा व संघ परिवार ही वर्तमान समय में जनता के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व दमन के ज़रिये पूँजीपति वर्ग को लूट की गारण्टी देने में सक्षम है।

फ़ासीवादी भाजपा के अलावा सपा, बसपा, कांग्रेस,आप

जैसी पूँजीवादी पार्टियों की सच्चाई जानो!

निश्चित तौर पर, भाजपा हिटलर-मुसोलिनी की तर्ज़ पर चलने वाली एक फ़ासीवादी पार्टी है जो अवाम के लिए बहुत ही ख़तरनाक है। लेकिन हमें यह बात समझनी होगी कि कांग्रेस, सपा, बसपा, रालोद, आप जैसी पूँजीवादी पार्टियाँ भी जनता का शोषण करने और पूँजीपतियों की तिजोरी भरने के मामले में भाजपा से अलग नहीं हैं। नकली वामपन्थी पार्टियाँ भी इसी पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति हैं। जनता के हितों का ढोंग रचने वाली ये पार्टियां असल में धनबल-बाहुबल, जातीय-धार्मिक समीकरण के आधार पर ही चुनाव लड़ रही हैं। ये पार्टियाँ वास्तव में देश के ऊपर के उन दस प्रतिशत पूँजीपतियों, बड़े व्यापारियों, धन्नासेठों, ठेकेदारों, भट्ठा मालिकों, प्रॉपर्टी डीलरों, धनी किसानों-कुलकों (ग्रामीण पूँजीपति वर्ग) के हितों की रक्षक हैं जिनका देश की 70 फ़ीसदी से अधिक सम्पत्ति और संसाधनों पर कब्ज़ा है। ये वही वर्ग है जो भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, रालोद से लेकर संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियों को भी चन्दा देता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि ये पार्टियाँ उसी वर्ग की सेवा करेंगी जिनके दम पर ये चुनाव लड़ती हैं और सत्ता हासिल करती हैं। अभी हाल ही में आयी एडीआर (एसोशिएसन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म) की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा 6988 करोड़ 57 लाख रुपये की कुल घोषित सम्पत्ति में भाजपा का हिस्सा 4847 करोड़ 78 लाख रुपये है जो कि सभी पार्टियों की घोषित सम्पत्ति का तक़रीबन 70 फ़ीसदी है। इसके अलावा बसपा, कांग्रेस, सपा, आम आदमी पार्टी, सीपीएम, तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई, एनसीपी, एआईएमआईएम जैसी पार्टियों को भी पूँजीपति वर्ग के चन्दा/फण्ड का एक हिस्सा प्राप्त होता है।

एडीआर के अनुसार पहले चरण के लिये 58 सीटों पर खड़े प्रत्याशियों में से लगभग एक चौथाई यानी 156 प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं, जिनमें 121 पर गम्भीर आपराधिक मामले हैं। करोड़पति प्रत्याशियों की तरह अपराधियों को टिकट देने के मामले में भी भाजपा नम्बर एक पर है। भाजपा के 57 प्रत्याशियों में 29 पर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं, जबकि सपा के 28 प्रत्याशियों में से 21, कांग्रेस के 58 में से 21, बसपा के 56 में 19 और आप के 52 में से 8 प्रत्याशियों पर आपराधिक मामले दर्ज़ हैं।

ज़ाहिर है कि भाजपा के अलावा इन पार्टियों में से किसी भी पार्टी के जीत जाने से आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला है। आपातकाल से लेकर यूएपीए जैसा कुख्यात क़ानून कांग्रेस की ही देन है। लक्ष्मणपुर बाथे, हाशिमपुरा जैसे काण्ड कांग्रेस के समय में ही हुए थे। मन्दिर का ताला खुलवाने के सॉफ्ट केसरिया लाइन से लेकर सिख विरोधी दंगों तक में कांग्रेस की भूमिका सबको याद ही होगी। छात्र-नौजवान, कर्मचारी, मज़दूर जिन आर्थिक उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की मार झेल रहे हैं, सरकारी विभाग बेचे जा रहे हैं वो कांग्रेस द्वारा ही अमल में लाई गई थीं। सपा, बसपा और नकली वामपन्थी पार्टियाँ कांग्रेस के साथ गठबन्धन में शामिल हो चुकी हैं और कांग्रेस के कुकृत्यों में बराबर की भागीदार रही हैं। ये पार्टियाँ कई राज्यों में स्वतन्त्र रूप से सरकार चला चुकी हैं और चला भी रही हैं, लेकिन जनता के दुःख़-तक़लीफों में कोई कमी नहीं आई। आम आदमी के नाम की माला जपने वाली 'आप' पार्टी का चरित्र इसी से समझा जा सकता है कि 'दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन' के नेतृत्व में दिल्ली में चलने वाले आँगनवाड़ी कर्मियों के आन्दोलन की वाज़िब माँगों पर विचार करने की जगह चुनाव में व्यस्त है और दमन के नये-नये हथकण्डे अपना रही है। 

मेहनतकशों से बनी, मेहनतकशों के मुद्दे पर लड़ने वाली पार्टी,

भारत की क्रान्तिकारी मजदूर पार्टी (RWPI)!

भाइयो! साथियो! फ़ासीवादी भाजपा और सपा, कांग्रेस, बसपा, आम आदमी पार्टी जैसी पूँजीवादी पार्टियों के ऊपर बताए गए चरित्र से समझा जा सकता है कि ये पार्टियाँ भले ही ग़रीबों-मेहनतकशों के हितों में काम करने का ढिढोरा पीटें लेकिन असल में ये पूँजीपतियों के पैसों से चलती हैं और उन्हीं के हित में काम करती हैं। लोग अपने अनुभव से यह बात समझते हैं लेकिन विकल्प के अभाव में कभी इस तो कभी उस पूँजीवादी पार्टी को अपना वोट देते हैं। लेकिन मेहनतकशों को अब इन नकली विकल्पों में किसी को चुनने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि उनके बीच मेहनतकशों के वास्तविक हितों की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टी 'भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी' (RWPI) मौजूद है। आइये देखते हैं कि 'भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी' ये दावा किस आधार पर करती है?

सबसे पहला, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी मज़दूरों, जनसंघर्षों में लगे मज़दूर संगठनकर्ताओं और मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संगठनकर्ताओं द्वारा बनी है। मेहनतकशों के संघर्षों में लम्बे समय से ईमानदारी से लगे जुझारू कार्यकर्ताओं को ही RWPI चुनावों में अपना प्रत्याशी बनाती है न कि पूँजीवादी पार्टियों की तरह धनबल-बाहुबल और जाति-धर्म के समीकरण के आधार पर! दूसरा, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी स्वयं मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी द्वारा दिये गये आर्थिक सहयोग पर निर्भर है। यह किसी भी देशी-विदेशी कम्पनी, पूँजीपति घराने, सरकार, एनजीओ, फ़ण्डिंग एजेंसी, चुनावी ट्रस्ट या किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी से किसी भी प्रकार का चन्दा या फ़ण्ड नहीं लेती। चन्दा या फ़ण्ड को हम आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक प्रश्न मानते हैं, क्योंकि मेहनतकशों के आर्थिक संसाधनों पर खड़ी पार्टी ही मेहनतकश वर्गों के वर्ग हितों की सही मायने में नुमाइन्दगी कर सकती है। तीसरा, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी द्वारा उठाए गए मुद्दों के आधार पर अन्य पूँजीवादी पार्टियों से उसके फ़र्क को समझा जा सकता है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी न्यूनतम मज़दूरी को 25000 रुपए मासिक करने, सबको रोज़गार, शिक्षा और चिकित्सा में निजीकरण को पूरी तरह ख़त्म कर सबके लिए समान व निःशुल्क बनाने जैसे बुनियादी मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है। इन मुद्दों को कोई भी पूँजीवादी पार्टी इसलिए नहीं उठा सकती क्योंकि ये मुद्दे पूँजीपतियों के खिलाफ़ जाते हैं, बहुत से नेता तो ख़ुद मज़दूरों से बहुत कम मज़दूरी पर काम करवाते हैं, निजी स्कूल और अस्पताल चलाते हैं। इसलिए ये पूँजीवादी पार्टियाँ स्कूटी, लैपटॉप, मोबाइल देने और 1000-1200 पेंशन जैसे झुनझुने और रुपए-पैसे बाँटकर लोगों का वोट ले लेना चाहती हैं। चौथा, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का शुरू से ही घोषित संकल्प रहा है कि जीते हुये प्रत्याशी केवल एक कुशल मज़दूर जितना ही वेतन लेंगे और बाकी वेतन को विकास निधि में ही डाल देंगे। निर्वाचन क्षेत्र में आने वाली सभी सरकारी योजनाओं को पारदर्शी तरीक़े से लागू करने के लिये उनका सार्वजनिक ऑडिट करायेंगे और समस्त विकास कार्य जनता की चुनी गयी कमेटियों की निगरानी में होगा। पाँचवा, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये मज़दूर सत्ता को स्थापित करने और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण को अपना दूरगामी लक्ष्य मानती है। मज़दूर-मेहनतकश जनता को ग़रीबी, भुखमरी, बेघरी, कुपोषण व सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा तथा अनिश्चितता से स्थायी तौर पर मुक्ति एक समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये ही मिल सकती है। इसी दूरगामी लक्ष्य को पूरा करने के लिए समाज के हर क्षेत्र में मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष की मौजूदगी ज़रूरी है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों में भारत की क्रान्तिकारी मजदूर पार्टी इसी वजह से भागीदारी करती है।

'भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी' के प्रत्याशी मित्रसेन पिछले करीब 8 वर्षों से ग़रीबों-महनतकशों के हित में संघर्षरत हैं। देवारा के इलाक़े में वर्तमान समय में 85 लाख रुपए का पुल बन रहा है यह संघर्ष मित्रसेन के नेतृत्व में ही जीता गया। इसी तरह अभी हाल ही में बिजली के ग़लत बिल आने के मुद्दे पर संघर्ष चलाकर करीब 60 गाँवों की बिजली माफ़ करवाया। आरडब्ल्यूपीआई के नेतृत्व में लम्बे समय से इलाके में बाढ़, आगजनी, बीमारी से पीड़ित लोगों की मदद की जा रही है। ख़राब सड़कों की मरम्मत के लिए भी पिछले दिनों आन्दोलन संगठित किया गया। ग़रीब बच्चों के लिए लम्बे समय से पुस्तकालय और निःशुल्क शिक्षा सहायता मण्डल भी चलाया जा रहा है।

गोपालपुर विधानसभा निवासियों से अपील है कि नीचे दिये मुद्दों के आधार पर गोपालपुर विधान सभा से 'भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी' के मित्रसेन के चुनाव चिन्ह 'ईंट' पर मुहर लगाकर विजयी बनायें।

 

1. रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाने के लिए विधानसभा में संघर्ष करना।

2. हर काम करने योग्य नागरिक के लिये रोज़गार की गारण्टी। काम के घण्टों को क़ानूनी तौर पर अधिकतम 6 घण्टे तथा दैनिक न्यूनतम मज़दूरी रु.800 और मासिक रु.25000 के लिये। रोज़गार न मिलने की सूरत में हर बेरोज़गार को प्रतिमाह रु.10000 बेरोज़गारी भत्ता के लिये।

3. सरकारी विभागों में ख़ाली पदों को अविलम्ब भरवाने के लिये। परीक्षाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित करने और निश्चित समय सीमा के भीतर भर्ती प्रक्रिया पूरी कराने के लिये। परीक्षा शुल्क व यात्रा व्यय का ख़र्च सरकार द्वारा वहन करने के लिये।

4. ग्रामीण मज़दूरों की सुरक्षा के लिये श्रम क़ानून बनवाने और उनके क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु उपयुक्त ढाँचे का निर्माण कराने के लिये।

6. आशा-आँगनबाड़ी-पंचायतमित्र-शिक्षामित्र और अन्य स्कीम वर्कर्स को कर्मचारी का दर्ज़ा दिलाने और पे ग्रेड के अनुसार वेतन देने के लिये। हर प्रकार के नियमित कार्य में ठेका-संविदा समाप्त कराने के लिये।

7. नयी पेंशन स्कीम को रद्द करके पुरानी पेंशन स्कीम को बहाल करने के लिये। सरकारी विभागों के निजीकरण को रद्द करवाने के लिए।

8. नि:शुल्क सार्विक स्वास्थ्य देखरेख की सरकारी गारण्टी के लिये। जिसके तहत चिकित्सा व दवा-इलाज की पूरी ज़िम्मेदारी सरकार की हो।

9. भारत के हरेक नागरिक के लिये प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा के स्तर तक समान एवं निःशुल्क शिक्षा के लिये। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को वापस लेने हेतु विधानसभा से केन्द्र सरकार को प्रस्ताव भिजवाने के लिये।

10. मेहनतकशों के लिये आवास की व्यवस्था। सभी ख़ाली पड़े निजी अपार्टमेण्टों, फ़्लैटों व मकानों को ज़ब्त कर उन्हें भोगाधिकार के आधार पर मेहनतकशों को आबण्टित कराने के लिये।

11. महँगाई और कालाबाज़ारी पर रोक लगाने के लिये। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशनिंग की प्रभावी व्यवस्था के निर्माण और हर इलाक़े में सब्सिडाइज़्ड सरकारी राशन की दुकानें खुलवाने के लिये।

12. शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों, अनाथ बच्चों, लाचार वृद्धों की सभी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु सामाजिक सुरक्षा क़ानून बनाने और सरकार की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिये।

13. देवारा जैसे बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का विस्तृत सर्वे करके पुलों एवं सड़कों और बाढ़ रोकने के लिये बाँधों का निर्माण करवाने के लिये। फ़सल बर्बाद होने पर मुआवजा के लिए। बाढ़ प्रभावित इलाके में अस्पताल और परशुरामपुर में मिनी पीजीआई खुलवाने के लिए।

14. आगजनी की घटना को रोकने के लिए उचित स्थान पर अग्निशमन केन्द्र बनाने के लिए।    

15. परशुरामपुर में अलग तहसील निर्माण के लिए।

 16. विधानसभा क्षेत्र में स्टेडियम, व्यायामशाला, पुस्तकालय-वाचनालय व सांस्कृतिक केन्द्र बनाने के लिए।

17. जाति के आधार पर होने वाले हर भेदभाव को तत्काल दण्डनीय अपराध घोषित कराने और जातिगत उत्पीड़न रोकने के लिये गाँव और मोहल्ला स्तर पर जनता की कमेटियाँ बनाने के लिये।

18. घरेलू हिंसा, उत्पीड़न आदि की शिकार अकेली स्त्रियों के लिये रोज़गार व आवास की व्यवस्था कराने और इसे सुनिश्चित करने के लिये सख़्त क़ानून बनवाने के लिये।

Tuesday, 22 February 2022

निदाफ़ाज़ली साहब के ये शेर गौर तलब हैं


हर बार ये  इल्ज़ाम रह गया..!
हर काम में कोई  काम रह गया..!!
नमाज़ी उठ उठ कर चले गये मस्ज़िदों से..!
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया..!!

खून किसी का भी गिरे यहां 
नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर
बच्चे सरहद पार के ही सही 
किसी की छाती का सुकून है आखिर

ख़ून के नापाक ये धब्बे, ख़ुदा से कैसे छिपाओगे ? 
मासूमों के क़ब्र पर चढ़कर, कौन से जन्नत जाओगे ?

दिलेरी का हरगिज़ हरगिज़ ये काम नहीं है
दहशत किसी मज़हब का पैगाम नहीं है ....!
तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो..
हमें पक्का यकीन है ये कतई इस्लाम नहीं है....!!

Monday, 21 February 2022

गऊ

Isईरान में एक फ़िल्म बनी थी 1969 में "गऊ"। 💐💐💐(सबसे नीचे यू ट्यूब का लिंक है, जिसमें पूरी सिनेमा है, जरूर देंखे)💐💐💐💐

दारिउश मेहरजुई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में इजातोल्ला इंतेजामी ने मुख्य भूमिका निभाई है। ईरान के हुक्मरान अयातोल्ला खोमैनी को यह फ़िल्म बहुत पसंद थी। इस फिल्म को देखने के बाद उन्होंने ईरान में गो हत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था जो आजतक लागू है। ईरान में कोई व्यक्ति गोहत्या नहीं कर सकता।

चिकित्सा विज्ञान में एक शाखा है बोनथ्रोपी। इसमें व्यक्ति खुद को पशु समझने लगता है।पश्चिम में आज भी यह समझ पाना पहेली है कि कोई कैसे अपनी गाय से इतना प्यार कर सकता है कि खुद वह पशु ही बन जाए..?

जबकि भारत में एक देहाती किसान भी मनोविश्लेषकों से ज्यादा अच्छे से यह बात समझ सकता है और मेरे लिए पहेली यह है कि यह फ़िल्म भारत में नहीं ईरान में बनाई गई है। हर भारतीय को यह फ़िल्म देखनी चाहिए।

जब मैंने भी यह फ़िल्म देखी तो उपनिषदों के दो उदाहरण मेरी आँखों में आंसुओं के साथ ही आए। फ़िल्म में मश्त-हसन अपनी गाय से प्रेम करता है, किसी बीमारी से गाय जब मर जाती है तब वह खुद को गाय समझने लगता है। नाद में चारा खाता है, गले में घण्टी बांधता है और अपने गले में रस्सी डालकर उसी खूंटे से खुद को बांध लेता है और वहीं थान में बैठा रहता है।

गाँव वाले सोचते हैं कि यह पागल हो गया है और ईलाज कराने के लिए रस्सियों में बांधकर शहर लेकर जाने लगते हैं। मश्त हसन वहाँ उस टीले पर जाकर अड़ जाता है जहां  जाकर उसकी गाय रुक जाती थी। लोग उसे खींचते हैं लेकिन वह अड़ा रहता है। तभी एक आदमी डंडे से उसे पीटने लगता है और चिल्लाने लगता है,पशु कहीं का... पशु कहीं का....

उस समय पीड़ा से न कराहकर मश्त हसन अपनी आंखें मूंद लेता है आनंद से, वह सोचता है कि अहा, अब जाकर मैं अपनी गाय से एकाकार हो पाया हूँ। अब मैं अपनी गाय बन गया हूँ। रंभाकर दौड़ पड़ता है और एक पानी के गड्ढे में गिरकर मर जाता है।

तब मुझे याद आया कि गाय चलती तो श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप चलते थे, वह खाती तो वे खाते थे, वह बैठती तो बैठते, इतने ही एकाकार हो गए थे, गाय ही बन गए थे बिल्कुल ऐसे जैसे मश्त हसन।

सत्यकाम जब वापस आया तो गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने कहा गुरु को, हमने गिनती कर ली है पूरी हजार गऊ हैं। तब गुरु ने कहा था कि हजार नहीं एक हजार एक गऊ हैं। सत्यकाम की आंखों को तो देखो जरा ध्यान से, यह भी गाय ही बन गया है।

पश्चिम में भले ही इसे बोनथ्रोपी में वर्णित कोई बीमारी मानें लेकिन यहां पूर्व में, भारत में चेतना के विकास क्रम में यह बहुत ऊंचा पायदान है। बंधुओ, उपनिषद इसकी गवाही देते हैं, आज भी गाँव देहात में पशुओं से बात करते उनके हाव भाव समझते लाखों लोग मिल जाएंगे।

पहला प्रश्न यह उठता है कि भारतीय सिनेमा क्या कर रहा है?क्या उनसे ऐसी फिल्म बनाने की उम्मीद की जा सकती है भारत में...?

ईरानियों ने उपनिषदों की या राजा दिलीप की घटना को लेकर इतनी संवेदनशील फ़िल्म बना डाली। क्या यहां के निर्माता निर्देशकों के द्वारा ऐसा सम्भव है या सिर्फ अश्लीलता और सेट एजेंडे ही चलाने हैं फिल्मों में।अगर सच में भारत में गऊ का थोड़ा भी मान है हृदय में तो बहिष्कार करो इन भांडों का।

दूसरा पक्ष सत्ता के अंधेरे गलियारों का है। एक मुश्लिम राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष अयातोल्ला खोमैनी फ़िल्म देखकर गौकशी पर प्रतिबंध लगा सकता है तो यहां के सत्ताधारियों के हृदय नहीं पसीजते क्या....?

उनको गाय और गोपूजक बहुसंख्यकों की पीड़ा नहीं दिखती?

अगर नहीं दिखती तो आंखें खोल कर देखें, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाकर हिंदुओं को भी उसका विधिक अधिकार दें,,,
गऊ विश्वस्य मातरः
साभार:–
Manoj jha

फ़िल्म The Cow का यूट्यूब लिंक

Sunday, 20 February 2022

रूस और यूक्रेन के बीच विवाद - असरात आशंकाएं और संभावनाएं डॉक्टर अजय पटनायक



रूस और यूक्रेन दोनों जुड़वा देश रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूक्रेन सोवियत संघ में शामिल हुआ। सन 1990 में रूस से अलग होने के बाद से ही अमेरिका यूक्रेन सहित सोवियत संघ से अलग हुए देशों में अपनी कठपुतली सरकारें बिठाने का षड्यंत्र करता रहा है। इस क्षेत्र में अमेरिका की बढ़ती दखलंदाजी को रूस अपने लिए खतरा मानता है। पश्चिम का पूंजीवादी मीडिया रूस को आक्रमणकारी और साम्राज्यवादी देश प्रचारित कर रहा है। इस बीच नाटो की भूमिका पर कोई चर्चा नहीं है। ऐसा क्यों?

इस विषय पर कई सवालों के जवाब दिए हैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ अजय पटनायक ने। वे जोशी अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज द्वारा "रूस और यूक्रेन के बीच विवाद- असरात, आशंकाएं और संभावनाएं" विषय पर आयोजित एक वेबिनार में विषय विशेषज्ञ के रूप में बोल रहे थे। लगभग एक घंटे तक उनका व्याख्यान देश-विदेश के अनेक जिज्ञासु श्रोताओं द्वारा सुना गया। आयोजन में डॉक्टर पटनायक ने श्रोताओं के अनेक सवालों के जवाब भी दिए।

डॉक्टर पटनायक ने बताया कि अतीत में रूस और यूक्रेन दोनों जुड़वा देश रहे हैं। रूस, यूक्रेन, बेलारूस का इतिहास और संस्कृति समान है। मध्ययुग में स्लाव संप्रदाय इन देशों के भौगोलिक क्षेत्र में फैला हुआ था। किसी काल में यूक्रेन पोलैंड का भी भाग रहा है। सन 1917 की क्रांति के पश्चात अंततोगत्वा वह सोवियत संघ से जुड़ा। सन 1990 में जब यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ तब वह पश्चिम और पूर्व में विभाजित सा हो गया। एक तरफ वह क्षेत्र था जहाँ कोयले की खदानें थी, औद्योगिकरण था। दूसरी तरफ पूर्वी भाग इतना विकसित नहीं हुआ था। इस अंतर्विरोध का अमेरिका ने लाभ लेने का प्रयास किया। 

अमेरिका में राष्ट्रपति निक्सन के कार्यकाल में अमेरिकी लेखक ब्रजेंस्की ने सन 1997 में एक पुस्तक लिखी थी "ग्रांड चेस बोर्ड"। इस किताब में उसने सोवियत संघ से बाहर गए देशों को ग्रांड चेस बोर्ड कहा, जिस पर अमेरिका शतरंज के मोहरो की तरह अपनी चाल चल सकता है। ऊर्जा के क्षेत्र में रूस, ईरान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अज़रबैजान क्षेत्र समृद्ध रहे हैं। अमेरिका ने इन देशों के ऊर्जा क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए हस्तक्षेप करने की योजना बनायी। जैसा कि उसने पश्चिम एशिया में किया था। ब्रिटेन के लेखक ने मेकाइंडर जिसे जियोपोलिटिक्स (अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संबंधों पर भौगोलिक प्रभाव) का संस्थापक माना जाता है। उसने इस क्षेत्र को "हॉट लैंड" कहा था। उसके अनुसार जो देश भी इस क्षेत्र पर कब्जा करेगा वही दुनिया पर राज करेगा। ब्रजेन्स्की ने भी इसे दोहराया। लेकिन शीत युद्ध के दौरान जियो पॉलिटिक्स पर चर्चा बंद रही।

सोवियत संघ से अलग हुए  इन देशों के अपने आन्तरिक कारणों के कारण रूस के संबंध निरंतर बिगड़ने लगे थे। जबकि इनमें रूस की कोई भूमिका नहीं थी। सोवियत संघ के समय वहां संघीय ढांचा था जिसमें सभी राष्ट्रीयताओं की अलग भाषा, संस्कृति होने के बावजूद उन्हें स्वायत्तता मिली हुई थी। सोवियत संघ से अलग होने के बाद इन देशों में संकीर्ण राष्ट्रीयता की भावनाएं उभारी गयीं। अलग हुए इन देशों में रह रहे अल्पसंख्यक समूहों पर दबाव बनाया गया कि वे बहुसंख्यक समुदाय की पहचान में शामिल हो जाएं। जबकि सोवियत संघ में इन अल्पसंख्यकों को सरंक्षण प्राप्त था। सोवियत संघ से टूटते ही इन देशों में राष्ट्रवादियों ने सत्ता में आने का प्रयास प्रारंभ कर दिया। सन 2008 में जर्जीया में अल्पसंख्यकों को जर्जीयाई राष्ट्रवाद मानने के लिए विवश किया गया। जिसके चलते जर्जिया और रूस में युद्ध हुआ। जिसके कारण जर्जिया का विभाजन हो गया। आर्मेनिया और अजरबैजान की भी वही स्थिति थी। दोनों में सीमा विवाद हुआ, दोनों देश चाहते थे कि रूस उनका साथ दें। जब आर्मेनिया जीतने लगा तो अज़रबैजान ने आरोप लगाया कि वह रूस के कारण जीत रहा है। इन अलग हुए देशों के आपसी विवादों में जो पराजित होता था वह रूस पर आरोप लगाता था कि उसने हमारा साथ नहीं दिया। इस कारण इन देशों के साथ रूस का तनाव सदैव बना रहा। इन परिस्थितियों को अमेरिका ने अपने अनुकूल माना और रूस से नाराज देशों को अपने प्रभाव में लेना प्रारंभ कर दिया। ब्रजेन्स्की ने भी अपनी पुस्तक में लिखा था कि रूस के प्रभाव को कम करने के लिए सोवियत संघ से अलग हुए देशों को यूरोपीय प्रभाव क्षेत्र में शामिल किया जाए। इसी योजना के तहत अमेरिका ने इन देशों के माध्यम से रूस को घेरना प्रारंभ कर दिया, ताकि रूस उलझा रहे और बाहरी दुनिया के विवादों में हस्तक्षेप न कर सके।

शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के खिलाफ अमरीका के नेतृत्व में नेटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) का गठन किया गया। यह एक सैन्य संगठन है। शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद भी न केवल नेटो संगठन बना रहा अपितु अमेरिका रूस से अलग हुए देशों को नेटो में शामिल करने का प्रयास करता रहा, ताकि अमेरिका की पहुंच रूस की सीमा तक हो जाए। रूस के पश्चिम की ओर नेटो आ चुका है, वहीं दूसरी ओर यूक्रेन और जर्जिया के माध्यम से वह रूस को घेर रहा है। सैनिक दृष्टि से रूस और चीन अमेरिका के लिए चुनौती बने हुए हैं। इसलिए अमेरिका सेंट्रल एशिया और यूरेशिया में बैठकर इन दोनों देशों पर नियंत्रण करना चाहता है।

सन 2001 से रूस ने सोवियत संघ से अलग हुए इन देशों पर अपना विशेष ध्यान देना प्रारंभ किया। क्योंकि रूस की सुरक्षा केवल रूस की सीमा तक ही सीमित नहीं थी वह उनसे अलग हुए देशों की सीमा तक विस्तारित थी। अलग हुए देशों में जो भी गतिविधियां होती थीं वह सीधा रूस को प्रभावित करती थीं। पुतिन के राष्ट्रपति बनने के बाद रूस का प्रयास रहा कि ये देश रूस और अन्य देशों के मध्य बफर जोन (मध्यवर्त्तीय क्षेत्र) बने रहें और कोई भी देश नाटो में जाने का प्रयास न करे। रूस ने सोवियत संघ से अलग हुए देशों को संगठित किया और कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन) से इन्हें जोड़ा। इनमें रूस के अलावा आर्मेनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, तजाकिस्तान शामिल हैं। कजाकिस्तान में जब अस्थिरता शुरू हुई तो वहां इस संगठन के 3000 सैनिक गए और मुख्य भवनों को सुरक्षा प्रदान की। हालात ठीक होने पर सैनिक लौट आए।

यही नहीं सन 2015 में रूस ने यूरेशियन इकोनामी यूनियन (यूरेशियन आर्थिक संघ) का गठन किया जिसमें रूस के अलावा बेलारूस, अर्मेनिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान शामिल है। इस संगठन के देशों में पूंजी एवं श्रम के आवागमन में कोई रुकावट नहीं है। इन देशों में राजनीतिक शासन प्रणाली चाहे अलग हो लेकिन अर्थनीति एक ही है। ये देश आपस में कस्टम ड्यूटी का लेन-देन नहीं करते। इसके गठन में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने बड़ी मेहनत की है। रूस के बाद यूक्रेन इस क्षेत्र की विकसित हो रही बड़ी आर्थिक शक्ति है। अगर यूक्रेन भी इस यूनियन में शामिल हो जाए तो यह संगठन और अधिक मजबूत बन जाएगा। अमेरिका ने निरंतर प्रयास किया कि यूक्रेन इस यूनियन में शामिल ना हो और इस हेतु षड़यंत्र किए जाने लगे।

सोवियत संघ से अलग हुए देशों में जिनका भी रूस की तरफ झुकाव था, अमेरिका द्वारा पोषित गैर सरकारी संगठनों (एन जी ओ) ने वहां आंदोलन करके वहां की सत्ताएं पलटने के प्रयास किए। सन 1991 के बाद सोवियत रूस से अलग होने के बाद ये सभी देश आर्थिक रूप से कमजोर हो गए थे। सहायता के लिए विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाने लगे। सब जानते हैं कि ये सभी वित्तीय संस्थान अमेरिकी प्रभाव में हैं। इन देशों को मिले कर्ज की शर्तों में यह भी था कि ये देश अमेरिकी फंड से संचालित एनजीओ को अपने देशों में काम करने की छूट देंगे। इन एनजीओ ने रूस समर्थक सरकारों के खिलाफ आंदोलन खड़े किए, वहां के नौजवानों को भड़काया, प्रशिक्षण के नाम पर अमेरिका भेजा। जब भी इन देशों में चुनाव होते यह रूस से सहानुभूति रखने वाले प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार करते, आंदोलन करते। रंगो के नाम पर इन आंदोलनों को क्रांति कहा जाता। जर्जिया में रोज रिवॉल्यूशन, यूक्रेन में ऑरेंज रिवॉल्यूशन, किर्गिस्तान में ट्यूलिप रिवॉल्यूशन का नाम देकर उन रंगों की पोशाकें पहनकर प्रदर्शन किए जाते थे। अमेरिकी दूतावास खुलकर इन आंदोलनकारियों की मदद करता था। बावजूद इसके अगर रूस समर्थक जीत जाते तो चुनाव परिणामों को गलत प्रचारित किया जाता। जर्जिया में इन्हें सफलता मिली। यूक्रेन में निर्वाचित राष्ट्रपति को पुनः चुनाव करवाने के लिए विवश किया गया।

यूक्रेन में 2014 में विक्टर यानुवोचिक के राष्ट्रपति चुनाव में विजय के पश्चात भी उन्हें पद से हटाया गया और दोबारा चुनाव के लिए उन्हें विवश किया गया। सन 2010 के चुनाव में अमेरिकी समर्थक प्रत्याशियों को मात्र 5% वोट ही मिले थे। यानुकोविच पश्चिमी देशों और रूस के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे थे। जबकि अमेरिका उस पर यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के लिए दबाव बना रहा था। आखिरकार यूक्रेन में अमेरिका ने हिंसक प्रदर्शन करवाए, पार्लियामेंट पर हमला किया गया, बढ़ती हिंसा के कारण यानुकोविच को रूस में जाकर शरण लेना पड़ी। प्रदर्शनकारियों को वेस्टर्न यूनियन सहायता प्रदान कर रहा था। वहां हिटलर के समय के फासिस्ट संगठन पुनः सक्रिय हो गए थे और राजनीति पर हावी हो रहे थे। जॉर्जिया की पराजय के बाद यूक्रेन में कैसे स्थिरता लाई जाए इस हेतु बेलारूस की राजधानी में एक बैठक आयोजित हुई लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका। 

ब्लैक सी (काला सागर) रूस की जीवन रेखा है। यहां का बंदरगाह पूरे साल खुला रहता है। रूस किसी को भी काला सागर अवरुद्ध करने नहीं देता। अतीत में भी काला सागर को लेकर कई युद्ध हो चुके हैं। सन 1954 में रूस ने यह बंदरगाह यूक्रेन को दे दिया था। वहां के लोग रूस के साथ ही रहना चाहते हैं। इस क्षेत्र में पश्चिम यूरोप की दखलअंदाजी बढ़ती गई। पहले यूरोप के सभी देश रूस के खिलाफ नहीं थे। यूरोप के कई देश रूसी गैस पर निर्भर हैं। रूस ने जर्मनी तक गैस की पाइप लाइन बिछा रखी है। अब अमेरिका चाहता है कि रूस पर प्रतिबंध लगाया जाए। इस तनाव से रूस का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा क्योंकि वह बहुत मजबूत देश है लेकिन यूरोप के वे देश जिनके रूस के साथ अच्छे संबंध हैं उन पर दबाव बनाया जा रहा है। इराक की तरह पश्चिम मीडिया रूस के खिलाफ भी अनर्गल प्रचार कर रहा है।

विवाद के चलते यूक्रेन की अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई है। यूक्रेन को अब रूस से रियायती दरों पर गैस नहीं मिलती। अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूक्रेन की मुद्रा का अवमूल्यन हो गया है। तनाव के कारण कोई भी देश यूक्रेन में निवेश नहीं करना चाहता। यूक्रेन बर्बाद हो रहा है और वह पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर हो चुका है। अमेरिका का लक्ष्य केवल रूस को कमजोर करना है। रूसी राष्ट्रपति कई बार कह चुके हैं कि वे यूक्रेन पर हमला नहीं करेंगे लेकिन मीडिया युद्ध की तारीखें प्रचारित कर रहा है। रूस सोवियत संघ से विघटित हो चुके देशों से सौहार्दपूर्ण संबंध चाहता है लेकिन अमेरिकी दखल के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों की बात की जा रही है। इतिहास गवाह है कि रूसीयों में अपार सहनशीलता रही है। नेपोलियन से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध में रूस ने बहुत सहा है। सत्तर के दशक में रूस और चीन के संबंध खराब थे लेकिन अब अच्छे हो चुके हैं। यह रूस के लिए भी राहत की बात है। अगर उस पर प्रतिबंध लगाए भी जाते हैं तो उस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। इस तनाव का परिणाम यूक्रेन को ही भुगतना होगा।

श्रोताओं द्वारा उठाए गए कई प्रश्नों के जवाब में डॉक्टर पटनायक ने कहा कि नाटो के मुकाबले रूस और चीन के बीच सैन्य संगठन नहीं बनाया जा सकता है। रूस और चीन में भी आपसी अंतर्विरोध मौजूद हैं। रूस के निकटवर्ती देशों में चीन के अपने हित हैं, इसे रूस भी समझ रहा है। बावजूद इसके चीन और रूस एक दूसरे पर निर्भर हैं। सोवियत काल में भी यूक्रेनी राष्ट्रवाद और पहचान मजबूत नहीं थी। यूक्रेन शहरों में आज भी रूसी भाषा बोली जाती है। वहां रूसी और यूक्रेनी नागरिकों में अंतर नहीं किया जा सकता। यूक्रेन के नागरिक रूस से संबंध बनाए रखना चाहते हैं। अमेरिका के मुकाबले चीन रूस और भारत का प्रयास रहा है कि वैश्विक स्तर पर विकल्प तैयार रखा जाए। हालांकि ब्राजील और भारत जैसे देश अमेरिका के भी खिलाफ नहीं है। भारत रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बनाए रख रहा है। रूस के साथ पुरानी मित्रता के बावजूद वर्तमान में भारत के साथ रूस के संबंध मजबूत नहीं हैं। चाबहार बंदरगाह के माध्यम से भारत की पहुंच यूरेशियन देशों तक होती है। रूस और ईरान के बीच रेल मार्ग निर्माण की संभावना है जो हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।

पूंजीवाद के विकल्प के रूप में चीनी मॉडल नहीं रखा जा सकता। चीन ने पूंजीवाद को ही विस्तारित किया है चाहे वहां राजनीतिक व्यवस्था भले ही कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में हो। पूंजीवाद के विकल्प का हमें और इंतजार करना होगा। जिन देशों में विभिन्न संस्कृति के लोग रहते हैं वहां का राष्ट्रवाद अलग होता है। हिटलर काल में जर्मन राष्ट्रवाद के कारण न केवल जर्मनी अपितु निकटवर्ती देशों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा था। आज जर्मनी के लोग सचेत हैं वे राष्ट्रवाद को राजनीतिक व्यवस्था से दूर ही रखते हैं।

वेबिनार को संचालित करते हुए जोशी अधिकारी संस्थान की ओर से विनीत तिवारी ने अतिथि परिचय देते हुए कहा कि डॉ अजय पटनायक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन विषय के व्याख्याता रहे हैं। वे डीन के पद से सेवानिवृत्त हुए। डॉक्टर पटनायक दो बार रूसी और मध्य एशियाई अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष भी रहे हैं। राजनीतिक और सामाजिक संरचना पर उनकी 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का उन्होंने संपादन भी किया है। वे कजाकिस्तान के विश्वविद्यालय में विजिटिंग फैकल्टी (अतिथि शिक्षक) भी रहे हैं। उज्बेकिस्तान के केंद्रीय चुनाव आयोग ने उन्हें सन 2009 के चुनाव में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक के तौर पर आमंत्रित किया था। विषय के बारे में विनीत ने कहा कि दुनिया बारूद के मुहाने पर बैठी है। रूस को आक्रामक देश के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि इस विवाद की पृष्ठभूमि कुछ अलग ही है। युद्धों से मुनाफा कमाने वाले सक्रिय हो गए हैं। जबकि कोरोना संकट से जूझ रही दुनिया को अमन चाहिए। पूंजीवादी देश अन्य किसी भी देश में भाषा का अंतर्विरोध हो या आपसी मतभेद वह अपने हित में उसे बढ़ाने का प्रयास करते हैं। यूक्रेन और जॉर्जिया के विवाद को विश्वयुद्ध की ऊंचाई तक पहुंचाने में पूंजीवादी मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। वेबिनार में इंग्लैंड लंदन से नूर ज़हीर, मृत्युंजय, इंदौर से आलोक खरे, आनंद शिंन्त्रे, अथर्व शिंन्त्रे, शैला शिन्त्रे, कैलाश चंद्र, ईशान खापर्डे, शिवाजी मोहिते, प्रमोद नामदेव, प्रमोद बागड़ी, कृष्णार्जुन बर्वे, अभय नेमा, सारिका श्रीवास्तव एवं बिहार पूर्णिया से नूतन आनंद, अनिल अनलहातु, मंदसौर से हरनाम सिंह, बेंगलुरु से नंदिता चतुर्वेदी और अर्चिष्मान राजू, असम से जमुना बीनी, आगरा से दिलीप रघुवंशी, भावना रघुवंशी, तमिलनाडु से नानलकांदन सारा, लखनऊ से राकेश, भोपाल से सारिका सिन्हा, पूजा सिंह, सचिन श्रीवास्तव, उज्जैन से शशि भूषण, दिल्ली से सुरेश श्रीवास्तव, बजिन्दर, अनिल चौधरी, मुंबई से सनोबर केसवार, मुथु वीरप्पन, औरंगाबाद से विनोद बंडावाला, छत्तीसगढ़ से शरद कोकास, जयपुर से प्रेमचंद गांधी, हरीश करमचंदानी, उदयपुर से रोज़िली पणजी, सागर से हीराधर अहिरवार, राहुल भाईजी, आशीष भाईजी, शहडोल से मिथिलेश राय, गुना से निरंजन क्षोत्रिय, दतिया से राजनारायण बोहरे, रायपुर से अनिल चौबे, लखनऊ से डॉक्टर संतोष कुमार, अनूपपुर से गिरीश पटेल, हैदराबाद से वैभव पुरंदरे के अलावा दीपक, मुशर्रफ अली, डॉ  सुबोध मालाकार, वैभव कात्यानी, बजरंग बिहारी, दिनेश भट्ट, समीरा नईम, हिम्मत संगवाल, मृदुला, श्रवण गर्ग, अरान अबरार, अभिषेक गौरव, माही, सदाशिव, प्रहलाद बैरागी आदि शामिल हुए। वेबिनार में तकनीकी सहयोगी के रूप में विवेक मेहता मौजूद रहे।

हरनाम सिंह 
वाया Anil Janvijay

हिजाब - नुकसान तो हमारा हुआ!



कोई लड़की हिजाब पहने या न पहने, किसी शिक्षक को इस पर किस तरह प्रतिक्रिया करनी चाहिए, यह काफी जटिल मामला है। सरकार की सहायता पर चलने चाले एक पोस्ट ग्रेजुएट काॅलेज के प्राचार्य के नाते मैं इस मुद्दे को निजी अनुभव के धरातल पर देखने की कोशिश करता हूं। उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के जिस ग्रामीण इलाके में ये महाविद्यालय संचालित है, वो मुसलिम बहुल इलाका है। इसी के चलते काॅलेज में करीब आधे स्टूडेंट्स अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखते हैं। कुल ढाई हजार की संख्या में मुसलमान लड़कियों का आंकड़ा 700 से अधिक है। पांच साल पहले तक काॅलेज आने वाली हरेक तीसरी लड़की बुर्का या हिजाब पहनकर आती थी। काॅलेज में यूजी और पीजी, दोनों स्तरों पर यूनिफाॅर्म लागू है। लड़कियों के इस पहनावे से न तो काॅलेज मैनेजमेंट को कोई समस्या रही और न ही कभी किसी शिक्षक या छात्र-छात्राओं की ओर से कोई सवाल आया। लेकिन, एक चुनौती जरूर थी कि यदा-कदा कुछ शरारती लड़के, 'ओ बुरके वाली....' जैसी अवांछित टिप्पणियां जरूर कर देते थे। पर, अनुशासन संबंधी सख्ती के चलते ये मामले कभी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बने।
पर, एक प्राचार्य के तौर पर मेरे सामने यह सवाल जरूर था कि सभी लड़कियां एक साथ मुख्यधारा का हिस्सा किस प्रकार बनें, वो भी तब इस काॅलेज में 50 फीसद अल्पसंख्यकों के अलावा करीब 30 फीसद अन्य रिजर्व श्रेणी के स्टूडेंट्स हैं। सामान्य श्रेणी के छात्र-छात्राओं का हिस्सा मात्र 20 फीसद है। इससे साफ है कि काॅलेज परिसर में मुख्यधारा का निर्धारण अल्पसंख्यक और आरक्षित वर्ग के छात्र-छात्राएं करते हैं। इस मामले को समझने के लिए एक और तथ्य मदद करेगा, वो ये कि काॅलेज में 90 फीसद से ज्यादा स्टूडेंट्स अपनी परिवारों की पहली पीढ़ी हैं जो डिग्री स्तर की पढ़ाई करने आए हैं। ऐसे में लड़कियों की पढ़ाई का माहौल बन पाना किसी आश्चर्य से कम नहीं है क्योंकि उनकी पढ़ाई किसी की प्राथमिकता का मामला नहीं है। ऐसे में, यदि हिजाब या बुर्के का मसला उठ खड़ा हो तो सोचिये नुकसान किसे होगा! (काॅलेज मैनेजमेंट की पहल पर शिक्षकों और कर्मचारियों ने कई साल तक गांव दर गांव जाकर लोगों को इस बात के लिए तैयार किया कि वे 10-12वीं के बाद लड़कियों को घर पर न बैठाएं और उन्हें काॅलेज में पढ़ने के लिए भेजें। इस क्षेत्र में गरीबी के कारण अनेक लोगों के लिए बीए, बीएससी या बीकाॅम आदि के लिए साल भर में तीन हजार रुपये की फीस दे पाना भी आसान नहीं था, जबकि ये फीस सरकार वापस कर देती है। ऐसे में लड़कियों की पढ़ाई नहीं, बल्कि उनकी शादी करना ही बड़ा दायित्व था)
खैर, कुछ साल पहले हमारी महिला शिक्षिकाओं ने एक पहल की। उन्होंने लड़कियों के छोटे समूह बनाकर उनसे सामाजिक बराबरी, लड़कियों के अधिकार, पोषण-खानपान, पहनावा, नौकरी-कॅरियर के मुद्दों पर बात शुरू की। (इस मुहिम की चुनौतियों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता था कि यहां की एक तिहाई से ज्यादा लड़कियों के लिए 'पर्सनल हाइजीन' कोई समस्या ही नहीं थी।) यह सिलसिला बीते पांच साल से अनवरत जारी है। लड़कियों को अहसास कराया गया कि ये काॅलेज परिसर उनके घर का एक्सटेंशन एरिया है, शिक्षकांे की भूमिका उनके अभिभावक की तरह ही है और यहां वे हर तरह से आजाद हैं, सुरक्षित हैं। इसका परिणाम यह निकला कि सैंकड़ों लड़कियों ने अपनी निजी, पारिवारिक और आर्थिक परेशानियों को शिक्षकों के साथ साझा करना शेयर किया। भरोसा निर्माण की इस प्रक्रिया में खुद हम लोगों को भी पता नहीं चला कि कक्षाओं में से बुर्का और हिजाब कब गायब हो गया। ये लड़कियां अपने घरों से अब भी बुर्के और हिजाब में ही आती हैं, लेकिन काॅलेज आते ही उसे अपने बैगों में रख लेती हैं। पढ़ाई करके घर वापस जाती हैं तो फिर पहन लेती हैं। किसी ने कोई जोर-जबरदस्ती नहीं की, उनकी आस्था के खिलाफ कोई बात नहीं की। बस इतना समझाया कि पूरे समूह का चरित्र एक जैसा होना चाहिए। कोई अपने पहवाने के आधार पर अलग से चिह्नित नहीं होना चाहिए। ये बात लड़कियों की समझ में आसानी से आ गई। लेकिन, इस मामले में यदि नियम के डंडा चलाकर लोगों को कहा जाए कि वे बुर्का और हिजाब न पहनें तो फिर इसका परिणाम नकारात्मक ही होगा।
यह बात केवल बुर्का या हिजाब पहनने तक नहीं है। कुछ मामलों में हिंदू लड़कियों पर भी यही स्थिति लागू होती है। इस इलाके में ज्यादातर लड़कियों की शादियां 18-20 साल की उम्र में कर दी जाती हैं। एमए, एमएससी तक पहुंचते-पहुंचते बहुत कम लड़कियां ऐसी होंगी, जिनकी शादी न हुई हो। शादी के बाद जो लड़कियां काॅलेज आती हैं, उनका पहनावा बदलने लगता है। पांवों में घुंघरुओं वाली पाजेब, मांग में सिंदूर और रंगीन कपड़े, फैंसी जूते-चप्पले और सजावटी बैग, उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाते हैं। इससे भी बड़ी बात ये कि लड़कियों की ससुराल की महिलाएं सफेद दुपट्टा (ओढ़नी) नहीं पहनने देती क्योंकि इस इलाके में हिंदुओं में विवाहित लड़कियों को सफेद कपड़े को शुभ नहीं माना जाता। पुराने दौर की महिलाएं अपनी बहुओं को, जो कि हमारी छात्राएं हैं, उन्हें यूनिफाॅर्म में घर से बाहर नहीं निकलने देती। अब, इस समस्या का समाधान क्या हो, जिसका पढ़ाई से कोई सीधा संबंध नहीं है। यदि सख्ती की जाए तो इन विवाहित लड़कियों की पढ़ाई तुरंत बंद हो जाएगी। इसका आसान रास्ता ये निकाला गया कि लड़कियों को सफेद दुपट्टे की बजाय उनके कुर्ते के रंग के दुपट्टे की अनुमति दे दी गई। (जिससे वे सिर ढककर रख सकें। शादी के बाद सिर ढककर घर जाना एक अनिवार्य नियम है।) इसी तरह मुसलिम लड़कियों को छूट दी गई कि भी कुर्ते के रंग से मिलते हुए कपड़े से अपना सिर ढक सकती हैं, आप इसे चाहे ंतो हिजाब कह सकते हैं, लेकिन ये नकाब नहीं है। काॅलेज प्रबंधन, शिक्षक और समुदाय के लोग जब इस बारे में सोचते हैं तो लगता है कि कुछ सालों के भीतर लड़कियों में बड़ा बदलाव दिख रहा है, काॅलेज में दो-तीन सालों से कुछ गिनी-चुनी लड़कियों ने सलकार-कुर्ते की बजाय पेंट-शर्ट के विकल्प को यूनिफाॅर्म के रूप में भी चुना है। लेकिन अब कर्नाटक के प्रकरण ने हम जैसे लोगों की चुनौती को नए सिरे से बढ़ा दिया है।
उत्तराखंड में बीते दिनों विधानसभा चुनाव के कारण मुझ सहित ज्यादातर शिक्षक और कर्मचारी चुनाव ड्यूटी पर थे। करीब डेढ़ महीने के अंतराल पर अब काॅलेज में पूर्ववत पढ़ने-पढ़ाने की गतिविधियां शुरू हुई तो एक बड़ा नकारात्मक बदलाव दिखा कि अनेक लड़कियां उसी स्थिति में आ गईं जहां वे पांच साल पहले थीं। मुझे आश्चर्य भी हुआ और दुख भी। इस बारे में शिक्षकों से बात की तो उन्होंने सुझाव दिया कि इस वक्त मामला गर्म है इसलिए इस पर कोई बात न की जाए। लेकिन, मेरा मन नहीं माना। कुछ लड़कियों से व्यक्तिगत स्तर पर बात की तो उन्होंने बताया कि घर वालों ने शर्त रखी है कि हिजाब पहनकर जाने और पूरे वक्त पहने रहने पर ही पढ़ाई जारी रखने की अनुमति मिलेगी। ये लड़कियां नहीं चाहती कि इस बारे में कोई शिक्षक उनके परिजनों से बात करे। उन्हें डर है कि ऐसा करने पर लड़कियों को गलत समझ लिया जाएगा। मैनेजमेंट, प्राचार्य और शिक्षक, इनमें से कोई नहीं चाहता कि लड़कियों केी पढ़ाई बंद हो। ऐसे में बीच का रास्ता यही है कि किसी भी तरह की सख्ती से बचा जाए। (हालांकि, मैं निराश नहीं हूं। हम नए सिरे से फिर कोशिश करेंगे और सफल भी जरूर होंगे।)
वस्तुतः ये बात हिजाब तक की नहीं है, ये बात एक प्रगतिशील सोच पैदा करने और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की प्रक्रिया को धक्का लगने की है। एक शिक्षक के तौर पर मेरा अनुभव कहता है कि डंडे के बल पर प्रगतिशीलता का विस्तार नहीं हो सकता। कर्नाटक में जिन लोगों ने ये विवाद खड़ा किया है, उन्हें अंदाजा भी नहीं होगा कि हमारे जैसे दूरदराज के काॅलेज और यहां के पिछड़े समाज में इसकी कैसी प्रतिक्रिया होगी। फिलहाल, असली नुकसान हमें और हमारी लड़कियों को ही हुआ है। एक तरफ, सोचता हूं कि देहरादून के एक विश्वविद्यालय में पढ़ रही मेरी अपनी बेटी की तरह ये लड़कियां भी नए जमाने के तौर-तरीके सीखें, उसमें ढल जाएं और खुद को जिंदगी की चुनौतियों के लिए तैयार करें। और दूसरी तरफ अचानक कोई गिरोह इनके सिर पर हिजाब या इनके पांवों में घुंघरुओं वाली पायल डालकर कहता है कि ये ही असली आजादी है।
सुशील उपाध्याय

Saturday, 19 February 2022

महान क्रान्तिकारी संत रैदास



   चेतना हमेशा पदार्थ से निकलती है। पदार्थ से अलग चेतना का कोई वजूद नहीं हो सकता। रैदास के जो क्रान्तिकारी विचार हैं वे विचार उस वक्त की भौतिक परिस्थितियों में ही पैदा हो सकते थे। हम उस वक्त की भौतिक परिस्थितियों से जोड़कर ही रैदास के क्रान्तिकारी विचारों को सही अर्थों में जान सकते हैं।

  क्रान्तिकारी संत रैदास का जन्म पंद्रहवीं सदी में हुआ। इनका जन्म स्थान आज के उ.प्र. के वाराणसी जिले में हुआ था। इन्हें रविदास के नाम से भी जाना जाता है। परन्तु इनका नाम "रविदास" कत्तई नहीं था, 'रविदास' नाम तो पाखण्डियों द्वारा अभी हाल ही में दिया गया है। 

महान क्रान्तिकारी संत रैदास जी संत कबीर के समकालीन थे। ये वो दौर था जब हमारा समाज दस्तकारी युग से मैन्यूफैक्चरी के युग की ओर बढ़ रहा था। आप जानते होंगे कि दस्तकारी में एक कारीगर एक माल के सभी हिस्से को अकेले तैयार करता है, जब कि मैन्यूफैक्चरी में एक माल के अलग-अलग भाग को अलग-अलग कारीगर बनाते हैं। उदाहरण के लिये एक जूते को अकेले एक कारीगर पूरी तरह बनाता है तो इसे दस्तकारी कहते हैं, और जब जूता बनाने के लिये एक छत के नीचे कई कारीगर होते हैं और प्रत्येक कारीगर जूते के अलग-अलग हिस्से को बनाता है, तब जाकर सभी हिस्सों को जोड़कर एक जूता पूरी तरह तैयार होता है। इस तरह किसी एक जूते के अलग-अलग हिस्से को अलग-अलग कारीगर बनाते हैं,इसी को मैन्यूफैक्चरी कहते हैं। इस तरह दस्तकारी के उत्पाद को बनाने वाला कोई कारीगर यह दावा कर सकता है कि इसे मैंने बनाया है मगर मैन्यूफैक्चरी के उत्पाद को कोई एक कारीगर नहीं कह सकता कि यह मेरा उत्पाद है। इसमें सामूहिक उत्पादन होता है। यह मैन्यूफैक्चरी आगे चलकर बड़े उद्योगों का आधार तैयार करती है।
  मैन्यूफैक्चरी में सामूहिक उत्पादन होता था, इसी लिये दस्तकारी के मुकाबले मैन्यूफैक्चरी कम श्रम में अधिक उत्पादन होता है। कई कारीगरों के हाथों से गुजरने के बाद ही माल तैयार हो पाता है तो उत्पादित माल की गुणवत्ता भी दस्तकारी की अपेक्षा बढ़िया होती है। 

  रैदास कोई साधारण मोची नहीं थे, वे एक शाही मोची थे। मैन्यूफैक्चरी के रूप में इनकी छोटी सी कार्यशाला थी, जिसमें इनके कई शागिर्द काम करते थे। इनकी मैन्यूफैक्चरी के बने जूते बहुत बड़े-बड़े राजे-रजवाड़े पहनते थे। राजे-रजवाड़े इन्हें जूते की कीमत तो देते ही थे, साथ-साथ बक्शीश भी देते थे। जिससे ठीक-ठाक आमदनी हो जाती थी। जब पेट भरने लगता है तो नये-नये विचार भी पैदा होते हैं, सम्मान की भूख भी जाग उठती है। 
 जब शूद्रों के पास कोई सम्पत्ति नहीं हुआ करती थी तो उन्हें मन्दिर में प्रवेश करने की बात छोड़िये। उनको मंत्र उच्चारण तक की मनाही थी। परन्तु जब शूद्रों के पास भी थोड़ी सम्पत्ति आने लगी तो कुछ प्रगतिशील पण्डों ने समझा कि उन शूद्रों से भी दान, चन्दा, चढ़ावा वसूला जा सकता है, अत: उन्हें भी गुरुमंत्र देने और मन्दिर में प्रवेश देने की वकालत शुरू कर दिया।
  इसी समय भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार तेजी से बढ़ रहा था, हिन्दू धर्म के मठाधीशों को लगा कि अब कहीं सारे शूद्र मुसलमान बन जायेंगे तो हमें कौन पूछेगा। इस दबाव के कारण जहां तुलसी दास को अपनी रचना में राम द्वारा शबरी नामक भीलनी का जूठा बेर खाने वाली कहानी गढ़ कर सवर्णों को शूद्रों के प्रति छुआछूत खत्म करने की प्रेरणा देना पड़ा। वहीं गुरु रामानन्द ने रैदास और कबीर जैसे लोगों को गुरुमंत्र देना शुरू किया। 

  ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध रैदास हर मनुष्य में ईश्वर का वास मानकर सबका बराबर सम्मान चाहते थे। मगर लोग सोचते थे कि ईश्वर तो सिर्फ मन्दिर-मस्जिद में होता है। इसी वजह से बड़े-बड़े धर्म के ठेकेदार दान, चन्दा, चढ़ावा, खैरात, जकात के नाम पर गरीबों को निचोड़ रहे थे। तब रैदास ने लोगों को बताया-

मस्जिद से कुछ घिन्न नहिं, मन्दिर से नहिं प्यार।
दोउ में अल्ला राम नहिं कह रैदास चमार।।

   रैदास जैसे लोगों की छोटी सी कार्यशाला ज्यों-ज्यों बड़ा रूप लेने लगती है, त्यों-त्यों रैदास जैसे लोगों का सम्मान भी बढ़ता गया। यह बात उन पाखण्डियों को खटकती है जो 'पूजिय विप्र शील गुण हीना। शूद्र न गुन-गन ज्ञान प्रवीणा।।' वाली धारणा पाले हुए थे। ऐसे पाखण्डियों को रैदास ने चुनौती भरे लहजे में कहा-

 एक बूंद से सब जग उपज्या, को बाभन को शूदा।

उस वक्त वर्ण-व्यवस्था और जाति व्यवस्था में शूद्रों को कूड़े-कचरे के समान समझा जाता था। शूद्र लोग गुलामी भरी जिन्दगी जी रहे थे। रैदास ने उन्हें आजाद होने के लिये प्रेरित किया-

पराधीनता पाप है जानि लेउ रे मीत।
पराधीन बेदीन से, कौन करे है प्रीत।।

इस तरह रैदास ने गुलाम बनने को पाप बताया और उससे मुक्ति के लिये लोगों को उकसाया। साथ ही साथ आजादी क्या चीज़ होती है उस का नक्शा भी प्रस्तुत किया-
 
ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिलै सभन को अन्न।
ऊंच-नीच सब मिटि रहे, रैदास रहे प्रसन्न।।

रैदास सिर्फ हथकड़ी बेड़ी खोल देने को आजादी नहीं कहते बल्कि सबकी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति को आजादी कहते हैं। वे एक ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें बराबरी हो, सबकी मानवीय आवश्यकताएं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, सुरक्षा, सम्मान, आदि सुलभ हो सकें। अभावों से भरी जिन्दगी को रैदास आजादी नहीं मानते।

   उस दौर में इस्लामिक इफेक्ट के कारण ही निराकार ईश्वर की भक्ति का प्रभाव बढ़ रहा था। अपने-अपने धर्म की दुकान चलाने के लिये कुछ पण्डे-पुरोहित मुस्लिम धर्म के खिलाफ नफरत पैदा कर रहे थे तो वहीं कुछ कठमुल्ले हिन्दू धर्म के खिलाफ आग उगल रहे थे। मुगलों के रूप में जो नया शासक वर्ग आ चुका था, उसे मालूम था कि हिन्दुओं में यदि मुसलमानों के प्रति नफ़रत बढ़ेगी तो मुस्लिम शासकों के प्रति भी नफरत बढ़ेगी, तब भारत भूमि पर लम्बे समय तक शासन करना मुश्किल होगा। ऐसी परिस्थिति के कारण इन शासकों ने भी कबीर और रैदास जैसे संतों को सहयोग दिया। वरना उस वक्त कबीर यह नहीं कह पाते कि- 

ब्राह्मण से गदहा भला, गढ़े देव से कुत्ता।
मुल्ला से मुर्गा भला, नगर जगावे सुत्ता।।

प्राय: मौसम और समय के मामले में ब्राह्मण की भविष्यवाणी गलत पायी गयी हैं, मगर गधा बहुत ठीक समय पर प्रतिदिन बोलता है। अगर वह अचानक घाट से भागकर घर आ जाये तो समझिये, आंधी या पानी कुछ तो आने ही वाला है। उस गधे की भविष्यवाणी गलत नहीं होती। इसीलिये गधे को भला कहा। दोहे का बाकी अंश तो सभी जानते ही हैं।

अगर रैदास शाही मोची न होते तो  वे यह नहीं कह पाते कि-

चारों वेद करे खण्डवतो।
तेहि रैदास करे दण्डवतो।।

अर्थात जो चारो वेदों को नहीं मानता है रैदास ऐसे लोगों को दण्डवत प्रणाम करता है। अगर रैदास शाही मोची नहीं होते तो ऐसा नहीं कह पाते।

 रैदास अपने शुरुआती दौर में भले ही ईश्वर भक्त रहे हों मगर अनुभव की ऊंचाइयों पर पहुंचने के बाद ईश्वर को भी झूठ समझने लगे थे।
बाभन झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे।
जीवन चारि दिवस का मेला रे ।
मंदिर भीतर मूरति बैठी,
पूजत बाहर चेला रे ।
लड्डू भोग चढावत जनता,
खाते बाभन चेला रे ।
सबको लूटत बाभन सारे,
प्रभु जी देत न धेला रे ।
पुण्य-पाप और पुनर्जन्म का,
बाभन कीन्हा खेला रे ।
स्वर्ग नरक बैकुंठ पधारो,
गुरु शिष्य या चेला रे ।
जितना दान देउगे जैसा,
वैसा निकले तेला रे ।
बाभन जाति सबको बहकावे,
जँह तँह मचे बवेला रे ।
छोड़ि के बाभन आ संग मेरे,
कहै रैदास अकेला रे ।

  उपरोक्त चंद लाइनें तो झांकी भर हैं। उन्होंने अपने दौर में सभी धर्मों के पाखण्डियों को जमकर लताड़ा है। कुछ लोग जो सुनी-सुनाई अतार्किक बातों के आधार पर संविधान को बहुत बड़ा तोप समझते हैं और कहते हैं कि 'संविधान नहीं था तो हम बोल भी नहीं पाते थे', वे अपनी धारणा बदल दें। रैदास के समय में यह संविधान नहीं था, फिर भी वे जैसा बोल लेते थे। आज वैसा बोलने पर धार्मिक आस्था पर ठेस पहुंचाने के नाम पर जेलों में ठूंस दिया जायेगा।
    अगर अंग्रेज़ नहीं आते तो कबीर जैसे लोगों की पीढ़ियों में से टाटा पैदा होते, रैदास जैसे लोगों की पीढ़ियों में से बांटा पैदा होते। तब बड़े-बड़े स्लाटर हाउसों के मालिक कोई ब्राह्मण नहीं बल्कि कसाईयों में से होते, डेयरी उद्योग के मालिक अहीरों और गड़ेरियों में से होते। यूरोप की तर्ज पर भारत में भी दस्तकारों में से पूंजीपति निकलते तो आज यही लोग शासक होते, तब वर्ण-व्यवस्था जातिवाद कूड़ेदान में चले जाते। परन्तु ऐसा विकास भारत में नहीं हो पाया। 
 दरअसल जब भारत में कबीर और रैदास जैसे दस्तकारों की छोटी सी कार्यशाला विकसित होकर मैन्यूफैक्चरी में प्रवेश कर चुकी थी, और सत्रहवीं सदी आते-आते उनकी मैन्यूफैक्चरी विकसित होकर उद्योग का रूप लेने जा रही थी, उसी वक्त अंग्रेज आ गये। शुरुआत में तो अंग्रेज हमारी मैन्यूफैक्चरी का कुछ नहीं बिगाड़ पाये थे, परन्तु जब उनके पास भाप का इंजन आ गया तब वे भाप के इंजन के सहारे बड़े पैमाने का उत्पादन करने लगे, जिससे उनका माल हमसे सस्ता पड़ने लगा। जिससे वे पूरे बाजार में छा गये। उनकी पूंजी ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-त्यों हमारी आदिम पूंजी को निगलती गयी। हमारी छोटी-छोटी मैन्यूफैक्चरी जो विकसित होते हुए आगे चल कर कल कारखाने का रूप ले सकती थी उसे अंग्रेजों ने ध्वस्त कर दिया। और अन्ततः हमारे मैन्यूफैक्चरर और दस्तकार उजड़ गये तथा उनमें से बहुत से लोग अंग्रेजों के यहां मामूली तनख्वाह पर नौकरी करने के लिये बाध्य हो गये।
 अंग्रेजों ने अपने शासनकाल में जहां किसानों व दस्तकारों में से कुछ लोगों को सिर्फ छोटी-मोटी नौकरियां दिया, वहीं सामन्ती वर्गों को ठेका,पट्टा, कोटा, परमिट, लाइसेंस, एजेंसी, अनुदान, जमींदारी, सस्ते कर्ज, आधुनिक शिक्षा, अपनी सेना पुलिस का संरक्षण आदि देकर उन्हें बहुत मजबूत बना दिया।
   अंग्रेजों के आने से पहले ही कबीर और रैदास के विचार भारत ही नहीं कई पड़ोसी देशों तक में फ़ैल चुके थे। जब अंग्रेजों ने भारत में अपनी सत्ता कायम की तो उनको कबीर और रैदास के विचार खटकने लगे। वे जानते थे कि कबीर और रैदास जैसे क्रान्तिकारी सन्तों की तार्किक विचारधारा जिन्दा रहेगी तो भारत को लम्बे समय तक गुलाम नहीं बनाये रखा जा सकता। इसलिए एक सुनियोजित साज़िश के तहत ही अंग्रेजों ने रैदास और कबीर जैसे संतों के क्रान्तिकारी विचारों को कुचलने का काम किया। इन संतों के विचारों को कुचलने के लिये अंग्रेजों ने हिन्दू धर्म के पाखण्डियों को बढ़ावा दिया। उन्हें मठ-मंदिर बनाने के के नाम पर पूरे देश में लाखों एकड़ जमीन दिया। कई मठों को तो जमींदारियां भी दे दिया। भारी आर्थिक मदद पाने से इनका पाखण्ड बढ़ता गया। इन पाखण्डियों ने रैदास और कबीर के विचारों को कुचलने के लिये उनके विचारों में बहुत घाल-मेल किया। जैसे- सीना फाड़कर जनेऊ दिखाना, कटौती में से कंगन निकालना, मरे हुए को जिन्दा कर देना…. और अन्ततः उन्हें भगवान का अवतार घोषित कर देना ये सब रैदास के विचारों में घालमेल के ही रूप हैं। 
  ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को बनाने के लिये जहां कबीर को विधवा ब्राह्मणी के पेट से पैदा हुआ बताया गया, वहीं रैदास को पूर्व जन्म में ब्राह्मण बता दिया गया। इन मनगढ़ंत कहानियों से वे सिद्ध करना चाहते हैं कि ब्राह्मण जाति में पैदा होने वाला ही विद्वान हो सकता है।
 आज शोषक वर्ग अपनी शोषणकारी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए एक साज़िश के तहत पाखण्ड को बढ़ावा दे रहा है। ऐसी परिस्थिति में कबीर व रैदास के विचार पहले से अधिक प्रासंगिक हो गये हैं।
रजनीश भारती


Thursday, 17 February 2022

जर्दानो ब्रूनो

आज से ठीक 422 वर्ष पहले, 17 फ़रवरी, सन् 1600 को, अपने विश्‍वासों के लिए क़ुर्बान होने वाले महान वैज्ञानिक, साहसी क्रान्तिकारी, जर्दानो ब्रूनो को रोम में प्राणदण्ड दिया गया था।

प्राणदण्ड देने का 'न्यायालय' का निर्णय सुनकर, ब्रूनो ने 'इन्क्विज़ितरों' से शान्तिपूर्वक कहा था - ''आप दण्ड देने वाले हैं और मैं अपराधी हूँ, मगर अजीब बात है कि कृपासिन्धु भगवान के नाम पर अपना फै़सला सुनाते हुए आपका हृदय मुझसे कहीं अधिक डर रहा है।''

'इन्क्विज़िशन' की यह प्रथा थी कि वह अपना निर्णय इन पाखण्ड भरे शब्दों में सुनाता था - ''पवित्र धर्म इस अपराधी को बिना ख़ून बहाये मृत्युदण्ड देने की प्रार्थना करता है।'' किन्तु वास्तव में इसका अर्थ होता था भयानक मृत्युदण्ड - यानी जीवित ही जला देना।
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ब्रूनो जीवन भर कॉपरनिकस के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए संघर्ष करता रहा। ब्रूनो ने कॉपरनिकस के सिद्धान्तों को, एक परिश्रमी तथा भीरु शिष्य की भाँति दुहराया ही नहीं, बल्कि उन्हें और भी अधिक विस्तृत किया। स्वयं कॉपरनिकस की तुलना में उसने संसार को कहीं अधिक अच्छी तरह समझा।

जर्दानो ब्रूनो ने बताया कि न केवल पृथ्वी ही, बल्कि सूर्य भी अपनी धुरी पर घूमता है। ब्रूनो की मृत्यु के बहुत वर्षों बाद ही यह तथ्य प्रमाणित हुआ।

ब्रूनो ने बताया कि बहुत-से ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं और यह कि मनुष्य नये तथा अभी तक अनजाने कई अन्य ग्रहों का भी पता लगा सकता है। उसकी यह बात सच भी निकली। ब्रूनो की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्ष बाद ऐसे अनजाने ग्रहों में सबसे पहले यूरेनस का, और कुछ समय बाद, नेप्चून और प्लूटो ग्रहों का तथा दूसरे सैकड़ों छोटे-छोटे ग्रहों का पता लगा। इन्हें एस्टेरॉयड कहते हैं। इस प्रकार इस प्रतिभाशाली इतालवी की भविष्यवाणी सोलह आने सच साबित हुई।

कॉपरनिकस दूर के तारों की ओर कम ध्यान देता था। परन्तु ब्रूनो ने निश्चय के साथ कहा कि हर तारा हमारे सूर्य जैसा ही विशाल सूर्य है। उसने यह भी कहा कि ग्रह हर तारे के चारों ओर घूमते हैं। हम केवल उन्हें देख नहीं पाते हैं, क्योंकि वे हमसे बहुत ही दूर हैं। ब्रूनो ने यह भी कहा कि हर एक तारा अपने ग्रहों के साथ एक वैसा ही विश्व है, जैसा कि हमारा सौर जगत, और ब्रह्माण्ड में ऐसे विश्वों की संख्या अनन्त है।

जर्दानो ब्रूनो ने बताया कि ब्रह्माण्ड के सभी संसारों की अपनी स्वयं की उत्पत्ति और अपना स्वयं का अन्त है और वे बराबर बदलते रहते हैं। यह विचार बहुत ही साहसपूर्ण था, क्योंकि ईसाई धर्म के अनुसार तो संसार अपरिवर्तनशील है और वह सदा वैसा ही बना रहता है जैसा कि ईश्वर ने इसे बनाया है।

ब्रूनो बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति था। उसने अपने बुद्धिबल द्वारा ही वह बात समझी जिसे खगोलविज्ञानी बाद में दूरबीनों और टेलीस्कोपों की सहायता से जान पाये। आज हमारे लिए यह अनुमान लगाना भी कठिन है कि ब्रूनो ने खगोलविज्ञान में कितनी बड़ी क्रान्ति कर दी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने किसी बन्दी को कारावास से बाहर निकालकर उसे तंग व अँधेरी कोठरी की जगह एक विचित्र व अनन्त संसार का सुन्दर दृश्य दिखाया था।

ब्रूनो के कुछ समय बाद एक अन्य खगोलविज्ञानी केपलर ने यह स्वीकार किया कि इस महान व प्रसिद्ध इतालवी वैज्ञानिक की कृतियाँ पढ़कर उसका सिर चकराने लगता था। इस कल्पना से कि शायद वह इस अन्तरिक्ष में निराधार घूमता रहता है, कि इसका न कोई केन्द्र और न कोई आरम्भ और अन्त ही है, वह एक गुप्त आतंक से आतंकित हो उठता था।

पादरी जर्दानो ब्रूनो को अपना जानी दुश्मन मानने लगे। ब्रूनो के ये सिद्धान्त कि बसे हुए संसारों की संख्या अनन्त है, और ब्रह्माण्ड का कोई आरम्भ और कोई अन्त नहीं है, विश्व की सृष्टि के विषय में तथा पृथ्वी पर ईसा मसीह के आने के विषय में 'बाइबल' के कथनों को मटियामेट करने के लिए काफ़ी थे। 'बाइबल' के यही कथन तो ईसाई धर्म के आधार-स्तम्भ थे। पादरियों ने ब्रूनो के विरुद्ध जो अभियोग-पत्र तैयार किये उनमें पूरे एक सौ तीस पैराग्राफ़ थे।

पादरियों ने इस महान वैज्ञानिक को ''ईश्वर को गाली देने वाला'' कहा और वे बराबर प्रयत्न करते रहे कि सभी जगहों के शासक ब्रूनो को अपने देशों से निकाल दें। किन्तु ब्रूनो जितना ही अधिक मारा-मारा फिरता रहा, उतना ही अधिक वह अपने साहसपूर्ण सिद्धान्तों का प्रचार भी करता रहा।

स्वदेश से अलग किया हुआ ब्रूनो अपने खिली धूप के देश इटली के लिए बराबर आतुर रहता था। उसे मार डालने के लिए उसके दुश्मनों ने ब्रूनो की इस देश प्रेम की भावना से लाभ उठाया।

कुलीन तथा नवयुवक इतालवी जियोवानी मोचेनीगो ने यह ढोंग रचा कि उसे ब्रूनो की उन अनगिनत कृतियों में विशेष रुचि है जो यूरोप के भिन्न-भिन्न नगरों में छप चुकी हैं। उसने ब्रूनो को लिखा कि वह उसका शिष्य बनना चाहता है और यह भी कहा कि बदले में वह उसे उदारतापूर्वक पुरस्कृत करेगा।

निर्वासित ब्रूनो के लिए स्वदेश लौटना बहुत ख़तरनाक था, किन्तु मोचेनीगो ने कपटपूर्वक उसे आश्वासन दिलाया कि वह अपने शिक्षक को बैरियों से बचा लेगा। ब्रूनो विदेशों में भटक-भटककर ऊब चुका था। उसने कपटी मोचेनीगो पर विश्वास कर लिया।

महान वैज्ञानिक यह न जानता था कि उसे धोखा देकर इटली में वापस बुलाने की यह नीच योजना कैथोलिक चर्च के 'न्यायालय' द्वारा बनायी गयी है। स्पेन और इटली में 'इन्क्विज़िशन' नामक भयानक न्यायालय था। यह धर्म का विरोध करने वालों पर अत्याचार करता था। 'इन्क्विज़ितरों' ने, अर्थात् उपरोक्त संस्था के न्यायाधीशों ने, इस संस्था के अस्तित्व काल में लाखों बेगुनाहों की जान ली थी। ब्रूनो भी इसका एक ऐसा ही बेगुनाह शिकार हुआ।

जर्दानो ब्रूनो इटली के वेनिस नगर में पहुँचा और मोचेनीगो को पढ़ाने लगा। मोचेनीगो ने वैज्ञानिक से यह प्रतिज्ञा करवा ली थी कि जाने का विचार बना लेने पर वह मोचेनीगो से विदा अवश्य लेगा। यह भी एक चाल थी। मोचेनीगो को यह भय था कि यदि कहीं ब्रूनो को 'इन्क्विज़िशन' की योजना का पता चल गया तो फिर वह अपनी युवावस्था की भाँति, अवश्य ही चुपके से भाग खड़ा होगा। परन्तु यदि खगोलविज्ञानी उससे विदा लेने आया तो फिर उसे रोकना मुश्किल न होगा।

कुछ महीनों की शिक्षा के बाद मोचेनीगो ने कहा कि ब्रूनो उसे ठीक ढंग से नहीं पढ़ाता है और यह कि वह उससे अपने भेद छिपाता है।

इस आरोप के उत्तर में ब्रूनो ने वेनिस छोड़ देने का निश्चय किया, और मोचेनीगो ने इसकी सूचना 'इन्क्विज़िशन' को दे दी। 23 मई सन् 1592 को इस विख्यात वैज्ञानिक को जेल में डाल दिया गया। उसने जेल में यातनापूर्ण आठ वर्ष बिताये।

वह कोठरी, जिसमें ब्रूनो को रखा गया था, जेल की सीसे की छत के नीचे थी। ऐसी छत के नीचे गर्मियों में असह्य गर्मी और उमस तथा जाड़ों में नमी और ठण्ड रहती। ऐसी कोठरी में बन्दी का जीवन भयानक तथा यातनापूर्ण था - यह तो जैसे तड़पा-तड़पाकर मारने वाली बात थी।

हत्यारों ने ब्रूनो को आठ वर्षों तक जेल में क्यों बन्द रखा? इसलिए कि उन्हें आशा थी कि वे इस खगोलविज्ञानी को अपने सिद्धान्त त्याग देने के लिए बाध्य कर सकेंगे। यदि ऐसा हो जाता, तो यह उन सबके लिए एक बड़ी विजय होती। पूरा यूरोप इस विख्यात वैज्ञानिक को जानता था और उसका आदर करता था। यदि ब्रूनो यह घोषणा कर देता कि वह ग़लती पर था और पादरी लोग ठीक थे, तो बहुत-से लोग फिर से विश्व की सृष्टि के विषय में धर्म के कथनों पर विश्वास करने लगते।

किन्तु जर्दानो ब्रूनो चट्टान की तरह दृढ़ और साहसी व्यक्ति था। पादरी न तो धमकियों और न ही यन्त्रणाओं द्वारा ब्रूनो को विचलित कर पाये। वह दृढ़ता से अपने विचारों की सत्यता को सिद्ध करता रहा।

अन्त में हत्यारों ने उसे प्राणदण्ड देने का निर्णय सुनाया। 'न्यायालय' का निर्णय सुनकर ब्रूनो ने 'इन्क्विज़ितरों' से शान्तिपूर्वक कहा - ''आप दण्ड देने वाले हैं और मैं अपराधी हूँ, मगर अजीब बात है कि कृपासिन्धु भगवान के नाम पर अपना फै़सला सुनाते हुए आपका हृदय मुझसे कहीं अधिक डर रहा है।''

('अनुराग ट्रस्‍ट' से प्रकाशित अ. वोल्कोव की पुस्‍तक 'धरती और आकाश' से)

मुहम्मद अली, महान अमेरिकी मुक्केबाज़

"मैं चकमा नहीं दे रहा. मैं कोई झंडा नहीं जला रहा. मैं कनाडा को नहीं भाग रहा. मैं यहाँ हूँ, आपके ठीक सामने. आप मुझे जेल भेजना चाहते हो? ठीक है, भेजो. मैं पिछले 400 सालों से जेल में ही रह रहा हूँ. हो सकता है मुझे आगे भी उतना ही और रहना पड़े लेकिन मै, क़ातिलों को ग़रीब और बेक़सूर लोगों का  क़त्ल करने में मदद करने के लिए दस हज़ार मील दूर नहीं जाने वाला. अगर मैं मारना चाहूँगा तो मैं ठीक यहीं मरूँगा, अभी, आप से लड़ते हुए, अगर मैं मरना चाहूँगा. मेरा दुश्मन कोई चीन वाला, वियतनामी या जापानी नहीं है, मेरे दुश्मन तो आप हैं. जब मैं आज़ादी चाहता हूँ तो आप मुझे कुचलते हो. जब मैं न्याय मांगता हूँ तो आप मेरे दमनकारी बनते हो. जब मैं बराबरी चाहता हूँ तो आप मुझे कुचलते हो और आप चाहते हो कि मैं आपके लिए कहीं जाकर लडूं? मैं जब यहाँ अमेरिका में अपने अधिकारों और धार्मिक विश्वास के लिए लडूंगा तो आप तो मेरे साथ भी खड़े नहीं होगे. आप तो मेरे साथ मेरे घर पर भी खड़े नहीं होगे." 
 
मुहम्मद अली, महान अमेरिकी मुक्केबाज़; 

जब अमेरिका सरकार ने उन्हें वियतनाम में अमेरिकी फौज की ओर से लड़ने का हुक्म दिया और उन्होंने साफ इंकार कर दिया था. जिसके लिए उन्हें पांच साल की क़ैद हुई थी और तब उनका मुक्केबाजी का कैरियर बुलंदी पर था और  चौपट हो गया था. उन्होंने ना सिर्फ़ अमेरिकी फौज में जाने से मना किया बल्कि वियतनाम युद्ध के लिए अमेरिका का ज़ोरदार विरोध किया था.

विख्यात अमेरिकी फिल्म कलाकार विल स्मिथ ने उन्हें अपना हीरो मानते हुए अपनी जीवनी 'विल' में ये उल्लेख किया है.

Wednesday, 16 February 2022

यू.पी. विधानसभा चुनाव-2022 अपील



यू.पी. विधानसभा चुनाव 403 सीटों पर 10 फरवरी से शुरू होकर 07 मार्च को समाप्त होगा। इस चुनाव में भाजपा के साथ अपना दल व निषाद पार्टी तथा सपा के साथ रालोद, सुभासपा एवं ए.आई.एम.आई. एम. जनअधिकार पार्टी, बहुजन मुक्ति पार्टी, महान समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, वामपंथी पार्टियां एवं बसपा व कांग्रेस पार्टी चुनाव में अपने अपने प्रत्याशी उतारे हैं। इनमें जनसाधारण को अपना प्रतिनिधि चुनना है जो चुनाव जीतकर प्रदेश सरकार बनायेंगे व चलायेंगे। वे सरकार बनाये तो जनसाधारण के हितों में काम करें? कौन काम करेगा? कौन जनसाधारण के हितों के विरुद्ध काम करेगा? या यह मान लिया जाये कि चलो जब कोई जनसाधारण का हितैषी नहीं है, तब अपने जाति धर्म के प्रत्याशी को ही जिताया जाये! यही 30 / 32 सालों से होता आ रहा है। परिणाम आप जनसाधारण के सामने बेतहाशा बढ़ती मँहगाई, बेकारी और गरीबी के रूप में आ रहा है। तब, आज पुनः जनसाधारण को विचार करने का मौका है कि वह किसे वोट दें?! और किसे वोट न दें?!!

कोरोना महामारी के कारण चुनावी रैलियों व सभाओं पर प्रतिबन्ध लगा हुआ है। नेतागण दरवाजे दरवाजे जाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं। लेकिन असल प्रचार इनके प्रचार माध्यम टी.वी. अखबारों, पर्चे व सोशल मीडिया से हो रहे हैं। इन प्रचार माध्यमों के मालिक देशी विदेशी पूंजीपति हैं। सुनते हैं कि प्रचार माध्यमों पर सत्तारूढ़ पार्टियों खासकर भाजपा का कब्जा है इसलिए टी.वी., अखबारें भाजपा के पक्ष में माहौल तैयार कर रही हैं। इन सत्ताधारी दलों को पूंजीपति चन्दे देते हैं जिनके चन्दे से ये चुनावों में बड़ी-बड़ी रैलियां, सभाएं, रोड शो करते हैं। मीडिया को धन देकर अपने पक्ष में प्रचार करवाते हैं। और हवाई जहाजों व हेलीकाप्टरों से दिन-रात उडते हुये जनसाधारण में उतरते हैं। चुनाव भर इतना आते-जाते हैं कि जनसाधारण को अपना करीबी लगने लगते हैं, जबकि दरअसल ये नेता जिनके पूंजी पैसे से जनसाधारण में उतारे जाते हैं सत्ता में जाकर उन्हीं के काम करते हैं और करेंगे भी। तब, जनसाधारण 5 साल तक केवल पानी पी-पी कर गालियाँ देती रहे; अपने भाग्य कोसती रहे; अथवा वह किसे चुनेगी? विचार करे!

पहले, सत्तारूढ़ भाजपा को देखें- इसके दावे / वादे हैं किसानों की आमदनी दोगुना करना, गन्ना किसानों का बकाया भुगतान करना, किसानों के कर्ज माफ करना, गरीबों को सस्ता राशन, आवास, शौचालय देना, श्रमकार्ड धारक मजदूरों को 500 रु महीना और किसानों को 6 हजार सालाना पैसे देना। गरीबों को दिये इस दान दक्षिणा के अलावा प्रदेश में विकास हेतु अमीरों के लिये पूंजी निवेश आकर्षित करना और ढाँचागत विकास जैसे सड़के, हवाई अड्डे आदि बनवाना। स्वच्छ प्रशासन देना, गुण्डाराज खत्म कर देना। अयोध्या राम मन्दिर तथा काशी विश्वनाथ मन्दिर कारिडोर का निर्माण व विकास करके पर्यटन स्थल बनाना आदि आदि काम करने के इनके दावे-वादे हैं। भाजपा प्रदेश की 80. प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत के मुद्दे उठा रही है और हिन्दुओं की भलाई के दावे कर रही है। इन तमाम दावों/ वादों के विपरीत सच्चाई आप जनसाधारण के सामने है। खाने-पीने पहनने ओढ़ने व मकान बनाने के सामानों की बढ़ती मँहगाई से गरीबों का पेट पर्दा चलना दुश्वार है ऊपर से किसी क्षेत्र में काम धन्धा अच्छा नहीं चल रहा है, मन्दी है। बेरोजगारी बेकारी फैली हुई है। मान लें कि मजदूरों को 500 रु महीना और सस्ता राशन मिल भी जाय तो महीने भर उनका चूल्हा जल पायेगा? जबकि 1000/रु. गैस है, बाकी खर्चे? किसानों की खेती के लागत के सामान बिजली 175 रु. प्रति हार्स पावर और डीजल 90/100रु प्रति लीटर, खाद, बीज, कीटनाशक, कृषियंत्रों की कीमतें इतनी ज्यादा बढ़ गयी हैं कि 'किसान सम्मान निधि' सालाना 6000 रु. से सिंचाई का दाम भी नहीं निकल सकता। जुताई, बुवाई, निराई, कटाई, मड़ाई आदि खर्चे के तले किसान कराह रहा है। ऐसी ही समस्याएं अन्य मेहनतकश वर्गों के सामने भी हैं। सवाल फिर खड़ा है कि इन्हें हल कर पाने में भाजपा नाकारा साबित हो चुकी है तो कौन सा दल है जो इन समस्याओं को हल करने के दावे वादे करता है?

दूसरे दल सपा और उसके गठबंधन में किसानों को सिंचाई हेतु की बिजली तथा सभी उपयोकाओं को 300 यूनिट को बिजली देने, सभी फसलों पर एम. एस.पी. देने, किसानों का कर्ज माफ करने एवं एस.के.एम. द्वारा बढ़ाई गई सभी मांगों को पूरा करने, छात्रों को लैपटॉप, कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाल करने के दावे, चादे किया है। साथ ही वह पी जातियों को सामाजिक न्याय देने 85/15 के आधार पर जातिवादी व मुसलिम लिंग धर्मवादी गोलबन्दी खड़ी करने के प्रयास कर रही है। वहीं बसपा ने अपनी पुरानी शोसल इन्जीनियरिंग के आधार पर दलितों, मुसलमानों व ब्राह्मणों के वोट पाने हेतु जातिवादी आधार पर खड़ी गोलबन्दी का फायदा चाहती है। चौथा दल कांग्रेस बिजली बिल हाफ, किसानों के कर्ज माफ 20 लाख सरकारी नौकरियों में भर्तिया, आँगनबाड़ी व आशामित्रों के मानदेय में बढ़ोत्तरी, पुरानी पेंशन बहाली, महिलाओं को नौकरियों से लेकर विधानसभा सीटों तक पर 40 प्रतिशत आरक्षण देने। छात्राओं को स्कूटी स्मार्टफोन के वादे कर रही है। परन्तु इन सभी मुद्दों के अलावा महिलाओं में सबसे ज्यादा जोर व जोश भरते व • लिंगवादी राजनीतिक खड़ी करने का प्रयास कर रही है। इसके अलावा छोटे-छोटे दल विभिन्न जातियों के जातिवाद क ए.आई.एम.आई.एम. मुस्लिमवादी-धर्मवादी दल के रूप में खड़े हैं।

सभी विपक्षी पार्टियां सत्तासीन भाजपा की तरह ही फ्री बांटने पर ज्यादा जोर दे रही हैं. जैसाकि भाजपा की बांटकर लाभार्थियों के वोट पर हक जताती है लेकिन जनसाधारण की समस्याएं कम नहीं हुई बढ़ गई है। कारण? ये दल जिनसे चन्द्रे व नोट लिये होते हैं उनके लिये दावे नहीं करते, बल्कि इन्हें झूठ सच्च दावे / वादे उस बहुसंख्यक जनता से करने पड़ते हैं जिनसे वोट लेने होते हैं। इसलिए सत्ता सरकार में जाते ही ये दल अपने दावे / वादे दरकिनार करके उन अमीर वर्गों पूंजीपतियों के काम करते हैं जिनसे चुनावी खर्चे व नोट लिये रहते हैं। उदाहरणार्थ- मान लें, आपको बिजली फ्री देते हैं तो उतना पैसा बिजली कम्पनियों को सरकार देगी या उनके कर्जे माफ करती है तो सरकार बैंकों को पैसे देती है। इस प्रकार फ्री पाने का बोझा सरकार पर पड़ता है और बिजली कम्पनियों व बैंकों के मालिकान अपना लाभ सूद सहित पा जाते हैं परन्तु सरकार इस खर्चे का बोझा उठाने हेतु मान लें, जनता पर 2 रु. टैक्स लगा दे तो पूंजीपति 4 रू माल पर अपना लाभ बढ़ा लेता है और जनता को अगर कोई एक चीज फ्री मिली तो दूसरी चीजें महंगी हो जाती हैं। यानी फिर वैतलवा (मतदाता) डार के डार ही!! आप भी सोचेंगे कि इस शिकन्जे से निकलने का आखिर तरीका क्या है? केवल एकमात्र तरीका है कि जनसाधारण के आम उपभोग के सामान और खेती व दस्तकारी में प्रयोग होने वाले कच्चे माल व मशीने खाद, पानी, ऊर्जा, परिवहन, कर्जे पर सूद दरें सबकी मूल्य वृद्धियों पर प्रतिबन्ध लगाये जायें। सब सामानों पर सरकार टैक्स हटा ले और इस घाटे की पूर्ति हेतु देशी-विदेशी पूंजीपतियों व व्यापारियों पर कर टैक्स बढ़ा दे। यह काम इसलिए भी आवश्यक है कि इससे गरीबी कम हो जायेगी और गरीबों/ अमीरों के बीच बढ़ती असमानता व संघर्ष में कमी आयेगी, कानून व शान्ति व्यवस्था बहाल हो जायेगी परन्तु यदि ये दल सत्ता में पहुँचकर पूंजीपतियों के पक्ष में कानून व नीतियों बनाते हैं। उन पर लगे कर टैक्स कम करते हैं तथा उनके कर्जे व टैक्स माफ कर देते हैं। साथ ही जनसाधारण पर टैक्स कर बढ़ा देते हैं और विपक्षी पार्टियां चिल्लाती है कि पूंजीपतियों को फायदा पहुंचा रहे हैं। ऐसी विपक्षी पार्टियों से जनसाधारण को सवाल पूछना चाहिए कि आप सत्ता सरकार में जब थे तब क्या पूंजीपतियों पर प्रतिबन्ध लगाये थे? अथवा सत्ता मे जाकर अब लगायेंगे? क्या उनपर टैक्स बढ़ाकर इकट्ठा किया सरकारी खजाने को किसानों, मजदूरों की मंहगाई, बेकारी, शिक्षा, स्वास्थ्य की समस्यायें हल करने पर खर्चा करेंगे? जनसाधारण जाति / धर्म की राजनीतिक गोलबन्दियों में बँट चुका है मान लें, यह सवाल वह नहीं खड़ा कर पाता है तो क्या खुद दिपक्षी पार्टियों को यह वादा नहीं करना चाहिए कि सत्ता में जाने के बाद वह पूंजीपतियों बड़े व्यापारियों पर अमुक अनुक प्रतिबन्ध लगायेंगे। यदि विपक्षी पार्टियां ऐसा नहीं कर रही है तो जनसाधारण को समझ लेना चाहिए कि उनकी भलाई की डींगे भरने वाली विपक्षी पार्टियां भी धोखेबाज व अवसरवादी व झूठी है। क्योंकि अमीर वर्गों का विरोध किये बगैर गरीब वर्गों की भलाई आज सम्भव ही नहीं है और कोई दल एक साथ सभी वर्गों की भलाई कर ही नहीं सकता।

दूसरी बात, उ.प्र को सामाजिक आर्थिक दृष्टि से देखें तो कृषि एवं उद्योग दोनों ही उत्पादन क्षेत्रों में पिछड़ा हुआ प्रदेश है। देश में कृषि के मामले में पंजाब व हरियाणा का विकास हुआ है तो औद्योगिक क्षेत्र में कर्नाटक, तमिलनाडु बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र विकसित हैं उ.प्र. बिहार आदि पिछड़े प्रान्त हैं। अंग्रेजों की गुलामी काल में उनके 150 साला विकास के परिणाम स्वरूप ही यह बँटवारा उमर चुका था। आजादी के 75 साल बाद इतना विकास होने के बावजूद भी देश में वही बैटवारा वही असमानता और गहरी होती जा रही है। यह कैसा विकास है, जिसमें अमीर वर्ग व विकसित प्रान्त और ज्यादा अमीर व विकसित तथा गरीब वर्ग व पिछडे प्रान्त और ज्यादा गरीब व पिछड़े होते जा रहे हैं। कारण उप्र में 1980/95 तक जो गन्ना मिलें लगी थी उन्हें उखाड़कर महाराष्ट्र भेज दिया गया। पश्चिमी यू.पी. से पूर्वी यूपी ज्यादा पिछड़ा है दिल्ली से सटे नोयडा में कल-कारखाने लगे हैं। पूर्वांचल के आजमगढ़-मऊ में गन्ना मिल, कताई, मिल, वस्त्र उद्योग, पावर लूम लगे थे जो बन्द कर दिये गये। नये कारखाने नहीं लगे हैं। यही हाल समूचे पूर्वाचल की है। रोजी-रोटी के लिए यू.पी. का किसान व मजदूर का बेटा अपनी क्षमतानुसार पढ़-लिखकर जैसे ही जवान होता है वैसे वहीं नौकरी व रोजगार करने बाहर गुजरात, महाराष्ट्र जैसे विकसित प्रान्तों, नगरों को पलायन कर जाता है। प्रदेश की 60 / 70 प्रतिशत ऐसी ही मजदूर किसान गरीब आबादी है। बकिया ग्रामीण व शहरी मध्यम व निम्न मध्यम वर्गीय, नौकरी पेशे-क्लर्क, अध्यापक, डाक्टर व वकील, दूकानदार, मिस्त्री, दस्तकार, सेल्समैन, ठेले, खोमचे पर काम करने वाली आबादी है। 5-10 प्रतिशत धन्नाढ्य व्यापारी, उद्योग व सेवाओं के पूंजीपति मालिक है। दुर्भाग्य यह कि इन पिछड़े इलाके के लोगों की जवानी इस इलाके के काम नहीं आती वैसे ही इन इलाकों की पैदावार बेहतरीन चावल, चीनी, आलू गोस्त, मछली, अण्डे, दूध, चमड़े, फल, फूल, सब्जियां आदि आदि कृषि पैदावारों के अलावा लघु व कुटीर उद्योगों के बने माल सामान कालीन, गलीचे, साड़ियाँ बर्तन आदि विदेशों खासकर अमरीका इंग्लैण्ड आदि साम्राज्यवादी देशों को सस्ते रेट पर निर्यात हो जाते हैं जो उनकी जरूरतों अनुसार इन इलाकों में पैदा करवाये जाते हैं जैसे कि आज मछली, मुर्गी, बत्तख, सुअर, बकरी पालन के लिए और दुग्ध उत्पादन हेतु गाय, भैंस पालन को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। साथ ही मोनसेंटों, कारगिल, वालमार्ट जैसी साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कृषि व ग्रामीण क्षेत्रों एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में उत्पादन से लेकर व्यापार करने तक में छूटे सुविधायें दिया जा रहा है। जिससे देशी-विदेशी पूंजीपतियों की लूट-पाट एवं लाभखोरी से दौलत बढ़ती जा रही है। इन्हें सत्ताधारी सभी दल 30/32 सालों से छूट देते आ रहे हैं ग्रामीण इलाकों के बने माल सामान सड़कों रेलों से होता हुआ बड़े-बड़े शहरों नगरों को जाये और उन नगरों उद्योगों का बना माल सामान गाँवों तक आये और विदेशों तक जाये इसके लिए सड़कों रेलॉ, बन्दरगाहों का विकास किया करवाया जाता है। ये विकास कार्य सभी सत्ताधारी दल सपा, बसपा, भाजपा 30/ 32 सालों से इस प्रदेश में कर रही हैं। इसका ताजा सबूत अखबारी सूचना अनुसार भारत में अमीरों की संख्या 102 अरबपतियों से बढ़कर पिछले एक साल में अरबपतियों की संख्या 142 हो गई है टाटा, बिड़ला, अम्बानी की दौलत सम्पत्तियों के साथ विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी व परिसम्पत्तियों में इजाफा हुआ है वहीं गरीबी बढ़कर दो गुना हो गई है। तब सवाल विकास का नहीं है सवाल यह है कि इस विकास में जन साधारण कहां है? इस प्रदेश की पैदावार सस्ते में लूटकर विदेशों में भेजकर बहुराष्ट्रीय कं. और देशी पूंजीपति लाभ कमायें खुद तो मालामाल हो और मेहनतकश जनसाधारण खुद पैदा करके खाने, पाने को मुहताज रहें। गरीबी, मंहगाई झेले, कमा-खिलाकर हम नौजवान पैदा कर दें उन्हें सस्ते में 10/15 हजार महीना पर खटना पड़े या बेकारी व बेरोजगारी झेलें और यदि कभी अपनी दुर्दशा के लिए आवाज उठायें तो लाठी-डण्डे खायें। क्या यही जनतंत्र है?

प्रदेश में बढ़ती असमानताएं अमीरी-गरीबी के बीच चौड़ी होती खाई, भ्रष्टाचार, बलात्कार, अपराध, दंगे फसाद, मंहगाई, बेकारी की बढ़ती समस्याओं ने प्रदेश में जनतंत्र को फेल कर दिया है इसीलिए इन जनसमस्याओं को प्रमुख मुद्दा बनने से रोका जा रहा है। इसके लिए पूंजीवादी राजनीतिक दल भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस आदि जातिवादी, धर्मवादी, लिंगवादी गैर जनतांत्रिक मुद्दों को प्रमुखता से उठाते रहे हैं ताकि अमीर वर्गों के खिलाफ खड़ा हो रहा आक्रोश
कम हो जाये और जनसाधारण के मुद्दे दबा दिये जायें। अमीर वर्ग और उसकी अखबारें, टी.वी. पत्र पत्रिकाएं विद्वान, पत्रकार अमीर वर्गों के पूंजीवादी राज को छिपाने के लिए इन्हीं मुद्दों को उठाते हैं और किसी एक राजनेता में उनकी समूची जाति की छवि दिखाते हैं। जैसे, मौजूदा प्रदेश सरकार को क्षत्रियों का राज बताना वैसे ही बसपा के शासनकाल को हरिजनों, दलितों का राज और सपा के काल को यादवों का राज बताना समझाना और उसी जातिय छवि वाले नेता के पीछे समूची जाति का राजनीतिक जातिवाद में इस्तेमाल कर लेना। इसलिए जनसाधारण को इनका विरोध करते हुये इनसे पूछना चाहिए कि बहुसंख्यक 60-70 प्रतिशत किसान मजदूर क्षत्रियों, ब्राह्मणों के लिए भाजपा ने क्या किया? अथवा पिछड़ी जातियों व मुसलमानों की 70/80 प्रतिशत गरीब किसानों, दस्तकारों के लिए सपा ने क्या किया? साथ ही क्या दलितों हरिजनों की 80/90 प्रतिशत कमकर आबादी का भला हो गया? कई-कई बार इन्हीं दलों के इतने सालों तक राज करने के बाद भी मंहगाई, बेकारी, शिक्षा, सवास्थ्य की समस्याएं क्यों हल नहीं हो पाई? चर्चा में आई बातों को ध्यान में रखकर विचार करते हुए अपने प्रतिनिधि चुने। हमारी माँगे और वोट देने के सुझाव

1. ऐसे पार्टियों एवं प्रत्याशियों को वोट न दें जो जाति, धर्म, इलाका, भाषा व लिंगवाद की साम्प्रदायिक राजनीतियां करते हैं, उसके आधार पर वोट माँगते हैं। जाति विशेष धर्म या लिंग समुदाय विशेष के विरुद्ध नफरत फैलाते हैं। ऐसे पार्टी व प्रत्याशी को वोट दें जो किसानों की खेती की लागत-बीज, खाद, कीटनाशक, कृषियंत्रों को सस्ता करने, आम उपभोग के सामानों को सस्ता करने पूंजीपतियों, व्यापारियों पर टैक्स बढ़ाने व वसूलने तथा जनसाधारण पर लगने वाले टैक्सों करों को कम करने के दावे वादे करें।

2. कृषि क्षेत्र को सिंचाई हेतु डीजल व बिजली सस्ती करें। किसानों का कर्जा माफ करें तथा बढ़ती लागत की तुलना में कृषि उत्पादों की कीमत बढ़ाने हेतु और हर फसल पर एम. एस. पी. देने हेतु कानून बनाये। 13. किसानों को समय पर बीज, खाद आदि कृषि में प्रयोग होने वाले सामानों को मुहैया कराये।

4. यू.पी. खासकर पूर्वी यू.पी. में उद्योग लगवाये, दस्तकारों लघु व कुटीर उद्योगों को उत्पादन व व्यापार में सुविधायें
उपलब्ध कराये।

5. पिछड़ी व अगड़ी जातियों की आरक्षण की क्रीमी लेयर सीमा को 8 लाख से घटाकर दो लाख रुपये करने हेतु कानून बनाये ताकि पिछड़ी जातियों व अगड़ी जातियों के गरीबों को सरकारी नौकरी का लाभ मिल सके। 

6. मनरेगा मजदूरों की दिहाड़ी मजदूरी 700/ रु. प्रतिदिन की जावे वहीं असंगठित व संगठित क्षेत्र प्राइवेट मजदूरों की
10 / 15 हजार महीना से बढ़ाकर मजदूरी कम से कम 25,000/ रु महीना करने का कानून बनाये। 

7. सरकारी एवं प्राइवेट नौकरियों में भर्तियां की जावें ताकि योग्य व सक्षम नौजवानों को रोजगार मिल सके जिसके बेकारी की समस्यायें हल हो।

8. आवारा पशुओं को किसान शत्रु मानकर उनका स्थाई बन्दोबस्त किया जाय ताकि किसानों की फसलों की बर्बादी न हो और किसान की फसल जानवरों द्वारा बरबाद होने पर उन्हें मुआवजा देना सुनिश्चित करे।

अपीलकर्ता

श्यामनरायन सिंह (सिधारी), ओमप्रकाश सिंह (पासीपुर), जीत नरायन यादव (बद्दोपुर), कृष्णपाल सिंह (भीरपुर), केदारनाथ वर्मा, सियाराम कुशवाहा (कोडर अजमतपुर), विद्यानिधि उपाध्याय (डुबडुगवा),

शेषनाथ राय (डेवड़ा दामोदरपुर) आजमगढ़

सम्पर्क हेतु मो. नं. 9889565546, 9452577375, 9451535817

Saturday, 12 February 2022

ज़ुल्मतों के दौर में

बर्तोल्त ब्रेख्त के जन्मदिन पर प्रस्तुत है कॉमरेड Gauhar Raza की यह लघु फ़िल्म "ज़ुल्मतों के दौर में"


Thursday, 10 February 2022

हिजाब प्रकरण में मित्र रंगनाथ सिंह का यह लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए......



आज सुबह खबर आयी कि अफगानिस्तान पुलिस की पूर्व महिला कर्मी को गोली मार दी  गयी है। क्यों और कैसे इसकी दुनिया में किसी को परवाह नहीं है तो हमें भी क्यों हो।अफगानिस्तान की एक यूनिवर्सिटी गेट से उन लड़कियों को लौटाया जा रहा है जिन्होंने बुरका नहीं पहना है। जाहिर है कि फिलहाल तालिबान प्रवक्ता यूरोप की यात्रा पर हैं। 

अफगानिस्तान में महिलाओं के संग जो हो रहा है वह इंटरनेट पर वायरल नहीं हो रहा है। ईरान में एक शख्स अपनी 17 की पत्नी की सिर काटकर सड़क पर लेकर आ गया। लड़की की जब12-15 साल की बच्ची थी तभी उसकी शादी हो गयी थी। वह पति से बचकर तुर्की भाग गयी थी। ईरानी पत्रकार कह रही हैं कि उस लड़की को ईरान वापस भेजने में ईरान के तुर्की दूतावास की भूमिका थी। वह देश लौटी तो पति ने गला काटकर सड़क पर जगजाहिर कर दिया। ईरान के एक इस्लामी विद्वान ने स्थानीय टीवी चैनल पर लड़की का गला काटकर घूमने वाले पति का बचाव करने का प्रयास किया। जाहिर है कि  ऐसे मसलों पर इंटरनेट नहीं हिलता। लोकतान्त्रिक देशों को आजकल 'मुस्लिम महिलाओं' को बुरका पहनाने की ज्यादा चिन्ता है।

जाहिर है कि लोकतांत्रिक देशों में स्कूल में बुरका अधिकार बताया जा सकता है लेकिन अन्य देशों में यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ भी कपड़े के मामले में 'माई च्वाइस' नहीं कह सकतीं। हमारे बीच कुछ लोग सेलेक्टिव सेकुलर हैं कि उन्हें अपने बच्ची के लिए कुछ और अच्छा लगता है, दूसरे की बच्चियों के लिए कुछ और। मासूमियत देखिए कि वो यह महान काम 'धार्मिक अधिकारों की रक्षा' के लिए कर रहे हैं। यह आम समझ है कि दुनिया के सभी प्राचीन धर्म मूलतः पितृसत्तात्मक हैं। उनकी जकड़ से महिलाओं को निकलने के लिए मूलतः धर्म की बेड़ियाँ ही तोड़नी पड़ती हैं। रिलीजियस फ्रीडम का अधिकार मूलतः अपने मनपसन्द ईश्वर की पूजा करने का अधिकार है। स्वाभाविक सी लगने वाली यह बात अधिकार के रूप में दुनिया में क्यों प्रचारित की जाती है? क्योंकि कुछ धर्मों को लगता है कि केवल उनका ईश्वर ही सही है और उनकी पूजा-पद्धति ही सही है। इस मामले में हमारे देश में टू-मच डेमोक्रेसी रही है। कुछ देश तो ऐसे हैं कि उनके एक की जगह किसी दूसरे की तरफ हाथ जोड़ लिया तो जान गयी। हमारे देश में 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 33 करोड़ का जबका डेटा है उस समय के हिसाब से इस देश में पर-हेड तीन-चार देवी-देवता पड़ेंगे। तो फ्रीडम ऑफ फेथ एंड वर्शिप तो यहाँ का स्वभाव है।  

कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि कर्नाटक विवाद की जड़ में केवल सत्ताधारी दल है। ऐसे लोग या तो मासूम हैं या चरमपंथी प्रोपगैण्डा नेटवर्क का हिस्सा हैं। सत्ताधारी दल मामले को हवा दे रहा होगा या उसका अपने चुनावी हित में इस्तेमाल कर रहा होगा लेकिन यह मामला उसके सत्ता में आने से बहुत पहले का है, उसकी सत्ता से बाहर की बहुत बड़ी दुनिया का है। भारत में भी स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने का मामला केरल में हाईकोर्ट तक गया जहाँ आज तक भाजपा का दो विधायक या एक सांसद नहीं जीता। 

अंतरराष्ट्रीय बुरका अभियान ने पहले चरण में नौजवान महिलाओं को टारगेट किया। उसके बाद वह स्कूली बच्चियों को टारगेट कर रहे हैं। इस्लामी देशों में बुरके के खिलाफ आन्दोलन चल रहे हैं। लोकतान्त्रिक देशों में बुरका पहनने को लेकर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं। पिछले 100 सालों में फैले इस्लामी चरमपन्थ के बहुत से मामलों की तरह इस मामले की भी जड़ में अमेरिका-यूरोप नजर आते हैं। एक बुरका-विरोधी आन्दोलन को शुरू करने वाली एक ईरानी पत्रकार ने सही सवाल पूछा है कि इस्लामी देशों में बुरके का विरोध करने वाली लड़कियाँ तो जेल, कोड़े या कत्ल किए जाने का रिस्क लेती हैं, लोकतांत्रिक देशों की लड़कियाँ क्या ऐसा रिस्क लेती हैं?    

साल 2013 में न्यूयॉर्क में रहने वाली एक महिला ने एक फरवरी को हिजाब डे मनाने की शुरुआत की। 2013 से उसने शुरुआत की यानी इसकी भूमिका उसके पहले से बन रही थी। एक फरवरी वही दिन है जब ईरान की कथित इस्लामिक क्रान्ति के चलते अयातुल्लाह खुमैनी फ्रांस से ईरान लौटे! जरा सोचिए, ईरानी महिलाओं पर पर्दा थोपने वाला शख्स दुनिया के सबसे आजादख्याल मुल्क में पनाह लिए हुए था! आज पचास साल बाद फ्रांस में सार्वजनिक स्थानों पर बुरके पर प्रतिबन्ध लग चुका है। इस प्रोपगैण्डा की शुरुआत बहुत साफ्ट तरीके से यह कहकर हुई कि मुस्लिम-द्वेष के खिलाफ साल में एक दिन हिजाब लगाना चाहिए। इसकी शुरुआत एक लड़की ने की। जाहिर है कि हिजाब शब्द का चुनाव सोचसमझकर किया गया। कर्नाटक में भी विरोध-प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर लड़कियाँ बुरके में नजर आ रही हैं लेकिन इंग्लिश मीडिया जानबूझकर हिजाब शब्द का प्रयोग कर रहा है। प्रोपगैण्डा युद्ध में शब्दों का चयन बहुत अहम है। 

कर्नाटक विवाद में जिस  स्कूल से ताजा विवाद शुरू हुआ है उसका नाम प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज है। जिन लड़कियों से विवाद शुरू हुआ वो 11-12वीं पढ़ती हैं लेकिन इस आन्दोलन के रणनीतिकारों ने यह सुनिश्चित किया कि कॉलेज शब्द का अस्पष्ट प्रयोग किया जाए क्योंकि भारत की बड़ी आबादी इस बात पर लड़कियों के साथ रहेगी कि कॉलेज की लड़की को अपनी मर्जी के कपड़े पहनने का हक है। लेकिन यह कोई नहीं पूछेगा कि देश के किस-किस ग्रेजुएशन कॉलेज-यूनिवर्सिटी में लड़कियों के लिए ड्रेसकोड लागू है। ड्रेसकोड स्कूल तक ही लागू रहता है और यह प्रोपगैण्डा नेटवर्क स्कूल में बुरका लागू कराने के लिए ही सक्रिय है। अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ नाबालिग या 18 से कम ही होंगी। ताजा विवाद के बाद कल ऐसे पुराने विवादों के बारे में पढ़ रहा था तो पता चला कि इससे पहले एक विवाद में कक्षा 8 में पढ़ने वाली लड़की से स्कूल में बुरका पहनकर जाने की याचिका डलवायी गयी थी। 

पॉपुलर फ्रंट केरल से निकला संगठन है। उसे अच्छी तरह पता है कि केरल में जब एक ईसाई स्कूल में बच्चियों के (जी हाँ, बच्चियों न कि महिलाओं के कपड़े जैसा कि प्रोपगैण्डा नेटवर्क ने स्थापित कर दिया है) के बुरका पहनने को लेकर मामला हाईकोर्ट पहुँचा तो अदालत ने न्याय दिया कि किसी एक बच्ची के अधिकार और संस्थान के अधिकार ( जो व्यापक समूह का अधिकार है) के बीच गतिरोध हो तो एक या कुछ व्यक्ति के अधिकार पर संस्था को तरजीह देनी पड़ेगी। यह मामला भले अदालत पहुँच गया हो लेकिन इतना तो कॉमन सेंस होना चाहिए कि हर व्यक्ति की पसन्द के हिसाब से संस्था नहीं चल सकती।  

ज्यादातर कॉलेजों में ड्रेसकोड लागू नहीं होता। ताजा विवाद और इससे पहले के विवाद भी स्कूल में बुरका पहनने को लेकर ही शुरू हुए। जब कॉलेज में बुरके पर रोक नहीं है तो स्कूल में बुरको को लेकर इतनी जिद क्यों! क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि लड़कियों की माहवारी शुरू होते ही वह छिपाने लायक हो जाती हैं। ऐसी सोच वाले अपने बचाव में सबसे ज्यादा यह तर्क देते हैं कि फलाँ लोग भी पहले यही मानते थे आदि-इत्यादि। जाहिर है कि महिलाओं को अधिकार देने के मामले में कुछ लोग बाकी लोग से कई दशक या सदी पीछे चलते हैं। अफगानिस्तान जैसे देश तो उल्टी दिशा में चल पड़े हैं। 

इस्लामी चरमपंथी स्कूली लड़कियों को बुरका पहनाने का अभियान चला रहे हैं। उनका अभियान इतना शातिर रहा कि ताजा विवाद में ग्रेजुएशन कॉलेज और यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ, प्रोफेशनल लड़कियाँ कह रही हैं कि उनके पास बुरका पहनने का अधिकार है। उनसे यह कोई नहीं पूछ रहा कि यह अधिकार तो आपके पास पहले से ही है फिर आप स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने के अभियान में क्यों भागीदार बन रही हैं? ताजा मामले भी गर्ल्स स्कूल की लड़कियों के अभिभावक स्कूल प्रशासन से मिले। उनका कहने का मतलब यही है कि जब माता-पिता के कहने से प्रशासन नहीं झुका तो वो कैम्पस फ्रंट के पास गयीं। ध्यान रहे कि ये स्कूल जाने वाली लड़कियाँ हैं। ज्यादातर अभी बालिग भी नहीं होंगी।

कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि यह 'अल्पसंख्यक' का मुद्दा है तो उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है कि इंटरनेट से कनेक्टेड ग्लोबल विलेज में सही मायनों में अल्पसंख्यक जैन, अहमदिया, पारसी इत्यादि ही कहे जा सकते हैं। अन्य धर्मों का छोड़िए कम्युनिस्टों का भी इंटरनेशनल सपोर्ट नेटवर्क है तो वो भी डिजिटल संसार में अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते। हमारे देश में बहुत सारे लोगों की राय इस वक्त इसलिए बदली हुई है कि कर्नाटक या केंद्र में भाजपा सरकार है। एक चर्चित महिला एंकर और एक मशहूर नोबेल विजेता जिन्हें स्कूल जाने के लिए ही गोली मारी गयी थी, के इस मामले से जुड़े विचार और पुराने विचार सोशलमीडिया पर वायरल हो चुके है। 

यह पहला मामला नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार को कट्टरपंथियों ने सरकार पर दबाव बनाकर दबाए हैं। हिन्दू धर्म में शामिल ज्यादातर महिला अधिकार सरकार और अदालत के रास्ते से आये हैं। यही बात मुस्लिम महिला के लिए भी सही है। मुस्लिम महिलाओं के लिए भी सरकार-न्यायालय मुल्लाओं-अब्बाओं से ज्यादा उदार और आधुनिक साबित हुआ। आज ही एक हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि मृतक आश्रित की नौकरी पाने के मामले में बेटी का भी बेटे बराबर ही हक है। पिछले महीने अदालत का फैसला आया कि पिता की सम्पत्ति की इकलौती बेटी भी वारिस होगी। यह लिस्ट लम्बी है। मुस्लिम महिला को गुजाराभत्ता देने के शाह बानो का मामला रहा हो या ताजा एक बार में तीन तलाक देने का मामला। सोचिए जो त्वरित तीन तलाक दो दर्जन से ज्यादा इस्लामी देशों में मान्य नहीं है उसे बचाने के लिए हमारे देश की समूची लिबरल लॉबी उतर पड़ी। भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति जगजाहिर है लेकिन विडम्बना देखिए कि मुस्लिम महिलाओं को पूरी तरह संवैधानिक तौर पर त्वरित तीन तलाक से मुक्ति भाजपा सरकार ने दिलायी। उसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट के त्वरित तीन तलाक के खिलाफ दिए गए आदेश से ही कुछ मुस्लिम महिलाएँ न्याय हासिल कर पाती थीं। भाजपा राज में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के हर तरह के प्रदर्शन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखी गयी है। लता जी के निधन पर शाहरुख खान को जिस तरह हिन्दू कट्टरपंथियों ने ट्रॉल किया वह उसका ताजा उदाहरण है। लेकिन क्या हम केवल मुस्लिम पुरुषों की सुरक्षा और न्याय के रक्षा के लिए चिन्तित रहते हैं? महिला-पुरुष के सवाल क्या धर्म और जाति से परे नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि जो मर्द घर से बाहर शोषित हो वह भी घर में आकर पत्नी के सामने शोषक हो सकता है! क्या किसी भी समाज में एक ही समय में एक ही वैचारिक संघर्ष होता है? इस समय हमारे समाज में कई सामाजिक संघर्ष एक साथ नहीं चल रहे हैं? इन सभी सामाजिक संघर्षों से जुड़े विमर्श एक साथ ही जारी रहते हैं। अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से लोग उनमें भागीदारी करते हैं।

 हमारे ज्यादातर लिबरल मित्र उन आठ लड़कियों के साथ खड़े हैं जिनको गर्ल्स स्कूल के गर्ल्स क्लासरूम में भी बुरका (या हिजाब) पहनना है, लेकिन उसी स्कूल की उन 70-150 (अलग-अलग जगह भिन्न-भिन्न आँकड़े हैं।) मुस्लिम लड़कियों के साथ कौन खड़ा है जो गर्ल्स स्कूल में बुरका या हिजाब पहनकर क्लास नहीं करतीं! या नहीं करना चाहतीं! उनके पास स्कूल के नियमों के अलावा कौन सी ढाल है? और स्कूल के बाद तो वो यूनिफार्म के मामले में पूरी तरह आजाद होती हैं। उनके ऊपर जो भी पाबन्दी होती है वो परिवार द्वारा थोपी गयी होती है। बुरके के समर्थन में मर्दों की संख्या देखिए और उनके द्वारा दिए गए तर्क देखिए। क्या बुरका का विकल्प केवल बिकिनी है? क्या आप सचमुच मानते हैं कि बुरका या हिजाब नहीं पहनना नंगा रहना है?  क्या आप सचमुच मानते हैं कि हजार साल पुरानी प्रथा के शिंकजे से आजाद होने से ज्यादा अहम है, उस शिकंजे को अपने ऊपर लादने का अधिकार हासिल करना? कौन सी ऐसी महिला-विरोधी कुप्रथा है जिसे महिलाओं के एक वर्ग का समर्थन नहीं प्राप्त है? 15-16 साल की सौ लड़कियाँ कल शादी करने का अधिकार माँगने लगें तो आप क्या स्टैण्ड लेंगे? मुझे पूरा भरोसा है कि दूसरे की बेटी का मामला होगा तो बहुत से लोग उसे भी 'फ्रीडम ऑफ च्वाइस' कहेंगे। फर्क ये होगा कि गरीब-निम्नमध्यमवर्गीय बेटियों को अक्सर 15 में ब्याह की च्वाइस चूज करते देखा जाएँगी और इलीट बुद्धिजीवियों की बेटियाँ पढ़-लिखकर देश-दुनिया घूमने और अफसर बनने की च्वाइस चूज करेंगी। कितनी अच्छी आजादी है, शेर को शिकार करने की आजादी, मेमने को शिकार होने की आजादी।  

कुछ घाघ संविधान की दुहाई दे रहे हैं जबकि इस मामले में अदालतें बहुत पहले साफ कर चुकी हैं कि संस्थान या समाज का अधिकार व्यक्ति के अधिकार के ऊपर है। अगर किसी व्यक्ति का अधिकार संस्थान के अधिकार के प्रतिकूल है तो संस्थान के अधिकार को प्राथमिकता दी जाएगी क्योंकि वह सामूहिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह के तर्क देने वाले में वो लोग ज्यादा हैं जो कट्टरपंथी नेटवर्क के सीधे प्रभाव में होते हैं। उन्हें प्रोपगैण्डा नरेटिव के औजार सौंपे जाते हैं जिनका वो इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोगों को इन्फ्लुएंसर कहते हैं। राइट-लेफ्ट, हिन्दू-मुस्लिम-कम्युनिस्ट कोई भी समूह हो उसका एक प्रोपगैण्डा नेटवर्क होता है और उसके कुछ इन्फ्लुएंसर होते हैं जो अपने नीचे वाली जमात को बहसबाजी-कठदलीली के लिए कुतर्क-कुतथ्य उपलब्ध कराते हैं।     

थोड़ी बात बुरका-हिजाब पर भी जरूरी है। गौरतलब है कि कर्नाटक विवाद में अबी तक जितनी तस्वीरें-वीडियो आये हैं उनमें ज्यादातर में वो लड़कियाँ बुरके में नजर आयी हैं लेकिन वो खुद और लिबरल ईकोसिस्टम के इन्फ्लुएंसर बुरके के लिए 'हिजाब' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। हिजाब इस्लामी पर्दे का सबसे मॉडरेट रूप है। हिजाब और बुरके में सबसे बड़ा अन्तर चेहरा दिखाने-छिपाने का है। कोई लड़की अपने सिर पर दुपट्टा बाँधे हुए है यह कम से कम हमारे देश में कभी आपत्ति का कारण नहीं है। लेकिन प्रोपैगण्डा नेटवर्क को जब सेकुलर यूनिफॉर्म के खिलाफ दलील देनी होती है तो वो सबसे पहले हिजाब का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हिजाब देखने में अफेंसिव नहीं लगता। इससे नौजवान मुस्लिम लड़कियों और गैर-मुसलमानों की सहानुभूति हासिल करने में आसानी होती है। हिजाब और बुरका शब्द के प्रयोग के मनोवैज्ञानिक प्रभाव में बहुत फर्क है लेकिन तर्क एक ही है। अगर आपने यह स्वीकार कर लिया कि मुस्लिम स्कूली बच्ची को उसके दीन के हिसाब से 'हिजाब' पहनना जरूरी है तो आप यह मान लेते हैं कि उस बच्ची को 'हिजाब न पहनने की आजादी' नहीं है क्योंकि उसके धर्म में ऐसा लिखा है। उसके बाद हिजाब-नकाब-बुरका केवल इंटरप्रिटेशन का मामला हो जाता है। ईरानी हिजाब, भारतीय बुर्के और अफगानिस्तानी बुर्के के बीच आप फर्क देख सकते हैं? और यहाँ से नारीवादियों के पिछले 100 सालों में हासिल किया गया वह नरेटिव कफन-दफन हो जाता है जिसमें 'स्त्री के शरीर पर उसका हक' माना जाता है। रिलीजियस स्टडी का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि पितृसत्तात्मक धर्म सबसे ज्यादा औरत के शरीर से बौखलाता है। उसका मानना है कि औरत के शारीरिक उभारों और बालों में वह 'पाप' छिपा हुआ है जिससे वो खतरे में पड़ जाती हैं। बुरकानशीं समाजों में महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों के आँकड़ों से ये धर्माधिकारी मुँह चुरा लेते हैं।  
  
भारतीय उपमहाद्वीप में बुरका ही प्रचलित है। हिजाब भारत में नया फैशन है। बहुत पहले एक मुस्लिम मित्र से पूछा कि जब ज्यादातर मुस्लिम देशों में बुरका-नकाब चलता है तो हज में महिलाएँ हिजाब क्यों पहनकर जाती हैं? उनका जवाब था कि वहाँ इतनी बड़ी संख्या में महिलाएँ होती हैं कि यह जरूरी हो जाता होगा। हो सकता है कि सऊदी या ईरान या तुर्की में हिजाब के प्रचलन के पीछे कोई और वजह हो। हिजाब में महिलाएँ एक छोटी चादर सिर के चारों तरफ लपेट लेती हैं जिससे उनके बाल न दिखें। बाकी वो सामान्य कपड़े पहनती हैं। हिजाब मूलतः बेहद प्रचलित बुरका और आधुनिक जरूरतों के बीच समझौते की कड़ी जैसा लगता है। कल ही किसी ने किसी भारतीय राज्य में बुरके में फुटबॉल खेलती लड़कियों का वीडियो शेयर किया है। जाहिर है कि लड़कियों का फुटबॉल खेलना हर धर्म में कभी न कभी अस्वीकार्य रहा है। ये लड़कियाँ आज बुरके में फुटबॉल खेल रही हैं तो कल बिना बुरके के खेलेंगी।

रही इस विवाद के समाधान की तो अब इस बात पर लगभग सहमति है कि ऐसे विवादों का अन्तिम निपटारा सुप्रीमकोर्ट करेगा। ज्यादा बड़ा मसला होगा तो संविधान पीठ करेगी। उससे बड़ा मसला होगा तो और बड़ी संविधान पीठ करेगी। कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया है। न्यायालय जो कहेगा वही हम जैसे मानेंगे। केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला स्पष्ट हो जाना चाहिए था लेकिन वकील और प्रोपगैण्डिस्ट अगर नुक्ताचीनी न कर सकें तो बेरोजगार हो जाएँगे। 

यह भी याद रहे कि मौजूदा सरकार 2014 में आयी है, शायद 2024 में रहे, न रहे। इस सरकार से जुड़े मुद्दे इस सरकार से पहले भी थे, इसके बाद भी रहेंगे, हिन्दू चरमपंथ की समस्या मुख्यतः भारत की सीमा तक महदूद हैं लेकिन धर्मपोषित पितृसत्ता और स्त्री का संघर्ष कई हजार साल से चल रहा है और पूरी दुनिया में चल रहा है। इसे अपने फौरी एजेंडे या फायदे तक सीमित न करें। पोस्ट की शुरुआत एक बुरी खबर से हुई है। अंत एक अच्छी खबर से करना चाहूँगा। कश्मीर की जबीना बशीर अनुसूचित जनजाति (मुस्लिम गुर्जर समुदाय) से आती हैं। उन्होंने NEET की परीक्षा पास कर ली है। जबीना के अनुसार वो यह उपलब्धि हासिल करने वाली अपनी जाति की पहली लड़की हैं। उनके पिता साधारण किसान हैं। उसी खबर में पढ़ा कि पिछले साल तमिलनाडु की आदिवासी मालासर समुदाय की लड़की ने NEET निकाला था और यह उपलब्धि हासििल करने वाली अपने समुदाय-गाँव की पहली लड़की बनी थी।


१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...