Tuesday, 27 February 2024

Unjust Detention and Deportation of Professor Nitasha Kaul: A Blatant Act of Intolerance by RSS and BJP

*Unjust Detention and Deportation of Professor Nitasha Kaul: A Blatant Act of Intolerance by RSS and BJP*

In a shocking display of authoritarianism, Professor Nitasha Kaul, a distinguished academic invited to a seminar in Bengaluru, faced unwarranted and illegal detention upon her arrival at the Bengaluru airport. The apparent orchestration of her repatriation by the BJP-led Union Government of India reveals the sinister intolerance harbored by the ruling establishment towards dissenting voices.

Professor Kaul, a luminary in politics, international relations, and critical interdisciplinary studies at the University of Westminster, endured a harrowing 24-hour detention by the immigration department. Confined to a cell under constant CCTV surveillance, she was subjected to conditions that violate basic human rights, with limited space for movement and insufficient provisions of water and food. Such treatment reflects a gross abuse of power.

Despite the lack of official statements, Professor Kaul asserts that her expulsion is a direct response to her incisive critique of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), a critique that has drawn the ire of the BJP-led government. Invited by the State Government of Karnataka to participate in a seminar on "Constitution and Unity in India," her expulsion raises serious questions about the suppression of dissenting opinions in the world's largest democracy.

This incident is not an isolated one. Professor Kaul has been subjected to threats and intimidation from right-wing extremists, including death threats and bans. The dispatching of law enforcement to her mother's residence is a blatant attempt to stifle her voice through fear. Professor Kaul's courage in the face of such adversity is commendable, and we express our unwavering solidarity with her.

The episode exposes the alarming intolerance of the Sangh Brigade, particularly the RSS and BJP. Their unwillingness to tolerate even the mildest forms of dissent demonstrates a blatant disregard for democratic values. We call on all forces that cherish democracy to condemn this egregious act by the Modi Government.

In standing with Professor Nitasha Kaul, we stand against the erosion of democratic principles and the stifling of voices that question the status quo. The Marxist perspective encourages us to recognize the broader implications of such actions – an attempt to silence those who dare to challenge the hegemony of the ruling elite.

Majdur Vimarsh

Basedvon AISA post dated  26/02/24

Saturday, 24 February 2024

Jai Shri Ram


In devotion, Neither hands nor feet are needed, Or else the disabled would never be able to.

Nor is it done with the eyes, Or else Surdas ji would never be able to.

Nor is it done by speaking or listening, Or else the dumb and deaf would never be able to.

Nor is it done with wealth or strength, Or else the poor and weak would never be able to.

Devotion is only done with feeling, It is a realization that comes from the heart and into the thoughts.

Thursday, 22 February 2024

महिला अधिकारों की रक्षा के लिए लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को हराएं



राज्य स्तरीय महिला कार्यकर्ता कन्वेंशन : 25 फरवरी 2024, दिन रविवार को गांधी संग्रहालय पटना में 10.30 बजे से 4.00 बजे शाम तक 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार महिलाओं को विकास का लाभ पंहुचाने और उनके खिलाफ हिंसा रोकने में पूरी तरह विफल रही है | महिलाओं से जुडी सभी योजनाएं कागजी साबित हुई हैं | जेंडर डेवलपमेंट इंडेक्स में शामिल 156 देशों में भारत का स्थान 140 वां है | विकास में बराबर की भागीदारी तथा गरिमा व सुरक्षा के अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष मूलतः लोकतांत्रिक व मानव अधिकारों के लिए जारी संघर्ष का अभिन्न हिस्सा है | यह जगजाहिर है कि मोदी सरकार हमारे लोकतंत्र और संविधान को नष्ट कर रही है | घृणा, नफरत और हिंसा की राजनीति इसकी विचारधारा के मूल में है | हिन्दू संस्कृति व धर्म  की पाखंडी, अंधविश्वासी, कट्टरवादी और ब्राह्मणवादी व्याख्या पर आधारित आरएसएस/भाजपा के हिंदुत्व की विचारधारा पूरी तरह स्त्री विरोधी और पुरुषसत्ता की कट्टर पोषक है | समाज में घृणा, तनाव और हिसा की मार सबसे ज्यादा महिलाओं को झेलनी पड़ती है | उनका घर से बाहर निकलना बंद हो जाता है | इसलिए साम्प्रदायिक फासीवाद का पुरजोर विरोध करना हम महिलाओं की  सर्वोच्च जिम्मेदारी है |

मोदी सरकार में महिलाओं के खिलाफ अन्याय-अत्याचार में बेतहासा वृद्धी हुई है | राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट और महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा की घटनाओं में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के रवैये से साबित होता है कि मोदी सरकार पूरी तरह महिला विरोधी है | एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार मोदी शासन में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराध के कुल सैतीस लाख चार हज़ार एक सौ चौवन मामले दर्ज किए गए जिसमें दो लाख निन्यानबे हज़ार पांच सौ उन्नीस बलात्कार की घटनाएं हैं | दलित और आदिवासी बच्चियों और महिलाओं के मानव तस्करी के भी हज़ारों मामले मोदीराज में दर्ज किए गए हैं |

भाजपा नेताओं के द्वारा महिलाओं के यौन शोषण के अनेक मामले उजागर हुए हैं | कई मामले तो ऐसे हैं जिसके चलते दुनिया भर में हमारे देश को बदनामी और  शर्मिंदगी झेलनी पडी है | 'बेटी बचाओ बेटी पढाओ' के नारे पर करोड़ों रूपए खर्च कर अपना चेहरा चमकाने की कोशिश करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इन घटनाओं में कुटिल चुप्पी ने उनके असली चेहरे को उजागर किया है | 

जून 2017 में उत्तर प्रदेश के उन्नाव में भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने  सत्रह वर्ष की एक लड़की के साथ बलात्कार किया | विधायक की दबंगई का  पुलिस पर भी प्रभाव था | इस मामले में पीड़िता की जलकर संदिग्ध मौत हो गई और पीड़िता के पिता की भी न्यायिक हिरासत में मौत हो गई |
जनवरी 2018 में जम्मू कश्मीर के कठुआ में मुस्लिम समुदाय की एक आठ साल की बच्ची का अपहरण कर एक मंदिर में बंधक बनाकर छह पुरुषों और एक किशोर लडके के द्वारा सामूहिक बलात्कार कर उसकी ह्त्या कर दी गई थी  | बलात्कारियों की रिहाई के लिए हिन्दू एकता मंच की ओर से प्रदर्शन किए गए जिसमें भाजपा के दो तत्कालीन मंत्री और कठुआ के भाजपा विधायक भी शामिल थे | 
सितम्बर 2020 में उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में एक 19 वर्षीया दलित लड़की का सामूहिक बलात्कार और ह्त्या सरकार संरक्षक दबंगों के द्वारा की गई | घटना के पन्द्रह दिनों बाद पीड़िता की मौत हुई | उसने अपने बयान में बलात्कार का आरोप लगाया था | लेकिन पुलिस ने बिना परिजनों को सूचना दिए उसकी लाश को जला दिया और पूरे मामले को रफा- दफा कर दिया |
उत्तर प्रदेश से भाजपा के दबंग सांसद ब्रिजभूषण शरण सिंह के खिलाफ देश का नाम रौशन करने वाली गोल्ड मेडलिस्ट सात महिला पहलवानों जिसमें एक नाबालिग भी है , ने यौन शोषण का आरोप लगाया और दिल्ली के जंतर-मंतर पर इन्साफ के लिए महीनों धरने पर बैठी रहीं, पूरा देश उनके साथ खडा रहा लेकिन न्याय मिलने की जगह उलटा महिला खिलाड़ियों को पुलिसिया दमन का सामना करना पडा और आरोपी सांसद बेख़ौफ़ घूम रहा है |
2002 में गुजरात दंगे के दरम्यान  11 लोगों ने बिलकिस बानो के साथ बलात्कार किया और उसके परिवार के सात लोगों की ह्त्या कर दी गई | सभी बलात्कारियों को सुप्रीम कोर्ट से आजीवन कारावास की सजा दी गई | भाजपा सरकार ने जेल में  सदाचार बरतने के नाम पर शेष अवधि की सजा माफ़ कर इन बलात्कारियों को अवैध तरीके से रिहा कर दिया | विश्व हिन्दू परिषद् ने यह कह कर कि ये सभी  'ब्राह्मण देवता' हैं माला पहनाकर, आरती उतार कर सभी अपराधियों का स्वागत किया | प्रधानमंत्री चुप्पी साधे रहे | सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के फैसले को रद्द कर पुनः बलात्कारियों को वापस जेल भेज दिया | 
नवंबर 2023 को आईआईटी-बीएचयू (उप्र) परिसर में बाईस वर्षीया बी.टेक की एक छात्रा के साथ करमार बाबा मन्दिर के निकट भाजपा के तीन पदाधिकारियों ने बलात्कार किया | दो महीने तक लगातार छात्राओं व छात्रों के द्वारा आन्दोलन चलाने के बाद उन तथाकथित भगोड़ों की गिरफ्तारी हुई |

मणिपुर में पिछले नौ महीने से भाजपा सरकार के संरक्षण में कुकी आदिवासी महिलाओं के खिलाफ हिंसा, छेड़खानी, नंगा घुमाने और बलात्कार की घटनाएं जारी हैं | गत वर्ष मई माह में लगभग हजार की संख्या में पुरुषों hiद्वारा तीन कुकी आदिवासी महिलाओं को नंगा कर खुलेआम सड़कों पर घुमाते, छेड़खानी करते हुए और अंत में उनके साथ बलात्कार कर ह्त्या कर दी गई | इस मामले को दबा दिया गया था | लेकिन दो महीने बाद गत जुलाई में उसका एक वीडियो सोसल मीडिया पर वायरल हुआ, तो देश और दुनिया में सब जगह इसका जमकर विरोध हुआ | सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को चेतावनी दी | प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सीधे हस्तक्षेप और वक्तव्य की मांग की गई लेकिन वे अनसुना करते हुए चुप्पी साधे रहे |

अपनी शिष्या के साथ बलात्कार की सजा भुगत रहे आशाराम बापू और गुरमीत राम रहीम आदि बाबाओं से भी मोदी जी और भाजपा नेताओं के निकट संबंध जगजाहिर है। गुरमीत राम रहीम को तो चार वर्षों में नौ बार लंबी अवधि के लिए पैरोल पर छोड़ा गया ।

उक्त कुछेक घटनाओं से साफ़ है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी से लेकर राज्य की भाजपा सरकारें और भाजपा के नेतागण सभी का रूख महिलाओं के प्रति अपमानजनक, असंवेदनशील और पाखंडी है | 

लोकसभा और विधान सभाओं में महिला आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा के झांसे से हम महिलाओं को सावधान रहने की जरुरत है | महिलाओं के लिए संसद और विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण से संबंधित विधेयक पारित कर ठंढे बस्ते में डाल दिया गया है | एक तो पिछड़े समुदाय की महिलाओं के सवालों को नजरंदाज कर दिया गया और दूसरा इसे आगामी चुनावों से लागू न कर भविष्य की अनिश्चितता में ठेल दिया गया है |   

रोजगार के क्षेत्र में भी महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है | कामकाजी उम्र 15 से 64 आयु की महिलाओं की कुल आबादी 450 मिलियन है | 90 प्रतिशत महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं | आवधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022-23 के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी मात्र 30.5 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में मात्र  20.2 प्रतिशत है | खेती में महिलाओं की भागीदारी लगभग 60 प्रतिशत है | ऑक्सफेम इंडिया की 'इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022 के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में महिलाएं 100 प्रतिशत और शहरी क्षेत्र में 98 प्रतिशत रोजगार संबंधी भेदभाव की शिकार हैं | सामान योग्यता रखने के बावजूद महिलाओं के साथ भेदभाव बरता जाता है | सामान वेतन और क्षमतानुसार महिलाओं को रोजगार देने का सरकारी दावा पूरी तरह खोखला साबित हुआ है | रोजगार के क्षेत्र में महिलाएं हर स्तर पर जेंडर भेदभाव, शोषण और पुरूष वर्चस्व का सामन कर रही हैं | कम मजदूरी/वेतन, बेगारी, नियमित काम का अभाव और यौन उत्पीडन  से मुक्ति के लिए कामकाजी महिलाओं का संघर्ष आज भी जारी है | 

बिहार में कुल एक लाख चौदह हजार आंगनवाडी केन्द्रों पर सेविका और सहायिका के रूप में दो लाख पन्द्रह हजार महिलाएं कार्यरत हैं | सरकार इन्हें न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम मानदेय देती है | समुचित सुविधा और समय पर राशि भी  मुहैया नहीं कराती है | नतीजा महिलाओं को डरा धमका कर काम लिया जाता है और राशि आबंटन में भी लूट जारी है |
एक दूसरा क्षेत्र जहां बड़े पैमाने पर महिलाएं भागीदार हैं वह है स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) | देशभर में लागू इस योजना के तहत बिहार में कुल एसएचजी की संख्या दस लाख तीन हज़ार दो सौ पैतालीस है जिसके तहत एक करोड़ सोलह लाख तेरह हज़ार चार सौ तिरपन महिलाएं जुडी हुई हैं | इसमें ज्यादातर पिछड़ी, दलित और आदिवासी महिलाएं हैं जो सीमान्त किसान, मजदूर और गरीब तबके से आती हैं | इस योजना का उद्धेश्य सदस्य महिलाओं को जरुरत पड़ने पर सही समय पर छोटे-छोटे ऋण मुहैया कराना औए जीविका का आधार खडा करने में उनकी मदद करना है | लेकिन बैंकों के नकारात्मक रवैये, सरकारी विभागों की आनाकानी और महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह के कारण गरीब महिलाओं की गाढ़ी कमाई का करोड़ों रुपया जो बैंकों में जमा होता है उसका आधा भी उन्हें जरुरत पड़ने पर ऋण के रूप में नहीं मिलता है | इसका मतलब है कि गरीब महिलाओं की कमाई का पैसा भी सरकार बैकों के माध्यम से दूह कर अन्य क्षेत्रों में लगा  रही है |

जल, जंगल,जमीन पर हकदारी का सवाल महिलाओं के वजूद से जुड़ा है | आज महिलाएं बड़े पैमाने पर खेती कर रही हैं | किसान आन्दोलन में महिला किसानों की सक्रिय भागीदारी के चलते मोदी सरकार का दमन उनपर भी जारी है | लेकिन महिलाएं जमीन के मालिकाना हक से वंचित हैं | भूमिहीन परिवारों में सबसे ज्यादा आबादी दलितों, अतिपिछड़ों और पिछड़े लोगों की है | वासभूमि/जमीन का परचा के अभाव में महिलाओं के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना बेकार साबित हुई  है |  

मोदी सरकार की नई राष्ट्रिय शिक्षा नीति स्त्री विरोधी है | इसके के तहत गाँव /शहर के तथाकथित अक्षम स्कूलों को ख़त्म किया जा रहा है अथवा दूसरे स्कूल के साथ उसे मिला दिया जा रहा है | स्कूलों के बंद होने या स्थान परिवर्तन का सबसे ज्यादा खामियाजा छात्राओं को भुगतना पडेगा | मंहगी शिक्षा की मार भी सबसे ज्यादा लड़कियों पर पड़ती है | पाठ्यक्रम में भी इस तरह से बदलाव किये जा रहे हैं जिसमें जेंडर समानता के मूल्यों, तथ्यों, तर्कों, वैज्ञानिकता और विवेक की जगह आस्था, धर्म, परंपरा, संस्कृति के नाम पर प्रतिगामी और साम्प्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा देने वालों पाठों का समावेश किया जा रहा है |

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने बहुत जोर-शोर से प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की घोषणा की | गरीब महिलाओं को ऐसा संदेश दिया गया कि मोदी सरकार मुफ्त में रसोई गैस मुहैया करा रही है | जबकि सच्चाई यह है कि गैस सिलिंडर और चुल्हा कर्जा पर दिया गया है जिसका महीनावार भुगतान करना है | अब स्थिति यह है कि गरीब महिलाओं के पास इतना रुपया कहाँ है कि कर्जा चुकाएं और गैस खरीदें | नतीजा लोग परंपरागत रसोई इधन का प्रयोग करने पर मजबूर हैं | महिलाएं ठगा महसूस कर रही हैं | इस योजना के पीछे सिलिंडर और गैस चुल्हा  कंपनियों/व्यापारियों से अरबों की कमीशनखोरी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है |

स्वच्छ भारत के तहत शौचालय योजना का भी खूब ढिंढोरा पीटा गया कि महिलाओं की गरिमा की प्रतिष्ठा के लिए यह योजना लागू की गई है | यह योजना भी दलाली, लूट-खसोट और फर्जीवाड़े की भेंट चढ़ गई | जिनके पास रहने को जमीन नहीं है तथा जो बहुत कम जमीन पर बमुश्किल बसे हैं उनके लिए यह योजना बेमानी है | शौचालय निर्माण की आबंटित राशि भी अपर्याप्त है | पहले से बने एक ही शौचालय को बार-बार दिखा कर राशि लूटी जा रही है | सामुदायिक शौचालय की योजना भी पूरी तरह विफल है | कागजी तौर पर 'खुले में शौच मुक्त गाँव' घोषित किये गए हैं |

महिला स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी मोदी सरकार पूरी तरह विफल है | पोषण अभियान की विफलता का प्रमाण तो यही है कि महिलाओं और बच्चियों में खून के कमी की समस्याएँ बढ़ी हैं | ग्रामीण इलाकों स्वास्थ्य केन्द्रों की दुर्दशा में कोई सुधार नहीं हुआ है | दवाएं बहुत मंहगी हुई हैं और सरकारी अस्पतालों की भी स्थिति बदतर है |

सच यह है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार महिलाओं से संबंधित सभी मोर्चों पर विफल है | इसलिए आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को हर हाल में हराना सभी महिलाओं और महिला समानता व अधिकारों के पक्षधर लोगों का सबसे बड़ा कार्यभार है |
हम महिलाओं की अपील है कि आगामी लोकसभा चुनाव में इंडिया/महागठबंधन के उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिए सभी अपने-अपने स्तर से सक्रिय हस्तक्षेप करें |

निवेदक – लोकतांत्रिक जन पहल बिहार

किसानों की समर्थन मूल्य की मांग पर

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*मैं दूध खरीदता हूँ..*

भुगतान करता हूँ, दूधवाले का एहसान नही लेता। कपड़े खरीदता हूँ, भुगतान करता हूँ, कपड़े वाले का एहसान नही लेता। कार खरीदता हूँ, भुगतान करता हूँ, कारवाले का एहसान नही लेता.. 

तो जब अनाज खरीदता हूँ, पेमेंट करता हूँ, अनाज वाले का एहसान नही लेता। 

क्या ही सुंदर तर्क है..!!
पर इसके नीचे झोल है..
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किसानों की समर्थन मूल्य की मांग पर, बड़े बड़े चैनल, देशभक्त और ठगबाज हैंडल इस तरह की किससेबाजी कर रहे हैं। 

लेकिन इनके बीच बड़ा फर्क है.. 

कार के निर्यात पर सरकार रोक नही लगाती, दूध PDS में नही बेचती, कपड़े सब्सिडी पर नही मिलता। इनके मूल्य नियंत्रित करने में सरकारों की भूमिका नही होती।

अनाज, खाद्य पदार्थ सबसे अलग है!!

जीवन का आधार, और आम आदमी के खर्च की सबसे बड़ा हिस्सा। दरअसल जैसे जैसे आपकी औकात कम होती जाती है, भोजन का खर्च बढ़ता जाता है। 

याने आप 50 हजार कमाते है, भोजन का खर्च 20 हजार-40% है। आप लाख रुपये कमाते है, पर भोजन खर्च अब भी 20-22 हजार- याने  20-22 % है। 

लेकिन आप कुल जमा 20 हजार कमाते है, तो भोजन खर्च, कमाई का 60-70% तक हो सकता है। 

याने गरीब सबसे ज्यादा हिस्सा भोजन पर खर्च करता है। 

और गरीब ही देश मे ज्यादा हैं। वही वोट बैंक का सबसे बड़ा हिस्सा है। 

ऐसे में भोजन की कीमत कम रखना, सरकार की मजबूरी है। वह कार, दूध, कपड़े में दखल नही देती, मगर भोजन पर कड़ा नियंत्रण रखती है। 
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इसलिए कृषि लागतों में सब्सिडी देती है, प्रोडक्शन की कीमतों को नियंत्रण रखती है।

अगर विदेश में अच्छे दाम मिल रहे हों, तो निर्यात रोक देती है कि कही लोकल दाम न बढ़ जाये। हमेशा खुद खरीद कर भंडार करती है, ताकि अचानक दाम न चढ़ जायें। 

लेकिन खरीदकर रख लिया, तो इस भंडार का करे क्या, अब इसे ठिकाने लगाने के लिए मुफ्त बांटने का ड्रामा होता है।

एक सरकार 24 करोड़ लोगों को बांटने का दावा करती थी, दूसरी 80 करोड़ को.. पर ये पात्रता है। असल मे राशन लेने वालो की सँख्या इसका 30-40% से अधिक नहीं होती।
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कुल मिलाकर, राजनीति के खेल का सबसे बड़ा प्रयास यह, की अनाज की कीमत दबी रहे। यह खेल, हर सरकार खेलती है। 

इसलिए किसानों को, उचित प्राइज पाने के लिए सरकार सबसे बड़ा रोड़ा बन जाती है। किसी और प्रोडक्ट की बेच खरीद में बाजार सामने होता है। अनाज की बेच खरीद में सरकार सामने होती है। 

अपनी पुलिस, बैरिकेड, पैलेट गन, वाटर कैनन, कीलों, आंसू गैस के गोलों के साथ..
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एक वक्त लागतों पर सब्सिडी अच्छी खासी थी। जिसे सरकार ने मुफ्तखोरी बताकर घटा दिया। बदले में यूरिया पर नीम कोटिंग करवा दी। 

पर नीम कोटिंग से पेट नही भरता साहब। अब कीमत बढाने की बरसों से मांग कर रहे है, तो कभी नए नए कानून दिए जाते है, कभी खालिस्तानी का तमगा, कभी लाठी गोली.. 

फसल का मूल्य भर नही दिया जाता। 
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तर्क यह भी की इतना मूल्य कहाँ से देंगे, पैसा कहां से आएगा?? 

सच है, पचास घरानों को 12 लाख करोड़ का तोहफा देने में कर्जा 205 लाख करोड़ हो गया है, अब किसान के लिए पैसा कहां से लायें.. !!

लेकिन एक मिनट!! 

सारा अनाज तो सरकार नही खरीदती। एक फ़्रेक्शन ही खरीदा जाता है। MSP का मलतब तो सिर्फ यह होता है कि तय करती है, कि कोई व्यापारी, इससे कम दाम पर खरीदे, तो अपराध माना जायेगा... 

-हंय!! क्या बात करते हो मनीष?? ऐसा तो मुझे किसी ने नही बताया। 

- तूने पूछा कहां पगले। सुनता ही कहाँ है।  तू तो देशभक्ति, खलिस्तानी, पाकिस्तानी वाली बहस करने लगता है। 

- खैर। इसके बावजूद भी तो काफी बड़ी मात्रा में सरकार अनाज खरीदती ही है न.. उसकी कीमत देने से क्या खजाना खाली न हो जाएगा?? 
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मितरों, सारा अनाज खरीदकर, आखिर मोदी जी और सीतारमन को तो खाना नही है। उसे वे आगे बेच ही देंगे। 

40 में खरीदेंगे, 45 में बेच देंगे.. उल्टा 5 रुपये कमा लेंगे। ऐसा ही तो होता है न..?? 

चलो, 40 में खरीदकर, 30 में बेचेंगे- सब्सिडी देंगे। तो महज 10 रुपये का घाटा होगा। पूरा 40 गिनाना ठगबाजी है। 

और घाटा इतना बड़ा नही, की सरकार सह न सके। 
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नहीं, ऐसा नही होता। घाटा सचमुच पूरा होगा। क्योकि उसे मुफ्त बांटा जाता है, वोट की खातिर.. 

"मैं 80 करोड़ को मुफ्त राशन देता हूँ, उस दावे की खातिर .." 

तो समस्या किसान नही, तेरे नेता की नीति है बालक। 
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और दूधवाला, कपडेवाला, कार वाला, तेरे नेता की नीति के कारण सुसाइड नही करता। क्योकि जब तुम दूध खरीदते हो, भुगतान करते हो, तो दूधवाले का एहसान नही लेते। 

कपड़े वाले का  कारवाले का एहसान नही लेते.. 
पर जब अनाज खरीदते हो, तो किसान का एहसान लेते हो। 

खा, पीकर, डकार लेकर मोबाइल खोलते हो, किसान को गाली देते हो। वो फांसी पर लटक जाता है। इसके अपराधी तुम हो। 
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तुम अहसानफरामोश हो।


साभार Reborn Manish ji

Pratibha Ak Diary

Rohit Sharma Pratibha Ak Diary:
किसान आंदोलन को जालियांवाला बाग की तरह खून में डूबो दिया है मोदी सत्ता ने - https://www.pratibhaekdiary.com/modi-government-has-drowned-the-farmer-movement-in-blood-like-jallianwala-bagh/

महान वैज्ञानिक, साहसी क्रान्तिकारी जर्दानो ब्रूनो - https://www.pratibhaekdiary.com/great-scientist-courageous-revolutionary-jordano-bruno/

क्या माओवादियों को हथियार विदेशों या चीन से मिलता है ? - https://www.pratibhaekdiary.com/do-maoists-get-weapons-from-foreign-countries-or-china/

बीजेपी के "कुबेर ख़ज़ाने" का बड़ा खुलासा!*




*बीजेपी के "कुबेर ख़ज़ाने" का बड़ा खुलासा!*

भाजपा के पास जो फंड है इसका ऑफिशियल आंकडा़ है अन ऑफिशियल आंकडा़ तो हजारो करोड़ का है 
                                                        
                                                              मार्च 2023 तक दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों का बैंक बैलेंस :                      
                                                   बीजेपी - 3,596 करोड़ 
कांग्रेस - 162 करोड़

यहां पर यह सोचने की बात है कि देश की केंद्रीय तथा अनेक प्रदेशों की राजसत्ता पर लंबे समय तक काबिज रही कांग्रेस के खाते में सिर्फ 162 करोड़ और उसकी अपेक्षा बहुत कम वक्त तक शासन सत्ता चलाने वाली भाजपा के बैंक खाते में 3,596 करोड़ की भारी भरकर राशि जमा होने का मतलब क्या है?

भाजपा के पास कांग्रेस के 22.20 गुना अधिक रकम इकट्ठा होने में राजसत्ता का दुरुपयोग के अलावा और क्या हो सकता है? जिस तरह देश की सम्पत्तियां औने-पौने दामों पर दो-तीन पूंजीपतियों को लुटाने के अलावा बैंकों से भारी कर्ज़ा दिलवाकर बाद में उसे खत्म कर देने वाले खेल से इतनी विपुल राशि वसूल लेना कोई बड़ी बात नहीं है। 

यही नहीं इलेक्टोरल बॉन्ड्स और पीएम केअर फंड जैसे अपारदर्शी चोर रास्तों से भी वसूली की ही जा सकती है।

Saturday, 10 February 2024

धार्मिक

ओशो के एक मित्र ने ओशो से कहा कि "मैं आपको अपनी माँ से मिलवाना चाहता हूं क्योंकि मेरी माँ बहुत धार्मिक है".. ओशो ने कहा "ठीक है, मैं मिलता हूं आपकी माँ से क्योंकि मुझे वैसे भी धार्मिक लोगों से मिलना पसंद है"

ओशो जब अपने मित्र की माँ से मिले तो मित्र की माँ ने ओशो से पूछा कि"तुम किताबें बहुत पढ़ते हो, आजकल क्या पढ़ रहे हो"

ओशो ने कहा "आजकल मैं कुरान पढ़ रहा हूं"

ये सुनकर मित्र की माँ नाराज़ हो गई.. कहने लगी कि तुम कैसे हिंदू हो जो क़ुरान पढ़ते हो, तुम्हें अपने धर्म की किताबें पढ़नी चाहिए"

बाद में ओशो ने अपने मित्र से कहा कि"तुम कहते थे तुम्हारी माँ धार्मिक है मगर वो धार्मिक नहीं "सांप्रदायिक" है"

बड़े सारे लोग आजकल आपको मिलेंगे जो स्वयं को धार्मिक कहते हैं.. मगर वो दरअसल धार्मिक होते ही नहीं हैं.. सांप्रदायिक होते हैं.. एक बड़ी बारीक लाइन है "धार्मिक" और "सांप्रदायिक" होने के बीच की.. इस का हमेशा ध्यान रखिए

~सिद्धार्थ ताबिश

Thursday, 8 February 2024

जिनके हिस्से में इंसान होना नहीं

जिनके हिस्से में इंसान होना नहीं
जिनके हिस्से में ज़मीन, आसमान 
हवा, पानी, रौशनी नहीं

जिनके लिए कहीं, 
मनुष्यता नहीं, निष्पक्षता नहीं 
जिनके लिए,
किसी भी टेबल पर न्याय नहीं
जिनके इर्द-गिर्द सिर्फ बारूद और धुंआ है

जिनका कोई निश्चित भविष्य नहीं
जिनके पास सब्ज़ा नहीं
जिनके पास रोटी नहीं
जिनके पास ज़िंदा आदमीयों से ज़्यादा
मुर्दे आदमीयों का ढेर लगा हुआ है

वो किसके साथ, और कैसे सेलिब्रेट करें ?
रोज़ डे, प्रपोज़ डे चॉकलेट डे,
हग डे, किस डे, फादर डे,मदर डे
डॉटर डे, इंडीपेंडेंस डे
उनके हिस्से में हमेशा के लिए
लिख दिया गया है स्लेप डे !!

- मेहजबीं

Saturday, 3 February 2024

Dust, Dreams, and Despair: The Plight of Bihar's Construction Workers


The sun beat down mercilessly on Raju's calloused back as he hoisted yet another brick onto the rising skeleton of a high-rise apartment complex in Gurgaon. Dust swirled around him, painting his sweat-streaked face a grimy grey. He adjusted the tattered cloth tied across his head, a meager shield against the relentless sun. This was his life, a life he shared with countless others who had migrated from Bihar, chasing dreams built on mortar and steel.

Raju's dream was simple - a decent wage that would allow him to send his children to school, a roof over their heads that didn't leak during the monsoon, and maybe, just maybe, enough to build a small brick and mud house back in his village. Reality, however, was a harsh taskmaster.

The promised wages, barely enough to survive in the city's inflated prices, often arrived late or were docked for "mistakes." The government schemes, touted as lifelines for migrant workers, were mired in bureaucratic red tape, their benefits rarely reaching those who needed them most. The "accommodation," a cramped, shared room with thin walls and leaking roofs, offered little respite from the city's harshness.

Raju wasn't alone. He shared his cramped room with four other men, each carrying their own burdens. There was Ramu, whose wife toiled in the fields back in Bihar, her health failing under the relentless sun. There was Shyam, whose children dreamt of a life beyond the construction site, a dream he feared he couldn't afford. And there was Ravi, young and restless, his anger simmering at the injustices they faced.

One evening, as they sat huddled around a flickering kerosene lamp, sharing meager meals and watered-down chai, Ravi's anger boiled over. "Why do we have to live like this?" he cried, his voice thick with frustration. "We build these grand buildings, yet we live in shambles. We work our bones bare, yet we can't even afford to send our children to school!"

Raju sighed, the weight of his own dreams and disappointments pressing down on him. He knew Ravi's anger was justified. Yet, he also knew that shouting into the void wouldn't change their reality. He had to find a way, not just for himself, but for the countless others who shared their fate.

The next morning, Raju decided to take action. He started small, organizing his fellow workers, sharing information about their rights, and demanding fair wages and timely payments. He connected with local NGOs, seeking help navigating the labyrinthine welfare schemes. Slowly, a flicker of hope began to rekindle in their eyes.

Their fight was far from over. There were days of frustration, setbacks, and moments when despair threatened to engulf them. But they persevered, their collective voice growing stronger, their demands resonating with others facing similar struggles.

The story of Raju and his fellow construction workers is not just about hardship, but also about resilience and the fight for dignity. It's a story that needs to be heard, a story that reminds us of the human cost behind the gleaming facades of our cities. As we admire the architectural marvels rising from the ground, let us not forget the hands that build them, and the dreams that are often sacrificed in the process. Perhaps then, we can work towards creating a system where dreams and dust coexist, not in conflict, but in harmony.

धूल, सपने और निराशा: बिहार के निर्माण श्रमिकों की दुर्दशा

धूल, सपने और निराशा: बिहार के निर्माण श्रमिकों की दुर्दशा

सूरज ने राजू की कठोर पीठ पर बेरहमी से प्रहार किया और उसने गुड़गांव में एक ऊंचे अपार्टमेंट परिसर के उभरते ढांचे पर एक और ईंट फहरा दी। धूल उसके चारों ओर घूम रही थी, जिससे उसका पसीने से लथपथ चेहरा गंदा धूसर हो गया था। उसने अपने सिर पर बंधे फटे कपड़े को ठीक किया, जो लगातार सूरज की तेज़ रोशनी से बचने के लिए एक मामूली ढाल थी। यह उनका जीवन था, एक ऐसा जीवन जिसे उन्होंने अनगिनत अन्य लोगों के साथ साझा किया था जो मोर्टार और स्टील पर बने सपनों का पीछा करते हुए बिहार से चले गए थे ।

राजू का सपना सरल था - एक अच्छी मज़दूरी जिससे वह अपने बच्चों को स्कूल भेज सके, उनके सिर पर एक छत हो जो मानसून के दौरान टपकती न हो, और शायद, शायद, एक छोटा सा ईंट और मिट्टी का घर बनाने के लिए पर्याप्त हो। उसका गाँव. हालाँकि, वास्तविकता एक कठोर कार्यपालक थी।

वादा किया गया वेतन, शहर की बढ़ी हुई कीमतों में जीवित रहने के लिए मुश्किल से पर्याप्त था, अक्सर देर से आता था या "गलतियों " के लिए काट दिया जाता था। सरकारी योजनाएं, जिन्हें प्रवासी श्रमिकों के लिए जीवन रेखा कहा जाता था, नौकरशाही लालफीताशाही में फंस गईं, उनका लाभ शायद ही उन लोगों तक पहुंच रहा था जिन्हें इसकी जरूरत थी। उन्हें सबसे ज्यादा. "आवास", पतली दीवारों और टपकती छतों वाला एक तंग, साझा कमरा, शहर की कठोरता से थोड़ी राहत देता था।

राजू अकेला नहीं था. वह अपने तंग कमरे में चार अन्य लोगों के साथ रहता था, जिनमें से प्रत्येक अपना-अपना बोझ उठाता था। रामू था, जिसकी पत्नी बिहार में खेतों में मेहनत करती थी, लेकिन लगातार धूप में उसका स्वास्थ्य खराब हो रहा था। वहाँ श्याम था, जिसके बच्चे निर्माण स्थल से परे जीवन का सपना देखते थे, एक ऐसा सपना जिसके बारे में उसे डर था कि वह उसे पूरा नहीं कर पाएगा। और वहाँ रवि था, युवा और बेचैन, अपने साथ हुए अन्याय पर उसका गुस्सा उबल रहा था।

एक शाम, जब वे टिमटिमाते मिट्टी के तेल के दीपक के चारों ओर इकट्ठे होकर बैठे थे, कम भोजन कर रहे थे और हल्की चाय पी रहे थे, रवि का गुस्सा उबल पड़ा। "हमें इस तरह क्यों रहना है? " वह रोया, उसकी आवाज़ निराशा से मोटी हो गई। "हम ये भव्य इमारतें बनाते हैं, फिर भी हम जर्जर हालत में रहते हैं। हम अपनी हड्डियाँ नंगे करके काम करते हैं, फिर भी हम अपने बच्चों को स्कूल भेजने का खर्च भी नहीं उठा सकते हैं! "

राजू ने आह भरी, उसके अपने सपनों और निराशाओं का बोझ उस पर दबाव डाल रहा था। वह जानता था कि रवि का गुस्सा जायज़ था। फिर भी, वह यह भी जानता था कि शून्य में चिल्लाने से उनकी वास्तविकता नहीं बदलेगी। उन्हें एक रास्ता खोजना था, न केवल अपने लिए, बल्कि उन अनगिनत अन्य लोगों के लिए भी, जिन्होंने अपना भाग्य साझा किया था।

अगली सुबह, राजू ने कार्रवाई करने का फैसला किया। उन्होंने छोटी शुरुआत की, अपने साथी श्रमिकों को संगठित किया, उनके अधिकारों के बारे में जानकारी साझा की और उचित वेतन और समय पर भुगतान की मांग की। वह स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े और जटिल कल्याण योजनाओं को संचालित करने में मदद मांगी। धीरे-धीरे उनकी आँखों में आशा की किरण फिर से जगमगाने लगी।

उनकी लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई थी. हताशा, असफलताओं और ऐसे क्षण आए जब निराशा ने उन्हें घेर लिया। लेकिन वे डटे रहे, उनकी सामूहिक आवाज मजबूत होती गई, उनकी मांगें समान संघर्षों का सामना कर रहे अन्य लोगों के साथ गूंजती रहीं।

राजू और उसके साथी निर्माण श्रमिकों की कहानी सिर्फ कठिनाई के बारे में नहीं है, बल्कि लचीलेपन और सम्मान की लड़ाई के बारे में भी है। यह एक ऐसी कहानी है जिसे सुनने की ज़रूरत है, एक ऐसी कहानी जो हमें हमारे शहरों की चमचमाती इमारतों के पीछे की मानवीय लागत की याद दिलाती है। जब हम ज़मीन से उभरते वास्तुशिल्प चमत्कारों की प्रशंसा करते हैं, तो हमें उन हाथों को नहीं भूलना चाहिए जो उन्हें बनाते हैं, और उन सपनों को भी नहीं भूलते हैं जो अक्सर इस प्रक्रिया में बलिदान हो जाते हैं। शायद तब, हम एक ऐसी प्रणाली बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं जहां सपने और धूल सह-अस्तित्व में हों, संघर्ष में नहीं, बल्कि सद्भाव में।

१९५३ में स्टालिन की शव यात्रा पर उमड़ा सैलाब 

*On this day in 1953, a sea of humanity thronged the streets for Stalin's funeral procession.* Joseph Stalin, the Soviet Union's fea...